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समाधि पाद योगर्शन सूत्र 6-15

 समाधि पाद योगर्शन सूत्र 6-15


सूत्र--६ 

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतय: । 


प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः- १. प्रमाण, २. विपर्यय, ३. विकल्प, ४. निद्रा, ५. स्मृति--ये पाँच हैं। 


अनुवाद-- प्रमाण, विषर्यद, विकल्प, निद्रा और स्मृति ये पांच “वृत्तियाँ हैं। 


   व्याख्या--चित्त पुरुष और प्रकृति का संयुक्त रूप जो उस पुरुष (आत्मा) के कारण ही सक्रिय होता है । चित की निम्न पांच प्रकार की वृत्तियाँ हैं जो सांसारिक ज्ञान का आधार है जिनका निरोध होने पर वह अपने प्रकृतिजन्य स्वरूप को त्याग कर आत्म-स्वरूप में स्थित हो कर रुक जाती हैं। ये वृत्तियाँ हैं-- 


१. प्रमाण वृत्ति--इस वृत्ति के कारण वह प्रमाण के आधार पर किसी वस्तु के सत्य स्वरूप के जानने की चेष्टा करता है। यह वृत्ति इन्द्रिय विषयों के पूर्वाभ्यास से सम्बन्धित विषयों के प्रसंग आने पर उभरती है। 


२. विपर्यय वृत्ति--इस वृत्ति के कारण उसे कोई वस्तु जैसी है वैसी न दिखाई देकर उसमें अन्य वस्तु का भ्रम हो जाता है, जैसे रस्सी में सांप की भ्रान्ति हो जाना। वस्तु स्थिति की जानकारी न होने से उसका प्रतिकूल ज्ञान होता है। इससे वह असत्‌ को सत्‌ तथा सत्‌ को असत्‌ मानने लगता है। 


३. विकल्‍प वृत्ति--इस वृत्ति के कारण वह किसी वस्तु के न होते हुए भी उसकी कल्पना करता है। जैसे ईश्वर को किसी ने देखा नहीं किन्तु उसके स्वरूप की कल्पना करना। भय, आशंका, सन्देह, अशुभ सम्भावना आदि की उपस्थिति के अभाव में भी उसकी कल्पना करना। 


निद्रा वृत्ति--जिसमें कुछ भी दिखाई न दे किन्तु उस अभाव को प्रतीति होती है। आलस्य, प्रमाद, उपेक्षा, अवसाद, अनुत्साह इसी वृत्ति के कारण होता है। 


स्मृति वृत्ति--इसके कारण जो देखा या जाना गया है उसका पुनः स्मरण हो आता है। वे संस्मरण जो निकृष्ट योनि में रहते समय अभ्यास में आते रहे हैं, स्वभाव के अंग बन जाते हैं। उसकी छाया मनुष्य योनि में भी छाई रहती है जिससे मनुष्य पशु तुल्य व्यवहार करता देखा जाता है। योग साधना का उद्देश्य इन दुष्प्रवृत्तियों के साथ संघर्ष करना है जो पशु योनियों से चली आ रही हैं । आत्मा की गरिमा पर ये पशु वृत्तियाँ हावी हो रही हैं जिनको हटाने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। योग में इसी के निरोध की बात कही गई है जिससे आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में प्रकट हो सके। योग के अभ्यास से ही तत्त्वज्ञान होता है जिसे आठ अंगों में पूर्ण करना होता है। योग बाजीगरी का खेल नहीं है, न कोई शारीरिक कसरत है, न शारीरिक स्वास्थ्य लाभ के लिए है। शरीर एवं मन की शुद्धि से ही योग होता है। अशुद्धि किसी भी स्तर की हो, उसे हटाना आवश्यक है। 



सूत्र--७ 

प्रत्यक्षानुमानाऽगमाः प्रमाणानि। 


प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम-- (ये तीन), प्रमाणानि-प्रमाण हैं । 


अनुवाद-- प्रत्यक्ष अनुमान और आगम भेद के अनुसार प्रमाण वृत्ति! तीन प्रकार की है। 


व्याख्या--प्रमाणों के आधार पर किसी वस्तु के सत्यासत्य का निर्माण करना चित्त की 'प्रमाण-वृत्ति' है। यह प्रमाण तीन प्रकार का होता है-- । 


१. प्रत्यक्ष प्रमाण--जिन वस्तुओं का ज्ञान इन्द्रियों की सहायता से होता है वह 'प्रत्यक्ष प्रमाण' है। जैसे आँखों देखी, कानों सुनी, जिह्ना से स्वाद, नासिका से गन्ध तथा चमड़ी से स्पर्श का ज्ञान होना प्रत्यक्ष प्रमाण है। जब इसका भ्रम एवं संशय रहित ज्ञान होता है तो वह सत्य होता है । यदि इससे संसार की अनित्यता का बोध होकर चित्त ईश्वर की ओर अभिमुख होता है तो यह 'अक्लिष्ट' है जिससे सुख और आनन्द की प्राप्ति होती है किन्तु इस वृत्ति से यदि संसार व उसके भोग सत्य ज्ञात होने लगें तथा ईश्वर के प्रति अनास्था हो जाए तो इसे 'क्लिष्ट' कहते हैं। इससे दु:खों में वृद्धि ही होती है। 



    अनुमान प्रमाण---जिन वस्तुओं का ज्ञान इन्द्रियगत अनुभव के आधार पर न होकर अनुमान के आधार पर होता है उसे “अनुमान प्रमाण' कहते हैं। जैसे धुएँ को देखकर अग्नि का अनुमान करना, बाढ़ आई देखकर दूर देश में अति-वृष्टि का अनुमान करना आदि। यदि इससे योग साधनों की ओर श्रद्धा बढ़ती है तो यह 'अक्लिष्ट' है किन्तु यदि उसका उपयोग सांसारिक पदार्थों के भोग के लिए किया जाता है तो यह 'क्लिष्ट' कहलाती है। 


» आगम प्रमाण--जो ज्ञान प्रत्यक्ष अथवा अनुमान प्रमाणों के आधार पर नहीं होता किन्तु विद्वानों तथा ज्ञानियों द्वारा कहे गए वचन तथा शास्त्र के वचन के आधार पर होता है वह भी प्रमाण है जिसे जिन्होंने प्रत्यक्ष देखा है। सभी व्यक्तियों को सभी प्रकार के अनुभव हो जाना अर्थात्‌ सभी वस्तुओं को प्रत्यक्ष देख पाना असम्भव है । इसलिए ज्ञानियों के कथन जोशास्त्रों में संग्रहीत हैं 'आगम प्रमाण” कहते हैं। इनसे यदि भोगों से वैराग्य होकर योग साधना की ओर चित्त प्रवृत्त होता है तो वह 'अक्लिष्ट' है तथा संसार के भोगों की ओर प्रवृत्त होने पर वह 'क्लिष्ट' है। वेद, उपनिषद, दर्शन आदि उन मनीषियों द्वारा लिखे गए हैं जिनको वैसा अनुभव हुआ। इसलिए ये शास्त्र आगम प्रमाण हैं। 


सूत्र 8 

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमेतद्रूपप्रतिष्ठम्‌। 


अतद्गभूपप्रतिष्ठम्-जो उस वस्तु के स्वरूप में प्रतिष्ठित नहीं है, ऐसा; मिथ्याज्ञानम्‌-मिथ्या ज्ञान; विपर्यय्र:-विपर्यय है । 


अनुवाद-- वस्तु में अन्य वस्तु का जो मिथ्या ( भ्रमपूर्ण) ज्ञान होता है वह “विपर्यय ' है । 


व्याख्या--किसी वस्तु को देख या सुनकर उस वस्तु से भिन्‍न किसी अन्य वस्तु को समझ लेना 'विपर्यय' वृत्ति है। जैसे रस्सी को साँप समझ लेना, सीपी में चाँदी की भ्रान्ति हो जाना, मरुस्थल में जल की भ्रान्ति हो जाना (मृग मरीचिका) आदि। यह वृत्ति भी जब योग की ओर ले जाती है तो 'अक्लिष्ट' तथा संसार की ओर ले जाती है तो 'क्लिष्ट ' कहलाती है। 


सूत्र-- ९ 

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्प:। 


शब्दज्ञानानुपाती-जो ज्ञान शब्दजनित ज्ञान के साथ-साथ होनेवाला है; (और) वस्तुशून्यः-जिसका विषय वास्तव में नहीं है, वह; विकल्प:-विकल्प है ? 


अनुवाद-- वस्तु के न रहते हुए भी शब्द ज्ञान मात्र से उत्पन्न चित्तवृत्ति को “विकल्प ' कहते हैं । 


व्याख्या--जब कोई वस्तु नहीं होती किन्तु शब्द ज्ञान-मात्र से जो कोरी कल्पना की जाती है वह चित्त की 'विकल्प' वृत्ति है। संसार के अधिकांश कार्यों के पहले कल्पना ही होती है । सभी वैज्ञानिक उपलब्धियों, कविता, संगीत, कलाएँ आदि कल्पना की ही उपज हैं। यह कल्पना भी चित्त की वृत्ति है। इसका भी अच्छा और गलत उपयोग किया जा सकता है। यदि यह ईश्वर प्राप्ति में लगाई जाए तो 'अक्लिष्ट' है अन्यथा “क्लिष्ट' कहलाती है। जैसे भगवान्‌ का स्वरूप किसी ने देखा नहीं किन्तु साधक सुने सुनाये तथा ग्रन्थों को पढ़कर उसके स्वरूप की कल्पना कर उस पर ध्यान लगाता है जिससे उसे ध्यान का लाभ प्राप्त होता है। ऐसा विकल्प 'अक्लिष्ट' कहलाता है। संसार के भोगों की ओर लगने पर इसे 'क्लिष्ट' कहते हैं। 



सूत्र--१० 

अभावलप्रत्ययाउलम्बला वृत्तिर्निद्रा। 


अभावप्रत्ययाइलम्बना-अभाव के ज्ञान का अवलम्बन (ग्रहण) करनेवाली; वृत्ति:-वृत्ति; निद्रा-निद्रा है । 


अनुवाद-- अभाव के ज्ञान का अवलम्बन करने वाली (ग्रहण करने वाली) वृत्ति “निद्रा  है। 


व्याख्या---' निद्रा' भी चित्त की वृत्ति है। इसमें मनुष्य को किसी भी विषय का ज्ञान नहीं रहता किन्तु ज्ञान के अभाव की प्रतीति होती है। जैसे गहरी निद्रा में भी मनुष्य को यह भान रहता है कि आज नींद गहरी आई। इस भान के कारण ही इसे “वृत्ति' कहा गया है। जब निद्रा से जागने पर आनन्द की अनुभूति हो, आलस्य न रहे, इन्द्रियाँ स्वस्थ एवं प्रसन्‍न हो जायें तो इसे ' अक्लिष्ट' कहते हैं किन्तु जागने पर यदि केवल थकान का अभाव हो जाए और उससे आसवक्त उत्पन्न हो जाए तो वह 'क्लिष्ट' कहलाती है। समाधि और गहरी निद्रा करीब-करीब समान ही हैं। समाधि में सजगता बनी रहती है किन्तु गहरी निद्रा में सजगता नहीं होती। यदि इसमें सजगता रहे तो इसी को 'समाधि' कहते हैं । 



सूज-- ११ 

अनुभूतविषयाउसम्प्रमोष: स्मृति: । 

अनुभूतविषयाउसम्प्रमोष:-अनुभव किये हुए विषय का न छिपना अर्थात्‌ प्रकट हो जाना; स्मृतिः-स्मृति है। 


अनुवाद-- अनुभव किये हुए विषय का विस्पमरण ही 'स्मृति है । 


व्याख्या--इन्द्रियों तथा मन से अनुभव किये विषयों के संस्कार चित्त पर पड़ते हैं उनका पुन: किसी निमित्त को पाकर प्रकट हो जाना ही “स्मृति' है। संसार में रहकर अच्छे, बुरे, सामान्य, असामान्य, आनन्दप्रद- कट, क्रोध, घृणा, द्वेष आदि से अनेक प्रकार के कर्म किये जाते हैं तथा मन द्वारा सोचे जाते हैं उनमें जिनका गहरा अनुभव होता है तथा जो बात गहराई तक प्रविष्ट हो जाती है वे ही संस्कार कहलाते हैं। ये संस्कार चित्त पर स्थाई रूप से पड़ते हैं जिनका प्रभाव अनेक जन्मों तक रहता है जब तक उनका भोग समाप्त नहीं हो जाता। ये संस्कार अच्छे, बुरे और मिश्रित तीनों प्रकार के होते हैं। 'सविकल्प समाधि में ये ही स्मृतियाँ रहती हैं। जब ये स्मृतियाँ नहीं रहर्ती तो इसी को 'निर्विकल्प समाधि ' कहते हैं। किन्तु बीज रूप में ये विद्यमान रहती हैं जिससे व्यवहार के समय इनका उपयोग किया जा सकता है। चित्त पर पड़े संस्कार जब जागते हैं तभी उन्हें 'स्मृति' कहते हैं। जब इस वृत्ति से आत्मज्ञान में उत्साह बढ़ता है तो यह 'अक्लिष्ट' तथा भोगों में रुचि बढ़ती है तो यह “क्लिष्ट' कहलाती है। 



सूत्र--१२ 

अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध: । 

तन्निरोध: उन (चित्तवृत्तियों) का निरोध; अभ्यासवैराग्याभ्याम्- अभ्यास और वैराग्य से होता है । 

अनुवाद-- उन (चित्तवृत्तियों) का निरोध अभ्यास” और “वैराग्य ' से होता है। 

व्याख्या--महर्षि पतंजलि ने इस पद के दूसरे सूत्र में चित्त की वृत्तियों के निरोध को ही 'योग' कहा है। ईश्वर अथवा आत्मा कोई उपलब्ध होने वाली वस्तु नहीं है। वह तो नित्य उपलब्ध है ही। जिस प्रकार समुद्र में लहरों के कारण उसमें पड़ा चन्द्रमा का बिम्ब दिखाई नहीं देता, जिस प्रकार बादलों के आवरण से आकाश दिखाई नहीं देता उसी प्रकार इस चित्त में नित्य उठ रही तरंगों के कारण उससे परे स्थित आत्मा दिखाई नहीं देती । ये चित्त की तरंगें उसकी वृत्तियाँ ही हैं जो पूर्व जन्मों में किये गये कर्मो से निर्मित संस्कारों के कारण सदा संसार के भोगों की ओर ही प्रवृत्त होती हैं । योग शास्त्र में इसी को 'अविद्या ' कहा है। यदि इन प्रवृत्तियों का योग साधनों द्वारा निरोध कर दिया जाए जिससे ये संसार के भोगों की ओर न दौड़े तथा बिल्कुल शान्त हो जाए तो साधक को आत्मा के स्वरूप का ज्ञान हो सकता है। आत्मज्ञान होने पर ही साधक को संसार से पूर्ण वैराग्य होता है तथा वह स्वयं दृष्टा, साक्षी बन जाता है। यही ज्ञान है तथा यही मुक्ति है। किन्तु अनेक जन्मों के संस्कारों के कारण ये वृत्तियाँ इतनी दृढ़ हो गई हैं कि इन्हें रोकना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। महर्षि पतंजलि इनके निरोध के दो उपाय बतलाते हैं 'अभ्यास' और “वैराग्य'। विषयों के प्रति जो आसक्ति है उसका सर्वथा त्याग ही 'बैराग्य' है। घर छोड़कर जंगल जाना, भगवा पहनना, शरीर पर राख लपेट लेना, नग्न रहना आदि वैराग्य नहीं हैं बल्कि सांसारिक विषयों के प्रति जो वासना है, आसक्ति है, लगाव है इनका त्याग ही वैराग्य है। दूसरे शब्दों में वासना ही संसार है एवं उसका त्याग ही मुक्ति है। ये सांसारिक विषय ही दु:ख के कारण हैं तथा अपने स्वरूप (आत्मा) में स्थित हो जाना ही परमानन्द की स्थिति है। इसलिए पतंजलि वैराग्य' की बात कहते हैं । जो विषयों के प्रति आसक्ति का त्याग किये बिना योगाभ्यास करते हैं वे पथभ्रष्ट ही होते हैं तथा पाखण्डी हो जाते 

हैं। इसलिए वैराग्य स्वरूप होकर निरन्तर मन की प्रवृत्तियों को रोकने का अभ्यास करने से निश्चित ही साधक को आत्मज्ञान का सुख मिलता है। किन्तु संसारी ठीक इसके विपरीत कर रहा है । बह आत्मा और ईश्वर के प्रति वैराग्य किए हुए है तथा इन वृत्तियों को रोकने का नहीं, इनको और दृढ़ और विकसित करने का प्रयत्न कर रहा है। प्रकृति से जो कुछ मिला है उसका अधिकाधिक उपयोग कर रहा है । इससे संसार में विकास तो हुआ है किन्तु भोग वृत्ति तथा आसक्ति भी बढ़ गई है जिससे वह दुःखी अधिक हुआ है। सच्चा सुख तो आत्मज्ञान के बिना नहीं मिल सकता तथा उसके लिए इन वृत्तियों का निरोध आवश्यक है जो निरन्तर अभ्यास और वैराग्य से ही सम्भव है। भगवान्‌ कृष्ण ने भी गीता में कहा है हे महाबाहो! निस्संदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु हे कौन्तेय! अभ्यास और वैराग्य से यह वश में होता है। (गीता ६/३५) कर्म छोड़ना वैराग्य नहीं है, आसक्ति छोड़ना ही वैराग्य है। आगे और भी कहा है, “जो मूढ़ बुद्धि पुरुष कर्मेन्द्रियों को हठपूर्वक रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात्‌ दम्भी कहा जाता है।”' (गीता ३/६) 


    इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, किन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती । इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा के साक्षात्कार से निवृत्त हो जाती है। (गीता २/५९) 



सूत्र-१३ 

तत्र स्थितो यत्नो भ्यास: । 


तत्र-उन दोनों में से; स्थितौ-(चित्त की) स्थिरता के लिये; यत्नः-जो प्रयल करना है, वह; अभ्यासः-”अभ्यास है।  


अनुवाद-- इन दोनों (अभ्यास और वैराग्य) में से चित्त वृत्तियों को रोकने के लिए बार-बार यत्न करना “अभ्यास है । 


व्याख्या--इस सूत्र में 'अभ्यास' की व्याख्या करते हुए महर्षि कहते हैं कि चित्त की स्थिरता के लिए बार-बार जो प्रयत्न किया जाता है वह 'अभ्यास' है। मन बड़ा चंचल है। वह एक क्षण भी शान्त नहीं रहता। विचारों का प्रवाह ही मन की चंचलता के कारण है। यह प्रवाह निद्रा में भी चलता रहता है। स्वप्न भी इसी प्रवाह से आते हैं। यह' मन हजारों तरफ भागता है। इसे किसी एक ध्येय की ओर स्थिर करने की चेष्टा बारम्बार करना ' अभ्यास ' है । इसकी अनेक विधियाँ विभिन्‍न शास्त्रों, एवं धर्मों में खोजी गई हैं जैसे ध्यान, भजन, कीर्तन, मन्त्र जाप, किसी मूर्ति, तस्वीर आदि को आधार बना कर अपने इष्ट, देवता अथवा परमात्मा का ध्यान, त्राटक आज्ञा चक्र पर ध्यान, गुरु द्वारा दिये मन्त्र का जाप, शरीर के किसी अंग विशेष जैसे भूकुटि, हृदय कमल, नाभि, श्वास, प्रश्वास पर ध्यान केन्द्रित करना आदि अनेक विधियाँ हैं जिनसे मन किसी एक केन्द्र पर केन्द्रित होता है। इससे मन की शक्ति कई गुना बढ़ जाती है जिससे सिद्धियाँ भी प्राप्त होती हैं । साधक को इन सिद्धियों से बचकर इस शक्ति का उपयोग आत्मज्ञान हेतु ही करना चाहिए। मन के एकाग्र होने से वह शान्त नहीं होता। उसका उपयोग न करने से वह शान्त होता है किन्तु थोड़े समय शान्त होने के बाद वह पुनः दूने बेग से भोगों की ओर भागता है। उस समय इस पर नियन्त्रण आवश्यक है। जैसे उपवास करने पर बार-बार खाने की इच्छा होती है तथा चौबीस घंटे ध्यान भोजन की ओर ही जाता है। ध्यान में बैठने पर विचार अधिक तेजी से आते हैं। इस प्रकार मन किसी एक केन्द्र पर टिकता ही नहीं। इसलिए उसे बार-बार खींच कर ध्येय की ओर प्रयत्न पूर्वक लगाना पड़ता है। यही 'अभ्यास' है। इसमें काफी लम्बा समय भी लग सकता है इसलिए साधक में धैर्य होना आवश्यक है।। इसी पाद में सूत्र ३२ से ३९ तक इसे स्थिर करने की कुछ विधियाँ बताई गई हैं। इनका भी प्रयोग करना चाहिए। ये अंतरंग साधन हैं। बाह्य साधनों का वर्णन साधन पाद में किया गया है जिनमें आसन एवं प्राणायाम मुख्य है। इनसे भी चित्त स्थिर होता है। संसार लिए गति आवश्यक है। गति का नाम ही संसार है किन्तु परमात्मा केन्द्र पर है जहाँ कोई गति नहीं है। सब स्थिर है, ठहरा हुआ है। संसार पाना हो तो गति आवश्यक है, भाग-दौड़, संघर्ष आवश्यक है किन्तु परमात्मा की प्राप्ति 'करने ' से नहीं होती। 'अक्रिया' ही उसको पाने का सूत्र है। जिस समय मन एवं शरीर की समस्त क्रियाएँ रुक जाती हैं उस समय आत्मज्ञान होता है। इसलिए यह अभ्यास 'कुछ करने' के लिए नहीं बल्कि 'न करने ' के लिए है। मन की वृत्ति सदा कुछ-न-कुछ करने की है इसलिए अभ्यास द्वारा इसे “न करने ' में लगाना है, इसे स्थिर एवं शान्त करने में लगाना है जिससे इसकी सारी हलचल समाप्त हो जाए। आत्मज्ञान का यह एक ही मार्ग है। यह शरीर एक ऐसा मन्दिर है जिसके बाहर विशाल संसार है एवं भीतर परमात्मा है। मन उसके द्वार पर खड़ा है जो निरन्तर संसार की ओर मुँह किए हुए है व उसी को देख रहा है। यदि उसमें संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न किया जाए और परमात्मा के आनन्द की झलक दिखा दी जाए तो वह विपरीत मुख होकर आत्मानन्द को प्राप्त हो सकता है। यही 'योग' है। 



सूत्र--१४ 

स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्काराऽऽसेवितो दृढ़भूमि: । 


तु परंतु; सः वह (अभ्यास); दीर्घकालनैरन्तर्य- सत्काराऽऽसेवितः -बहुत काल तक निरन्तर लगातार और आदरपूर्वक साग्ङोपाग्ङ सेवन किया जाने पर; दृढभूमिः-दृढ़ अवस्थावाला होता है। 


अनुवाद-- परंतु वह अभ्यास दीर्घकाल तक निरन्तर श्रद्धापूर्वक सेवन किये जाने पर दृढ़ अवस्था वाला हो जाता है। 


व्याख्या--आत्मज्ञान के लिए चित्त को बार-बार यत्नपूर्वक रोकने का निरन्तर अभ्यास करना आवश्यक है। इस अभ्यास में काल की कोई अवधि नहीं है।

   बल और उत्साह से युक्त वह अभ्यास कैसे साधक को योग में प्रतिष्ठित करेगा इस पर महर्षि कहते हैं कि एक बार के अभ्यास से कुछ भी होने वाला नहीं है |


लम्बे समय तक, निरंतरता पूर्वक, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा, तप और विद्यापुर्वक अनुष्ठान किया हुआ होना चाहिए वह अभ्यास | ऐसा अभ्यास ही दृढ भूमि वाला होता है | दृढ भूमि से आशय है कि ऐसा अभ्यास जिसका आधार दृढ है | साधक में बल भी है और उत्साह भी लेकिन कभी कभी योग में प्रवृत होने का अभ्यास करता है तो ऐसा अभ्यास उसे योग में गतिमान नहीं कर सकता है | इसलिए लम्बे समय और निरंतरता के साथ, श्रद्धा, तप, ब्रह्मचर्य और विद्यापुर्वक किया गया अभ्यास ही फलदायी होता है |


हम प्रायः देखते हैं कि लोग थोड़े बहुत प्रयास के बाद टूट जाते हैं, संकल्पों की इतिश्री कर देते हैं और बाद में पछताते हैं | मेरे पास बहुत सारे युवा आते हैं और कहते हैं कि स्वामी जी हम बार बार ब्रह्मचर्य में रहने का प्रयास करते हैं लकिन अचानक से कुछ संस्कार अत्यंत वेग से आते हैं और हमारी उर्जा उस आंधी, तूफ़ान में नष्ट हो जाती है फिर ग्लानि भाव, अपराध बोध से हमारा सारा चित्त मलिन हो जाता है | इसका केवल एक ही कारण है कि हमने जो संकल्प लिए और उन संकल्पों की पूर्ति हेतु जो अभ्यास हमने किया था उसका आधार बहुत ही कमजोर था जो व्युत्थान के समय उठने वाले संस्काओं की मार को सहन नहीं कर पाया |


यदि हमारे अभ्यास श्रद्धा,तप,विद्या और ब्रह्मचर्य पूर्वक किये हों तो सच्चे साधक की स्थिति व्युत्थान संस्कारों में भी अडिग रहती है | मैं युवाओं से कहता हूँ, तुम्हें अपने आधार मजबूत करने होंगे, बार बार गिरकर भी उतनी ही दृढ़ता से उठना होगा, संभलना होगा और पुनः जुट जाना होगा अपनी वास्तविक स्थिति को पाने के लिए | यह केवल ब्रह्मचर्य के ऊपर ही लागू नहीं होता, यह प्रत्येक उस स्थिति पर लागू होता हैं जहाँ भी हमने अपने संकल्पों को संजोया होगा|


हमारे भीतर हार के संस्कार बहुत प्रबल हैं इसलिए जब भी साधक कोई संकल्प के साथ अपने अभ्यास आरंभ करता है तो पिछले हार के संस्कार और संकल्प के विरुद्ध में संस्कार एकसाथ मिलकर साधक को डिगाने का काम करते हैं और यदि साधक के भीतर तीव्र अभीप्सा नहीं है अपने संकल्प को पूर्ण करने की तो हवा के एक झटके में सबकुछ नष्ट हो जाता है |


सूत्र में एक शब्द आया है सत्कार- यह बहुत ही सुन्दर शब्द है | जब भी आपके घर में कोई अतिथि आता है तो अप उसका सत्कार करते हैं | जैसे उन्हें बैठने के लिए कहेंगे, उन्हें अच्छा आसन देंगे, जलपान के लिए पूछेंगे, उनके लिए अच्छा और सात्विक भोजन की व्यवस्था करेंगे, उनके विश्राम की उचित व्यवस्था करेंगे, उन्हें आपके घर में किसी भी प्रकार की असुविधा न हों इसका भरपूर प्रयास करेंगे | यहाँ तक कि आपके घर में कोई संसाधन न भी हों तो पडोसी से मांगकर वो संसाधन आप अथिति की सेवा में लगायेंगे |


यदि आपके मन में अतिथि के आगमन से प्रसन्नता नहीं होगी तो आप अथिति की सेवाओं के ऊपर विशेष ध्यान नहीं देंगे | आप आथित्य सत्कार तभी कर सकते हैं जब आपके मन में अतिथि को लेकर श्रद्धा का भाव हो, उसका आगमन आपको प्रसन्नता देता हो, आपका मन निश्चल हो और अपनी सुविधाएँ कम करके भी अप अतिथि की सेवा करने को इच्छुक हों|


अभ्यास के प्रति भी जब हमारा मन इतने ही श्रद्धा भाव से भरा हुआ होगा, अभ्यास को हम प्रथम वरीयता देंगे, उसके रक्षणार्थ हम तप करने को भी प्रतिबद्ध हों, अभ्यास की महिमा का ज्ञान हमें भली भांति हो तभी हम अभ्यास की रक्षा कर सकते हैं और ऐसा सत्कारपूर्वक किया गया अभ्यास हमारी रक्षा करता है |


दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥१.१५॥


दृष्ट , आनुश्रविक , विषय , वितृष्णस्य , वशीकार , संज्ञा , वैराग्यम्॥

दृष्ट - देखे हुए (और)

आनुश्रविक - सुने हुए

विषय - विषयों में (सर्वथा)

वितृष्णस्य - तृष्णारहित (है, उसका)

वैराग्यम् - वैराग्य

वशीकार - अपर-वैराग्य

संज्ञा - नाम वाला है ।

अब वैराग्य के स्वरुप अर्थात उसके वास्तविक रूप को समझने का प्रयास करते हैं | जैसे कि पहले भी मैं कह चुका हूँ अभ्यास और वैराग्य को सटीकता से समझने का प्रयास अवश्य करना चाहिए क्योंकि ये बहुत महत्वपूर्ण हैं योग साधना में गति पाने के लिए |


महर्षि कहते हैं-”दृष्ट अर्थात देखे हुए विषयों में और आनुश्राविक अर्थात सुने गए विषयों में तृष्णा रहित योगी की मन और इन्द्रियों पर पूर्ण रूप से नियंत्रण की स्थिति या अनुभूति वैराग्य कहलाती है ”


देखे गए विषय हैं (दृष्ट)- आँख का विषय (सांसारिक सौन्दर्य), रसना के विषय (स्वादिष्ट अन्न, स्वादिष्ट पेय) ऐश्वर्य आदि | जब तक इन देखे जाने वाले विषयों में भोगासक्ति बनी है तब तक वैराग्य उद्घाटित नहीं हो सकता है | लेकिन ऐसा नहीं है कि तो जो योगमार्ग में आरूढ़ करने वाले साधन हैं उनका सहारा नहीं लेना है, वे हेय नहीं है यदि वे आपको साधना के मार्ग पर चला रहे हैं तो, इसका निर्धारण साधक को स्वयं में करना पड़ता है|


सुने हुए विषय हैं (आनुश्राविक)- शास्त्रों के द्वारा जो सुने जाते हैं और जिनका कोई प्रत्यक्ष अनुभव साधक को नहीं होता है उन्हें आनुश्राविक विषय कहा जाता है | यदि इन सुने हुए विषयों में मन फल की कल्पना कर रहा है या किसी भी तरह चित्त इसमें लोभ भावना से लिप्त है तो यह स्थिति भी योग में बाधक है और वैराग्य का नाश करने वाली है | इसलिए इन सुने हुए विषयों को केवल शुद्ध ज्ञान की दृष्टि से समझने मात्र से चित्त निर्मल बना रहता है |


जब साधक का चित्त उपरोक्त दोनों प्रकार के विषयों से निर्लिप्त होकर जीवन साधना में आगे बढ़ता है तो उसके भीतर एक सहज वैराग्य उदय होता है जो विवेक और अभ्यास के साथ मिलकर समाधि के मार्ग पर साधक को आगे बढ़ाता है |


वैराग्य को यदि सीधे शब्दों में कहें तो निर्लिप्तता, तृष्णा से रहित चित्त, लोभ से रहित चित्त | योगदर्शन के अनुसार इसे अपर वैराग्य भी कहा जाता है और यह सम्प्रज्ञात समाधि का उपाय है |


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