यम-नचिकेता
संवाद
From Kathopanishad
वाजश्रवस
एक ऋषि थे। एक बार उन्होंने एक ऐसा महायज्ञ करने का निश्चय किया जिसमें वे अपना
सर्वस्व दान कर देना चाहते थे। उनका एक पुत्र था जिसका नाम नचिकेता था। वह छोटा ही
था किन्तु अत्यन्त बुद्धिमान और मन व हृदय से निर्मल था। उसने देखा कि उसके पिता
ऐसी गायें दान कर रहे हैं जो निर्बला तथा वृद्धा हैं, और दूध देने में असमर्थ हैं। उसने
मन में सोचा कि मेरे पिता वृद्धा गायें दान में देकर उचित कार्य नहीं कर रहे हैं।
इसलिए वह अपने पिता के पास जाकर बोला, “पिता, मैंने सुना है कि जिस प्रकार का यज्ञ आप कर रहें हैं उसमें जो कुछ
व्यक्ति का प्रिय है, उसे दान करना पडता है। यदि ऐसा है तब आप मुझे किसे दान में दे रहे हैं?”
वाजश्रवस
ने कुछ उत्तर नहीं दिया। कुछ समय के पश्चात नचिकेता ने पुनः वही प्रश्न पूछा, किन्तु व्यर्थ, कोई उत्तर नहीं मिला।
नचिकेता
ने पुनः वही प्रश्न पूछा। वाजश्रवस आत्मसंयम न कर सका। वह क्रोध में बोला, “मैं तुम्हें मृत्युदेव, यम को दान में दूंगा।“
नचिकेता
ने अपने पिता के वचन का पालन किया और मृत्युलोक चला गया। उस समय यमराज वहाँ
विद्यमान नहीं थे। किसी ने नचिकेता को प्रवेश देने का साहस नहीं किया। इसलिए वह
द्वार पर तीन दिनों तक निर्जल रहकर प्रतीक्षा करता रहा। जब यमराज ने लौट कर देखा
कि एक ब्राह्मण बालक तीन दिनों से उसकी प्रतीक्षा कर रहा है तब उन्हें बहुत दुःख
हुआ। उन्होंने अपने सेवकों से नचिकेता के स्वागत के लिए पवित्र जल लाने के लिए
कहा। अतिथि सत्कार के पश्चात् यम ने नचिकेता से कहा, “प्रिय बालक, तुमने तीन दिनों तक मेरे द्वार पर प्रतीक्षा की है, इसलिए मेरा अनुरोध है कि तुम मुझसे
तीन वरदान मांग लो।”
नचिकेता
ने यम से कहा, “प्रभु, मेरे पिता मेरे विषय में चिन्ता न
करें और उनका क्रोध शान्त हो जाये। जब मैं पृथ्वी पर वापस जाऊं तब वे मुझे पहचान
लें और प्रसन्नतापूर्वक मुझे स्वीकार कर लें। पहला वर यह दीजिये।”
“तथास्तु, पुत्र”! यम ने कहा। “दूसरा वरदान मांगो।”
“श्रद्धेय महोदय, अग्नि यज्ञ के उचित अनुष्ठान की शिक्षा दीजिये।” नचिकेता ने
दूसरा वरदान मांगा।
यम ने
इसे स्वीकार कर लिया और उसे अग्नि यज्ञके उचित अनुष्ठान की शिक्षा दी। फिर उसने
कहा, “नचिकेता, तुम्हारा तीसरा वर क्या है?”
नचिकेता
ने कहा, “क्या
वास्तव में मृत्यु के पश्चात् जीवन होता है? कुछ लोग कहते हैं कि मृत्यु के पश्चात जीवन होता है और कुछ
लोग कहते हैं कि नहीं होता है। इसी जीवन के साथ जीवन समाप्त हो जाता है। सत्य क्या
है?”
यम ने
कहा, “बालक, जीवन और मृत्यु के विषय में प्रश्न
न करो। देवगण भी इस विषय में स्पष्ट ज्ञान नहीं रखते। कुछ अन्य प्रश्न करो। इसे
छोडकर तुम्हारी सारी इच्छाएं पूरी कर दूंगा।”
नचिकेता
ने आग्रह किया और कहा, “हे यम, मैं केवल
जीवन और मृत्यु का रहस्य जानना चाहता हूँ और कुछ नहीं।”
यमराज ने
नचिकेता को सांसारिक सुखों का प्रलोभन दिया जिससे वह अपने तीसरे वरदान में कुछ और
मांग लें परन्तु उसने अपने तीसरे वरदान पर आग्रह करते हुए कहा कि सभी सांसारिक सुख
क्षण-भंगुर होते हैं, और स्थायी सुख नहीं दे सकते। नचिकेता ने इस बात पर बल देते हुए कहा कि
व्यक्ति सांसारिक सुखों के द्वारा शाश्वत सत्य को नहीं पा सकता। इसलिए उसने
सांसारिक सुखों की सभी कामनाओं का त्याग कर दिया है और यहाँ इसी आशा के साथ आया है
कि वह आत्मज्ञान की शिक्षा के द्वारा शाश्वत सत्य को पा लेगा।
इस
प्रकार अनेक प्रलोभनों के द्वारा यमराज ने नचिकेता की परीक्षा ली जिस पर नचिकेता
अपने निश्चय पर अडिग रहते हुए सफल हुआ। तब यमराज ने आत्मा तथा जीवन और मृत्यु के
बारे में इस प्रकार समझायाः
“आत्मा अनश्वर है। यह न जन्म लेता है, न मरता है। यह किसी वस्तु से
उत्पन्न नहीं हुआ और न कोई वस्तु इससे उत्पन्न हुई। शरीर के नष्ट हो जाने पर भी
आत्मा नष्ट नहीं होता।
“जो व्यक्ति यह सोचता है कि वह हन्ता है और जो सोचता है कि
उसका वध किया गया है - दोनों ही अज्ञानी हैं, क्योंकि आत्मा न तो वध करता है, न उसका वध किया जा सकता है।”
“लघुतम से भी लघुतर और विशालतम से भी विशालतर आत्मा सभी
सत्ताओं में विद्यमान है।”
“इसका ज्ञान न तो विचार विमर्श, न मेधा शक्ति और न ही पांडित्य से प्राप्त किया जा सकता है।
यह सुपात्र के समक्ष अपने आपको रहस्योद्घाटित करता है।”
“शरीर रथ है, बुद्ध सारथी है, इन्द्रियाँ अश्व हैं, विवेक लगाम है तथा आत्मा रथ का स्वामी है। आत्मा शरीर, मन तथा इन्द्रियों से श्रेष्ठ है।”
“व्यष्टिगत आत्मा से महानतर है सर्वत्र व्याप्त अतिचेतना जो
विश्व में प्रत्येक वस्तु का बीज है। इससे भी महानतर है परम पुरुष और इससे महानतर
कुछ नहीं है। यही है हमारी अभीप्सा का लक्ष्य। एक बार तत् (परम आत्मा) की सिद्धि
हो जाने पर मृत्यु का भय नहीं रहता और जिसने इसे सिद्ध कर लिया है वह अविनाशी बन
जाता है।”
“इसकी सिद्धि का पथ दीर्घ और कठिन है, कृपाण की धार के समान संकीर्ण और
तीक्ष्ण है। इसलिए नष्ट करने के लिए समय नहीं है। जागो, उठो, कर्म में जुट जाओ और जब तक लक्ष्य की सिद्धि नहीं हो जाती, रुको नहीं।”
(कठोपनिषद् से)
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