👉 अहंकार का त्याग
🔶 मृत्यु के बाद एक साधु और एक डाकू साथ-साथ
यमराज के दरबार में पहुंचे।
🔷 यमराज ने अपने बहीखातों में देखा और दोनों
से कहा-यदि तुम दोनों अपने बारे में कुछ कहना चाहते हो तो कह सकते हो। डाकू अत्यंत
विनम्र शब्दों में बोला- महाराज! मैंने जीवनभर पाप कर्म किए हैं। मैं बहुत बड़ा
अपराधी हूं। अत: आप जो दंड मेरे लिए तय करेंगे, मुझे स्वीकार होगा।
🔶 डाकू के चुप होते ही साधु बोला- महाराज! मैंने
आजीवन तपस्या और भक्ति की है। मैं कभी असत्य के मार्ग पर नहीं चला। मैंने सदैव सत्कर्म
ही किए हैं इसलिए आप कृपा कर मेरे लिए स्वर्ग के सुख-साधनों का प्रबंध करें।
🔷 यमराज ने दोनों की इच्छा सुनी और डाकू से कहा-
तुम्हें दंड दिया जाता है कि तुम आज से इस साधु की सेवा करो। डाकू ने सिर झुकाकर आज्ञा
स्वीकार कर ली।
🔶 यमराज की यह आज्ञा सुनकर साधु ने आपत्ति करते
हुए कहा- महाराज! इस पापी के स्पर्श से मैं अपवित्र हो जाऊंगा। मेरी तपस्या तथा
भक्ति का पुण्य निर्थक हो जाएगा। यह सुनकर यमराज क्रोधित होते हुए बोले- निरपराध
और भोले व्यक्तियों को लूटने और हत्या करने वाला तो इतना विनम्र हो गया कि
तुम्हारी सेवा करने को तैयार है और एक तुम हो कि वर्षो की तपस्या के बाद भी
अहंकारग्रस्त ही रहे और यह न जान सके कि सबमें एक ही आत्मतत्व समाया हुआ है।
तुम्हारी तपस्या अधूरी है। अत: आज से तुम इस डाकू की सेवा करो।
🔷 कथा का संदेश यह है कि वही तपस्या प्रतिफलित
होती है,
जो निरहंकार होकर की जाए। वस्तुत: अहंकार का त्याग ही तपस्या का
मूलमंत्र है और यही भविष्य में ईश उपलब्धि का आधार बनता है।
👉 भक्त और भगवान
🔷 तीनों लोकों में राधा की स्तुति से देवर्षि
नारद खीझ गए थे। उनकी शिकायत थी कि वह तो कृष्ण से अथाह प्रेम करते हैं फिर उनका नाम
कोई क्यों नहीं लेता, हर भक्त ‘राधे-राधे’ क्यों करता रहता है। वह
अपनी यह व्यथा लेकर श्रीकृष्ण के पास पहुंचे।
🔶 नारदजी ने देखा कि श्रीकृष्ण भयंकर सिर दर्द
से कराह रहे हैं। देवर्षि के हृदय में भी टीस उठी। उन्होंने पूछा, ‘भगवन!
क्या इस सिर दर्द का कोई उपचार है। मेरे हृदय
के रक्त से यह दर्द शांत हो जाए तो
मैं अपना रक्त दान कर सकता हूं।’
🔷 श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया, ‘नारदजी,
मुझे किसी के रक्त की आवश्यकता नहीं है। मेरा कोई भक्त अपना चरणामृत
यानी अपने पांव धोकर पिला दे, तो मेरा दर्द शांत हो सकता
है।’
🔶 नारद ने मन में सोचा , ‘भक्त
का चरणामृत, वह भी भगवान के श्रीमुख में। ऐसा करने वाला तो
घोर नरक का भागी बनेगा। भला यह सब जानते हुए नरक का भागी बनने को कौन तैयार हो?’
🔷 श्रीकृष्ण ने नारद से कहा कि वह रुक्मिणी के
पास जाकर सारा हाल सुनाएं तो संभवत: रुक्मिणी इसके लिए तैयार हो जाएं।
🔶 नारदजी रुक्मिणी के पास गए। उन्होंने रुक्मिणी
को सारा वृत्तांत सुनाया तो रुक्मिणी बोलीं, ‘नहीं, नहीं! देवर्षि, मैं यह पाप नहीं कर सकती।’ नारद ने
लौटकर रुक्मिणी की बात श्रीकृष्ण के पास रख दी।
🔷 अब श्रीकृष्ण ने उन्हें राधा के पास भेजा।
राधा ने जैसे ही सुना, तत्काल एक पात्र में जल लाकर उसमें अपने
दोनों पैर डुबोए। फिर वह नारद से बोली, ‘देवर्षि, इसे तत्काल श्रीकृष्ण के पास ले जाइए। मैं जानती हूं कि भगवान को अपने
पांव धोकर पिलाने से मुझे रौरव नामक नरक में भी ठौर नहीं मिलेगा। पर अपने प्रियतम
के सुख के लिए मैं अनंत युगों तक नरक की यातना भोगने को तैयार हूं।’ अब देवर्षि
समझ गए कि तीनों लोकों में राधा के प्रेम के स्तुतिगान क्यों हो रहे हैं। उन्होंने
भी अपनी वीणा उठाई और राधा की स्तुति गाने लगे।
👉 ज्ञान बढाती है ‘जिज्ञासा’:-
🔶 जिज्ञासु व्यक्ति किसी भी बात की तह तक बैठकर
उसमें से किसी न किसी प्रकार की उपयोगिता खोज लाता है। जिज्ञासा शारीरिक, मानसिक,
बौद्धिक एवं आध्यात्मिक चारों उन्नतियों की हेतु होती है। मनुष्य को
अपनी जिज्ञासा को प्रमादपूर्वक नष्ट नहीं करना चाहिए। उसे विकसित एवं प्रयुक्त
करना चाहिए और जिसमें नहीं है, उसे चाहिए कि वह तन्मय एवं
गहरे पैठने के अभ्यास से उसे पैदा करे, क्योंकि जिज्ञासा
भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में प्रगति एवं उन्नति का आधार बनती है।
🔷 एक बादशाह का एक बहुत ही मुँह लगा नौकर था।
वह दिन-रात बादशाह की सेवा में लगा रहता था। एक दिन उसे विचार आया कि वह बादशाह की
सेवा में दिन-रात लगा रहता है, तब भी उसे केवल पाँच रुपये ही मिलते
हैं और मीर मुँशी जो कभी कुछ नहीं करता पाँच सौ रुपये वेतन पाता है। इस भेद का
क्या कारण है? उनने अपने यह उलझन बादशाह को कह सुनाई।
🔶 बादशाह ने हँसकर कह दिया- “किसी दिन मौके पर
बतलाऊँगा।“ एक दिन एक घोड़ों का काफिला उसकी सीमा से गुजरा। बादशाह ने अपने सेवक
को भेजा कि “जाकर मालूम कर यह काफिला कहाँ जा रहा है?”
🔷 नौकर गया और आकर बतलाया कि “हुजूर वह काफिला
सीमा के कंधार देश जा रहा है।“
🔶 अब बादशाह ने मीर मुंशी को भेजा। उसने आकर
बतलाया कि “यह काफिला काबुल से आ रहा है और कंधार जा रहा है। उसमें पाँच सौ घोड़े
और बीस ऊँट भी है। मैंने अच्छी तरह पता लगा लिया है कि वे सब सौदागर हैं और घोड़े
बेचने जा रहें हैं। खरीदना चाहें तो कम कीमत पर मिल सकते हैं। मैंने पचास ऐसे
घोड़ों को छाँट लिया है, जो नौजवान और बड़ी ही उत्तम नस्ल के हैं।“
🔷 बादशाह ने तुरंत ही पचास घोड़े खरीद लिए, जिससे
उसे कम दामों पर अच्छे घोड़े मिल गए। काफिले के विषय में चिंता जाती रही और उन
परदेशी सौदागरों पर बादशाह की गुण-ग्राहकता का बड़ अनुकूल प्रभाव पड़ा। बादशाह ने
नौकर से कहा- “देखा तुम्हें पाँच रुपये क्यों मिलते हैं और मीर मुँशी को पाँच सौ
क्यों?”
🔶 नौकर ने इस अंतर के रहस्य को समझा और सदा के
लिए सावधान हो गया।
📖 अखण्ड ज्योति Nov 1999 से साभार
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