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दिव्य ऊर्जावान ईश्वर

 

दिव्य ऊर्जावान ईश्वर

 

ओ३म् इ॒षे त्वो॒र्जे त्वा॑ वा॒यव॑ स्थ दे॒वो वः॑ सवि॒ता प्रार्प॑यतु॒ श्रेष्ठ॑तमाय॒ कर्मण॒ऽआप्या॑यध्वमघ्नया॒ऽइन्द्रा॑य भा॒गम्प्र॒जाव॑तीरनमी॒वाऽय॒क्ष्मा मा व॑स्तेनऽईशत॒ माघꣳश सो ध्रु॒वाऽअ॒स्मिन॒ गोप॑तौ स्यात ब॒ह्वीर्यज॑मानस्य प॒शून्पा॒हि।। १।।

 

        भावार्थ - अन्नादि उत्तम - उत्तम पदार्थों और विज्ञान की इच्छा करने वाले, मनुष्य जो इस प्रकार के गुणों को धारण करने वाले हैं, और इसके अतिरिक्त पराक्रम ऊर्जा अर्थात जो उत्तम रस की प्राप्ति करने वाले इच्छुक जन हैं, वह सब कृयाओं को सिद्ध करने के लिए स्पर्श गुण स्वभाव वाले अपने प्राण अन्तःकरण और इन्द्रियां को स्थित करने वाली शक्ति से सब सुखों को देने वाले और सब प्रकार कि विद्या को प्रसिद्ध करने वाले अर्थात प्रचार करने वाले और श्रेष्ठ पराक्रमयुक्त गुणों को देनेवाले मुझ परमेश्वर को हर प्रकार से आश्रय को लेकर सभी जन मिल कर प्रेम भाव से मेरा स्मरण करके हमारे दिशा निर्देश में अपनी जीवन की नैया को लेकर भवसागर रूपी संसार में मिल कर एक साथ उद्योग करके अपने जीवन लक्ष्य की सिद्धि को प्राप्त करो, क्योंकि परमेश्वर सभी जगत का उत्पत्ति करने वाला और सम्पूर्ण ऐश्वर्य युक्त होने से मानव समेत सभी प्राणियों के हर प्रकार की समस्या का समाधान करने वाला है। ऐसा जान कर तुम सब उसके साथ अपने आप को अच्छी तरह से संयुक्त करो, और अच्छी प्रकार अत्युत्तम श्रेष्ठ ऋती से अपने कर्मों का पालन करते हुए, करने योग्य सर्वोपकारक कार्य को करते हुए, जिससे इस जगत के सभी प्राणियों के कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो ऐसे यज्ञ रूपी कर्म को करते हुए। अपने जीवन का निर्वाह करो, क्योंकि यज्ञ के द्वारा हमारा संपूर्ण वायुमंडल शुद्धि को प्राप्त होता हैं, यहां पर कर्म करने लिए आलंकारिक भाव का उपयोग किया गया हैं जिसमें स्पष्ट रुप से यज्ञ के लिये कहा गया है इस प्रकार से कर्म में व्यापकता के साथ सभी के कल्याण की भावना को निहित किया गया है। इस प्रकार के कर्म से हर व्यक्ति के जीवन में शुद्धता, निर्मलता और पवित्रता के आचार विचार का संचार होता हैं। इस प्रकार के कर्म को करते हुए तुम सब अपने जीवन में सभी प्रकार की उन्नति को प्राप्त करो, और परम ऐश्वर्य कि प्राप्ति के लिए, अर्थात ऐश्वर्य दो प्रकार का है, एक सांसारिक ऐश्वर्य दूसरा पारमार्थिक ऐश्वर्य जब यहां पर परम ऐश्वर्य कि बात हो रही है, तो सिधा सा अर्थ परमेश्वर को उपलब्ध करने की तरफ संकेत किया जा रहा हैं क्योंकि सारे ऐश्वर्यों का मुख्य श्रोत वह परमेश्वर ही है। क्योंकि यह शाश्वत सत्य हैं कि हर मानव चेतना का यह जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह स्वयं के अधूरे भाग को पूर्ण करें और वह अधूरा भाग हैं मानव चेतना का परमेश्वर के साथ एकीकरण होने के बाद ही पूर्णता को उपलब्ध होता है। क्योंकि हम सब एक प्रकार से उस परमेश्वर की ही संतान या पुत्र रूप में हैं अर्थात हमारे अन्दर उसका आंशिक गुण विद्यमान है। जिस प्रकार से एक चिंगारी में आग का गुण होता हैं। क्योंकि वह हम सब के लिये उसी प्रकार से हैं जैसे सागर में डुबने वाले के लिए एक छोटा सा किसी लकड़ी का टुकड़ा भी उसके जान को बचाने में उसका सहायक होता है, और उसके सहारे से वह विशाल सागर को तर जाता हैं। अर्थात पार कर लेता जिसको अपने शक्ति से पार करने में समर्थ नहीं था, वह मात्र एक लकड़ी के टुकड़े के सहारे से पार करने में समर्थ हो जाता है। उसी प्रकार से हम परमेश्वर को जब अपना आधार बना लेते हैं, तो बड़ी से बड़ी विपत्ति और कठिनाइयों से भी पार हो जाते हैं। अर्थात हमारे जीवन में आने वाली भयानक रूप से हारी बीमारी आदि से उभर जाते हैं, जब लगता हैं कि अब अपना बचना असंभव हैं फिर भी हम उससे पार हो जाते हैं। क्योंकि जो मनुष्य अपना आधार परमेश्वर को बना कर संसार सागर की यात्रा करता हैं इससे सिर्फ उसका ही कल्याण नहीं होता हैं। जैसा कि पहले बताया गया कि जो यज्ञ रूपी कर्म को करता वह स्वयं तो सभी प्रकार की विपत्तियों और क्लेशों से मुक्त होता हैं और उसके परिवार या समाज में कभी कोई चोर, डाकू, व्यभिचारी, लंपट, पाखंडी, पापी, या अत्याचारी नहीं पैदा होता हैं। क्योंकि जिस प्रकार से अग्नि के साथ जो रहता हैं उसमें अग्नि का गुण स्वतः व्याप्त हो जाता हैं। उसी प्रकार से जो व्यक्ति परमेश्वर के करीब रहता हैं उसके जीवन का प्रभाव उनके चारों तरफ रहने वाले लोगों पर भी अवश्य पड़ता है जिसको सत्संग कहते है। जिस प्रकार से पृथ्वी सूर्य को अपना केन्द्र बना कर सदा उसके चारों तरफ भ्रमण करती हैं और उससे विशेष प्रकार की ऊर्जा को प्राप्त करके इस संसार के लिए विशेष रुप से भारत के लिए एक विशेष प्रकार का वातावरण तैयार करती हैं जिसमें सर्दी, गर्मी, बरसात, और वसंत ऋतुओं आकर सभी प्राणियों को आनंदित करती है। उसी प्रकार से जब साधक अपने जीवन का ध्रुव केन्द्र परमेश्वर को बना लेता है, तो उससे उसी प्रकार का कल्याण सभी प्राणियों का होता हैं जैसे पृथ्वी से सभी जीव जंतु का कल्याण होता हैं, और ऐसे मनुष्य के पास किसी वस्तु की कमी नहीं होती हैं परमेश्वर की अनुकंपा और अपने पुरुषार्थ से हर प्रकार के संसाधन उसकी सेवा में उपस्थित होते हैं और वह स्वयं परमेश्वर की सेवा में उपस्थित हो कर संपूर्ण संसार के कल्याण के लिए निरंतर कर्मशील बना रहता है। जिसको निष्काम कर्म कहते हैं अर्थात जिस प्रकार से कीचड़ में कमल रहता है मगर कभी वह कीचड़ में लिप्त नहीं होता हैं अर्थात वह संसार में निर्लिप्त होकर अपने जीवन के धर्म का वहन करता हैं।

 

         यह ईश्वर जो स्वयं सभी प्रकार की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष ऊर्जा का मुख्य श्रोत या अन्न रुप है, अन्न जिस प्रकार से हमारी शरीर को शक्ति ऊर्जा देता है, और हमारी भूख को शांत करता है। अर्थात हमारी शरीर को एक ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। जिससे हमारी शरीर अपना सारा कार्य करती है। हमारी शरीर जिस प्रकार की ऊर्जा की जरूरत पड़ती है, वह ऊर्जा सभी प्रकार के फलों फूलों और अन्न अर्थात अनाज में उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त कुछ लोग प्राणियों के शरीर से भी ऊर्जा प्राप्त किया करते हैं, और यह ऊर्जा ही हमारे शरीर में वीर्य के रुप में स्थिर होती है, जैसे किसी दूसरे प्राणियों की हत्या करके उसके शरीर के मांस को खाकर अपनी भूख को शांत करते हैं। और इस प्रकार से अपनी शरीर की भौतिक ऊर्जा की आवश्यकता की पूर्ति करते हैं, जिसमें कुछ जानवर और कुछ मनुष्य भी हैं। जिस प्रकार का भोज्य पदार्थ हम ग्रहण करते हैं वीर्य उसी प्रकार की वृत्तियों को धारण करता है। जैसा कि हम सब जानते हैं कि विज्ञान कहता हैं, कि सिर्फ प्राणी ही में जीवन नहीं हैं यद्यपि जीवन वृक्षों में भी विद्यमान हैं। और यह वृक्ष अपने भोजन को प्रकाश संश्लेषण के द्वारा स्वयं बनाते हैं, जिसकी वजह से ही यह स्वपोसी माने जाते है। और सर्वप्रथम जीवन के लिए जो प्रमुख ऊर्जा के श्रोत में उभर कर आये हैं वह पादप हैं। अर्थात वह पेड़ पौधे हैं। और इनको खाकर दूसरे प्राणी या जीव जो स्वयं अपना भोजन नहीं बना सकते हैं वह इन वृक्षों को खाते हैं और फिर उनको कोई और दूसरे जीव खाते हैं, इस तरह से यह सब एक दूसरे पर आश्रित हैं। उसमें एक मानव भी हैं, जो पर पोशी है। अर्थात जो अपना भोजन स्वयं नहीं बना सकता हैं। इस तरह से जो एक बात निखर कर आती है, वह यह है। कि सभी जीव ऊर्जा से ही बने हैं और ऊर्जा का उपयोग करके अपने जीवन का या अपने शरीर का विस्तार करते हैं। इसमें भी दो प्रकार के जीव होते हैं, पहले वह होते हैं जो पर पोसी होते हैं। अर्थात किसी दूसरे प्राणी को खा कर जीवित रहते हैं, और दूसरे वह होते हैं जो मृतजीवी होते हैं जो मृत जीवों को खा कर जीवित रहते है। इस प्रकार से यहां पर ऊर्जा एक प्रकार से पैदा होती है, और दूसरी तरफ ऊर्जा का पुर्नोत्पादन होता हैं। किसी दूसरे जीवों को द्वारा जैसे वैक्ट्रिया जो जीवों के शरीर का निर्वाण करती हैं, दूसरे वह जो फंजाई प्रजाती में होते हैं जो मृत जीवों को खाकर उन्हें फिर से प्राकृतिक पदार्थों में परिवर्तित कर देते हैं। इस प्रकार से हमने जाना की सर्व प्रथम जो जीवन का श्रोत हैं, वह ऊर्जा हैं जिससे सभी जीवों की शरीर निर्मित होती हैं। जिसमें सर्वप्रथम वृक्षों का नाम आता हैं, जो अपने जीवन को बनाये रखने और स्वयं को विकसित करने के लिए प्रकाश संश्लेषण करते हैं। इस प्रकार से सूर्य इन सब से पहले है, जो इनके लिए प्रकाश को उपलब्ध कराता है, जिसके कारण वृक्षों के पत्तों में एक प्रकार का हरित वर्ण नाम का पदार्थ होता है। जो सूर्य के प्रकाश को अपने अंदर सोख कर रखता हैं, और उन पत्तों से वृक्ष की जड़ों तक सूक्ष्म नाड़ियां होती जिन्हें बाहिकाएं कहते हैं, जो पृथ्वी से खनिज और लवण को खिच कर पत्तों तर पहुंचातीं हैं, जिससे वृक्ष का संपूर्ण भोजन तैयार हो जाता है। यहां पृथ्वी पर जो जीव के रुप में वृक्ष हैं यह सूर्य और पृथ्वी से अपने जीवन की शक्ति को सिधा - सिधा प्राप्त करते हैं। और इनसे फिर बाकी दूसरे प्राणी अपने जीवन की शक्ति या ऊर्जा को प्राप्त करते हैं। जिनमें मनुष्य भी आता हैं, क्योंकि वह भी इस जीवन चक्र की एक कड़ी है। जैसा कि वृक्ष सूर्य पर निर्भर हैं तो फिर प्रश्न उठता है कि सूर्य किस पर निर्भर हैं? यहां तक पृथ्वी भी सूर्य पर निर्भर करती हैं। और पृथ्वी पर चन्द्रमा निर्भर करता है। जैसा कि हम सब जानते हैं कि सूर्य की सात प्रकार कि किरणें होती हैं, उसी प्रकार से सात प्रकार की किरणें मानव आत्मा से भी निकलती हैं, और यह मानव आत्मा परमात्मा से प्रकट होती हैं, उसका ही एक अंश है। इसी प्रकार से जितने सूर्य, पृथ्वी, और चन्द्रमा के समान ग्रह उपग्रह तारें इत्यादि हैं वह सब परमेश्वर से शक्ति या ऊर्जा को ग्रहण करते है। इस लिये यजुर्वेद का प्रथम मंत्र यह कहता हैं कि वह परमेश्वर जो सभी का गुरु है वह अन्न के समान सभी प्रकार की ऊर्जाओं का मुख्य श्रोत या ऊर्जा का भण्डार है। दूसरी बात जो समझने योग्य है, यह बाहर से जो ऊर्जा मानव शरीर को प्राप्त होती है। वह उसके शरीर के निर्माण को करती है, इसके अतिरिक्त एक और ऊर्जा है जिससे आंतरिक आत्मा का विकास होता है, जिससे उसे स्वयं का ज्ञान होता है। कि वह इस शरीर से अलग है, और इसको जानने के बाद ही वह शरीर से मुक्त हो जाता है। जिसके कारण ही उसको बार - बार शरीर को धारण नहीं करना पड़ता है, जिसके कारण ही वह बार-बार जन्म मृत्यु के चक्कर से स्वतंत्र हो जाता है। इसके साथ शरीर के द्वारा उत्पन्न होने वाले कर्मफल के सिद्धांत से भी मुक्त हो जाता है, जहां पर दुःख सुख का भी आभास नहीं होता है वह एक प्रकार शाश्वत परमानंद को उपलब्ध कर लेता है।

 

      जिसने सर्वप्रथम विद्युत का रुप धारण किया, जो विद्युत दो प्रकार की है एक अंधेरे के समान हैं, और एक प्रकाश के समान हैं, जिस प्रकार से एक प्रकाश हमें जो चन्द्रमा से मिलता हैं वह शीतल होता है, और अंधेरे के समान है, जो मन का प्रतिबिंब करता है, और जो दूसरा सिधा सूर्य के द्वारा हम सब को मिलता है। या इस प्रकार से समझ सकते है, कि जो ऊर्जा हम सब अनाज या अपने हर प्रकार के भोज्य से प्राप्त करते हैं। वह अंधकार अज्ञान का विस्तार करने वाली है। अर्थात वह हमारे शरीर के विकास के लिए परम आवश्यक है। और जिस ऊर्जा को हम अपनी आत्मा से प्राप्त करते हैं, अपनी साधन स्वाध्याय और उपासना के द्वारा उससे जो ज्ञान रुपी प्रकाश मिलता है। उससे हम सब परमात्मा को देखने में समर्थ होते हैं। और अपने जीवन के परम लक्ष्य को उपलब्ध करने की तरफ निरंतर विकसित होते हैं। इस प्रकार से दो प्रकाश का विकास है, एक आत्मिक ज्ञान का विकास दूसरा अज्ञान रुपी शरीर का विकास होता हैं। और इन दोनों के पीछे दो प्रकार की ऊर्जायें कार्य करती हैं। यही दोनों एक जीवन रुप है, और एक मृत्यु रूप से है। जो मृत्यु रुप है वह प्राकृतिक भौतिक है जिसको तम कहते है, दूसरी जैविक है, जो जीव से जीव को मिलता हैं जिसको राजसिक कहते हैं, जैसे एक माता पिता अपनी चेतना से एक नई चेतना अपने पुत्र रुप में उत्पन्न करते हैं। और इन दोनों मृत्यु और जीवन से अलग एक तीसरी प्रकार की ऊर्जा भी है, जो इन दोनों को जोड़ती है। जो शुद्ध है, जो सभी प्राणियों के जीवन में व्यक्त होता है, और उसको प्रायः सभी प्राणी अनुभव भी करते हैं जिनके पास बुद्धि है। जिसको सत अर्थात जो परमेश्वर को उपलब्ध करने का साधन है। इसके उपरांत यही तीन प्रकार की ऊर्जा परमाणु रुप व्यक्त हुआ हैं इस भौतिक जगत में, इसके बाद वह वायु रुप हुआ जो प्राण रुप होकर सभी प्राणियों के हृदय में उनकी चेतना रुप में स्थित हुआ है। जिससे सर्वप्रथम देवता हुए उन सब ने उसको अपने ज्ञान से उस परमेश्वर को अनुभव किया, जिसके कारण ही उन्होंने उसको अपना गुरु बना कर श्रेष्ठ कर्मों को अपने जीवन में आचरण करके उसको प्राप्त किया। और वह श्रेष्ठ कर्म मुख्यतः अपने अज्ञान और अंधकार को उसके सामीप्य और साधना से दूर किया था। ऊर्जा से परमाणु बना है और परमाणुओं से ही सारा विश्व ब्रह्माण्ड ग्रह, नक्षत्र, तारे, आकाशगंगा इत्यादि बने हैं, यह तो भौतिक रूप से ऊर्जा के संग्रह का सघन रुप है। इसी से ही सभी प्रकार के प्राणियों का शरीर बना है। और यह ऊर्जा है, जो कभी नष्ट नहीं होती है और ना ही यह कभी जन्म ही लेती है। जो जन्म लेता है और जो मरता हैं वह ऊर्जा का एक प्रकार का कार्बन कापी जैसा होता है। जिस प्रकार से एक कार्बन का दुसरा चित्र नीचे वाले कागज पर पड़ जाता है, उसी प्रकार से न में जो संस्कार होते हैं वह कई जन्मो तर मानव चेतना को जन्म लेने और मरण लेने के लिए जिम्मेदार होते हैं। जिस प्रकार से हम सब कम्प्यूटर में देखते हैं कि उसमें एक हार्डवयर होता हैं और एक साफ्टवेयर होता है, और यह दोनों मिल कर ही कम्प्यूटर को कार्य करने योग्य बनाते हैं इन दोनों को जोड़ने वाला विद्युत है जो हार्डवेयर और साफ्टवेयर को जोड़ कर एक करता है जिससे कम्प्यूटर कार्य करने के योग्य बनता है। इसमें यह भी सत्य है कि हार्डवयेर और साफ्टवेयर दोनों ऊर्जा से ही बने हैं, क्योंकि जब ऊर्जा से बड़े-बड़े ग्रह, नक्षत्र, सूर्य, आदि बन सकते हैं तो कम्प्यूटर का हार्डवेयर या साफ्टवेयर क्यों नहीं बन सकता है? इसमें कुछ ज्यादा कठिनाई नहीं है अर्थात बन सकते हैं या फिर बने हैं। यह सब ऊर्जा ही है जिससे यह सब कुछ बना है उसी में यह सब कुछ एक दिन मिल जाता है। जिस प्रकार से मानव शरीर में पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश यह पांच तत्व हैं और जब मानव का अंत होता हैं तो यह शरीर पुनः इसी पंच तत्व में मिल जाता है। इस समग्र ऊर्जा का मुख्य श्रोत परमेश्वर को बताया गया है। जैसा कि यजुर्वेद का प्रथम मंत्र कहता है।

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