ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
ऐभि॑रग्ने॒ दुवो॒ गिरो॒ विश्वे॑भिः॒ सोम॑पीतये। दे॒वेभि॑र्याहि॒ यक्षि॑ च॥
विषय - अब चौदहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके पहिले मन्त्र में बहुत पदार्थों के साथ संयोग करनेवाले ईश्वर और भौतिक अग्नि का उपदेश किया है-
पदार्थ -
हे (अग्ने) जगदीश्वर ! आप (एभिः) इन (विश्वेभिः) सब (देवेभिः) दिव्यगुण और विद्वानों के साथ (सोमपीतये) सुख करनेवाले पदार्थों के पीने के लिये (दुवः) सत्कारादि व्यवहार तथा (गिरः) वेदवाणियों को (याहि) प्राप्त हूजिये। मैं ईश्वर के (दुवः) सत्कारादि व्यवहार और वेदवाणियों को (यक्षि) सङ्गत अर्थात् अपने मन और कामों में अच्छी प्रकार सदैव यथाशक्ति धारण करता हूँ॥१॥जो यह (अग्ने) भौतिक अग्नि (एभिः) इन (विश्वेभिः) सब (देवेभिः) दिव्यगुण और पदार्थों के साथ (सोमपीतये) जिससे सुखकारक पदार्थों का पीना हो, उस यज्ञ के लिये (दुवः) सत्कारादि व्यवहार तथा (गिरः) वेदवाणियों को (याहि) प्राप्त कराता है, उसको मैं (एभिः) इन (विश्वेभिः) सब (देवेभिः) विद्वानों के साथ (सोमपीतये) उक्त सोम के पीने के लिये (यक्षि) स्वीकार करता हूँ, ॥२॥१॥
भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जिन मनुष्यों को व्यवहार और परमार्थ के सुख की इच्छा हो, वे वायु जल और पृथिवीमयादि यन्त्र तथा विमान आदि रथों के साथ अग्नि को स्वीकार करके उत्तम क्रियाओं को सिद्ध करते और ईश्वर की आज्ञा का सेवन, वेदों का पढ़ना-पढ़ाना और वेदोक्त कर्मों का अनुष्ठान करते रहते हैं, वे ही सब प्रकार से आनन्द भोगते हैं॥१॥
ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
आ त्वा॒ कण्वा॑ अहूषत गृ॒णन्ति॑ विप्र ते॒ धियः॑। दे॒वेभि॑रग्न॒ आ ग॑हि॥
विषय - अब अगले मन्त्र में अग्निशब्द से दो अर्थों का उपदेश किया है-
पदार्थ -
हे (अग्ने) जगदीश्वर ! जैसे (कण्वाः) मेधावी विद्वान् लोग (त्वा) आपका (गृणन्ति) पूजन तथा (आहूषत) प्रार्थना करते हैं, वैसे ही हम लोग भी आपका पूजन और प्रार्थना करें। हे (विप्र) मेधाविन् विद्वन् ! जैसे (ते) तेरी (धियः) बुद्धि जिस ईश्वर के (गृणन्ति) गुणों का कथन और प्रार्थना करती हैं, वैसे हम सब लोग परस्पर मिलकर उसी की उपासना करते रहें। हे मङ्गलमय परमात्मन् ! आप कृपा करके (देवेभिः) उत्तम गुणों के प्रकाश और भोगों के देने के लिये हम लोगों को (आगहि) अच्छी प्रकार प्राप्त हूजिये॥१॥२॥हे (विप्र) मेधावी विद्वान् मनुष्य ! जैसे (कण्वाः) अन्य विद्वान् लोग (अग्ने) अग्नि के (गृणन्ति) गुणप्रकाश और (अहूषत) शिल्पविद्या के लिये युक्त करते हैं, वैसे तुम भी करो। जैसे (अग्ने) यह अग्नि (देवेभिः) दिव्यगुणों के साथ (आगहि) अच्छी प्रकार अपने गुणों को विदित करता है और जिस अग्नि के (ते) तेरी (धियः) बुद्धि (गृणन्ति) गुणों का कथन तथा (अहूषत) अधिक से अधिक मानती हैं, उससे तुम बहुत से कार्य्यों को सिद्ध करो॥२॥२॥
भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को इस संसार में ईश्वर के रचे हुए पदार्थों को देखकर यह कहना चाहिये कि ये सब धन्यवाद और स्तुति ईश्वर ही में घटती हैं॥२॥
ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
इ॒न्द्र॒वा॒यू बृह॒स्पतिं॑ मि॒त्राग्निं॑ पू॒षणं॒ भग॑म्। आ॒दि॒त्यान्मारु॑तं ग॒णम्॥
विषय - अब अगले मन्त्र में सब देवों में से कई एक देवों का उपदेश किया है-
पदार्थ -
हे (कण्वाः) बुद्धिमान् विद्वान् लोगो ! आप क्रिया तथा आनन्द की सिद्धि के लिये (इन्द्रवायू) बिजुली और पवन (बृहस्पतिम्) बड़े से ब़ड़े पदार्थों के पालनहेतु सूर्य्यलोक (मित्रा) प्राण (अग्निम्) प्रसिद्ध अग्नि (पूषणम्) ओषधियों के समूह के पुष्टि करनेवाले चन्द्रलोक (भगम्) सुखों के प्राप्त करानेवाले चक्रवर्त्ति आदि राज्य के धन (आदित्यान्) बारहों महीने और (मारुतम्) पवनों के (गणम्) समूह को (अहूषत) ग्रहण तथा (गृणन्ति) अच्छी प्रकार जान के संयुक्त करो॥३॥
भावार्थ - इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से कण्वाः अहूषत और गृणन्ति इन तीन पदों की अनुवृत्ति आती है।जो मनुष्य ईश्वर के रचे हुए उक्त इन्द्र आदि पदार्थों और उनके गुणों को जानकर क्रियाओं में संयुक्त करते हैं, वे आप सुखी होकर सब प्राणियों को सुखयुक्त सदैव करते हैं॥३॥
ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
प्र वो॑ भ्रियन्त॒ इन्द॑वो मत्स॒रा मा॑दयि॒ष्णवः॑। द्र॒प्सा मध्व॑श्चमू॒षदः॑॥
विषय - उक्त पदार्थ इस प्रकार संयुक्त किये हुए किस-किस कार्य को सिद्ध करते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ -
हे मनुष्यो ! जैसे मैंने धारण किये, पूर्व मन्त्र में इन्द्र आदि पदार्थ कह आये हैं, उन्हीं से (मध्वः) मधुर गुणवाले (मत्सराः) जिनसे उत्तम आनन्द को प्राप्त होते हैं (मादयिष्णवः) आनन्द के निमित्त (द्रप्साः) जिन से बल अर्थात् सेना के लोग अच्छी प्रकार आनन्द को प्राप्त होते और (चमूषदः) जिनसे विकट शत्रुओं की सेनाओं में स्थिर होते हैं, उन (इन्दवः) रसवाले सोम आदि ओषधियों के समूहों को (वः) तुम लोगों के लिये (भ्रियन्ते) अच्छी प्रकार धारण कर रक्खे हैं, वैसे तुम लोग भी मेरे लिये इन पदार्थों को धारण करो॥४॥
भावार्थ - ईश्वर सब मनुष्यों के प्रति कहता है कि जो मेरे रचे हुए पहिले मन्त्र में प्रकाशित किये बिजुली आदि पदार्थों से ये सब पदार्थ धारण करके मैंने पुष्ट किये हैं, तथा जो मनुष्य इनसे वैद्यक वा शिल्पशास्त्रों की रीति से उत्तम रस के उत्पादन और शिल्प कार्य्यों की सिद्धि के साथ उत्तम सेना के सम्पादन होने से रोगों का नाश तथा विजय की प्राप्ति करते हैं, वे लोग नाना प्रकार के सुख भोगते हैं॥४॥
ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
ईळ॑ते॒ त्वाम॑व॒स्यवः॒ कण्वा॑सो वृ॒क्तब॑र्हिषः। ह॒विष्म॑न्तो अरं॒कृतः॑॥
विषय - अब अगले मन्त्र में अग्निशब्द से ईश्वर का उपदेश किया है-
पदार्थ -
हे जगदीश्वर ! हम लोग जिनके (हविष्मन्तः) देने-लेने और भोजन करने योग्य पदार्थ विद्यमान हैं, तथा (अरंकृतः) जो सब पदार्थों को सुशोभित करनेवाले हैं, (अवस्यवः) जिनका अपनी रक्षा चाहने का स्वभाव है, वे (कण्वासः) बुद्धिमान् और (वृक्तबर्हिषः) यथाकाल यज्ञ करनेवाले विद्वान् लोग जिस (त्वाम्) सब जगत् के उत्पन्न करनेवाले आपकी (ईडते) स्तुति करते हैं, उसी आपकी हम लोग स्तुति करें॥५॥
भावार्थ - हे सृष्टि के उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर ! जिससे आपने सब प्राणियों के सुख के लिये सब पदार्थों को रचकर धारण किये हैं, इससे हम लोग आप ही की स्तुति, सब की रक्षा की इच्छा, शिक्षा और विद्या से सब मनुष्यों को भूषित करते हुए उत्तम क्रियाओं के लिये निरन्तर अच्छी प्रकार यत्न करते हैं॥५॥
ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
घृ॒तपृ॑ष्ठा मनो॒युजो॒ ये त्वा॒ वह॑न्ति॒ वह्न॑यः। आ दे॒वान्त्सोम॑पीतये॥
विषय - ईश्वर के रचे हुए बिजुली आदि पदार्थ कैसे गुणवाले हैं, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है-
पदार्थ -
हे विद्वानो ! (ये) जो युक्ति से संयुक्त किये हुए (घृतपृष्ठाः) जिनके पृष्ठ अर्थात् आधार में जल है (मनोयुजः) तथा जो उत्तम ज्ञान से रथों में युक्त किये जाते (वह्नयः) वार्त्ता पदार्थ वा यानों को दूर देश में पहुँचानेवाले अग्नि आदि पदार्थ हैं, जो (सोमपीतये) जिसमें सोम आदि पदार्थों का पीना होता है, उस यज्ञ के लिये (त्वा) उस भूषित करने योग्य यज्ञ को और (देवान्) दिव्यगुण दिव्यभोग और वसन्त आदि ऋतुओं को (आवहन्ति) अच्छी प्रकार प्राप्त करते हैं, उनको सब मनुष्यों को यथार्थ जानके अनेक कार्य्यों को सिद्ध करने के लिये ठीक-ठीक प्रयुक्त करना चाहिये॥६॥
भावार्थ - जो मेघ आदि पदार्थ हैं, वे ही जल को ऊपर नीचे अर्थात् अन्तरिक्ष को पहुँचाते और वहाँ से वर्षाते हैं, और ताराख्य यन्त्र से चलाई हुई बिजुली मन के वेग के समान वार्त्ताओं को एकदेश से दूसरे देश में प्राप्त करती है। इसी प्रकार सब सुखों को प्राप्त करानेवाले ये ही पदार्थ हैं, ऐसी ईश्वर की आज्ञा है॥६॥
ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
तान्यज॑त्राँ ऋता॒वृधोऽग्ने॒ पत्नी॑वतस्कृधि। मध्वः॑ सुजिह्व पायय॥
विषय - अब अगले मन्त्र में अग्निशब्द से ईश्वर और भौतिक अग्नि का उपदेश किया है-
पदार्थ -
हे (अग्ने) जगदीश्वर ! आप (यजत्रान्) जो कला आदि पदार्थों में संयुक्त करने योग्य तथा (ऋतावृधः) सत्यता और यज्ञादि उत्तम कर्मों की वृद्धि करनेवाले हैं, (तान्) उन विद्युत् आदि पदार्थों को श्रेष्ठ करते हो, उन्हीं से हम लोगों को (पत्नीवतः) प्रशंसायुक्त स्त्रीवाले (कृधि) कीजिये। हे (सुजिह्व) श्रेष्ठता से पदार्थों की धारणाशक्तिवाले ईश्वर ! आप (मध्वः) मधुर पदार्थों के रस को कृपा करके (पायय) पिलाइये॥१॥(सुजिह्व) जिसकी लपट में अच्छी प्रकार होम करते हैं, सो यह (अग्ने) भौतिक अग्नि (ऋतावृधः) उन जल की वृद्धि करानेवाले (यजत्रान्) कलाओं में संयुक्त करने योग्य (तान्) विद्युत् आदि पदार्थों को उत्तम (कृधि) करता है, और वह अच्छी प्रकार कलायन्त्रों में संयुक्त किया हुआ हम लोगों को (पत्नीवतः) पत्नीवान् अर्थात् श्रेष्ठ गृहस्थ (कृधि) कर देता, तथा (मध्वः) मीठे-मीठे पदार्थों के रस को (पायय) पिलाने का हेतु होता है॥२॥७॥
भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को अच्छी प्रकार ईश्वर के आराधन और अग्नि की क्रियाकुशलता से रससारादि को रचकर तथा उपकार में लाकर गृहस्थ आश्रम में सब कार्यों को सिद्ध करना चाहिये॥७॥
ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
ये यज॑त्रा॒ य ईड्या॒स्ते ते॑ पिबन्तु जि॒ह्वया॑। मधो॑रग्ने॒ वष॑ट्कृति॥
विषय - फिर उक्त पदार्थ किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ -
(ये) जो मनुष्य विद्युत् आदि पदार्थ (यजत्राः) कलादिकों में संयुक्त करते हैं (ते) वे, वा (ये) जो गुणवाले (ईड्याः) सब प्रकार से खोजने योग्य हैं (ते) वे (जिह्वया) ज्वालारूपी शक्ति से (अग्ने) अग्नि में (वषट्कृति) यज्ञ के विशेष-विशेष काम करने से (मधोः) मधुरगुणों के अंशों को (पिबन्तु) यथावत् पीते हैं॥८॥
भावार्थ - मनुष्यों को इस जगत् में सब संयुक्त पदार्थों से दो प्रकार का कर्म करना चाहिये अर्थात् एक तो उनके गुणों का जानना, दूसरा उनसे कार्य्य की सिद्धि करना। जो विद्युत् आदि पदार्थ सब मूर्त्तिमान् पदार्थों से रस को ग्रहण करके फिर छोड़ देते हैं, इससे उनकी शुद्धि के लिये सुगन्धि आदि पदार्थों का होम निरन्तर करना चाहिये, जिससे वे सब प्राणियों को सुख सिद्ध करनेवाले हों॥८॥
ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
आकीं॒ सूर्य॑स्य रोच॒नाद्विश्वा॑न्दे॒वाँ उ॑ष॒र्बुधः॑। विप्रो॒ होते॒ह व॑क्षति॥
विषय - किस प्रकार के मनुष्य उन गुणों को ग्रहण कर सकते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ -
जो (होता) होम में छोड़ने योग्य वस्तुओं का देने-लेनेवाला (विप्रः) बुद्धिमान् विद्वान् पुरुष है, वही (सूर्य्यस्य) चराचर के आत्मा परमेश्वर वा सूर्य्यलोक के (रोचनात्) प्रकाश से (इह) इस जन्म वा लोक में (उषर्बुधः) प्रातःकाल को प्राप्त होकर सुखों को चितानेवाले (विश्वान्) जो कि समस्त (देवान्) श्रेष्ठ भोगों को (वक्षति) प्राप्त होता वा कराता है, वही सब विद्याओं को प्राप्त होके आनन्दयुक्त होता है॥९॥
भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। यदि ईश्वर इन पदार्थों को उत्पन्न नहीं करता, तो कोई पुरुष उपकार लेने को समर्थ भी नहीं हो सकता, और जब मनुष्य निद्रा में स्थित होते हैं, तब कोई मनुष्य किसी भोग करने योग्य पदार्थ को प्राप्त नहीं हो सकता किन्तु जाग्रत् अवस्था को प्राप्त होकर उनके भोग करने को समर्थ होता है। इससे इस मन्त्र में उषर्बुधः इस पद का उच्चारण किया है। संसार के इन पदार्थों से बुद्धिमान् मनुष्य ही क्रिया की सिद्धि को कर सकता है, अन्य कोई नहीं॥९॥
ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः
विश्वे॑भिः सो॒म्यं मध्वग्न॒ इन्द्रे॑ण वा॒युना॑। पिबा॑ मि॒त्रस्य॒ धाम॑भिः॥
विषय - किसके साथ में यह विद्युत् अग्नि क्रियाओं की सिद्धि करानेवाला होता है, सो अगले मन्त्र में कहा है-
पदार्थ -
(अग्ने) यह अग्नि (इन्द्रेण) परम ऐश्वर्य करानेवाले (वायुना) स्पर्श वा गमन करनेहारे पवन के और (मित्रस्य) सब में रहने तथा सब के प्राणरूप होकर वर्त्तनेवाले वायु के साथ (विश्वेभिः) सब (धामभिः) स्थानों से (सोम्यम्) सोमसम्पादन के योग्य (मधु) मधुर आदि गुणयुक्त पदार्थ को (पिब) ग्रहण करता है॥१०॥
भावार्थ - यह विद्युद्रूप अग्नि ब्रह्माण्ड में रहनेवाले पवन तथा शरीर में रहनेवाले प्राणों के साथ वर्त्तमान होकर सब पदार्थों से रस को ग्रहण करके उगलता है, इससे यह मुख्य शिल्पविद्या का साधन है॥१०॥
ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः
त्वं होता॒ मनु॑र्हि॒तोऽग्ने॑ य॒ज्ञेषु॑ सीदसि। सेमं नो॑ अध्व॒रं य॑ज॥
विषय - अब अगले मन्त्र में अग्निशब्द से ईश्वर का उपदेश किया है-
पदार्थ -
हे (अग्ने) जो आप अतिशय करके पूजन करने योग्य जगदीश्वर ! (मनुर्हितः) मनुष्य आदि पदार्थों के धारण करने और (होता) सब पदार्थों के देनेवाले हैं, (त्वम्) जो (यज्ञेषु) क्रियाकाण्ड को आदि लेकर ज्ञान होने पर्य्यन्त ग्रहण करने योग्य यज्ञों में (सीदसि) स्थित हो रहे हो, (सः) सो आप (नः) हमारे (इमम्) इस (अध्वरम्) ग्रहण करने योग्य सुख के हेतु यज्ञ को (यज) सङ्गत अर्थात् इसकी सिद्धि को दीजिये॥११॥
भावार्थ - जिस ईश्वर ने सब मनुष्यों आदि प्राणियों के शरीर आदि पदार्थों को उत्पन्न करके धारण किये हैं, तथा जो यह सब कर्म उपासना तथा ज्ञानकाण्ड में अतिशय से पूजने के योग्य है, वही इस जगत् रूपी यज्ञ को सिद्ध करके हम लोगों को सुखयुक्त करता है॥११॥
ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
यु॒क्ष्वा ह्यरु॑षी॒ रथे॑ ह॒रितो॑ देव रो॒हितः॑। ताभि॑र्दे॒वाँ इ॒हा व॑ह॥
विषय - फिर अगले मन्त्र में भौतिक अग्नि के गुणों का उपदेश किया है-
पदार्थ -
हे (देव) विद्वान् मनुष्य ! तू (रथे) पृथिवी समुद्र और अन्तरिक्ष में जाने आने के लिये विमान आदि रथ में (रोहितः) नीची ऊँची जगह उतारने चढ़ाने (हरितः) पदार्थों को हरने (अरुषीः) लाल रंगयुक्त तथा गमन करानेवाली ज्वाला अर्थात् लपटों को (युक्ष्व) युक्त कर और (ताभिः) इनसे (इह) इस संसार में (देवान्) दिव्यक्रियासिद्ध व्यवहारों को (आवह) अच्छी प्रकार प्राप्त कर॥१२॥
भावार्थ - विद्वानों को कला और विमान आदि यानों में अग्नि आदि पदार्थों को संयुक्त करके इनसे संसार में मनुष्यों के सुख के लिये दिव्य पदार्थों का प्रकाश करना चाहिये॥१२॥सब देवों के गुणों के प्रकाश तथा क्रियाओं के समुदाय से इस चौदहवें सूक्त की सङ्गति पूर्वोक्त तेरहवें सूक्त के अर्थ के साथ जाननी चाहिये। इस सूक्त का अर्थ सायणाचार्य्य आदि विद्वान् तथा यूरोपदेशनिवासी विलसन आदि ने विपरीत ही वर्णन किया है॥
ऋग्वेद मंडल 01 सूक्त (13) ऋग्वेद मंडल 01 सूक्त (15)
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