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योगदर्शन समाधिपाद सूत्र 1-5

योगदर्शन समाधिपाद

अथ योगानुशासनम्‌

 

 

अथ- अब; योगानुशासनम्‌-परम्परागत योगविषयक शास्त्र आरम्भ करते हैं ।

 

अनुवाद--- अब परम्परागत योग विषयक शास्त्र आरम्भ करते हैं ।

 

    व्याख्या--योग की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। यह सम्पूर्ण सृष्टि प्रकृति ' तथा पुरुष के संयोग की ही अभिव्यक्ति है। इसलिए इसके हर कण में वह पुरुष (चेतन) तत्व व्याप्त है। प्रकृति जड़ है जो पुरुष के संयोग से ही अपनी अभिव्यक्ति की क्षमता प्राप्त करती है। जीव का विकास भी इन दोनों के संयोग का ही परिणाम है। ये दोनों तत्व इस प्रकार संयुक्त हैं कि इनकी भिन्‍नता का ज्ञान सामान्य जन को नहीं होता। प्रकृति ' दृश्य' है तथा पुरुष 'दृष्टा '। जीव में जो आत्म तत्व है वही पुरुष है तथा प्रकृति को उसने अपने कार्य सम्पादन के लिए ग्रहण किया है इसलिए इस जीव का वास्तविक स्वरूप उसकी यह चैतन्य स्वरूप आत्मा ही है जिसने प्रकृति को अपना माध्यम बनाया है। जीव में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, शरीर, इन्द्रियाँ आदि इन दोनों के संयुक्त रूप का प्रतिफल है। 'चित्त' इन दोनों के संयोग का प्रथम रूप है जिसमें एक ओर सांसारिक भोग की वासनाएँ निहित हैं तथा दूसरी ओर यह 'पुरुष' की ओर आकर्षित होकर जीव के लिए मुक्ति का मार्ग दिखाता है। यही उसकी 'अविद्या' तथा 'विद्या' शक्ति है। अविद्या ही जीव को संसार के भोगों की ओर आकर्षित करती है किन्तु इसका विनाश होने पर मनुष्य में विद्या जनित संस्कार दृढ़ होकर उसे मुक्ति दिलाते हैं। इस स्थिति में वह चैतन्य आत्मा प्रकृति के साथ अपने संयोग को छोड़कर पुन: अपने रूप में स्थित हो जाती है। यही जीव की 'कैवल्य' अथवा “मोक्ष' की अवस्था है।

 

       यह योग दर्शन उन समस्त विधियों का प्रतिपादन करता है जिससे साधक अपने प्रकृतिजन्य समस्त विकारों को दूर कर उस आत्मा के साथ संयुक्त होता है। इस आत्म स्वरूप की उपलब्धि के लिए वह शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार आदि का पूर्ण परिशोधन कर उन्हें इस योग्य बना देता है कि वह वास्तविक स्वरूप आत्मा को पहचान सके तथा उसी में स्थित हो जाए। इन सबके लिए एक ही विधि है। चित्त की वृत्तियों का निरोध'” जिनके लिये ये आठ साधन हैं यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि। इन साधनों के विधिवत्‌ अनुष्ठान से ही मनुष्य उस परम पद को प्राप्त करता है।

 

    महर्षि पतंजलि ऐसे ही समस्त मानवोपयोगी ग्रन्थ योग दर्शन का आरम्भ करते हुए इस प्रथम सूत्र में कहते हैं कि अब इस परम्परागत योग शास्त्र का आरम्भ करते हैं। यह शास्त्र एक अनुशासन है जिससे चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है एवं मनुष्य अपने आत्म स्वरूप में स्थित हो जाता है।

 

 

सूत्र-- २

योगश्चित्तवृत्तिनिरोध: ।

योगचित्तवृत्तिनिरोध:-चित्त की वृत्तियों का निरोध (सर्वथा रुक जाना) ; योगः -योग है।

 

    अनुवाद-- चित्त की वृत्तियों का सर्वथा रुक जाना (निरोध) “योग है।

 

     व्याख्या--इस सूत्र में कहा गया है कि चित्त की वृत्तियों का सर्वथा रुक जाना ही 'योग' है। योग संकल्प की साधना है। यह अपनी इन्द्रियों को वश में कर चेतन आत्मा से संयुक्त होने का विज्ञान है। यह हिन्दू, मुस्लिम, जैन, ईसाई में भेद नहीं करता। यह न शास्त्र है, न धर्म ग्रन्थ। यह एक अनुशासन है मनुष्य के शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि को पूर्ण अनुशासित करने वाला विज्ञान है। चित्त वासनाओं का पुंज है। अनेक जन्मों के कर्म-संस्कार इसमें विद्यमान हैं जिससे हमेशा इसमें वासना की तरंगें उठती रहती हैं। चैतन्य आत्मा इससे परे है। जब तक महासमुद्र में तरंगें उठती रहती हैं तब तक चन्द्रमा का बिम्ब उसमें स्पष्ट दिखाई नहीं देता इसी प्रकार चित्त में वासना की तरंगों के निरन्तर उठते रहने से आत्म-ज्योति का बोध नहीं होता (योग नहीं होता) । इसलिए पतंजलि कहते हैं कि चित्त की वृत्तियों का सर्वथा रुक जाना ही 'योग' है, इसी से चैतन्य आत्मा का ज्ञान होगा तथा इसी ज्ञान से मोक्ष होगा। ये चित्त की वृत्तियाँ बहिर्मुखी हैं जो सदा संसार की ओर ही भागती हैं इसलिए मन सदा चंचल बना रहता है। इन वृत्तियों की तरंगों को सर्वथा रोक देने से ही योग हो जाता है। अन्य कुछ करना नहीं पड़ता। बुद्धि और मन चित्त की ही अवस्थाएँ हैं। इस चित्त-वृत्ति निरोध को 'अमनी-अवस्था' भी कहते हैं। कबीर ने इसे 'सुरति' कहा है। इसके स्थिर होने पर साधक केवल साक्षी या दृष्टा मात्र रह जाता है, वासनाएँ सभी छूट जाती हैं। यही आत्म-ज्ञान को स्थिति है। पतंजलि ने बहुत ही संक्षेप में समस्त योग का सार एक ही सूत्र में रख दिया कि “चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।' यही सारभूत सत्य है।

 

 

सूत्र 3

तदा द्रुष्टु: स्वरूपेडउवस्थानम ।

तदा-उस समय; द्रष्टु:-द्रष्टा की; स्वरूपे-अपने रूप में; अवस्थानम्‌-स्थिति हो जाती है।

 

    अनुवाद-- उस समय दृष्टा (आत्मा) की अपने रूप में स्थिति हो जाती है।

 

    व्याख्या--आत्मा चैतन्य है। वह दृष्यटा एवं साक्षी है। किन्तु वह निष्क्रिय दृष्टा मात्र नहीं है। वह प्रकृतिजन्य किसी भी क्रिया में स्वयं भाग नहीं लेता किन्तु वह सभी क्रियाओं का कारण और उनकी प्रेरक शक्ति है। चित्त की वृत्तियाँ जड़ हैं जिनके निरोध से चैतन्य आत्मा अपने शुद्ध रूप में अवस्थित हो जाती है। यही 'कैवल्य' अथवा “मोक्ष' की स्थिति है। जिस प्रकार शुद्ध स्वर्ण में मिलावट करने पर विभिन्‍न प्रकार के स्वर्णाभूषण बनाए जाते हैं किन्तु उसके परिशोधन से मिलावट को निकालकर पुन: शुद्ध स्वर्ण प्राप्त किया जाता है ऐसी ही प्रक्रिया योग की है जिससे प्रकृति अन्य समस्त तत्वों को अलग कर शुद्ध आत्म तत्व की उपलब्धि की जाती है। इसमें आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाती है जो उसका शुद्ध स्वरूप है।

 

 

सूत्र--४

वृत्तिसारूप्यमितरत्र।

इतरत्र-दूसरे समय में (द्रष्टा का); वृत्तिसारूप्यम्‌-वृत्ति के सदृश स्वरूप होता है।

    अनुवाद- दूसरे समय में (दृष्टा-आत्मा का) वृत्ति के सदृश स्वरूप होता है।

व्याख्या--जब चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाता है तभी आत्मा (दृष्ट) की अपने स्वरूप में स्थिति होती है किन्तु अन्य समय में जब तक उस आत्मा का संयोग वृत्तियों के साथ रहता है उसका स्वरूप वृत्तियों के सदृश होता है। यह आत्मा वृत्तियों के साथ मिलकर वृत्तियों के समान ही अन्य वस्तुओं को देखती है किन्तु स्वयं को नहीं देख सकती। इसे निज स्वरूप का ज्ञान नहीं होता किन्तु जब वृत्तियाँ रुक जाती हैं तभी इसे अपने स्वरूप का ज्ञान होता है इससे पूर्व नहीं। जिस प्रकार आइने में देखने पर आसपास की सभी वस्तुएँ दिखाई देती हैं । किन्तु इन्हें देखने वाली आँख दिखाई नहीं देती तथा देखने वाली आँख के देखने पर अन्य कुछ भी दिखाई नहीं देता इसी प्रकार की दृष्टा (आत्मा) की स्थिति है। चित्त का कारण प्रकृति है तथा इसमें भेद दिखाई देने का कारण बुद्धि है। मोटे तौर पर चित्त की दो ही वृत्तियाँ हैं--वृत्ति सारूप्य तथा वृत्ति वैरूप्य। इसी को 'विद्या' और 'अविद्या' कहते हैं । जब चित्त आत्मा की ओर आकर्षित होता है तो वह 'विद्या' है किन्तु जब वह वृत्तियों के अनुरूप वासना के कारण संसार की ओर आकर्षित होता है तो 'अविद्या' है। महर्षि पतंजलि ने समस्त योग का सार इन चार ही सूत्रों में समाहित कर दिया। जो इनको ठीक प्रकार से समझ लेता है वह योग को भली भाँति समझ सकता है। आगे के सूत्रों में इन्हीं चारों का विस्तार है।

 

 

सूत्र--५

वृत्तय: पञ्चतय्य: क्लिष्टाउक्लिष्टा: (उपर्युक्त) क्लिष्टाक्लिष्टा:-क्लिष्ट और अक्लिष्ट (भेदोंवाली); वृत्तय:-वृत्तियाँ; पदञ्चतय्यः-पाँच प्रकार की (होती हैं)।

अनुवाद-- वृत्तियोँ पाँच प्रकार की हैं और उनके प्रत्येक के 'क्लिष्ट' और 'अक्लिष्ट ' दो-दो भेद हैं।

 

    व्याख्या--चित्त में वासना एवं पूर्व कर्म संस्कारों के कारण अनेक प्रकार की तरंगें उठती हैं किन्तु मुख्यतया ये पाँच प्रकार की हैं तथा प्रत्येक क्लिष्ट और अक्लिष्ट दो प्रकार की होती है। क्लिष्ट वृत्ति अविद्या जनित है तथा दु:खों को बढ़ाती है। इसके विपरीत अक्लिष्ट वृत्ति विद्या जनित है जो सुख एवं आनन्द को देने वाली होती है । एक ही वृत्ति जब बाहर संसार की ओर देखती है तो वह दुःख का-कारण बनती है तथा वह योग साधन में बाधा स्वरूप होती है किन्तु जब वही वृत्ति आत्मा की ओर देखती है तो वह सुख का कारण बनती है इसे अक्लिष्ट कहते हैं। सांख्य में इस चित्त को ही प्रकृति कहा गया है जिसके कई भेद बताए गए हैं । यहाँ इसी प्रकृति को चित्त तथा इसके भेदों को वृत्तियाँ कहा है। यह प्रकृति तीन गुणों (सत्य, रज और तम) से युक्त है। सारी सृष्टि का विस्तार इन्हीं गुणों के आधार पर हुआ है तथा दृष्टा (आत्मा) इसे मात्र देख रहा है। इन तीनों गुणों की मात्रा की भिन्‍नता से प्रकृति तत्वों में भिन्‍नता दिखाई देती है। शरीर में जो “चित्त! है वहीं सृष्टि में “महत्तत्व' कहा जाता है। वास्तव में इसके भेद दो ही हैं--' विद्या' और 'अविद्या' अथवा 'अविपर्यय' और “विपर्यय'। अविद्या और विपर्यय दुःख का कारण है तथा विद्या और अविपर्यय योग का कारण है जिससे सुख व आनन्द की प्राप्ति होती है। साधक पहले अक्लिष्ट वृत्तियों से क्लिष्ट को हटाता है, फिर उन अक्लिष्ट वृत्तियों का भी निरोध करता है जिससे योग सिद्ध होता है। इन वृत्तियों का आगे विस्तार से वर्णन किया गया है।

 


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