Ad Code

सामवेद हिन्दी भाष्य


 

सामवेद हिन्दी भाष्य

भाष्यकार का परिचय रामनाथ वेदालंकार

 

     आपका जन्म उत्तर प्रदेश के बरेली जनपद के फरीदपुर ग्राम में महाशयजी के नाम से विख्यात स्वतन्त्रतासेनानी लाला गोपालरामजी के यहाँ 7 जुलाई 1914 को हुआ था। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा फरीदपुर में आर्यसमाज द्वारा स्थापित पाठशाला में हुई। दो वर्ष काशी में भी अध्ययन किया।

     आपके पिताजी सादा जीवन. उच्च विचार' के मूर्त रूप थे। वे मोटा जुलह खद्दर का सादा कुर्ता, वैसी ही चार हाथ की ऊँची धोती, कन्धे पर अंगोछा धारण करते थे। महर्षि दयानन्द एवं आर्यसमाज के प्रति उनकी अटूट श्रद्धा थी। वे प्रतिवर्ष नियमपूर्वक गुरुकुल कांगड़ी के वार्षिकोत्सव पर जाया करते थे। एक बार वहाँ से लौटकर उन्होंने गुरुकुल की विशेषताओं एवं कार्यकलापों का वर्णन करते हुए आपसे पूछा--"गुरुकुल पढ़ने जाओगे?" आपके 'हाँ' कहने पर उन्होंने प्रवेश-फार्म मँगाकर भर दिया और उसे डाक से भेज दिया। चूंकि गुरुकुल में आठ वर्ष से अधिक आयु के बालक प्रविष्ट नहीं होते थे और आपकी आयु नौ वर्ष की हो गई थी। इसलिए गुरुकुल से अस्वीकृति का पत्र आ गया, पर आपके पिताजी ने हिम्मत नहीं हारी। वे बरेली के प्रतिष्ठित आर्यसमाजी नेता डॉ० श्यामस्वरूप जी से परिचय-पत्र लेकर गुरुकुल गये। उस समय गुरुकुल के मुख्याधिष्ठाता पं० विश्वम्भरनाथजी थे, जो नियमों का कठोरता से पालन करते थे। जब आपके पिताजी आपको लेकर उनसे मिले तो पं० श्री ने पुनः प्रवेश से मना कर दिया। परिणामतः वे चिन्तित एवं निराश मुद्रा में मुख्य द्वार के निकट खड़े कुछ विचार कर ही रहे थे कि सभा के पूर्वप्रधान श्री रामकृष्णजी प्रवन्ध समिति की बैठक में भाग लेने के लिए उधर आये। उन्होंने पिता-पुत्र दोनों को उस दशा में देखकर पूछा-"आपको क्या किसी से मिलना है?" इस पर आपके पिताजी ने अश्रुपूरित नेत्रों से अपने गुरुकुल आने का कारण तथा मुख्याधिष्ठाताजी द्वारा प्रवेश से इन्कार करने की जानकारी उन्हें दी। पं० रामकृष्णजी उनकी बातचीत आदि से प्रभावित हुए और प्रवेश-फार्म लेकर प्रवन्ध-समिति की बैठक में चले गए। काफी जद्दोजहद के बाद पंडितजी ने मुख्याधिष्ठाताजी को मना लिया और आपको प्रवेश की स्वीकृति मिल गई। यह है आपके गुरुकुल-प्रवेश की कहानी।

        आप प्रारम्भ सही मेधावी एवं प्रतिभा सम्पन्न छात्र थे तथा अपनी असाधारण योग्यता के कारण आपने गुरुजनों का मन मोह रखा था। न केवल अध्ययन में, वरन् लेखन एवं भापणादि में भी आपको विशेष रुचि थी। छात्र-जीवन में आप महाविद्यालय के छात्रों द्वारा निकाली जाने वाली हस्तलिखित संस्कृत-पत्रिका 'देवगोष्ठी' के सम्पादक, 'संस्कृतोत्साहिनी परिषद्' के मन्त्री और कुलमन्त्री रहे। चौदह वर्ष तक अनुशासित एवं नियमपूर्वक रहते हुए सन् १९३६ में आपने विशेष योग्यता के साथ प्रथम श्रेणी में वेदालंकार की उपाधि प्राप्त की। स्नातक परीक्षा में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त करने के कारण आपको अनेक स्वर्णपदक प्राप्त हुए। यह वह समय था, जब गुरुकुल की उपाधियों की कहीं मान्यता नहीं थी; यहाँ के स्नातक किसी भी विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त नहीं कर सकते थे। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद सर्वप्रथम आगरा विश्वविद्यालय ने गुरुकुल के स्नातकों को अपने यहाँ से एम० ए० करने की स्वीकृति प्रदान की। जिन स्नातकों ने सर्वप्रथम इस सुविधा का लाभ उठाया उनमें आप भी थे। आपने सन् १९५० में आगरा विश्वविद्यालय से संस्कृत-साहित्य में प्रथम श्रेणी में एम०ए० की उपाधि प्राप्त की और विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया।

     आपको प्रारम्भ से ही वेदों के प्रति अगाध श्रद्धा तथा वैदिक विषयों पर शोध करने में रुचि थी। अत: आपने पी-एच०डी० उपाधि के लिए शोध का विषय-"वेदों की वर्णन-शैलियाँ" चुना और आगरा विश्वविद्यालय में पंजीकरण करवाया। १९६६ में आपने डी०ए०वी० कालेज देहरादून में संस्कृत-विभागाध्यक्ष डॉ० धर्मेन्द्रनाथजी शास्त्री के निर्देशन में शोधपूर्ण प्रवन्ध प्रस्तुत करके पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त की। डॉ० मंगलदेव शास्त्री, पं० धर्मदेव विद्यामार्तण्ड, आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति आदि विद्वाना ने आपके शोध-प्रवन्ध को आद्योपान्त देखा और इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की।

कार्यक्षेत्र-स्नातक बनने के बाद जयपुर रियासत के अन्तर्गत ठिकाना खूंद के ठिकाने पर तथा महाराज जयपुर के ए०डी०सी० ठाकुर जयसिंह द्वारा शिक्षा-प्रसार हेतु आश्रम खोलने के लिए किसी स्नातक को भेजने का अनुरोध किये जाने पर गुरुकुल की ओर से आपको भेजा गया, जहाँ आपने आश्रम की स्थापना की और उसके प्रधानाध्यापक रहे। आपने लगभग डेढ़ वर्ष तक इस आश्रम का सफलतापूर्वक संचालन किया, परन्तु बाद में अनुकूलता न रहने के कारण आप वापस आ गये। सन् १९३८ में आप गुरुकुल कांगड़ी के विद्यालय-विभाग में शिक्षक पद पर नियुक्त हो गये। तदनन्तर कुछ समय वेदानुसन्धानकर्ता के रुप में कार्य किया। १९३९ में आप वेद महाविद्यालय में वैदिक साहित्य के प्राध्यापक नियुक्त हुए तथा १९ वर्ष तक वेदाध्यापन करते रहे। १९५८ में आप संस्कृत-विभाग के अध्यक्ष तथा कुलसचिव नियुक्त हुए। १९६२-६३ में आपने कुलसचिव पद से त्याग-पत्र दे दिया तथा पूर्णरूपेण अध्ययन-अध्यापन में व्यस्त हो गये। आप वेद तथा संस्कृत जैसे नीरस एवं दुर्बोध समझे जानेवाले विषयों को इतने सरस, रोचक एवं सुबोध ढंग से पढ़ाते थे कि छात्रों में उनके प्रति अनायास ही रुचि उत्पन्न हो जाती थी।

    अप्रैल १९७४ में आप वेद एवं कला महाविद्यालय के अध्यक्ष, आचार्य एवम् उपकुलपति चुने गये। यदपि आप प्रशासनिक दायित्व से दूर रहकर अपना समय केवल अध्ययन-अध्यापन में ही लगाये रहना चाहते थे, परन्तु सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, गुरुकुल की विद्यासभा एवं सीनेट के अधिकारियों एवं सदस्यों के आग्रह को दृष्टिगत रखते हुए इसे स्वीकार करना पड़ा। जुलाई १९७६ तक आप इस पद पर कार्य करते रहे। इस अवधि में अपने प्रशासनिक दायित्वों को आपने इस कुशलता से निभाया कि जनसामान्य की यह धारणा निर्मूल सिद्ध हो गई कि एक अच्छा शिक्षक 'कुशल प्रशासक' नहीं हो सकता है।

    आपकी विद्वत्ता, योग्यता एवं वैदिक शोध में अभिरुचि को दृष्टिगत रखते हुए १९७६ में आपको पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़ में नवस्थापित महर्षि दयानन्द वैदिक अनुसन्धान पीठ के प्रथम प्रोफेसर एवं अध्यक्ष के रूप में मनोनीत किया गया। आपने इसी वर्ष अगस्त मास में गुरुकुल की सेवा से निवृत्त हो उक्त पद का कार्यभार संभाल लिया और अक्तूबर १९७९ तक यहाँ कार्य करते रहे। इस अवधि में आपने जहाँ एक ओर महर्षि दयानन्द की वेदार्थ-प्रक्रियाओं, उनके शिक्षा, राजनीति और कला-कौशल सम्बन्धी विचारों आदि पर स्वयम् अनुसन्धान करके शोधपूर्ण कृतियाँ तैयार की, वहीं दूसरी ओर अनेक छात्रों को वैदिक वाङ्ममय से सम्बन्धित विषयों पर शोध-कार्य करने में निर्देशन भी प्रदान किया।

   इस समय आप बेदमन्दिर, ज्वालापुर (हरिद्वार) में रहते हुए स्वाध्याय, वैदिक शोध एवं लेखन में व्यस्त है।

     साहित्य-साधना-आपको प्रारम्भ से ही अध्यापन के साथ-साथ लेखन में भी विशेष अभिरुचि रही है। आपने वैदिक वाङमय के गम्भीर अध्ययन, विस्तृत अनुशीलन, निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र चिन्तन के आधार पर अनेक उच्चकोटि के शोधपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया है। आपकी प्रथम कृति "वैदिक वीर-गर्जना" है, जिसमें वीरता की तरगों से तरंगित करने वाले वेदमन्त्रों का अर्थसहित संकलन किया गया है। इस पुस्तक की रचना एवं प्रकाशन सन् १९४६ में उस समय किया गया था, जब देश में स्वतन्त्रता आन्दोलन जोरों पर था। इस पुस्तक को पाठकों द्वारा इतना पसन्द किया गया कि इसके कई संस्करण प्रकाशित हुए। इसके बाद सन् १९४९ में आपकी दूसरी कृति "वैदिक सूक्तियाँ" प्रकाशित हुई. जिसमें अथर्ववेद से विविध विषयों पर चुनी गई एक साम सूक्तियाँ अर्थसहित दी गई हैं। __कालान्तर में आप द्वारा वेदार्थ की विविध शैलियो' (प्रहेलिकात्मक, आत्मकथात्मक, संवादात्मक, प्रश्नोत्तरात्मक, प्रेरणात्मक, आश्वासनात्मक, आशीर्वादात्मक, अर्थवादात्मक आदि) एवं प्रक्रियाओं (आधदैवत, अध्यात्म, आप, अधियज्ञ, अधिभूत, परिव्राजक, वैयाकरण, नैरुक्त आदि) का तुलनात्मक अध्ययन करने के प्रयोजन से लिखी गई-"वेदों की वर्णन-शैलियाँ" एवं "वेदभाष्यकारों की वेदार्थ-प्रक्रियाएँ" तथा "महर्षि दयानन्द के शिक्षा, राजनीति और कला कौशल सम्बन्धी विचार" शीर्षक शोधपूर्ण कृतियाँ वैदिक साहित्य के अमूल्य रत्न हैं। इसी श्रृंखला में आपने संस्कृत भापा में "वैदिकशब्दार्थविचारः" नाम से एक अनुपम ग्रन्थ की रचना की है, जिसमें यह स्पष्ट किया गया है कि सामान्यतया एक ही अर्थ में प्रयुक्त होने वाले 'अज', 'असुर', 'वृषभ' आदि शब्द वेदों में भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं। यह ग्रन्थ यास्कीय निरुक्त का पूरक कहा जा सकता है। इनमें से प्रथम-श्रद्धानन्द शोध-प्रतिष्ठान गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय से और अव नवीन संस्करण भी धूडमल प्रह्लाद कुमार धर्मार्थ न्यास, हिण्डौन सिटी तथा शेष महर्षि दयानन्द वैदिक अनुसन्धान पीठ चण्डीगढ़ के तत्वावधान में विश्वेश्वरानन्द विश्वबन्धु संस्कृत-भारती-शोध-संस्थान होशियापुर से प्रकाशित हुई हैं।

    आपकी अन्य रचनाएँ, निम्नांकित हैं।

    (१) वैदिक वीर-गर्जना-(प्रकाशन वर्ष १९४२) वीरता भी तरंगें उठाने वाली पुस्तक। अब इसके पांच संस्करण निकल चूके हैं।

      (२) यज्ञमीमांसा-(प्रकाशन वर्ष १९८१) इसमें वैदिक यज्ञ चिकित्सा, अग्निहोत्र के प्रेरक तथा लाभ प्रतिपादक वेदमन्त्रों की व्याख्या, आत्मिक अग्निहोत्र एवम् अग्निहोत्र के भावनात्मक लाभ आदि का विस्तृत विवेचन किया गया है। यह पुस्तक उत्तर प्रदेश संस्कृत-संस्थान द्वारा १९८१ में पुरस्कृत हो चुकी है।

      (३) वेद-मञ्जरी-(प्रकाशन वर्ष १९८३) इसमें चारों वेदों से संकलित ३६५ मन्त्रों की भावभीनी प्रवाहमय, मनोरम व्याख्या प्रस्तुत की गई है। ग्रन्थ को प्रारम्भिक भूमिका में वैदिक भाषा की अर्थ-गरिमा, वंदमन्त्रों के ऋषि, वेदमन्त्रों के देवता, वैदिक छन्द, कपि, देवता और छन्द के ज्ञान का महत्त्व तथा वैदिक भाषा के कुछ सामान्य नियम आदि पर प्रकाश डाला गया है।

      (४) वैदिक नारी-(प्रकाशन वर्ष १९८४) इसमें वैदिक नारी के प्रकाशवती, वीरांगना, वीरप्रसवा, विदुषी, स्नेहमयी, माँ, धर्मपत्नी, सद्गृहिणी आदि विविध रूप वेदमन्त्रोल्लेखपूर्वक वर्णित किये गये हैं। नारी के विषय में स्वामी दयानन्द के विचार भी संकलित हैं। इसमें नारी-विषयक विविध वैदिक मान्यताओं पर प्रकाश डालते हुए, प्रतिपक्षियों के वैदिक नारी पर किये गये आक्षेपों का प्रमाणपूर्वक उत्तर दिया गया है।

       (५) वैदिकमधुवृष्टि-(प्रकाशन वर्ष १९९१) यह ३२ निबन्धों का संग्रह है। ये निबन्ध परमेश्वर के गुण कर्म के महत्त्व. आचार्य-शिष्य, आश्रम-व्यवस्था, विश्वबन्धुत्व, मानवता. अर्थव्यवस्था आदि कई विषयों से सम्बन्ध रखते हैं।

    (6) आर्षज्योति:-(प्रकाशन वर्ष १९९१) इसमें लेखक के "वैदिक योगार्थ प्रक्रिया एवं दयानन्द की तद्विषयक सूक्ष्म-दृष्टि, वेद व्याख्या के प्रयास तथा स्वामी दयानन्द का महान् योगदान, अथर्ववेद के कौशिक कृत विनियोगों पर एक दृष्टि, वेद के अनेक देवों में एक ईश्वर की झाँकी, वेदों में पुनरुक्ति की समस्या, वेदों में व्यत्यय का प्रश्न, वृष्टि यज्ञ, वैदिक पर्यावरण वेद की दृष्टि में-आदि विषयों पर १७ निरन्न संकलित हैं।

    आप द्वारा महर्षि दयानन्द की भाप्य-शैली को आधार मानते हुए 'सामवेद' का सरल एवं सुबोध भाषा में संस्कृत-हिन्दी-भाष्य किया गया है।

उक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त आपके भिन्न वैदिक ग्रन्थ भी प्रकाशित हो चुके है। चारों वेदों की ज्योतियाँ लिखने का कार्य आपने आरम्भ किया था जिनमें विस्तृत भूमिका के अतिरिक्त प्रत्येक में दो-दो सौ मन्त्रों की व्यवस्था अपेक्षित थी। इनमें से ऋग्वेद-ज्योति, यजुर्वेद ज्योति तथा अथर्ववेद-ज्योति का प्रकाशन हो चुका है। सामवेद ज्योति आशा है एक या डेढ़ वर्ष में पाठकों के हाथों में पहुँच जायेगी।

      सम्मान-  अर्थ, यश एवं सम्मान की लालसा से नहीं, वरन् 'स्वान्तःसुखाय' तथा वेदों में निहित ज्ञान को वेद-प्रेमियों तक पहुँचाने के उद्देश्य से साहित्य-सृजन में व्यस्त आचार्य-चंदालझार को अनवरत वेद-सेवा के लिए सन् १९८८ में आर्यसमाज सान्ताज लम्बई द्वारा घेदवेदाम पुरस्कार से तथा १९८९ में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय से विद्यामार्तण्ड की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया। आपके द्वारा संस्कृत के प्रचार-प्रसार एवं विकास कार्य हेतु की गई दीर्घकालीन विशिष्ट सेवा तथा वैदिक साहित्य के शोध पूर्ण ग्रन्थों के प्रणयन के लिए उत्तर-प्रदेश संस्कृत ग्रन्थ अकादमी द्वारा १९९० में २५००० रुपये के विशिष्ट पुरस्कार से आदृत किया गया। आप सन् १९९८ में महामहिम राष्ट्रपति जी द्वारा संस्कृत के विशिष्ट विद्वान् के रूप में सम्मानित हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त भारतीय विद्याभवन बैंगलूरू ने सन् २००१ के अपने गुरु गंगेश्वरानन्द बेदरत्न पुरस्कार से, उत्तराञ्चल संस्कृत अकादमी ने वर्ष २००३-२००४ के अपने राष्ट्रीय बदरीश संस्कृत सम्मान से और श्री राव हरिश्चन्द्र आर्य चैरिटेबल ट्रस्ट नागपुर में सन् २००६ के अपने आर्यरत्न अनूचान साहित्य- पुरस्कार से आपको अभिनन्दित किया है। श्री स्वामी समर्पणानन्द जी के जन्मदिवस पर उनकी स्मृति में स्थापित "समर्पण शोध-संस्थान' ने श्री पं० जी द्वारा लिखित एवं सम्पादित सामवेद-भाष्य के लोकार्पण-समारोह के अवसर पर १ अगस्त, १९९१ को २५००० सहस्र की राशि प्रदान कर सम्मानित किया।

   आपका विशुद्ध सात्त्विक जीवन, सरल व्यवहार, मितभाषिता माधुर्य, विशुद्ध प्रामाणवृत्ति से वेदों का गम्भीर अनुशीलन एवं विशिष्ट अध्ययन शैली अनुकरणीय है।

 

 

॥ ओ३म् ॥

अथ सामवेदभाष्यभूमिका

 

       नमाम्यादौ परेशं तं जगन्मङ्गलहेतुकम्। विविधज्ञानपूर्ण यश्चक्रे वेदचतुष्टयम्॥१॥ पदे पदे नवं यस्य पाठे-पाठे मनोहरम्।

      राजते वेदकाव्यं यन्न ममार न जीर्यति॥२॥ ततो महर्षीन् सकलान् नमामि, व्याख्यासु वेदस्य कृतश्चमा ये। शाकल्यगायंप्रमुखान् सुधीन्द्रान्, यास्कादिकान् वेदरहस्यविज्ञान्॥३॥ श्रद्धान्वितो वेदधुरीणमाप्तं, देवं दयानन्दमाह प्रणामि। वेदार्थमार्गे निजभाष्यजातां, कीर्ति वरेण्या भुवि यस्ततान।।४।।

       आर्याणां मन्यूषीणां या व्याख्यारीतिः सनातनी। तां समाश्रित्य मन्त्रार्था विहिता येन नान्यथा।।५।। यस्य भाष्यप्रतापेन कला वेददूषकाः। सर्वेऽप्यपगताः सूर्यात् तमोजालं यथा क्षणात्॥६॥ ऋग्यजु यियोरेव लेखनी तेन चालिता।। तस्मातु सामवेदस्य भाष्यं तन्तन्यते मया।।७।। मास्मिन् मद् गौरवं किञ्चिन्महर्षेरेव गौरवम्। तेनैव दर्शितान् मार्गाननुधावामि यत्नतः॥८॥

        गुरुकुलमतिरम्यं कांगड़ीनाम यन्त्र, कृतवसतिरद, वेदविद्यापिपासुः। विविधविमलशास्त्रे दत्तचित्तो यतात्मा,

       गुरुचरणकपाता ज्ञानबिन्दूनविन्दम्॥९॥ श्रीविश्वनाथगुरुवर्यसुरेन्द्रशर्मवागीश्वरप्रभृतिभिः कृपया सुधीन्द्रः। सत्यवताच्युतचमूपतिलालचन्द्रैः पूताशिषां वितरणेन कृती कृतोऽस्मि॥१०॥ अभयदेवगुरुं प्रणमाम्यहं गुणगणं किल तस्य वदाम्यहम्। यतिरसी निजदिव्यशुभाशिषा श्रुतिपथेऽभिरुचिं मम योऽकरोत्।।११॥

 

 

     तान् सर्वान् शिरसा वन्दे पीतं ज्ञानामृतं यतः। गुरूणां च गुरु बन्चे श्रद्धानन्द तपस्विनम्॥१२॥ तात गोपालरामाख्यं वन्दे “भगवती' प्रसूम्। ययोः कृपाकटाक्षाणामानृण्यं कर्तुमक्षमः।।१३॥ ता प्रकाशवती भार्या सद्धर्मसुखबर्पिणीम्। स्मृत्वा मनः प्रकुर्वेऽहं श्रुतिमर्मप्रकाशने ॥१४॥ सुतो विनोदचन्द्रो मे 'विद्यालङ्कार'-भूषितः। तत्पत्नी निर्मला हृद्या स्वस्तिश्च तत्सुत: प्रियः॥१५॥ भारती मे सुता दक्षा महेन्द्रस्तत्पतिगुणी। दीप्त्यादयोऽथ तत्युत्र्यः सर्वे नन्दन्तु श्रेयसा॥१६॥ प्रीयन्तां पाठकाः सर्वे वर्धता च रुचिः श्रुती। श्रद्धा मातेव कल्याणी मङ्गलं तनुतात् सदा॥१७॥

     सर्वप्रथम में जगन्मङ्गलकारी उस परमेश्वर को प्रणाम करता हूँ, जिसने विविध ज्ञान-विज्ञान से परिपूर्ण चारों वेदों की रचना का है और जिसका प्रत्येक पदम नवीन एवं प्रत्येक पाठ में मनोहर प्रतीत होने वाला वह वेदकाव्य शोभित है, जो न कभी मरता है, न पुराना होता है।।१-२।।

     तदनन्तर मैं शाकल्य, गाय आदि सुधौन्द्र और यास्काचार्य आदि वेद-रहस्य के ज्ञाता सब महर्षियों को नमस्कार करता हूँ, जिन्होंने वेद की व्याख्याओं में भूरि-भूरि परिश्रम किया है।।३।

      में श्रद्धान्वित होकर वेदधुरीण, आप्त, देव दयानन्द को प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने वेदार्थ के मार्ग में अपने वेदभाष्य से उत्पन्न श्रेष्ठ कीर्ति को भूमण्डल में सर्वत्र विस्तीर्ण कर दिया है; जिन्होंने ब्रह्मा से लेकर जैमिनि-पर्यन्त जो आर्य मुनि और ऋषि हुए हैं उन्हीं की व्याख्या पद्धति का आश्रय लेकर मन्त्रों के अर्थ किये हैं, विपरीत नहीं; और जिनके भाष्य के प्रताप से वेदों पर दोषों का आरोप करनेवाले सव कलंक वैसे ही दूर हो गये हैं जैसे सूर्य के उदय होते ही अन्धकार का जाल क्षणभर में विलीन हो जाता है।।४-६॥

क्योंकि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने केवल ऋग्वेद तथा यजुर्वेद के भाष्य में अपनी लेखनी को प्रवृत्त किया था, सामवेद का भाष्य वे नहीं कर सके थे, इसलिए उन्हीं की भाष्य-पद्धति से मैं सामवेद का भाष्य कर रहा हूँ।

   इसमें मेरा कुछ गौरव नहीं  प्रत्युत उन महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती का ही गौरव है, क्योंकि उन्हीं के द्वारा दर्शाये गये मार्ग का मैं यत्नपूर्वक अनुसरण कर रहा है।८।।

     हरिद्वार के निकट महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) द्वारा स्थापित एक सुरम्य गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय है, वहीं छात्र रूप में निवास करते हुए, अतिशय वेदादि विद्याओं की पिपासा लिये हुए, विविध निर्मल शास्त्रों में दत्त-चित्त होकर संयमपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए मैंने गुरुचरणों की कृपा से कतिपय ज्ञान-बिन्दुओं को प्राप्त किया।॥९॥

        गुरुवर पण्डित विश्वनाथ विद्यालकार (वेदोपाध्याय), पण्डित सुरेन्द्रनाथ शमो सप्ततीर्थ (दर्शनशास्त्रोपाध्याय).साहित्याचार्य पण्डित नागीश्यर विद्यालंकार एम० ए० (संस्कृतसाहित्योपाध्याय). पण्डित सत्यव्रत सिद्धान्तालकार (आर्यसिद्धान्तोपाध्याय), अर्थशास्त्रवाचस्पति 'अच्युत' पण्डित कशवदव वदालकार (अर्थशास्त्रापाध्याय), आचार्य चमुपति एम० ए० (आस्तिकवादोपाध्याय), प्रोफेसर लालचन्द, एम० ए० (आंग्लभापोपाध्याय) आदि विद्वान् गुरुओं ने अपने पवित्र आशीर्वादों से मुझे कृतार्थ किया।।१०।।

     मैं अपने आचार्य स्वामी अभयदेव को प्रणाम करता हूँ और उनके गुण-गण का गान करता हूँ। उन संन्यासी ने अपने दिव्य, शुभ आशीर्वाद से मेरी रुचि को वेदमार्ग पर अग्रसर किया था।।११॥ ___ उन सभी गुरुओं की मैं नत-मस्तक होकर वन्दना करता है. जिनस मैंने ज्ञानरूप अमृत का पान किया है। साथ ही मैं अपने गुरुओं के गुरु, गुरुकुलशिक्षापद्धति के पुनरुद्धारक, तपस्वी श्रद्धानन्द संन्यासी को भी प्रणाम करता हूँ।।१२।।

     मैं अपने पिता श्री गोपालराम जी और माता श्रीमती भगवती देवी जी को हाथ जोड़कर वन्दन करता हूँ, जिनकी कृपाओं से मैं कभी उऋण नहीं हो सकता।।१३।।

   मेंरे परिवार में सद्धर्म और सुख को बरसाने वाली अपनी स्वर्गीय धर्मपत्नी श्रीमती प्रकाशवती को स्मरण करके चंद का मर्म प्रकाशित करने के लिए अपने मन को प्रवृत्त करता हूँ।।१४॥

     मेरे पुत्र विनोदचन्द्र विद्यालंकार, पुत्रवधू निर्मला देवी, पौत्र स्वस्ति, पुत्री भारती, जामाता महेन्द्र और दौहित्री दीप्ति, प्रीति तथा उदिता सब वेदमार्ग पर चलते हुए कल्याण भाजन हों, यह मेरी कामना है।।१५-१६।।।

     इस सामवेद भाष्य से पाठक तृप्ति लाभ करें। वेद में उनकी रुचि बढ़े और कल्याणकारिणी माता के समान श्रद्धा उनका सदा मंगल करती रहे।॥१७॥

ईश प्रार्थना

विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परी सुव।

यद भद्रं तन्न आ सुर्व॥१॥ -ऋ० ५८२१५

यस्मिन्नच: साम यजूपि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।

यस्मिंश्चित्तः सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥२॥

-यजु:० ३४१५ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।

धियो यो नः प्रचोदयात्॥३॥ -साम० उ० ६।३।१०।१

यो भूत च भव्यै च सर्व यश्चाधितिष्ठति।

सर्वस्स्यं च केवल तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः।।४।।

- अथर्व० १०८।१

    हे सच्चिदानन्दस्वरूप, परम दयालु अनन्तविध, सर्वविधाप्रकाशक. सर्वानन्दप्रदाता, सकल जगदुत्पादक परमात्मन्! इस वेदभाष्य में आनेवाले विनरूप दुरितों को आने से पूर्व ही आप दूर कर दीजिए और यदि मेरी असावधानी के कारण वे विघ्न आ भी जाएँ तो मुझे ऐसा बल प्रदान कीजिए कि मैं उन्हें तत्क्षण दूर कर सकूँ, और जो शरीर का आरोग्य, बुद्धिकौशन, 'सत्यविद्याप्रकाश आदि भद्रह वह कृपा कर मुझे प्राप्त कराइये, जिससे वेद का यथार्थ भाष्य में कर सकू।  हे भगवन् कृपानिधे! जिस मन में ऋचाएँ, साम और यजुः रथनाभि में अरों के समान प्रतिष्ठित होते हैं और जिसमें प्रजाओं का स्मृतिरूप चित्त सूत्र में मणिगणों के समान प्रांत रहता है, वह मेरा मन आपकी कृपा से शिवसंकल्पवाला हो, जिससे वेद के सत्यार्थ को ही में प्रकाशित करूं।

       सर्वजगदुत्पादक, सन्मार्गप्रेरक, निखिलज्ञानविज्ञानप्रकाशक, सर्वसुखदाता, सर्वान्तर्यामी परब्रह्म का, जो सकल अविद्या का प्रकाट्क, तेजस्वी, श्रेष्ठ स्वरूप है, उसे मैं अपने अन्त:करण में धारण करूँ। वह परब्रह्म मेरी बुद्धियों को सन्मार्ग में प्रेरित करता रो, जिससे उत्कृष्ट वेदार्थों के प्रकाशक, वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, व्याकरण, निषण्ट, निरुक्त आदि के सुप्रमाणों से युक्त और पारमार्थिक तथा व्यावहारिक अर्थो से अलंकृत वेदभाष्य को में कर सकूँ।

     जो भूत-भविष्यत् वर्तमान कालों का तथा पृथिवी, जल, तज, वायु, आकाश, मनुष्य, पशु, पक्षी, स्थावर आदि सबका अधिष्ठाता है और लेशमात्र भी दु:ख से रहित नितान्त सुख जिसे सदा प्राप्त रहता है, उस ज्येष्ठ ना को मेरा नमस्कार है।

१. चार वेद और उनकी शाखाएँ

    ऋग्, यजुः, साम और अथर्व ईश्वरप्रोक्त चार वेद है। किसी समय इनकी बहुत सी शाखा-प्रशाखाएँ हो गयीं, जो संख्या में ११२७ तक पहुँच गयी थीं। अनेक वेदप्रेमी जन शम शाखाओं को भी वेद के अन्तर्गत मानकर वेदवत् इनका प्रामाण्य स्वीकार करते हैं। परन्तु स्वामी दयानन्द सरस्वती मूल वेद प्राय: उन्हें मानते हैं जो आजकल शाकल ऋग्वेद (बालखिल्य-सूक्तों सहित). वाजसनेयी माध्यन्दिन शुक्ल यजुर्वेद, कोथुम एवं राणायनीय सामवेद तथा शौनकीय अथर्ववेद नाम से प्रचलित हैं और शाखाओं को इन मूल वेदों के अनुकूल होने पर ही प्रमाण मानते हैं। उनके मतानुसार शाखाएँ ईश्वरकृत नहीं हैं प्रत्युत ईश्वरकृत वेदों के ऋषिकृत वेदव्याख्यान हैं।

      पातञ्जल महाभाष्य में लिखा है कि ऋग्वेद की २१. यजुर्वेद की १०१. सामवेद की १००० तथा अथर्ववेद की ९ शाखाएँ हो गयी थीं। किन्तु सम्प्रति ऋग्वेद को केवल शाकल ही उपलब्ध है। शुक्ल यजुर्वेद को माध्यन्दिन और काण्व तथा कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक और कठ, कापिंप्ठल संहिताएँ प्राप्त है। अथर्ववेद की शौनकीय एवं पैप्पलाद संहिताएँ मिलती हैं। सामवेद केवल तीन प्रकार का उपलब्ध है-कौथुम, राणायनीय एवं राणायनीय के क्रम से भिन्न है।

    सामवेद की कौथुम संहिता का संस्करण जर्मन विद्वान् थियोडोर वेन्ले (Theodor Benly) ने १८४८ ई० में जर्मन भाषा के अनुवाद-सहित प्रकाशित कराया था। राणायनीय संहिता सर्वप्रथम १८४२ ई० में लन्दन से जे० स्टेवेन्सन (J. Stevenson) के अंग्रेजी-अनुवाद सहित प्रकाशित हुई थी। जैमिनीय संहिता का भृमिकायुक्त रोमनाक्षर-संस्करण अंग्ग्रेज विद्वान् डॉ० डब्ल्यू० कैलेण्ड (Dr.W.Caland) द्वारा १९०७ ई० में प्रकाशित किया गया था। स्वाध्यायमण्डल से जो सामवेदसंहिता प्रकाशित हुई है उसमें कौथुम एवं राणायनीय तो सम्मिलित रूप से हैं ही, किन्तु अन्त में जैमिनीय संहिता के पाठ-विशेप, क्रमभेद तथा अधिक मन्त्र भी दर्शा दिये गये हैं।

 

     २. वेदों के प्रतिपाद्य विषय

 प्रत्येक वेद का अपना-अपना महत्व है। ऐसा नहीं है कि किसी वेद का कम महत्त्व हो, दूसरे वेद का अधिक हो। वेदों के चार वर्ण्य विषय है-विज्ञान, कर्म, उपासना और ज्ञान। ज्ञान किसी पदार्थ के सामान्य बोध को तथा विज्ञान उसके साक्षात् बोध को कहते हैं। चारों विषयों में विज्ञान सब से मुख्य है, यतः तसमें परमेश्वर से लेकर तृण-पर्यन्त सब पदार्थों का हस्तामलकवत् साक्षात् बोध होता है। उसमें भी परमेश्वर का अनुभव सर्वमुख्य है, क्योंकि सब वेदों का प्रधानतः उसी में तात्पर्य है।'

     चारों ही वेदों में विज्ञानकाण्ड, कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड और ज्ञानकाण्ड के विषय वर्णित हैं। तथापि प्रधानत: ऋग्वेद' गुण-गुणियों के ज्ञान-विज्ञान का उपदेश अर्थात् ईश्वर से लेकर भूमिपर्यन्त पदाथों का गुण वर्णन-रूप ज्ञानकाण्ड एवं विज्ञानकाण्ड है और यजुर्वेद में ईश्वर-पूजा. विद्वत्सत्कार, शिल्पादि क्रियाओं से संगतिकरण, शुभ विद्या, गुण, धन आदि का दान एवं यज्ञादि कर्तव्य कर्मों का उपदेशरूप कर्मकाण्ड वर्णित है। सामवेद में ज्ञान-विज्ञान, कर्म और उपासना तीनों का समन्वय है अर्थात् यह बतलाया गया है कि मनुष्य ज्ञान-विज्ञान, कर्म और उपासना तीनों का समन्वय है अर्थात् यह बतलाया गया है कि मनुष्य ज्ञान-विज्ञान, कर्म और उपासना का कहा तक उन्नति कर सकता है तथा उसका क्या फल होता है। अथर्वेद उक्त विद्या विषयों का पूरक है।

     ३. सामवेद का नामकरण

    वेद शब्द 'विद सत्तायाम्' (दिवादि), 'विदज्ञाने' (अदादि), 'विद्लृ लाभे' (तुदादि), 'विद विचारणे' (चुरादि) तथा 'विद चेतनाख्याननिवासेपु' (चुरादि) धातुओं से करण और अधिकरण कारक में घञ् प्रत्यय करने पर सिद्ध होता है। जिसमें विविध ज्ञान-विज्ञानों को सत्ता है (विद सत्तायाम्), जिससे या जिसमें विविध विद्याएँ जानी जाती हैं (विदज्ञाने), जिससे या जिसमें विविध विद्याओं को पाते हैं (विद्लृ लाभे), जिससे या जिसमें विविध विद्याओं का विचार किया जाता है (विद विचारणे), जिससे गुरु द्वारा शिष्यों को चेताया जाता है, जिससे या जिसमें विविध विषयों का आख्यान किया जाता है, जिसमें विविध विद्याएँ निवास करती है अथवा जिससे शिष्यों के हृदय में अध्यात्म, अधिदैवत, अधिभूत आदि विद्याओं का निवास कराया जाता है (विद चेतनाख्याननिवासेषु) उसका नाम वेद है।

           'साम' को अथर्ववेद में 'सा' और 'अम' के योग से निष्पन्न किया गया है। वहाँ चतुर्दश काण्ड के विवाह सूक्त में वर वधू से कहता है कि तू 'सा' है. मैं 'अम' हूँ. इस प्रकार हमारा युगल 'साम' है। यहाँ 'सा' से वाणी और 'अम' से प्राणबल अभिप्रेत है। जैसे वाणी और प्राण के मिलन से साम-संगीत की उत्पत्ति होती है, वैसे ही वधू-वर के मिलने से गृहस्थ-संगीत उत्पन्न होता है। शतपथ ब्राह्मण', काठक संहिता' तथा जैमिनीय-उपनिषद्-ब्राह्मण' में भी 'सा' और 'अम' के योग से 'साम' की निप्पत्ति मानी गयी है। सामविधान ब्राह्मण' में 'सम' से 'साम' निष्पन्न हुआ बताया गया है। वहाँ कहा गया है कि ऋग्वेद के छन्द और सामवेद के छन्द समान हैं, सम छन्दवाला होने के कारण ही सामवेद का नाम 'साम' पड़ा है।

    यास्कीय निरुक्त में 'साम' शब्द की तीन प्रकार से निष्पत्ति दर्शायी गयी है। प्रथम, सम् उपसर्ग-पूर्वक मानार्थक माङ् धातु से। ऋचा से समान परिमाणवाला होने से 'साम' कहलाता है, अर्थात् ऋचाएँ जैसे छन्दोबद्ध होती है वैसे ही 'साम' भी होता है (सम्मा साम)। द्वितीय प्रकार में 'साम' को 'षो अन्तकर्मणि' धातु से व्युत्पन्न किया गया है। सामयोनिमन्त्र को या सामगान को 'साम' इस कारण कहते हैं क्योंकि यह मानसिक अशान्ति, दु:ख आदि का अन्त कर देता है। तृतीय पक्ष नैदानों के नाम से दिया गया है. जिसके अनुसार सम-पूर्वक मन ज्ञाने' (दिवादि) या 'मनु अवयोधने' (स्वादि) धातु से 'साम' शब्द बनता है। ऋचा के समान माना जाने के कारण सामयोनिमन्त्र 'साम' कहलाता है। उणादि कोष में 'साम' की सिद्धि में निरुक्तवर्णित द्वितीय प्रकार को ही ग्रहण किया है। वहाँ 'पो' अन्तकर्मणि' धातु से मनिन् प्रत्यय करके सामन्' शब्द निष्पन्न किया गया है। उसी के नपुंसकलिंग, प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'साम' रूप बनता है। पाप-ताप का अन्त इसके अर्थज्ञानपूर्वक पाठ या गान से होता है, अत: इसे 'साम' कहते हैं। एक अन्य धातु 'साम सान्त्यप्रयोगे' (चुरादि) है, इस धातु में अन् प्रत्यय करने पर भी 'सामन्' की सिद्धि हो सकती है। तदनुसार इसे 'सामन्' इस कारण कहते हैं, यतः इससे शान्ति प्राप्त होती है। उणादि सूत्रों के एक वृत्तिकार श्वेतवनवासी 'पो' धातु को गानार्थक मानकर 'साम' का यह अर्थ करते हैं कि जो गाया जाए वह साम है।'

४. सामवेद का बहिरङ्ग परिचय

      यहां सामवेद से कौथुम एवं राणायनीय सामवेद-संहिता ही अभिप्रेत है, जिसे मूल प्रामाणिक सामवेद कहा जा सकता है। "सामवेद में तीन आर्चिक है-आरम्भ में पूर्वाचिक, अन्त में उत्तरार्चिक और मध्य में एक छोटा-सा महानाम्नी आर्थिक। पूर्वाचिक को छन्द-आर्चिक भी कहते हैं, क्योंकि इसमें स्वतन्त्र छन्द (सामयोनि ऋचाएँ) पठित हैं। पूर्वार्चिक आरण्यकाण्ड के अन्त, साम-मन्त्र-संख्या ६४० तक है। सामवेदसंहिता के पं० सत्यव्रत सामश्रमी द्वारा सम्पादित सायण-भाष्य में भी आरण्यकाण्ड के अन्त में पूर्याचिंक (छन्द आर्चिक) को समाप्त किया गया है। महानाम्नी आर्चिक के आरम्भ में पं० सामश्रमी ने टिप्पणी दी है कि महानाम्नियों का पाठ सर्वत्र छन्द आर्चिक की समाप्ति पर ही मिलता है, उन्हें न छन्द आर्चिक में सम्मिलित किया गया है, न उत्तरार्चिक में। कुछ लोग पाथमानकाण्ड के अन्त में (साम-मन्त्र संख्या ५८५ पर) पूर्वाचिक (छन्दाचिक) को समाप्त मानते हैं। उनके मत में आरण्यकाण्ड पूर्वार्चिक से पृथक् है। सामभाष्यकार माधवाचार्य और भरतस्वामी पावमान काण्ड के भाष्य के अनन्तर ही पूर्वाचिक को समाप्त करते हैं। महामण्डलेश्वर स्वामी गंगेश्वरानन्द उदासीन के सामवेद संहिता के भाष्य में भी ऐसा ही किया गया है। उन्होंने आरण्यकाण्ड को एक पृथक् आर्थिक 'आरण्यार्चिक' माना है। किन्तु वैदिक यन्त्रालय अजमेर से प्रकाशित मुल सामवेद-संहिता में पुर्वाचिंक महानाम्नी आर्चिक और उत्तरार्चिक ये तीन ही आर्चिक हैं तथा आरण्यकाण्ड की समाप्ति तक पूर्वार्चिक है।

    पूर्वार्चिक में चार काण्ड हैं जिन्हें पर्व भी कहते है आग्नेय, ऐन्द्र, पायमान और आरण्या आग्नेय काण्ड या पर्व में कुल ऋचा ११४ हैं, जिनमें अधिकांश का देवता अग्नि है। इस काण्ड में अग्नि नाम से परमात्मा की उपासना का तथा राजा, सेनापति, आचार्य आदि के गुण-कर्मों का वर्णन है। ऐन्द्र काण्ड या पर्व में कुल ऋचाएँ ३५२ है, जिनका प्रायः इन्द्र देवता है।' इसमें इन्द्र नाम से परमात्मा की उपासना एवं जीवात्मा को उद्बोधन है, और राजा, सेनापति, आचार्य आदि के गुणों- का वर्णन है। पायमान काण्ड या पर्व में कुल ११९ ऋचाएँ हैं: सभी ऋचाओं का देवता पावमान सोम है। इसमें पवित्रताकारक 'सोम' परमात्मा की उत्कृष्ट भक्ति करने की प्रेरणा दी गयी है। 'सोम' शब्द भक्ति-रस, श्रद्धा-रस, कर्म-रस आदि का भी वाचक है, अत: जिन ऋचाओं में परमात्मा के प्रति सोम-रस प्रवाहित करने का वर्णन है उनमें 'सोम' से भक्ति-रस आदि ग्राह्य है। इसके अतिरिक्त 'सोम' नाम से जीवात्मा, राजा सेनानी आदि के गुण-कर्मों का भी वर्णन किया गया है। आरण्यकाण्ड या पर्व में कुल चाएँ ५५ है। इसमें कोई एक प्रमुख देवना न होकर जैसे अरण्य (जंगल) में विभिन्न प्रकार के वृक्ष उगे होते हैं, वैसे पवमान सोम, वायु, प्रजापति, अग्नि, इन्द्र, पुरुष, द्यावापृथिवी, सूर्य आदि विभिन्न देवता हैं। इन विविध नामों से परमात्मा की उपासना तथा राजा, आचार्य, प्राण आदि की विशेषताओं का वर्णन है। इस काण्ड को आरण्यक इस कारण भी कहते हैं, क्योंकि इसमें पठित ऋचाओं पर अरण्ये-गेय गान किया जाता है।

       पूर्वार्चिक में चारों काण्डों में मिलाकर कुल ६४० ऋचाएँ हैं। महानाम्नी आर्चिक में ऋचाओं की संख्या केवल १० है। पूर्वार्चिक ६ प्रपाठकों में विभक्त है। प्रथम पाँच प्रपाठकों में प्रथमार्ध तथा द्वितीयाधं दो-दो अर्ध है, किन्तु षप्ठ प्रपाठक में तीन अर्ध हैं। प्रत्येक अर्थ में पाँच-पाँच दशतियाँ हैं। प्रत्येक दशति में सामान्यतः दस-दस ऋचाएँ हैं, किन्तु कुछ दशतियों में ऋचाओं की संख्या १० से न्यूनाधिक भी है। एक दशति में ६, एक दशति में ७. सात दशतियों में ८-८. पाँच दशतियों में ९-९. एक दशति में ११. पाँच दशतियों में १२-१२. एक दशति में १३. और तीन दशतियों में १४-१४ ऋचाएँ हैं। यह ऋचाओं की न्यूनता या अधिकता इस कारण है कि ऐसा प्रयास किया गया है कि एक छन्द की ऋचाएँ उसी दशति में आ जाएँ। उदाहरणार्थ प्रथम प्रपाठक, प्रथम अर्ध की तीसरी दशति में १४ ऋचाएँ हैं, जिनका गायत्री छन्द है, जब कि अगली दशति का छन्द वृहती है। यदि तीसरी दशति की चार ऋचाएँ अगली चौथी दशति में डाली जाती तो उसमें चार ऋचाओं का छन्द गायत्री और शेष का बृहती होता है, जो कि वांछनीय नहीं था।

    जिस प्रकार ऋग्वेद में 'मण्डल, सूक्त, ऋचा' का विभाजन-क्रम प्राचीन तथा 'अष्टक, अध्याय, वर्ग, ऋचा' का विभाजन क्रम अर्वाचीन है, उसी प्रकार सामवेद में 'प्रपाठक, अर्धप्रपाठक दशति, ऋचा' का विभाजन प्राचीन तथा 'अध्याय, खण्ड, ऋचा' का विभाजन पश्चाद्वर्ती है। दूसरे विभाजन के अनुसार पूर्वाचिक में ६ अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में आग्नेय काण्ड या पर्व सम्पूर्ण हुआ है जिसमें १२ खण्ड हैं और जो ऋक् संख्या ११४ तक है। ऐन्द्र काण्ड या पर्व द्वितीय से चतुर्थ अध्याय तक है, जिसमें प्रत्येक अध्याय में १२ खण्ड हैं। द्वितीय अध्याय ऋक् संख्या २३२ तक तृतीय अध्याय ऋक् संख्या ३५१ तकऔर चतुर्थ अध्याय ऋक्संख्या ४६६ तक है। या पर्व पंचम अध्याय में है। जिसमें ११ खण्ड है तथा ऋक्संख्या ५८५ तक है। आरण्य काण्ड या पर्व षप्ठ अध्याय में है, जिसमें ५ खण्ड है तथा ऋक्संख्या ६४० तक है। महानाम्नी आर्चिक स्वतन्त्र है। वह किसी प्रपाठक या अध्याय के अन्तर्गत नहीं है।

    उत्तरार्चिक में प्रथम विभाजन के अनुसार 'प्रपाठक, अर्ध-प्रपाठक, सूक्त और ऋचा' तथा द्वितीय विभाजन के अनुसार 'अध्याय, खण्ड, सूक्त एवं ऋचा' हैं। इनमें प्रथम विभाजन प्राचीन तथा द्वितीय अर्वाचीन है जो अध्ययन-अध्यापन एवं गान की सुविधा के लिए किया गया है। उत्तरार्चिक में कुल ९ प्रपाठक, २२ अर्धप्रपातक, २१ अध्याय, १२० खण्ड तथा ४०० सूक्त है। सूक्त अधिकतर तीन-तीन ऋचाओं के हैं तो भी कुछ सूक्त कम या अधिक ऋचाओं के भी मिलते हैं। गणना से ज्ञात होता है कि उत्तरार्चिक में १३ एकर्च, ६६ द्वयृच, २८७ तृच, ९ चतुर्थीच, ४ पञ्चर्च, १० षद्चऋ , २ सप्तर्च, १ अष्टर्च, ३ दशर्च और २ द्वादशर्च सूक्त हैं। उत्तरार्चिक की कुल ऋक्संख्या १२२५ है। इस प्रकार सामवेद की सम्पूर्ण ऋक्संख्या (पूर्वार्चिक ६४० महानाम्नी आर्चिक १० उत्तरार्चिक १२२५) १८७५ होती है।

५. पूर्वार्चिक और उत्तरार्चिक का सम्बन्ध

     पूर्वार्चिक में ६४० ऋचाएँ तथा उत्तरार्चिक में १२२५ ऋचाएँ हैं, यह अभी हमने देखा है। पूर्वाचिंक की ऋचाओं में से २६२ ऋचाएँ उत्तरार्चिक में वैसी की वैसी पुनरुक्त हुई है। इन पुनरुक्त में से पूर्वाचिंक की १७० ऋचाएँ उत्तरार्चिक के तूचों की आदिम ऋचाओं के रूप में पठित है। २० ऋचाएँ ऐसी है जो तृचों के आदि में पठित न होकर उनके मध्य या अन्त में अथवा मध्य और अन्त दोनों स्थानों में पठित है। ६० ऋचाएँ ऐसी हैं जो उत्तरार्चिक के प्रगाथ सूक्तों के आदि में पठित हैं। १२ ऋचाएँ चार से लेकर द्वादश ऋचा तक की संख्यावाले सूक्तों के आदि मध्य या अन्त में पठित हैं। उत्तरार्चिक के कुल ४०० सूक्तों में से २०० से अधिक सूक्तों की आदिम ऋचाएँ पूर्वार्चिक की ही है। जो उत्तरार्थिक के सूक्तों के आदि में पठित पूर्वाचिक की ऋचाएँ हैं जो उत्तरार्चिक के ऊह गानों और ऊह्य गानों को योनि ऋचा बनती है अर्थात् उनके आधार पर गान होता है। उत्तरार्चिक के ऊह गानों की प्रकृति पूर्वार्चिक के गेय गान तथा उत्तरार्चिक के का गानों की प्रकृति पूर्वार्चिक के आरण्य गान हैं। इस प्रकार पूर्वार्थिक और उत्तरार्चिंक का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है।

      यहाँ यह बात ध्यान रखने योग्य है कि ऐसा कोई नियम नहीं है कि पूर्वाधिक की ऋचा आरम्भ में पठित हुए बिना उत्तराधिक के सूक्तों पर गान न होता हो। पूर्वार्चिक से भिन्न स्वतन्त्र ऋचा आदिम होने पर भी किसी सूक्त पर गान हो सकता है। ऐसा भी नहीं है कि यदि पूर्वार्चिक की कोई ऋचा उत्तरार्थिक के किसी सूक्त के आदि में है तो उस पर गान अवश्य बना हो; ऐसे कई सूक्तों पर गान नहीं हैं। सामगानों के विषय में हम आगे प्रकाश डालेंगे, अत: यहाँ इस सम्बन्ध में अधिक नहीं लिखा जा रहा है।

६. सामवेद की स्वराङ्कन-पद्धति

     मूलतः स्वर तीन हैं-उदात्त, अनुदात्त और स्वरित। इन्हीं को महर्षि पतञ्जलि ने प्रकारान्तर से सात भी बताया है-उदात्त, उदात्ततर, अनुदात्त, अनुदात्ततर, स्वरित, स्वरितपूर्व उदात्त और एकश्रुति।' संहिता में स्वरित से परे अनुदात्तों को एकश्रुति स्वर हो जाता है, जिसे प्रचय भी कहते हैं और जिसका उच्चारण उदात्तवत् होता है। किन्तु उस अनुदात्त को एकश्रुति नहीं होती जिससे परे उदात्त या स्वरित हो, अपितु वह अनुदात्त अनुदात्ततर उच्चारित होता है। स्वरित दो प्रकार का होता है, एक परतन्त्र स्वरित, जिसे उदात्ताश्रित स्वरित भी कहते हैं, और दूसरा स्वतन्त्र स्वरित। परतन्त्र स्वरित वह कहलाता है, जो उदात्त से परे स्थित अनुदात्त का स्वरित बना होता है। स्वतन्त्र स्वरित वह होता है जो स्वयं स्वरित है। इस स्वतन्त्र स्वरित में स्वाभाविक स्वरित और सन्धिज स्वरित दोनों समाविष्ट हैं। स्वाभाविक स्वरित का ही पारिभाषिक नाम 'जात्य' स्वरित है, अर्थात् जो जाति, स्वभाव या मूल से ही स्वरित है। यथा-

कन्या, धान्यम्, क्व, स्वः।

    सन्धिज स्वरित में क्षेत्र स्वरित, प्रश्लिष्ट स्वरित और अभिनिहृत स्वरित आते है। जो उदात्त इकार, उकार के स्थान में यण् (य्, व्) होने पर अगला अनुदात्त स्वर स्वरित हो जाता है, वह क्षैप्र स्वरित कहाता है। यथा

स्वाधी+अस्-स्वाध्यः, चमू ओस्-चम्बोः।

    दीर्घ. गुण अथवा वृद्धि एकादेश से होनेवाले स्वरित को प्रश्लिष्ट स्वरित कहते हैं। यथा-

हि+इन्द्र-हीन्द्र, क्व+इयथ-क्वेयथा

    ए अथवा ओ से अ परे होने पर पूर्वरूप एकादेश से निष्पन्न होने वाला स्वरित अभिनिहित स्वरित कहाता है। यथा-

ते अवर्धन्त तेऽवर्धन्त, वेद:+असि-वेदो असि-वेदोऽसि।'

    स्वर-विषयक इस सामान्य परिचय के अनन्तर अव साम्वेदसंहिता की स्वराङ्कनपद्धति दर्शाते हैं।

     ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में उदात्त, अनुदात्त आदि स्वर रेखाओं द्वारा प्रदर्शित किये जाते है, किन्तु सामवेद की स्वराङ्कनपद्धति उनसे भिन्न है। उनमें १, २ तथा ३ अंकों द्वारा स्वरों को सूचित किया जाता है। कहीं-कहीं इन अंकों के साथ र, क तथा उ अक्षर भी लिखे जाते हैं। नियम निम्नलिखित हैं-

     १. सामान्यतः उदात्त अक्षर पर १ का, स्वरित पर २ का और अनुदात्त पर ३ का अंक लिखा जाता है। यथा-वीतये, बर्हिषि (साम १)।

     २. यदि उदात्त से परे अनुदात्ततर हो तो उदान पर २ का अंक लिखा जाता है। यथा-अंग्न आ (साम १) और यज्ञाना होता (साम २) में अनुदात्ततर पर होने के कारण क्रमश: उदात्त अ तथा ज्ञा पर २ का अंक है।

     ३. यदि अनुदात्ततर जिनके परे है ऐसे दो या अधिक उदात्त इकट्ठे हों तो प्रथम उदात्त पर २ अंक के साथ 3 अक्षर भी लिखा जाता है, शेप उदात्त अंकित रहते हैं। यथा-आदित् प्रत्नस्य (साम २०). यं समिदन्य इन्धते (साम ६०)। प्रथम उदाहरण में अनुदात्ततर से पूर्व आ, दि दो उदात्त हैं तथा द्वितीय उदाहरण में यं, , मि तौन उदात्त हैं।

    ४. यदि उदात्त से परे विराम-चिह्न हो तो भी उदात्त पर २ का अंक लिखा जाता है। यथा-हितः। (साम २), गिरा। (साम ८)।

    ५. यदि विराम जिनके परे है ऐसे दो या अधिक उदात्त इकट्ठे हों तो प्रथम उदात्त पर ही २ का अंक लिखा जाता है, शेप उदात्त अनंकित रहते हैं। यथा-महाँ हि षः। (साम ३८१)। यहाँ हाँ, हि, प: ये तीन उदात्त विराम से पूर्व इकठे हैं।

     ६. यदि दो या अधिक उदात्त इकट्ठे आये हों तथा उनसे परे स्वरित हो तो प्रथम उदात्त पर १र लिखा जाता है. शेप उदात्त अनङ्गित रहते हैं और स्वरित पर रर लिखते हैं। यथा-नि होता (साम १), युक्ष्वा हि ये तवाश्वासो (साम २५)।

    ७. यदि स्वतन्त्र स्वरित (जात्य, क्षेत्र प्रश्लिष्ट या अभिनिहित स्वरित) से पूर्व अनुदात्त अक्षर हो तथा परे अनुदात्ततर, एकश्रुति या विराम हो तो स्वरित पर र तथा पूर्ववर्ती अनुदात्त पर ३क लिखते हैं। यथा, अनुदात्ततर परे होने पर-विश्व स्वदृशे (साम ८९१), चम्बोः सुत (साम ४९०)। एकश्रुति पर होने पर-चार्याय चोदय (साम..१५०७). याज्यस्थात् (साम ५३१)। विराम परे होने पर-वीर्यम्। (साम ९५). वरूथ्यः । (साम ४४८), गौर्यः (साम ४०९)।

    ८. नियम-संख्या ७ की स्थिति में यदि स्वरित से पूर्व अनुदात्त न हो, प्रत्युत स्वरित ऋचा के या अर्धर्च के आदि में आता हो तो भी स्वरित पर र लिखते हैं। यथा क्वेयथ क्वेदसि (साम २७१), यस्मिन् दध (साम ७२७), नीव शीर्षाणि (साम १६५६)।

     ९. स्वरित से परे एक या अधिक अनुदात्तों को जो एकश्रुति या प्रर्चय स्वर होता है उसे सूचित करने के लिए ऋग्वेद के समान सामवेद में भी कोई चिह्न नहीं है। वह अनांकित ही रहता है। यथा।

   अग्निषत्राणि जयनद् द्रविणस्युर् (साम ४) में अनद्धित 'जवानद् द्रविण' एकश्रुति या प्रचय है।

     १०. एक से अधिक अनुदात्त इकट्ठे आय तो प्रथम अनुदात्त पर ही,३ का अंक लिखा जाता है, शेष अनङ्कित रहते हैं। यथा-और्वभृगुषत् (साम १८)।

    ११. उदात्त या स्थरित परे होने पर जो अनुदात्त को अनुदात्ततर होता है, उसके लिए कोई पृथक् चिह्न नहीं है, वह अनुदात्त के समान ३ के अंक से प्रदर्शित किया जाता है।

स्वरित में कम्प

      उदात्त स्वर पर स्वतन्त्र स्वरित होने पर (जात्य, क्षैप्र, प्रश्लिाष्ट और अभिनिहित स्वरित) कम्पसहित उच्चारण किया जाता है। सामवेद में इसे सूचित करने के लिए स्थरित पर २ का अंक लगाकर प्लुत के सदृश लिखने की पद्धति है। यथा

    जात्य स्वरित-क्वाइस्य (साम १४२)। क्षेप स्वरित-पाधूश्त (साम १५४४)। अभिनिहित स्वरित वृधऽस्माँ (साम २३९)।

    स्वरित के कम्प का विधान ऋक्प्रातिशाख्य में इन शब्दों में किया गया है

जात्योऽभिनिहितश्चैव क्षेप्रः प्रश्लिष्ट एव च।

एते स्वराः प्रकम्पन्ते यत्रोच्चस्वरितोदयाः।।-ऋ०प्रा० ३।३४

    अर्थात् उदात्त या स्वरित परे हो तो जात्य, अभिनिहित, क्षेत १. प्रश्लिष्ट स्वरित के कम्प का उदाहरण सामवेद में उपलब्ध नहीं हुआ। ऋग्वेद का उदाहरण है-अभीश्चम् (ऋ० १०।४८०)यहाँ 'अभि इदम्' में उदात्त तथा अनुदान इ की प्रश्लिष्ट सन्धि होने पर एकादेश ईस्वरित होता है। उदाजद परे होने पर उसका कम्पसहित उच्चारण होता है।  

    और पश्लिष्ट स्परित कम्म के साथ उच्चारित होते है।

    यह स्वरित दो प्रकार का होता है-हस्व तथा दीर्घ। ऋग्वेद में कम्पयुक्त हस्व तथा दीर्थ स्वरितों को लिखने की पद्धति यह है

हस्व-पाा त-ऋ० ८६०९ दीर्च वृधेईस्माँ-ऋ० ८।३।२

    परन्तु सामवेद में सकम्प हस्व एवं दीर्थ दोनों स्वस्तिों को एक ही प्रकार से प्लुत की पद्धति से लिखा जाता है। यथा

हस्व-पारश्त-साम० ३६.१५४४ दीर्घ-वृधे३ऽस्मा-साम० २३९

सामवेद में सकम्प दीर्घ स्वरित केवल मन्या, पथ्या, 'मा न इन्द्राभ्या दिश:'. सन्ध्यभर ए-ओ और 'शग्ध्यू पु' आदि। (जहाँ इ-ज की सन्धि तथा दीर्घ हुआ होता है) में पाया जाता है। यथा

समन्याश्वसानो (साम १४००). पथ्याअनु (१५७७), मा न इन्द्राभ्याइदिशः (१२८). तन्व३चाररेधि (६५), जुहोमम (१५४२). शग्ध्यू ३षु शचीपते (२५३)।

इनसे अतिरिक्त स्थलों में सकम्प हस्व स्वरित है। यथा

न्या३त्रिणम् (साम २२), इत्यांश्चरन् (६४), प्रतीव्यांश्यजस्व (१०३), क्वारस्य (१४२), त्वाइस्य (१६५). त्वाद्य (२९५), उवथ्या मिन्द्र (३७४), अप्स्वाइन्तरा (४१७.५१२). उर्वा३न्तरिक्ष (६०४)।

    इस प्रकरण में यह उल्लेखनीय है कि 'यदि स्वतन्त्र स्वरित (पूर्वोक्त जात्य, क्षेत्र, प्रश्लिष्ट तथा अभिनिहित स्वरित) से पूर्व और पर दोनों स्थलों में उदात्त रहता है तब उस कम्पित स्वरित पर २ का अंक नहीं लिखा जाता, प्रत्युत उससे पूर्व के उदात्त पर २ का अंक लिखते हैं। यदि पूर्व एकाधिक उदास हो तो प्रथम उदात्त पर २ का अंक लिखा जाता है, शेप उदात्त अनङ्कित रहते हैं। यथा

     विद्धौ त्वाश्स्य (साम १३२). त्वं ह्या (५८३), से न ऊर्जे व्याश्व्ययं (१४३८), दृशे के स्वाक्षर्ण (१४४७)।

    १. इकारान्ते पदे चैव उकारद्वयपदे परे। दीर्घ कम्मं विजानीयात् शम्ध्यूप्विति निदर्शनम।। प्रयो दीर्घास्तु विज्ञेया वे च सन्ध्यक्षरेषु वै। मन्या, पथ्या, न इन्द्राभ्यारशेपा हस्वाः प्रकीर्तिताः।-नारद शिक्षा

   

     कम्प का अभिप्राय

   कम्प स्वतन्त्र स्वरित से परे उदात्त वर्ण आन पर ही होता है, यह हम देख चुके है। स्वरित में उदात्त और अनुदात्त का मिश्रण होता है। पूर्वोक्त सकम्प स्वतन्त्र स्वरितों (जात्य, क्षेत्र, प्रश्लिष्ट तथा अभिनिहित) के विषय में यह नियम है कि उनका पूर्वभाग उदात्ततर तथा शेष भाग अनुदात् उच्चारित होता है। स्वरित से परे जब उदात् अक्षर होता है, तब "उदात्ततर अनुदात्त-उदात्" यह क्रम हो जाने पर उच्चारण में श्रम होना स्वाभाविक है, क्योंकि उदात्ततर उच्चारण करने के तुरन्त बाद अनुदात्त अंश का उच्चारण करने के लिए ध्वनि को नीचे उतरना पड़ता है और फिर परवर्ती उदात्त का उच्चारण करने के लिए पुन: ध्वनि को तुरन्त ऊपर चढ़ना पड़ता है। इस प्रकार मध्य के अनुदात्त अंश में सकम्प उच्चारण होता है।

Post a Comment

0 Comments

Ad Code