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ऋग्वेद मंडल 1, सूक्त 6

यु॒ञ्जन्ति॑ ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑त॒स्थुषः॑। रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि॥ 1.6.1।।

स्वर सहित पद पाठ

यु॒ञ्जन्ति॑ । ब्र॒ध्नम् । अ॒रु॒षम् । चर॑न्तम् । परि॑ । त॒स्थुषः॑ । रोच॑न्ते । रो॒च॒ना । दि॒वि ॥


स्वर रहित मन्त्र

युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परितस्थुषः। रोचन्ते रोचना दिवि॥

स्वर रहित पद पाठ

युञ्जन्ति। ब्रध्नम्। अरुषम्। चरन्तम्। परि। तस्थुषः। रोचन्ते। रोचना। दिवि॥

विषय - छठे सूक्त के प्रथम मन्त्र में यथायोग्य कार्य्यों में किस प्रकार से किन-किन पदार्थों को संयुक्त करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है-


पदार्थ -

जो मनुष्य (अरुषम्) अङ्ग-अङ्ग में व्याप्त होनेवाले हिंसारहित सब सुख को करने (चरन्तम्) सब जगत् को जानने वा सब में व्याप्त (परितस्थुषः) सब मनुष्य वा स्थावर जङ्गम पदार्थ और चराचर जगत् में भरपूर हो रहा है, (ब्रध्नम्) उस महान् परमेश्वर को उपासना योग द्वारा प्राप्त होते हैं, वे (दिवि) प्रकाशरूप परमेश्वर और बाहर सूर्य्य वा पवन के बीच में (रोचना) ज्ञान से प्रकाशमान होके (रोचन्ते) आनन्द में प्रकाशित होते हैं। तथा जो मनुष्य (अरुषम्) दृष्टिगोचर में रूप का प्रकाश करने तथा अग्निरूप होने से लाल गुणयुक्त (चरन्तम्) सर्वत्र गमन करनेवाले (ब्रध्नम्) महान् सूर्य्य और अग्नि को शिल्पविद्या में (परियुञ्जन्ति) सब प्रकार से युक्त करते हैं, वे जैसे (दिवि) सूर्य्यादि के गुणों के प्रकाश में पदार्थ प्रकाशित होते हैं, वैसे (रोचनाः) तेजस्वी होके (रोचन्ते) नित्य उत्तम-उत्तम आनन्द से प्रकाशित होते हैं॥१॥


भावार्थ - जो लोग विद्यासम्पादन में निरन्तर उद्योग करनेवाले होते हैं, वे ही सब सुखों को प्राप्त होते हैं। इसलिये विद्वान् को उचित है कि पृथिवी आदि पदार्थों से उपयोग लेकर सब प्राणियों को लाभ पहुँचावें कि जिससे उनको भी सम्पूर्ण सुख मिलें। जो यूरोपदेशवासी मोक्षमूलर साहब आदि ने इस मन्त्र का अर्थ घोड़े को रथ में जोड़ने का लिया है, सो ठीक नहीं। इसका खण्डन भूमिका में लिख दिया है, वहाँ देख लेना चाहिये॥१॥


यु॒ञ्जन्त्य॑स्य॒ काम्या॒ हरी॒ विप॑क्षसा॒ रथे॑। शोणा॑ धृ॒ष्णू नृ॒वाह॑सा॥1.6.2।।

स्वर सहित पद पाठ

यु॒ञ्जन्ति॑ । अ॒स्य॒ । काम्या॑ । हरी॒ इति॑ । विप॑क्षसा । रथे॑ । शोणा॑ । धृ॒ष्णू इति॑ । नृ॒ऽवाह॑सा ॥


स्वर रहित मन्त्र

युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे। शोणा धृष्णू नृवाहसा॥

स्वर रहित पद पाठ

युञ्जन्ति। अस्य। काम्या। हरी इति। विपक्षसा। रथे। शोणा। धृष्णू इति। नृऽवाहसा॥

विषय - उक्त सूर्य्य और अग्नि आदि के कैसे गुण हैं, और वे कहाँ-कहाँ उपयुक्त करने योग्य हैं, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है-


पदार्थ -

हे विद्वान् लोगो ! (अस्य) सूर्य्य और अग्नि के (काम्या) सब के इच्छा करने योग्य (शोणा) अपने-अपने वर्ण के प्रकाश करनेहारे वा गमन के हेतु (धृष्णू) दृढ (विपक्षसा) विविध कला और जल के चक्र घूमनेवाले पांखरूप यन्त्रों से युक्त (नृवाहसा) अच्छी प्रकार सवारियों में जुड़े हुए मनुष्यादिकों को देशदेशान्तर में पहुँचानेवाले (हरी) आकर्षण और वेग तथा शुक्लपक्ष और कृष्णपक्षरूप दो घोड़े जिनसे सब का हरण किया जाता है, इत्यादि श्रेष्ठ गुणों को पृथिवी जल और आकाश में जाने आने के लिये अपने-अपने रथों में (युञ्जन्ति) जोड़ें॥२॥


भावार्थ - ईश्वर उपदेश करता है कि-मनुष्य लोग जब तक भू जल आदि पदार्थों के गुण ज्ञान और उनके उपकार से भू जल और आकाश में जाने आने के लिये अच्छी सवारियों को नहीं बनाते, तब तक उनको उत्तम राज्य और धन आदि उत्तम सुख नहीं मिल सकते। जरमन देश के रहनेवाले मोक्षमूलर साहब ने इस मन्त्र का विपरीत व्याख्यान किया है। सो यह है कि-अस्य सर्वनामवाची इस शब्द के निर्देश से स्पष्ट मालूम होता है कि इस मन्त्र में इन्द्र देवता का ग्रहण है, क्योंकि लाल रंग के घोड़े इन्द्र ही के हैं। और यहाँ सूर्य्य तथा उषा का ग्रहण नहीं, क्योंकि प्रथम मन्त्र में एक घोड़े का ही ग्रहण किया है। यह उनका अर्थ ठीक नहीं, क्योंकि अस्य इस पद से भौतिक जो सूर्य्य और अग्नि हैं, इन्हीं दोनों का ग्रहण है, किसी देहधारी का नहीं। हरी इस पद से सूर्य्य के धारण और आकर्षण गुणों का ग्रहण तथा शोणा इस शब्द से अग्नि की लाल लपटों के ग्रहण होने से और पूर्व मन्त्र में एक अश्व का ग्रहण जाति के अभिप्राय से अर्थात् एकवचन से ब्रध्न जाति का ग्रहण होता है। और अस्य यह शब्द प्रत्यक्ष अर्थ का वाची होने से सूर्य्यादि प्रत्यक्ष पदार्थों का ग्राहक होता है, इत्यादि हेतुओं से मोक्षमूलर साहब का अर्थ सच्चा नहीं॥२॥

के॒तुं कृ॒ण्वन्न॑के॒तवे॒ पेशो॑ मर्या अपे॒शसे॑। समु॒षद्भि॑रजायथाः॥1.6.3।।

स्वर सहित पद पाठ

के॒तुम् । कृ॒ण्वन् । अ॒के॒तवे॑ । पेशः॑ । म॒र्याः॒ । अ॒पे॒शसे॑ । सम् । उ॒षत्ऽभिः॑ । अ॒जा॒य॒थाः॒ ॥


स्वर रहित मन्त्र

केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे। समुषद्भिरजायथाः॥

स्वर रहित पद पाठ

केतुम्। कृण्वन्। अकेतवे। पेशः। मर्याः। अपेशसे। सम्। उषत्ऽभिः। अजायथाः॥

विषय - जिसने संसार के सब पदार्थ उत्पन्न किये हैं, वह कैसा है, यह बात अगले मन्त्र में प्रकाशित की है-


पदार्थ -

(मर्य्याः) हे मनुष्य लोगो ! जो परमात्मा (अकेतवे) अज्ञानरूपी अन्धकार के विनाश के लिये (केतुम्) उत्तम ज्ञान, और (अपेशसे) निर्धनता दारिद्र्य तथा कुरूपता विनाश के लिये (पेशः) सुवर्ण आदि धन और श्रेष्ठ रूप को (कृण्वन्) उत्पन्न करता है, उसको तथा सब विद्याओं को (समुषद्भिः) जो ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल वर्त्तनेवाले हैं, उनसे मिल कर जानो। तथा हे जानने की इच्छा करनेवाले मनुष्य ! तू भी उस परमेश्वर के समागम से (अजायथाः) इस विद्या को यथावत् प्राप्त हो॥३॥


भावार्थ - मनुष्यों को प्रति रात्रि के चौथे प्रहर में आलस्य छोड़कर फुरती से उठ कर अज्ञान और दरिद्रता के विनाश के लिये प्रयत्नवाले होकर तथा परमेश्वर के ज्ञान और संसारी पदार्थों से उपकार लेने के लिये उत्तम उपाय सदा करना चाहिये। यद्यपि मर्य्याः इस पद से किसी का नाम नहीं मालूम होता, तो भी यह निश्चय करके जाना जाता है कि इस मन्त्र में इन्द्र का ही ग्रहण है कि-हे इन्द्र तू वहाँ प्रकाश करनेवाला है कि जहाँ पहिले प्रकाश नहीं था। यह मोक्षमूलरजी का अर्थ असङ्गत है, क्योंकि मर्य्याः यह शब्द मनुष्य के नामों में निघण्टु में पढ़ा है, तथा अजायथाः यह प्रयोग पुरुषव्यत्यय से प्रथम पुरुष के स्थान में मध्यम पुरुष का प्रयोग किया है॥३॥

आदह॑ स्व॒धामनु॒ पुन॑र्गर्भ॒त्वमे॑रि॒रे। दधा॑ना॒ नाम॑ य॒ज्ञिय॑म्॥1.6.4।।

स्वर सहित पद पाठ

आत् । अह॑ । स्व॒धाम् । अनु॑ । पुनः॑ । ग॒र्भ॒ऽत्वम् आ॒ऽई॒रि॒रे । दधा॑नाः । नाम॑ । य॒ज्ञिय॑म् ॥


स्वर रहित मन्त्र

आदह स्वधामनु पुनर्गर्भत्वमेरिरे। दधाना नाम यज्ञियम्॥

स्वर रहित पद पाठ

आत्। अह। स्वधाम्। अनु। पुनः। गर्भऽत्वम् आऽईरिरे। दधानाः। नाम। यज्ञियम्॥

विषय - अगले मन्त्र में वायु के कर्मों का उपदेश किया है-


पदार्थ -

जैसे मरुतः वायु (नाम) जल और (यज्ञियम्) यज्ञ के योग्य देश को (दधानाः) सब पदार्थों को धारण किये हुए (पुनः) फिर-फिर (स्वधामनु) जलों में (गर्भत्वम्) उनके समूहरूपी गर्भ को (एरिरे) सब प्रकार से प्राप्त होते कम्पाते, वैसे (आत्) उसके उपरान्त वर्षा करते हैं, ऐसे ही वार-वार जलों को चढ़ाते वर्षाते हैं॥४॥


भावार्थ - जो जल सूर्य्य वा अग्नि के संयोग से छोटा-छोटा हो जाता है, उसको धारण कर और मेघ के आकार को बना के वायु ही उसे फिर-फिर वर्षाता है, उसी से सब का पालन और सब को सुख होता है।इसके पीछे वायु अपने स्वभाव के अनुकूल बालक के स्वरूप में बन गये और अपना नाम पवित्र रख लिया। देखिये मोक्षमूलर साहब का किया अर्थ मन्त्रार्थ से विरुद्ध है, क्योंकि इस मन्त्र में बालक बनना और अपना पवन नाम रखना, यह बात ही नहीं है। यहाँ इन्द्र नामवाले वायु का ही ग्रहण है, अन्य किसी का नहीं॥४॥

वी॒ळु चि॑दारुज॒त्नुभि॒र्गुहा॑ चिदिन्द्र॒ वह्नि॑भिः। अवि॑न्द उ॒स्रिया॒ अनु॑॥1.6.5।।

स्वर सहित पद पाठ

वी॒ळु । चि॒त् । आ॒रु॒ज॒त्नुऽभिः॑ । गुहा॑ । चि॒त् । इ॒न्द्र॒ । वह्नि॑ऽभिः । अवि॑न्दः । उ॒स्रियाः॑ । अनु॑ ॥


स्वर रहित मन्त्र

वीळु चिदारुजत्नुभिर्गुहा चिदिन्द्र वह्निभिः। अविन्द उस्रिया अनु॥

स्वर रहित पद पाठ

वीळु। चित्। आरुजत्नुऽभिः। गुहा। चित्। इन्द्र। वह्निऽभिः। अविन्दः। उस्रियाः। अनु॥

विषय - उन पवनों के साथ सूर्य्य क्या करता है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है-


पदार्थ -

(चित्) जैसे मनुष्य लोग अपने पास के पदार्थों को उठाते धरते हैं, (चित्) वैसे ही सूर्य्य भी (वीळु) दृढ बल से (उस्रियाः) अपनी किरणों करके संसारी पदार्थों को (अविन्दः) प्राप्त होता है, (अनु) उसके अनन्तर सूर्य्य उनको छेदन करके (आरुजत्नुभिः) भङ्ग करने और (वह्निभिः) आकाश आदि देशों में पहुँचानेवाले पवन के साथ ऊपर-नीचे करता हुआ (गुहा) अन्तरिक्ष अर्थात् पोल में सदा चढ़ाता गिराता रहता है॥५॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे बलवान् पवन अपने वेग से भारी-भारी दृढ वृक्षों को तोड़ फोड़ डालते और उनको ऊपर नीचे गिराते रहते हैं, वैसे ही सूर्य्य भी अपनी किरणों से उनका छेदन करता रहता है, इससे वे ऊपर नीचे गिरते रहते हैं। इसी प्रकार ईश्वर के नियम से सब पदार्थ उत्पत्ति और विनाश को भी प्राप्त होते रहते हैं। ।हे इन्द्र ! तू शीघ्र चलनेवाले वायु के साथ अप्राप्त स्थान में रहनेवाली गौओं को प्राप्त हुआ। यह भी मोक्षमूलर साहब की व्याख्या असङ्गत है, क्योंकि उस्रा यह शब्द निघण्टु में रश्मि नाम में पढ़ा है, इससे सूर्य्य की किरणों का ही ग्रहण होना योग्य है। तथा गुहा इस शब्द से सबको ढाँपनेवाला होने से अन्तरिक्ष का ग्रहण है॥५॥

दे॒व॒यन्तो॒ यथा॑ म॒तिमच्छा॑ वि॒दद्व॑सुं॒ गिरः॑। म॒हाम॑नूषत श्रु॒तम्॥1.6.6।।

स्वर सहित पद पाठ

दे॒व॒ऽयन्तः॑ । यथा॑ । म॒तिम् । अच्छ॑ । वि॒दत्ऽव॑सुम् । गिरः॑ । म॒हाम् । अ॒नू॒ष॒त॒ । श्रु॒तम् ॥


स्वर रहित मन्त्र

देवयन्तो यथा मतिमच्छा विदद्वसुं गिरः। महामनूषत श्रुतम्॥

स्वर रहित पद पाठ

देवऽयन्तः। यथा। मतिम्। अच्छ। विदत्ऽवसुम्। गिरः। महाम्। अनूषत। श्रुतम्॥

विषय - फिर वे पवन कैसे हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-


पदार्थ -

जैसे (देवयन्तः) सब विज्ञानयुक्त (गिरः) विद्वान् मनुष्य (विदद्वसुम्) सुखकारक पदार्थविद्या से युक्त (महाम्) अत्यन्त बड़ी (मतिम्) बुद्धि (श्रुतम्) सब शास्त्रों के श्रवण और कथन को (अच्छ) अच्छी प्रकार (अनूषत) प्रकाश करते हैं, वैसे ही अच्छी प्रकार साधन करने से वायु भी शिल्प अर्थात् सब कारीगरी को सिद्ध करते हैं ॥६॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को वायु के उत्तम गुणों का ज्ञान, सब का उपकार और विद्या की वृद्धि के लिये प्रयत्न सदा करना चाहिये, जिससे सब व्यवहार सिद्ध हों। गान करनेवाले धर्मात्मा जो वायु हैं, उन्होंने इन्द्र को ऐसी वाणी सुनाई कि तू जीत जीत। यह भी मोक्षमूलर का अर्थ अच्छा नहीं, क्योंकि देवयन्तः इस शब्द का अर्थ यह है कि मनुष्य लोग अपने अन्तःकरण से विद्वानों के मिलने की इच्छा रखते हैं। इस अर्थ से मनुष्यों का ग्रहण होता है ॥६॥

इन्द्रे॑ण॒ सं हि दृक्ष॑से संजग्मा॒नो अबि॑भ्युषा। म॒न्दू स॑मा॒नव॑र्चसा॥1.6.7।।

स्वर सहित पद पाठ

इन्द्रे॑ण । सम् । हि । दृक्ष॑से । स॒म्ऽज॒ग्मा॒नः । अबि॑भ्युषा । म॒न्दू इति॑ । स॒मा॒नऽव॑र्चसा ॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्रेण सं हि दृक्षसे संजग्मानो अबिभ्युषा। मन्दू समानवर्चसा॥

स्वर रहित पद पाठ

इन्द्रेण। सम्। हि। दृक्षसे। सम्ऽजग्मानः। अबिभ्युषा। मन्दू इति। समानऽवर्चसा॥

विषय - उक्त पदार्थ किस के सहाय से कार्य्य के सिद्ध करनेवाले होते हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-


पदार्थ -

यह वायु (अबिभ्युषा) भय दूर करनेवाली (इन्द्रेण) परमेश्वर की सत्ता के साथ (संजग्मानः) अच्छी प्रकार प्राप्त हुआ, तथा वायु के साथ सूर्य्य (संदृक्षसे) अच्छी प्रकार दृष्टि में आता है, (हि) जिस कारण ये दोनों (समानवर्चसा) पदार्थों के प्रसिद्ध बलवान् हैं, इसी से वे सब जीवों को (मन्दू) आनन्द के देनेवाले होते हैं॥७॥


भावार्थ - ईश्वर ने जो अपनी व्याप्ति और सत्ता से सूर्य्य और वायु आदि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, इन सब पदार्थों के बीच में से सूर्य्य और वायु ये दोनों मुख्य हैं, क्योंकि इन्हीं के धारण आकर्षण और प्रकाश के योग से सब पदार्थ सुशोभित होते हैं। मनुष्यों को चाहिये कि उन्हें पदार्थविद्या से उपकार लेने के लिये युक्त करें। यह बड़ा आश्चर्य्य है कि बहुवचन के स्थान में एकवचन का प्रयोग किया गया, तथा निरुक्तकार ने द्विवचन के स्थान में एकवचन का प्रयोग माना है, सो असङ्गत है। यह भी मोक्षमूलर साहब की कल्पना ठीक नहीं, क्योंकि व्यत्ययो ब० सुप्तिङुपग्रह० व्याकरण के इस प्रमाण से वचनव्यत्यय होता है। तथा निरुक्तकार का व्याख्यान सत्य है, क्योंकि सुपा सु० इस सूत्र से मन्दू इस शब्द में द्विवचन को पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश हो गया है॥७॥

अ॒न॒व॒द्यैर॒भिद्यु॑भिर्म॒खः सह॑स्वदर्चति। ग॒णैरिन्द्र॑स्य॒ काम्यैः॑॥1.6.8।।

स्वर सहित पद पाठ

अ॒न॒व॒द्यैः । अ॒भिद्यु॑ऽभिः । म॒खः । सह॑स्वत् । अ॒र्च॒ति॒ । ग॒णैः । इन्द्र॑स्य । काम्यैः॑ ॥


स्वर रहित मन्त्र

अनवद्यैरभिद्युभिर्मखः सहस्वदर्चति। गणैरिन्द्रस्य काम्यैः॥

स्वर रहित पद पाठ

अनवद्यैः। अभिद्युऽभिः। मखः। सहस्वत्। अर्चति। गणैः। इन्द्रस्य। काम्यैः॥

विषय - पूर्वोक्त नित्य वर्तमान व्यवहार किस प्रकार से है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


पदार्थ -

जो यह (मखः) सुख और पालन होने का हेतु यज्ञ है, वह (इन्द्रस्य) सूर्य्य की (अनवद्यैः) निर्दोष (अभिद्युभिः) सब ओर से प्रकाशमान और (काम्यैः) प्राप्ति की इच्छा करने के योग्य (गणैः) किरणों वा पवनों के साथ मिलकर सब पदार्थों को (सहस्वत्) जैसे दृढ़ होते हैं, वैसे ही (अर्चति) श्रेष्ठ गुण करनेवाला होता है॥८॥


भावार्थ - जो शुद्ध अत्युत्तम होम के योग्य पदार्थों के अग्नि में किये हुए होम से किया हुआ यज्ञ है, वह वायु और सूर्य्य की किरणों की शुद्धि के द्वारा रोगनाश करने के हेतु से सब जीवों को सुख देकर बलवान् करता है। यहाँ मखशब्द से यज्ञ करनेवाले का ग्रहण है, तथा देवों के शत्रु का भी ग्रहण है। यह भी मोक्षमूलर साहब का कहना ठीक नहीं, क्योंकि जो मखशब्द यज्ञ का वाची है, वह सूर्य्य की किरणों के सहित अच्छे-अच्छे वायु के गुणों से हवन किये हुए पदार्थों को सर्वत्र पहुँचाता है, तथा वायु और वृष्टिजल की शुद्धि का हेतु होने से सब प्राणियों को सुख देनेवाला होता है। और मख शब्द के उपमावाचक होने से देवों के शत्रु का भी ग्रहण नहीं॥८॥

अतः॑ परिज्म॒न्ना ग॑हि दि॒वो वा॑ रोच॒नादधि॑। सम॑स्मिन्नृञ्जते॒ गिरः॑॥1.6.9।।

स्वर सहित पद पाठ

अतः॑ । प॒रि॒ज्म॒न् । आ । ग॒हि॒ । दि॒वः । वा॒ । रो॒च॒नात् । अधि॑ । सम् । अ॒स्मि॒न् । ऋ॒ञ्ज॒ते॒ । गिरः॑ ॥


स्वर रहित मन्त्र

अतः परिज्मन्ना गहि दिवो वा रोचनादधि। समस्मिन्नृञ्जते गिरः॥

स्वर रहित पद पाठ

अतः। परिज्मन्। आ। गहि। दिवः। वा। रोचनात्। अधि। सम्। अस्मिन्। ऋञ्जते। गिरः॥

विषय - अगले मन्त्र में गमनस्वभाववाले पवन का प्रकाश किया है॥


पदार्थ -

जिस वायु में (गिरः) वाणी का सब व्यवहार (समृञ्जते) सिद्ध होता है, वह (परिज्मन्) सर्वत्र गमन करता हुआ सब पदार्थों को तले ऊपर पहुँचानेवाला पवन (अतः) इस पृथिवीस्थान से जलकणों का ग्रहण करके (अध्यागहि) ऊपर पहुँचाता और फिर (दिवः) सूर्य्य के प्रकाश से (वा) अथवा (रोचनात्) जो कि रुचि को बढ़ानेवाला मेघमण्डल है, उससे जल को गिराता हुआ तले पहुँचाता है। (अस्मिन्) इसी बाहर और भीतर रहनेवाले पवन में सब पदार्थ स्थिति को प्राप्त होते हैं॥९॥


भावार्थ - यह बलवान् वायु अपने गमन आमगन गुण से सब पदार्थों के गमन आगमन धारण तथा शब्दों के उच्चारण और श्रवण का हेतु है।इस मन्त्र में सायणाचार्य्य ने जो उणादिगण में सिद्ध परिज्मन् शब्द था, उसे छोड़कर मनिन्प्रत्ययान्त कल्पना किया है, सो केवल उनकी भूल है। हे इधर-उधर विचरनेवाले मनुष्यदेहधारी इन्द्र ! तू आगे पीछे और ऊपर से हमारे समीप आ, यह सब गानेवालों की इच्छा है। यह भी उन (मोक्षमूलर साहब) का अर्थ अत्यन्त विपरीत है, क्योंकि इस वायुसमूह में मनुष्यों की वाणी शब्दों के उच्चारणव्यवहार से प्रसिद्ध होने से प्राणरूप वायु का ग्रहण है॥९॥

इ॒तो वा॑ सा॒तिमीम॑हे दि॒वो वा॒ पार्थि॑वा॒दधि॑। इन्द्रं॑ म॒हो वा॒ रज॑सः॥1.6.10।।

स्वर सहित पद पाठ

इ॒तः । वा॒ । सा॒तिम् । ईम॑हे । दि॒व । वा॒ । पार्थि॑वात् । अधि॑ । इन्द्र॑म् । म॒हः । वा॒ । रज॑सः ॥


स्वर रहित मन्त्र

इतो वा सातिमीमहे दिवो वा पार्थिवादधि। इन्द्रं महो वा रजसः॥

स्वर रहित पद पाठ

इतः। वा। सातिम्। ईमहे। दिव। वा। पार्थिवात्। अधि। इन्द्रम्। महः। वा। रजसः॥

विषय - अगले मन्त्र में सूर्य्य के कर्म का उपदेश किया है-


पदार्थ -

हम लोग (इतः) इस (पार्थिवात्) पृथिवी के संयोग (वा) और (दिवः) इस अग्नि के प्रकाश (वा) लोकलोकान्तरों अर्थात् चन्द्र और नक्षत्रादि लोकों से भी (सातिम्) अच्छी प्रकार पदार्थों के विभाग करते हुए (वा) अथवा (रजसः) पृथिवी आदि लोकों से (महः) अति विस्तारयुक्त (इन्द्रम्) सूर्य्य को (ईमहे) जानते हैं॥१०॥


भावार्थ - सूर्य्य की किरण पृथिवी में स्थित हुए जलादि पदार्थों को भिन्न-भिन्न करके बहुत छोटे-छोटे कर देती है, इसी से वे पदार्थ पवन के साथ ऊपर को चढ़ जाते हैं, क्योंकि वह सूर्य्य सब लोकों से बड़ा है। हम लोग आकाश पृथिवी तथा बड़े आकाश से सहाय के लिये इन्द्र की प्रार्थना करते हैं, यह भी डाक्टर मोक्षमूलर साहब की व्याख्या अशुद्ध है, क्योंकि सूर्य्यलोक सब से बड़ा है, और उसका आना-जाना अपने स्थान को छोड़ के नहीं होता, ऐसा हम लोग जानते हैं॥१०॥सूर्य्य और पवन से जैसे पुरुषार्थ की सिद्धि करनी चाहिये तथा वे लोक जगत् में किस प्रकार से वर्त्तते रहते हैं और कैसे उनसे उपकारसिद्धि होती है, इन प्रयोजनों से पाँचवें सूक्त के अर्थ के साथ छठे सूक्तार्थ की सङ्गति जाननी चाहिये। और सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपदेशवासी अङ्गरेज विलसन आदि लोगों ने भी इस सूक्त के मन्त्रों के अर्थ बुरी चाल से वर्णन किये हैं।

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