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ऋग्वेद अध्याय 01 (सूक्त 12)

ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


अ॒ग्निं दू॒तं वृ॑णीमहे॒ होता॑रं वि॒श्ववे॑दसम्। अ॒स्य य॒ज्ञस्य॑ सु॒क्रतु॑म्॥


विषय - अब बारहवें सूक्त के प्रथम मन्त्र में भौतिक अग्नि के गुणों का उपदेश किया है-


पदार्थ -

क्रिया करने की इच्छा करनेवाले हम मनुष्य लोग (अस्य) प्रत्यक्ष सिद्ध करने योग्य (यज्ञस्य) शिल्पविद्यारूप यज्ञ के (सुक्रतुम्) जिससे उत्तम-उत्तम क्रिया सिद्ध होती हैं, तथा (विश्ववेदसम्) जिससे कारीगरों को सब शिल्प आदि साधनों का लाभ होता है, (होतारम्) यानों में वेग आदि को देने (दूतम्) पदार्थों को एक देश से दूसरे देश को प्राप्त करने (अग्निम्) सब पदार्थों को अपने तेज से छिन्न-भिन्न करनेवाले भौतिक अग्नि को (वृणीमहे) स्वीकार करते हैं॥१॥


भावार्थ - ईश्वर सब मनुष्यों को आज्ञा देता है कि-यह प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष से विद्वानों ने जिसके गुण प्रसिद्ध किये हैं, तथा पदार्थों को ऊपर नीचे पहुँचाने से दूत स्वभाव तथा शिल्पविद्या से जो कलायन्त्र बनते हैं, उनके चलाने में हेतु और विमान आदि यानों में वेग आदि क्रियाओं का देनेवाला भौतिक अग्नि अच्छी प्रकार विद्या से सब सज्जनों के उपकार के लिये निरन्तर ग्रहण करना चाहिये, जिससे सब उत्तम-उत्तम सुख हों॥१॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


अ॒ग्निम॑ग्निं॒ हवी॑मभिः॒ सदा॑ हवन्त वि॒श्पति॑म्। ह॒व्य॒वाहं॑ पुरुप्रि॒यम्॥


विषय - अब अगले मन्त्र में दो प्रकार के अग्नि का उपदेश किया है-


पदार्थ -

जैसे हम लोग (हवीमभिः) ग्रहण करने योग्य उपासनादिकों तथा शिल्पविद्या के साधनों से (पुरुप्रियम्) बहुत सुख करानेवाले (विश्पतिम्) प्रजाओं के पालन हेतु और (हव्यवाहम्) देने-लेने योग्य पदार्थों को देने और इधर-उधर पहुँचानेवाले (अग्निम्) परमेश्वर प्रसिद्ध अग्नि और बिजुली को (वृणीमहे) स्वीकार करतें हैं, वैसे ही तुम लोग भी सदा (हवन्त) उस का ग्रहण करो॥२॥


भावार्थ - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। और पिछले मन्त्र से वृणीमहे इस पद की अनुवृत्ति आती है। ईश्वर सब मनुष्यों के लिये उपदेश करता है कि-हे मनुष्यो ! तुम लोगों को विद्युत् अर्थात् बिजुलीरूप तथा प्रत्यक्ष भौतिक अग्नि से कलाकौशल आदि सिद्ध करके इष्ट सुख सदैव भोगने और भुगवाने चाहियें॥२॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः


अग्ने॑ दे॒वाँ इ॒हाव॑ह जज्ञा॒नो वृ॒क्तब॑र्हिषे। असि॒ होता॑ न॒ ईड्यः॑॥


विषय - अगले मन्त्र में अग्नि शब्द से ईश्वर और भौतिक (अग्नि) के गुणों का उपदेश किया है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) स्तुति करने योग्य जगदीश्वर ! जो आप (इह) इस स्थान में (जज्ञानः) प्रकट कराने वा (होता) हवन किये हुए पदार्थों को ग्रहण करने तथा (ईड्यः) खोज करने योग्य (असि) हैं, सो (नः) हम लोग और (वृक्तबर्हिषे) अन्तरिक्ष में होम के पदार्थों को प्राप्त करनेवाले विद्वान् के लिये (देवान्) दिव्यगुणयुक्त पदार्थों को (आवह) अच्छे प्रकार प्राप्त कीजिये॥१॥३॥जो (होता) हवन किये हुए पदार्थों का ग्रहण करने तथा (जज्ञानः) उनकी उत्पत्ति करानेवाला (अग्ने) भौतिक अग्नि (वृक्तबर्हिषे) जिसके द्वारा होम करने योग्य पदार्थ अन्तरिक्ष में पहुँचाये जाते हैं, वह उस ऋत्विज् के लिये (इह) इस स्थान में (देवान्) दिव्यगुणयुक्त पदार्थों को (आवह) सब प्रकार से प्राप्त कराता है। इस कारण (नः) हम लोगों को वह (ईड्यः) खोज करने योग्य (असि) होता है॥२॥३॥


भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। हे मनुष्य लोगो ! जिस प्रत्यक्ष अग्नि में सुगन्धि आदि गुणयुक्त पदार्थों का होम किया करते हैं, जो उन पदार्थों के साथ अन्तरिक्ष में ठहरनेवाले वायु और मेघ के जल को शुद्ध करके इस संसार में दिव्य सुख उत्पन्न करता है, इस कारण हम लोगों को इस अग्नि के गुणों का खोज करना चाहिये, यह ईश्वर की आज्ञा सब को अवश्य माननी योग्य है॥३॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः


ताँ उ॑श॒तो वि बो॑धय॒ यद॑ग्ने॒ यासि॑ दू॒त्य॑म्। दे॒वैरास॑त्सि ब॒र्हिषि॑॥


विषय - अगले मन्त्र में भौतिक अग्नि के गुणों का उपदेश किया है-


पदार्थ -

यह (अग्ने) अग्नि (यत्) जिस कारण (बर्हिषि) अन्तरिक्ष में (देवैः) दिव्य पदार्थों के संयोग से (दूत्यम्) दूत भाव को (आयासि) सब प्रकार से प्राप्त होता है, (तान्) उन दिव्य गुणों को (विबोधय) विदित करानेवाला होता और उन पदार्थों के (सत्सि) दोषों का विनाश करता है, इससे सब मनुष्यों को विद्यासिद्धि के लिये इस अग्नि की ठीक-ठीक परीक्षा करके प्रयोग करना चाहिये॥४॥


भावार्थ - परमेश्वर आज्ञा देता है कि-हे मनुष्यो ! यह अग्नि तुम्हारा दूत है, क्योंकि हवन किये हुए परमाणुरूप पदार्थों को अन्तरिक्ष में पहुँचाता और उत्तम-उत्तम भोगों की प्राप्ति का हेतु है। इससे सब मनुष्यों को अग्नि के जो प्रसिद्ध गुण हैं, उनको संसार में अपने कार्य्यों की सिद्धि के किये अवश्य प्रकाशित करना चाहिये॥४॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः


घृता॑हवन दीदिवः॒ प्रति॑ ष्म॒ रिष॑तो दह। अग्ने॒ त्वं र॑क्ष॒स्विनः॑॥


विषय - उक्त अग्नि फिर भी क्या करता है, सो अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है-


पदार्थ -

(घृताहवन) जिसमें घी तथा जल क्रियासिद्ध होने के लिये छोड़ा जाता और जो अपने (दीदिवः) शुभ गुणों से पदार्थों को प्रकाश करनेवाला है, (त्वम्) वह (अग्ने) अग्नि (रक्षस्विनः) जिन समूहों में राक्षस अर्थात् दुष्टस्वभाववाले और निन्दा के भरे हुए मनुष्य विद्यमान हैं, तथा जो कि (रिषतः) हिंसा के हेतु दोष और शत्रु हैं, उनका (प्रति दह स्म) अनेक प्रकार से विनाश करता है, हम लोगों को चाहिये कि उस अग्नि को कार्यों में नित्य संयुक्त करें॥५॥


भावार्थ - जो अग्नि इस प्रकार सुगन्ध्यादि गुणवाले पदार्थों से संयुक्त होकर सब दुर्गन्ध आदि दोषों को निवारण करके सब के लिये सुखदायक होता है, वह अच्छे प्रकार काम में लाना चाहिये। ईश्वर का यह वचन सब मनुष्यों को मानना उचित है॥५॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः


अ॒ग्निना॒ग्निः समि॑ध्यते क॒विर्गृ॒हप॑ति॒र्युवा॑। ह॒व्य॒वाड् जु॒ह्वा॑स्यः॥


विषय - वह अग्नि कैसे प्रकाशित होता और किस प्रकार का है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है-


पदार्थ -

मनुष्यों को उचित है कि जो (जुह्वास्यः) जिसका मुख तेज ज्वाला और (कविः) क्रान्तदर्शन अर्थात् जिसमें स्थिरता के साथ दृष्टि नहीं पड़ती, तथा जो (युवा) पदार्थों के साथ मिलने और उनको पृथक्-पृथक् करने (हव्यवाट्) होम किये हुए पदार्थों को देशान्तरों में पहुँचाने और (गृहपतिः) स्थान तथा उनमें रहनेवालों का पालन करनेवाला है, उस से (अग्निः) यह प्रत्यक्ष रूपवान् पदार्थों को जलाने, पृथिवी और सूर्य्यलोक में ठहरनेवाला अग्नि (अग्निना) बिजुली से (समिध्यते) अच्छी प्रकार प्रकाशित होता है, वह बहुत कामों को सिद्ध करने के लिये प्रयुक्त करना चाहिये॥६॥


भावार्थ - जो यह सब पदार्थों में मिला हुआ विद्युद्रूप अग्नि कहाता है, उसी में प्रत्यक्ष यह सूर्य्यलोक और भौतिक अग्नि प्रकाशित होते हैं, और फिर जिसमें छिपे हुए विद्युद्रूप हो के रहते हैं, जो इन के गुण और विद्या को ग्रहण करके मनुष्य लोग उपकार करें, तो उन से अनेक व्यवहार सिद्ध होकर उनको अत्यन्त आनन्द की प्राप्ति होती है, यह जगदीश्वर का वचन है॥६॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः 


क॒विम॒ग्निमुप॑स्तुहि स॒त्यध॑र्माणमध्व॒रे। दे॒वम॑मीव॒चात॑नम्॥


विषय - अगले मन्त्र में अग्नि शब्द से ईश्वर और भौतिक अग्नि का उपदेश किया है-


पदार्थ -

हे मनुष्य ! तू (अध्वरे) उपासना करने योग्य व्यवहार में (सत्यधर्माणम्) जिसके धर्म नित्य और सनातन हैं, जो (अमीवचातनम्) अज्ञान आदि दोषों का विनाश करने तथा (कविम्) सब की बुद्धियों को अपने सर्वज्ञपन से प्राप्त होकर (देवम्) सब सुखों का देनेवाला (अग्निम्) सर्वज्ञ ईश्वर है, उसको (उपस्तुहि) मनुष्यों के समीप प्रकाशित कर॥१॥७॥हे मनुष्य ! तू (अध्वरे) करने योग्य यज्ञ में (सत्यधर्माणम्) जो कि अविनाशी गुण और (अमीवचातनम्) ज्वरादि रोगों का विनाश करने तथा (कविम्) सब स्थूल पदार्थों को दिखानेवाला और (देवम्) सब सुखों का दाता (अग्निम्) भौतिक अग्नि है, उसको (उपस्तुहि) सब के समीप सदा प्रकाशित कर॥२॥७॥


भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को सत्यविद्या से धर्म की प्राप्ति तथा शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये ईश्वर और भौतिक अग्नि के गुण अलग-अलग प्रकाशित करने चाहियें। जिससे प्राणियों को रोग आदि के विनाशपूर्वक सब सुखों की प्राप्ति यथावत् हो॥७॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः 


यस्त्वाम॑ग्ने ह॒विष्प॑तिर्दू॒तं दे॑व सप॒र्यति॑। तस्य॑ स्म प्रावि॒ता भ॑व॥


विषय - फिर भी अगले मन्त्र में ईश्वर और भौतिक अग्नि का उपदेश किया है-


पदार्थ -

हे (देव) सब के प्रकाश करनेवाले (अग्ने) विज्ञानस्वरूप जगदीश्वर ! (यः) जो (हविष्पतिः) देने-लेने योग्य वस्तुओं का पालन करनेवाला मनुष्य (दूतम्) ज्ञान देनेवाले आपका (सपर्य्यति) सेवन करता है, (तस्य) उस सेवक मनुष्य के आप (प्राविता) अच्छी प्रकार जाननेवाले (भव) हों॥१॥८॥(यः) जो (हविष्पतिः) देने-लेने योग्य पदार्थों की रक्षा करनेवाला मनुष्य (देव) प्रकाश और दाहगुणवाले (अग्ने) भौतिक अग्नि का (सपर्य्यति) सेवन करता है, (तस्य) उस मनुष्य का वह अग्नि (प्राविता) नाना प्रकार के सुखों से रक्षा करनेवाला (भव) होता है॥२॥८॥


भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। दूत शब्द का अर्थ दो पक्ष में समझना चाहिये अर्थात् एक इस प्रकार से कि सब मनुष्यों में ज्ञान का पहुँचाना ईश्वर पक्ष में, तथा एकदेश से दूसरे देश में पदार्थों का पहुँचाना भौतिक पक्ष में ग्रहण किया गया है। जो आस्तिक अर्थात् परमेश्वर में विश्वास रखनेवाले मनुष्य अपने हृदय में सर्वसाक्षी का ध्यान करते हैं, वे पुरुष ईश्वर से रक्षा को प्राप्त होकर पापों से बचकर धर्मात्मा हुए अत्यन्त सुख को प्राप्त होते हैं, तथा जो युक्ति से विमान आदि रथों में भौतिक अग्नि को संयुक्त करते हैं, वे भी युद्धादिकों में रक्षा को प्राप्त होकर औरों की रक्षा करनेवाले होते हैं॥८॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


यो अ॒ग्निं दे॒ववी॑तये ह॒विष्माँ॑ आ॒विवा॑सति। तस्मै॑ पावक मृळय॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः


विषय - फिर भी उक्त अर्थों ही का प्रकाश किया है-


पदार्थ -

हे (पावकः) पवित्र करनेवाले ईश्वर ! (यः) जो (हविष्मान्) उत्तम-उत्तम पदार्थ वा कर्म करनेवाला मनुष्य (देववीतये) उत्तम-उत्तम गुण और भोगों की परिपूर्णता के लिये (अग्निम्) सब सुखों के देनेवाले आपको (आविवासति) अच्छी प्रकार सेवन करता है, (तस्मै) उस सेवन करनेवाले मनुष्य को आप (मृळय) सब प्रकार सुखी कीजिये॥१॥९॥यह जो (हविष्मान्) उत्तम पदार्थवाला मनुष्य (देववीतये) उत्तम भोगों की प्राप्ति के लिये (अग्निम्) सुख करानेवाले भौतिक अग्नि का (आविवासति) अच्छी प्रकार सेवन करता है, (तस्मै) उसको यह अग्नि (पावक) पवित्र करनेवाला होकर (मृळय) सुखयुक्त करता है॥२॥९॥


भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जो मनुष्य अपने सत्यभाव कर्म और विज्ञान से परमेश्वर का सेवन करते हैं, वे दिव्यगुण पवित्रकर्म और उत्तम-उत्तम सुखों को प्राप्त होते हैं तथा जिससे यह दिव्य गुणों का प्रकाश करनेवाला अग्नि रचा है, उस अग्नि से मनुष्यों को उत्तम-उत्तम उपकार लेने चाहिये, इस प्रकार ईश्वर का उपदेश है॥९॥


स नः॑ पावक दीदि॒वोऽग्ने॑ दे॒वाँ इ॒हा व॑ह। उप॑ य॒ज्ञं ह॒विश्च॑ नः॥


विषय - फिर भी अगले मन्त्र में इन्हीं दोनों का उपदेश किया है-


पदार्थ -

हे (दीदिवः) अपने सामर्थ्य से प्रकाशवान् (पावक) पवित्र करने तथा (अग्ने) सब पदार्थों को प्राप्त करानेवाले (सः) जगदीश्वर ! आप (नः) हम लोगों के सुख के लिये (इह) इस संसार में (देवान्) विद्वानों को (आवह) प्राप्त कीजिये, तथा (नः) हमारे (यज्ञम्) उक्त तीन प्रकार के यज्ञ और (हविः) देनेलेने योग्य पदार्थों को (उपावह) हमारे समीप प्राप्त कीजिये॥१॥१०॥(यः) जो (दीदिवः) प्रकाशमान तथा (पावक) शुद्धि का हेतु (अग्ने) भौतिक अग्नि अच्छी प्रकार कलायन्त्रों में युक्त किया हुआ (नः) हम लोगों के सुख के लिये (इह) हमारे समीप (देवान्) दिव्यगुणों को (आवह) प्राप्त करता है, वह (नः) हमारे तीन प्रकार के उक्त (यज्ञम्) यज्ञ को तथा (हविः) उक्त पदार्थों को प्राप्त होकर सुखों को (उपावह) हमारे समीप प्राप्त करता रहता है॥२॥१०॥


भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जिस प्राणी को किसी पदार्थ की इच्छा उत्पन्न हो, वह अपनी कामसिद्धि के लिये परमेश्वर की प्रार्थना और पुरुषार्थ करे। जैसे इस वेद में जगदीश्वर के गुण, स्वभाव तथा औरों के उत्पन्न किये हुए दृष्टिगोचर होते हैं, वैसे मनुष्यों को उनके अनुकूल कर्म के अनुष्ठान से अग्नि आदि पदार्थों के गुणों को ग्रहण करके अनेक प्रकार व्यवहार की सिद्धि करना चाहिये॥१०॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


स नः॒ स्तवा॑न॒ आ भ॑र गाय॒त्रेण॒ नवी॑यसा। र॒यिं वी॒रव॑ती॒मिष॑म्॥


विषय - फिर भी अगले मन्त्र में उन्हीं देवों का उपदेश किया है-


पदार्थ -

हे भगवन् ! (सः) जगदीश्वर आप ! (नवीयसा) अच्छी प्रकार मन्त्रों के नवीन पाठ गानयुक्त (गायत्रेण) छन्दवाले प्रगाथों से (स्तवानः) स्तुति को प्राप्त किये हुए (नः) हमारे लिये (रयिम्) विद्या और चक्रवर्त्ति राज्य से उत्पन्न होनेवाले धन तथा जिसमें (वीरवतीम्) अच्छे-अच्छे वीर तथा विद्वान् हों, उस (इषम्) सज्जनों के इच्छा करने योग्य उत्तम क्रिया का (आभर) अच्छी प्रकार धारण कीजिये॥१॥११॥(सः) उक्त भौतिक अग्नि (नवीयसा) अच्छी प्रकार मन्त्रों के नवीन-नवीन पाठ तथा गानयुक्त स्तुति और (गायत्रेण) गायत्री छन्दवाले प्रगाथों से (स्तवानः) गुणों के साथ ग्रहण किया हुआ (रयिम्) उक्त प्रकार का धन (च) और (वीरवतीम् इषम्) उक्त गुणवाली उत्तम क्रिया को (आभर) अच्छी प्रकार धारण करता है॥२॥११॥(सः) उक्त भौतिक अग्नि (नवीयसा) अच्छी प्रकार मन्त्रों के नवीन-नवीन पाठ तथा गानयुक्त स्तुति और (गायत्रेण) गायत्री छन्दवाले प्रगाथों से (स्तवानः) गुणों के साथ ग्रहण किया हुआ (रयिम्) उक्त प्रकार का धन (च) और (वीरवतीम् इषम्) उक्त गुणवाली उत्तम क्रिया को (आभर) अच्छी प्रकार धारण करता है॥२॥११॥


भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। तथा पहिले मन्त्र से चकार की अनुवत्ति की है। हर एक मनुष्य को वेद आदि के नवीन-नवीन अध्ययन से वेद की उच्चारणक्रिया प्राप्त होती है, इस कारण नवीयसा इस पद का उच्चारण किया है। जिन धर्मात्मा मनुष्यों ने यथावत् शब्दार्थपूर्वक वेद के पढ़ने और वेदोक्त कर्मों के अनुष्ठान से जगदीश्वर को प्रसन्न किया है, उन मनुष्यों को वह उत्तम-उत्तम विद्या आदि धन तथा शूरता आदि गुणों को उत्पन्न करनेवाली श्रेष्ठ कामना को देता है, क्योंकि जो वेद के पढ़ने और परमेश्वर के सेवन से युक्त मनुष्य हैं, वे अनेक सुखों का प्रकाश करते हैं॥११॥


ऋषि: - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


अग्ने॑ शु॒क्रेण॑ शो॒चिषा॒ विश्वा॑भिर्दे॒वहू॑तिभिः। इ॒मं स्तोमं॑ जुषस्व नः॥


विषय - फिर भी अगले मन्त्र में इन्हीं के गुणों का उपदेश किया है-


पदार्थ -

हे (अग्ने) प्रकाशमय ईश्वर ! आप कृपा करके (शुक्रेण) अनन्तवीर्य के साथ (शोचिषा) शुद्धि करनेवाले प्रकाश तथा (विश्वाभिः) विद्वान् और वेदों की वाणियों से सब प्राणियों के लिये (नः) हमारे (इमम्) इस प्रत्यक्ष (स्तोमम्) स्तुतिसमूह को (जुषस्व) प्रीति के साथ सेवन कीजिये॥१॥यह (अग्ने) भौतिक अग्नि (विश्वाभिः) सब (देवहूतिभिः) विद्वान् तथा वेदों की वाणियों से अच्छी प्रकार सिद्ध किया हुआ (शुक्रेण) अपनी कान्ति वा (शोचिषा) पवित्र करनेवाले प्रकाश से (नः) हमारे (इमम्) इस (स्तोमम्) प्रशंसा करने योग्य कला की कुशलता को (जुषस्व) सेवन करता है॥२॥१२॥यह (अग्ने) भौतिक अग्नि (विश्वाभिः) सब (देवहूतिभिः) विद्वान् तथा वेदों की वाणियों से अच्छी प्रकार सिद्ध किया हुआ (शुक्रेण) अपनी कान्ति वा (शोचिषा) पवित्र करनेवाले प्रकाश से (नः) हमारे (इमम्) इस (स्तोमम्) प्रशंसा करने योग्य कला की कुशलता को (जुषस्व) सेवन करता है॥२॥१२॥


भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। दिव्यविद्याओं के प्रकाश होने से देव शब्द से वेदों का ग्रहण किया है। जब मनुष्य लोग सत्य प्रेम के साथ वेदवाणी से जगदीश्वर की स्तुति करते हैं, तब वह परमेश्वर उन मनुष्यों को विद्यादान से प्रसन्न करता है। वैसे ही यह भौतिक अग्नि भी विद्या से कलाकुशलता में युक्त किया हुआ इन्धन आदि पदार्थों में ठहर कर सब क्रियाकाण्ड का सेवन करता है॥१२॥इस बारहवें सूक्त के अर्थ की अग्निशब्द के अर्थ के योग से ग्यारहवें सूक्त के अर्थ से सङ्गति जाननी चाहिये। यह भी सूक्त सायणाचार्य्य आदि आर्य्यावर्तवासी तथा यूरोपदेशवासी विलसन आदि ने विपरीतता से वर्णन किया है॥


ऋग्वेद मंडल 01 सूक्त (11)

                                                ऋग्वेद मंडल 01 सूक्त (13)

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