जीवात्मा तथा शरीर सम्बन्धी ज्ञान
मनुष्य अपने
आत्मस्वरूप को जाने बिना न तो स्वयं पूर्णरूपेण सुखी हो सकता है न अन्यों को कर
सकता है। आज करोड़ों व्यक्ति पशु-पक्षी की आत्मा को आत्मा ही नहीं समझते। किसी
वस्तु से सम्बन्धित परिभाषा बदल जाने से व्यवहार बदल जाते हैं। इस उलटे ज्ञान से
आज पशु-पक्षियों के साथ अनर्थ, उनका विनाश हो रहा है।
हम भी शरीर को ही आत्मा मान रहे हैं, यह हमारा अज्ञान
है।
विश्वविद्यालयों
में अनेक विषय पढ़ाये जाते हैं पर आत्मा का विषय नहीं पढ़ाया जाता। जिस अज्ञान के
कारण पशु-पक्षी दु:खी रहते हैं उससे स्वयं मानव भी दुःखी व अशान्त है। उसे कहीं
चैन नहीं पड़ रहा, चाहे भौतिक उन्नति कितनी ही क्यों न
कर ली हो ।
जीवात्माएँ
स्वरूप से सब समान हैं, पर कर्मानुसार अलग अलग योनि मिलती
है। मस्तिष्क हमारे अंत:करण मन का कार्यालय (गोलक) है । मुमुक्षु व्यक्ति मन को
प्रकृति की सड़क से मोड़कर ईश्वर की राह पर मोड़ देता है।
शरीर के विषय में
जब तक हमारा ज्ञान व्यावहारिक, क्रियावाला, जीवन में नहीं उतरता तब तक फलदायी नहीं होता जैसे बिजली के तार को छूना = मरना
है । जहर लें या सर्प काटे तो मृत्यु का भय होना यह व्यावहारिक ज्ञान होने से
व्यक्ति इनसे बचता है। शरीर के विषय में यह अयथार्थ ज्ञान है कि यह शरीर न बूढ़ा
होगा न मरेगा ही। यह नित्य, पवित्र, चेतन मात्र सुखदायी है, ऐसा मानकर इससे प्यार-मोह करना
अज्ञान (अविद्या) दोष है।
यथार्थ ज्ञान -
यह सुन्दर दिखने वाला शरीर गन्दगी का घर है। इसमें से प्रत्येक क्षण पसीना आदि मल
निकलते रहते हैं। मुख में हलवा डाल कर कुछ देर रखने के बाद निकालने पर देखने को मन
न हो। जहाँ यह उल्टी करे वहाँ कोई बैठे भी नहीं। शुद्ध वायु ली, छोड़ने पर विषैली गन्दी। शरीर की चमड़ी हटाने पर क्या उसे देखने, चूमने को लालायित होगा? क्या सुन्दर बाल खाने में लेंगे? ईश्वर की कृपा है कि अपनी माया से इस शरीर को सुन्दर चमड़ी से ढका हुआ है।
इसके अन्दर मांस मज्जा, नसों के जाल, कंकाल व मल भरे हैं। कुष्ठ, चेचक आदि रोग होने पर
किसके मन को भायेगा। विवेक होने पर शरीर के प्रति आसक्ति समाप्त हो जायेगी। कितना
ही सुन्दर शरीर क्यों न हो, मृत्यु होने पर कोई छूना भी नहीं
चाहेगा ।
शरीर से उपयोग
लेना है,
पर यह भोग्य नहीं है। इससे ईश्वर प्राप्ति करनी है। इसमें
आसक्त न होकर त्यागपूर्वक भोग करना है। स्वाध्याय, सत्संग, अभ्यास छोड़ देने से निश्चयात्मक ज्ञान
भ्रमात्मक या अभावात्मक में बदल जाता है। अनभ्यास के कारण विवेक दबकर चोरी, व्यभिचार, हिंसा आदि को ठीक मानने लग जाता है।
सुन्दर कपड़ों में सुन्दर शरीर पर आसक्त डाक्टर को उसी सुन्दर शरीर का आपरेशन करते
समय वासना नहीं उभरती। वहाँ उसका विवेक काम करता है। वस्तु को गहराई से जानकर
ज्ञान को दृढ़ बना लें ।
जीव-ईश्वर-सम्बन्ध
लोक (संसार) में मानव जो कार्य करता है दूसरे से सम्बन्धित होकर करता है। अपने अकेले से कुछ भी कार्य स्वतन्त्र रूपेण नहीं कर सकता। संसार में जो व्यक्ति अपने से सम्बन्धित लोगों को जानकर, उनसे उचित व्यवहार करता है वह सफल होता है। यदि गुरु-शिष्य का उचित सम्बन्ध नहीं है तो विद्या नहीं सीखी जाती है जो स्वयं से भी उचित व्यवहार नहीं करना जानता, वह सफल नहीं हो सकता।
आत्मा को
आवश्यकता है ईश्वरानन्द की। आत्मा ही आत्मा का बन्धु है, वही शत्रु भी है। ईश्वर जीव का सम्बन्ध पिता-पुत्र का सम्बन्ध है। "त्वं
हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ ।" (ऋ ८/९८/११) यदि इसको समझते हैं
तो योग में सफल होंगे। यदि इसको नहीं जानते या ईश्वर से अयोग्य सम्बन्ध जोड़ते हैं
तो विफल होंगे। लोक के माता-पिता से ईश्वर का मातृत्व-पितृत्व अधिक है। लोक में
अच्छे धार्मिक पुत्र-पुत्रियां अपने माता-पिता से ठीक/अच्छे सम्बन्ध रखते हैं; परन्तु क्या उनके ईश्वर से भी ऐसे सम्बन्ध हैं ? यदि नहीं तो विफल होंगे। ईश्वर से तो नाम मात्र का सम्बन्ध रखते हैं। ईश्वर की
सत्ता ही में संशय या भ्रान्ति होगी तो उसके साथ उचित व्यवहार क्या करेंगे? संशय दूर होने पर ही ईश्वर से सम्बन्ध जोड़ने की बात होती है। हम सिद्धान्त
में ईश्वर का और व्यवहार में टार्च का मूल्य अधिक समझते हैं। जब तक व्यवहार में
ईश्वर के मूल्य का पता न लगे, तब तक उससे सम्बन्ध नहीं
जुड़ेगा। साधकों को शब्द व अनुमान प्रमाण से ईश्वर को मान कर, संशय दूर करके फिर अभ्यास से प्रत्यक्ष प्रमाण से अनुभव करना चाहिए।
व्यवहार में
प्रयोग,
निरीक्षण, परीक्षण करते रहना
चाहिए। नाम और नामी का पता जिज्ञासु को होना चाहिए। नाम-नामी का अर्थ व फल जानने
से विद्या प्राप्त होती है। हमारा पिता सर्वव्यापक ईश्वर 'ओ३म्'
नाम वाला सर्वरक्षक है। उसके बिना संसार टिक नहीं सकता। जड़
पदार्थ और प्राणधारी सब उसके सहारे टिके हुए हैं।
(१) माता-पिता, राजा-गुरु:- वेद में ईश्वर को जीव का स्वामी, सहायक, सुहृद्-मित्र, माता-पिता, राजा और गुरु स्वीकार किया है। लोक में यह
जीव अपने बच्चों की रक्षा ईश्वर की सहायता से करता है। अत: लौकिक माता-पिता से
बड़ा माता-पिता ईश्वर है। लौकिक मां तो मोह-अज्ञानता के कारण, उलटे काम करने वाले अपने बालक को भी सारी सम्पत्ति का मालिक बना देती है; परन्तु ईश्वर ने यह धरती आर्य को दी 'आर्य ईश्वरपुत्रः' (निरुक्त) श्रेष्ठ, आज्ञाकारी, ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव को धारण करने वाले उद्यमी को दी; अवज्ञाकारी, अनाड़ी सन्तान को नहीं। पिता की आज्ञानुसार
चले सो पुत्र वरना नहीं। क्योंकि ईश्वर हमारा माता-पिता है, अत: यदि हम उस के विचार के साथ चलते हैं तो उसके पुत्र हैं, अन्यथा नहीं। ईश्वर के आदेश मानने पड़ेंगे यदि उसका पुत्र बनना चाहते हैं ।
(२) गुरु- शिष्य व
स्वामी-सेवक सम्बन्ध - ईश्वर हमारा गुरु, हम उसके शिष्य
हैं, ईश्वर स्वामी हम सेवक हैं तो उसकी आज्ञा, आदेश हमारे लिये
क्या हैं?
उनका पालन हमें अवश्य करना चाहिए। ईश्वर के आदेश का पालन
करना धर्म है, विरुद्ध चलना अधर्म, अन्याय, अविद्या, अज्ञान है। ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् आनन्द से
परिपूर्ण होने से कभी भूल नहीं करता। ईश्वर परिपूर्ण है, अत: अपनी कमी पूर्ण करने हेतु कोई स्वार्थ का काम नहीं करता, जब कि लौकिक गुरु में ऐसी सम्भावना है। ईश्वर सर्वोपरि है अत: उसका निर्णय
अन्तिम होगा। जब कोई कहे ये अच्छा, कोई कहे वह अच्छा, सो क्या अच्छा क्या बुरा यह अन्तिम निर्णय परम गुरु परमेश्वर का ही मान्य
होगा।
(३) उपास्य-उपासक सम्बन्ध
- ईश्वर भजनीय-उपासना करने योग्य है ऐसा समझकर उपासना करते हैं तो हम उसका लाभ उठा
पायेंगे। एक वैज्ञानिक प्रकृति-विकृति की उपासना यह मानकर करता है कि उससे मेरा
पूर्ण कल्याण हो जायेगा। उन सांसारिक वस्तुओं को उपास्य मानता है, जिनसे यह कामना कभी पूर्ण नहीं होती । चाहे जितना बड़ा वैज्ञानिक, धनवान्, चक्रवर्ती राजा हो जाये, प्रकृति-विकृति के उपासक कभी पूर्ण सुखी नहीं हुए । किसी के साथ सुख के लिये
सम्बन्ध जोड़ना उसकी उपासना है। जीव कर्म करने में स्वतन्त्र, फल भोगने में ईश्वराधीन है, यह जीव-ईश्वर सम्बन्ध
है।
संसार की उपासना
में चार प्रकार के दु:खों से मिश्रित सुख मिलेगा, परन्तु ईश्वर की उपासना से ईश्वर का विशुद्ध ज्ञान, बल,
आनन्द प्राप्त होगा। कोई भी व्यक्ति क्षण भर के लिये भी
ज्ञान-कर्म-उपासना से रहित नहीं रह सकता। या तो संसार की उपासना या ईश्वर की
उपासना बनी रहती है।
(४) व्याप्य-व्यापक
सम्बन्ध - जीव-ईश्वर का व्याप्य-व्यापक
सम्बन्ध किस रूप में रहता है ? एक लोहे के गोले को
तपाने के बाद अग्नि के अन्दर-बाहर गोला 'अग्निवत्' दिखाई देगा। गोला व्याप्य और अग्नि व्यापक है। जो अग्नि अन्दर-बाहर रहती है वह
व्यापक और जिसके अन्दर रहे वह गोला व्याप्य। जब ईश्वर सर्वव्यापक है तो साधक ईश्वर
को कहाँ ढूँढ़ता है ? लोक में जिस वस्तु को ढूँढ़ते हैं, वह प्राय: दूर होती है। इस तरह जो व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध को नहीं जानता, वह ईश्वर को भी नहीं जानता। उसे वह कहीं दूर ढूँढ़ते हुए प्राप्त करना चाहता
है। साधक की पहली भूल-ईश्वर को कहीं दूर ढूँढ़ता है। दूसरा अपने निकट ऊपर-नीचे
दायें-बायें तो स्वीकार करता है, पर शरीर में नहीं समझता।
तीसरा बाहर मानता हुआ, अपने शरीर में भी खोजना आरम्भ करता
है, परन्तु जीव स्वयं जहाँ रहता है वहाँ अपने आप को छोड़कर शेष शरीर में ईश्वर को
खोजता है,
क्योंकि उसको व्याप्य-व्यापक संबंध का सही ज्ञान नहीं। जब
साधक यह जानेगा कि ईश्वर मेरे में भी है तभी तो उसे स्वयं में पा सकेगा। अपने को
छोड़कर अन्यत्र ईश्वर को ढूंढ़ेगा तो कदापि नहीं मिलेगा ।
ईश्वर में गोता
लगाने की विद्या आनी चाहिए। जैसे समुद्र में गोता लगाता है। अज्ञान, अधर्म जलाने पर लक्कड़रूपी संसार जल जाता है तो ज्ञानाग्नि में ईश्वर दीखने
लगता है। शरीर, भोजन, मकान, भाई,
पड़ोसी, बाजार आदि में व्यक्ति
भूला रहता है। व्याप्य को व्यापक के प्रभाव से दबा देना चाहिए। व्याप्य (लक्कड़)
का प्रभाव समाप्त हो तो व्यापक (अग्नि) का प्रभाव दीखेगा।
ईश्वर के सम्बन्ध से व्यक्ति का निर्माण
ईश्वर की सहायता के बिना मानव निम्माण नहीं होता। जहाँ पाश्चात्यों का दर्शन समाप्त होता है वहां वैदिक दर्शन शुरू होता है। ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव और वेद का आदेश अन्तिम आदेश है। ईश्वर की आज्ञा मानने वाले को कोई डिगा नहीं सकता, चाहे मृत्यु भी क्यों न आ जाये। सत्य को जानने के लिये पाँच कसौटियाँ हैं (१) जो-जो ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव और वेदों से अनुकूल हो वह वह सत्य, उससे विरुद्ध असत्य। (२) जो-जो सृष्टिक्रम के अनुकूल वह वह सत्य, उससे विरुद्ध असत्य। जैसे कोई कहे, 'बिना माता-पिता के योग से लड़का हुआ' ऐसा कथन सृष्टिक्रम से विरुद्ध होने से सर्वथा असत्य मानना चाहिए (३) "आप्त" अर्थात् धार्मिक विद्वान् सत्यवादी सत्यमानी निष्कपटियों के उपदेशानुकूल। (४) अपने आत्मा की पवित्रता विद्या के अनुकूल अर्थात् जैसा अपने को सुख प्रिय और दु:ख अप्रिय है वैसा सर्वत्र समझना। (५) आठों प्रमाण प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव के अनुकूल। अत: जो सत्य है उस पर डट जायें। असत्य को उखाड़कर फेंक दें। सत्य जानना, मानना, करना ही ईश्वर का काम है। हम भी सत्य पर चलेंगे। ईश्वर के निषेध को छोड़ेंगे और आदेश को मानेंगे। अच्छे कार्य से धन कमाएँ। जो अपने झूठ, छल-कपट, कुवासनाओं, अविद्या, चोरी आदि से सन्धि करता है, वह दूसरों की चोरी आदि से भी सन्धि कर लेता है। अपने दोषों को दूर करें तो अन्य के दोष दूर कर सकते हैं। जब हमारा पिता-माता-आचार्य-राजा ईश्वर है तो यह दो मुठ्ठी वाला मानव क्या हानि करेगा? सत्य कार्य को सिद्ध करो या मरो।
प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम्।
(योग दर्शन २/१८)
समस्त मूल
प्रकृति त्रिगुणात्मक है। अतः दृश्य =3 कार्य प्रकृति भी तीन
गुणों वाली है, क्योंकि कारण के गुण ही कार्य में आते
हैं। सत्त्वगुण प्रकाशात्मक, रजोगुण
क्रियाशील=प्रवृत्ति करने वाला और तमोगुण स्थितिशील = प्रकाश व क्रिया को स्थिर
करने वाला होता है। यह दृश्य का स्वभाव बताया। फिर उसका स्वरूप बताया भूतेन्द्रियात्मक
होना। 'भूत'
शब्द से सूक्ष्म तथा स्थूल दोनों प्रकार के भूतों का ग्रहण
है। 'इन्द्रिय', शब्द से बाह्य तथा आंतरिक दोनों
इन्द्रियों का ग्रहण है। इस प्रकार महतत्त्व, अहंकार, पाँच सूक्ष्म भूत, ग्यारह इन्द्रियाँ और पृथ्वी आदि
पांच स्थूल भूत तक सभी प्रकृति-विकृतियों का ग्रहण है। समस्त कार्य रूप यह जगत् 'दृश्य' कहलाता है।
दृश्य का प्रयोजन
- इस दृश्य जगत् का प्रयोजन पुरुष को भोग तथा अपवर्ग प्राप्त करना है। दोनों को
जीवात्मा बुद्धि की सहायता से प्राप्त करता है। अत: यह बुद्धिकृत् कहलाते हैं।
परन्तु बुद्धि अचेतन होने से स्वयं प्रवृत्त नहीं हो सकती। पुरुष की प्रेरणा से ही
बुद्धि का समस्त व्यापार होने से बुद्धिकृत् भोग व अपवर्ग, पुरुष ही भोगता है। जैसे राजा के आदेश से योद्धा लड़ते हैं परन्तु इसका परिणाम
'हार जीत ' राजा की ही मानी जाती है, योद्धाओं की नहीं।
जीवात्मा बाह्य
विषयों से सम्पर्क करने की इच्छा करता है तो बुद्धि से निश्चय करके मन को प्रेरित
करता है और मन बाह्य इन्द्रियों को प्रेरित करता है। इसी प्रकार इन्द्रियों से जो
भी ज्ञान होता है वह मन के द्वारा बुद्धि को और बुद्धि के द्वारा पुरुष को मिलता
है। अत: इस पुरुष के अतिशय निकट रहने वाली बुद्धि प्रधान मन्त्री की भाँति होती
है। अत: हम भ्रम से बुद्धि को भोक्ता मानने लगते हैं। प्रकृतिजन्य
प्रत्येक कार्य-वस्तु में ये त्रिगुण मुख्य- गौण भाव से रहते हैं। एक समय में एक
ही गुण प्रधान होने से वह दूसरे गौण भाव प्राप्त दो गुणों पर हावी होकर अपना
प्रभाव प्रकट करता है। ये सभी पृथक्-पृथक् अपनी शक्ति बनाये हुए प्रधान गुण के साथ
सहकारी भाव से कार्य करते हैं। गौण रूप से रहने वाले गुण भी उचित अवसर तथा उपयुक्त
निमित्त को पाकर अपने-अपने कार्यों को प्रकट करने में समर्थ हो जाते हैं अत: शान्त
घोर और मूढ़ परिणामों का क्रम न्यूनाधिक रूप में सदा चलता रहता है।
"बुद्धेरेव
पुरुषार्थऽपरिसमाप्तिर्बन्धः" (व्यास भाष्य) अर्थात् बुद्धि आदि जो सूक्ष्म
शरीर के घटक हैं वे जन्मजन्मान्तर में भी पुरुष के साथ रहते हैं। पुरुष इनकी
सहायता से ही सुख-दुःख का भोग करता है। अत: मोक्ष होने तक बुद्धि आदि पुरुष के
लिये कार्य करते रहते हैं और इनके कार्य की समाप्ति न होना ही पुरुष का बन्धन है
तथा "तदर्थावसानो मोक्षः'' (व्यास भाष्य) अर्थात् उस
बुद्धि का कार्य जब विवेकख्याति होने पर समाप्त हो जाता है और पुरुष अपने स्वरूप
को समझ लेता है, तो यह प्रकृति के सम्पर्क से पृथक् होना
ही पुरुष का "मोक्ष" कहलाता है।
सत्त्वरजस्तमसां
साम्यावस्था प्रकृति: प्रकृतेर्महान् महतोऽहंकारोऽहंकारात्पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं
तन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि पुरुष इति पञ्चविंशतिर्गणः ॥ (सांख्य द. १/६१)
अर्थात् सत्त्व, रजस्,
तमस् इन तीन वस्तुओं (गुणों ) के संघात का नाम प्रकृति है।
प्रकृति से महत्त्व = बुद्धि बुद्धि से अहंकार, उससे पांच
तन्मात्राएँ (सूक्ष्म भूत) और दस इन्द्रियाँ तथा ग्यारहवाँ मन, पांच तन्मात्राओं से पृथ्वी आदि पांच स्थूलभूत ये चौबीस और पच्चीसवाँ पुरुष (=
जीव और ईश्वर ) ये पच्चीस का गण है।
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know