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न्यायकारी वज्ररूप ईश्वर

 

न्यायकारी वज्ररूप ईश्वर

 


स वज्रभृद्दस्युहा भीम उग्रः सहस्त्रचेता: शतनीथ ऋभ्वा ।

चम्रीषो न शवसा पाञ्चजन्यो मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥

(ऋ. १/१००/१२)


हे दुष्ट नाशक परमात्मन् ! आप (वज्रभृत्) दुष्टों के छेदक सामर्थ्य से सर्वशिष्टहितकारक दुष्टविनाशक, जो न्याय उसको धारण कर रहे हो, 'प्राणो वा वज्र:' अत एव (दस्युहा) दुष्ट पापी लोगों का हनन करने वाले हो, (भीमः) आपकी न्याय आज्ञा को छोडने वालों पर भयकंर भय देने वाले हो, (सहस्त्रचेता:) सहस्त्रों विज्ञान आदि गुण वाले आप ही हो। (शतनीथ) सैकड़ों असंख्यात् पदार्थों की प्राप्ति कराने वाले हो, (ऋभ्वा) अत्यन्त विज्ञानादि प्रकाश वाले तथा महाबलवाले हो (न, चम्रीषः) किसी की चमू (=सेना) के वश को प्राप्त नहीं होते हो। (शवसा पाञ्चजन्यः) स्वबल से आप पाञ्चजन्य (= पाँच प्राणों के) जनक हो (मरुत्वान्) सब प्रकार से वायुओं के आधार तथा चालक हो, सो आप (इन्द्रः) हमारी रक्षा के लिये प्रवृत्त हों, जिससे हमारा कोई काम न बिगड़े।


वेद मंत्र में ईश्वर को वज्र-भयंकर-कठोर-बलशाली कहा है। जैसे बिजली पहाड़ पर गिरती है तो उसे भी तोड़ देती है। जो व्यक्ति ईश्वर को भयंकर वज्ररूप जानता है, दण्डदाता व न्यायकारी जानता है वह पाप कर्मों से बचकर ईश्वर को प्राप्त कर लेता है। जो ईश्वर को वज्र सहित जानता है वह कुछ भी उलटा कर्म नहीं करेगा। जैसा मेरा कर्म, उपासना व ज्ञान रहेगा वैसा मुझे ईश्वर से फल प्राप्त होगा। पहले ज्ञान में गड़बड़ होती है फिर कर्म में आती है। ईश्वर को छोड़ के अन्य की उपासना करेगा तो उसको दण्ड जरूर मिलेगा। यदि सही उपासना करेगा तो इसी प्रकार ज्ञान-कर्म भी ठीक करेगा।


ईश्वर दुष्टों का नाश करने वाला है, इसका लोगों ने गलत अर्थ माना कि ईश्वर अवतार लेकर नाश करेगा, यदि ऐसा मान लिया जाये तो विनाश के लिये अनेक शरीर धारण करने पड़ेंगे। वस्तुत: ईश्वर को शरीर धारण करने की जरूरत नहीं। ईश्वर दुष्ट कर्म करने वालों को सीधे का सीधा नष्ट नहीं करता, परन्तु मृत्यु के बाद उनको गधे-घोड़े आदि की योनि देकर सजा भुगवाता है। पाप करने वाले अधिक इसीलिये तो मनुष्येतर प्राणी अधिक हैं।


कोई कहे गधे, सूअर, अपनी मस्ती में मस्त व महान् विद्वान् अपनी मस्ती में मस्त इस प्रकार दोनों समान हुए। ऐसा मानने वाले विचार नहीं करते कि जो सुख का विकास मनुष्य में है उसका हजारवाँ अंश भी सुअर, गधे, कबूतर आदि में नहीं। क्या वे कभी समाधि लगा सकते हैं ?


अच्छा कर्म करने वाले को सतत ईश्वर से ज्ञान, बल, आनन्द, निर्भयता, उत्साह प्राप्त होता है। दुष्ट को सजा इस रूप में कि वह भयभीत क्रोधित, दु:खी रहकर दण्ड भोगता रहता है।

 

ईश्वर की सर्वप्रियता

 

पुरूतमं पुरूणामीशानं वाय्य्याणाम् । इन्द्रं सोमे सचा सुते ॥

(ऋ-१/५/२)


अर्थ -  (पुरूतमम्) अत्यन्त उत्तम और शत्रु विनाशक ईश्वर (पुरूणाम्) बहुविध जगत् के पदार्थों के (ईशानम्) स्वामी और उत्पादक को (वार्याणाम्) वरणीय, परमानन्द मोक्षादि पदार्थों के (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्यवान् आप को (सोमे) उत्पत्ति स्थान संसार (सचा) अत्यन्त प्रेम से (सुते) आप से उत्पन्न होने से हृदय में गावें।


मंत्र में एक बात कही कि हे ईश्वर ! आप सब से श्रेष्ठ- उत्तम हो। ईश्वर की श्रेष्ठता को प्राय: न समझने के कारण व्यक्ति लौकिक वस्तुओं में फॅसा रहता है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध के विषयों में व्यक्ति लगा रहता है। कोई न कोई लौकिक विषय उसके व्यवहार में सेवनीय बना रहता है। ये पदार्थ उत्तम हैं या ईश्वर उत्तम है, इसका परीक्षण नहीं करता। इसलिये जो विषय इन्द्रियों के सामने आते हैं उन्हीं का सेवन उन्हीं की उपासना में लगा रहता है।


ईश्वर के बारे में व्यक्ति को अपने आप से पूछना चाहिये जो शरीर व इसका सौन्दर्य है क्या इसे उसने स्वयं बनाया? जिन आँखो से देखता है क्या वह व्यक्ति ने स्वयं बनाई? उँगली क्या स्वयं बनाई? फिर उँगलियों पर रंग लगा लगा कर इतरा रहा है कि मेरी उँगली-मेरी उँगली। हमने क्या बनाया? लौकिक व्यक्तियों को अपने बाल-बच्चों की बहुत चिन्ता है परन्तु जो भी सुन्दरता दीखती है वह सब ईश्वर प्रदत्त है।


जो कुछ ईश्वर ने हमारे लिये बनाया उसका उचित प्रयोग करें और प्रयोग करते समय ईश्वर को न भूलें। ब्रह्मचारी भी गृहस्थाश्रम में जाकर सन्ध्या, हवन, पञ्चमहायज्ञ छोड़कर एडी से चोटी तक धन कमाने में ही लग जाता है। गृहस्थ के धर्म का पालन नहीं करता । क्या वह मानव जीवन जी रहा है ?


मैं आत्मा, ईश्वर की दी हुई चीजों व ज्ञान के बिना कुछ भी नहीं कर सकता। यह उलटा ज्ञान है कि- पति ही भगवान्, केवल बच्चों का पालन पोषण ही भक्ति, माता-पिता की सेवा ही ईश्वर पूजा है आदि। यह सब हमारा कर्त्तव्य (धर्म) है इसे करना चाहिए परन्तु यह सब सामर्थ्य कहाँ से आया ? यह सब ईश्वर प्रदत है।


माँ ने दूध, केले, हलवा सब पेट रूपी हँडिया में डाल लिये, उससे दूध बना तो बच्चे को पिला दिया। उसने तो केवल भोजन को पेट में डाल दिया-दूध किसने बनाया? ईश्वर ने। फिर कहती है मेरा बच्चा ! मेराबच्चा ! मेंने पाला।


मेंरे नाक, कान, आँख आदि का प्रयोक्ता हूँ। ये मैंने स्वयं नहीं बनाये। इसको जैसे का तैसा मानने से क्यों हटते हो ? जिस प्रकृति का उपयोग करते हैं इस प्रकृति को इस रूप में किस ने लाकर खड़ा किया ? क्या किसी जीव में सामर्थ्य है ? वैज्ञानिक जिन धातुओं से शोध-आविष्कार करते हैं वह भी ईश्वर प्रदत्त और जिन नेत्र-हस्त आदि साधनों से करते हैं वे भी ईश्वर प्रदत्त। यह भौतिक विज्ञान भी ईश्वर ने अपने साधनों द्वारा दिया।


हम में जो विद्या है, बल है, धन है उसका स्वामी ईश्वर है। मनुष्य इसे अपना मानता है यह रोड़ा है। इसे हटायें । बन्दरिया की तरह मरे बच्चे को छाती से चिपका कर न रखें । में-मेरे का सम्बन्ध हटायें ।

 

 वायो अनन्त बल परेश

 

वायवायाहि दर्शतेमे सोमा अरङ्कृताः। तेषां पाहि श्रुधी हवम्॥

(ऋ. १/२/१)


(वायो) हे अनन्त बल परेश ! (आयाहि) अपनी कृपा से हमें प्राप्त हो। (दर्शत) हे दर्शनीय ! (इमे) वे (सोमाः) सोमवल्ली आदि औषधियों का उत्तम रस-श्रेष्ठ पदार्थ (अरड्कृता:) उत्तम रीति से बनाये गये (तेषाम्) उनको (पाहि) स्वीकार करो (श्रुधी) सुनकर प्रसन्न होवें (हवम्) पुकार को।


उपासक ईश्वर को अपना माता-पिता मानकर प्रार्थना करता है। 'वायु' शब्द से ईश्वर का ग्रहण किया गया है। जो लोग ऋषियों की परम्परा को नहीं जानते वे वेद का सही अर्थ नहीं जान पाते। वायु में एक ऐसा गुण है जो उथल-पुथल मचा देता है। चक्रवात आता है, तो कितना वेगवान् होता है, वृक्ष उखाड़ देता है। समुद्र में सात मञ्जिले जहाजों का कुछ पता नहीं चलता। इस वायु की भाँति ईश्वर भी वेगवाला है कि सारे संसार को धक्का देकर चला रहा है और सारी हलचल मचाता है। जैसे इच्छामात्र से, बिना दूसरे हाथ से थामे अपने एक हाथ को जीवात्मा उठाता है इसी प्रकार ईश्वर स्वयं बिना हिले-डुले क्रिया करता है। ईश्वर में क्रिया के बिना सृष्टि कैसे बनी? जैसे चुम्बक स्वयं बिना हिले-डुले सुई को चारों ओर से खींच लेता है, क्रियाशील कर देता है।


दौड़-धूप स्थानान्तर करके क्रिया करना तो एक-देशीय में होता है। दौड़धूप की क्रिया सर्वव्यापक को नहीं करनी पड़ती। भौतिकवादी रूपवाली वस्तु को तो वस्तु मानते हैं, रूप रहित को पदार्थ ही नहीं मानते। जब ईश्वर में रूप है ही नहीं तो उसे आँख से कैसे देख सकते हैं। भौतिक वस्तुओं का ही रूप होता है। ईश्वर तो रूप रहित ज्ञान-गुण-बल-क्रिया वाला द्रव्य-चीज-वस्तु पदार्थ है।

 

 स्तुति से गुणों की प्राप्ति

 

अग्निः पूर्वेभित्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत। स देवाँ एह वक्षति ॥

(ऋ. १/१/२ )


हे सब मनुष्यों के स्तुति करने योग्य ईश्वर अग्ने ! (पूर्वेभि:) विद्या पढ़े हुए प्राचीन (ऋषिभिः) मन्त्रार्थ देखने वाले विद्वानों और (नूतनैः) वेदार्थ पढ़ने वाले नवीन ब्रह्मचारियों से (ईड्यः) स्तुति के योग्य (उत) और जो हम लोग मनुष्य, विद्वान् वा मूर्ख हैं, उनसे भी अवश्य आप ही स्तुति के योग्य हो, सो आप हमारे और सब संसार के सुख के लिये दिव्य गुण अर्थात् विद्या को कृपा से प्राप्त कराओ। आप ही सब के इष्टदेव हो।


ईश्वर स्तुति से हमें क्या उपलब्ध होता है ? ईश्वर के गुणों का वर्णन, ईश्वर के विषय में जानना भी स्तुति है। जो गाते-कीर्तन करते हैं वह भी स्तुति है। किसी के अच्छे गुण को सुनने पर उस पदार्थ को प्राप्त करने की रुचि हो जाती है। ठीक रूप में सुनना 'स्तुति' गलत रूप में सुनना 'निन्दा' है।


ईश्वर को उलटा मानना- गाना कि हे ईश्वर ! आप चौथे या सातवें आसमान में अथवा वैकुण्ठ, परमधाम में रहते हैं। यह निन्दा हुई। और गाते क्या कि :-


भोले बाबा से चाहे जो करा लो जी,

चाहे दुकान चलवा लो खेती करवा लो जी ।


और ये अवसरवादी लोग जिस मञ्च पर जायेंगे उसी मञ्च पर ऐसी ही बात करेंगे-कहेंगे भाइयों सभी धर्म मार्ग ठीक हैं। यह निन्दा है।क्योंकि जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा जानना, मानना, कहना, करना है वह स्तुति, उलटा जानना निन्दा है।श्रवण-मनन-ज्ञान द्वारा स्तुति की जाती है। इससे ईश्वर के दिव्य गुण हमें प्राप्त होंगे। जो ईश्वर को ठीक नहीं जानता-मानता वह कैसे जानेगा कि अच्छे-बुरे काम क्या हैं ? अच्छे-बुरे काम की अन्तिम कसौटी ईश्वर ही है।क्योंकि वह अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा नहीं बताता। किये हुए उपकार को नहीं मानना कृतघ्नता है। जब व्यक्ति गुणों को जानता है तो उनको प्राप्त करने की प्रार्थना (याचना) भी करता है।

 

त्याग पूर्वक भोग

 

जितना भी जड़-चेतन जगत् दिखाई देता है और जो नहीं दिखाई देता है वह सारा का सारा ईश्वर से आच्छादित है।


"तेन त्यक्तेन भुंजीथाः" संसार में बनी हुई चीजों को हम खाते-पीते प्रयोग में लाते हैं। भोजन खाते हैं, बड़़ा स्वादिष्ट है। बिना राग के केवल शरीर पोषण के लिये आवश्यकतानुसार खाते हैं तो ठीक, परन्तु जब अधिक राग और स्वाद से खाते हैं तो अनर्थ करते हैं। त्याग पूर्वक खानेवाला अनुचित मात्रा में नहीं खाता। राग वाला मात्रा से अधिक खाता है। अधिक लेकर जूठा छोड़ता है, इससे अन्य के भाग की हानि भी करता है। और राग के कारण वह ईश्वर से प्यार भी नहीं कर पायेगा। जो कपड़े भी राग से पहनता है उससे भगवान् छूट जायेगा। बाहर की चीजों को इतना सुसज्जित किया जाता है कि ईश्वर उपासना कि लिये आधा घण्टा भी नहीं बचतापरन्तु त्याग पूर्वक प्रयोग (भोग) करता हुआ ईश्वर तक पहुँच जायेगा। व्यक्ति उठते ही एड़ी-चोटी का जोर लगाता है - संसार की चीजों को प्राप्त करने के लिये और दिनभर यही करता रहता है। भोग मनोरथों में उलझा व्यक्ति कभी मुक्ति सुख को नहीं पा सकेगा।

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