मनुष्य ऋषयश्चये,
ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गे देवस्य धीमही।
धियो यो नः प्रचोदयात्॥
गायत्री मन्त्र की हम तीन प्रकार से साधना कर सकते हैं। प्रथम मन्त्र जप
करके उसके एक एक शब्द के अर्थ की भावना ईश्वर प्रणिधानपूर्वक करें। दूसरे प्रकार
में गायत्री मन्त्र के तीन चरणों का भाव रूप में ध्यान करें। तीसरा प्रकार है
गायत्री मन्त्र पर जो प्रचलित पद्यानुवाद उपलब्ध हैं उनका मन्त्रपाठ के उपरान्त
गान करें।
ओऽम् इस पद का अर्थ पूर्व लिख आए। भूः, भुवः
और स्व ये तीन महाव्याहृतियां कहाती हैं। इनकी पृथक् से साधना विधि भी पूर्व वर्णन
की है तैत्तिरीय उपनिषद में भू को प्राण, भुवः को अपान तथा
स्व को व्यान नाम से कहा गया है। भूः = ईश्वर प्राणों के माध्यम से सकल जगत के
जीने का हेतु होने से प्राणों से भी प्रिय है। भुवः = ईश्वर मुक्ति की इच्छा
करनेवाले मुमुक्षुओं, मुक्तों और अपने सेवक धर्मात्माओं को
सब दुःखों से अलग करनेवाला होने से अपान कहाता है। तथा स्वः = स्वयं आनन्दस्वरूप
तथा अपने उपासकों को आनन्ददाता ईश्वर जो सब जगत में व्यापक होके सबको नियमों में
रखता सबका आधार है ज्ञान नाम से कहता है।
अब गायत्री मन्त्र का संक्षेप से अ्थ
लिखते हैं- तत् = उस सवितुः = (सविता के) ईश्वर को सकल जगत का उत्पादक, सूर्यादि
का प्रकाशक तथा समग्र ऐश्वर्यदाता होने से सविता कहते हैं। वरेण्यम् = ईश्वर
सर्वश्रेष्ठ होने से वरण करने योग्य है भर्गः = ईश्वर के क्लेशनाशक तेज को भर्ग
कहते हैं जो शुद्ध विज्ञान स्वरूप है। देवस्य (देव का) जो आत्माओं में प्रकाश
करनेहारा शुद्ध पवित्रस्वरूप है उस ईश्वर के दिव्य तेज का धीमहि = हम ध्यान करते
हैं, उसे अपने आत्मा में धारण करते हैं। यः = हे परमात्मा,
नः = हम सबकी, धियः = बुद्धियों को, प्रचोदयात = सकल बुराइयों से हटाकर सन्मार्ग में सदा प्रेरित करे।
गायत्री मन्त्र में
ईश्वर के मुख्य नाम ओऽम् में से अकार का भूः से तथा मन्त्र भाग में से प्रथम चरण
तत् सवितुर्वरेण्यम् से सम्बन्ध उकार का भुवः से तथा मन्त्र के मध्यम चरण भर्गो
देवस्य धीमहि से सम्बन्ध | इसी प्रकार मकार का स्वः तथा मन्त्र के तृतीय
चरण धियो यो नः प्रचोदयात से सम्बन्ध
है।
शतपथ ब्राह्मण की प्रसिद्ध प्रार्थना
असतो मा सद्गमय का गायत्री के प्रथम चरण के साथ समायोजन करके प्रार्थना की जा सकती
है। भापा जी ने अपनी कविता में लिखा है-
जगत है सत रज तम रचा
तू तो है रे चैतन्यता
चयन है तेरा हक बड़ा
तू सत ही सत ले रे उठा
अर्थात् सविता
परमात्मा ने यह संसार त्रिगुणात्मक प्रकृति से रचा है हमें रजोगुण तथा तमोगुण
युक्त कर्मों से अपने को रोक शुद्ध सत्त्वगुणयुक्त कर्मों को ही अपनाना है तभी हम
चित्त की सत्त्वशुद्धि कर सकेंगे यही तत् सवितुर्वरेण्यं का भाव है।
तमसो मा ज्योतिर्गमय
अर्थात अन्तःकरण में विद्यमान अविद्यान्धकार को मिटाकर शुद्ध पवित्र आत्मज्ञान का
प्रकाश या विद्या की स्थापना कर मेरे सारे क्लेशों को नष्ट कर दो। जिससे मैं समस्त
दुःखों से निवृत्त हो जाऊं। यही भर्गो देवस्य धीमहि का भाव है।
मृत्योर्माऽमृतं गमय अर्थात्
मृत्यु नहीं मैं अमृत की ओर बढूं। न्याय
दर्शनकार गौतम ऋषि ने बुद्धि और ज्ञान को पर्यायवाची माना है ज्ञान से ही मुक्ति
सम्भव है। जब जब हम ईश्वर को स्मरण करते हैं हमारा मन प्रसन्न शान्त सुखी होता है।
ज्ञान का सतत आगम होता रहता है। ईश्वरीय दिव्य प्रवेश करते हैं और जब जब ईश्वर की
स्थिति कर देते हैं अविद्या आ घेरती है। क्लेश पीसने लगते हैं । संस्कृति हावी
होकर व्यक्ति अनिष्ट सोचता, अनिष्ट कहता, अनिष्ट करने
लगता है। इसीलिए धियो यो नः प्रचोदयात् के माध्यम से व्यवहार काल में एक क्षण भी
ईश्वर की विस्मृति न होने देने की कामना की जाती है। समाधि सिद्धिः ईश्वर
प्रणिधानात् ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि होती है।
इस प्रकार गायत्री
मन्त्र के तीन चरणों में भावार्थ को चिन्तन का विषय बनाकर ध्यान करने की विधि के
पश्चात् अत्यन्त सरल विधि जो गायत्री मन्त्र का पद्यानुवाद हो उसका मन में गायन कर
भी अभ्यास किया जा सकता है। हम प्रचलित पद्यानुवाद के दो नमुने यहां दे रहे हैं--
तूने हमें उत्पन्न किया, पालन
कर रहा है तू।
तुझसे ही पाते प्राण हम, दुःखियों
के कष्ट हरता तू।
तेरा महान् तेज है, छाया
हुआ सभी स्थान।
सृष्टि की वस्तु वस्तु में, तू
हो रहा है विद्यमान।।
तेरा ही धरते ध्यान हम, मांगते
तेरी दया।
ईश्वर हमारी बुद्धि को, श्रेष्ठ
मार्ग पर चला।।
प्राण प्रदाता संकटत्राता, हे
सुखदाता ओम् ओम् ।
सविता माता पिता वरेण्यम्, भगवन्
भ्राता ओम् ओम् ।
तेरा शुद्ध स्वरूप धरें हम, धारणधाता
ओम् ओम् ।
प्रज्ञा प्रेरित कर से कर्म में, विश्व
विधाता ॐ ॐ।
ओऽमानन्द ओऽमानन्द, ओऽमानन्द
ओम् ओम् ।।
भावार्थ= जो सब जगत के जीवन का आधार प्राण से भी प्रिय और स्यंभू है। उस
प्राण का वाचक हो के 'भूः' परमेश्वर का नाम है
जो सब दुःखो से रहित, जिस साथ रहने से जीवात्मा सब प्रकार के
दुःखो और क्लेशो से मुक्त हो जाता है। इस लिए परमेश्वर का नाम 'भुवः' है। जो विभिन्न प्रकार से व्यापक होकर
सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड को धारण कर रहा है। इस लिए परमेश्वर का नाम 'स्वः' है। (सवितुः) जो सब जगत का उत्पादक और सब
ऐश्वर्य का दाता है। (देवस्य) जो सर्व सुखो का देने वाला और जिसकी प्राप्ति की
कामना हम सब करते है। उस परमात्मा का जो (वरेण्यम्) स्वीकार करने योग्य
सर्वश्रेष्ठ (भर्गः) शुद्धस्वरूप और पवित्र करने वाला चैतन्य बह्मस्वरूप है (तत्)
उसी परमात्मा के स्वरूप को हम लोग (धीमहि) धारण करें। किस प्रयोजन के लिए कि (यः)
जो सविता देव परमात्मा (नः) हमारी (धियः) बुद्धियों को (प्रचोदयात्) प्रेरणा करें
अर्थात बुरे कामों से छुड़ा कर अच्छे कामों में प्रवृत करे।
एक प्रोटेस्टैन्ट पुरोहीत जिसने अपना गृहस्थ जीवन शुरु किया। उसके बाद उसके
प्रार्थना से शान्ति बिल्कुल नहीं मिलती थी। एक रात जब बह अपने घुटनों के बल झुका
तब वह परेशान हो गया क्योंकि उस समय बच्चे अपने कमरे शोर मचा रहे थे। वह चिल्लाया
बच्चे बिल्कुल शान्त हो जाए। उसकी पत्नी आश्चर्य के साथ उसकी आज्ञा का पालन किया, उसके
बाद जब भी पुरोहित घर आता था वे सब मिल कर प्रार्थना के समय बिल्कुल शान्त रहते
थे। लेकिन वह सब यह समझते थे कि परमात्मा उसकी आवाज नहीं सुनता है। एक दीन वह अपनी
प्रार्थना में परमात्मा से पुछा कि यह सब क्या हो रहा है? मुझे
शान्ति की अत्यधिक आवश्यकता है, लेकिन मैं प्रार्थना नहीं कर
सकता!
एक देव दूत उसकी प्रार्थना को सुन
रहा था। उसने उसको उत्तर दिया की वह शब्दों को सुनता है। लेकिन लम्बे समय से हंसी
को नहीं सुना, उसने भक्त को देखा लेकिन लम्बे समय से उसने आनन्द को नहीं
देख सका। वह पुरोहित समझ गया उसने तुरन्त अपनी पत्नी पर चिल्लाया क्या बच्चे खेल
रहे है? वे भी प्रार्थना के ही अंग है। और यह शब्द परमात्मा
ने तत्काल सुना।
हे मनुष्यों! जो सब समर्थो में समर्थ; सच्चिदानन्दस्वरूप; नित्यषुद्ध-नित्यबुद्ध-नित्यमुक्तस्वभाववाला; कृपासागर;
ठीक-ठीक न्याय का करनेवाला; जन्ममरणादि
क्लेशरहित, आकार विकार रहीत; सबके
घट-घट का जानने वाला; सबका धर्ता, पिता,
उत्पादक, अनादि, विश्व
का पालन पोषण करने वाला; सर्वव्यापक; सकल
ऐष्वर्ययुक्त, जगत् का निर्माता, शुद्धस्वरूप
और जो प्राप्ति की कामना करने योग्य है, उस परमात्मा का जो
शुद्ध चेतन स्वरूप है, उसी को हम धारण करें। इस प्रयोजन के
लिए कि वह परमेश्वर हमारी आत्मा और बुद्धियो को वह अन्तरर्यामिस्वरूप हमको
दुष्टाचार, अधर्म्मयुक्त मार्ग से हटाके श्रेष्ठचार सम्य
मार्ग में चलावे, उसको छोड़कर दूसरे किसी वस्तु का ध्यान हम
लोग नहीं करें, क्योंकि न कोई उसके तुल्य और न अधिक है। वही
हमारा पिता है, राजा न्याय, न्यायाधीश
और सब सुख का देने वाला है। गायत्री मंत्र में बुद्धि की प्राप्ति के लिए परमात्मा
से प्रार्थना की जा रही है।
जैसा कि ओशो कहते है। की मनुष्य को कौन जानता है? मनुष्य
जटिल नहीं है, रहस्यपूर्ण ज़रूर है। जटिल होता तो जानना कठिन
न होता। कितना ही जटिल हो, जटिलता सुलझायी जा सकती है,
जटिलता एक पहेली है, जो बुद्धि की के पार नहीं
है, बुद्धि के सीमा के भीतर है। जो जटिल था उसे मनुष्य ने
सुलझा लिया है, या नहीं सुलझाया तो सुलझा लेगा। जो कल अज्ञात
था वह आज ज्ञात है। जो आज अज्ञात वह कल ज्ञात हो जायेगा।
विज्ञान ये दो कोटियाँ ही मानता है-ज्ञात
और अज्ञात। इन दोनों के बीच कोई गुणात्मक भेद नहीं है; थोड़ा
समय का अन्तर है। अज्ञात वह है जो ज्ञात होने में समर्थ है-सिर्फ थोड़ी और चेष्टा,
थोड़ी और खोज, थोड़ा और शोध, थोड़ा और तर्क, थोड़ा और विज्ञान। लेकिन गुणात्मक रूप
से भिन्न है, परिमाणात्मक रूप से ही नहीं। रहस्य का अर्थ
अज्ञात नहीं है; रहस्य का अर्थ अज्ञेय है, जो जाना ही नहीं जा सके; जो बुद्धि के सीमा के पार
है-जिसे जीया ही जा सकता है लेकिन जाना नहीं जा सकता। जानने का अर्थ होता है-शब्द
में ढाला जा सके तर्क में तौला जा सके, बुद्धि माप सके.
रहस्य का अर्थ होता है-अमाप; जिसको जानने तौलने का कोई उपाय
नहीं है, लेकिन जो है; लेकिन अनन्त है,
असीम है जितना जानोगे उतना ही पाओगे कि जानना मुश्किल है। जितना
पहचानोगे उतना ही पाओगे, पहचानने को बहुत और शेष है, सदा शेष है। सुकरात बहुत सुन्दर और प्रीतिकर वचन है वह कहता है मैं एक ही
बात जान पाया की मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। उपनिषद कहते है: जो जानता है वह नहीं
जानता है। जो नहीं जनता वही जानता है। यह उपनिषद कहते है कि अज्ञानी तो अन्धकार
में भटक जाते है, जो ज्ञानी है वह महा अन्धकार में भटक जाते
है। यह वचन बहुत आग्नेय है, बहुत क्रान्तिकारी है और अद्वितीय
अकाट्य यथार्थ से अभिभूत है। इसकी चिनगारी भी तुम्हारे भीतर पड़ जाये तो तुम्हारे
जीवन के जंगल में आग लग जाये। सब कूड़ा-करकट जल कर समूल भस्म नष्ट हो जाये। जो
तुमने हजार जन्मो से जमा किया है। फिर वही बचे जो वास्तविक कुन्दन खालिस सोना है।
तुम पुछते हो, 'क्या मनुष्य इतना जटिल है और रहस्यपूर्ण है
कि उसे कोई जान नहीं सकता? तुम जटिलता और रहस्य को पर्यायवाची
समझ रहे हो। वे पर्यायवाची नहीं है। जटिलता तो एक चुनौती है बुद्धि के लिए,
रहस्य बड़ी गहरी बात है। बुद्धि तो सतही है। रहस्य को जानना हो तो
जानने का ढंग काम नहीं आता। वहां तो सुकरात जैसा अज्ञानी हो जाना पडे़। जिसस ने
कहा: जो बच्चों के समान निर्दोष होगे, वे ही केवल मेरे प्रभु
परमात्मा के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे। वहां ज्ञानी की बिसात नहीं। वहां जानने
वालों के लिये काई प्रवेश नहीं है; वहां निर्दोष सरल-चित्त
इतना सरल चित्त जीतना कोरा कागज। जब तुम कोरे कागज की भांति हो जाते हो तो परिचय
होता है, प्रत्यभिग्या होती है; तो
स्वाद रस आता है अमृत बहता है तो जीवन में उत्सव सधता है।
जैसा कि शतपथ ब्राह्मण का यह सूत्र ठीक कहता है: को वेद मनुष्यस्य? मनुष्य
को कौन जानता है?' कौन-सा वेद है जो मनुष्य को जानता है?
कौन-सा धर्म है जो दावा कर सके मनुष्य को जानने का? और कौन-सा ज्ञान है? जो मनुष्य को जानता है। कौन-सा
सिद्धान्त है जो मनुष्य को जानता है? और मनुष्य को ही क्यों
चुना है? क्योंकि मनुष्य पराकाष्ठा है जीवन के रहस्य की। यूं
तो सारा जीवन रहस्यपूर्ण। यूं तो एक गुलाब के फूल को भी जानना कहां संभव है?
अंग्रेजी के महाकवि टेनीसन ने कहा है... एक सुबह घूमते हुए, पत्थर
की एक दीवाल में घास का एक पौधा वर्षा के दिनों में ऊग आया है और उस पर एक छोटा-सा
घास का फूल खिला है सुबह कि ताजी हवा, सूरज की उगती हुई नई- नई
किरणें, पक्षियों के गीत और पत्थर को तोड़कर उग आए इस घास के
पौधे का राज। नहीं कि सिर्फ पौधा उग आया, वरन् फूल भी है। टेनीसन
ठिठककर रुक खड़ा हो गया और टेनिसन ने जो वचन कहा... कहा कि काश। मैं इस घास के फूल
को पूरा जान लूं, जड़ से लेकर शिखर तक, तो
मैं सारे अस्तित्व को जान लूंगा। फिर कुछ और जानने को शेष नहीं रह जाएगा। घास का
एक छोटा-फूल भी पूरा-पूरा नहीं जाना जा सकता है, कुछ छूट ही
जाता है। जो छूट जाता है वह भी राज है। जो छूट जाता है वही रहस्य है। जा पकड़ में आ
जाता है, वह दो कौड़ी का है। जो पकड़ में नहीं आता वही प्राण
है। घास का फूल अगर-अगर इतना रहस्यपूर्ण हो तो फिर गुलाब की तो क्या बात है?
फिर झील में खील आये कमल को समझना बहुत मुश्किल होगा और यह जो चेतना
का सहस्त्रदल कमल है, यह जो मनुष्य के भीतर छिपा हुआ
सहस्त्रार है, यह जो मनुष्य की चेतना फूल है। यह तो इस
पृथ्वी पर, सारे अस्तित्व में अनूठा है अद्वितीय अगोचर अदृश्य
है। पदार्थ में खिले फूलो को भी नहीं जाना जा सकता तो चेतना के फूल को तो कैसे
जाना जा सकेगा? को वेद मनुष्यस्य? कौन
जानता है मनुष्य को? कौन-सा वेद जानता है? कौन-सा शास्त्र जानता है? कौन-सी किताब है जो मनुष्य
के राज को खोल सकी है?
सारे ज्ञानियों ने, सारे शास्त्रों ने, सारी किताबों
ने, सारे प्रबुद्ध महापुरुषों ऋषियों ने मनुष्य के रहस्य क
तरफ इशारा किया है। यही कहा है: चुप हो जावो तो शायद कुछ पहचान हो; खोजो मत, ठहर जावो, तो शायद
कुछ झलक मिले। मन का उपयोग न करो, क्योंकि मन की सीमा है और
यह चेतना असीम है। सीमित साधन का उपयोग करोगे तो बड़ी मुश्किल में पड़ जावोगे। साध
नहीं बाधा बन जायेगा। मनुष्य का पहचानना है तो मन से गहरे जाना होगा। मनुष्य शरीर
नहीं है, मन भी नहीं है, इन दोनों के
पीछे छिपा चैतन्य है, साक्षी है जो मन के पार है उसे जानने
की भाषा में नहीं जाना जा सकता है। उसे तो प्रेम की भाषा में पीया जा सकता है और
मन के पार हो जाने की प्रक्रिया का नाम ही ध्यान है। इसलिए जिसे ध्यान में प्रवेश
करना है उसे सारे शास्त्रों को अग्नि को समर्पित कर देना होता है। वही एक यज्ञ
करने जैसा है। वही एक हवन धार्मिक व्यक्ति के योग्य है। खाक कर दे सारे शब्दों को,
चाहे वे कितने सुन्दर हो, कितने ही प्यारे लोगों
ने कहे हो इसमें कोई भेद नहीं पड़ता है। क्योंकि शब्द तो मन तक ही जायेंगे उनकी दौड़
उनके आगे नहीं है। जहाँ निःशब्द शुरु होता है वही मनुष्य की असली सत्ता का प्रारंभ
है। जहाँ विचार गीर जाते हैं और निर्विकार का आयाम खुलता है, वही मनुष्य की चेतना में पहली दफा तुम्हारा प्रवेश होता है। जहां तक मन है
वह तक तुम नहीं। जहां अमन आया वही तुम हो। फिर स्वभावतः इस रहस्य को कोई और नहीं जी
सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपना रहस्य स्वयं जानना होगा। इसलिए यह शतपथ ब्राह्मण
ठीक कहता है को वेद मनुष्यस्य? मनुष्य को कौन जानता है?
तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें कोई भी नहीं जान सकता है और तुम भी तभी
जान सकोगे जब अतिक्रमण कर जावो देह शरीर, मन का जब इन दोनों
की सीढी़यों पर चढ़ जाओ तो ही मंदिर में प्रवेश हो। केवल तुम्हारे और कोई तुम्हें
नहीं जान सकता है। जानने में फासला होता है। जिसे तुम जानते हो वह कोई और है जो
जानता है वह और है जानने में द्वैत होता है-अनिवार्य, बिना
द्वैत जानना सधेगा नहीं। वहाँ जिसको तुम जान रहे हो, ज्ञेय;
जो जान रहा है ज्ञाता है-इन दोनों के बीच के सम्बन्ध का नाम ही
ज्ञान है। लेकिन स्वयं को जानने में द्वैत नहीं हो सकता। वहां तो जानने वाला और
जाना जाने वालों एक ही है। इसलिए जानने कि भाषा वहां काम नहीं आयेगी जीने की भाषा
वहां काम आयेगी जीना ही वहां जानना है जीना ही वहां पहचानना है। लेकिन सत्ता धारी
यही चाहते है कि तुम अपने को नहीं जान पाओ, तुम अपने को न
पहचान पाओ, तुम अपने को न जी पाओ ताकि तुम्हें गुलाम बनाया
जा सके. गुलाम बनाने की सारी रणनीतियाँ और तरीकों का उपयोग यह सब निरन्तर कर रहे
है और गुलामियों के बहुत नाम है। धर्मों के नाम पर गुलामी। राष्ट्र के नाम की
गुलामी, सीद्धान्तो के नाम की गुलामी है। गुलामी के इतने ढंग
है, इतने रूप है; जंजीरे ऐसे-ऐसे
सुन्दर रंगो में सोने और चाँदी से-से मढ़ी हुई है कि लगता है आभूषण है। लोग भूल ही
गये है कि चाहे सोने और चाँदी से मढ़ी क्यों ना हो जंजीर, चाहे
बेड़ियां हीरे-जवाहरातों से क्यों ना टंकी पड़ी हो, बेड़ियां-बेड़ियां
है। हथकड़ी तो हथकड़ियाँ हैं और कारा गृह चाहे संगमरमर से ही क्यों ना बनाया गया हो?
इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता है। कारागृह-कारागृह है। वह खुला आकाश नहीं
है। उसमें आकाश के चांद नहीं है न सूरज है ना तारे है, न ही
आकाश में उड़ने की ही संभावना है। तुम सब पिंजड़ा में बन्द हो और खुले आकाश में उड़ते
हुए पक्षी की ओर बात है। खुले आकाश में उड़ते हुए उसके पंखों का जादू, उसकी मुक्ति और सारा आकाश उसका अपना, चांद तारे उसके
अपने, सूरज उसका, वृक्ष उसके, फूल उसके. आकाश में उड़ते हुए बादलों को पार करने का आनन्द उसका। दूर-दूर
के सितारों को लक्ष्य बना लेने की मौज उसकी और फिर इस मौज उठता गीत, खुलते हुए पंख, खुलता हुआ कंठ भी। वही पक्षी तुम
बन्द कर लो सोने के पिंजड़े में-में सही, सारी सुवीधायें जुटा
दो, भोजन कि चिन्ता न रहे उसे, लेकिन
फिर यह पची वह नहीं है जो बादलों को पार करता हुआ देखा गया था। यह पक्षी वही नहीं
है जिसने सुबह-सुबह सूरज का स्वगत किया था और गीत गाये थे। यह पक्षी वही नहीं है
जो सांझ अपने आनन्द से अपने नीड़ में वापिस लौटता था। यह चहल-पहल वही नहीं है;
यह पक्षी मर गया है, नाम मात्र का जिंदा है। यूं
ही हिन्दु, युं ही मुसलमान है और ऐसे ही ईसाई है, ऐसे ही जैन है यह सब पिंजड़ों में बन्द लोग है। इसमें कोई भी मनुष्य की
चेतना को नहीं जान सकता। इन सब के सिद्धान्त है और जो सिद्धान्तो को पकड़ कर चलता
है, वह मन के पार कैसे जायेगा? उसके
सिद्धान्त उसको अटका लेंगे। उसके सिद्धान्त ही उसके पैरो को खींच लेंगे, उसके पंखों को काट देंगे। वह अपने सिद्धान्तो को सिद्ध करने की चेष्टा में
ही संलग्न होगा। उसकी आतुरता सत्य के लिए नहीं है उसकी आतुरता एक है कि मेरा
सिद्धान्त सत्य सिद्ध होना चाहिए। सत्य का अन्वेषण सिद्धान्तो को छोड़ कर ही हो
सकता है। जब तुम्हारी आंखों पर सिद्धान्त लदे हो तो तुम सत्य को कैसे देख पाओगे?
और सारे लोग सिद्धन्तों से भरे पड़े है। उनकी आंखों को सिद्धान्तो ने
अन्धी कर दी है। वे वही देख पाते है जो उनके सिद्धान्त उन्हें आज्ञा देते है।
सिद्धान्तो का चश्मा लगा कर देखते है। सारे शास्त्र, सम्प्रदाय,
धर्म मनुष्य की आंखों पर चश्मा का ही काम करते है। लेकिन विचार करना
और जागरूकता के वैज्ञानिक विचार को मानने वाला होगा वह तो प्रयोग करने वाला होता
है।
सत्ताधारी चाहे धार्मिक हो, चाहे राज नैतिक हो, उनकी आकांक्षा नहीं की तुम सत्य को जान लो। क्योंकि जो सत्य को जान लेगा
उसे गुलाम नहीं बनाया जा सकता है। जो सत्य को जान लेगा, फिर
उसे इन टुच्ची और क्षुद्र सीमाओं में नहीं बाधा जा सकता है। वह ना भारतीय होगा,
ना ही चीनी होगा, ना ही जापानी होगा। वह ना
काला होगा, ना ही वह गोरा होगा। जिसने सत्य को जाना वस्तुतः
वह ना स्त्री होगा ना ही वह पुरुष होगा। वह सिर्फ शुद्ध चैतन्य ऋषि होगा। वहाँ काई
कोटियाँ काम नहीं आएगी। वहां विभाजन नहीं हो सकता है और विभाजन सत्ताधिकारी का सूत्र
है: बाटो और राज्य करो। जैसा की अंग्रेजों की नीति थी की फुट डालो और राज्य करो
यही आज भी हो रहा है। राजनीति का अर्थ भी यही होता है यदि अंग्रेजी में राजनीति को
समझा जाए जिसे पालिटिक्स कहते है। अर्थात पोल प्लस टिक्स जिसका अर्थ है पोल अर्थात
खोखला या खुला स्वतन्त्र रूप से जिसमें अनुशासन की आवश्यकता नहीं है। टिक्स का
मतलब चाले दोनों को मिला के जो अर्थ निकलता है। वह है जिसे अपने स्वार्थ पूर्ति के
लिए खुल कर चाले चली जाती है। साम, दाम, दण्ड, भेद का उपयोग करके स्वयं की जीत को सुनिश्चित
करना ही उद्देश्य हैं और हिन्दी में यदि करें तो इसी समान अर्थ निकलता है। क्योंकि
संस्कृति से यह शब्द निकला है। जिसका अर्थ है राजा कि ऐसी नीति जिससे सम्पूर्ण प्राणियों
का कल्याण हो और जब हिन्दी में इस शब्द को तोड़ते है। जो दो शब्द निकलते है वह है
राजा की अनीति ऐसा राजा जो अनैतिक कार्य करता है। वही राज नीति है। या फिर वह सारा
कार्य जो अनैतिक है उसे करने की जिसमें स्वतन्त्रता दी जाती है वही राजनीति है। पुरोहित
वही करता है, राजनेता वही करता है बाटो, लोग बटे रहे, आपस में लड़ते रहे, यही सत्ताधारी का बल है। आंख तुम्हारी खुल जाए तो-तो फिर बहुत मुश्किल हो
जाती है। आंख खुल गई तो फिर किसी नेता की ज़रूरत नहीं है। तुम अपने मार्ग द्रष्टा
हो। तुम अपने प्रकाश स्वयं हो। तुम्हारी भीतर ज्योति जल उठी। मनुष्य को जटिल मत
समझना मनुष्य बहुत सरल है। लेकिन जितना सरल है उतना ही रहस्यपूर्ण भी है। जटिलता
को समझना आसान है, क्योंकि जटिलता को बाटा जा सकता है,
काटा जा सकता है, विभाजित किया जा सकता है।
सरलता को जानना असंभव है, क्योंकि उसका कोई विश्लेषण नहीं हो
सकता है। यूं समझो, वैज्ञानिकों से अगर पुछो कि पानी क्या है?
तो वह जबाव देगा उद्जन और अक्षजन का जोड़ है-एच टू ओ,। उसका दो हिस्सा उद्जन एक हिस्सा अक्षजन; बस इस तीन
हिस्सों से मिलकर पानी बन जाता है। उनसे पुछो उद्जन क्या है। तो भी वह जबाव देने
में समर्थ है कि उद्जन कितने इलक्ट्रान कितने न्युट्रान और प्रोट्रान से मिल कर
बनती है। लेकिन अगर उनसे पुछो कि इलेक्ट्रान, प्रोट्रान,
न्युट्रान क्या है? तब मुश्किल खड़ी हो जाती
है। क्योंकि उनका विभाजन नहीं किया हो सकता। इलेक्ट्रान का कोई विभाजन नहीं हो
सकता। पानी का विभाजन किया जा सकता है, इसलिए उत्तर दिया जा
सकता है कि यह दो का जोड़ है। लेकिन इलेक्ट्रान का विभाजन संभव नहीं है-अविभाज्य है,
सरल है; उसमें द्वैत नहीं है, दुविधा नहीं है एक है। क्या उत्तर दो, इलेक्ट्रान-इस
पदार्थ की दुनिया में जब यह घटता है तो चेतना की दुनिया में तुम सोच सकते हों ओर
भी अनन्त गुने रूप में यह घटना घटती है। चेतना तो बिल्कुल सरल है बिल्कुल अविभाज्य
है। यह हो सकता है कि कभी इलेक्ट्रान का भी विभाजन हो सके, तब
उत्तर हो जाएगा। लेकिन उत्तर केवल प्रश्न को थोड़ा और आगे सरका देगा। जिनसे
इलेक्ट्रान बना होता प्रश्न उस पर चला जाएगा। बात बनेगी भी और बनेगी भी नहीं।
विज्ञान प्रश्नों को पीछे सरकाता जाता है, लेकिन अन्ततः एक
जगह जाकर तो रुक ही जाना पड़ता है। वह चेतना है। चेतना को नहीं विभाजित किया जा सकता
ना ही विज्ञान के सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों से ये देखा ही जा सकता ना सूक्ष्मदर्शक
यंत्रों से देखा जा सकता है ना ही विज्ञान के तराजुओं के पास ऐसे माप दण्ड है जिन
पर तौला जा सके।
इसलिए विज्ञान यह तो इनकार ही कर देता है कि चेतना है ही नहीं-यह झंझट से
बचने के लिए, क्योंकि अगर चेतना है तो विज्ञान को उत्तर देना होगा और
उत्तर नहीं है पास और कोई अपने अज्ञान को मानने को राजी नहीं है। अहंकार मानने
नहीं देता अज्ञान को। इसलिए यही उचित है कि जो हल नहीं होता हो, कह दो है ही नहीं।
लेकिन ध्यान में चेतना का साक्षात्कार होता है। इनकार तो किया नहीं जा सकता, निरपवाद
रूप से जब भी किसी व्यक्ति ने मन के पार
छलांग लगाई है और ध्यान को जन्म दिया है, उसने जाना है चेतना
को। इस एक सत्य के सम्बध में कोई प्रबुद्ध पुरुष किसी दूसरे से भिन्न नहीं है। यह
एक ही तत्व है। जिसके सम्बध में सारे प्रबुद्ध ऋषि महर्षि राजी है एकमत से सहमत
होकर स्वीकारते है। लेकिन जानना होगा स्वयं ही, खुद ही।
तुम्हारे भीतर ही यह रहस्य है। तुम्हें उस गहराई में डुबना होगा जहां इस रहस्य से
तुम्हारा तालमेल हो जाये, जहां संगीत बज उठे, जहां एक हाथ की ताल बजे, जहां अद्वैत का बोध है। '
मनुष्य शब्द को सोचना विचारना-मन से बना है जिसके पास तन है वह
मनुष्य है। इसलिए मनुष्य जब तक मनुष्य हैं, इसे न जान सकेगा।
मनुष्य से थोड़ा पार जाना होगा। मन के पार जाओगे तो मनुष्य के पार चले जाओगे। वही
भगवत्ता को लोक है।
मेरे लिये कोई भगवान नहीं अस्तित्व में, भगवत्ता है। प्रत्येक मनुष्य
बीज है भगवत्ता का मनुष्यता पीछे छूट जाए तो भगवत्ता का फूल खील जाता है। प्रत्येक
व्यक्ति छिपा हुआ भगवान है। नहीं जानता नहीं पहचानता-यह और बात है। यही उसका रहस्य
है।
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