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ऋग्वेद-अध्याय(01) सूक्त 05:

 ऋग्वेद-अध्याय(01) सूक्त 05: 

मंत्र 1

देवता: इन्द्र: ऋषि: मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: विराड्गायत्री स्वर: षड्जः


आ त्वेता॒ निषी॑द॒तेन्द्र॑म॒भि प्र गा॑यत। सखा॑यः॒ स्तोम॑वाहसः॥


aā tv etā ni ṣīdatendram abhi pra gāyata | sakhāyaḥ stomavāhasaḥ ||


पाँचवें सूक्त के प्रथम मन्त्र में इन्द्र शब्द से परमेश्वर और स्पर्शगुणवाले वायु का प्रकाश किया है-


पदार्थान्वयभाषा(Material language):-


हे (स्तोमवाहसः) प्रशंसनीय गुणयुक्त वा प्रशंसा कराने और (सखायः) सब से मित्रभाव में वर्त्तनेवाले विद्वान् लोगो ! तुम और हम लोग सब मिलके परस्पर प्रीति के साथ मुक्ति और शिल्पविद्या को सिद्ध करने में (आनिषीदत) स्थित हों अर्थात् उसकी निरन्तर अच्छी प्रकार से यत्नपूर्वक साधना करने के लिये (इन्द्रम्) परमेश्वर वा बिजली से युक्त वायु को-इन्द्रेण वायुना० इस ऋग्वेद के प्रमाण से शिल्पविद्या और प्राणियों के जीवन हेतु से इन्द्र शब्द से स्पर्शगुणवाले वायु का भी ग्रहण किया है- (अभिप्रगायत) अर्थात् उसके गुणों का उपदेश करें और सुनें कि जिससे वह अच्छी रीति से सिद्ध की हुई विद्या सब को प्रकट होजावे, (तु) और उसी से तुम सब लोग सब सुखों को (एत) प्राप्त होओ॥१॥


भावार्थ भाषाः( Deep-spirit Language):-


जब तक मनुष्य हठ, छल और अभिमान को छोड़कर सत्य प्रीति के साथ परस्पर मित्रता करके परोपकार करने के लिये तन मन और धन से यत्न नहीं करते, तब तक उनके सुखों और विद्या आदि उत्तम गुणों की उन्नति कभी नहीं हो सकती॥१॥


सूक्त 05: मंत्र 2

देवता: इन्द्र: ऋषि: मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: आर्च्युष्णिक् स्वर: ऋषभः


पु॒रू॒तमं॑ पुरू॒णामीशा॑नं॒ वार्या॑णाम्। इन्द्रं॒ सोमे॒ सचा॑ सु॒ते॥


purūtamam purūṇām īśānaṁ vāryāṇām | indraṁ some sacā sute ||


पद पाठ

पु॒रु॒ऽतम॑म्। पु॒रू॒णाम्। ईशा॑नम्। वार्या॑णम्। इन्द्र॑म्। सोमे॑। सचा॑। सु॒ते॥


फिर भी अगले मन्त्र में उन्हीं दोनों के गुणों का प्रकाश किया है-


पदार्थान्वयभाषा(Material language):-


(सखायः) हे मित्र विद्वान् लोगो ! (वार्य्याणाम्) अत्यन्त उत्तम (पुरूणाम्) आकाश से लेके पृथिवीपर्य्यन्त असंख्यात पदार्थों को (ईशानम्) रचने में समर्थ (पुरूतमम्) दुष्टस्वभाववाले जीवों को ग्लानि प्राप्त करानेवाले (इन्द्रम्) और श्रेष्ठ जीवों को सब ऐश्वर्य्य के देनेवाले परमेश्वर के तथा (वार्याणाम्) अत्यन्त उत्तम (पुरूणाम्) आकाश से लेके पृथिवीपर्य्यन्त बहुत से पदार्थों की विद्याओं के साधक (पुरूतमम्) दुष्ट जीवों वा कर्मों के भोग के निमित्त और (इन्द्रम्) जीवमात्र को सुखदुःख देनेवाले पदार्थों के हेतु भौतिक वायु के गुणों को (अभिप्रगायत) अच्छी प्रकार उपदेश करो। और (तु) जो कि (सुते) रस खींचने की क्रिया से प्राप्त वा (सोमे) उस विद्या से प्राप्त होने योग्य (सचा) पदार्थों के निमित्त कार्य्य हैं, उनको उक्त विद्याओं से सब के उपकार के लिये यथायोग्य युक्त करो॥२॥


भावार्थ भाषाः( Deep-spirit Language):-


इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। पीछे के मन्त्र से इस मन्त्र में सखायः तु अभिप्रगायत इन तीन शब्दों को अर्थ के लिये लेना चाहिये। इस मन्त्र में यथायोग्य व्यवस्था करके उनके किये हुए कर्मों का फल देने से ईश्वर तथा इन कर्मों के फल भोग कराने के कारण वा विद्या और सब क्रियाओं के साधक होने से भौतिक अर्थात् संसारी वायु का ग्रहण किया है॥२॥


सूक्त 05: मंत्र 3

देवता: इन्द्र: ऋषि: मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वर: षड्जः


sa ghā no yoga ā bhuvat sa rāye sa puraṁdhyām | gamad vājebhir ā sa naḥ ||


पद पाठ

सः। घ॒। नः॒। योगे॑। आ। भु॒व॒त्। सः। रा॒ये। सः। पुर॑म्ऽध्याम्। गम॑त्। वाजे॑भिः। आ। सः। नः॒॥


वे दोनों तुम हम और सब प्राणिलोगों के लिये क्या करते हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-


पदार्थान्वयभाषा(Material language):-


(सः) पूर्वोक्त इन्द्र परमेश्वर और स्पर्शवान् वायु (नः) हम लोगों के (योगे) सब सुखों के सिद्ध करानेवाले वा पदार्थों को प्राप्त करानेवाले योग तथा (सः) वे ही (राये) उत्तम धन के लाभ के लिये और (सः) वे (पुरन्ध्याम्) अनेक शास्त्रों की विद्याओं से युक्त बुद्धि में (आ भुवत्) प्रकाशित हों। इसी प्रकार (सः) वे (वाजेभिः) उत्तम अन्न और विमान आदि सवारियों के सह वर्त्तमान (नः) हम लोगों को (आगमत्) उत्तम सुख होने का ज्ञान देवे तथा यह वायु भी इस विद्या की सिद्धि में हेतु होता है॥३॥


भावार्थ भाषाः( Deep-spirit Language):-


इस मन्त्र में भी श्लेषालङ्कार है। ईश्वर पुरुषार्थी मनुष्य का सहायकारी होता है, आलसी का नहीं, तथा स्पर्शवान् वायु भी पुरुषार्थ ही से कार्य्यसिद्धि का निमित्त होता है, क्योंकि किसी प्राणी को पुरुषार्थ के विना धन वा बुद्धि का और इन के विना उत्तम सुख का लाभ कभी नहीं हो सकता। इसलिये सब मनुष्यों को उद्योगी अर्थात् पुरुषार्थी आशावाले अवश्य होना चाहिये॥३॥


सूक्त 05: मंत्र 4

देवता: इन्द्र: ऋषि: मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः


यस्य॑ सं॒स्थे न वृ॒ण्वते॒ हरी॑ स॒मत्सु॒ शत्र॑वः। तस्मा॒ इन्द्रा॑य गायत॥


yasya saṁsthe na vṛṇvate harī samatsu śatravaḥ | tasmā indrāya gāyata ||


पद पाठ

यस्य॑। स॒म्ऽस्थे। न। वृ॒ण्वते॑। हरी॒ इति॑। स॒मत्ऽसु॑। शत्र॑वः। तस्मै॑। इन्द्रा॑य। गा॒य॒त॒॥


ईश्वर ने अपने आप और सूर्य्यलोक का गुणसहित चौथे मन्त्र से प्रकाश किया है-


पदार्थान्वयभाषा(Material language):-


हे मनुष्यो ! तुम लोग (यस्य) जिस परमेश्वर वा सूर्य्य के (हरी) पदार्थों को प्राप्त करानेवाले बल और पराक्रम तथा प्रकाश और आकर्षण (संस्थे) इस संसार में वर्त्तमान हैं, जिनके सहाय से (समत्सु) युद्धों में (शत्रवः) वैरी लोग (न वृण्वते) अच्छी प्रकार बल नहीं कर सकते, (तस्मै) उस (इन्द्राय) परमेश्वर वा सूर्य्यलोक को (गायत) उनके गुणों की प्रशंसा कह और सुन के यथावत् जानलो॥४॥


भावार्थ भाषाः( Deep-spirit Language):-


इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जब तक मनुष्य लोग परमेश्वर को अपने इष्ट देव समझनेवाले और बलवान् अर्थात् पुरुषार्थी नहीं होते, तब तक उनको दुष्ट शत्रुओं की निर्बलता करने को सामर्थ्य भी नहीं होता॥४॥


सूक्त 05: मंत्र 5

देवता: इन्द्र: ऋषि: मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: निचृद्गायत्री स्वर: षड्जः


सु॒त॒पाव्ने॑ सु॒ता इ॒मे शुच॑यो यन्ति वी॒तये॑। सोमा॑सो॒ दध्या॑शिरः॥


पद पाठ

सु॒त॒ऽपाव्ने॑। सु॒ताः। इ॒मे। शुच॑यः। य॒न्ति॒। वी॒तये॑। सोमा॑सः। दधि॑ऽआशिरः॥


ये संसारी पदार्थ किसलिये उत्पन्न किये गये और कैसे हैं, ये किससे पवित्र किये जाते हैं, इस विषय का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थान्वयभाषा(Material language):-


परमेश्वर ने वा वायु और सूर्य से जिस कारण (सुतपाव्ने) अपने उत्पन्न किये हुए पदार्थों की रक्षा करनेवाले जीव के (वीतये) ज्ञान वा भोग के लिये (दध्याशिरः) जो धारण करनेवाले उत्पन्न होते हैं, तथा (शुचयः) जो पवित्र (सोमासः) जिनसे अच्छे व्यवहार होते हैं, वे सब पदार्थ जिसने (सुताः) उत्पादन करके पवित्र किये हैं, इसी से सब प्राणिलोग इन को प्राप्त होते हैं॥५॥


भावार्थ भाषाः( Deep-spirit Language):-


इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ईश्वर ने सब जीवों पर कृपा करके उनके कर्मों के अनुसार यथायोग्य फल देने के लिये सब कार्य्यरूप जगत् को रचा और पवित्र किया है, तथा पवित्र करने करानेवाले सूर्य्य और पवन को रचा है, उसी हेतु से सब जड़ पदार्थ वा जीव पवित्र होते हैं। परन्तु जो मनुष्य पवित्र गुणकर्मों के ग्रहण से पुरुषार्थी होकर संसारी पदार्थों से यथावत् उपयोग लेते तथा सब जीवों को उनके उपयोगी कराते हैं, वे ही मनुष्य पवित्र और सुखी होते हैं॥५॥


सूक्त 05: मंत्र 6

देवता: इन्द्र: ऋषि: मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: निचृद्गायत्री स्वर: षड्जः


त्वं सु॒तस्य॑ पी॒तये॑ स॒द्यो वृ॒द्धो अ॑जायथाः। इन्द्र॒ ज्यैष्ठ्या॑य सुक्रतो॥


tvaṁ sutasya pītaye sadyo vṛddho ajāyathāḥ | indra jyaiṣṭhyāya sukrato ||


पद पाठ

त्वम्। सु॒तस्य॑। पी॒तये॑। स॒द्यः। वृ॒द्धः। अ॒जा॒य॒थाः॒। इन्द्र॑। ज्यैष्ठ्या॑य। सु॒क्र॒तो॒ इति॑ सुऽक्रतो॥


ईश्वर ने, जीव जिस करके पूर्वोक्त उपयोग के ग्रहण करने को समर्थ होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है-


पदार्थान्वयभाषा(Material language):-


हे (इन्द्र) विद्यादिपरमैश्वर्ययुक्त (सुक्रतो) श्रेष्ठ कर्म करने और उत्तम बुद्धिवाले विद्वान् मनुष्य ! (त्वम्) तू (सद्यः) शीघ्र (सुतस्य) संसारी पदार्थों के रस के (पीतये) पान वा ग्रहण और (ज्यैष्ठ्याय) अत्युत्तम कर्मों के अनुष्ठान करने के लिये (वृद्धः) विद्या आदि शुभ गुणों के ज्ञान के ग्रहण और सब के उपकार करने में श्रेष्ठ (अजायथाः) हो ॥६॥


भावार्थ भाषाः( Deep-spirit Language):-


ईश्वर जीव के लिये उपदेश करता है कि-हे मनुष्य ! तू जबतक विद्या में वृद्ध होकर अच्छी प्रकार परोपकार न करेगा, तब तक तुझको मनुष्यपन और सर्वोत्तम सुख की प्राप्ति कभी न होगी, इससे तू परोपकार करनेवाला सदा हो ॥६॥


सूक्त 05: मंत्र 7

देवता: इन्द्र: ऋषि: मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: निचृद्गायत्री स्वर: षड्जः


आ त्वा॑ विशन्त्वा॒शवः॒ सोमा॑स इन्द्र गिर्वणः। शं ते॑ सन्तु॒ प्रचे॑तसे॥


ā tvā viśantv āśavaḥ somāsa indra girvaṇaḥ | śaṁ te santu pracetase ||


पद पाठ

आ। त्वा॒। वि॒श॒न्तु॒। आ॒शवः॑। सोमा॑सः। इ॒न्द्र॒। गि॒र्व॒णः॒। शम्। ते॒। स॒न्तु॒। प्रऽचे॑तसे॥


उक्त काम के आचरण करनेवाले जीव को आशीर्वाद कौन देता है, इस बात का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थान्वयभाषा(Material language):-


हे धार्मिक (गिर्वणः) प्रशंसा के योग्य कर्म करनेवाले (इन्द्र) विद्वान् जीव ! (आशवः) वेगादि गुण सहित सब क्रियाओं से व्याप्त (सोमासः) सब पदार्थ (त्वा) तुझ को (आविशन्तु) प्राप्त हों, तथा इन पदार्थों को प्राप्त हुए (प्रचेतसे) शुद्ध ज्ञानवाले (ते) तेरे लिये (शम्) ये सब पदार्थ मेरे अनुग्रह से सुख करनेवाले (सन्तु) हों॥७॥


भावार्थ भाषाः( Deep-spirit Language):-


ईश्वर ऐसे मनुष्यों को आशीर्वाद देता है कि जो मनुष्य विद्वान् परोपकारी होकर अच्छी प्रकार नित्य उद्योग करके इन सब पदार्थों से उपकार ग्रहण करके सब प्राणियों को सुखयुक्त करता है, वही सदा सुख को प्राप्त होता है, अन्य कोई नहीं॥७॥


सूक्त 05: मंत्र 8

देवता: इन्द्र: ऋषि: मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: पादनिचृद्गायत्री स्वर: षड्जः


त्वां स्तोमा॑ अवीवृध॒न्त्वामु॒क्था श॑तक्रतो। त्वां व॑र्धन्तु नो॒ गिरः॑॥


tvāṁ stomā avīvṛdhan tvām ukthā śatakrato | tvāṁ vardhantu no giraḥ ||


पद पाठ

त्वाम्। स्तोमाः॑। अ॒वी॒वृ॒ध॒न्। त्वाम्। उ॒क्था। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। त्वाम्। व॒र्ध॒न्तु॒। नः॒। गिरः॑॥


ईश्वर ने उक्त अर्थ ही के प्रकाश करनेवाले इन्द्र शब्द का अगले मन्त्र में भी प्रकाश किया है-


पदार्थान्वयभाषा(Material language):-


हे (शतक्रतो) असंख्यात कर्मों के करने और अनन्त विज्ञान के जाननेवाले परमेश्वर ! जैसे (स्तोमाः) वेद के स्तोत्र तथा (उक्था) प्रशंसनीय स्तोत्र आपको (अवीवृधन्) अत्यन्त प्रसिद्ध करते हैं, वैसे ही (नः) हमारी (गिरः) विद्या और सत्यभाषणयुक्त वाणी भी (त्वाम्) आपको (वर्धन्तु) प्रकाशित करे॥८॥


भावार्थ भाषाः( Deep-spirit Language):-


जो विश्व में पृथिवी सूर्य्य आदि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रचे हुए पदार्थ हैं, वे सब जगत् की उत्पत्ति करनेवाले तथा धन्यवाद देने के योग्य परमेश्वर ही को प्रसिद्ध करके जनाते हैं, जिससे न्याय और उपकार आदि ईश्वर के गुणों को अच्छी प्रकार जानके विद्वान् भी वैसे ही कर्मों में प्रवृत्त हों॥८॥


सूक्त 05: मंत्र 9

देवता: इन्द्र: ऋषि: मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: निचृद्गायत्री स्वर: षड्जः


अक्षि॑तोतिः सनेदि॒मं वाज॒मिन्द्रः॑ सह॒स्रिण॑म्। यस्मि॒न्विश्वा॑नि॒ पौंस्या॑॥


akṣitotiḥ saned imaṁ vājam indraḥ sahasriṇam | yasmin viśvāni pauṁsyā ||


पद पाठ

अक्षि॑तऽऊतिः। स॒ने॒त्। इ॒मम्। वाज॑म्। इन्द्रः॑। स॒ह॒स्रिण॑म्। यस्मि॑न्। विश्वा॑नि। पौंस्या॑॥


वह जगदीश्वर हमारे लिये क्या करे, सो अगले मन्त्र में वर्णन किया है-


पदार्थान्वयभाषा(Material language):-


जो (अक्षितोतिः) नित्य ज्ञानवाला (इन्द्रः) सब ऐश्वर्य्ययुक्त परमेश्वर है, वह कृपा करके हमारे लिये (यस्मिन्) जिस व्यवहार में (विश्वानि) सब (पौंस्या) पुरुषार्थ से युक्त बल हैं (इमम्) इस (सहस्रिणम्) असंख्यात सुख देनेवाले (वाजम्) पदार्थों के विज्ञान को (सनेत्) सम्यक् सेवन करावे, कि जिससे हम लोग उत्तम-उत्तम सुखों को प्राप्त हों॥९॥


भावार्थ भाषाः( Deep-spirit Language):-


जिसकी सत्ता से संसार के पदार्थ बलवान् होकर अपने-अपने व्यवहारों में वर्त्तमान हैं, उन सब बल आदि गुणों से उपकार लेकर विश्व के नाना प्रकार के सुख भोगने के लिये हम लोग पूर्ण पुरुषार्थ करें, तथा ईश्वर इस प्रयोजन में हमारा सहाय करे, इसलिये हम लोग ऐसी प्रार्थना करते हैं॥९॥


सूक्त 05: मंत्र 10

देवता: इन्द्र: ऋषि: मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः


मा नो॒ मर्ता॑ अ॒भिद्रु॑हन्त॒नूना॑मिन्द्र गिर्वणः। ईशा॑नो यवया व॒धम्॥


mā no martā abhi druhan tanūnām indra girvaṇaḥ | īśāno yavayā vadham ||


पद पाठ

मा। नः॒। मर्ताः॑। अ॒भि। द्रु॒ह॒न्। त॒नूना॑म्। इ॒न्द्र॒। गि॒र्व॒णः॒। ईशा॑नः। य॒व॒य॒। व॒धम्॥


किसकी रक्षा से पुरुषार्थ सिद्ध होता है, इस विषय का प्रकाश ईश्वर ने अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थान्वयभाषा(Material language):-


हे (गिर्वणः) वेद वा उत्तम-उत्तम शिक्षाओं से सिद्ध की हुई वाणियों करके सेवा करने योग्य सर्वशक्तिमान् (इन्द्र) सब के रक्षक (ईशानः) परमेश्वर ! आप (नः) हमारे (तनूनाम्) शरीरों के (वधम्) नाश (मा) कभी मत (यवय) कीजिये, तथा आपके उपदेश से (मर्त्ताः) ये सब मनुष्य लोग भी (नः) हम से (मा) (अभिद्रुहन्) वैर कभी न करें॥१०॥


भावार्थ भाषाः( Deep-spirit Language):-


कोई मनुष्य अन्याय से किसी प्राणी को मारने की इच्छा न करे, किन्तु परस्पर मित्रभाव से वर्त्तें, क्योंकि जैसे परमेश्वर विना अपराध से किसी का तिरस्कार नहीं करता, वैसे ही सब मनुष्यों को भी करना चाहिये॥१०॥


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