ऋग्वेद अध्याय-01 सूक्त-4 में 10 मंत्र है।
देवता: इन्द्र: ऋषि:
मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
सु॒रू॒प॒कृ॒त्नुमू॒तये॑
सु॒दुघा॑मिव गो॒दुहे॑। जु॒हू॒मसि॒ द्यवि॑द्यवि॥
surūpakṛtnum ūtaye sudughām
iva goduhe । juhūmasi dyavi-dyavi ।।
पद पाठ
सु॒रू॒प॒ऽकृ॒त्नुम्।
ऊ॒तये॑। सु॒दुघा॑म्ऽइव। गो॒ऽदुहे॑। जु॒हू॒मसि॑। द्यवि॑ऽद्यवि॥
अब चौथे सूक्त का
आरम्भ करते हैं। ईश्वर ने इस सूक्त के पहिले मन्त्र में उक्त विद्या के पूर्ण
करनेवाले साधन का प्रकाश किया है-
पदार्थान्वयभाषा(Material
language):-
जैसे दूध की इच्छा
करनेवाला मनुष्य दूध दोहने के लिये सुलभ दुहानेवाली गौओं को दोहके अपनी कामनाओं को
पूर्ण कर लेता है, वैसे हम लोग (द्यविद्यवि) सब
दिन अपने निकट स्थित मनुष्यों को (ऊतये) विद्या की प्राप्ति के लिये
(सुरूपकृत्नुम्) परमेश्वर जो कि अपने प्रकाश से सब पदार्थों को उत्तम रूपयुक्त
करनेवाला है, उसकी (जुहूमसि) स्तुति करते हैं॥१॥
भावार्थ भाषाः( Deep-spirit
Language):
इस मन्त्र में
उपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य गाय के दूध को प्राप्त होके अपने प्रयोजन को सिद्ध
करते हैं,
वैसे ही विद्वान् धार्मिक पुरुष भी परमेश्वर की उपासना से श्रेष्ठ
विद्या आदि गुणों को प्राप्त होकर अपने-अपने कार्य्यों को पूर्ण करते हैं॥१॥
सूक्त 04:
मंत्र 2
देवता: इन्द्र: ऋषि:
मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
उप॑ नः॒ सव॒ना ग॑हि॒
सोम॑स्य सोमपाः पिब। गो॒दा इद्रे॒वतो॒ मदः॑॥
upa naḥ savanā gahi somasya
somapāḥ piba । godā id revato madaḥ ।।
पद पाठ
उप॑। नः॒। सव॑ना। आ।
ग॒हि॒। सोम॑स्य। सो॒म॒ऽपाः॒। पि॒ब॒। गो॒ऽदाः। इत्। रे॒वतः॑। मदः॑॥
अगले मन्त्र में
ईश्वर ने इन्द्र शब्द से सूर्य्य के गुणों का वर्णन किया है-
पदार्थान्वयभाषा(Material
language):-
(सोमपाः) जो
सब पदार्थों का रक्षक और (गोदाः) नेत्र के व्यवहार को देनेवाला सूर्य्य अपने
प्रकाश से (सोमस्य) उत्पन्न हुए कार्य्यरूप जगत् में (सवना) ऐश्वर्य्ययुक्त
पदार्थों के प्रकाश करने को अपनी किरण द्वारा सन्मुख (आगहि) आता है, इसी से यह (नः) हम लोगों तथा (रेवतः) पुरुषार्थ से अच्छे-अच्छे पदार्थों
को प्राप्त होनेवाले पुरुष को (मदः) आनन्द बढ़ाता है॥२॥
भावार्थ भाषाः( Deep-spirit
Language):-
जिस प्रकार सब जीव
सूर्य्य के प्रकाश में अपने-अपने कर्म करने को प्रवृत्त होते हैं, उस प्रकार रात्रि में सुख से नहीं हो सकते॥२॥
सूक्त 04:
मंत्र 3
देवता: इन्द्र: ऋषि:
मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: विराड्गायत्री स्वर: षड्जः
अथा॑ ते॒ अन्त॑मानां
वि॒द्याम॑ सुमती॒नाम्। मा नो॒ अति॑ ख्य॒ आ ग॑हि॥
athā te antamānāṁ vidyāma
sumatīnām । mā no ati khya ā gahi ।।
पद पाठ
अथ॑। ते॒।
अन्त॑मानाम्। वि॒द्याम॑। सु॒ऽम॒ती॒नाम्। मा। नः॒। अति॑। ख्यः॒। आ। ग॒हि॒॥
जिसने सूर्य्य को
बनाया है,
उस परमेश्वर ने अपने जानने का उपाय अगले मन्त्र में जनाया है-
पदार्थान्वयभाषा(Material
language):-
हे परम ऐश्वर्ययुक्त
परमेश्वर ! (ते) आपके (अन्तमानाम्) निकट अर्थात् आपको जानकर आपके समीप तथा आपकी
आज्ञा में रहनेवाले विद्वान् लोग, जिन्हों की (सुमतीनाम्)
वेदादिशास्त्र परोपकाररूपी धर्म करने में श्रेष्ठ बुद्धि हो रही है, उनके समागम से हम लोग (विद्याम) आपको जान सकते हैं, और
आप (नः) हमको (आगहि) प्राप्त अर्थात् हमारे आत्माओं में प्रकाशित हूजिये, और (अथ) इसके अनन्तर कृपा करके अन्तर्यामिरूप से हमारे आत्माओं में स्थित
हुए सत्य उपदेश को (मातिख्यः) मत रोकिये, किन्तु उसकी
प्रेरणा सदा किया कीजिये॥३॥
भावार्थ भाषाः( Deep-spirit
Language):-
जब मनुष्य लोग इन
धार्मिक श्रेष्ठ विद्वानों के समागम से शिक्षा और विद्या को प्राप्त होते हैं, तभी पृथिवी से लेकर परमेश्वरपर्य्यन्त पदार्थों के ज्ञान द्वारा नाना
प्रकार से सुखी होके फिर वे अन्तर्यामी ईश्वर के उपदेश को छोड़कर कभी इधर-उधर नहीं
भ्रमते॥३॥
सूक्त 04:
मंत्र 4
देवता: इन्द्र: ऋषि:
मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
परे॑हि॒
विग्र॒मस्तृ॑त॒मिन्द्रं॑ पृच्छा विप॒श्चित॑म्। यस्ते॒ सखि॑भ्य॒ आ वर॑म्॥
parehi vigram astṛtam
indram pṛcchā vipaścitam । yas te sakhibhya ā varam ।।
पद पाठ
परा॑। इ॒हि॒।
विग्र॑म्। अस्तृ॑तम्। इन्द्र॑म्। पृ॒च्छ॒। वि॒पः॒ऽचित॑म्। यः। ते॒। सखि॑ऽभ्यः। आ।
वर॑म्॥
मनुष्य लोग विद्वानों
के समीप जाकर क्या करें और वे इनके साथ कैसे वर्तें, इस
विषय का उपदेश ईश्वर ने अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थान्वयभाषा(Material
language):-
हे विद्या की अपेक्षा
करनेवाले मनुष्य लोगो ! (यः) जो विद्वान् तुझ और (ते) तेरे (सखिभ्यः) मित्रों के
लिये (आवरम्) श्रेष्ठ विज्ञान को देता हो, उस
(विग्रम्) जो श्रेष्ठ बुद्धिमान् (अस्तृतम्) हिंसा आदि अधर्मरहित (इन्द्रम्)
विद्या परमैश्वर्य्ययुक्त (विपश्चितम्) यथार्थ सत्य कहनेवाले मनुष्य के समीप जाकर
उस विद्वान् से (पृच्छ) अपने सन्देह पूछ, और फिर उनके कहे
हुए यथार्थ उत्तरों को ग्रहण करके औरों के लिये तू भी उपदेश कर, परन्तु जो मनुष्य अविद्वान् अर्थात् मूर्ख ईर्ष्या करने वा कपट और स्वार्थ
में संयुक्त हो, उससे तू (परेहि) सदा दूर रह॥४॥
भावार्थ भाषाः( Deep-spirit
Language):-
सब मनुष्यों को यही
योग्य है कि प्रथम सत्य का उपदेश करनेहारे वेद पढ़े हुए और परमेश्वर की उपासना
करनेवाले विद्वानों को प्राप्त होकर अच्छी प्रकार उनके साथ प्रश्नोत्तर की रीति से
अपनी सब शङ्का निवृत्त करें, किन्तु विद्याहीन मूर्ख
मनुष्य का सङ्ग वा उनके दिये हुए उत्तरों में विश्वास कभी न करें॥४॥
सूक्त 04:
मंत्र 5
देवता: इन्द्र: ऋषि:
मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
उ॒त ब्रु॑वन्तु नो॒
निदो॒ निर॒न्यत॑श्चिदारत। दधा॑ना॒ इन्द्र॒ इद्दुवः॑॥
uta bruvantu no nido nir
anyataś cid ārata । dadhānā indra id duvaḥ ।।
पद पाठ
उ॒त। ब्रु॒व॒न्तु॒।
नः॒। निदः॑। निः। अ॒न्यतः॑। चित्। आ॒र॒त॒। दधा॑नाः। इन्द्रे॑। इत्। दुवः॑॥
ईश्वर ने फिर भी इसी
विषय का उपदेश मन्त्र में किया है-
पदार्थान्वयभाषा(Material
language):-
जो कि परमेश्वर की
(दुवः) सेवा को धारण किये हुए, सब विद्या धर्म और
पुरुषार्थ में वर्त्तमान हैं, वे ही (नः) हम लोगों के लिये
सब विद्याओं का उपदेश करें, और जो कि (चित्) नास्तिक (निदः)
निन्दक वा धूर्त मनुष्य हैं, वे सब हम लोगों के निवासस्थान
से (निरारत) दूर चले जावें, किन्तु (उत) निश्चय करके और
देशों से भी दूर हो जायें अर्थात् अधर्मी पुरुष किसी देश में न रहें॥५॥
भावार्थ भाषाः( Deep-spirit
Language):-
सब मनुष्यों को उचित
है कि आप्त धार्मिक विद्वानों का सङ्ग कर और मूर्खों के सङ्ग को सर्वथा छोड़ के ऐसा
पुरुषार्थ करना चाहिये कि जिससे सर्वत्र विद्या की वृद्धि, अविद्या की हानि, मानने योग्य श्रेष्ठ पुरुषों का
सत्कार दुष्टों को दण्ड, ईश्वर की उपासना आदि शुभ कर्मों की
वृद्धि और अशुभ कर्मों का विनाश नित्य होता रहे॥५॥
सूक्त 04:
मंत्र 6
देवता: इन्द्र: ऋषि:
मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
उ॒त नः॑ सु॒भगाँ॑
अ॒रिर्वो॒चेयु॑र्दस्म कृ॒ष्टयः॑। स्यामेदिन्द्र॑स्य॒ शर्म॑णि॥
uta naḥ subhagām̐ arir
voceyur dasma kṛṣṭayaḥ । syāmed indrasya śarmaṇi ।।
पद पाठ
उ॒त। नः॒। सु॒भगा॑न्।
अ॒रिः। वो॒चेयुः॑। द॒स्म॒। कृ॒ष्टयः॑। स्याम॑। इत्। इन्द्र॑स्य। शर्म॑णि॥
अब मनुष्यों को कैसा
स्वभाव धारण करना चाहिये, इस विषय का उपदेश ईश्वर ने
अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थान्वयभाषा(Material
language):-
हे (दस्म) दुष्टों को
दण्ड देनेवाले परमेश्वर ! हम लोग। (इन्द्रस्य) आप के दिये हुए (शर्मणि) नित्य सुख
वा आज्ञा पालने में (स्याम) प्रवृत्त हों, और ये
(कृष्टयः) सब मनुष्य लोग प्रीति के साथ सब मनुष्यों के लिये सब विद्याओं को
(वोचेयुः) उपदेश करें, जिससे सत्य के उपदेश को प्राप्त हुए
(नः) हम लोगों को (अरिः) (उत) शत्रु भी (सुभगान्) श्रेष्ठ विद्या ऐश्वर्ययुक्त
जानें वा कहें ॥६॥
भावार्थ भाषाः( Deep-spirit
Language):-
जब सब मनुष्य विरोध
को छोड़कर सब के उपकार करने में प्रयत्न करते हैं, तब
शत्रु भी मित्र हो जाते हैं, जिससे सब मनुष्यों को ईश्वर की कृपा
वा निरन्तर उत्तम आनन्द प्राप्त होते हैं ॥६॥
सूक्त 04:
मंत्र 7
देवता: इन्द्र: ऋषि:
मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
एमा॒शुमा॒शवे॑ भर
यज्ञ॒श्रियं॑ नृ॒माद॑नम्। प॒त॒यन्म॑न्द॒यत्स॑खम्॥
em āśum āśave bhara
yajñaśriyaṁ nṛmādanam । patayan mandayatsakham ।।
पद पाठ
आ। ई॒म्। आ॒शुम्।
आ॒शवे॑। भ॒र॒। य॒ज्ञ॒ऽश्रिय॑म्। नृ॒ऽमाद॑नम्। प॒त॒यत्। म॒न्द॒यत्ऽस॑खम्॥
परमेश्वर प्रार्थना
करने योग्य क्यों है, यह विषय अगले मन्त्र में
प्रकाशित किया है-
पदार्थान्वयभाषा(Material
language):-
हे इन्द्र परमेश्वर !
आप अपनी कृपा करके हम लोगों के अर्थ (आशवे) यानों में सब सुख वा वेगादि गुणों की
शीघ्र प्राप्ति के लिये जो (आशुम्) वेग आदि गुणवाले अग्नि वायु आदि पदार्थ
(यज्ञश्रियम्) चक्रवर्त्ति राज्य के महिमा की शोभा (ईम्) जल और पृथिवी आदि
(नृमादनम्) जो कि मनुष्यों को अत्यन्त आनन्द देनेवाले तथा (पतयत्) स्वामिपन को
करनेवाले वा (मन्दयत्सखम्) जिसमें आनन्द को प्राप्त होने वा विद्या के जनानेवाले
मित्र हों, ऐसे (भर) विज्ञान आदि धन को हमारे लिये
धारण कीजिये॥७॥
भावार्थ भाषाः( Deep-spirit
Language):-
ईश्वर पुरुषार्थी
मनुष्य पर कृपा करता है, आलस करनेवाले पर नहीं,
क्योंकि जब तक मनुष्य ठीक-ठीक पुरुषार्थ नहीं करता तब तक ईश्वर की
कृपा और अपने किये हुए कर्मों से प्राप्त हुए पदार्थों की रक्षा में समर्थ कभी
नहीं हो सकता। इसलिये मनुष्यों को पुरुषार्थी होकर ही ईश्वर की कृपा के भागी होना
चाहिये॥७॥
सूक्त 04:
मंत्र 8
देवता: इन्द्र: ऋषि:
मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
अ॒स्य पी॒त्वा
श॑तक्रतो घ॒नो वृ॒त्राणा॑मभवः। प्रावो॒ वाजे॑षु वा॒जिन॑म्॥
asya pītvā śatakrato ghano
vṛtrāṇām abhavaḥ । prāvo vājeṣu vājinam ।।
पद पाठ
अ॒स्य। पी॒त्वा।
श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। घ॒नः। वृ॒त्राणा॑म्। अ॒भ॒वः॒। प्र। आ॒वः॒। वाजे॑षु।
वा॒जिन॑म्॥
फिर भी परमेश्वर ने
सूर्य्यलोक के स्वभाव का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थान्वयभाषा(Material
language):-
हे पुरुषोत्तम ! जैसे
यह (घनः) मूर्त्तिमान् होके सूर्य्यलोक (अस्य) जलरस को (पीत्वा) पीकर (वृत्राणाम्)
मेघ के अङ्गरूप जलबिन्दुओं को वर्षाके सब ओषधी आदि पदार्थों को पुष्ट करके सब की
रक्षा करता है, वैसे ही हे (शतक्रतो) असंख्यात कर्मों के
करनेवाले शूरवीरो ! तुम लोग भी सब रोग और धर्म के विरोधी दुष्ट शत्रुओं के नाश
करनेहारे होकर (अस्य) इस जगत् के रक्षा करनेवाले (अभवः) हूजिये। इसी प्रकार जो
(वाजेषु) दुष्टों के साथ युद्ध में प्रवर्त्तमान धार्मिक और (वाजिनम्) शूरवीर
पुरुष है, उसकी (प्रावः) अच्छी प्रकार रक्षा सदा करते
रहिये॥८॥
भावार्थ भाषाः( Deep-spirit
Language):
इस मन्त्र में
लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे जो मनुष्य दुष्टों के साथ धर्मपूर्वक युद्ध करता है, उसी का ही विजय होता है और का नहीं। तथा परमेश्वर भी धर्मपूर्वक युद्ध
करनेवाले मनुष्यों का ही सहाय करनेवाला होता है, औरों का
नहीं॥८॥
सूक्त 04:
मंत्र 9
देवता: इन्द्र: ऋषि:
मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
तं त्वा॒ वाजे॑षु
वा॒जिनं॑ वा॒जया॑मः शतक्रतो। धना॑नामिन्द्र सा॒तये॑॥
taṁ tvā vājeṣu vājinaṁ
vājayāmaḥ śatakrato । dhanānām indra sātaye ।।
पद पाठ
तम्। त्वा॒। वाजे॑षु।
वा॒जिन॑म्। वा॒जया॑मः। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। धना॑नाम्। इ॒न्द्र॒। सा॒तये॑॥
फिर इन्द्र शब्द से
अगले मन्त्र में ईश्वर का प्रकाश किया है-
पदार्थान्वयभाषा(Material
language):-
हे (शतक्रतो)
असंख्यात वस्तुओं में विज्ञान रखनेवाले (इन्द्र) परम ऐश्वर्य्यवान् जगदीश्वर ! हम
लोग (धनानाम्) पूर्ण विद्या और राज्य को सिद्ध करनेवाले पदार्थों का (सातये)
सुखभोग वा अच्छे प्रकार सेवन करने के लिये (वाजेषु) युद्धादि व्यवहारों में
(वाजिनम्) विजय करानेवाले और (तम्) उक्त गुणयुक्त (त्वा) आपको ही (वाजयामः) नित्य
प्रति जानने और जनाने का प्रयत्न करते हैं॥९॥
भावार्थ भाषाः( Deep-spirit
Language):-
जो मनुष्य दुष्टों को
युद्ध से निर्बल करता तथा जितेन्द्रिय वा विद्वान् होकर जगदीश्वर की आज्ञा का पालन
करता है,
वही उत्तम धन वा युद्ध में विजय को अर्थात् सब शत्रुओं को जीतनेवाला
होता है॥९॥
सूक्त 04:
मंत्र 10
देवता: इन्द्र: ऋषि:
मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: निचृद्गायत्री स्वर: षड्जः
यो रा॒यो॒३वनि॑र्म॒हान्त्सु॑पा॒रः
सु॑न्व॒तः सखा॑। तस्मा॒ इन्द्रा॑य गायत॥
yo rāyo vanir mahān supāraḥ
sunvataḥ sakhā । tasmā indrāya gāyata ।।
फिर भी वह परमेश्वर
कैसा है और क्यों स्तुति करने योग्य है, इस विषय का
प्रकाश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थान्वयभाषा(Material
language):-
हे विद्वान् मनुष्यो
! जो बड़ों से बड़ा (सुपारः) अच्छी प्रकार सब कामनाओं की परिपूर्णता करनेहारा
(सुन्वतः) प्राप्त हुए सोमविद्यावाले धर्मात्मा पुरुष को (सखा) मित्रता से सुख
देने,
तथा (रायः) विद्या सुवर्ण आदि धन का (अवनिः) रक्षक और इस संसार में
उक्त पदार्थों में जीवों को पहुँचाने और उनका देनेवाला करुणामय परमेश्वर है,
(तस्मै) उसकी तुम लोग (गायत) नित्य पूजा किया करो॥१०॥
भावार्थ भाषाः( Deep-spirit
Language):-
किसी मनुष्य को केवल
परमेश्वर की स्तुतिमात्र ही करने से सन्तोष न करना चाहिये, किन्तु उसकी आज्ञा में रहकर और ऐसा समझ कर कि परमेश्वर मुझको सर्वत्र
देखता, है, इसलिये अधर्म से निवृत्त
होकर और परमेश्वर के सहाय की इच्छा करके मनुष्य को सदा उद्योग ही में वर्त्तमान रहना
चाहिये॥१०॥ इस सूक्त की कही हुई विद्या से, धर्मात्मा
पुरुषों को परमेश्वर का ज्ञान सिद्ध करना तथा आत्मा और शरीर के स्थिर भाव, आरोग्य की प्राप्ति तथा दुष्टों के विजय और पुरुषार्थ से चक्रवर्त्ति
राज्य को प्राप्त होना, इत्यादि अर्थ की तृतीय सूक्त में कहे
अर्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिये।
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