विश्वास
के प्रति सावधान
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्तेऽपि न विश्वसेत्।
विश्वासाद्भयमुत्पन्नं मूलान्यपि विकृन्तति॥44॥
विश्वास न करने योग्य व्यक्ति में निःसंदेह भरोसा नहीं करना चाहिए, किंतु
जिस व्यक्ति को विश्वसनीय पाया जाए उस पर भी एक सीमा से अधिक भरोसा नहीं करना
चाहिए, क्योंकि विश्वास करने से पैदा हुए भय अर्थात् संकट
(या परेशानी) व्यक्ति के मूल को काट डालता है। कहने का तात्पर्य यह है कि अति
विश्वास मनुष्य को कभी-कभी ऐसी दुरवस्था की स्थिति में धकेल देता है, जिससे पार पाना कठिन होता है। उसे अपने अस्तित्व का आधार भी खोना पड़ जाता
है।
न वध्यते ह्यविश्वस्तो दुर्बलोऽपि बलोत्कटैः।
विश्वस्ताश्चाशु वध्यन्ते बलवन्तोऽपि
दुर्बलैः॥45॥
जो दूसरे में विश्वास नहीं करता है वह बलवानों के द्वारा भी नहीं मारा जाता
है, किंतु जो विश्वास करता है उसका नाश बलवान् होते हुए भी दुर्बलों द्वारा
किया जाता है। तात्पर्य यह है कि जिसने कभी धोखा न दिया हो और जिसका आचरण सदैव
भरोसे के योग्य लगा हो वह कमजोर होकर भी समर्थ को नुकसान पहुंचा सकता है। इसके
विपरीत कमजोर व्यक्ति भी पर्याप्त सावधानी बरतते हुए समर्थ व्यक्ति से स्वयं को
बचा सकता है। वास्तव में जो व्यक्ति पूर्ण विश्वास का पात्र बन चुका हो, उसके लिए भी यह नहीं कहा जा सकता है कि भविष्य में वह कभी धोखा नहीं देगा।
मनुष्य का व्यवहार कब बदल जाएगा इस बात का ही कोई भरोसा नहीं। ऐसे में बुद्धिमान
व्यक्ति को चाहिए कि वह सदा सावधान रहे और यह मानकर चले कि अमुक व्यक्ति आज नहीं
तो कल धोखा दे सकता है। यह देखने में आता ही है कि व्यापारिक सम्बंधों में घनिष्ठ
मित्र भी ठगी पर उतर आते हैं। व्यक्ति के स्वयं के बेटे-बेटियाँ तक कभी-कभी वंचक
की भूमिका में उतर आते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि वृद्धावस्था के लिए मनुष्य को
अपनी कारगर व्यवस्था समय रहते कर लेनी चाहिए और अपने बच्चों के भरोसे भी आँख
मूंदकर नहीं बैठना चाहिए। कब किसकी नीयत बदल चाए कहा नहीं जा सकता है। मानव
व्यवहार विचित्र, अस्थाई एवं परिवर्तनशील होता है।
दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये सञ्चयो न कर्तव्यः।
पश्येह मधुकरिणां सञ्चितमर्थं हरन्त्यन्ये॥
अर्थः- (धन का दो प्रकार से उपयोग होना चाहिए।) धन दूसरों को दिया जाना
चाहिए, अथवा उसका स्वयं भोग करना चाहिए। किंतु उसका संचय नहीं करना चाहिए। ध्यान
से देखो कि मधुमक्खियों के द्वारा संचित धन अर्थात् शहद दूसरे हर ले जाते हैं।
पंचतंत्र के रचनाकार का मत है कि मनुष्य को धन का उपभोग कर लेना चाहिए अथवा उसे
ज़रूरतमंदों को दान में दे देना चाहिए। अवश्य ही उक्त नीतिकार इस बात को समझता होगा
कि धन कमाने के तुरंत बाद ही उसका उपभोग संभव नहीं है। उसका संचय तो आवश्यक है ही,
ताकि कालांतर में उसे उपयोग में लिया जा सके। उसका कहने का तात्पर्य
यही होगा कि उपभोग या दान की योजना व्यक्ति के विचार में स्पष्ट होनी चाहिए।
धनोपार्जन एवं तत्पश्चात् उसका संचय बिना विचार के निरर्थक है। बिना योजना के
संचित वह धन न तो व्यक्ति के भोग में खर्च होगा और न ही दान में। नीतिकार ने मधुमक्खियों
का उदाहरण देकर यह कहना चाहा है कि संचित धन देर-सबेर दूसरों के पास चला जाना है।
मधुमक्खियों का दृष्टांत कुछ हद तक अतिशयोक्तिपूर्ण है। वे बेचारी तो शहद का संचय
भविष्य में अंडों से निकले लारवाओं के लिए जमा करती हैं, जिनके
विकसित होने में वह शहद भोज्य पदार्थ का कार्य करता है। यह प्रकृति द्वारा
निर्धारित सुनियोजित प्रक्रिया है। किंतु उस शहद को मनुष्य अथवा अन्य जीवधारी लूट
ले जाते हैं। मनुष्य के संचित धन को भले ही कोई खुल्लमखुल्ला न लूटे, फिर भी वह दूसरों के हाथ जाना ही जाना है, यदि उसे
भोग या दान में न खर्चा जाए। कैसे, यह आगे स्पष्ट किया जा
रहा है।
दानं भोगं नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतिया
गतिर्भवति॥
अर्थः- धन की संभव नियति तीन प्रकार की होती है। पहली है उसका दान, दूसरी
उसका भोग और तीसरी है उसका नाश। जो व्यक्ति उसे न किसी को देता है और न ही उसका
स्वयं भोग करता है, उसके धन की तीसरी गति होती है, अर्थात् उसका नाश होना है। इस स्थल पर धन के 'नाश'
शब्द की व्याख्या आवश्यक है। मेरा मानना है कि धन किसी प्रयोजन के
लिए ही अर्जित किया जाना चाहिए। अगर कोई प्रयोजन ही न हो तो वह धन बेकार है। जीवन
भर ऐसे धन का उपार्जन करके, उसका संचय करके और अंत तक उसकी
रक्षा करते हुए व्यक्ति जब दिवंगत हो जाए, तब वह धन नष्ट कहा जाना चाहिए। वह किसके
काम आ रहा है, किसी के सार्थक काम में आ रहा है कि नहीं,
ये बातें यह उस दिवंगत व्यक्ति के लिए कोई माने नहीं रखती हैं।
अवश्य ही कुछ जन यह तर्क पेश करेंगे कि वह धन दिवंगत व्यक्ति के उत्तराधिकारियों
के काम आएगा। तब मोटे तौर पर मैं दो स्थितियों की कल्पना करता हूँ। पहली तो यह कि
वे उत्तराधिकारी स्वयं धनोपार्जन में समर्थ और पर्याप्त से अधिक स्वयमेव अर्जित
संपदा का भरपूर भोग एवं दान नहीं कर पा रहे हों। तब भला वे पितरों की छोड़ी संपदा
का ही क्या सदुपयोग कर पायेंगे? उनके लिए भी वह संपदा
अर्थहीन सिद्ध हो जाएगी। दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि वे उत्तराधिकारी स्वयं
अयोग्य सिद्ध हो जाए और पुरखों की छोड़ी संपदा पर निर्भर करते हुए उसी के सहारे
जीवन निर्वाह करें। उनमें कदाचित् यह सोच पैदा हो कि जब पुरखों ने हमारे लिए
धन-संपदा छोड़ी ही है तो हम क्यों चिंता करें। सच पूछें तो इस प्रकार की कोई भी
स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण एवं कष्टप्रद होगी। कोई नहीं चाहेगा कि ऐसी नौबत पैदा हो।
तब अकर्मण्य वारिसों के हाथ में पहुंची संपदा नष्ट ही हो रही है यही कहा जाएगा। एक
उक्ति है: "पूत सपूत का धन संचय, पूत कपूत का धन
संचय।" जिसका भावार्थ यही है कि सुपुत्र (तात्पर्य योग्य संतान से है) के लिए
धन संचय अनावश्यक है और कुपुत्र (अयोग्य संतान) के लिए भी ऐसा धन छोड़ जाना अंततः
व्यर्थ सिद्ध होना है।
दारिद्र्य! शोचामि भवन्तमेवमस्मच्छरीरे
सुहृदित्युषित्वा। विपन्नदेहे मयि मन्दभाग्ये ममेति चिन्ता क्व गमिष्यसि त्वम्॥
अर्थः- हे दरिद्रता! मैं तुम्हारे बारे में यही सोचता हूँ और यही मरी चिंता
है कि मेरे शरीर में एक सुहृद्–मित्र–की भांति दीर्घकाल तक रह चुकने के बाद मेरे
देहावसान होने पर तुम कहाँ जाओगे? मुझे चारुदत्त के वचनों में जीवन के गंभीर
यथार्थ के दर्शन होते हैं। मानव समाज में संपन्नता एवं निर्धनता सहअस्तित्व के साथ
दिखाई देते हैं। दोनों के बीच का अंतर देश-काल के अनुसार न्यूनाधिक हो सकता है,
किंतु वह समाप्त नहीं होता है। ऐसा कभी नहीं हुआ है कि दुनिया के
किसी समाज में आर्थिक समानता रही हो। हकीकत तो यह है कि किसी एक व्यक्ति या समुदाय
की निर्धनता पर ही दूसरे देश की संपन्नता
टिकी रहती है। संपन्न व्यक्ति कभी भी यह नहीं चाहता कि अन्य सभी उसकी तरह संपन्न
हों (दो-एक अपवाद हो सकते हैं) । वस्तुतः उस व्यक्ति की सुखानुभूति काफी हद तक
दूसरों की असंपन्नता पर निर्भर करती है। हम दिखावा ही तब करते हैं जब दूसरों में
उतनी सामर्थ्य नहीं पाते हैं। ऐसी कोई व्यवस्था संभव नहीं है कि संपन्नता सभी में
बराबर बंट सके। इसलिए कुछ लोगों को कंगाल, दरिद्र, विपन्न या निर्धन–आप जिस नाम से भी पुकारें–रहना ही है। चारुदत्त इस
निर्धनता को एक अमूर्त सत्ता के तौर पर देखता है और कहता है कि उसे किसी न किसी के
घर में अपना बसेरा तलाशना ही होता है। आज वह मेरे घर में है। मैंने उसकी उपस्थिति
को उसी सहजता के साथ स्वीकारा है जैसे वह मेरी मित्र हो। अभी गरीब होने / रहने का
भार मैं उठा रहा हूं, वह कहता है, किंतु
मेरी मृत्यु के बाद किसी और को गरीबी वहन करनी होगी। मैं नहीं चाहता कि किसी और के
घर यह जा बैठे। लेकिन इसे तो किसी न किसी को पकड़ना ही होगा। यही सोचकर मुझे कष्ट
होता है। इस प्रकार के मनोभाव चारुदत्त के उक्त वचन में निहित हैं।
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां
पदम्।
वृणुते हि विमृश्यकारिणं
गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः॥३०॥
किसी कार्य को बिना सोचे-विचारे अनायास
नहीं करना चाहिए। विवेकहीनता आपदाओं का परम या आश्रय स्थान होती है। अच्छी प्रकार
से गुणों की लोभी संपदाएँ विचार करने वाले का स्वयमेव वरण करती हैं, उसके
पास चली आती हैं।
अभिवर्षति योऽनुपालयन्विधिबीजानि विवेकवारिणा। स सदा फलशालिनीं
क्रियाँ शरदं लोक इव अधितिष्ठति॥३१॥
जो कृत्य या करने योग्य कार्य रूपी बीजों को विवेक रूपी जल से धैर्य के साथ
सींचता है वह मनुष्य फलदायी शरद ऋतु की भांति कर्म-साफल्य को प्राप्त करता है।
"बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय, काम बिगाड़े आपनो जग में होत
हंसाय।" कोई भी कार्य उसके संभावित परिणामों पर सावधानी से विचार करने के बाद
ही संपन्न करना चाहिए, न कि जल्दीबाजी में जैसा कि आदमी
कभी-कभी कर बैठता है। हड़बड़ी में काम बिगड़ जाते हैं, यह
सुविख्यात है। जल्दीबाजी के परिणाम यदि गंभीर रूप से हानिकर न हों तो कोई बात
नहीं। लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि सुधार करने या परिणाम पलटने के उपाय बचते ही
नहीं और केवल पश्चाताप करने को रह जाता है। मुझे अपने अध्यापन-काल की एक घटना याद
आती है। वर्षों पहले छात्रावास में रहने वाली एक छात्रा अन्य छात्रा के व्यवहार से
क्षुब्ध हो गई और उसने सल्फास की गोली खाकर आत्महत्या का कदम उठाया था। आनन-फानन
में उसे अस्पताल में भरती कराया गया। घोर पीड़ा से वह तड़प तो रही ही थी, उसे अपनी गलती का एहसास भी हो गया था। चिकित्सकों से उसने बचा लेने ही
गुहार लगाई। किंतु तब तक काफी देर हो चुकी थी। कुछ घंटों के बाद उसने दम तोड़ किया।
आत्महत्या के अधिकांश मामले आवेश में किए गये कृत्य होते हैं। प्रथम श्लोक में कहा
गया है कि संपदाएँ गुणी व्यक्ति का वरण करती हैं। मेरे विचार से यहाँ गुण शब्द एक
विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। नीतिकार का इशारा उन गुणों से है जिनके माध्यम से
व्यक्ति किसी कार्य के लिए समुचित अवसर तलाशता है, उसे कब और
कैसे सिद्ध करें इसका निर्णय लेता है और तदर्थ संसाधन जुटाता है। यहाँ गुण शब्द का
अर्थ सद्गुणों से नहीं है। परिणामों का सही आकलन करके कार्य करने का कौशल ही गुण
है।
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