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समाधि पाद योगदर्शन सूत्र 16-30

समाधि पाद योगदर्शन सूत्र 16-30 

तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम् ॥१.१६ ॥


तत् , परम् , पुरुष , ख्याते: , गुण , वैतृष्ण्यम् ॥

  • पुरुष-ख्याते: - पुरुष के (असल स्वरूप) के ज्ञान से
  • गुण - (जो प्रकृति के) गुणों में
  • वैतृष्ण्यम् - तृष्णा रहित हो जाना है
  • तत् - वह
  • परम् - पर-वैराग्य है ।

पुरुष के असल स्वरूप के ज्ञान से जो प्रकृति के गुणों में तृष्णा रहित हो जाना है - वह पर-वैराग्य है।

इससे पहले हमने जिस वैराग्य की चर्चा की थी वह अपर वैराग्य था, इससे भी उत्कृष्ट और ऊँचा पर वैराग्य है जिसमें साधक स्वयं को साक्षात्कार कर लेने के बाद त्रिगुणातीत अर्थात गुण मात्र से तृष्णा रहित हो जाता है | यह अत्यंत ऊँची स्थिति है जिसके विषय में बात करना और उस स्थिति की “वस्तु स्थिति” बताना अत्यंत दुष्कर है |

गुण क्या हैं?- गुण तीन प्रकार के होते हैं |

  • सत्त्व
  • रजस
  • तमस

पर वैराग्य इन तीन गुणों से भी पार जाने का नाम है | जहाँ साधक केवल चिन्मात्र रह जाता है | ज्ञान्मात्र रह जाता है | व्यास भाष्य में ज्ञान की पराकाष्ठा को ही पर वैराग्य कहा गया है| इसे ज्ञान की पराकाष्ठा इसलिए कहते हैं क्योंकि साधक अनुभव करता है कि मुझ आत्मस्वरूप के अतिरिक्त जो कुछ भी मुझे अनुभव में आ रहा है वह उपधिमात्र है अर्थात बाहर से आया हुआ है इसलिए स्वयं के अतिरिक्त वह सबकुछ से विरक्त हो जाता है | ऐसा कह सकते हैं कि जीवात्मा का साक्षात्कार हो जाने से केवल स्वयं से उसका ज्ञानपूर्वक राग हो जाता है और जो कुछ जीवात्मा से बाहर का है उससे वह वैराग्य को प्राप्त हो जाता है|

स्वयं के विषय में विचार करना यह सबसे बड़ा अक्लिष्ट विचार है इसलिए अभ्यास और वैराग्य इस विचार को नहीं हटाता अपितु इसे और अधिक सशक्त करता जाता है क्योंकि इससे अभ्यास और वैराग्य और दृढ होते हैं |

वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात् संप्रज्ञातः ॥१.१७॥


वितर्क , विचार , आनन्द , अस्मिता , रूप , अनुगमात् , संप्रज्ञातः ॥


वितर्क - वितर्क

विचार - विचार

आनन्द - आनंद (और)

अस्मिता - अस्मिता - (इन चारों के सम्बन्ध से)

अनुगमात् - युक्त (चित्तवृत्ति का समाधान)

सम्प्रज्ञातः - सम्प्रज्ञात (समाधि है)

रूप - स्वरूप

वितर्क, विचार, आनंद और अस्मिता - इन चारों के सम्बन्ध से युक्त चित्तवृत्ति का समाधान - सम्प्रज्ञात समाधि है।


विद्यार्थी महर्षि पतंजलि जी से पूछते हैं कि अभ्यास और वैराग्य द्वारा रोके गए विचारों वाले चित्त की सम्प्रज्ञात समाधि किस प्रकार से लगती है? जैसा कि पूर्व में बताया है सम्प्रज्ञात समाधि का उपाय अपर वैराग्य है तो महर्षि पतंजलि इस सूत्र से अपर वैराग्य से किस प्रकार सम्प्रज्ञात समाधि लगती है वह बता रहे हैं |


साधक जब योग मार्ग पर आगे बढ़ता है और अपनी पञ्च प्रकार की वृत्तियों अथवा विचारों को समझकर, उनकी क्लिष्टता और अक्लिष्टता में भेद कर, अभ्यास और वैराग्य से क्लिष्ट विचारों को रोकने का प्रयास करता है तब उसके पुरुषार्थ के अनुरूप स्थितियां बदलते रहती हैं | इसी साधना के मार्ग पर उसका चित्त चार प्रकार से अलग अलग अवस्थाओं से होते हुए सम्प्रज्ञात समाधि को प्राप्त होता है|


वे चार स्थितियां हैं-


वितर्क

विचार

आनंद

अस्मिता

अर्थात कहने का अर्थ है इन चार स्थितियों के अनुभव से सम्प्रज्ञात समाधि लगती है | इसलिए सम्प्रज्ञात समाधि के चार प्रकार भी कहे गये हैं |


वितर्कानुगत सम्प्रज्ञात समाधि

विचारानुगत सम्प्रज्ञात समाधि

आनंदानुगत सम्प्रज्ञात समाधि

अस्मितानुगत सम्प्रज्ञात समाधि

सम्प्रज्ञात समाधि किसी न किसी वस्तु, विचार, अनुभव के आलंबन से ही घटित होती है | यह समाधि आलंबनपूर्वक घटित होती है। यह आलंबन स्थूल या सूक्ष्म दोनों हो सकता है।


वितर्क सम्प्रज्ञात समाधि के आलंबन स्थूल विषय में होती है अर्थात ध्यान के समय हम स्थूल विषय को आलंबन बनाकर समाधिस्थ जब होते हैं तो उसे ही वितर्क सम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं। जब साधक ध्यान करता है तो पांच महाभूतों में से किसी एक भूत का आलंबन लेकर समाधि की ओर बढ़ता है, इस प्रकार इसे वितर्क अनुगत सम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं।


पांच महाभूत निम्न हैं-


पृथिवी

जल

अग्नि

वायु

आकाश

विचार अनुगत सम्प्रज्ञात समाधि: जब साधक ध्यान के समय सूक्ष्म तन्मात्राओं का आलंबन लेता है तो इस प्रकार की समाधि को विचारानुगत सम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं।


पांच तन्मात्राएँ निम्न हैं-


गन्ध

रस

रूप

स्पर्श

शब्द

आनंदानुगत सम्प्रज्ञात समाधि: सांख्य के अनुसार इंद्रियां सत्व प्रधान होती हैं। वितर्क और विचार से भिन्न यह समाधि की स्थिति है आंनद की। यहां स्थूल और सूक्ष्म विषय पर आलंबन नहीं किया जाता है अपितु इंद्रियों के सत्त्व स्वरूप में एकाग्रता की जाती है। इंद्रियों के सात्विक सुख की अनुभूति से ही आनंदानुगत सम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं।


ग्रहीता

ग्रहण

ग्राह्य

प्रमाता

प्रमाण

प्रमेय

ध्याता

ध्यान

ध्येय

उपरोक्त को वेदांत में त्रिपुटि कहा गया है। इन तीनों के परस्पर संबंध को समझ लेने से आध्यात्मिक विज्ञान भी स्पष्ट हो जाता है।


अंतिम और चौथी सम्प्रज्ञात समाधि है अस्मितानुगत समाधि। जब जीवात्मा सभी जड़ पदार्थो को स्वयं से भिन्न मानकर और समझकर अपने स्वरुप को पृथक जान लेता है और स्वयं के स्वरुप में चित्त को एकाग्र करता है तब उस स्थिति को अस्मितानुगत सम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं।

विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्व: संस्कारशेषोSन्यः ॥१.१८॥


विराम , प्रत्यय , अभ्यास , पूर्व: , संस्कार , शेष: , अन्यः ॥

  • विराम - विराम
  • प्रत्यय - प्रत्यय (का)
  • अभ्यास - अभ्यास (जिसकी)
  • पूर्व: - पूर्व-अवस्था (है और)
  • संस्कार - (जिसमें चित्त का स्वरूप) 'संस्कार' (मात्र ही)
  • शेष: - शेष (रह जाता है, वह योग)
  • अन्य: - अन्य है अर्थात् असम्प्रज्ञात समाधि है ।

विराम-प्रत्यय का अभ्यास जिसकी पूर्व-अवस्था है और जिसमें चित्त का स्वरूप 'संस्कार' मात्र ही शेष रह जाता है, वह योग अन्य है अर्थात् असम्प्रज्ञात समाधि है ।

सम्प्रज्ञात समाधि के अवांतर भेदों को ठीक ठीक समझकर शिष्य महर्षि से पूछते हैं कि अब हमें असम्प्रज्ञात समाधि के लिए विषय में बताईये | वह कैसे साधक को प्राप्त होती है और उसके लिए किन साधनों, उपायों से प्राप्त किया जा सकता है ?


महर्षि पतंजलि कहते हैं कि जब सब प्रकार की वृत्तियों (विचारों) का निरोध हो जाता है अथवा सब विचार रुक जाते हैं और जिस उपाय या साधन (पर वैराग्य) से वह स्थिति साधक को प्राप्त होती है, जब साधक उसका बार बार अभ्यास या आवृत्ति करता है तो उसके बाद जो केवल संस्कार शेष बचते हैं वह स्थिति सम्प्रज्ञात समाधि से अलग "असम्प्रज्ञात समाधि की होती है"।


आईये इसे ठीक से समझते हैं- एक साधक योग के अनुष्ठान यम, नियम आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि रूप इस अष्टांग योग को अत्यंत श्रद्धा पूर्वक साधना कर रहा है। योग के स्वरूप का उसको अच्छे से सैद्धान्तिक ज्ञान है। वह वृत्तियों के पांच रूपों को भी जानता है और क्लिष्ट अक्लिष्ट भेद से जीवन में क्लिष्ट वृत्तियों को रोकने की भी साधना साथ साथ करता है।


वह यह भी जानता है कि ये पांच प्रकार की क्लिष्ट वृत्तियाँ उसके साधना मार्ग की प्रमुख बाधाएं हैं और निरंतर अभ्यास और वैराग्य से वह इन्हें समाप्त कर सकता है, ऐसा उसे पूर्ण विश्वास है। समाधि के दो भेद सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात हैं यह जानते हुए वह वितर्क, विचार, आनंद और अस्मिता के क्रम से सम्प्रज्ञात समाधि का अनुभव करता है।


जब तीव्र साधना करते करते हुए, पर वैराग्य का बार बार अभ्यास करते हुए और अभ्यास की भी बारंबार आवृत्ति करते हुए एक ऐसी स्थिति में पहुंच जाता है जब उसके मन से सब प्रकार के विचार कुछ समय के लिए समाप्त हो जाते हैं तो उस स्थिति को ही असम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं। लेकिन इस स्थिति में कुछ संस्कार शेष रह जाते हैं उन्हें हम निरोध के संस्कार कहते हैं अर्थात रोकने के संस्कार। थोड़े समय के बाद जैसे ही किसी साधक की असम्प्रज्ञात समाधि खंडित होती है तो उसे स्मरण आता है कि वह एक ऐसी स्थिति में था जहां सबकुछ शून्य सा हो गया था, कोई विचार नहीं था बस एक अनुभूति थी। यह जो अनुभव है वह बिना संस्कार और संस्कार जन्य स्मृति के बिना नहीं हो सकता था। अतः समाधि के समय जो शून्यता का संस्कार है वह शेष रह जाता है। इसलिए सब प्रकार के विचार रुक जाने के बाद केवल संस्कार शेष की स्थिति को ही "असम्प्रज्ञात समाधि" कहते हैं।

भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् ॥१.१९॥


भव , प्रत्यय: , विदेह , प्रकृतिलयानाम् ॥

  • विदेह - विदेह (और)
  • प्रकृतिलयानाम् - प्रकृतिलाय योगियों का (उपर्युक्त योग)
  • भव - भव
  • प्रत्ययः - प्रत्यय (कहलाता है) ।

विदेह और प्रकृतिलाय योगियों का उपर्युक्त योग भव प्रत्यय कहलाता है।

सूत्र प्रांरम्भ होने से पहले महर्षि व्यास जी अपने भाष्य में कहते हैं कि यह असम्प्रज्ञात समाधि 2 प्रकार की होती है।


उपायप्रत्यय

भवप्रत्यय

उपायप्रत्यय असम्प्रज्ञात समाधि विदेह एवं प्रकृतिलय योगियों से भिन्न योगियों की होती है और भवप्रत्यय असम्प्रज्ञात समाधि विदेह और प्रकृतिलय योगियों की होती है।


भव का अर्थ यहां संसार से है और प्रत्यय का दार्शनिक अर्थ होता है यथार्त ज्ञान अर्थात संसार के यथार्त ज्ञान से जो समाधि लगती है उसे भवप्रत्यय असम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं और यह विदेह और प्रकृतिलय योगियों की लगती है।


अब विदेह और प्रकृतिलय को अलग अलग समझते हैं।


विदेह योगी-जो देह में रहते हुए देहाभिमान, देहभान से पार हो गए हों, केवल व्यवहार के लिए शरीर का प्रयोग करते हों, जो स्वयं को अकर्ता मानकर परमात्मा को ही सर्वकर्ता मानते हों, देह को नश्वर मानकर एक ईश्वर की प्रार्थना और उपासना करते हों वे विदेह कहलाते हैं। आध्यात्मिक यात्रा में विदेह एक उपाधि भी है, जिसे सर्वप्रथम राजा जनक को दिया गया था, इसलिए उन्हें विदेहराज भी कहा जाता है। वे राजकर्म में रहते हुए, संसार में व्यवहार करते हुए सब प्रकार से मुक्त थे।


प्रकृतिलय योगी- जैसा कि मध्य मध्य में हमने बताया कि प्रकृति तीन गुणों से मिलकर बनी हैं और वे तीन गुण हैं।


सत्त्व

रजस और

तमस

जो योगी उपरोक्त तीन प्रकृति और इनसे उत्पन्न महत्तत्त्व फिर अहंकार और अहंकार से उत्पन्न तन्मात्राएँ के स्वरूप को ठीक ठीक जानकर, समझकर और अंततः इनमें दोषदर्शन कर केवल शाश्वत तत्त्व उस एक परमेश्वर को भजते हैं उन्हें प्रकृतिलय योगी कहते हैं।


भवप्रत्यय असम्प्रज्ञात समाधि में कैवल्य (योग की अंतिम एवं सर्वोच्च स्थिति) जैसा अनुभव करते हैं। चूंकि यह जीवन अनेकविध संघर्षों से भरा हुआ है तो भवप्रत्यय योगियों की समाधि टूटने पर यह अनुभव खंडित हो जाता है अर्थात निरंतरता नहीं बनी रहती है।

श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् ॥१.२०॥


श्रद्धा , वीर्य , स्मृति , समाधि , प्रज्ञापूर्वक: , इतरेषाम् ॥


इतरेषाम् - दूसरे साधकों को

श्रद्धा - श्रद्धा,

वीर्य - वीर्य अर्थात् मन का तेज,

स्मृति - स्मृति,

समाधि - समाधि (और)

प्रज्ञापूर्वक: - प्रज्ञा अर्थात् सत्य वस्तु के विवेक से (असम्प्रज्ञात समाधि प्राप्त होती है) ।

दूसरे साधकों को श्रद्धा, वीर्य अर्थात् मन का तेज, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा अर्थात् सत्य वस्तु के विवेक से - असम्प्रज्ञात समाधि प्राप्त होती है।

ऊपर के सूत्र में यह बात दिया गया कि विदेह और प्रकृतिलय योगियों की भवप्रत्यय नामक असम्प्रज्ञात समाधि होती है तो प्रश्न उठता है कि इनसे भिन्न योगियों की समाधि कैसे लगती है जिसे उपायप्रत्यय कहते हैं।


महर्षि कहते हैं कि ऐसे योगियों की उपायप्रत्यय असम्प्रज्ञात समाधि के लिए उनके जीवन में पांच तत्त्वों की महती आवश्यकता होती है।


श्रद्धा अर्थात असंशय पूर्वक पूर्ण समर्पण

वीर्य अर्थात संकल्प पूर्वक उत्साह

स्मृति अर्थात जिनके जीवन में भव नहीं भवानी का स्मरण हो

समाधि अर्थात समाधान, एकाग्रता से जिनका जीवन चलता हो

प्रज्ञा अर्थात प्रकृष्ट बुद्धि से जो सही गलत के भेद को जानकर सहजता से सत्कर्म करते हों

व्यास भाष्य के अनुसार श्रद्धा का अर्थ होता है "चित्त की अभिरुचि या तीव्र इच्छा जो कि गहरे असंशय पूर्वक समर्पण से आती है और एक माता की तरह कल्याणकारी बनके योगियों की रक्षा और पोषण करती है।


जो श्रद्धालु, अनन्यता के भाव से भरा चित्त वाला भक्त होता है उसे ही उत्साह का बल प्राप्त होता है। जो बलवान है वही पूर्व जन्म के अच्छे संस्कारों को, अनुभवों को बलात खींचकर अपने सामने उपस्थित कर सकता है जिससे वह छूट चुके समाधि के मार्ग पर पुनः आरोहण कर सके। जब हम अपने इस जन्म को पूर्व जन्म से जोड़ लेते हैं तब सारी भागदौड़ ठहर सी जाती है और साधक का चित्त एकाग्र हो जाता है, फिर वह कुछ पाने के लिए दौड़ता नहीं अपितु समहितचित्त लेकर विवेकवान हो जाता है। उसके भीतर प्रखर प्रज्ञा का अवतरण हो जाता है जिसे ऋतम्भरा प्रज्ञा कहा जाता है। ऋतम्भरा प्रज्ञा से उत्पन्न विवेकज्ञान से अभ्यास तथा पर वैराग्य की सतत साधना से असम्प्रज्ञात समाधि घटित होती है।


यह 5 का एक व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक क्रम है बिना इसके क्रमानुसार आरोहण के समाधि में प्रवेश सर्वथा मिथ्या है।

तीव्रसंवेगानाम् आसन्न: ॥ १.२१॥


तीव्र , संवेगानाम् , आसन्न: ॥

संवेगानाम् - (जिनकी साधन की) गति

तीव्र - तीव्र (है, उनकी निर्बीज-समाधि)

आसन्न: - शीघ्र (सिद्ध होती है) ।

जिनकी साधन की गति तीव्र है, उनकी निर्बीज-समाधि शीघ्र सिद्ध होती है ।

योग में किसकी कितनी तीव्र इच्छा है उसके अनुसार योगी मृदु, मध्य और अधिमात्र उपाय के मुख्य तीन आधारों के अनुसार 9 प्रकार के होते हैं।


मृदु उपाय के भी तीन प्रकार होते हैं-


मृदु संवेग

मध्य संवेग

तीव्र संवेग

इसी प्रकार से मध्य और अधिमात्र उपाय भी समझ लेने चाहिए। अब अधिमात्र उपाय वाले योगियों की योग में समाधिप्राप्ति किस प्रकार होती है उसे इस सूत्र के माध्यम से महर्षि शिष्यों को समझा रहे हैं।


"गहरे एवं ऊंचे विवेकज्ञान, पर वैराग्य एवं अभ्यास वाले योगियों को अतिशीघ्र ही समाधि एवं समाधि के फल की प्राप्ति होती है।"


यहां महर्षि बता रहे हैं कि यदि साधक ऊंचे वैराग्य और अभ्यास को पूर्ण विवेक के साथ साधता हुआ साधना में आगे बढ़ रहा है तो उसके समाधिस्थ होने में समय की कोई सीमा नहीं है, अर्थात वह अतिशीघ्र ही समाधि के लाभ और समाधि के फल को प्राप्त हो सकता है।


व्यास भाष्य में दो शब्दों का प्रयोग किया गया है वह हैं


समाधिलाभ-

समाधिफल-

समाधिलाभ:- तीव्र अभ्यास और वैराग्य से समाधि की प्राप्ति को ही समाधिलाभ कहते हैं। यदि तीव्र अभीप्सा है तो समाधि शीघ्र ही मिल सकती है लेकिन योगियों के 9 प्रकार होने से साधनों का अनुष्ठान भी न्यूनाधिक हो सकता है, इसलिए समाधि लगने में समय भी कम और अधिक हो सकता है। लेकिन महर्षि ने यह स्पष्ट किया है कि कोई निश्चित समय सीमा नहीं है समाधि लगने की यह कम और अधिक हो सकती है योगियों के पुरुषार्थ के अनुसार।


सांख्य दर्शन के एक सूत्र में महर्षि कपिल ने भी इसी बात को कहा है। "न काल नियमो वामदेववत" अर्थात जिस प्रकार वामदेव ने योग के आठ अंगों, अभ्यास और वैराग्य का श्राद्ध पूर्वक, निरंतरता के साथ अनुष्ठान करने से अत्यंत कम समय में समाधि और कैवल्य को प्राप्त कर लिया था उसी प्रकार के साधनों का तीव्रता से अनुष्ठान करने से कोई भी अन्य योगी प्राप्त कर सकता है।


समाधिफल- समाधि की प्राप्ति के बाद साधक को जो अनुभव होते हैं या जो स्थितियां प्राप्त होती हैं उन्हें समाधि का फल कहते हैं।


जैसे-

ईश्वर से साक्षात्कार अर्थात उससे मिलन

स्वयं के स्वरूप में स्थिति अर्थात अपने आप को जानना

अपने विचारों, भावनाओं और अपने कर्मो पर नियंत्रण

सुख-दुख से ऊपर उठकर आनंद की प्राप्ति

सब प्रकार के दुर्गुणों से सदा के लिए मुक्ति और एक ईश्वर विधानोक्त जीवन यापन

सहज और सरल जीवन की प्राप्ति

सब प्रकार के बन्धनों से मुक्ति, जन्म मरण से छुटकारा और ईश्वर के नित्य आंनद में स्थिति आदि

मृदुमध्याधिमात्रत्वात् ततोSपि विशेषः ॥ १.२२॥


मृदु , मध्य , अधिमात्रत्वात् , तत: , अपि ,. विशेषः ॥


मृदु - (साधन की मात्रा) हलकी,

मध्य - मध्यम (और)

अधिमात्रत्वात् - उच्च (मात्रा के अनुसार)

ततः - तीव्र संवेगवालों में

अपि - भी

विशेष: - (काल का) भेद हो जाता है ।

साधन की मात्रा हलकी, मध्यम और उच्च मात्रा के अनुसार तीव्र संवेगवालों में भी काल का भेद हो जाता है ।

ऊपर के सूत्र में महर्षि ने जिस ऊँचे अभ्यास और वैराग्य की बात की है उनके भी मृदु, मध्य और अधिमात्र भेद होने से उनसे भी अधिक ऊँचे और उत्कृष्ट विवेक, वैराग्य और अभ्यास वाले साधकों को शीघ्र समाधिलाभ और समाधि का फल प्राप्त होता है |


महर्षि इस सूत्र के माध्यम से यह समझाना चाहते हैं कि जीवन के प्रत्येक स्तर पर चीजें तीन में बंट ही जाती हैं |


१. मृदु

२. मध्य

३.अधिमात्र

अभ्यास, वैराग्य के तीन प्रकार होने से साधक को भी अभ्यास और वैराग्य की तीव्रता के अनुसार समाधिलाभ और उसका फल मिलता है |


समाधि के लगने में अभ्यास और वैराग्य की तीव्रता का कम अधिक होना किन कारणों पर निर्भर करता है, उसपर एक दृष्टि डालते हैं-


पूर्व जन्म के संस्कार- साधक के पूर्व जन्म के संस्कार भी समाधिलाभ अर्थात समाधि के मिलने में समय कम या अधिक लगाते हैं | यदि पूर्व जन्म के संस्कार अभ्यास और वैराग्य को बाधा पहुँचाने वाले हों तो समाधि शीघ्र न लगकर समय लगाती है यदि साथ साथ वर्तमान का अभ्यास और वैराग्य हो तो अन्यथा सर्वथा बाधक भी हो सकते हैं पूर्व जन्म के संस्कार | यदि पूर्व जन्म के संस्कार वर्तमान में किये जा रहे अभ्यास और वैराग्य के पुरुषार्थ में सहायक होंगे तो समाधि की प्राप्ति उतनी ही शीघ्रता से संभव है| अतः पूर्व जन्म के संस्कारों का भी समाधि प्राप्ति में एक महत्वपूर्ण स्थान है |


वर्तमान के प्रशिक्षण का वातावरण- वर्तमान समय में साधक को किस प्रकार की शिक्षा, संस्कार और वातावरण उपलब्ध हो रहा है, यह भी एक महत्वपूर्ण बिंदु है | यदि पूर्व जन्म के संस्कार अच्छे हों जो समाधि प्राप्ति में सहायक हों लेकिन वर्तमान में प्रशिक्षण साधक को वातावरण या प्रशिक्षक से प्राप्त हो रहा हो वह उतना अच्छा न हो तो भी समाधि लगने में समय लग जाता है वहीँ दूसरी ओर यदि प्रशिक्षक और प्रशिक्षण वातावरण के साथ अच्छा हो तो समाधि उतनी ही जल्दी लग जाती है |


संगति एवं साहचर्य- साधक अपने साधनाकाल के बाद जो भी समय व्यवहार काल में अपने आस पास के व्यक्तियों के साथ गुजारता है वह भी एक महत्वपूर्ण बिंदु है | साधक के लिए बेहोशी में जिया एक भी क्षण मृत्यु के समान है और समाधि में बाधा है| यदि एक क्षण का भी बुरा आलंबन साधक को मिलता है तो समाधि लगने में बहुत सारी देरी हो जाती है | एक एक क्षण को होश में नियोजित करना पड़ता है| इसलिए साधक किनके साथ उठता बैठता है? क्या बातें करता है? कैसी प्रवृति रखता है यह सबकुछ शुभ से ही अनुप्राणित होना चाहिए | यदि संगति अच्छी है, ईश्वर चिंतन करने वाली है, शुभ के मार्ग पर ले जाने वाली है तो ऐसी संगति समाधि मार्ग पर सहायक होगी इससे भिन्न बुरी संगति संसार में मिलाने वाली, बुरा आचरण कराने वाली होती है |


साधक की स्वयं की अभीप्सा- सबकुछ समाधि के अनुकूल हो लेकिन साधक की स्वयं की अभीप्सा या चाहना में न्यूनता हो तो भी समाधि लगने में समय अधिक लग सकता है या साधक की अभीप्सा अत्यंत बढ़ी हुई हो और बांकी सबकुछ अनुकूल भी न हो तो समाधि अति शीघ्र भी लग सकती है|

ईश्वरप्रणिधानाद्वा ॥ १.२३॥

ईश्वर-प्रणिधानात्, वा॥

वा - अथवा
  • ईश्वर-प्रणिधानात् - ईश्वर के प्रति भक्ति से भी (निर्बीज-समाधि की सिद्धि शीघ्र हो सकती है)।

अथवा ईश्वर के प्रति भक्ति से भी निर्बीज-समाधि की सिद्धि शीघ्र हो सकती है ।

शिष्य जिज्ञासावश पूछते हैं- क्या उपरोक्त से अलग भी कुछ अन्य उपाय हैं जिनसे शीघ्र समाधि की प्राप्ति होती हो?


तब महर्षि पतंजलि कहते हैं- ईश्वर प्रणिधान से भी शीघ्र समाधि की प्राप्ति होती है| आईये पहले सूत्र का अर्थ समझते हैं |


“ अपने को सब प्रकार से ईश्वर के अधीन समझकर, स्वयं को ईश्वर-समर्पित करके,निमित्त बनकर फलाकांक्षा से पूर्ण रूप से मुक्त होकर, मन वचन और कर्म से सबकुछ ईश्वर की ही पूजा, अर्चना और उपासना कर रहा हूँ ऐसा उदात्त भाव ईश्वर प्रणिधान कहलाता है और यह शीघ्र समाधि लाभ देने वाला है ”


ईश्वर प्रणिधान सर्वोच्च भक्ति है | यह सर्वोच्च समर्पण है अपने ईष्ट के प्रति |ईश्वर प्रणिधान अकेला ऐसा भाव है जो जो मनुष्य के सारे अभाव दूर कर सकता है | जीवन की उलझनें हों या मन की मलिनता, चिंता, तनाव, भय, अपराधबोध, ग्लानि, सबकुछ एक भाव से ही समाप्त हो जाता है लेकिन इस भाव में प्रतिष्ठित होने के लिए सबसे बड़े साहस अर्थात ईश्वर पर पूर्णरूपेण आश्रित होना पड़ता है और यही सर्वोच्च साहस फिर साधक की रक्षा करता है |


ईश्वर प्रणिधान, एक शुद्धतम साधना पद्धति है, जिसमें कुछ भी लाग लपेट नहीं, जो हमारा स्वभाव मात्र है | यदि सहजता का कोई उद्गम स्थान माना जाय तो वह ईश्वर प्रणिधान ही होगी क्योंकि इसी भाव से सारी सहजता, सरलता, निर्भयता और स्वतंत्रता आती है | साधना के मार्ग पर ईश्वर प्रणिधान का यह पड़ाव अवश्य आता है |


ईश्वर प्रणिधान आश्रय में जीने की कला है जो व्यक्ति को सारी चिंताओं से, अज्ञात के भय से, घबराहट और उलझाव से बचाती है | धन्य हो जाता है जीवन जो ईश्वर प्रणिधान साधना के आधार पर जीना आरंभ कर देता है ।


क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वरः ॥१.२४॥


क्लेश , कर्म , विपाक , आशयै: , अपरामृष्ट: , पुरुष-विशेष: , ईश्वरः ॥

क्लेश - क्लेश

कर्म - कर्म

विपाक - विपाक

आशयै: - आशय (इन चारों के)

अपरामृष्ट: - संबंध से रहित है (तथा)

पुरुषविशेष: - जो समस्त पुरुषों से उत्तम है,वह

ईश्वर: - ईश्वर है ।

क्लेश, कर्म, विपाक, आशय - इन चारों के संबंध से रहित है तथा जो समस्त पुरुषों से उत्तम है, वह ईश्वर है ।

क्लेश (अविद्यादि पञ्च क्लेश), कर्म (तीन प्रकार के कर्म), विपाक (कर्मों का फल), आशय (समस्त वासनाएं) से जो सर्वथा पृथक है ऐसे पुरुष विशेष को ईश्वर कहा गया है ।क्लेश पांच प्रकार के होते हैं-

१. अविद्या

२. अस्मिता

३. राग

४. द्वेष

५. अभिनिवेश

कर्म को भी अलग-अलग परिपेक्ष्य में विभाजित किया गया है । वैसे सामान्यत: लोक में पाप कर्म और पुण्य कर्म ये दो प्रकार से कर्म के विभाग किये हैं लेकिन विभिन्न शास्त्रों में मुख्यतःकर्म को तीन प्रकार से बांटा गया है |


१. निमित्त कर्म

२. नैमित्तिक कर्म

३. काम्य कर्म

योग दर्शन में कर्म को तीन प्रकार से बांटा गया है-


१. शुक्ल कर्म अर्थात शुभ कर्म

२. अशुक्ल कर्म अर्थात अशुभ कर्म

३.शुक्लाशुक्ल अर्थात मिश्रित कर्म

भगवतगीता में कर्म का तीन प्रकार से प्रभाग किया है-


१. कर्म

२. अकर्म

३. विकर्म

कर्म जब फल देने लगते हैं तो इसी को विपाक कहा गया है और ईश्वर चूँकि निष्काम कर्म करता हुआ जगत का परिपालन करता है तो उसके कर्म नहीं बनने के कारण वह सर्वथा विपाक से रहित होता है |


जब किसी कर्म के विपाक को प्राप्त होने पर उसके भोगने से उत्पन्न वासनाएं होती हैं उन्हें योग दर्शन कि भाषा में आशय कहा गया है । कहीं कहीं आशय का अर्थ दूसरी तरह भी किया जाता है । कर्म जब तक फलोन्मुख नहीं होते तब तक चित्तभूमि में जो वासना सुप्त रूप से रहती है वह आशय नाम से कही जाती है। ईश्वर कर्म एवं कर्मफल से रहित होता है इसलिए वह आशय रहित भी होता है अर्थात ईश्वर में किसी भी प्रकार से कोई भी वासनाएं नहीं होती हैं । कर्म, कर्मफल एवं उन्हें भोगने से पुरुष उनकी वासनाओं से बच नहीं सकता इसीलिए ईश्वर को महर्षि पतंजलि ने पुरुष विशेष के नाम से कहा है |

तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्॥१.२५॥


तत्र , निरतिशयम् , सर्वज्ञ , बीजम् ॥


तत्र - उस (ईश्वर में)

सर्वज्ञ-बीजम् - सर्वज्ञत्व का बीज अर्थात् ज्ञान

निरतिशयम् - निरतिशय है ।

उस ईश्वर में सर्वज्ञत्व का बीज अर्थात् ज्ञान निरतिशय है ।

उपरोक्त सूत्र में तत्र शब्द से ईश्वर को कहा गया है । महर्षि पतंजलि कहते हैं कि ईश्वर में सर्वज्ञता के बीज की निरतिशयता अर्थात पराकाष्ठा है | अतिशय का अर्थ होता है जो बढ़ता रहता है लेकिन महर्षि ने सूत्र में निरतिशय शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ होगा जक घटने और बढ़ने से रहित है अर्थात अपनी पराकाष्ठा में स्थित है, जिसमें ज्ञान का घटना और बढ़ना नहीं है। अतीत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में ईश्वर की सर्वज्ञता है | अतिशय सर्वज्ञता का बीच से अर्थ है कि ईश्वर से बढ़कर या उसके समान किसी में भी ज्ञान नहीं है |


अतिशय का अर्थ होता है जो बढ़ा हुआ है | इसलिए जब कोई व्यक्ति बढ़ा चढ़ा कर कोई बात करता है तो उसे कहा जाता है कि यह तो अतिश्योक्ति है अर्थात आपने बढ़ा चढ़ाकर यह बात बोली है | निरतिशय का अर्थ हुआ जो बढ़ता नहीं है या बढ़ाया नहीं जा सकता है और न ही न्यून किया जा सकता है | ऐसा ज्ञान तो अपनी स्वाभाविकता में परिपूर्ण है उसे निरतिशय ज्ञान कहा गया है |


ऐसा नहीं है कि ईश्वर केवल ज्ञान के विषय में सर्वज्ञ है, उसमें सब प्रकार के शुभ गुणों, स्वाभाविक गुणों की पराकाष्ठा है। सब प्रकार के ऐश्वर्यों की पराकाष्ठा का आधार भी ईश्वर ही है।


पूर्वेषाम् अपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्॥१.२६॥


पूर्वेषाम् , अपि , गुरुः , कालेन , अनवच्छेदात्॥


पूर्वेषाम् - (वह ईश्वर) पूर्व उत्पन्न गुरुगणों का

अपि - भी

गुरु: - गुरु है, (क्योंकि वह)

कालेन - काल से

अनवच्छेदात् - सीमित नहीं है अर्थात् सर्वकाल में विद्यमान है ।

वह ईश्वर पूर्व उत्पन्न गुरुगणों का भी गुरु है, क्योंकि वह काल से सीमित नहीं है अर्थात् सर्वकाल में विद्यमान है ।

वह ईश्वर पूर्व में उत्पन्न हुए सभी ब्रह्मवादियों, गुरुओं का भी गुरु है क्योंकि वह पुरुष विशेष काल से व्याप्त अर्थात समय से बंधा हुआ नहीं है उससे सर्वथा पार है। ऐसा नहीं है कि ईश्वर किसी काल में तो है और किसी समय नहीं है, वह सब समय उपस्थित है। ईश्वर सृष्टि से पूर्व भी है और प्रलय के बाद भी है। ईश्वर प्रत्येक काल में होने से वह सभी गुरुओं का भी गुरु कहा गया है। सृष्टि आरम्भ में सबसे पहला उपदेष्टा होने से ईश्वर को गुरुओं का भी गुरु कहा गया है। ईश्वर ने सृष्टि के आदि में चार ऋषियों के शुद्ध एवं पवित्र अंतःकरण में चारों वेदों का उपदेश दिया था इस हेतु से भी ईश्वर गुरुओं का भी गुरु कहा गया है।


वे चार ऋषि हैं-


अग्नि

आदित्य

वायु

अंगिरा

श्वेताश्वेतर उपनिषद में भी इसी बात को कहा गया है कि- "जिस ईश्वर ने सृष्टि के आदि में ब्रह्मा को उत्पन्न किया एवं जिसने ब्रह्मा के शुद्ध एवं पवित्र अंतःकरण में वेदों का स्वर एवं अर्थसहित ज्ञान का आलोक किया मैं उस ईश्वर की मैं मुमुक्षु शरण में आता हूँ।"


पूर्व में भी जितने ब्रह्मवादी अर्थात ब्रह्म की महिमा कहने वाले हुए हैं उनका मार्गदर्शक भी ईश्वर ही है। ईश्वर ने ही उन्हें सब प्रकार से सन्मार्ग की प्रेरणा दी है।


व्यवहार की दृष्टि से मैं कहना चाहूंगा कि ईश्वर सब गुरुओं का भी गुरु है तथापि लोक में गुरु भी उस परमेश्वर का ही मूर्त रूप एवं प्रतिनिधि हैं। यह परम सत्य है कि ईश्वर ही परम गुरु है लेकिन उस ईश्वर तक पहुंचाने वाले गुरु भी सत्य हैं।


इसी प्रसंग पर कबीर जी का एक दोहा अत्यंत प्रसिद्ध है-


रु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूँ पाय

बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय ।।


तस्य वाचकः प्रणवः॥१.२७॥


तस्य , वाचकः , प्रणवः॥


तस्य - उस (ईश्वर का)

वाचक - वाचक (नाम)

प्रणव: - प्रणव अर्थात् ॐ कार है ।

उस ईश्वर का वाचक (नाम) प्रणव अर्थात् ॐ कार है ।

पिछले 4 सूत्रों में महर्षि ने ईश्वर विषय में बताया इसलिए जिज्ञासु शिष्यों ने महर्षि से पूछा कि ईश्वर का निज नाम क्या है? हम यदि उसका नाम स्मरण करना चाहें तो उसे किस नाम से पुकारें? उसके प्रत्युत्तर में महर्षि कहते हैं- ईश्वर का निज नाम प्रणव अर्थात ॐ है। ओंकार को ही आदि ध्वनि भी कहा जाता है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड में ॐ की ध्वनि प्रसारित हो रही है। एक अर्थ में कहें तो ईश्वर के नाम का उच्चारण यह सम्पूर्ण सृष्टि यह ब्रह्मांड कर रहा है।


पूर्व में एक सूत्र आया था "ईश्वरप्रणिधानाद्वा" 1/23 ईश्वर प्रणिधान से शीघ्र ही समाधिलाभ हो जाता है। ईश्वरप्रणिधान का अर्थ है ईश्वर की भक्ति विशेष और दश इंद्रियों के माध्यम से होने वाले सारे कर्मों को और कर्मों के फल को ईश्वर को समर्पित कर देना ।


ईश्वर की भक्ति में नाम जप का विशेष महत्त्व होता है इसलिए ईश्वर के निज नाम की भी आवश्यकता होती है इसी को दृष्टि में रखकर इस सूत्र में ईश्वर के निज नाम को बतलाया गया है। आगे के सूत्रों में भी अनेक बार ईश्वर प्रणिधान शब्द बार बार आएगा ।


जब हम अपने आराध्य, पूज्य या प्रिय को पुकारते हैं तो उनकी स्मृति प्रगाढ़ हो जाती है इसलिए नाम लेने अथवा जपने से ईश्वर के प्रति हमारी प्रीति बढ़ने लगती है और उसके सभी स्वाभाविक गुण हममें भी प्रविष्ट होने लग जाते हैं।


ईश्वर के नाम का जप कैसे करना चाहिए यह महर्षि ने अगले सत्र में बताया है।

तज्जपस्तदर्थभावनम्॥१.२८॥


 

तत् , जप: , तत् , अर्थ , भावनम्॥


तत् - उस (ॐ कार का)

जपः - जप और

तत् - उस (ईश्वर के)

अर्थ - अर्थस्वरूप (का)

भावनम् - ध्यान करना अर्थात् पुनः पुन: चिन्तन करना चाहिए ।

उस ॐ कार का जप और उस ईश्वर के अर्थस्वरूप का ध्यान करना अर्थात् पुनः पुन: चिन्तन करना चाहिए ।

उस प्रणव अर्थात ॐ का जप, प्रणव शब्द में निहित अर्थ के साथ बार बार भावना के साथ करना चाहिये। अलग अलग मतों में जप के अनेक प्रकार हैं लेकिन मुख्यतः जप को चार भागों में बांटा गया है।


जप चार प्रकार से किया जाता है-


वाचिक जप

उपांशु जप

मानसिक जप

अजपाजप

जप में शब्द, शब्द का अर्थ और अर्थ की भावना यह प्रमुखता से आता है।


वाचिक जप- उच्च स्वर में बोलकर जो जप किया जाता है उसे वाचिक जप कहा जाता है । जैसे : ॐ ॐ ॐ इस प्रकार निरन्तर ऊंचे स्वर में बोलना। वाचिक जप से वाणी की सिद्धि भी प्राप्त होती है।


उपांशु जप- थोड़े से ओष्ठ खुलें हों और धीरे धीरे बोलकर जप करना उपांशु जप कहलाता है । जैसे: जब हम जप करें तो केवल हमें ही सुनाई दे दूर बैठे व्यक्तियों को नहीं। उपांशु जप से धीरे धीरे मन एकाग्र होने लगता है और साधक की वृत्तियां बहिर्मुखी से अंतर्मुखी होने लग जाती हैं। उपांशु जप से वाणी में स्थिरता के साथ शरीर में भी स्थैर्य आने लगता है।


मानसिक जप - शांतिपूर्वक आसन में बैठकर, ध्यान मुद्रा लगाकर जब हम मन ही मन जप करते हैं, मन ही मन ओंकार या मंत्र को जपते हैं तो वह मानसिक जप कहलाता है। मनु महाराज के अनुसार विधियज्ञ से यह जप हज़ार गुना उत्तम है ।


अजपाजप - उपरोक्त जपों का जब अच्छी प्रकार, भलीभांति अभ्यास हो जाता है तब बिना प्रयास के भी जप की निरंतरता बनी रहती है उसे अजपाजप कहते हैं। यह अत्यंत स्वाभाविक रूप से होता है। सारे कार्य करते हुए भी यह जप निरन्तर साधक के भीतर अखंड रूप से चलता रहता है और सदैव उसे प्रभु की छत्रछाया में बिठाए रखता है। यह जप की सर्वोत्तम स्थिति है। एक महात्मा ने इस विषय में कहा है कि - राम हमारा जप करे, हम बैठे आराम ।


जप यदि अर्थ पूर्वक नहीं कर रहे हैं तो उसका लाभ नहीं होता है; केवल बोलने की आवृति भर होती है। यदि जप का अर्थ पूर्वक जाप किया जाय लेकिन भावना न हो तो पूर्ण लाभ नहीं मिलता है। आंशिक लाभ तो मिलता है और यह आंशिक लाभ पूर्ण लाभ की ओर साधक को बढ़ाता भी है।


ईश्वर के निज नाम ॐ संस्कृत के अव रक्षणे धातु से निष्पन्न होता है। धातु पाठ में अव रक्षणे के 17 अर्थ बताए गए हैं।


आईये ओंकार के अर्थ को समझते हैं जिससे कि जब हम ईश्वर के नाम का जप करें तो ठीक ठीक अर्थ भावना पूर्वक जप कर पूर्ण लाभ ले सकें।


यहाँ एक बात और समझनी चाहिए कि महर्षि ईश्वर के नाम का जप करने को भी कह रहे हैं।

ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च॥१.२९॥


ततः , प्रत्यक्-चेतना , अधिगम: , अपि , अन्तराय , अभाव: , च ॥


तत: - उस (ईश्वर प्रणिधान से)

अन्तराय - विध्नों का

अभाव: - अभाव

च - और

प्रत्यक्-चेतना - अन्तरात्मा के स्वरूप (की)

अधिगम: - प्राप्ति अर्थात् साक्षात्कार

अपि - भी (हो जाता है) ।

उस ईश्वर प्रणिधान से विध्नों का अभाव और अन्तरात्मा के स्वरूप की प्राप्ति अर्थात् साक्षात्कार भी हो जाता है।

क्या प्राप्ति होती है इस विषय में महर्षि इस सूत्र से बताते हैं। योग सूत्रों की यह सुंदरता है कि प्रत्येक सूत्र पूर्व सूत्र से किसी न किसी अर्थ में जुड़ा हुआ होता है। इससे पूर्व ईश्वर के निज नाम ॐ का वर्णन करते हुए महर्षि ने बताया कि उसका नाम किस प्रकार जपना चाहिए। अतः शिष्यों के मन में सहज जिज्ञासा ने जन्म लिया कि इस प्रकार अर्थ भावना से जप करने से क्या लाभ होगा या क्या प्राप्ति होगी।


महर्षि कहते हैं अर्थ भावना से किये गए जप से या ईश्वर प्रणिधान से साधक को उसके स्वयं के ज्ञान के साथ साथ योग मार्ग में आने वाली वाली बाधाओं से भी छुटकारा मिल जाता है।


प्रांरम्भ में ईश्वर प्रणिधान से धीरे धीरे साधक को स्वयं की सत्ता का अनुभव होने लग जाता है। जैसे मैं कौन हूँ? मेरा इस संसार में आने का प्रयोजन क्या है? मैं कहाँ से आया हूँ? आदि आदि प्रश्नों का उत्तर मिलने लग जाता है और इसके साथ ही योग मार्ग में आगे बढ़ने में भी सहायता मिलने लग जाती है।


हम किसी भी मार्ग में आगे बढ़ते हैं तो उसमें बाधाएं आती हैं, इसी प्रकार योग के पथ पर चलते हुए भी साधक को कई प्रकार की बाधाओं का सामना करना पड़ता है। इन बाधाओं के विषय में हम अगले सत्र में विस्तार से बात करेंगे । एक एक बाधा को समझेंगे और उससे पार पाने के उपायों पर भी प्रकाश डालेंगे।


अतः अर्थ भावना के साथ किये गए जप से साधक स्वयं का ज्ञान मिलता है और योग मार्ग पर आने वाली बाधाओं से भी मुक्ति हो जाती है।


इस सूत्र में एक शब्द प्रयुक्त हुआ है प्रत्यकचेतना । इसका अर्थ है कि आत्मा की चेतना जब विषयों से हटकर अर्थात बहिर्गामी न होकर अंतर्मुखी हो जाती है तब आत्मा की इस प्रवृत्ति विशेष को प्रत्यकचेतना कहते हैं।


दूसरा शब्द इस सूत्र में महर्षि ने जो प्रयोग किया है वह है अंतराय ।


योग में अंतराय शब्द का अर्थ होता है 'बाधा' विघ्न या रुकावट।

व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः॥१.३०॥


व्याधि , स्त्यान , संशय , प्रमाद , आलस्य , अविरति , भ्रान्ति-दर्शन , अलब्ध-भूमिकत्व , अनवस्थितत्वानि , चित्त , विक्षेपा: , ते , अन्तरायाः ॥


व्याधि - व्याधि (रोग),

स्त्यान - मानसिक जड़ता,

संशय - संदेह,

प्रमाद - प्रमाद,

आलस्य - आलस्य,

अविरति - विषयतृष्णा,

भ्रान्ति-दर्शन - मिथ्या अनुभव,

अलब्ध-भूमिकत्व - समाधि नहीं लग पाना ,

अनवस्थितत्वानि - समाधि लाभ होने पर भी अधिक देर समाधि में नहीं ठहर पाना

ते - ये

चित्त - चित्त (के नौ)

विक्षेपा - क्षोभ

अन्तराया - विघ्न या बाधाएं हैं ।

व्याधि (रोग), मानसिक जड़ता, संदेह, प्रमाद, आलस्य, विषयतृष्णा, मिथ्या अनुभव, समाधि नहीं लग पाना , समाधि लाभ होने पर भी अधिक देर समाधि में नहीं ठहर पाना - ये चित्त के नौ क्षोभ या योग के मूल विघ्न हैं ।

पूर्व सूत्र में योग मार्ग में आने वाली बाधाओं या विघ्नों के बारे में बताया गया था उन्हीं का विस्तृत वर्णन इस सूत्र में किया गया है। शिष्यों के पूछने पर महर्षि ने सभी बाधाओं का नाम इस सूत्र में बताया है। वे बाधाएं हैं-

व्याधि (रोग)
स्त्यान ( इच्छा होने पर भी योग का अनुष्ठान न करना)
संशय ( योग से मुक्ति मिलेगी या नहीं, मैं योग कर पाऊंगा या नहीं आदि इस प्रकार के संशययुक्त चित्त)
प्रमाद ( मन के स्तर पर योग न करने की इच्छा)
आलस्य ( शरीर के स्तर पर भारीपन होने के कारण योग न करना)
अविरति ( भोगों के प्रति आसक्ति बने रहना, वैराग्य का अभाव)
भ्रांतिदर्शन (विपरीत ज्ञान, उल्टा ज्ञान या मिथ्या ज्ञान; योगमार्ग पर चलने के लिए बताए गए साधनों एवं उनके लाभ के बारे में मिथ्याज्ञान होना)
अलब्ध-भूमिकत्व ( योग के किसी भी स्तर को न पाना, योग प्रांरम्भ करना फिर छोड़ देना )
अनवस्थितत्व ( योग की उच्चतम अवस्था समाधि को पाकर भी चित्त का अधिक देर तक उसमें न ठहर पाना, समाधि का टूट जाना)
इस प्रकार योग के पथ पर चलने वाले साधकों को ये 9 प्रकार की बाधाएं रोकती हैं। ऐसी आत्माएं जिनके पूर्व जन्म के संस्कार योग मार्ग में अधिक दृढ़ नहीं है उन्हें ये 9 बाधाएं योग मार्ग पर आती ही आती हैं, उन्हें इन बाधाओं से घबराकर योग छोड़ नहीं देना चाहिये अपितु निरंतरता के साथ योग के अभ्यास को बनाये रखना चाहिये।

ये बाधाएं किस प्रकार हैं अब इसे समझते हैं।

महर्षि ने बाधाओं का एक व्यवस्थित क्रम रखा है और यह क्रम अत्यंत वैज्ञानिक है। यदि साधक रोग पीड़ित है तो वह न तो योगाभ्यास के लिए बैठ सकता है और न ही उसके मन की अवस्था ही ठीक न होने से योग में उसकी प्रवृत्ति हो सकती है अतः महर्षि ने व्याधि को पहली बाधा कहा है। अतः सबसे पहले साधक को अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक होकर शरीर को ठीक करना होगा तभी वह योग मार्ग पर प्रथम कदम रख सकता है।

बहुत समय से योग के क्षेत्र में एक भ्रांति चली आ रही थी कि योगियों को शरीर से क्या मतलब! वे तो शरीर से पार होते हैं! योगी तो एकमेव परमात्मा के आश्रय में रहते हैं इस प्रकार के शब्द कहकर शरीर की ओर ध्यान देने वाले को हीन समझा जाता रहा।

वर्तमान में परम पूज्य स्वामी रामदेव जी महाराज ने सारी मनुष्यता को योग के इस प्रथम अंतराय अर्थात बाधा को दूर करने का रास्ता दिखाया है जिसके लिए यह मनुष्यजाति उनकी सदैव आभारी रहेगी।

यदि आप किसी गंतव्य की ओर बढ़ रहे हैं और आपका पहला कदम ही गलत दिशा में चले जाए तो फिर आप कभी भी गंतव्य पर नहीं पहुंच सकेंगे अपितु आपसे गंतव्य उतना ही अधिक दूर होता चले जाएगा जितने कदम आपने गलत दिशा में उठा लिए हैं।

अतः पहली बाधा के ऊपर हमारा ध्यान सदैव रहना चाहिये ताकि हम अन्य बाधाओं को हटाने के लिए पुरुषार्थ कर पाएं। यदि आप योग मार्ग में चलने में ही असमर्थ होंगे तो बांकी बाधाएं कैसे पार कर पाएंगे। इसलिए वेद कहते हैं कि - चरैवेति चरैवेति चरन् वै मधुन्विन्दति ।

चलते रहेंगे तो शायद मंजिल एक दिन मिल भी जाएगी, भटके हुए तो वे लोग हैं जो अभी तक घर से निकले भी नहीं हैं। अतः यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि हम योग मार्ग की इस प्रथम बाधा को पार करते रहें या यूँ कहें कि यह बाधा आने ही न दें।

अन्य 8 जो बाधाएं हैं वे या शरीर से इतर मन, बुद्धि, अज्ञान आदि से संबंधित बाधाएं हैं । इन बाधाओं को आंतरिक पुरुषार्थ, समझ, अभ्यास, वैराग्य और विवेक द्वारा हटाया जाता है।

लेकिन योग साधकों को यह निरंतर स्मरण रखना है कि हमें योग की प्रथम बाधा व्याधि से सर्वथा दूर रहने का पुरुषार्थ करना है।

शरीर के सम्पूर्ण स्वास्थ्य के लिए साधक जो भी पुरुषार्थ करेगा उससे ही अन्य 8 बाधाएं भी अपना असर कम करने लग जाती हैं। कहने का तात्पर्य है कि यदि शरीर के स्वास्थ्य के लिए समग्रता से पुरुषार्थ किया जाय तो अन्य 8 बाधाएं भी हटने लग जाती हैं।

जब शरीर के सम्पूर्ण स्वास्थ्य की बात आती है तो- आहार, विचार, व्यवहार, संस्कार और विहार की बात भी उसमें समाहित हो जाती है ।

इन सब उपरोक्त आयामों पर जब कार्य किया जाता है तो बाधाएं कम होते होते समाप्त हो जाती हैं। ऐसा नहीं है कि केवल व्याधि मुक्त करके साधक समाधि को प्राप्त हो जाएगा लेकिन व्याधि मुक्त होकर वह अन्य बाधाओं को अत्यंत सुगमता से हटा सकता है और समाधिलाभ ले सकता है इसमें किसी भी प्रकार का संशय नहीं है।

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