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यजुर्वेद अध्याय 16 (31-51)

 ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - स्वराडार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः


नम॑ऽआ॒शवे॑ चाजि॒राय॑ च॒ नमः॒ शीघ्र्या॑य च॒ शीभ्या॑य च॒ नम॒ऽऊर्म्या॑य चावस्व॒न्याय च॒ नमो॑ नादे॒याय॑ च॒ द्वीप्या॑य च॥३१॥


विषय - अब उद्योग कैसे करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जो तुम लोग (आशवे) वायु के तुल्य मार्ग में शीघ्रगामी (च) और (अजिराय) असवारों को फेंकने वाले घोड़े (च) तथा हाथी आदि को (नमः) अन्न (शीघ्र्याय) शीघ्र चलने में उत्तम (च) और (शीभ्याय) शीघ्रता करने हारों में प्रसिद्ध (च) तथा मध्यस्थ जन को (नमः) अन्न (ऊर्म्याय) जल-तरंगो में वायु के समान वर्त्तमान (च) और (अवस्वन्याय) अनुत्तम शब्दों में प्रसिद्ध होने वाले के लिये (च) तथा दूर से सुनने हारे को (नमः) अन्न (नादेयाय) नदी में रहने (च) और (द्वीप्याय) जल के बीच टापू में रहने (च) तथा उनके सम्बन्धियों को (नमः) अन्न देते रहो तो आप लोगों को सम्पूर्ण आनन्द प्राप्त हों॥३१॥


भावार्थ - जो क्रियाकौशल से बनाये विमानादि यानों और घोड़ों से शीघ्र चलते हैं, वे किस-किस द्वीप वा देश को न जाके राज्य के लिये धन को नहीं प्राप्त होते? किन्तु सर्वत्र जा आ के सब को प्राप्त होते हैं॥३१॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - स्वराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


नमो॑ ज्ये॒ष्ठाय॑ च कनि॒ष्ठाय॑ च॒ नमः॑ पूर्व॒जाय॑ चापर॒जाय॑ च॒ नमो॑ मध्य॒माय॑ चापग॒ल्भाय॑ च॒ नमो॑ जघ॒न्याय च बु॒ध्न्याय च॥३२॥


विषय - मनुष्य लोग परस्पर कैसे सत्कार करने वाले हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! तुम लोग (ज्येष्ठाय) अत्यन्त वृद्धों (च) और (कनिष्ठाय) अति बालकों को (नमः) सत्कार और अन्न (च) तथा (पूर्वजाय) ज्येष्ठभ्राता वा ब्राह्मण (च) और (अपरजाय) छोटे भाई वा नीच का (च) भी (नमः) सत्कार वा अन्न (मध्यमाय) बन्धु, क्षत्रिय वा वैश्य (च) और (अपगल्भाय) ढीठपन छोड़े हुए सरल स्वभाव वाले (च) इन सब का (नमः) सत्कार आदि (च) और (जघन्याय) नीचकर्मकर्त्ता शूद्र वा म्लेच्छ (च) तथा (बुध्न्याय) अन्तरिक्ष में हुए मेघ के तुल्य वर्त्तमान दाता पुरुष का (नमः) अन्नादि से सत्कार करो॥३२॥


भावार्थ - परस्पर मिलते समय सत्कार करना हो तब (नमस्ते) इस वाक्य का उच्चारण करके छोटे बड़ों, बड़े छोटों, नीच उत्तमों, उत्तम नीचों और क्षत्रियादि ब्राह्मणों वा ब्राह्मणादि क्षत्रियादिकों का निरन्तर सत्कार करें। सब लोग इसी वेदोक्त प्रमाण से सर्वत्र शिष्टाचार में इसी वाक्य का प्रयोग करके परस्पर एक-दूसरे का सत्कार करने से प्रसन्न होवें॥३२॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


नमः॒ सोभ्या॑य च प्रतिस॒र्याय च॒ नमो॒ याम्या॑य च॒ क्षेम्या॑य च॒ नमः॒ श्लोक्या॑य चावसा॒न्याय च॒ नम॑ऽउर्व॒र्याय च॒ खल्या॑य च॥३३॥


विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! (सोभ्याय) ऐश्वर्ययुक्तों में प्रसिद्ध (च) और (प्रतिसर्याय) धर्मात्माओं में उत्पन्न हुए (च) तथा धनी धर्मात्माओं को (नमः) अन्न दे (याम्याय) न्यायकारियों में उत्तम (च) और (क्षेम्याय) रक्षा करने वालों में चतुर (च) और न्यायाधीशादि को (नमः) अन्न दे और (श्लोक्याय) वेदवाणी में प्रवीण (च) और (अवसान्याय) कार्यसमाप्तिव्यवहार में कुशल (च) तथा आरम्भ करने में उत्तम पुरुष का (नमः) सत्कार (उर्वर्याय) महान् पुरुषों के स्वामी (च) और (खल्याय) अच्छे अन्नादि पदार्थों के सञ्चय करने में प्रवीण (च) और व्यय करने में विचक्षण पुरुष का (नमः) सत्कार करके इन सब को आप लोग आनन्दि करो॥३३॥


भावार्थ - इस मन्त्र में अनेक चकारों से और भी उपयोगी अर्थ लेना और सत्कार करना चाहिये। प्रजास्थ पुरुष न्यायाधीशों, न्यायाधीश प्रजास्थों का सत्कार, पति आदि स्त्री आदि की और स्त्री आदि पति आदि पुरुषों की प्रसन्नता करें॥३३॥


ऋषि: - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - स्वराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


नमो॒ वन्या॑य च॒ कक्ष्या॑य च॒ नमः॑ श्र॒वाय॑ च प्रतिश्र॒वाय॑ च॒ नम॑ऽआ॒शुषे॑णाय चा॒शुर॑थाय च॒ नमः॒ शूरा॑य चावभे॒दिने॑ च॥३४॥


विषय - राजपुरुषों को कैसा होना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जो लोग (वन्याय) जङ्गल में रहने (च) और (कक्ष्याय) वन के समीप कक्षाओं में (च) तथा गुफा आदि में रहने वालों को (नमः) अन्न देवें (श्रवाय) सुनने वा सुनाने के हेतु (च) और (प्रतिश्रवाय) प्रतिज्ञा करने (च) तथा प्रतिज्ञा को पूरी करने हारे का (नमः) सत्कार करें (आशुषेणाय) शीघ्रगामिनी सेना वाले (च) और (आशुरथाय) शीघ्र चलने हारे रथों के स्वामी (च) तथा सारथि आदि को (नमः) अन्न देवें (शूराय) शत्रुओं को मारने (च) और (अवभेदिने) शत्रुओं को छिन्न-भिन्न करने वाले (च) तथा दूतादि का (नमः) सत्कार करें, उन का सर्वत्र विजय होवे॥३४॥


भावार्थ - राजपुरुषों को चाहिये कि वन तथा कक्षाओं में रहने वाले अध्येता और अध्यापकों, बलिष्ठ सेनाओं, शीघ्र चलने हारे यानों में बैठने वाले वीरों और दूतों को अन्न, धनादि से सत्कारपूर्वक उत्साह देके सदा विजय को प्राप्त हों॥३४॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - स्वराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


नमो॑ बि॒ल्मिने॑ च॒ कव॒चिने॑ च॒ नमो॑ व॒र्मिणे॑ च वरू॒थिने॑ च॒ नमः॑ श्रु॒ताय॑ च श्रुतसे॒नाय॑ च॒ नमो॑ दुन्दु॒भ्याय चाहन॒न्याय च॥३५॥


विषय - योद्धाओं की रक्षा कैसे करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे राजन् और प्रजा के अध्यक्ष पुरुषो! आप लोग (बिल्मिने) प्रशंसित धारण वा पोषण करने (च) और (कवचिने) शरीर के रक्षक कवच को धारण करने (च) तथा उन के सहायकारियों का (नमः) सत्कार करें (वर्मिणे) शरीररक्षा के बहुत साधनों से युक्त (च) और (वरूथिने) प्रशंसित घरों वाले (च) तथा घर आदि के रक्षकों को (नमः) अन्नादि देवें (श्रुताय) शुभ गुणों में प्रख्यात (च) और (श्रुतसेनाय) प्रख्यात सेना वाले (च) तथा सेनाओं का (नमः) सत्कार (च) और (दुन्दुभ्याय) बाजे बजाने में चतुर बजन्तरी (च) तथा (आहनन्याय) वीरों को युद्ध में उत्साह बढ़ने के बाजे बजाने में कुशल पुरुष का (नमः) सत्कार कीजिये जिससे तुम्हारा पराजय कभी न हो॥३५॥


भावार्थ - राजा और प्रजा के पुरुषों को चाहिये कि योद्धा लोगों की सब प्रकार रक्षा, सब के सुखदायी घर, खाने-पीने के योग्य पदार्थ, प्रशंसित पुरुषों का संग और अत्युत्तम बाजे आदि दे के अपने अभीष्ट कार्यों को सिद्ध करें॥३५॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - स्वराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


नमो॑ धृ॒ष्णवे॑ च प्रमृ॒शाय॑ च॒ नमो॑ निष॒ङ्गिणे॑ चेषुधि॒मते॑ च॒ नम॑स्ती॒क्ष्णेष॑वे चायु॒धिने॑ च॒ नमः॑ स्वायु॒धाय॑ च सु॒धन्व॑ने च॥३६॥


विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जो राजा और प्रजा के अधिकारी लोग (धृष्णवे) दृढ़ (च) और (प्रमृशाय) उत्तम विचारशील (च) तथा कोमल स्वभाव वाले पुरुष को (नमः) अन्न देवें (निषङ्गिणे) बहुत शस्त्रों वाले (च) और (इषुधिमते) प्रशंसित शस्त्र, अस्त्र और कोश वाले का (च) भी (नमः) सत्कार और (तीक्ष्णेषवे) तीक्ष्ण शस्त्र-अस्त्रों से युक्त (च) और (आयुधिने) अच्छे प्रकार तोप आदि से लड़ने वाले वीरों से युक्त अध्यक्ष पुरुष का (च) भी (नमः) सत्कार करें (स्वायुधाय) सुन्दर आयुधों वाले (च) और (सुधन्वने) अच्छे धनुषों से युक्त (च) तथा उनके रक्षकों को (नमः) अन्न देवें, वे सदा विजय को प्राप्त होवें॥३६॥


भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि जो कुछ कर्म करें सो अच्छे प्रकार विचार और दृढ़ उत्साह से करें, क्योंकि शरीर और आत्मा के बल के बिना शस्त्रों को चलाना और शत्रुओं का जीतना कभी नहीं कर सकते। इसलिये निरन्तर सेना की उन्नति करें॥३६॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः



नमः॒ स्रुत्या॑य च॒ पथ्या॑य च॒ नमः॒ काट्या॑य च॒ नीप्या॑य च॒ नमः॒ कुल्या॑य च सर॒स्याय च॒ नमो॑ नादे॒या॑य च वैश॒न्ताय॑ च॥३७॥


विषय - मनुष्य लोग जल से कैसे उपकार लेवें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

मनुष्यों को चाहिये कि (स्रुत्याय) स्रोता नाले आदि में रहने (च) और (पथ्याय) मार्ग में चलने (च) तथा मार्गादि को शोधने वाले को (नमः) अन्न दे (काट्याय) कूप आदि में प्रसिद्ध (च) और (नीप्याय) बड़े जलाशय में होने (च) तथा उसके सहायी का (नमः) सत्कार (कुल्याय) नहरों का प्रबन्ध करने (च) और (सरस्याय) तालाब के काम में प्रसिद्ध होने वाले का (नमः) सत्कार (च) और (नादेयाय) नदियों के तट पर रहने (च) और (वैशन्ताय) छोटे-छोटे जलाशयों के जीवों को (च) और वापी आदि के प्राणियों को (नमः) अन्नादि देके दया प्रकाशित करें॥३७॥


भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि नदियों के मार्गों, बंबों, कूपों, जलप्राय देशों, बड़े और छोटे तालाबों के जल को चला, जहां-कहीं बांध और खेत आदि में छोड़ के, पुष्कल अन्न, फल, वृक्ष, लता, गुल्म आदि को अच्छे प्रकार बढ़ावें॥३७॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः



नमः॒ कूप्या॑य चाव॒ट्याय च॒ नमो॒ वीध्र्या॑य चात॒प्याय च॒ नमो॒ मेघ्या॑य च विद्यु॒त्याय च॒ नमो॒ वर्ष्या॑य चाव॒र्ष्याय॑ च॥३८॥


विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

मनुष्य लोग (कूप्याय) कूप के (च) और (अवट्याय) गड्ढों (च) तथा जङ्गलों के जीवों को (नमः) अन्नादि दे (च) और (वीध्र्याय) विविध प्रकाशों में रहने (च) और (आतप्याय) घाम में रहने वाले वा (च) खेती आदि के प्रबन्ध करने वाले को (नमः) अन्न दे (मेघ्याय) मेघ में रहने (च) और (विद्युत्याय) बिजुली से काम लेने वाले को (च) तथा अग्निविद्या के जानने वाले को (नमः) अन्नादि दे (च) और (वर्ष्याय) वर्षा में रहने (च) तथा (अवर्ष्याय) वर्षारहित देश में वसने वाले का (नमः) सत्कार करके आनन्दित होवें॥३८॥


भावार्थ - जो मनुष्य कूपादि से कार्यसिद्धि होने के लिये भृत्यों का सत्कार करें तो अनेक उत्तम-उत्तम कार्यों को सिद्ध कर सकें॥३८॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - स्वराडार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः


नमो॒ वात्या॑य च॒ रेष्म्या॑य च॒ नमो॑ वास्त॒व्याय च वास्तु॒पाय॑ च॒ नमः॒ सोमा॑य च रु॒द्राय॑ च॒ नम॑स्ता॒म्राय॑ चारु॒णाय॑ च॥३९॥


विषय - अब मनुष्य जगत् के अन्य पदार्थों से कैसे उपकार लेवें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

जो मनुष्या (वात्याय) वायुविद्या में कुशल (च) और (रेष्म्याय) मारने वालों में प्रसिद्ध को (च) भी (नमः) अन्नादि देवें (च) तथा (वास्तव्याय) निवास के स्थानों में हुए (च) और (वास्तुपाय) निवासस्थान के रक्षक का (नमः) सत्कार करें (च) तथा (सोमाय) धनाढ्य (च) और (रुद्राय) दुष्टों को रोदन कराने हारे को (नमः) अन्नादि देवें (च) तथा (ताम्राय) बुरे कामों से ग्लानि करने (च) और (अरुणाय) अच्छे पदार्थों को प्राप्त कराने हारे का (नमः) सत्कार करें, वे लक्ष्मी से सम्पन्न होवें॥३९॥


भावार्थ - जब मनुष्य वायु आदि के गुणों को जान के व्यवहारों में लगावें, तब अनेक सुखों को प्राप्त हों॥३९॥


ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - अतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः


नमः॑ श॒ङ्गवे॑ च पशु॒पत॑ये च॒ नम॑ उ॒ग्राय॑ च भी॒माय॑ च॒ नमो॑ऽग्रेव॒धाय॑ च दूरेव॒धाय॑ च॒ नमो॑ ह॒न्त्रे च॒ हनी॑यसे च॒ नमो॑ वृ॒क्षेभ्यो॒ हरि॑केशेभ्यो॒ नम॑स्ता॒राय॑॥४०॥


विषय - मनुष्यों को कैसे संतोषी होना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जो मनुष्य (शङ्गवे) सुख को प्राप्त होने (च) और (पशुपतये) गौ आदि पशुओं की रक्षा करने वाले को (च) और गौ आदि को भी (नमः) अन्नादि पदार्थ देवें (उग्राय) तेजस्वी (च) और (भीमाय) डर दिखाने वाले का (च) भी (नमः) सत्कार करें (अग्रेवधाय) पहिले शत्रुओं को बांधने हारे (च) और (दूरेवधाय) दूर पर शत्रुओं को बांधने वा मारने वाले को (च) भी (नमः) अन्नादि देवें (हन्त्रे) दुष्टों को मारने (च) और (हनीयसे) दुष्टों का अत्यन्त निर्मूल विनाश करने हारे को (च) भी (नमः) अन्नादि देवें (वृक्षेभ्यः) शत्रु को काटने वालों को वा वृक्षों का और (हरिकेशेभ्यः) हरे केशों वाले ज्वानों वा हरे पत्तों वाले वृक्षों का (नमः) सत्कार करें वा जलादि देवें और (ताराय) दुःख से पार करने वाले पुरुष को (नमः) अन्नादि देवें वे सुखी हों॥४०॥


भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि गौ आदि पशुओं के पालन और भयङ्कर जीवों की शान्ति करने से संतोष करें॥४०॥


ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - स्वराडार्षी बृहती स्वरः - मध्यमः


नमः॑ शम्भ॒वाय॑ च मयोभ॒वाय॑ च॒ नमः॑ शङ्क॒राय॑ च मयस्क॒राय॑ च॒ नमः॑ शि॒वाय॑ च शि॒वत॑राय च॥४१॥


विषय - मनुष्यों को कैसे अपना अभीष्ट सिद्ध करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जो मनुष्य (शभ्मवाय) सुख को प्राप्त कराने हारे परमेश्वर (च) और (मयोभवाय) सुखप्राप्ति के हेतु विद्वान् (च) का भी (नमः) सत्कार (शङ्कराय) कल्याण करने (च) और (मयस्कराय) सब प्राणियों को सुख पहुँचाने वाले का (च) भी (नमः) सत्कार (शिवाय) मङ्गलकारी (च) और (शिवतराय) अत्यन्त मङ्गलस्वरूप पुरुष का (च) भी (नमः) सत्कार करते हैं, वे कल्याण को प्राप्त होते हैं॥४१॥


भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि प्रेमभक्ति के साथ सब मङ्गलों के दाता परमेश्वर की ही उपासना और सेनाध्यक्ष का सत्कार करें, जिससे अपने अभीष्ट कार्य्य सिद्ध हों॥४१॥


ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


नमः॒ पार्या॑य चावा॒र्याय च॒ नमः॑ प्र॒तर॑णाय चो॒त्तर॑णाय च॒ नम॒स्तीर्थ्या॑य च॒ कूल्या॑य च॒ नमः॒ शष्प्या॑य च॒ फेन्या॑य च॥४२॥


विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जो मनुष्य (पार्याय) दुःखों से पार हुए (च) और (अवार्याय) इधर के भाग में हुए का (च) भी (नमः) सत्कार (च) तथा (प्रतरणाय) उस तट से नौकादि द्वारा इस पार पहुँचे वा पहुँचाने (च) और (उत्तरणाय) इस पार से उस पार पहुंचने वा पहुँचाने वाले का (नमः) सत्कार करें (तीर्थ्याय) वेदविद्या के पढ़ाने वालों और सत्यभाषणादि कामों में प्रवीण (च) और (कूल्याय) समुद्र तथा नदी आदि के तटों पर रहने वाले को (च) भी (नमः) अन्न देवें (शष्प्याय) तृण आदि कार्यों में साधु (च) और (फेन्याय) फेन बुद्बुदादि के कार्यों में प्रवीण पुरुष को (च) भी (नमः) अन्नादि देवें, वे कल्याण को प्राप्त होवें॥४२॥


भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि नौकादि यानों में शिक्षित मल्लाह आदि को रख समुद्रादि के इस पार, उस पार जा-आके देश-देशान्तर और द्वीपद्वीपान्तरों में व्यवहार से धन की उन्नति करके अपना अभीष्ट सिद्ध करें॥४२॥


ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः


नमः॑ सिक॒त्याय च प्रवा॒ह्याय च॒ नमः॑ किꣳशि॒लाय॑ च क्षय॒णाय॑ च॒ नमः॑ कप॒र्दिने॑ च पुल॒स्तये॑ च॒ नम॑ऽइरि॒ण्याय च प्र॒पथ्याय च॥४३


विषय - फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जो मनुष्य (सिकत्याय) बालू से पदार्थ निकालने में चतुर (च) और (प्रवाह्याय) बैल आदि के चलाने वालों में प्रवीण को (च) भी (नमः) अन्न (किंशिलाय) शिलावृत्ति करने (च) और (क्षयणाय) निवासस्थान में रहने वाले को (च) भी (नमः) अन्न (कपर्दिने) जटाधारी (च) और (पुलस्तये) बड़े-बड़े शरीरों को फेंकने वाले को (च) भी (नमः) अन्न देवें (इरिण्याय) ऊसर भूमि से अति उपकार लेने वाले (च) और (प्रपथ्याय) उत्तम धर्म के मार्गों में प्रवीण पुरुष का (च) भी (नमः) सत्कार करें, वे सब के प्रिय होवें॥४३॥


भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि भूगर्भविद्यानुसार बालू, मट्टी आदि से सुवर्णादि धातुओं को निकाल बहुत ऐश्वर्य को बढ़ा के अनाथों का पालन करें॥४३॥


ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


नमो॒ व्रज्या॑य च॒ गोष्ठ्या॑य च॒ नम॒स्तल्प्या॑य च॒ गेह्या॑य च॒ नमो॑ हृद॒य्याय च निवे॒ष्याय च॒ नमः॒ काट्या॑य च गह्वरे॒ष्ठाय॑ च॒॥४४॥


विषय - कैसे मनुष्य सुखी होते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जो मनुष्य (व्रज्याय) क्रियाओं में प्रसिद्ध (च) और (गोष्ठ्याय) गौ आदि के स्थानों के उत्तम प्रबन्धकर्त्ता को (च) भी (नमः) अन्नादि देवें (तल्प्याय) खट्वादि के निर्माण में प्रवीण (च) और (गेह्याय) घर में रहने वाले को (च) भी (नमः) अन्न देवें (हृदय्याय) हृदय के विचार में कुशल (च) और (निवेष्याय) विषयों में निरन्तर व्याप्त होने में प्रवीण पुरुष का (च) भी (नमः) सत्कार करें (काट्याय) आच्छादित गुप्त पदार्थों को प्रकट करने (च) और (गह्वरेष्ठाय) गहन अति कठिन गिरिकन्दराओं में उत्तम रहने वाले पुरुष को (च) भी (नमः) अन्नादि देवें, वे सुख को प्राप्त होवें॥४४॥


भावार्थ - जो मनुष्य मेघ से उत्पन्न वर्षा और वर्षा से उत्पन्न हुए तृण आदि की रक्षा से गौ आदि पशुओं को बढ़ावें, वे पुष्कल भोग को प्राप्त होवें॥४४॥


ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


नमः॒ शुष्क्या॑य च हरि॒त्याय च॒ नमः॑ पा स॒व्याय च रज॒स्याय च॒ नमो॒ लोप्या॑य चोल॒प्याय च॒ नम॒ऽऊर्व्या॑य च॒ सूर्व्या॑य च॥४५॥


विषय - फिर उन मनुष्यों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जो मनुष्य (शुष्क्याय) नीरस पदार्थों में रहने (च) और (हरित्याय) सरस पदार्थों में प्रसिद्ध को (च) भी (नमः) जलादि देवें (पांसव्याय) धूलि में रहने (च) और (रजस्याय) लोक-लोकान्तरों में रहने वाले का (च) भी (नमः) मान करें (लोप्याय) छेदन करने में प्रवीण (च) और (उलप्याय) फेंकने में कुशल पुरुष का (च) भी (नमः) मान करें (ऊर्व्याय) मारने में प्रसिद्ध (च) और (सूर्व्याय) सुन्दरता से ताड़ना करने वाले का (च) भी (नमः) सत्कार करें, उनके सब कार्य सिद्ध होवें॥४५॥


भावार्थ - मनुष्य सुखाने और हरापन आदि करने वाले वायुओं को जान के अपने कार्य सिद्ध करें॥४५॥


ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - स्वराट् प्रकृतिः स्वरः - धैवतः


नमः॑ प॒र्णाय॑ च पर्णश॒दाय॑ च॒ नम॑ऽउद्गु॒रमा॑णाय चाभिघ्न॒ते च॒ नम॑ऽआखिद॒ते च॑ प्रखिद॒ते च॒ नम॑ऽइषु॒कृद्भ्यो॑ धनु॒ष्कृद्भ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नमो॑ वः किरि॒कभ्यो॑ दे॒वाना॒ᳬ हृद॑येभ्यो॒ नमो॑ विचिन्व॒त्केभ्यो॒ नमो॑ विक्षिण॒त्केभ्यो॒ नम॑ऽआनिर्ह॒तेभ्यः॑॥४६॥


विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जो मनुष्य (पर्णाय) प्रत्युपकार से रक्षक को (च) और (पर्णशदाय) पत्तों को काटने वाले को (च) भी (नमः) अन्न (उद्गुरमाणाय) उत्तम प्रकार से उद्यम करने (च) और (अभिघ्नते) सन्मुख होके दुष्टों को मारने वाले को (च) भी (नमः) अन्न देवें (आखिदते) दीन निर्धन (च) और (प्रखिदते) अतिदरिद्री जन का (च) भी (नमः) सत्कार करें (इषुकृद्भ्यः) बाणों को बनाने वाले को (नमः) अन्नादि देवें (च) और (धनुष्कृद्भ्यः) धनुष् बनाने वाले (वः) तुम लोगों का (नमः) सत्कार करें (देवानाम्) विद्वानों को (हृदयेभ्यः) अपने आत्मा के समान प्रिय (किरिकेभ्यः) बाण आदि शस्त्र फेंकने वाले (वः) तुम लोगों को (नमः) अन्नादि देवें (विचिन्वत्केभ्यः) शुभ गुणों वा पदार्थों का सञ्चय करने वालों का (नमः) सत्कार (विक्षिणत्केभ्यः) शत्रुओं के नाशक जनों का (नमः) सत्कार और (आनिर्हतेभ्यः) अच्छे प्रकार पराजय को प्राप्त हुए लोगों का (नमः) सत्कार करें, वे सब ओर से धनी होते हैं॥४६॥


भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि सब ओषधियों से अन्नादि उत्तम पदार्थों का ग्रहण कर अनाथ मनुष्यादि प्राणियों को देके सब को आनन्दित करें॥४६॥


ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - भुरिगार्षी बृहती स्वरः - मध्यमः


द्रापे॒ऽअन्ध॑सस्पते॒ दरि॑द्र॒ नील॑लोहित। आ॒सां प्र॒जाना॑मे॒षां प॑शू॒नां मा भे॒र्मा रो॒ङ् मो च॑ नः॒ किं च॒नाम॑मत्॥४७॥


विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (द्रापे) निन्दित गति से रक्षक (अन्धसः) अन्न आदि के (पते) स्वामी (दरिद्र) दरिद्रता को प्राप्त हुए (नीललोहित) नीलवर्णयुक्त पदार्थों का सेवन करने हारे राजा वा प्रजा के पुरुष! तू (आसाम्) इन प्रत्यक्ष (प्रजानाम्) मनुष्यादि (च) और (एषाम्) इन (पशूनाम्) गौ आदि पशुओं के रक्षक होके इनसे (मा) (भेः) मत भय को प्राप्त कर (मा) (रोक्) मत रोग को प्राप्त कर (नः) हम को और अन्य (किम्) किसी को (चन) भी (मो) मत (आममत्) रोगी करे॥४७॥


भावार्थ - जो धनाढ्य हैं, वे दरिद्रों का पालन करें तथा जो राजा और प्रजा के पुरुष हैं, वे प्रजा के पशुओं को कभी न मारें, जिससे प्रजा में सब प्रकार सब का सुख बढ़े॥४७॥


ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - आर्षी जगती स्वरः - निषादः


इ॒मा रु॒द्राय॑ त॒वसे॑ कप॒र्दिने॑ क्ष॒यद्वी॑राय॒ प्र भ॑रामहे म॒तीः। यथा॒ श॑मसद् द्वि॒पदे॒ चतु॑ष्पदे॒ विश्वं॑ पु॒ष्टं ग्रामे॑ऽअ॒स्मिन्न॑नातु॒रम्॥४८॥


विषय - विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे शत्रुरोदक वीरपुरुष! (यथा) जैसे (अस्मिन्) इस (ग्रामे) ब्रह्माण्डसमूह में (अनातुरम्) दुःखरहित (पुष्टम्) रोगरहित होने से बलवान् (विश्वम्) सब जगत् (शम्) सुखी (असत्) हो वैसे हम लोग (द्विपदे) मनुष्यादि (चतुष्पदे) गौ आदि (तवसे) बली (कपर्दिने) ब्रह्मचर्य को सेवन किये (क्षयद्वीराय) दुष्टों के नाशक वीरों से युक्त (रुद्राय) पापी को रुलाने हारे सेनापति के लिये (इमाः) इन (मतीः) बुद्धिमानों का (प्रभरामहे) अच्छे प्रकार पोषण करते हैं, वैसे तू भी उस को धारण कर॥४८॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वानों को चाहिये कि जैसे प्रजाओं में स्त्रीपुरुष बुद्धिमान् हों वैसे अनुष्ठान कर मनुष्य पश्वादियुक्त राज्य को रोगरहित, पुष्टियुक्त और निरन्तर सुखी करें॥४८॥


ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - आर्ष्युष्णिक् स्वरः - गान्धारः


या ते॑ रुद्र शि॒वा त॒नूः शि॒वा वि॒श्वाहा॑ भेष॒जी। शि॒वा रु॒तस्य॑ भेष॒जी तया॑ नो मृड जी॒वसे॑॥४९॥


विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (रुद्र) राजा के वैद्य तू (या) जो (ते) तेरी (शिवा) कल्याण करने वाली (तनूः) देह वा विस्तारयुक्त नीति (शिवा) देखने में प्रिय (भेषजी) ओषधियों के तुल्य रोगनाशक और (रुतस्य) रोगी को (शिवा) सुखदायी (भेषजी) पीड़ा हरने वाली है (तया) उससे (जीवसे) जीने के लिये (विश्वाहा) सब दिन (नः) हम को (मृड) सुख कर॥४९॥


भावार्थ - राजा के वैद्य आदि विद्वानों को चाहिये कि धर्म की नीति, ओषधि के दान, हस्तक्रिया की कुशलता और शस्त्रों से छेदन-भेदन करके रोगों से बचा के सब सेना और प्रजाओं को प्रसन्न करें॥४९॥


ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


परि॑ नो रु॒द्रस्य॑ हे॒तिर्वृ॑णक्तु॒ परि॑ त्वे॒षस्य॑ दुर्म॒तिर॑घा॒योः। अव॑ स्थि॒रा म॒घव॑द्भ्यस्तनुष्व॒ मीढ्व॑स्तो॒काय॒ तन॑याय मृड॥५०॥


विषय - राजपुरुषों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (मीढ्वः) सुख वर्षाने हारे राजपुरुष! आप जो (रुद्रस्य) सभापति राजा का (हेतिः) वज्र है, उससे (त्वेषस्य) क्रोधादिप्रज्वलित (अघायोः) अपने से दुष्टाचार करने हारे पुरुष के सम्बन्ध से (नः) हम लोगों को (परि, वृणक्तु) सब प्रकार पृथक् कीजिये। जो (दुर्मतिः) दुष्टबुद्धि है, उससे भी हम को बचाइये और जो (मघवद्भ्यः) प्रशंसित धनवालों से प्राप्त हुई (स्थिरा) स्थिर बुद्धि है, उस को (तोकाय) शीघ्र उत्पन्न हुए बालक (तनयाय) कुमार पुरुष के लिये (परि, तनुष्व) सब ओर से विस्तृत करिये और इस बुद्धि से सब को निरन्तर (अव, मृड) सुखी कीजिये॥५०॥


भावार्थ - राजपुरुषों का धर्मयुक्त पुरुषार्थ वही है कि जिससे प्रजा की रक्षा और दुष्टों को मारना हो, इससे श्रेष्ठ वैद्य लोग सब को आरोग्य और स्वतन्त्रता के सुख की उन्नति करें, जिससे सब सुखी हों॥५०॥


ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - निचृदार्षी यवमध्या त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


मीढु॑ष्टम॒ शिव॑तम शि॒वो नः॑ सु॒मना॑ भव। प॒र॒मे वृ॒क्षऽआयु॑धं नि॒धाय॒ कृत्तिं॒ वसा॑न॒ऽआ च॑र॒ पिना॑क॒म्बिभ्र॒दा ग॑हि॥५१॥


विषय - सभाध्यक्षादिकों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (मीढुष्टम) अत्यन्तपराक्रमयुक्त (शिवतम) अति कल्याणकारी सभा वा सेना के पति! आप (नः) हमारे लिये (सुमनाः) प्रसन्न चित्त से (शिवः) सुखकारी (भव) हूजिये (आयुधम्) खड्ग, भुशुण्डी और शतघ्नी आदि शस्त्रों का (निधाय) ग्रहण कर (कृत्तिम्) मृगचर्मादि की अङ्गरखी को (वसानः) शरीर में पहिने (पिनाकम्) आत्मा के रक्षक धनुष् वा बखतर आदि को (बिभ्रत्) धारण किये हुए हम लोगों की रक्षा के लिये (आगहि) आइये (परमे) प्रबल (वृक्षे) काटने योग्य शत्रु की सेना में (आचर) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये॥५१॥


भावार्थ - सभा और सेना के अध्यक्ष आदि लोग अपनी प्रजाओं में मङ्गलाचारी और दुष्टों में अग्नि के तुल्य तेजस्वी दाहक हों, जिससे सब लोग धर्ममार्ग को छोड़ के अधर्म का आचरण कभी न करें॥५१॥


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