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बुद्धि से ब्रह्मण्ड का और हृदय से ब्रह्म का साक्षात्कार

 

बुद्धि से ब्रह्मण्ड का और हृदय से ब्रह्म का साक्षात्कार

 

 

     जैसा कि हाकिन्स का मानना है कि यह ब्रह्माण्ड ईश्वर ने नहीं बनाया यह बिग बैंग कि घटना का परिणाम है और यह भी मानते है कि इसका जन्म शून्य से भी हो सकता है। यह सत्य है कि इसका विस्तार शून्य से ही हुआ है जिसके लिये ही तो पंतजली कहते है अपने एक सूत्र में तवेवार्थ मात्र निर्भासं स्वरूप शून्यमिव समाधि ।। अर्थात जब साधक ध्यान करते-करते ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है जहाँ उसे खुद का ध्यान ही न रहे मात्र ध्येय ही शेष रह जाये तो ऐसी स्थिति को समाधि कहते हैं। इसमें ज्ञेय, ज्ञान तथा ज्ञाता का अंतर समाप्त हो जाता है। साधक अणु परमाणुओं की संरचना के पार मुक्त साक्षी आत्मा रह जाता है। यहाँ साधक परम स्थिर तथा परम जाग्रत हो जाता है। यह अवस्था परमात्मा की है क्योंकि परमेश्वर समाधि अवस्था में ब्रह्म स्वरूप ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो रहा है। अर्थात वह परमेश्वर जिसे हम सब ब्रह्म के रूप में जानते है जिससे ही यह ब्रह्माण्ड शब्द बना है। परमेश्वर जो ब्रह्मरूप से ब्रह्माण्ड ही है जिसका निरंतर विस्तार हो रहा है। यह ब्रह्माण्ड रूप ब्रह्म के शरीर के समान है जिसका शरीर निरंतर बढ़ रही है। इस ब्रह्म का साक्षात्कार मशीनें कर सकती है जिस प्रकार से किसी भी यंत्र की सहायता से कभी आत्मा को पकड़ा या देखा नहीं गया है लेकिन हम सब है इसका साक्षात्कार हर समय कर रहे है।

 

     देहाभिमाने गलिते विज्ञते परमात्मन। यत्र-यत्र मनो याति तत्र-तत्र समाधय:॥

 

      अर्थात जब साधक को शरीर का भी भान न रहे और परमात्मा का ज्ञान हो जाये ऐसी अवस्था में मन जहाँ-जहाँ भी जाएगा वहीं-वहीं समाधि है। समाधि आपमें कहीं बाहर से नहीं आएगी, यह आपके अंदर ही घटित होगी। यह समयातीत है जिसे मोक्ष या निर्वाण भी कहा जा सकता है। बौद्ध धर्म में इसे निर्वाण तथा जैन धर्म में इसे कैवल्य कहा जाता है। योग शास्त्रों में इसका नाम समाधि है। मोक्ष की स्थिति में मन निष्क्रिय हो जाता है। समाधि ध्यान की सभी साधनाओं की पराकाष्ठा है, चर्म सीमा है। इसमें ध्यान सदा के लिए अंतर्मुखी हो जाता है। समाधि के लिए एक बौद्धिक और शांत दिमाग, स्पष्ट लक्ष्य, आलस्य विहीनता, सहजता, सरलता तथा सत्यता होनी चाहिए। समाधि तब प्राप्त होती है जब साधक साधनाओं के सभी पड़ाव पार कर जाता है तथा उसका ध्यान एकचित्त अंतर में लगा रहता है। इसको निम्नानुसार भी समझा जा सकता है–तदेवार्थ मात्र निर्भासं स्वरूप शून्यमिव समाधि। न गंध न रसं रुपं न छ स्पर्श न नि: स्वनम। नात्मानं न परस्प छ योगी युक्त: समाधिना॥ अर्थात जब साधक ध्यान करते-करते ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है जहाँ उसे खुद का ध्यान ही न रहे मात्र ध्येय ही शेष रह जाये तो ऐसी स्थिति को समाधि कहते हैं। इसमें ज्ञेय, ज्ञान तथा ज्ञाता का अंतर समाप्त हो जाता है। साधक अणु परमाणुओं की संरचना के पार मुक्त साक्षी आत्मा रह जाता है। यहाँ साधक परम स्थिर तथा परम जाग्रत हो जाता है। एक बात यहाँ समझना होगा कि ध्यान कोई क्रिया नहीं है ध्यान सारी क्रियायों से मुक्ति का नाम है जब सब कुछ शून्य हो जाता है जाता है एक प्रकार कि मुरछा बेहोशी है जैसा कि वैज्ञानिकों ने उस मुरछा और बेहोशी को अपने यन्त्रों कि सहायता से प्राप्त कर लिया है उनके ब्रह्माण्ड के किसी भी कण ब्रह्म का यह परमेश्वर का साक्षात्कार नहीं हो रहा है-है इस लिये उन्होंने परमेश्वर के अस्तित्व को ही नकार दिया है। जबकि जो मानव परमेश्वर का साक्षात्कार करता है वह स्वयं कि शरीर के पूर्णतः शून्य करने के बाद ही करता है। जिसे समाधि कहते है। इसकी सिधा-सी मतलब है कि शरीर के किसी भाग से यह सिद्ध नहीं होता है कि परमेश्वर है इसके लिये हमें शरीर कि सीमा का अति क्रमण करना होगा इसके पार जाना होगा और इसके पार जाने का मतलब है जो सीमायें है उन सीमाओं से आगे बढ़ना होगा। आज वैज्ञानिक सीमाओं का अतिक्रमण कर रहे है जिसके कारण ही उनको यह कहने का सामर्थ्य मिल सका है कि इस ब्रह्माण्ड को किसी ब्रह्म ने नहीं रचा है यद्यपि सत्य तो यह है कि इसकी निरंतर रचना हो रही है।

 

     सलिलै सैंधवं यद्धत्साम्भजति योगत:। तथात्मन परस्यं छ योगी युक्त: समाधिना॥

 

     अर्थात जिस प्रकार यदि कोई नमक का टुकड़ा समुद्र में फेंका जाये तो वह समुद्र की गहराई तक जाते-जाते समुद्र में ही घुल जाता है तथा अपना अस्तित्व खो बैठता है। इसी प्रकार साधक भी समाधि के माध्यम से परम पिता परमेश्वर में समा जाता है। यह ठीक है कि जिस प्रकार से नमक समुद्र के पानी में घुल जाता है तो उसको अर्थात नमक को समुद्र के पानी से बाहर भी सूर्य के प्रकाश कि गर्मी द्वारा निकाला जा सकता है। इसी प्रकार से परमेश्वर के साथ होने के बाद भी मानव संसार में उससे अलग भी अपने अस्तित्व का साक्षात्कार करता है। जब वह संसार में शरीर के साथ जो संघर्ष होता है तो वह स्वयं को परमेश्वर से अलग समझता है। क्योंकि संसार भी एक प्रकार का अग्नि कुण्ड है यज्ञशाला है। जिसमें मानव शरीर ही आहुति के रूप में तपाई जाती है और अन्त में उसको चिता को समर्पित कर दिया जाता है। जब उसके शरीर का पूरा रस संसार रूप यज्ञशाला के द्वारा चुस लिया जाता है। जिस प्रकार से हम ईख को मशीन में तब तक पेरते हैं जब तक उसमें रस होता है और जब उसका रस पूरी तरह से निकल जाता है तो। हम ईख की खोई को सुखा कर आग जलाने के लिये इन्धन का काम भी लेते है। इसी प्रकार से मानव शरीर का रस आत्मा है जो एक निश्चित मात्रा में ही शरीर में एक प्रकार के इंधन के रूप में है। जब तक यह आत्मा रूप इंधन शरीर में रहता है तब तक ही यह मानव संसार में अपने कर्मों के द्वारा संसार रूपी शरीर के कल्याण के लिये या फिर संसार रूपी शरीर के अकल्याण के लिये कार्य करता है। जिसको इस मुख्य इंधन आत्मा का ज्ञान होता है वह सद कार्य कर के स्वयं में विद्यमान परमात्मा का साक्षात्कार कर लेता है और जिसको इसका ज्ञान नहीं होता है वह प्रकृति रुपी शरीर में ही विचरण करता है वह हमेशा विषयों में ही रमा रहता है। जिससे वह स्वयं को ही अस्वीकार करता है। जिसे हम सब एक भाषा में बुद्धिमान कह सकते है जो सब धूर्त किस्म के लोग है। जिनके नेता वैज्ञानिक है जो प्रेम कि भाषा नहीं समझते है वह सब प्रेम से शून्य लोग है। यद्यपि होना शून्य ही है लेकिन शून्य होने का तरीका विपरीत है। बुद्धि से शून्य होना है। क्योंकि यह बुद्धि का विषय नहीं है यह हृदय का विषय है जो धड़कता है जो सांसे लेता है जो हर पल-पल जीवन को महसूस करता है जिसके लिये ही उस परमेश्वर को हिरण्यगर्यः भी कहते है।

 

       भगवान शंकराचार्य जी ने कहा है: समाहिता ये प्रविलाप्य ब्रह्मं। श्रोतादि चेत: स्वयहं चिदात्मानि॥ त एव मुक्ता भवपाशबंधे। नित्ये तु पारोक्ष्यकथामिध्यामिन:॥ अर्थात जो साधक अपनी इंद्रियों के वाह्य प्रवाह को रोक कर, दुनियावी वस्तुओं का मोह छोड़ कर, मन से अहंकार त्याग कर, आत्मा में लीन होकर समाधि को धारण करता है वे साधक संसार के बंधनों से मुक्त होकर, जन्म मरण से मुक्त होकर स्थायी मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु जो केवल आध्यात्मिक बाते तो करते है लेकिन जो ध्यान समाधि का अभ्यास नहीं करते वे कभी भी दुनियावी बंधनों को तोड़कर मुक्ति नहीं पा सकते है।

 

       समाधि की स्थित को प्राप्त करने वाला साधक रस, गंध, स्पर्श, शब्द, अंधकार, प्रकाश, जन्म, मरण, रूप आदि विषयों के परे हो जाता है। साधक गर्मी-सर्दी, भूख–प्यास, यश–अपयश, सुख–दुख आदि की अनुभूति से परे हो जाता है। ऐसा साधक जन्म मरण से मुक्त होकर अमरत्व को प्राप्त कर लेता है। समाधि में ध्याता भी नहीं रहता और ध्यान भी नहीं रहता है। ध्येय और ध्याता एकरूप हो जाते हैं I मन की चेतना समाप्त हो जाती है और मन ध्यान में निहित हो जाता है I प्रभु का ध्याता साधक प्रभू रूपी समुद्र में अपने आप को विसर्जित कर मुक्त पा लेता है I समाधि में शारीरिक एवं मानसिक चेतना का अभाव रहता है I आध्यात्मिक चेतना जाग्रत हो जाती है I साधक के वास्तविक स्वरूप का केवल अस्तित्व शेष रहता है I ऐसी अवस्था को तुरिया अवस्था कहते है जो परम चेतना की अवस्था है तथा अनिर्वचनीय है।

 

      कभी- कभी साधक को अर्द्ध निंद्रा की स्थिति में ऐसा अनुभव भी हो सकता है जब साधक का मस्तिष्क जागृत अवस्था में हो लेकिन शरीर सोया हुआ हो। इसमें नींद के मुक़ाबले साधक को अधिक स्फूर्ति तथा आराम मिलता है। यह अवस्था लंबी साधना से ही संभव हो पाती है। कुछ लोग ऐसा मानते है कि समाधि पत्थर की तरह जड़ अवस्था है I जबकि साधक का ब्रह्मांडीय जीवन यहीं से शुरू होता है I आत्म-विकास शुरू होता है। साधक की कुंडलिनी नाभि चक्र से जाग्रत होकर सुषमना के जरिये मस्तिष्क तक पहुँचती है जिससे सभी चक्र जाग्रत हो जाते हैं। आनंदमय कोश में प्रवेश कर जाना भी समाधि की अवस्था कहलाता हैं। समाधि विभिन्न प्रकार की होती हैं। जैसे जड़-समाधि (काष्ठ समाधि) , ध्यान समाधि, भाव समाधि, सहज समाधि, प्राण समाधि आदि। बेहोशी, नशा तथा क्लोरोफॉर्म इत्यादि सूंघने से प्राप्त समाधि को काष्ठ-समाधि कहा जाता हैं। किसी भावनावश भावनाओं में बहुत डूब जाने से शरीर चेष्टा शून्य हो जाना भाव समाधि है। किसी इष्ट देव आदि के ध्यान में इतना डूब जाए कि साधक को निराकार अद्भुद अदृश्य ताकते साक्षात दिखाई देने लगे, ऐसा प्रतीत होने लगे कि बंद आँखों से स्पष्ट प्रतिमा नज़र आ रही है इसे ध्यान समाधि कहते हैं। ब्रह्मरन्ध्र में प्राणों को एकाग्र करना प्राण-समाधि कहलाता है। साधक स्वयं को ब्रह्म में लीन होने जैसी अवस्था में बोध पाता है इसे ब्रह्म समाधि कहते हैं। सभी समाधियों में सबसे सहज, सुखकारी तथा सुलभ "सहज समाधि" है। संत कबीर जी ने कहा है–साधो! सहज समाधि भली। गुरु प्रताप भयो जा दिन ते सुरति न अनत चली॥

 

     आँख न मूँदूँ कान न रूँदूँ काया कष्ट न धारूँ। खुले नयन से हँस-हँस देखूँ सुन्दर रूप निहारूँ॥ कहूँ सोईनाम, सुनूँ सोई सुमिरन खाऊँ सोई पूजा। गृह उद्यान एक सम लेखूँ भाव मिटाऊँ दूजा॥ जहाँ-जहाँ जाऊँ सोई परिक्रमा जो कुछ करूँ सो सेवा। जब सोऊँ तब करूँ दण्डवत पूँजू और न देवा॥ शब्द निरन्तर मनुआ राता मलिन वासना त्यागी। बैठत उठत कबहूँ ना विसरें, ऐसी ताड़ी लागी॥ कहैं 'कबीर' वह अन्मनि रहती सोई प्रकट कर गाई। दुख सुख के एक परे परम सुख, तेहि सुख रहा समाई॥

 

       असंख्य योग-साधनाओं में से सहज समाधि एक सर्वोत्तम साधन है। इसका विशेष गुण यह है कि सांसारिक जीवन जीते हुए भी साधक का साधना अभ्यास चलता रहता है। साधक के जीवन से अहम भाव लगभग समाप्त हो जाता है। वह संसार का प्रत्येक कार्य प्रभु इच्छा मानकर करता रहता है। वह प्रभु के इस संसार को प्रभु की सुगम्य वाटिका के समान देखते हुए एक माली के समान कार्य करता है। संत कबीर जी भी उक्त पद में ऐसी ही समाधि की चर्चा कर रहे हैं और यह समाधि उन साधकों को ही प्राप्त हो सकती है जो मलिन वासनाओं को त्याग कर हर वक्त शब्द में लीन रहते हैं। यहाँ एक बात मैं अवश्य बताना चाहता हूँ कि परमेश्वर जाग्रत है वह साधक से ऐसे ही बोलता है जैसे गुरु शिष्य से बोलता है अपने उपदेश के समय। अन्तर केवल यह है कि परमेश्वर स्वयं के शरीर के हृदय से प्रस्फुटित होता है वह शब्द रूप है और उसका शब्द रूप ही साक्षात्कार होता है। इसलिये शब्द को ब्रह्म कहते है। अर्थात परमेश्वर का साक्षात्कार अपने हृदय में शब्द रूप उसकी वाणी को सुनने से ही मानव मस्तिष्क मन को ज्ञान होता है कि कोई मुझसे अलग है और वह मुझपर हर पल हमेशा नजर रखता है। लेकिन मानव मन हर पल परमेश्वर पर हर समय नजर रखने में समर्थ नहीं होता है इसलिये उसके अपने शब्दों के प्रति हमेशा सतर्क अर्थात ध्यान का आश्रय लेना पड़ता है। अन्यथा ध्यान सब के लिये आवश्यक नहीं है। ध्यान उनके लिये ही ज़्यादा कारगर है बहुत अधिक क्रियाशील है उनको क्रिया से बुद्धि से दूर ले जाने का साधन है। ज़रूरी नहीं है कि इससे परमेश्वर का साक्षात्कार होगा। यह एक सतत साधना है स्वयं को शरीर कि क्रिया से मुक्त करने के लिये।

 

 

 

           जब साधक किसी सद्गुरु की कृपा से साधना, ध्यान अभ्यास पूर्ण कर समाधि योग्य हो जाता है, बाहरी विचारों से मुक्त होकर अंतर्मुखी हो जाता है तथा वह अपनी आत्मा में ही लीन रहता है तो समाधि घटित होती है। जब साधक ध्यान में बैठता है तो कुछ समय पश्चात उसे एक मौन जैसी अवस्था प्राप्त होती है। यहाँ उसे बेचैनी और उदासी-सी अनुभव होती है। यहाँ पर साधक को अपने विचारों पर अधिक ध्यान नहीं देना चाहिए। विचार आ रहे है तो आने दो, जा रहे हैं तो जाने दो, बस दृष्टा बने रहो, एक पैनी नज़र के साथ। यहाँ साधक को धैर्य बनाए रखना चाहिए। इस मौन और उदासी के बाद ही हृदय प्रकाश से भरने लगता है। ध्यान में शरीरी भाव खोने लगेगा लेकिन साधक को इससे डरना नहीं चाहिए बल्कि खुश होना चाहिए कि वह परमात्मा प्राप्ति के मार्ग की और अग्रसर हो रहा है। अब साधक को ब्रह्म भाव की अनुभूति होने लगेगी। शरीर में विद्युत ऊर्जा का संचार होने लगेगा। इससे कभी-कभी साधक के सिर में दर्द हो सकता है और यह बहुत ज़्यादा भी हो सकता है। पीड़ा या दर्द यदि अधिक बढ़े तो चिंता नहीं करना चाहिए क्योंकि जब चक्र टूटते है तो पीड़ा होती ही है क्योंकि चक्र आदि काल से सोये पड़े हैं। अत: इस पीड़ा को शुभ मानना चाहिए। साधक के शरीर में या मस्तिष्क में झटके लग सकते है। कभी-कभी शरीर कांपने लगता है लेकिन साधक को इस स्थिति से डरना नहीं चाहिए। कभी-कभी शरीर में दर्द होगा और चला जाएगा। इसको भी दृष्टा भाव से देखते रहना क्योंकि यह भी अपना काम करके चला जाएगा। ध्यान में डटे रहना। यह कुंडलिनी जागरण के चिह्न हैं, शरीर में विद्युत तेजी से चलती है। फिर धीरे-धीरे अलौकिक अनुभव होने लगते है। शरीर तथा आत्मा आनंद से भरपूर हो जाती हैं। यहाँ साधक को चाहिए कि अपना कर्ता भाव पूर्ण रूप से छोड़ कर बस देखता रहे जैसे कोई नाटक देखता है। अब ऊर्जा उर्द्धगामी हो जाती है। यदि आपका तीसरा नेत्र अर्थात शिव नेत्र नहीं खुला है तो चिंता नहीं करना क्योंकि परमात्मा प्राप्ति की यात्रा के लिए यह ज़रूरी भी नहीं है। उच्च स्थिति आने पर यह स्वत: ही खुल जाता है। समय से पूर्व शक्ति का खुल जाना भी हानिप्रद हो सकता है। अब यह समझिए कि बीज अंकुरित हो चुका है अत: साधना में धैर्य रखते चलना। यह धैर्य ही ध्यान समाधि के रास्ते में खाद का कार्य करता है। अध्यात्म के अनुभवों का बुद्धि के आधार पर विश्लेषण न करना। क्योंकि ध्यान में तरक्की कुछ इस ढंग से होती रहती है जैसे मिट्टी में दबा बीज अंकुरित होता रहता है लेकिन अंकुरण की तरक्की का पता जब चलता है जब वह धरती की सतह से ऊपर आ जाता है। इस प्रकार धीरे-धीरे साधक (ध्याता) ध्यान द्वारा ध्येय में पूर्णरूपेण लय हो जाता है और उसमें द्वैतभाव नहीं रहता है ऐसी अवस्था में समाधि लगती है। समाधि प्राप्त साधक दिव्य ज्योति एवं अद्भुत ताकत से पूर्ण हो जाता है। समाधि प्राप्त साधक सभी जीवों में प्रभु का वास देखने लगता है। समाधि घटित होने से साधक को मोक्ष मार्ग की यात्रा की और बढ़ते हुए विभिन्न सिद्धियाँ तथा रिद्धियाँ भी प्राप्त हो जाती है लेकिन साधक को परम मोक्ष प्राप्ति के लिए इनके प्रयोग से बचना चाहिए अन्यथा यात्रा और कठिन हो जाती है। ये सिद्धियाँ तथा रिद्धियाँ इस प्रकार है-

 

    अणिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, महिमा, सर्व कामना सादिका, वाशित्व, दुरश्रवण, सर्वज्ञता, वाक्य सिद्धि, परकाया प्रवेश, कल्पवृक्ष, संहारशक्ति, सृष्टि शक्ति, सर्वाग्रगण्यता, अमरत्व।

 

      यह सब सिद्धियाँ वैज्ञानिक तकनीक से संभव है। यह सारी सिद्धियाँ विज्ञान से वैज्ञानिकों ने प्राप्त कर लिया है जिसके कारण ही वह आज के समय में ऐसे विचार का प्रचार कर रहे है कि परमेश्वर ही नहीं है। इसके कारण ही दुनिया में नास्तिकता की मात्रा आज अपने चरम उत्कर्ष पर पहुंच चुकी है। जिसके कारण ही विनाश कि स्थिति उत्पन्न हो चुकी है। जैसा कि मेरा मानना है परमेश्वर है उसको उपलब्ध होने के लिये हमें इन यंत्रों से स्वयं को दूर करना होगा। जैसा कि पहले लोग साइकिल चलाते थे अपनी मंजिल पर पहुँचने के लिये और आज लोग कार से जाते है जीम में साइकिल चलाने के लिये। समय बदल चुका है। पहले लोग ध्यान का प्रयोग निष्क्रिय होने के लिये ही करते थे लेकिन अब लोग ध्यान का प्रयोग सक्रिय रहने के लिये करते है। क्योंकि इस विज्ञान के युग में पहले बहुत अधिक निष्क्रिय और बेकार हो चुके है। जिससे सभी को यह चिन्ता होने लगी है कि वह स्वयं को काम में व्यस्त रखते है। इसलिये ही आज हर तरफ कामुकता का साम्राज्य स्थापित हो चुका है और जीवन से प्रेम लुप्त हो रहा है। यह सिद्धि नहीं तो क्या है? पहले किसी नग्न औरत को देखते थे तो उनमें काम जागृत होता था आज के युग में मोबइल, टी। बी और सिनेमा हाल के उपयोग से ही लोग कामुक हो जाते है। या किसी और वृत्तियों का शिकार आसानी से बनाया जा सकता है। जहाँ पर केवल कुछ रंगों का कमाल है जो पर्दे पर चल रहा है। हालिवुड और बालिबुड का जमाना है जो आदमी को यथार्थ के धरातल से छुड़ा कर कल्पना के ऐसे अंतरिक्ष में पहुंचा दिया है जिसका कोई अंत नहीं है अनन्त है। जिसको ही वेदान्त कहते है जहाँ पर वेदों का भी अन्त हो जाता है। आज मानव पृथ्वी के किसी एक कोने में रह कर दुनिया के किसी कोने की खबर रख सकता है और वहाँ का लाईव चित्र भी देख सकता है। यही नहीं यहाँ पृथ्वी से हजारों प्रकाश वर्ष दूर किसी दूसरे सौर्यमंडल के किसी और ग्रह पर जीव किस प्रकार के है और वह कैसा कार्य कर रहे है? उसको भी देख सकता है और उसका लाईव प्रसारण भी कर सकता है चन्द्रमा और सूर्य पर यान भेज रहा है। मंगल पर अपनी मानव बस्तियाँ बसा रहा है। वहाँ पर तरह-तरह के जिवों को खोज कर पृथ्वी पर नया जीव बना रहा है। किसी मनुष्य के अन्दर एक छोटा-सा चीप डाल कर उसके बारे में सारी जानकारी प्राप्त कर रहा है। कि उसके दिमाग में क्या चल रहा है? वह दिन दूर नहीं है जब मानव चेतना का भी साक्षात्कार कर लेगा अभी तक मानव के सभी भावों का डाटा तैयार कर के उसका उपयोग कर रहा है। कृतीम मानव स्त्री पुरुष बना रहे है। जिनकी शरीर पुरी तरह से पदार्थों से बनी रही है। जो एक चलते फिरते रिबोट हो रहे। अर्थात मानव शरीर के अन्दर परिवर्तन करके उसको स्टिल का मसिन बना रहे है। चेतना के अतिरिक्त सारा कार्य करने में वैज्ञानिक समर्थ हो चुके है। मानव भावों का बढ़े अस्तर पर उपयोग करके किसी भी समुदाय को या राज्य या देश के सभी नागरिकों जब चाहे रुला सकते है जब चाहे हंसा सकते है जब चाहे सामूहिक हत्या के लिये भी प्रेरित कर सकते है। जहाँ चाहे वहाँ भुकम्प ला सकते, जहाँ चाहे वहाँ कभी भी वारिस करा सकते है, भयानक बाढ़ ला सकते है, जहाँ चाहे जब चाहे तूफान और बवंडर ला सकते है। यह उत्थान के साथ बहुत बड़े पतन का भी कारण बन सकता है। जिसके लिये ही आज जो समझदार लोग है। वह इस आश्चर्यचकित कर देने वाली वैज्ञानिक सिद्धियों से इतने अधिक भयभीत हो चुके है। कि वह इस पृथ्वी को छोड़ कर किसी दूसरे ग्रह पर जाने कि योजना पर काम कर रहे है। जिसमें से एक मैं भी हूं, क्योंकि विज्ञान मानव को ऐसी स्थिति पर ला कर खड़ा कर दिया है जहां से वापिस होना असंभव है। यह सब कुछ जो कुछ दिखाई दे रहा है वह सब मशीनों के अधिकार में होने वाला है। जिससे मानव कि सारी जो स्वतंत्रता है वह बहुत भयानक परतंत्रता में परिवर्तित हो सकती है। लगभग जितने विकसित देश है वह सब इसकी चपेट में आ चुके है जो विकाश शील देश है वह थोड़े समय में ही इसके चपेट में आने वाले है और बहुत बड़ी संख्या में कभी भी सामूहिक नर संहार हो सकता है। जिसका कारण युद्ध नहीं हो यद्यपि सूक्ष्म तकनीकी के सहायता से यह सब संभव हो सकता है।

 

      समाधि लगने पर साधक बिना आँखों के देख सकता है, बिना कानों के सुन सकता है, बिना मन मस्तिष्क के बोध कर सकता है, जन्म मरण से मुक्त स्थूल देह से बाहर निकल कर खुद को अभिव्यक्त कर सकता है, ब्रह्मांड से भी अलग होने की ताकत प्राप्त कर लेता है। इसके बारे में संत कबीर जी ने कहा है–

 

      बिना बोलनै बिना केचुकी, बिनहीं संग-संग होई। दास कबीर औसर भाल देखिया जानेगा जस कोई॥

 

     संत नानक देव जी उक्त सम्बंध में फरमाते हैं कि-अखी बाझहु वेखणा, विणु कन्ना सुनणा। पैरा बाझहु चलणा, बिणु हथा करणा।

 

     जीभै बाझहु बोलणा, एउ जीवट मरणा। नानक हुकमु पछाणी कै तउ खसमै मिलणा।

 

     दादू दयाल जी कहते है कि–बिन श्रवणौ सब कुछ सुनै, बिन नैना सब देखै। बिन रसना मुख सब कुछ बोलै, यह दादू अचरज पेखै॥

 

    एक मुस्लिम महात्मा मौलाना रूम इसको इस प्रकार व्यक्त करते है–

 

बेपरो बे पा सफ़र में करदम। बे लबो बे दंदो शंकरं में खुर्दम। चश्म बस्ता आलम में दीदम॥

 

     रामायण में संत तुलसीदास जी लिखते है कि-बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना। आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥ तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥ असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥

 

  "ध्यान" तथा "समाधि" में एक महत्त्वपूर्ण अंतर है कि साधक जब ध्यान कर रहा होता है तो उसको यह पूरा अहसास रहता है कि वह "ध्याता" है तथा "ध्येय" का ध्यान कर रहा है अर्थात यहाँ पर द्वैत भावना रही। लेकिन जब साधक का चित्त पूर्ण रूप से "ध्येय" में परिवर्तित होने लगता है और स्वयं के अस्तित्व का अभाव हो जाता है अर्थात यहाँ केवल "ध्येय" ही शेष रह जाता है, यहाँ पर अद्वैत ही शेष रह जाता है।

 

      यह ध्यान, योग, समाधि और कुछ नहीं प्रेम ही है जो समय के साथ नये-नये रुपों में परिभाषित किया गया है। आज जिसको हम सब प्रेम के रूप में देखते है वह काम है जो कामना से बना है जिसके पीछे एक ऊर्जा का सर्जन होता है जिसका सदुपयोग एक सुन्दर सभ्य संस्कारित समाज का निर्वाण करता है और जब यह अनियंत्रित हो जाता है। तो यह किसी को पहचान नहीं करता है यह अपने सारी सीमाओं का बहिष्कार कर देता है। अर्थात सीमाए तोड़ देता है जिस प्रकार से समुद्र में सुनामि आती है। तो समुद्र के किनारे रहने वाले लोग और नगर राज्य को तबाह कर देता है। जिस प्रकार से पृथ्वी को तापमान गरम होने से पृथ्वी का वायुमंडल गरम हो रहा है। जिससे कितने प्रकार के जीव हमेशा के लिये लुप्त हो चुके है और जिसके कारण ही इस मानव जाती पर भी कितने सूक्ष्म और बारीक दुस्परीणामों के नाम से बीमारियों का उपस्थित होना है। जिसका इलाज इस संसार में नहीं है कितनी नई बीमारियाँ है। जिसका वैज्ञानिकों का ज्ञान ही नहीं है जिसको वह लाइलाज की सूची में रखते हैं। यह सब विकृतियों का कारण अनियंत्रित काम है। जिसको अब नियंत्रित करना असंभव है। क्योंकि पहले प्राचीन काल में काम नियंत्रित था? लेकिन एक समय पश्चिम देशों से ऐसी हवा उड़ाई गई कि काम की स्वतन्त्रता से मानव को सुखी किया जा सकता है। जिसके प्रमुख सिगमंड फ्रायड को माना जाता है। वह हवा आज लगभग सभी देशों में फैल चुकी है जिसका प्रसार दुनिया के बड़े देशों ने किया जिसके कारण ही एड्डस और कैन्सर जैसी लाइलाज बीमारियों का दब दबा पूरे विश्व के देशों में हो गया है। जिसके कारण ही ड्रग्स स्मगलर अथाह धन दवा के नाम पर कमा रहे है। दबाये किसी रोग को खत्म नहीं करती यद्यपि रोग को इस स्तर तक बढ़ा देती है जो शरीर के साथ ही खत्म होती है। यह सब मिल कर प्रेम को लुप्त होने के कारण बन चुके है।

 

      आंकड़े देने से बात कड़वी न होती तो बताते कि पाश्चात्य देशों में यौन-सदाचार' की कितनी दुर्गति हुई है। इस दुर्गति के परिणामस्वरूप वहाँ के वैयक्तिक जीवन में रोग-शोक, चिन्ता, दुर्वासनायें पारिवारिक जीवन में क्रोध, ड़ड़ड़ड़, असंतोष और संताप एवं सामाजिक जीवन में अशांति, उच्छृंखलता, उद्दंडता और शत्रुता का कितना भयानक वातावरण छा गया है। एक छोटा-सा प्रमाण यही है कि अमेरिका जैसे धनी देश के नागरिकों में 100 के पीछे 60 लोगों को नींद आने के लिये दवा की गोली लेनी पड़ती है, लोगों के मस्तिष्क तनाव और चिन्ताओं के बोझ से दबे रहते हैं, अपनी पत्नी पर भी भरोसा नहीं कर सकते वह किस क्षण तलाक दे-दे और घर-बार छोड़ कर चली जाये।

 

      अब यह प्रवाह धीरे-धीरे इस देश को भी छूने लगा है। बालकों के चरित्र और सहवास की मर्यादायें ढीली होने से स्वास्थ्य पर तो बुरा असर पड़ा ही है, सामाजिक जीवन में उच्छृंखल मनोवृत्ति का तेजी से विकास होता जा रहा है। वंशानु-संक्रमण की सारी तेजस्विता और स्वाभिमान नष्ट होता जा रहा है। बच्चे छोटी अवस्था से ही आत्म-हीनता (इनफीरियरिटी काम्प्लेक्स) से ग्रसित होते जा रहे हैं। आज का नवयुवक अपने भीतर इतनी आत्म-हीनता भरे हुये रहता है कि वह अपने आपको अच्छी तरह व्यक्त भी नहीं कर सकता। यह फ्रायड जैसे कामुकता समर्थक दार्शनिकों की ही देन है-जिसने पाश्चात्य देशों को मनो-विज्ञान के नाम पर बहुत प्रभावित किया है और वहीं से वह आँधी अब इस देश में भी बढ़ती आ रही है। मार्क्स ने आर्थिक आवश्यकताओं को प्रधानता दी, जिससे लोगों के जीवन का एक लक्ष्य हो गया- 'पैसा' । फ्रायड ने 'काम-सुख' ही इष्ट'का सिद्धान्त देकर लोगों को वासना का अपराधी बना दिया। यदि आज के मनुष्य का मानसिक विश्लेषण किया जाय तो मिलेगा कि ईश्वर, आत्मा, ज्ञान, शिक्षा, प्रेम, व्यवहार, आदर, सत्कार, सामंजस्य, सहयोग, लोक-सुधार और पारलौकिक सद्गति आदि की कल्पना उन्हें छू भी नहीं गई- (1) पैसा और (2) काम सुख। यही दो लक्ष्य अब शेष रह गये हैं। परमात्मा ने शरीर में जहाँ अनेक ऐसे यन्त्र लगाये हैं, जो इस जीवन और पारलौकिक सुखों की प्राप्ति में मदद देते हैं, वहाँ उन ग्रन्थियों की रचना भी की है, जिससे सृष्टि का क्रम न रुके। यहाँ निरन्तर गति और जीवन बना रहे। किन्तु उसकी भी अपनी मर्यादा है, उसे तोड़ने का साहस करना अपने, समाज और परमात्मा तीनों के प्रति विश्वासघात कहा जायेगा। फ्रायड का कथन है कि' काम सेवन'से ही मनुष्य का जन्म होता है, यह प्रकृति की देन है, इसलिये जो जितना अधिक अपनी वासना की पूर्ति कर सकता है, वह उतना ही सुखी है। वासना की सन्तुष्टि के लिये विवाह मर्यादाओं का उल्लंघन करना पड़े तो भी वह अपराध नहीं है। फ्रायड लिखते हैं कि छोटे बालक के मन में स्वयमेव अपनी माँ के साथ ही (इडिपुस काम्प्लेक्स) और पुत्री की अपने पिता के साथ (इलेक्ट्रा काम्प्लेक्स) काम सम्बन्ध स्थापित करने की इच्छा जाग उठती है। पुत्र अपनी माँ से मिलना चाहता है, किन्तु जब वह देखता है कि उसका पिता यह स्थान पहले ही ग्रहण किए हुए है, तो उसके मन में पिता के प्रति घृणा और दुर्भाव पैदा होने लगता है। घृणा और विद्वेष कई बार इतने भयंकर हो उठते हैं कि वह अपने पिता को मार डालने तक की बात सोचने लगता है, उसी प्रकार जब वह माँ के साथ काम सम्बन्ध स्थापित रखने के वंचित रखा जाता है, तो उसके अन्दर आत्म-हीनता की भावना विकसित होने लगती है। फ्रायड ने व्यक्तित्व के विकास और सभ्यता के मार्ग में इस प्रकार की आत्म-हीनता को अवरोध माना है और यह विश्वास व्यक्त किया है कि यदि' काम-वासना' की पूर्ति को बिल्कुल स्वच्छन्द कर दिया जाये, तो मनुष्य सभ्यता और संस्कृति के चरम बिन्दु तक पहुँच सकता है। फ्रायड यह नहीं मानते कि इस तरह का विचार केवल एबनार्मल (अर्थात् कुछ असाधारण) लोगों में ही उठता है वरन् वे इसे नार्मल अर्थात् सहज वृत्ति मानते हैं। अबोध बालक में इस तरह का यौन आकर्षण होना अयुक्ति ही नहीं बहुत हास्यास्पद बात है। भारतवर्ष में मृत्यु पर्यन्त माता के प्रति लोगों में इतनी पवित्रता होती है कि ऐसे गंदे और फूहड़ विचार मस्तिष्क में आते तक नहीं। पिता-माता के प्रति दुर्भाव आना सहज वृत्ति रही होती तो श्रवण कुमार अपने माता-पिता को कंधों पर चढ़ाते हुए न घूमता। राम दशरथ की बात ठुकरा देते और अयोध्या में गृह-युद्ध की स्थिति की बात पैदा कर देते। दुर्योधन जैसा अत्याचारी शासक भी अपने माता-पिता का उतना ही भक्त था, जितना किसी आदर्श संतान हो होना चाहिये। भरत कुमार के लिये तो वन में कोई अवरोध नहीं था पर उसने अपनी माँ की उपासना देवताओं की तरह की। फ्रायड के इस थोथे सिद्धाँत की वास्तविकता प्रकट करते हुये, श्री इलाचन्द जोशी लिखते हैं-" फ्रायड अपनी सुन्दरी माता आमेलिया फ्रायड का पहला पुत्र था। आमेलिया के पति याकोब फ्रायड ने यह दूसरा विवाह किया था। जब फ्रायड का जन्म हुआ था, तब आमेलिया की आयु कुल 21 वर्ष की थी, प्रथम सन्तान के प्रति माँ का भी अत्यधिक स्नेह और लाड़-प्यार होता है, फ्रायड जन्मजात प्रतिभाषाली और तीव्र अनुभूतिशील बालक था। आश्चर्य नहीं कि इस प्रीकोशस बालक के मन में सचेत ही रूप में अपनी स्नेहशीला और सुन्दरी माता के प्रति बहुत छोटी अवस्था में ही तीव्र यौनाकांक्षा जाग उठी हो। फ्रायड कुतूहली और ईर्ष्यालु स्वभाव का भी था। पिता उसे कई बार डाँटता भी था, इसलिये पिता के प्रति दुर्भाव हो जाना स्वाभाविक हो सकता है।

 

     अपने जीवन की इसी संस्कार जन्य कमजोरी को लगता है, फ्रायड ने एक सर्व-साधारण सिद्धान्त मान लिया और उसे ही सत्य सिद्ध करने में जीवन भर लगा रहा। मनुष्य जीवन की साधारण गति अधोमुखी होती ही है, सो उसे समर्थक भी मिलते गये और देखते-देखते 'फ्रायड के सेक्स' ने सारे पाश्चात्य समाज को अपनी कुण्डली में बाँध लिया। नैपोलियन 25 वर्ष की आयु तक काम-सुख तो क्या नारी के प्रति भी आकृष्ट नहीं हुआ था। न्यूटन के मस्तिष्क में यौनाकर्षण उठा होता तो उसने अपना बुद्धि-कौशल सृष्टि के रहस्य जानने की अपेक्षा अपरिमित काम-सुख प्राप्त करने में झोंक दिया होता। भीष्म और हनुमान प्रतिज्ञा बद्ध हो सकते हैं, पर न्यूटन के सामने तो वैसी कठिनाई थी ही नहीं। जन्मजात प्रतिभायें अधोमुखी ही नहीं ऊर्ध्वमुखी भी होती रही हैं और उनके काम-सुख की अपेक्षा अधिक सुख लोगों को मिलता रहा है। हमारे देश में तो सच्चे और शाश्वत सुख की प्राप्ति में काम-वासना को प्रधान बाधा माना गया है। रामकृष्ण परम हंस विवाहित होकर भी योगियों की तरह रहे, वे सदैव आनंद विह्वल रहते थे। स्वामी रामतीर्थ और भगवान् बुद्ध ने तो ड़ड़ड़ड़ सुख के लिये तरुणी पत्नियों का परित्याग तक कर दिया था। महर्षि दयानन्द ब्रह्मचारी होकर जिये। महात्मा गाँधी ने 36 वर्ष की अवस्था के बाद काम-वासना के बिल्कुल नियन्त्रित कर दिया था तो भी उनके जीवन में प्रसन्नता का फव्वारा बहता रहता था, तब फिर क्या 'काम-सुख को प्रधान जीवन सुख और लक्ष्य' की मान्यता दी जा सकती है।

 

          'रेतस' को ऊर्ध्वगामी बनाकर जो उल्लास शक्ति प्रसन्नता प्रमोद और आनन्द मिलता है, योग-शास्त्रों डडडड उसकी बड़ी प्रशंसा की गई है और उसे अनवरत डडडड सुख से भी बढ़कर बताया गया है। यौनाकर्षण डडडड क्षणिक सुख की प्रेरणा देता है, इस प्रकार की तृप्ति आँशिक सुख भले ही मिल जाता हो पर बाद में शरीर और आत्मा की दुर्गति ही होती है। मनुष्य के विचार और क्रिया-कलाप सब निम्नगामी होते चले जाते हैं, व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में वह विद्रूप और उपद्रव खड़े हो जाते हैं, जिनकी चर्चा प्रथम पंक्तियों में गई है।

 

       आज भी जिसने एक बड़े काठ को काट कर छेद कर डाला था, वह भ्रमर सायंकाल तक एक कमल के फूल पर जा बैठा। कमल के सौंदर्य और सुवास में भ्रमर का मन कुछ ऐसा विभोर हुआ कि रात हो गई, फूल की बिखरी हुई पंखुडियाँ सिमटकर कली के आकार में आ गई। भौंरा भीतर हो ही बंद होकर रह गया। रात भर प्रतीक्षा की, भ्रमर चाहता तो उस कली को कई और से छेद करके रात भर में कई बार बाहर आता और फिर अंदर चला जाता है पर वह तो स्वयं भी कली की एक पंखुडी को गया। प्रात: काल सूर्य की किरणे उस पुष्प पर पड़ी तो पंखुडियाँ फिर खिली और वह भौंरा वैसे ही रसमग्न अवस्था में बाहर निकल आया। यह देखकर संत ज्ञानेश्वर ने अपने शिष्यों से कहा-देखा तुमने। प्रेम का यह स्वरूप समझने योग्य है। भक्ति कोई नया गुण नहीं, वह प्रेम का ही एक स्वरूप है। जब हम परमात्मा से प्रेम करने लगते हैं तो द्रवीभूत अंतःकरण सर्वत्र व्याप्त ईश्वरीय सत्ता में सविकल्प तदाकार रूप धारण कर लेता है, इसी को भक्ति कहते हैं। भगवान निर्विकल्प और प्रेमी सविकल्प दोनों एक हो जाते हैं, द्वैत भाव भी अद्वैत हो जाता है। इसी बात को शास्त्रकार ने इस प्रकार कहा है-'द्रवी भाव पूर्विका मनसो भगवदेकात्मा रूपा सविकल्प वृत्तिर्भक्तिरिती'

 

     प्रेम 'एक बहुत व्यापक शब्द है। इसका अर्थ ईश्वर प्रेम और विश्व प्रेम से लेकर निकृष्ट वासनाओं तक लगाया जाता है। निम्न कोटि के मनुष्यों ने तो इसका मतलब केवल कामुकता जन कृत्यों से मान लिया है। उससे कुछ ऊँचे सामान्य श्रेणी वाले अपने स्त्री-पुत्र, सगे-सम्बन्धियों से लगाव, हित चिन्तन को ही प्रेम मानते हैं। कुछ बुद्धिमान व्यक्ति कला, साहित्य, संगीत, ज्ञान विज्ञान आदि की साधना को भी प्रेम की संज्ञा देते हैं। पर इनमें से वास्तव में कोई' प्रेम' कहे जाने लायक नहीं है। ये सब स्वार्थ की सीमा में ही आते हैं जबकि सच्चा प्रेम परमार्थ का प्रमुख अंग है। यदि तुम शांति, सामर्थ्य और शक्ति चाहते हो तो अपनी अंतरात्मा का सहारा पकड़ो। तुम सारे संसार को धोखा दे सकते हो किंतु अपनी आत्मा को कौन धेाखा दे सका है? यदि प्रत्येक कार्य में आप अंतरात्मा की सम्मति प्राप्त कर लिया करेंगे तो विवेक पथ नष्ट न होगा। दुनिया भर का विरोध करने पर भी यदि आप अपनी अंतरात्मा का पालन कर सकें तो कोई आपको सफलता प्राप्त करने से नहीं रोक सकता। जब कोई मनुष्य अपने आपका अद्वितीय व्यक्ति समझने लगता है और अपने आपको चरित्र में सबसे श्रेष्ठ मानने लगता है, तब उसका आध्यात्मिक पतन होता है। महान व्यक्ति सदैव अकेले चले हैं और इस अकेलापन के कारण ही दूर तक चले हैं। अकेले व्यक्तियों ने अपने सहारे ही संसार के महानतम कार्य संपन्न किए हैं। उन्हें एकमात्र अपनी ही प्रेरणा प्राप्त हुई है। वे अपने ही आंतरिक सुख से सदैव प्रफुल्लित रहे हैं। दूसरे से दु:ख मिटाने की उन्होंने कभी आशा नहीं रखी। निज वृतियों में ही उन्होंने सहारा नहीं देखा। अकेलापन जीवन का परम सत्य है। किंतु अकेलेपन से घबराना, जी तोड़ना, कर्तव्य पथ से हतोत्साहित या निराश होना सबसे बड़ा पाप है। अकेलापन आपके निजी आंतरिक प्रदेश में छिपी हुई महान शक्तियों को विकसित करने का साधन है। अपने ऊपर आश्रित रहने से आप अपनी उच्चतम शक्तियों को खोज निकालते हैं।

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