👉 श्रद्धा द्वारा पोषित मिट्टी का गुरु
गुरु द्रोणाचार्य से पाण्डव
धनुर्विद्या सीखने बन में गये हुए थे। उनका कुत्ता लौटा तो देखा कि किसी ने उसके होंठों
को बाणों से सी दिया है। इस आश्चर्यजनक कला को देखकर पाण्डव दंग रह गये कि सामने
से इस प्रकार तीर चलाये गये कि वह कहीं अन्यत्र न लग कर केवल होंठों में ही लगे
जिससे कुत्ता मरे तो नहीं पर उसका भौंकना बंद हो जाए। कुत्ते को लेकर पाण्डव
द्रोणाचार्य के पास पहुँचे कि यह कला हमें सिखाइये। गुरु ने कहा-यह तो हमें भी
नहीं आती। तब यही उचित समझा गया कि जिसने यह तीर चलाये हैं उसी की तलाश की जाय।
कुत्ते के मुँह से टपकते हुए खून के चिह्नों पर गुरु को साथ लेकर पाण्डव उस
व्यक्ति की तलाश में चले। अन्त में वहाँ जा पहुँचे जहाँ कि भील बालक अकेला ही बाण
चलाने का अभ्यास कर रहा था। पूछने पर मालूम हुआ कि कुत्ते को तीर उसी ने मारे थे।
अब अधिक पूछताछ शुरू हुई। यह विद्या किससे सीखी ? कौन तुम्हारा गुरु
है? उसने कहा-द्रोणाचार्य मेरे गुरु हैं उन्हीं से यह विद्या
मैंने सीखी है। द्रोणाचार्य आश्चर्य में पड़ गये। उनने कहा मैं तो तुम्हें जानता
तक नहीं फिर बाण विद्या मैंने कैसे सिखाई?
द्रोणाचार्य को साक्षात सामने खड़ा
देखकर बालक ने उनके चरणों पर मस्तक रखा और कहा मैंने मन ही मन आपको गुरु माना और
आपकी मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसी के सामने अपने आप अभ्यास आरंभ कर दिया।
गुरु भाव सच्चा और दृढ़ होने पर
गुरु की मिट्टी की मूर्ति भी इतनी शिक्षा दे सकती है जितनी कि वह गुरु शरीर भी
नहीं दे सकता। श्रद्धा का महत्व अत्यधिक है।
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1961
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