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स्वार्थी जीवन मृत्यु से बुरा है।

 


👉 स्वार्थी जीवन मृत्यु से बुरा है।

 

🔶 यूनान के संत सुकरात कहा कहते थे कि “यह पेड़ और आरण्य मुझे कुछ नहीं सिखा सकते, असली शिक्षा तो मुझे सड़कों पर मिलती है।” उनका तात्पर्य यह था कि दुनिया से अलग होकर एकान्त जीवन बिताने से न तो परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है और न आत्मोंनति हो सकती है। अपनी और दूसरों की भलाई के लिए संत पुरुषों को समाज में भरे बुरे लोगों के बीच में अपना कार्य जारी रखना चाहिये।

 

🔷 संत सुकरात जीवन भर ऐसी ही तपस्या करते रहे। वे गलियों में, चौराहों पर, हाट बाजारों में, दुकानों और उत्सवों में बिना बुलाये पहुँच जाते और बिना पूछे भीड़ को संबोधित करके अपना व्याख्यान शुरू कर देते। उनका प्रचार तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों और अनीतिपूर्ण शासन के विरुद्ध होता, उनके अन्तःकरण में सत्य था। सत्य में बड़ी प्रभावशाली शक्ति होती है। उससे अनायास ही लोग प्रभावित होते हैं।

 

🔶 उस देश के नवयुवकों पर सुकरात का असाधारण असर पड़ा, जिससे प्राचीन पंथियों और अनीति पोषक शासकों के दिल हिलने लगे, क्योंकि उनके चलते हुए व्यापार में बाधा आने की संभावना थी। सुकरात को पकड़ लिया गया, उन पर मुकदमा चला जिसमें दो इल्जाम लगाये गए। 1। प्राचीन प्रथाओं का खंडन करना, 2। नवयुवकों को बरगलाना। इन दोनों अपराधों में विचार करने के लिये न्याय सभा बैठी, सभासदों में से 220 की राय छोड़ देने की थी और 281 की राय मृत्यु दंड देने की हुई। इस प्रकार बहुमत से मृत्यु का फैसला हुआ। साथ ही यह भी कहा गया कि यदि वह देश छोड़ कर बाहर चले जाये या व्याख्यान देना, विरोध करना बन्द कर दे तो मृत्यु की आज्ञा रद्द कर दी जायेगी।

 

🔷 सुकरात ने मुकदमे की सफाई देते हुए कहा-”कानून मुझे दोषी ठहराता है। तो भी मैं अपने अन्तरात्मा के सामने निर्दोष हूँ। दोनों अपराध जो मेरे ऊपर लगाये गये हैं, मैं स्वीकार करता हूँ कि वे दोनों ही मैंने किये हैं और आगे भी करूंगा। एकान्त सेवन करके मुर्दे जैसा बन जाने का निन्दित कार्य कोई भी सच्चा संत नहीं कर सकता। यदि मैं घोर स्वार्थी या अकर्मण्य बन कर अपने को समाज से पृथक कर लूँ और संसार की भलाई की तीव्र भावनाएँ जो मेरे हृदय में उठ रही हैं, उन्हें कुचल डालूँ तो मैं ब्रह्म हत्यारा कहा जाऊंगा और नरक में भी मुझे स्थान न मिलेगा। मैं एकान्तवासी, अकर्मण्य और लोक सेवा से विमुख अनुदार जीवन को बिताना मृत्यु से भी अधिक कष्टदायक समझूंगा। मैं लोक सेवा का कार्य बन्द नहीं कर सकता, न्याय सभा के सामने मैं मृत्यु को अपनाने के लिये निर्भयता पूर्वक खड़ा हुआ हूँ।”

 

🔶 संसार का उज्ज्वल रत्न, महान दार्शनिक संत सुकरात को विष का प्याला पीना पड़ा। उसने खुशी से विष को होंठों से लगाया और कहा-”स्वार्थी एवं अनुपयोगी जीवन बिताने की अपेक्षा यह प्याला मेरे लिये कम दुखदायी है।” आज उस महात्मा का शरीर इस लोक में नहीं है, पर लोक सेवा वर्ग का महान् उपदेश उसकी आत्मा सर्वत्र गुंजित कर रही है।

 

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य


👉 भिखारी का आत्मसम्मान

 

🔶 एक भिखारी किसी स्टेशन पर पेंसिलों से भरा कटोरा लेकर बैठा हुआ था। एक युवा व्यवसायी उधर से गुजरा और उसने कटोरे में 50 रुपये डाल दियालेकिन उसने कोई पेंसिल नहीं ली। उसके बाद वह ट्रेन में बैठ गया। डिब्बे का दरवाजा बंद  होने ही वाला था कि अधिकारी एकाएक ट्रेन से उतर कर भिखारी के पास लौटा और कुछ पेंसिल उठा कर बोला, “मैं कुछ पेंसिल लूंगा। इन पेंसिलों की कीमत हैआखिरकार तुम एक व्यापारी हो और मैं भी।” उसके बाद वह युवा तेजी से ट्रेन में चढ़ गया।

 

🔷 कुछ वर्षों बादवह व्यवसायी एक पार्टी में गया। वह भिखारी भी वहाँ मौजूद था। भिखारी ने उस व्यवसायी को देखते ही पहचान लियावह उसके पास जाकर बोला-” आप शायद मुझे नहीं पहचान रहे हैलेकिन मैं आपको पहचानता हूँ।”

 

🔶 उसके बाद उसने उसके साथ घटी उस घटना का जिक्र किया। व्यवसायी  ने कहा-” तुम्हारे याद दिलाने पर मुझे याद आ रहा है कि तुम भीख मांग रहे थे। लेकिन तुम यहाँ सूट और टाई में क्या कर रहे हो?”

 

🔷 भिखारी ने जवाब दिया, ” आपको शायद मालूम नहीं है कि आपने मेरे लिए उस दिन क्या किया। मुझे पर दया करने की बजाय मेरे साथ सम्मान के साथ पेश आये। आपने कटोरे से पेंसिल उठाकर कहा, ‘इनकी कीमत हैआखिरकार तुम भी एक व्यापारी हो और मैं भी।’

 

🔶 आपके जाने के बाद मैंने बहुत सोचामैं यहाँ क्या कर रहा हूँमैं भीख क्यों माँग रहा हूँमैंने अपनी जिंदगी को सँवारने के लिये कुछ अच्छा काम करने का फैसला लिया। मैंने अपना थैला उठाया और घूम-घूम कर पेंसिल बेचने लगा । फिर धीरे -धीरे मेरा व्यापार बढ़ता गयामैं कॉपी – किताब एवं अन्य चीजें भी बेचने लगा और आज पूरे शहर में मैं इन चीजों का सबसे बड़ा थोक विक्रेता हूँ।

 

🔷 मुझे मेरा सम्मान लौटाने के लिये मैं आपका तहेदिल से धन्यवाद देता हूँ क्योंकि उस घटना ने आज मेरा जीवन ही बदल दिया ।”

 

🔶 मित्रोंआप अपने बारे में क्या सोचते हैखुद के लिये आप क्या राय स्वयं पर जाहिर करते हैक्या आप अपने आपको ठीक तरह से समझ पाते हैइन सारी चीजों को ही हम अप्रत्यक्ष रूप से आत्मसम्मान कहते है। दूसरे लोग हमारे बारे में क्या सोचते है ये बाते उतनी मायने नहीं रखती या कहे तो कुछ भी मायने नहीं रखती लेकिन आप अपने बारे में क्या राय जाहिर करते हैक्या सोचते है ये बात बहुत ही ज्यादा मायने रखती है। लेकिन एक बात तय है कि हम अपने बारे में जो भी सोचते हैंउसका एहसास जाने अनजाने में दूसरों को भी करा ही देते है और इसमें कोई भी शक नहीं कि इसी कारण की वजह से दूसरे लोग भी हमारे साथ उसी ढंग से पेश आते है।

 

🔷 याद रखे कि आत्म-सम्मान की वजह से ही हमारे अंदर प्रेरणा पैदा होती है या कहे तो हम आत्म प्रेरित होते है। इसलिए आवश्यक है कि हम अपने बारे में एक श्रेष्ठ राय बनाएं और आत्मसम्मान से पूर्ण जीवन जीएं।

 

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