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परमेश्वर साक्षात्कार

 

परमेश्वर साक्षात्कार

 

 

     ऋग्वेद का कथन है कि मित्र तथा वरुण नामक वेदताओं का अमोघ तेज एक दिव्य यज्ञिय कलश में पुंजीभूत हुआ और उसी कलश के मध्य भाग से दिव्य तेज: सम्पन्न महर्षि अग्नि, वायु, अंङ्गिरा और आदित्य आदि ऋषियों का सर्वप्रथम उद्भव हुआ। यह सब शरीर विज्ञान है। इसके द्वारा ही शरीर का निर्वाण हुआ, कही पर भी यह नहीं कहा है, कि आत्मा का निर्वाण या परमात्मा का निर्वाण कैसे और कहाँ हुआ? क्योंकि आत्मा और परमात्मा ही निर्वाण करते है इस शरीर का, अब हम शरीर का साक्षात्कार करें, क्योंकि मृत्यु इसके अतिरिक्त कुछ नहीं है यह शरीर ही मृत्यु है। हम सब साक्षात मृत्यु पर सवार है फिर भी हमें आजीवन खयाल नहीं आता है इस मृत्यु का, हर समय हम यही सोचते है कि मृत्यु अभी नहीं है जीवन अभी है और इस जीवन का आनन्द ले ले, मृत्यु तो कभी भविष्य में आने वाली एक काल्पनिक घटना है। प्राचीन समय में हमारे पास ऐसा विज्ञान था जिससे हम इस शरीर को मरने से पहले इसको नया कर देते थे, क्योंकि यह शरीर अरबों खरबों कोशिकाओं से निर्मित है जो हर समय अपना रूप आकार बदल रही है। कोशिकाओं के परिवर्तन मात्र से शरीर बदलता है। यह जब माँ के गर्भ में रहता है तो बहुत सूक्ष्म रहता है। यह दो तत्वों से मिल कर बनता है जिसे हम सब आज के वैज्ञानिक भाषा में अंडाणु और शुक्राणु के नाम से जानते है। इन दोनों का निसेचन माँ के गर्भ में होता है। (निसेचन भी दो प्रकार के होते है एक बाहर होता है एक माँ के गर्भ में होता है। जिसके लिये किसी माँ के गर्भ की आवश्यकता नहीं होती है। जैसा कि क्लोनिगं के समय सर्व प्रथम सृष्टि के प्रारम्भ में हुआ था।) जिससे युग्मनज कहते हैं, यह दोनों का योग होता है जिससे एक भ्रूण का रूप बनता है। जो हमारी शरीर का प्रथम चरण है। यह भ्रूण बनने से पहले जिसे हम सब अंडाणु और शुक्राणु कहते है। यह एक स्त्री और पुरुष शरीर के लिंग से निकलने वाली उनका वीर्य या तेज कहते है। इसे हमारे प्राचीन वैदिक भाषा में मित्र और वरुण कहते है। यह दो प्रकार की विद्युत ऊर्जा है। जो सूर्य की मुख्यतः दो किरणों का नाम है। जिस प्रकार से जो सूर्य से किरण निकलती है वह खतरनाक और ज्वलनशील होती है। लेकिन यही किरण जब चन्द्रमा पर पड़ती है और वहाँ से हमारी पृथ्वी पर आती है। वह ठण्डी, शान्त, निर्मल, कोमल और शुष्क होती है। जिसे आधुनिक भाषा में गीली और सुखी विद्युत के रूप में जानते है। अर्थात एसी और डीसी। है। जिसको दो वंशों के नाम पर भी जानते है। सूर्य और चन्द्र वंश यह स्त्री और पुरुष शरीर के रूपक है यह दो प्रकार की ऊर्जा है जो एक दूसरे के पूरक है। जो एक ही सूर्य रूप आत्मा से निकली है। यह आत्मा इनसे अलग है एक तीसरा अदृश्य तत्व है जो दोनों में एक समान गति करती है। यह दो प्रकार की ऊर्जा शक्तियाँ है जो शरीर निर्माण के लिये परम आवश्यक तत्व मानी जाती है।

 

       हमारे प्राचीन काल के ऋषि आदी जो बहुत श्रेष्ठ वैज्ञानिक थे जिन्होंने शरीर की उन कोशिकाओं का अध्ययन करके यह जान लिया था कि वह कौन-सी कोशिका है जो मानव शरीर में वृद्धावस्था को लाती है। उस कोशिका को निकला कर उनके स्थान पर नई कोशिका को प्रत्यारोपित कर देते थे। जिससे आदमी जल्दी वृद्ध ही नहीं होता था जिसके कारण वह कई सौ सालो तक जिन्दा रहता था। यजुर्वेद में ऐसे कई मंत्र आते है जो यह बताते है कि मनुष्य कम से कम चार सौ साल तक तो अवश्य जिन्दा रहे। यह साधारण लोगों की उम्र है जो विशेष लोग है वह तो हजारों और लाखों साल तक जीने में सक्षम थे। जिसमें अधिकतर वैज्ञानिक किस्म के ऋषि महर्षि हुआ करते थे या वह राजा महाराजा जिनके आश्रय में यह संसार और साधारण जन रहते थे। हमारे पुराने साहित्य में यह बात आती है कि किस प्रकार से ऋषि महर्षि अपने योग बल से पर्वतों और दूसरे जड़ पदार्थों को आज्ञा देते थे और वह जड़ जैसे पर्वत आदि उनकी आज्ञा को सहर्ष स्विकार कर लेते थे। ऐसे ही एक ऋषि थे, पुलस्त्य ऋषि के पुत्र हुए विश्रवा, कालान्तर में जिनके वंश में कुबेर एवं रावण आदि ने जन्म लिया तथा राक्षस जाति को आगे बढ़ाया। पुलस्त्य ऋषि का विवाह कर्दम ऋषि की नौ कन्याओं में से एक से हुआ जिनका नाम हविर्भू था। यह कर्दप ऋषि भारत में नहीं रहते थें यह आज के आधुनिक देश जिसको आस्ट्रेलिया के नाम से जानते है वहाँ के रहने वाले थे। पुलस्त ऋषि वहाँ पर धर्म प्रचार करने गये थे जहाँ पर उनकी मुलाकात कर्दप ऋषि की कन्या हविर्भी से हुआ जिससे उन्होने शादी की जिनसे दो ऋषि पुत्र हुए-महर्षि अगस्त्य एवं विश्रवा। विश्रवा की दो पत्नियाँ थीं-एक थी राक्षस सुमाली एवं राक्षसी ताड़का की पुत्री कैकसी, जिससे रावण, कुम्भकर्ण तथा विभीषण उत्पन्न हुए, तथा दूसरी थी इलाविडा-जिसके कुबेर उत्पन्न हुए। इलाविडा चक्रवर्ती सम्राट तृणबिन्दु की अलामबुशा नामक अप्सरा से उत्पन्न पुत्री थी। ये वैवस्वत मनु श्राद्धदेव के वंशावली की कड़ी थे।

 

     यह मनु ही सर्वप्रथम इस पृथ्वी पर सप्त ऋषयों के साथ अवतरित हुए, अर्थात मंगल ग्रह से अपने स्पैसक्राफ्ट में चल कर यहाँ पृथ्वी के हिमालय के शिखर पर उतरे और यहाँ पर अपनी मनव कलोनीयों को बसाया। जिसमें सबसे पहले उन्होंने अपनी प्रयोग शाला बनाई और क्लोन की बिंधी से युवा मानव के साथ सभी जीवों को तैयार किया और इसके साथ ही यहाँ पृथ्वी पर मनुष्य युग का प्रारंभ किया। ईसके पहले यहाँ पृथ्वी पर डायना सुर आदि विशाल जीव। रहते थे जब मानव ने यहाँ रहना प्रारंभ किया तो उसने सभी बड़े और खतरनाक जीवों को यहाँ पृथ्वी पर से समाप्त कर दिया। जैसा कि आज के वैज्ञानिक प्रयास कर रहें है। मंगल आदि ग्रहों पर जा कर वहाँ अपनी कालोना बसाने की योजना पर काम कर रहें है। अगले कुछ एक सालों में मानव मंगल ग्रह पर जा कर रहने लगेगा। क्योंकि यह पृथ्वी ज़्यादा समय तक मानव के रहने के योग्य नहीं रहेगी इसका अनुमान वैज्ञानिकों को हो चुका है। एक प्रश्न और उठता है कि मानव से पहले यहाँ पृथ्वी पर दूसरे खतरनाक जीव कहाँ से आयें। इसका उत्तर यह है कि इन विशाल जीवों को मानव से पहले यहाँ पर क्रीत्रिम रूप से तैयार करके दूसरे ग्रह से प्रत्यारोपित किया गया-गया था कि वह इस पृथ्वी को मानव के रहने के योग्य बनाये। यहाँ वायु मंडल को शुद्ध करने के लिये।

 

        जो भी महापुरुष आज तक हमारे इस पृथ्वी पर हुए है, सबसे पहली बात वह स्वयं से बहुत प्रेम करते थे और इस प्रेम को इस जगत में बरकरार रखने के लिये ही, अपने सारे जीवन को प्रेम के वीज को बोने के प्रयास में ही, आजीवन उन्होंने यहाँ जीवन प्रेम को बनाये रखने के लिये वह सब कुछ किया जिससे कि इस पृथ्वी का जीवन में प्रेम निरंतर बना रहे। लेकिन ऐसा नहीं कि उन्हें यह नहीं पता है कि यहाँ संसार में रहना कितना अधिक जोखिम भरा है। जिससे बचने के लिये वह बहुत अधिक जोर बुद्धि के विकास पर देते है। हमारी बुद्धि के विकास के लिये ही उन्होंने सर्व प्रथम वेदों को रचा जिसको वह परमेश्वर कि वाणी मानते है जो स्वयं परमेश्वर द्वारा रचा गया-गया है। यह मानव कृत नहीं है क्योंकि मनुष्य मस्तिष्क में इतना सामर्थ्य नहीं है कि वह इतने निर्दोष और पवित्र विचार को रच सके, जो हर जीव के कल्याण के उद्देश्य के लिये है। यह एक सनातन विचार जो विश्वास और श्रद्धा पर आश्रित है जबकि मैं ऐसा में नहीं मानता। वेदों के बाद उपनिषदों का समय आया। उसके बाद दर्शनों का समय आया, फिर इससे भी मानव को शान्ति नहीं मिली तो रामायण, महाभारत, जैसे इतिहास को रचा गया कि इससे मनुष्य को प्रेरणा मिले और वह साहस श्रद्धा के साथ प्रेम पूर्ण अपने जीवन के संग्राम को लड़े और उस पर विजय पाकर अपने जीवन को शान्ति पूर्ण ढंग से व्यतीत करें। इससे भी शान्त मानव का हृदय नहीं हुआ। कितने बड़े-बड़े युद्ध के संग्राम हुए। जिनके बारे में विस्तार से पुराणों में अध्ययन करने से मिलता है। इसलिये ही पुराणों को रचा गया। फिर भी यह मानव शांत नहीं हुआ। यह और अधिक अशान्त और अतृप्त होता गया और यह हमेशा यही महसूस करता रहा कि यह बहुत सारी अदृश्य जंजीरों में जकड़ा हुआ है। जिससे यह मुक्त होने का प्रयास कर रहा है। इस जीवन संग्राम के लिये क्या ज़रूरी है? कि वेदों का अध्ययन किया जाये या फिर उपनिषद, या दर्शन या पुराणों या फिर रामायण महाभारत का अध्ययन किया जाये। मैंने सभी का अध्ययन किया जिसमें मैंने काफी हद तक सफल भी रहा। इन सब का उद्देश्य परमेश्वर की प्राप्ति है तक ही सीमित है और मैं उस सीमा तक पहुंच गया और परमेश्वर का साक्षात्कार भी कर लिया वह मेरे हृदय में उतरा और उसने उसी कार्य को आगे बढ़ाया कि जिसको यह नश्वर संसार बढ़ा रहा है। अर्थात वह भी इस नश्वर संसार के ही पक्ष में है। जिससे मुझे शान्ती तो उपलब्ध नहीं हुई यद्यपि एक बहुत भयानक अशान्ती ने मुझमें अपना स्थाई स्थान बना लिया। मुझे यह सब झूठे और विश्वास पर आश्रित लगते है और जो इनको पालन करने वाले है वह भी अंधविश्वास के शिकार है।

 

      इस तरह से मैं इस परिणाम पर पहुंचा कि यह संसार और यहाँ आज तक जो भी जाना गया और संजोया गया है और जिसको सुरक्षित रखा गया जिसके पीछे उसकी रक्षा करने के लिये बहुत बड़ी भिड़ लगी है। जिसको हम सब धर्म के नाम पर सत्य के नाम पर ज्ञान के नाम पर सम्प्रदाय के नाम पर जानते आये है। वह सब झूठ के आश्रित है और सभी झूठे हैं इनके द्वारा जिस परमेश्वर कि कल्पना कि गई है वह भी झुठा है। हमें अपने सत्य की खोज करनी होगी जिसको प्राप्त करने में सहायता इस संसार की कोई वस्तु नहीं कर सकती है। यहाँ का सबसे बड़ा सत्य यही है कि जो भी दिखाई दे रहा है वह सब नाश वान है और इसको नाश करने वाला कोई और नहीं है यह मानव ही है। मैंने अनुभव किया कि परमेश्वर कोई और नहीं है मैं ही परमेश्वर हूं, और यह दुनिया जीवित परमेश्वर से सदा से नफरत करती आई है। इसे हमेशा मुर्दा परमेश्वर के साथ रहने में सुकून शान्ती एक प्रकार कि तन्द्रा और मुरछा कि अनुभूति होती है और इसको उसके साथ रहने में भी सुविधा महसूस होती है। ऐसा मेरे साथ भी हुआ लेकिन मेरी तंद्रा ज़्यादा समय तक मुझ पर हावी नहीं रह सकी, जिसके कारण ही मैंने यह निर्णय किया कि मैं अपना एक अलग संसार बनाउंगा, और इसका मालिक मैं स्वयं परमात्मा हूंगा। मैं अपना स्वयं का वेद, उपनिषद, दर्शन, रामायण, महाभारत और पुराण बनाउगा। क्योंकि यही सत्य है इसी का उपदेश किया गया है इन सब शास्त्रों में किया गया। यह कार्य आसान नहीं ही है बहुत कठिन और दुर्गम है फिर भी मैं इसी कार्य को करने के लिये प्रयास रत हूँ मैं एक प्रेम पूर्ण परिवार समाज और संसार बनाने में श्रद्धा रखता हूँ जिसकी कमी मुझे इस संसार में सबसे बड़ी खल रही है। जिसके कारण ही मेरे जीवन में सबसे अधिक पीड़ा और संताप के साथ क्लेश भी है। मैं स्वयं से अत्यधिक प्रेम करता हूँ और इस प्रेम के लिये मैंने बहुत सारे समय तक लोगों की खोज कि लेकिन मुझे आज तक कोई नहीं मिला सिवाय मेरे स्वयं के, आज तक दुनिया को केवल बुद्धिमान बनाया गया जिससे यह दुनिया बहुत शातिर किस्म के धूर्तों से भरी पड़ी है। इसमें जीवन का तो बहुत पहले अंत हो चुका है। क्योंकि जीवन का सम्बंध प्रेम से है जिससे ही इस संसार का आविर्भाव हुआ है। आज हमारी दुनिया में बहुत बुद्धिमान और हर क्षेत्र के विशेषज्ञ मिल जायेंगे जो बहुत ही अड़ियल किस्म के धूर्त लोमड़ी कि तरह से है।

 

         मैं जानता हूँ कि मेरे शत्रु मुझसे बहुत अधिक ताकतवर और शक्तिशाली है। बाहरी तौर से देखने पर जिस प्रकार से मैं अपने आन्तरिक परमेश्वर तक पहुंच चुका हूं उसी प्रकार से हमारे शत्रु भी विज्ञान कि सहायता से बाहरी परमेश्वर तक पहुंच चुके है। जिसे हम सब प्राचीन वैदिक भाषा में ब्रह्म कहते है। इसका साक्षात्कार वैज्ञानिक मशीन के सहायता से प्रकृति को अपने बस में करके सिद्ध कर दिया है। इस परमेश्वर का साक्षात्कार भी करने का दो तरीका है। जब हम बुद्धि का उपयोग करते है तो यह विषयों के द्वारा सभी विषयों को पार करने के बाद सभी विषयों पर अपना अधिकार कर लेती है और यह विषयों से स्वयं को ऊपर उठा लेती है यह एक प्रकार का सामूहिक ज्ञान है। जिससे मशीनों का निर्वाण होता है जिसका प्रमाण भी हमें दिखाई देता है। जैसा कि आज के वैज्ञानिक हाकिस का मानना है कि परमेश्वर नहीं है सिवाय विज्ञान के कुछ नहीं है यह सब विज्ञान ही है। तो यह सत्य है क्योंकि विज्ञान का मतलब ही बुद्धि से है। बुद्धि के लिये कभी संभव नहीं है कि वह परमेश्वर का साक्षात्कार कर सके बुद्धि सिर्फ विषयों का साक्षात कार कर सकती है। यह हजारों करोड़ों ब्रह्माण्ड वैज्ञानिक बुद्धि कि सहायता से रचे गये हैं, और यह सब विषय है। इन सब विषयों का साक्षात्कार करने वाला मैं हूँ और मैं कोई विषय नहीं हूँ मैं सभी विषयों के पार हूँ मैंने यह सब देखा सभी विषयों ने मुझको नहीं देखा।

 

        जैसा कि दुनिया के सबसे बड़े वैज्ञानिकों में गिने जाने वाले स्टीफन हॉकिंग ने कहा है कि इस दुनिया को बनाने वाला कोई भगवान नहीं है। यह दुनिया भौतिकी के नियमों के मुताबिक अस्तित्व में आई। उनके मुताबिक बिंग बैंग गुरुत्वाकर्षण के नियमों का ही नतीजा था। स्टीफन हॉकिंग ने अपनी नई किताब में ये बातें कही हैं। गौरतलब है कि स्टीफन हॉकिंग ने 1988 में छपी अपनी बहुचर्चित किताब 'ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम' में कहा था कि ईश्वर का अस्तित्व अनिवार्य तौर पर विज्ञान का विरोधी नहीं है। दुनिया के बनने में ईश्वर की भूमिका को परोक्ष रूप से स्वीकार करते हुए उन्होंने उस पुस्तक में कहा था, 'अगर हम संपूर्ण थियरी खोज सकें तो वह मानवीय तर्क की सबसे बड़ी जीत होगी। तभी हम ईश्वर का दिमाग समझ पाएंगे।' मगर, अपनी नई किताब 'द ग्रैंड डिजाइन' में उन्होंने ईश्वर की किसी भी भूमिका की संभावना खारिज करते हुए कहा कि ब्रह्मांड का निर्माण शून्य से भी हो सकता है। हॉकिंग की इस नई किताब धारावाहिक रूप में लंदन के 'द टाइम्स' में छप रही है। स्टीफन हॉकिंग मौजूदा दौर के सबसे बड़े वैज्ञानिकों में माने जाते हैं। एक बीमारी से पीड़ित होने की वजह से हॉकिंग खुद चल-फिर या बोल-सुन भी नहीं सकते। फिर भी, अपनी इच्छाशक्ति और संकल्प की बदौलत उन्होंने न केवल अपनी पढ़ाई और रिसर्च जारी रखी बल्कि विज्ञान की सीमाओं को भी विस्तारित किया। इस नई किताब में अपनी पुरानी धारणा से आगे बढ़ते हुए हॉकिंग ने न्यूटन के इस सिद्धांत को ग़लत बताया है कि बेतरतीब अव्यवस्था से ब्रह्मांड का निर्माण नहीं हो सकता। अपने इस मत की पुष्टि के लिए हॉकिंस ने 1992 में हुई उस खोज का हवाला दिया है, जिसमें हमारे सौरमंडल से बाहर एक तारे के चारों ओर घूमते ग्रह के बारे में पता चला था। हॉकिंग ने इस खोज को ब्रह्मांड की समझ में बदलाव लाने वाला क्रांतिकारी मोड़ बताया है।

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