पात॑जल योग दर्शन
भूमिका
योग का अर्थ है “मिलना, “जुड़ना', “संयुक्त होना' आदि। जिस विधि से साधक अपने प्रकृति जन्य विकारों को त्याग कर अपनी आत्मा के साथ संयुक्त होता है वही “योग” है। यह आत्मा ही उसका निज स्वरूप है तथा यही उसका स्वभाव है। अन्य सभी स्वरूप प्रकृति जन्य हैं जो अज्ञानवश अपने ज्ञात होते हैं। इन मुखौटों को उतारकर अपने वास्तविक स्वरूप को उपलब्ध हो जाना ही योग है। यही उसकी 'कैवल्यावस्था' तथा 'मोक्ष' है। योग की अनेक विधियाँ हैं । कोई किसी का भी अवलम्बन करे अन्तिम परिणाम वही होगा। विधियों की भिन्नता के आधार पर योग के भी अनेक नाम हो गये हैं जैसे--राजयोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, संयासयोग, बुद्धियोग, हठयोग, नादयोग, लययोग, बिन्दुयोग, ध्यानयोग, क्रियायोग आदि किन्तु सबका एक ही ध्येय है उस पुरुष (आत्मा) के साथ अभेद सम्बन्ध स्थापित करना।
महर्षि पतंजलि का यह योग दर्शन इन सब में श्रेष्ठ एवं ज्ञानोपलब्धि का विधिवत मार्ग बताता है जो शरीर, इन्द्रियों तथा मन को पूर्ण अनुशासित 'करके चित्त की वृत्तियों का निरोध करता है। पतंजलि चित्त की वृत्तियों के निरोध को ही 'योग' कहते हैं क्योंकि इनके पूर्ण निरोध से आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाती है। इस निरोध के लिए वे अष्टाँग योग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये योग के आठ अंग हैं) का मार्ग बताते हैं जो निरापद है। इसलिए इसे अनुशासन कहा जाता है जो परम्परागत तथा अनादि है। इसके मार्ग पर चलने से किसी प्रकार का भय नहीं है तथा कोई अनिष्ट भी नहीं होता, न मार्ग में कहीं अवरोध ही आता है। जहाँ-जहाँ अवरोध आते हैं उनका इस ग्रंथ में स्थान-स्थान पर वर्णन कर दिया है जिससे साधक इनसे बचता हुआ अपने गन्तव्य तक पहुँच सकता है।
योग की मान्यतानुसार “प्रकृति' तथा 'पुरुष' (चेतन आत्मा) दो भिन्न तत्व हैं जो अनादि हैं। इन दोनों के संयोग से ही इस समस्त जड़ चेतन मय सृष्टि का निर्माण हुआ है। प्रकृति जड़ है जो सत्व, रज तथा तम तीन गुणों से युक्त है। इसके साथ जब चेतना (पुरुष) का संयोग होता है तब उसमें हलचल होती है तथा सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ होती है। यह “प्रकृति दृश्य' है तथा ' पुरुष दृष्टा' है। इस सृष्टि में सर्वत्र प्रकृति ही दिखाई देती है, पुरुष कहीं दिखाई नहीं देता किन्तु प्रकृति का यह सम्पूर्ण कार्य उस पुरुष तत्व की प्रधानता से ही हो रहा है। ये दोनों इस प्रकार संयुक्त हो गये हैं कि इन्हें अलग-अलग पहचानना कठिन है। इसका कारण अविद्या है।' पुरुष' सर्वज्ञ है तथा प्रकृति के हर कण में व्याप्त होने से वह सर्व-व्यापी भी है। जीव भी इन दोनों के ही संयोग का परिणाम है। उस ' पुरुष' को शरीर में ' आत्मा' तथा सृष्य में “विश्वात्मा' कहा जाता है जिसे योग दर्शन में 'पुरुष विशेष' कहा है। इसलिए यह ईश्वर दर्शन है।
यह त्रिगुणात्मक प्रकृति ' अलिंग' स्वरूप ' अव्यक्त अवस्था में रहती है। जब इस चेतन पुरुष में सृष्टि विस्तार का संकल्प होता है तो वह इस माया स्वरूपा प्रकृति का स्वेच्छा से वरण करता है। भगवान् कृष्ण ने गीता में कहा है--'' हे अर्जुन ! मेरी महत् ब्रह्मरूप प्रकृति अर्थात् त्रिगुणमयी माया सम्पूर्ण भूतों की योनि है अर्थात् गर्भाधान का स्थान है और मैं उस योनि में चेतन रूप बीज का स्थापन करता हूँ। उस जड़-चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है।'” (गीता १४/३) । इसी प्रकृति और पुरुष के संयोग के परिणाम स्वरूप “महत्त्व” (चित्त) को उत्पत्ति होती है जो इसकी प्रथम संतान है। इसके शरीरस्थ स्वरूप को 'चित्त' तथा सृष्टि में इसे 'महत्तत्व' कहा जाता है जो लिंग मात्र अवस्था में रहता है। प्रकृति के इन तीन गुणों के तीन धर्म हैं। सत्व गुण का धर्म 'प्रकाश- ज्ञान' है, रजोगुण का धर्म 'क्रिया-गति' है तथा तमोगुण का धर्म 'जड़ता- स्थिति-सुषुप्ति ' है। इसी चित्त में अहंकार उत्पन्न होता है जिससे वह अपनी स्वतन्त्र सत्ता मानने लगता है। यही उसकी 'अस्पमिता' है। इसी अहंकार से मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, तन्मात्राएँ तथा महाभूतों की रचना होती है तथा इन गुणों की परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया स्वरूप अन्य तत्वों का निर्माण होता है | प्रकृति तथा पुरुष के संयोग के कारण जिस क्रम से जीव का विकास होता है, उसके उल्टे क्रम से चलने पर अंतिम स्तर पर पहुँचकर साधक को पुन: इन दोनों की भिन्नता का ज्ञान हो जाता है तथा यह भी ज्ञान हो जाता है इस संयोग का कारण अविद्या अथवा अज्ञान है। जब इर।अज्ञान का आवरण हटता है तभी साधक को अपने वास्तविक स्वरूप उस चेतन आत्मा का ज्ञान होता है। इसके बाद प्रकृति अपने कारण में लय हो जाती है तथा आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाती है। यही उसका 'कैवल्य' तथा 'मोक्ष' है जिसे प्राप्त कर वह सदा के लिए इस जन्म- मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है । इसी को 'योग' कहा जाता है । गीता में कहा है, “'यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परम मम ''। (गीता १५/६) जीव की उत्पत्ति उस चैतन्य आत्मा से है तथा पुन: उसी को उपलब्ध हो जाना उसकी अंतिम परिणति है, यही उसका गन्तव्य स्थान है।
यह योग दर्शन अपने आप में पूर्ण, सार्वभौम एवं वैज्ञानिक है। इसमें न सम्प्रदाय की बू है, न धार्मिक संकीर्णता। इसका प्रयोग देश, काल, धर्म, जाति, लिंग आदि की भिन्लतता को ध्यान में रखे बिना किया जा सकता है। यह मानव जाति की अमूल्य धरोहर है किन्तु साधकों को इस बात का स्मरण रखना चाहिए कि जिस प्रकार तैरना सीखने के लिए पुस्तकीय ज्ञान काम नहीं आता, उसे तो पानी में कूदकर ही प्राप्त किया जाता है उसी प्रकार किसी भी ग्रन्थ को पढ़ लेने मात्र से आत्मज्ञान नहीं होता तथा बिना आत्मज्ञान के मुक्ति नहीं होती। इस ज्ञान को किसी गुरु के मार्ग-दर्शन में स्वयं ही प्राप्त करना पड़ता है। सभी ग्रन्थ केवल मार्ग दर्शन ही करते हैं, चलना तो स्वयं को ही पड़ेगा। पहुँचने के लिए साधना आवश्यक है। इस ग्रन्थ में दिखाया गया मार्ग अपने आप में पूर्ण है। जो इसके अनुसार बढ़ता है उसको इसका अन्तिम फल 'मोक्ष' की उपलब्धि अवश्य होती है यह निश्चित है।
इस ग्रन्थ की व्याख्या का उद्देश्य सामान्य जनों में योग साधना के प्रति रुचि जाग्रत हो तथा वे इसके मार्ग पर चलने को तत्पर हो जायें। इसलिए इसमें शब्दार्थो पर अधिक जोर न देकर उसे पाठ्य-पुस्तक बनाने की अपेक्षा भावों को प्रधानता दी गई है जिससे यह कठिन विषय बोधगम्य हो सके।
अन्त में मैं उन सबका आभारी हूँ जिनकी ज्ञात तथा अज्ञात प्रेरणा एवं मार्ग दर्शन से इसे पूर्ण करने में मुझे सहायता मिली है।
--अनुवादक
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