मृत्यु का मार्ग देवताओं से भीन्न है।
प्रकृति की गोद में दूर तक फैला पहाड़ी पवर्ती का साम्राज्य बर्फ से आच्छादित घाटिया देवदार वृक्ष उसमें ब्रह्म नाद का उद्घोष करती नदियाँ और मीलों गहरी घाटियाँ जो स्वयं में साक्षात मौत का विशाल सन्नाटे को चीरती नदी की लहरें जो पर्वत को तोड़ती पाताल का स्पर्श करने को व्याकुल है। वहीं पर ध्यान के लिए अभ्यास की क्या आवश्यकता क्योंकि वहाँ की तो सारी प्रकृति ध्यान में डूब-डूब कह रही है जहाँ ऋषि महर्षि ने विशाल होम किया है। उसका धुन्ध कोहरे के रूप में पर्वतों से निकल रहा है। हडिडूयों को भी कपंकपी शान करती ठंडी हवा और बर्फ से भी ठंढा नदी की धारा जिसमें नग्न शरीर तपस्वियों को मौन ध्यान की साधना करना अद्भुत आश्चर्य सारे जारवर पक्षी अद्भुत शान्त जैसे माघ की अंधेरी रात कोहरे से ढंकी हुई चादरें सारे साम्राज्य को अपने में समेटे आम जन आग के पास बैठ ब्रह्म चर्चा में तल्लीन तत्वों कहानियों सुनते पशु पक्षियों की अपने सहचर्यों से उसमें भी विकट घनघोर में एकान्त में साधु सत्य स्वरूप का आश्रम दो धारियों के मध्य नदी के किनारे सहत निरन्तर दहाड़ती नदी की आवाज जैसे खूखार शेर अपने शिकार पर झपटता उस तरह से लहरें चट्टानों को अपना शिकार बनाती और रास्ते से दूर फेंकती समुन्दर की खोज में दौड़ रही है। सतत जबतक समंदर में विलीन नहीं हो जाती है तब तक शान्त नहीं होती है। इसी प्रकार मनुष्य और मनुष्य की आत्मा तब तक शान्ति नहीं पाती जब तक इस जगत में व्याप्त अपने स्वरूप को साक्षात्कार नहीं कर लेते हैं। तब तक अतृप्त रहता जैसा कि संसार के प्रत्येक प्राणी संसार में देखते है जैसा कि वह किसान जिसने स्वयं को भूल गया और अपने को पा लिया यही सिद्धांत है। इस जगत का कि स्वयं का भूलना ही स्वयं को पाना, स्वयं को इतना डूबा दो इस जगत में कि मेरा मान ही ना रहे। सिवाय जगत है। मैं नहीं है जो ध्यान से ही उत्पन्न बल होता है या फिर मैं हूँ जगत नहीं है। जैसा कि वह किसान है। इस विस्तृत ब्रह्माण्ड में मगर वह शरीर नहीं है। जिसे शरीर देख सकते हैं उसे तो आत्मवान ही देख सकता है।
साधु सत्य स्वरूप जो राजा को उपदेश दिया थोड़ा ध्यान का आभास कराया पुनः कहानी का प्रारंभ कर बोल पड़ा यह कहानी उस समय की है जब भारत देश का जो प्राचीन प्रभुत्व था अध्यात्म उसका हास हो गया था देवता ऋषि महर्षि युद्धों में लड़कर समाप्त हो गये थे। रावण-राम का संग्राम महाभारत का संग्राम फिर सक, हुड़, मूल्ला, पारसी, डच, अंग्रेज भारत को लूटकर शासन करके जा चुके थे। लेकिन जो हिंसा प्रचार संस्कृति का प्रचार कर गये थे। ।
ओ३म् परं मृत्यो अनु परेहि पन्याँ यस्ते स्व इतरो देवयानात्।
चक्षुष्मते शृण्वते ते ब्रवीमि मा नः प्रजां रीरिषो मोत वीरान्॥
(हे मृत्यो! देव मार्ग मतलब देवता से भिन्न तुम्हारा मार्ग है। जिस मार्ग पर महापुरुष चलते हैं, उस मार्ग पर मृत्यु नहीं जाती है। इसी वजह से हमारे महापुरुष सब अमर हो गये हैं। चाहे वह ब्रह्मा, विष्णु, महेश हों या फिर बुद्ध, महावीर, जीसस और पैगम्बर हों। क्योंकि महापुरुष अपने जीवन से मृत्यु को अलग कर देते हैं। अपने पुरुषार्थ और सामर्थ्य द्वारा जब वह पृथ्वी पर रहते हैं तो उनका जीवन यूं ही व्यर्थ नहीं गुजरता है। वह अपने जीवन को साधनामय बनाते हैं। अपने में ही शरीर के रहते ही शरीर से अपना लक्ष्य सिद्ध कर लेते हैं। स्वयं को मृत्यु से अलग कर लेते हैं। वह स्वयं के शरीर पर पूर्ण अधिकार कर लेते हैं और अपनी इच्छा से शरीर का त्याग करते हैं। महाभारत के भीष्म को कौन नहीं जानता जो बाणों की शैय्या पर ६ महीने पड़े रहे सही समय के इंतजार में। समय आने पर उन्होंने अपने शरीर का त्याग किया। राम को कौन नहीं जानता जिन्होंने सरयू नदी में समाधि ली थी। कृष्ण अपनी इच्छा से शरीर को त्यागा था। शिव, ब्रह्मा, विष्णु सभी साधना द्वारा मृत्यु पर अधिकार कर लिये थे। भारत में प्रायः देवी-देवता जिन्हें माना जाता है। उन्होंने हिमालय पर साधनायें की थीं जो हिन्दुओं के लिये स्थान है। आज भी चारों धाम हैं-बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमनोत्री। जिसने भी स्वयं को जाना उसने मृत्यु को अपने से परे धकेल दिया यही उपदेश यह मंत्र कर रहा है। हे सब कुछ देखने सुनने वाली मृत्यु मैं तुझे बलपूर्वक कह रहा हूँ कि तू हमारी प्रजाओं और वीर पुरुषों को पीड़ित मत कर। जो वीर होते हैं वह आत्मा में स्थित होते हैं। जो साधारण सामान्य जन होते हैं वह शरीर में स्थित होते जिन्हें मृत्यु अपना ग्रास बनाती है। आत्मा तो अजर-अमर है। अविनाशी है जहाँ मृत्यु नहीं है)
ओ३म् मृत्योः पदं पोपयन्तो यदैत प्राधीप आयुः प्रतरंदधानाः॥
आप्मायमानाः प्रजया धनेन शुद्धाः पूता भव यक्षियासः॥
(इस मंत्र में उपदेश दिया जा रहा है कि हे मनुष्य तू तीर्थ को धारण कर और मृत्यु को अपने से परे पैरों से धकेलता हुआ आगे बढ़। जब तुम मृत्यु को अपने पैरों से धकेलता हुआ आगे बढ़ेगा तो तेरा जीवन लम्बा और दीर्घ आयु प्राप्त करेगा और संसार के साथ रहकर उसका नेता बनकर विचरण करेगा। सारे संसार का ऐश्वर्य तेरे पास होगा। आनन्द होगा। जीवन तुम्हारा सुखमय होगा। यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है कि तू मृत्यु का सौदागर बन जा। यहाँ तो कहा जा रहा कि मृत्यु को अपने जीवन से अलग करके संसार में हम आज देखते हैं। फ़िल्मों, किताबों में पढ़ते हैं। जो महान कार्य करते हैं। आश्चर्यमय जीवन जीते हैं। उनके पास सभी वस्तुएँ होती हैं। उनका जीवन आनन्दमय होता है। उसके मूल में उनके जीवन में संयम और साधना होती है। नियमित दिनचर्या होती है। वह जीवन में रिस्क लेते हैं और सफल होते हैं। लोक-परलोक दोनों प्रकार के ऐश्वर्य का भोग करते हैं। धर्म का तात्पर्य यह नहीं संसार से भाग जाना। धर्म वह है जो लोक-परलोक दोनों को आनन्द जिसके लिए उपलब्ध है। वह धार्मिक है। यहाँ यही कहता है ऋषि कि तू धर्म को धारण कर। आत्मा की अमरता को सिर्फ़ जान मत शब्दों से उसे सिद्ध करके अपने जीवन को ऐश्वर्यशाली बना। आलसी-प्रमादी मत बन। वास्तव में जो तू है उसे जान। तेरे पास सब कुछ होगा। नौकर जिसे प्रजा कहते हैं और धन-धान्य से परितृप्त होगा। कहीं से बरसेगा नहीं। पुरुषार्थ से उसका स्वामी बन जा। हिम्मत हारकर मत बैठ। बाहर-भीतर से पवित्र होकर क्षत्रिय जीवन व्यतीत करो।)
ओ३म् अश्मन्चती रीयते सं रभध्वमुत्तिष्ठत प्र तरता सखायः।
अत्रा जहाम ये असन्नशेवाः शिवान्वयमुत्तरेमामि वाजान्॥
(इस मंत्र ऋषि कह रहे हैं। हे मित्रो! यह संसाररूपी पथरीली नदी बह रही है। इसमें उधम करो और इससे पार हो जाओ. संसार को भवसागर कहा गया है। यहाँ यह कहा जा रहा है कि तुम्हें इस संसाररूपी भवसागर से भारमुक्त होकर इससे बाहर यानी इसके दूसरे किनारे पर निकल जाना जहाँ देवता वास करते हैं। जीवन का मूल उद्देश्य जिसके लिए इस शरीररूपी नाव को धारण किया है यह शरीर नहीं हो तुम यह तो मात्र साधन है। तुम्हारे आत्मा के लिए इस भवसागर से पार होने के लिए, जो शरीर से अभद्रकारी कार्य है। अकल्याण करने वाले जिससे तुम्हें दुख मिलता है उसका त्याग मत कर उसे जान। वास्तव में जो दुख मिल रहा है उसका। मूल कारण क्या है। अपनी वासना, ईष्य को सही दिशा में उपयोग करके अपने प्रयोजन को सिद्ध कर। तुम्हारे पास शक्ति है और तुम उस ऊर्जा शक्ति को जो शरीर में है उसका स्वामी है। उसका सही उपयोग करके अपने जीवन के परम उद्देश्य को प्राप्त कर। यह संसार पथरीली नदी के समान है जिसमें चिकने पत्थर है। जिसमें डूबने, फिसलने का भय है। तू उस नदी को पार करने के लिए संयम, संतोष, जागरुकता, प्रेम, उपासना, मैत्री को अपना हथियार बना जो इस भवसागर में तुम्हारी शरीर रूपी जाति को पार जाने में सहायता करेंगे। तू नाव नहीं है। तुझे वह शरीर रूपी नाव इसी भवसागर से मिला है। इस किनारे से तुम्हें उस किनारे तक जाना है और दूसरे किनारे पर तुमसे वापिस ले ली जायेगी। इससे पहले तुझसे तेरी यह शरीर रूपी नाव ले ली जाय। तू पार जाकर दायें इस भवसागर को या फिर इस पर तू ज़्यादा भार मत लाद जो अकल्याणकारी है। जिससे यह संसार रूपी सागर में ही गोते खाती रहें, इसे हल्का कर परम स्वार्थ को जान। ज्ञान मार्ग का अनुसरण कर।
ओ३म् विधु दद्राणं समने बहूनां युवानं सन्तं पलितो जगार।
देवस्य पश्य काव्यं महित्वाया ममार स यः समान।
(इसमें कहा जा रहा है तू ध्यान से देख। स्वयं में ध्यान से देखने की दृष्टि से देखने की कला को विकसित कर और देख उस युवा को जो रणक्षेत्र में युद्ध के मैदान में कितने को अकेले मार भगाने वाला था। आश्चर्य आज उसे एक बूढ़ा काल के गाल में समा गया। यहाँ पर यह कहा जा रहा है। यह शरीर जो है वह काल के गाल में समा जायेगा। उसको भी ध्यान में रख। समय जो गुजर रहा है उससे पहले समय तुम्हारे बलशाली, बुद्धिमान, तेजस्वी, वर्चस्वी, धन ऐश्वर्य से सम्पन्न शरीर को मिट्टी में मिला दे उससे दुर्गंध उठने लगे तू अपने आप को जान ले समझ कौन है और कहा क्या है, किसका तेरा साथ है। जो महत्त्वपूर्ण है। तुम्हारे लिये तुम्हारी आत्मा की आन्तरिक इच्छा ही देख। देवताओं के इस महिमाशाली काव्य को जो अभी सांसें ले रहा था आज वहीं मरा पड़ा है। जो वेद कभी सांस लेते थे, महान ऋषियों के हृदय में समेटा था वह मरा पड़ा है राख के समान। स राख को बचाने की चेष्टा मत कर, पुरुषार्थ कर। तुम क्या है स्वयं को बचा ले उससे पहले तू भी राख में खोज वह चिन्गारी जो चिन्गारी की तरह राख रूपी शरीर में पड़ी है। उसे तु थोड़ी हवा दे, झकझोर। थोड़ी हवा लगने दे जिससे शरीर का क्रियाकर्म तुम स्वयं कर दे किसी दूसरे के आश्रित ना रहना पड़े। क्यों जो स्वयं को जान लेता है वह स्वयं के शरीर को भस्म करके ही जानता है। जो बचती है शरीर वह मिट्टी जलवायु की है। जो सूक्ष्म शरीर होता है। उसे स्वयं को जानने वाले भस्म कर देते यदि स्वच्छ है, निर्मल, करुणामय हैं। शांति, धैर्य, प्रेम मम हैं। आप उसी का दान करेंगे। यह सब आपके इच्छा से नहीं होगा। यह हर क्षण स्वतः हो रहा है। जिसके पास जो है वह समाज में फैल रहा। समाज में जो कुरुपता है वह सब कुरुपता मनुष्य के अन्तरतम में जड़ जमाये है। लम्बे समय से और उसी का निरन्तर विकास हो रहा। वही हर तरफ समाज जन-जन में व्याप्त हो रहा हर क्षण। इसका स्रोत एक व्यक्ति नहीं है। इसका स्रोत अनन्त है। मनुष्य को सुधार नहीं सकते हैं। हम स्वयं को अवश्य सुखी, सम्पन्न, ऐश्वर्यशाली बना सकते हैं। यदि आप अपने अन्दर से सम्पन्न हों तो बाहर से भी सम्पन्न हों यही बात हम संसार में प्रत्यक्ष देखते हैं। आदमी के पास सारा विषय, भौतिक सामग्री, विशाल धन सम्पदा है मगर वह अन्दर से कंगाल है। दरिद्र है। दुःखी ज़रूर कहीं मनुष्य बनाने में कमी है।)
ओम् अश्वत्थे वह निषदनं पणें वह वसतिष्कृता।
गोभाजऽइत्किलासथ यत्सनवथ पुरुषम्॥
(संसार आज जितना विकास कर चुका है आगे भी करता रहेगा
निरन्तर मगर यह विकास अधूरा है। मनुष्य का विकास अपूर्ण हो रहा है। मनुष्य को निरन्तर कमजोर, कायर, डरपोक, निकम्मा बनाया जा रहा है। मनुष्य का आंतरिक विकास शून्य है। उस क्षेत्र में विकास न होने का कारण संसार में इतना ज़्यादा महामारिया हैं। जिसे हम सुखी समझते हैं। वास्तव में वह सबसे ज़्यादा दुःखी प्राणी है। ऐसा हम देख सकते जीवन का जो यथार्थ है वह आसानी से प्रकट नहीं होता। मनुष्य का दर्द यह किसी को बाहर से दिखाई नहीं पड़ता। अन्दर का जगत मनुष्य का बिल्कुल ध्वस्त होता जा रहा है। यह संसार के लिए अत्यधिक चिन्ता का विषय बन गया है। मनुष्य में श्रद्धा, भक्ति और विश्वास नहीं है स्वयं पर। इस मंत्र के द्वारा ऋषि क्या कहना चाहता है वह पुराना हो गया। आज के जमाने को उसकी आवश्यकता नहीं है। यह गुजरे जमाने की बात हो गयी। आज मनुष्य चाँद, तारों पर सफर कर रहा। यह सारा मनुष्य का विकास क्या सिद्ध कर रहा है यही कि मनुष्य की अब पृथ्वी पर आवश्यकता नहीं है। मंत्र कह रहा है कि इस शरीर का कुछ भरोसा नहीं है। अगले क्षण रहे ना रहे। कल हो ना हो। ऐसा शरीर में तुम स्थित हो। निश्चय ही तुम इन्द्रियों की सेवा में अनुरक्त हो। अब तो उस पूर्ण पुरुष को जान लें जिसके जानने के लिये ही इस शरीर को अपना निवास बनाया है। कब तक स्वयं को धोखा देते रहोगे। मंदिर, गिरजाघर और मस्जिद, गुरुद्वारा में जाकर बहाना बनाते रहोगे। यह सब उनके बनाये स्थल हैं जो उसमें डूबे थे जो उनमें था अब तुम भी
ओं न वा उ देवाः क्षुधभिद्वधं ददुरुशितभुप गच्छन्ति मृत्यवः।
उतो रपिः पृणतो नोप दष्यत्युता पृणन्यर्डितारं न विन्दते॥
(मृत्यु सिर्फ़ उन्हें नहीं आती है जो भूखे, कंगाल, निर्धन, कमजोर, अपाहिज हैं। मृत्यु सबको आती है। इसका तात्पर्य है। मृत्यु हर प्राणी के साथ चल रही है। हर क्षण। उससे कोई शरीर नहीं बच पायी। तुम्हारा शरीर भी उसके हाथ से बच नहीं सकती है। वह मृत्यु का ग्रास हर क्षण बन रही है। मृत्यु सभी का होता है। भले वह दुनिया का सम्राट ही क्यों ना हो। वह हर क्षण मर ही रहा है। उसका सारा धन, सारा सम्मान, सारा ऐश्वर्य उधार का है जो उससे छीन लिया जायेगा। वेद में कहा गया है जो देने वाला है उसका कभी नहीं घटता है। उसका ऐश्वर्य और बढ़ता रहता है और जो नहीं देता है वह सुख नहीं पाता है। इसका ग़लत अर्थ नहीं लगाना है कि हमने कमाया है तो हम दूसरे को क्यों दें। यहाँ दान की बात हो रही। सिर्फ़ धन दान नहीं दिया जाता है और भी सद्गुण हैं जिनका दान किया जाता है। आप स्वयं में डुबो। जहाँ पर तुमने इतना सीखा कि वहाँ पर मंदिर, गुरुद्वारा, गिरिजाघर बन जायेगा। यह शरीर ही है। वह मंदिर जिसमें परमात्मा रहता है। इसे ही सवारो और सुन्दर बनाओ।
ओ३म् मृत्युरीशे द्विपदा मृत्युरीशे चतुष्पदाम्॥
तस्मात्वां मृत्योर्गोपतिरुद्भरामि सभा विभः॥
(मृत्यु दो पैरों और चार पैरों वाले प्राणियों का शासक है। ऐ पृथ्वी के स्वामी उठ, तुझे मृत्यु से ऊपर उठना है। तू भय मत कर। जिस प्रकार का यह मंत्र है और इसके उपदेश हैं उससे आज के समय के प्राणी को कुछ समझ में आ सकता है। मैं नहीं समझता। आज का मनुष्य कितना ज़्यादा तरक्की कर चुका है। फिर भी कम है। इसमें क्या कहा गया है। मनुष्य को ऐ मृत्यु से जाकर भय मत कर एक आश्वासन यह बात कुछ ठीक नहीं है। दूसरी बात कही गयी पृथ्वी के स्वामी संपूर्ण पृथ्वी मनुष्य के लिए है। मनुष्य जो आज पृथ्वी पर हैं। वह ब्रह्माण्ड का स्वामी बनना चाहता है। उसकी ऐसी इच्छा है। इसी वजह से वह ब्रह्माण्ड की खोज कर रहा। ज़्यादा से ज़्यादा वह जानना चाहता है। इस ब्रह्माण्ड के बारे में। मनुष्य शरीर को भी ब्रह्माण्ड कहा गया है। जो मनुष्य शरीर में है। वही ब्रह्माण्ड में है। अन्तर मात्रा का मनुष्य शरीर लघु है और ब्रह्माण्ड जो बाहर है। जिसे परमात्मा का शरीर कहा गया है। उपनिषद कहता है। यह विशाल ब्रह्माण्ड परमात्मा का शरीर है। वैज्ञानिक परमात्मा के शरीर को जानने के लिए व्याकुल है। यह उसकी जिज्ञासा है। जो उसे खोजने के लिए विवश करती है। जिस प्रकार मनुष्य का शरीर लघु ब्रह्माण्ड है और उसकी आत्मा का आकर्षण मन समेते इन्द्रिय शरीर को जानने के लिए. भोगने की लिए विक्षिप्त हो रहा जो बेकार ही अनपढ़ है। उसी प्रकार दुनिया के श्रेष्ठ वैज्ञानिक है। उनके पास भी वही मन है। पढ़-लिखकर अपने शरीर के बारे में जान लिया जो हाड़-मांस का पिंजड़ा है। विज्ञान ने सिद्ध कर दिया मगर वह नहीं जान पाया जो मंत्र कह रहा है। पढ़ा और अनपढ़ दोनों समान हैं।)
ओ३म् सर्वो वै तय जीति गौरश्वः पुरुष यशः॥
यत्रेदं ब्रह्म क्रियते परिधि जीवनाय कम्॥
(सत्य के सम्बंध में जितना अनपढ़ जानता है। उतना ही पढ़ा-लिखा व्यक्ति जानता। वह और कम ही जानता है। महामंत्र सत्य क्या है। उसे जानने-समझने, साक्षात्कार करने के लिये ही ऋषियों इतना पुरुषार्थ किया इन ऋचा को रचा जो आज के व्यक्तियों के लिये व्यर्थ समझ में आ रहा है। क्योंकि यह बातें हृदय से निकल रही हैं। जिसके पास हृदय होगा उसी की समझ में यह मंत्र आयेगा ऐसा नहीं है कि उसे संस्कृत जानना आवश्यक है। आवश्यक है स्वच्छ, निर्मल, निर्दोष हृदय की दिमाग पर ज़्यादा जोर मनुष्य का पड़ने के कारण ही आज मनुष्य मशीन के स्तर पर खड़ा हो गया है। मनुष्य वह है जो मननशील हैं। मशीनें मनुष्य से निकृष्ट हो सकती हैं, श्रेष्ठ हो सकती हैं मनुष्य नहीं हो सकती। हम मनुष्य की टू कापी बना सकते हैं। यह संभव कर दिया है विज्ञान ने। मगर जो मनुष्य बनायेगा विज्ञान मशीनों के आश्रित होगा। मशीन मनुष्य को सुखी कर सकती है। यह सम्भावना अत्यधिक कम है। उसका भ्रम अवश्य होता है। यहाँ मंत्र में कहा जा रहा जो उस परमेश्वर के भरोसे रहता है और उसमें आस्था रखता है। वह सर्वदा सुखी रहता है। उसके लिये हर प्रकार का आनन्द सुलभ रहता है और उसके साथ सारे जगत के प्राणी घोड़ा, पशु, पक्षी, पेड़, वनस्पति सब सुरक्षित रहते हैं और आनन्द देने वाले रहते हैं। उसके जीवन में हर तरफ से आनन्द बरसता है। हर तरफ उसकी सहायता होती है। अदृश्य सत्ता द्वारा जो धर्म की रक्षा करता है। उसका धर्म रक्षा करता है। जो धर्म का नाश करता है। उसको धर्म नाश कर देता है। जो आत्मा की सुनता है आत्मा में बैठे परमात्मा में स्वयं श्रद्धा आस्था रखता है उसके बताये मार्ग का अनुसरण करता है। वह जो अपने आत्मा को ही अस्वीकृत करता है वह स्वयं का नाश करता है।)
ओम अकार्मो धीरो अमृतः स्वयंभू रसेन तप्तो न कुतश्वनोनः।
तमेत विद्वान विभाय मृत्योरात्मानं धीरमजंर युवानम्॥।
वह सम्पूर्ण जीव मात्र का शत्रु है। वह सबके लिए दुःखों, अज्ञान को फलने-फूलने में मदद करता है और स्वयं को जानवरों की तरह बनाने के लिए पुरुषार्थ करता है। वह सिर्फ़ अकेला नहीं जायेगा उसके साथ उसका सम्पूर्ण समाज उसके साथ पशु की तरह यात्रा कर रहे है। उनके जीवन कि दिशा पशु से भी निकृष्ट होती है और ऐसे ही व्यक्तियों की बाढ़ आ रही है। ऐसे ग्रह जिस पर मनुष्य रहते हैं। वह स्वयं को जानवर बना रहे हैं और जो व्यक्ति अपने आत्मा का कल्याण करता है। जहाँ ररहता है। उस सम्पूर्ण समाज का कल्याण होता है। उससे प्रत्येक प्राणी का कल्याण होता है। वह जब तक रहता है। इस ग्रह पर आनन्द ही बरसता है। बदले में संसार के जहर को पीता है। शिव की तरह नीलकंठ बन जाता है। संसार का जहर पीता है। बदले में अमृत बरसाता है और जो आत्महन्ता है। वह संसार का अमृत पीते हैं। जो संसार का सबसे बहुमूल्य वस्तु है। उसका वह स्वयं सेवन करते हैं। बदले में संसार में जहर का विष घोलते हैं। जिससे सम्पूर्ण मानवता के सर्वनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। जो कामना रहित, धीर, अमृत, आनन्द रस से परितृप्त तथा जिसमें किसी प्रकार की न्युनता कभी नहीं है। सर्व गुण सम्पन्न है। परमात्मा जान लेता है। वे धीर पुरुष, अजर, अमर, अविनाशी, वीर मृत्यु से निर्भय निश्चिन्त होकर सदा आनन्द भोगते हैं। जो आत्मा कि सुनता आत्मा ही सत्य है। वही अमृत है।
ओ३म् ब्रह्मचर्येव तपसा देवा मृत्युपयाहन्त।
इन्द्रो ह ब्रह्मचर्येण देवेभ्यः स्व रा भरत्॥
ओ३म् कला अश्वो वहति सप्तरश्मिः सहस्त्राक्षो अजयेभुतिररेताः।
तया रोहन्ति कतया विपश्चितरम चक्रा भुवनानि विश्वा॥
ओ३म अहमिन्द्रो न परा जिग्य इद्वनं न मृत्युवेऽब तस्थे कदाचन।
सोम मिन्या सुनवन्तो याचती वसु न में पुरतः सख्येरिषशना॥
मैं शक्तिशाली आत्मा हूँ। मैं कभी हार नहीं सकता। मृत्यु मुझे कभी नहीं आ सकती। हे मनुष्यों यथार्थ कर्म करते हुए उस प्रभु से ऐश्वर्य की याचना करो उस प्रभु की मैत्री में कभी विनाश नहीं होता।
ब्रह्मचर्य के तप से मृत्यु को विद्वान परास्त कर देते हैं। आत्मज्ञान और इन्द्रिय दमन तथा मृत्यु के कारण निरुत्साह दरिद्रता आदि को नष्ट कर देते हैं। ब्रह्मचर्य पालन जो आज के समय में असंभव-सा प्रतीत होता है। जो ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाता है। उसके जीवन स्वयं सारे कष्ट दूर ब्रह्मचर्य को धर्म का मूल कहा गया है। ब्रह्मचर्य से ही आत्मा ने इन्द्रियों के लिये सुख अर्थात ज्ञान के प्रकाश को धारण किया है।
सात राशियों वाला हजार धुरों को चलाने वाला कभी जीर्ण ना होने वाला महाबली यह कालरूपी घोड़ा दौड़ा जा रहा है। सब उत्पन्न वस्तुएँ इसके द्वारा चक्रवत घुमाई जा रही है। इस घोड़े पर ज्ञानी और कान्तदर्शी ही सवार हो पाते हैं।)
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