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यजुर्वेद अध्याय 16 (21-30)

 ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - निचृदतिधृतिः स्वरः - षड्जः


नमो॒ वञ्च॑ते परि॒वञ्च॑ते स्तायू॒नां पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ निष॒ङ्गिण॑ऽइषुधि॒मते॒ तस्क॑राणां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमः॑ सृका॒यिभ्यो॒ जिघा॑सद्भ्यो मुष्ण॒तां पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ऽसि॒मद्भ्यो॒ नक्तं॒ चर॑द्भ्यो विकृ॒न्तानां॒ पत॑ये॒ नमः॑॥२१॥


विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

राजपुरुष (वञ्चते) छल से दूसरों के पदार्थों को हरने वाले (परिवञ्चते) सब प्रकार कपट के साथ वर्त्तमान पुरुष को (नमः) वज्र का प्रहार और (स्तायूनाम्) चोरी से जीने वालों के (पतये) स्वामी को (नमः) वज्र से मारें (निषङ्गिणे) राज्यरक्षा के लिये निरन्तर उद्यत (इषुधिमते) प्रशंसित बाणों को धारण करने हारे को (नमः) अन्न देवें (तस्कराणाम्) चोरी करने हारों को (पतये) उस कर्म में चलाने हारे को (नमः) वज्र और (सृकायिभ्यः) वज्र से सज्जनों को पीडि़त करने को प्राप्त होने और (जिघांसद्भ्यः) मारने की इच्छा वालों को (नमः) वज्र से मारें (मुष्णताम्) चोरी करते हुओं को (पतये) दण्डप्रहार से पृथिवी में गिराने हारे का (नमः) सत्कार करें (असिमद्भ्यः) प्रशंसित खड्गों के सहित (नक्तम्) रात्रि में (चरद्भ्यः) घूमने वाले लुटेरों को (नमः) शस्त्रों से मारें और (विकृन्तानाम्) विविध उपायों से गांठ काट के पर-पदार्थों को लेने हारे गठिकठों को (पतये) मार के गिराने हारे का (नमः) सत्कार करें॥२१॥


भावार्थ - राजपुरुषों को चाहिये कि कपटव्यवहार से छलने और दिन वा रात में अनर्थ करने हारे को रोक के धर्मात्माओं का निरन्तर पालन किया करें॥२१॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - निचृदष्टिः स्वरः - मध्यमः


नम॑ऽउष्णी॒षिणे॑ गिरिच॒राय॑ कुलु॒ञ्चानां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नम॑ऽइषु॒मद्भ्यो॑ धन्वा॒यिभ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नम॑ऽआतन्वा॒नेभ्यः॑ प्रति॒दधा॑नेभ्यश्च वो॒ नमो॒ नम॑ऽआ॒यच्छ॒द्भ्योऽस्य॑द्भ्यश्च वो॒ नमः॑॥२२॥


विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हम राज और प्रजा के पुरुष (उष्णीषिणे) प्रशंसित पगड़ी को धारण करने वाले ग्रामपति और (गिरिचराय) पर्वतों में विचरने वाले जंगली पुरुष का (नमः) सत्कार और (कुलुञ्चानाम्) बुरे स्वभाव से दूसरों के पदार्थ खोंसने वालों को (पतये) गिराने हारे का (नमः) सत्कार करते (इषुमद्भ्यः) बहुत बाणों वाले को (नमः) अन्न (च) तथा (धन्वायिभ्यः) धनुषों को प्राप्त होने वाले (वः) तुम लोगों के लिये (नमः) अन्न (आतन्वानेभ्यः) अच्छे प्रकार सुख के फैलाने हारों का (नमः) सत्कार (च) और (प्रतिदधानेभ्यः) शत्रुओं के प्रति शस्त्र धारण करने हारे (वः) तुम को (नमः) सत्कार प्राप्त (आयच्छद्भ्यः) दुष्टों को बुरे कर्मों से रोकने वालों को (नमः) अन्न देते (च) और (अस्यद्भ्यः) दुष्टों पर शस्त्रादि को छोड़ने वाले (वः) तुम्हारे लिये (नमः) सत्कार करते हैं॥२२॥


भावार्थ - राजा और प्रजा के पुरुषों को चाहिये कि प्रधान पुरुष आदि का वस्त्र और अन्नादि के दान से सत्कार करें॥२२॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - निचृदतिजगती स्वरः - निषादः


नमो॑ विसृ॒जद्भ्यो॒ विद्ध्य॑द्भ्यश्च वो॒ नमो॒ नमः॑ स्व॒पद्भ्यो॒ जाग्र॑द्भ्यश्च वो॒ नमो॒ नमः॒ शया॑नेभ्य॒ऽआसी॑नेभ्यश्च वो॒ नमो॒ नम॒स्तिष्ठ॑द्भ्यो॒ धाव॑द्भ्यश्च वो॒ नमः॑॥२३॥

विषय - फिर भी वह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! तुम ऐसा सब को जनाओ कि हम लोग (विसृजद्भ्यः) शत्रुओं पर शस्त्रादि छोड़ने वालों को (नमः) अन्नादि पदार्थ (च) और (विद्ध्यद्भ्यः) शस्त्रों से शत्रुओं को मारते हुए (वः) तुमको (नमः) अन्न (स्वपद्भ्यः) सोते हुओं के लिये (नमः) वज्र (च) और (जाग्रद्भ्यः) जागते हुए (वः) तुम को (नमः) अन्न (शयानेभ्यः) निद्रालुओं को (नमः) अन्न (च) और (आसीनेभ्यः) आसन पर बैठे हुए (वः) तुम को (नमः) अन्न (तिष्ठद्भ्यः) खड़े हुओं को (नमः) अन्न (च) और (धावद्भ्यः) शीघ्र चलते हुए (वः) तुम लोगों को (नमः) अन्न देवेंगे॥२३॥


भावार्थ - गृहस्थों को चाहिये कि करुणामय वचन बोल और अन्नादि पदार्थ देके सब प्राणियों को सुखी करें॥२३॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - शक्वरी स्वरः - धैवतः


नमः॑ स॒भाभ्यः॑ स॒भाप॑तिभ्यश्च वो॒ नमो॒ नमोऽश्वे॒भ्योऽश्व॑पतिभ्यश्च वो॒ नमो॒ नम॑ऽआव्या॒धिनी॑भ्यो वि॒विध्य॑न्तीभ्यश्च वो॒ नमो॒ नम॒ऽउग॑णाभ्यस्तृꣳह॒तीभ्य॑श्च वो॒ नमः॑॥२४॥


विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

मनुष्यों को सब के प्रति ऐसे कहना चाहिये कि हम लोग (सभाभ्यः) न्याय आदि के प्रकाश से युक्त स्त्रियों का (नमः) सत्कार (च) और (सभापतिभ्यः) सभाओं के रक्षक (वः) तुम राजाओं का (नमः) सत्कार करें (अश्वेभ्यः) घोड़ों को (नमः) अन्न (च) और (अश्वपतिभ्यः) घोड़ों के रक्षक (वः) तुम को (नमः) अन्न तथा (आव्याधिनीभ्यः) शत्रुओं की सेनाओं को मारने हारी अपनी सेनाओं के लिये (नमः) अन्न देवें (च) और (विविध्यन्तीभ्यः) शत्रुओं के वीरों को मारती हुई (वः) तुम स्त्रियों का (नमः) सत्कार करें (उगणाभ्यः) विविध तर्कों वाली स्त्रियों को (नमः) अन्न (च) और (तृंहतीभ्यः) युद्ध में मारती हुई (वः) तुम स्त्रियों के लिये (नमः) अन्न देवें तथा यथायोग्य सत्कार किया करें॥२४॥


भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि सभा और सभापतियों से ही राज्य की व्यवस्था करें। कभी एक राजा की अधीनता से स्थिर न हों, क्योंकि एक पुरुष से बहुतों के हिताहित का विचार कभी नहीं हो सकता इससे॥२४॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - भुरिक् शक्वरी स्वरः - धैवतः


नमो॑ ग॒णेभ्यो॑ ग॒णप॑तिभ्यश्च वो॒ नमो॒ नमो॒ व्राते॑भ्यो॒ व्रात॑पतिभ्यश्च वो॒ नमो॒ नमो॒ गृत्से॑भ्यो॒ गृत्स॑पतिभ्यश्च वो॒ नमो॒ नमो॒ विरू॑पेभ्यो वि॒श्वरू॑पेभ्यश्च वो॒ नमः॑॥२५॥


विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जैसे हम लोग (गणेभ्यः) सेवकों को (नमः) अन्न (च) और (गणपतिभ्यः) सेवकों के रक्षक (वः) तुम लोगों को (नमः) अन्न देवें (व्रातेभ्यः) मनुष्यों का (नमः) सत्कार (च) और (व्रातपतिभ्यः) मनुष्यों के रक्षक (वः) तुम्हारा (नमः) सत्कार (गृत्सेभ्यः) पदार्थों के गुणों को प्रकट करने वाले विद्वानों का (नमः) सत्कार (च) तथा (गृत्सपतिभ्यः) बुद्धिमानों के रक्षक (वः) तुम लोगों का (नमः) सत्कार (विरूपेभ्यः) विविधरूप वालों का (नमः) सत्कार (च) और (विश्वरूपेभ्यः) सब रूपों से युक्त (वः) तुम लोगों का (नमः) सत्कार करें, वैसे तुम लोग भी देओ, सत्कार करो॥२५॥


भावार्थ - सब मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों का उपकार, विद्वानों का सङ्ग, समग्र शोभा और विद्याओं को धारण करके सन्तुष्ट हों॥२५॥


विषय - फिर भी उक्त अर्थों ही का प्रकाश किया है-


पदार्थ -

हे (पावकः) पवित्र करनेवाले ईश्वर ! (यः) जो (हविष्मान्) उत्तम-उत्तम पदार्थ वा कर्म करनेवाला मनुष्य (देववीतये) उत्तम-उत्तम गुण और भोगों की परिपूर्णता के लिये (अग्निम्) सब सुखों के देनेवाले आपको (आविवासति) अच्छी प्रकार सेवन करता है, (तस्मै) उस सेवन करनेवाले मनुष्य को आप (मृळय) सब प्रकार सुखी कीजिये॥१॥९॥यह जो (हविष्मान्) उत्तम पदार्थवाला मनुष्य (देववीतये) उत्तम भोगों की प्राप्ति के लिये (अग्निम्) सुख करानेवाले भौतिक अग्नि का (आविवासति) अच्छी प्रकार सेवन करता है, (तस्मै) उसको यह अग्नि (पावक) पवित्र करनेवाला होकर (मृळय) सुखयुक्त करता है॥२॥९॥


भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जो मनुष्य अपने सत्यभाव कर्म और विज्ञान से परमेश्वर का सेवन करते हैं, वे दिव्यगुण पवित्रकर्म और उत्तम-उत्तम सुखों को प्राप्त होते हैं तथा जिससे यह दिव्य गुणों का प्रकाश करनेवाला अग्नि रचा है, उस अग्नि से मनुष्यों को उत्तम-उत्तम उपकार लेने चाहिये, इस प्रकार ईश्वर का उपदेश है॥९॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - भुरिगतिजगती स्वरः - निषादः


नमः॒ सेना॑भ्यः सेना॒निभ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नमो॑ र॒थिभ्यो॑ऽअर॒थेभ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नमः॑ क्ष॒त्तृभ्यः॑ सङ्ग्रही॒तृभ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नमो॑ म॒हद्भ्यो॑ऽअर्भ॒केभ्य॑श्च वो॒ नमः॑॥२६॥


विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे राज और प्रजा के पुरुषो! जैसे हम लोग (सेनाभ्यः) शत्रुओं को बांधने हारे सेनास्थ पुरुषों का (नमः) सत्कार करते (च) और (वः) तुम (सेनानिभ्यः) सेना के नायक प्रधान पुरुषों को (नमः) अन्न देते हैं (रथिभ्यः) प्रशंसित रथों वाले पुरुषों का (नमः) सत्कार (च) और (वः) तुम (अरथेभ्यः) रथों से पृथक् पैदल चलने वालों का (नमः) सत्कार करते हैं (क्षत्तृभ्यः) क्षत्रिय की स्त्री में शूद्र से उत्पन्न हुए वर्णसंकर के लिये (नमः) अन्नादि पदार्थ देते (च) और (वः) तुम (संग्रहीतृभ्यः) अच्छे प्रकार युद्ध की सामग्री को ग्रहण करने हारों का (नमः) सत्कार करते हैं (महद्भ्यः) विद्या और अवस्था से वृद्ध पूजनीय महाशयों को (नमः) अच्छा पकाया हुआ अन्नादि पदार्थ देते (च) और (वः) तुम (अर्भकेभ्यः) क्षुद्राशय शिक्षा के योग्य विद्यार्थियों का (नमः) निरन्तर सत्कार करते हैं, वैसे तुम लोग भी दिया, किया करो॥२६॥


भावार्थ - राजपुरुषों को चाहिये कि सब भृत्यों को सत्कार और शिक्षापूर्वक अन्नादि पदार्थों से उन्नति देके धर्म से राज्य का पालन करें॥२६॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - निचृच्छक्वरी स्वरः - धैवतः


नम॒स्तक्ष॑भ्यो रथका॒रेभ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नमः॒ कुला॑लेभ्यः क॒र्मारेभ्यश्च वो॒ नमो॒ नमो॑ निषा॒देभ्यः॑ पु॒ञ्जिष्ठे॑भ्यश्च वो॒ नमो॒ नमः॑ श्व॒निभ्यो॑ मृग॒युभ्य॑श्च वो॒ नमः॑॥२७॥


विषय - विद्वान् लोगों को किन का सत्कार करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जैसे राजा आदि हम लोग (तक्षभ्यः) पदार्थों को सूक्ष्मक्रिया से बनाने हारे तुम को (नमः) अन्न देते (च) और (रथकारेभ्यः) बहुत से विमानादि यानों को बनाने हारे (वः) तुम लोगों का (नमः) परिश्रमादि का धन देके सत्कार करते हैं (कुलालेभ्यः) प्रशंसित मट्टी के पात्र बनाने वालों को (नमः) अन्नादि पदार्थ देते (च) और (कर्मारेभ्यः) खड्ग, बन्दूक और तोप आदि शस्त्र बनाने वाले (वः) तुम लोगों का (नमः) सत्कार करते हैं (निषादेभ्यः) वन और पर्वतादि में रह कर दुष्ट जीवों को ताड़ना देने वाले तुम को (नमः) अन्नादि देते (च) और (पुञ्जिष्ठेभ्यः) श्वेतादि वर्णों वा भाषाओं में प्रवीण (वः) तुम्हारा (नमः) सत्कार करते हैं (श्वनिभ्यः) कुत्तों को शिक्षा करने हारे (वः) तुम को (नमः) अन्नादि देते (च) और (मृगयुभ्यः) अपने आत्मा से वन के हरिण आदि पशुओं को चाहने वाले तुम लोगों का (नमः) सत्कार करते हैं, वैसे तुम लोग भी करो॥२७॥


भावार्थ - विद्वान् लोग जो पदार्थविद्या को जान के अपूर्व कारीगरीयुक्त पदार्थों को बनावें, उनको पारितोषिक आदि देके प्रसन्न करें और जो कुत्ते आदि पशुओं को अन्नादि से रक्षा कर तथा अच्छी शिक्षा देके उपयोग में लावें, उनको सुख प्राप्त करावें॥२७॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - आर्षी जगती स्वरः - निषादः


नमः॒ श्वभ्यः॒ श्वप॑तिभ्यश्च वो॒ नमो॒ नमो॑ भ॒वाय॑ च रु॒द्राय॑ च॒ नमः॑ श॒र्वाय॑ च पशु॒पत॑ये च॒ नमो॒ नील॑ग्रीवाय च शिति॒कण्ठा॑य च॥२८॥


विषय - मनुष्य लोग किन से कैसा उपकार लेवें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जैसे हम परीक्षक लोग (श्वभ्यः) कुत्तों को (नमः) अन्न देवें (च) और (वः) तुम (श्वपतिभ्यः) कुत्तों को पालने वालों को (नमः) अन्न देवें तथा सत्कार करें (च) तथा (भवाय) जो शुभगुणों में प्रसिद्ध हो उस जन का (नमः) सत्कार (च) और (रुद्राय) दुष्टों को रुलाने हारे वीर का सत्कार (च) तथा (शर्वाय) दुष्टों को मारने वालों को (नमः) अन्नादि देते (च) और (पशुपतये) गौ आदि पशुओं के पालक को अन्न (च) और (नीलग्रीवाय) सुन्दर वर्ण वाले कण्ठ से युक्त (च) और (शितिकण्ठाय) तीक्ष्ण वा काले कण्ठ वाले को (नमः) अन्न देते और सत्कार करते हैं वैसे तुम भी दिया, किया करो॥२८॥


भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि कुत्ते आदि पशुओं को अन्नादि से बढ़ा के उनसे उपकार लेवें और पशुओं के रक्षकों का सत्कार भी करें॥२८॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - भुरिगतिजगती स्वरः - निषादः


नमः॑ कप॒र्दिने॑ च॒ व्युप्तकेशाय च॒ नमः॑ सहस्रा॒क्षाय॑ च श॒तध॑न्वने च॒ नमो॑ गिरिश॒याय॑ च शिपिवि॒ष्टाय॑ च॒ नमो॑ मी॒ढुष्ट॑माय॒ चेषु॑मते च॥२९॥


विषय - गृहस्थ लोगों को किनका सत्कार करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

गृहस्थ लोगों को चाहिये कि (कपर्दिने) जटाधारी ब्रह्मचारी (च) और (व्युप्तकेशाय) समस्त केश मुंडाने हारे संन्यासी (च) और संन्यास चाहते हुए को (नमः) अन्न देवें (च) तथा (सहस्राक्षाय) असंख्य शास्त्र के विषयादि को देखने वाले विद्वान् ब्राह्मण का (च) और (शतधन्वने) धनुष् आदि असंख्य शस्त्र विद्याओं के शिक्षक क्षत्रिय का (नमः) सत्कार करें (गिरिशयाय) पर्वतों के आश्रय से सोने हारे वानप्रस्थ का (च) और (शिपिविष्टाय) पशुओं के पालक वैश्य आदि (च) और शूद्र का (नमः) सत्कार करें (मीढुष्टमाय) वृक्ष, बगीचा और खेत आदि को अच्छे प्रकार सींचने वाले किसान लोगों (च) और माली आदि को (इषुमते) प्रशंसित बाणों वाले वीर पुरुष को (च) भी (नमः) अन्नादि देवें और सत्कार करें॥२९॥


भावार्थ - गृहस्थों को योग्य है कि ब्रह्मचारी आदि को सत्कारपूर्वक विद्यादान करें और करावें तथा संन्यासी आदि की सेवा करके विशेष विज्ञान का ग्रहण किया करें॥२९॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - विराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


नमो॑ ह्र॒स्वाय॑ च वाम॒नाय॑ च॒ नमो॑ बृह॒ते च॒ वर्षी॑यसे च॒ नमो॑ वृ॒द्धाय॑ च स॒वृधे॑ च॒ नमोऽग्र्या॑य च प्रथ॒माय॑ च॥३०॥


विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जो गृहस्थ लोग (ह्रस्वाय) बालक (च) और (वामनाय) प्रशंसित ज्ञानी (च) तथा मध्यम विद्वान् को (नमः) अन्न देते हैं (बृहते) बड़े (च) और (वर्षीयसे) विद्या में अतिवृद्ध (च) तथा विद्यार्थी का (नमः) सत्कार (वृद्धाय) अवस्था में अधिक (च) और (सवृधे) अपने समानों के साथ बढ़ने वाले (च) तथा सब के मित्र का (नमः) सत्कार (च) और (अग्र्याय) सत्कर्म करने में सब से पहिले उद्यत होने वाले (च) तथा (प्रथमाय) प्रसिद्ध पुरुष का (नमः) सत्कार करते हैं॥३०॥


भावार्थ - गृहस्थ मनुष्यों को उचित है कि अन्नादि पदार्थों से बालक आदि का सत्कार करके अच्छे व्यवहार की उन्नति करें॥३०॥

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