ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - आर्ष्युनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
विकि॑रिद्र॒ विलो॑हित॒ नम॑स्तेऽअस्तु भगवः।
यास्ते॑ स॒हस्र॑ꣳ हे॒तयो॒ऽन्य॑म॒स्मन्नि व॑पन्तु॒ ताः॥५२॥
विषय - प्रजा के पुरुष राजपुरुषों के साथ कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (विकिरिद्र) विशेषकर सूअर के समान सोने वा उत्तम सूअर की निन्दा करने वाले (विलोहित) विविध पदार्थों को आरूढ़ (भगवः) ऐश्वर्य्ययुक्त सभापतेराजन्! (ते) आपको (नमः) सत्कार प्राप्त (अस्तु) हो जिससे (ते) आपके (याः) जो (सहस्रम्) असंख्यात प्रकार की (हेतयः) उन्नति वा वज्रादि शस्त्र हैं, (ताः) वे (अस्मत्) हम से (अन्यम्) भिन्न दूसरे शत्रु को (निवपन्तु) निरन्तर छेदन करें॥५२॥
भावार्थ - प्रजा के लोग राजपुरुषों से ऐसे कहें कि जो आप लोगों की उन्नति और शस्त्र-अस्त्र हैं, वे हम लोगों को सुख में स्थिर करें और इतर हमारे शत्रुओं का निवारण करें॥५२॥
ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
स॒हस्रा॑णि सहस्र॒शो बा॒ह्वोस्तव॑ हे॒तयः॑।
तासा॒मीशा॑नो भगवः परा॒चीना॒ मुखा॑ कृधि॥५३॥
विषय - राजपुरुषों को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ -
हे (भगवः) भाग्यशील सेनापते! जो (तव) आपके (बाह्वोः) भुजाओं की सबन्धिनी (सहस्राणि) असंख्य (हेतयः) वज्रों की प्रबल गति हैं (तासाम्) उनके (ईशानः) स्वामीपन को प्राप्त आप (सहस्रशः) हजारहों शत्रुओं के (मुखा) मुख (पराचीना) पीछे फेर के दूर (कृधि) कीजिये॥५३॥
भावार्थ - राजपुरुषों को उचित है कि बाहुबल से राज्य को प्राप्त हो और असंख्य शूरवीर पुरुषों की सेनाओं को रख के सब शत्रुओं के मुख फेरें॥५३॥
ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - विराडर्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
असं॑ख्याता स॒हस्रा॑णि॒ ये रु॒द्राऽअधि॒ भूम्या॑म्।
तेषा॑ᳬ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि॥५४॥
विषय - मनुष्य लोग कैसे उपकार ग्रहण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे हम लोग (ये) जो (असंख्याता) संख्यारहित (सहस्राणि) हजारों (रुद्राः) जीवों के सम्बन्धी वा पृथक् प्राणादि वायु (भूम्याम्) पृथिवी (अधि) पर हैं (तेषाम्) उनके सम्बन्ध से (सहस्रयोजने) असंख्य चार कोश के योजनों वाले देश में (धन्वानि) धनुषों का (अव, तन्मसि) विस्तार करें, वैसे तुम भी विस्तार करो॥५४॥
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि प्रतिशरीर में विभाग को प्राप्त हुए पृथिवी के सम्बन्धी असंख्य जीवों और वायुओं को जानें, उनसे उपकार लें और उन के कर्त्तव्य को भी ग्रहण करें॥५४॥
ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - भुरिगार्ष्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः
अ॒स्मिन् म॑ह॒त्यर्ण॒वेऽन्तरि॑क्षे भ॒वाऽअधि॑।
तेषा॑ᳬ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि॥५५॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे हम लोग जो (अस्मिन्) इस (महति) व्यापकता आदि बड़े-बड़े गुणों से युक्त (अर्णवे) बहुत जलों वाले समुद्र के समान अगाध (अन्तरिक्षे) सब के बीच अविनाशी आकाश में (भवाः) वर्त्तमान जीव और वायु हैं (तेषाम्) उनको उपयोग में लाके (सहस्रयोजने) असंख्यात चार कोश के योजनों वाले देश में (धन्वानि) धनुषों वा अन्नादि धान्यों को (अध्यव, तन्मसि) अधिकता के साथ विस्तार करें, वैसे तुम लोग भी करो॥५५॥
भावार्थ - मनुष्यों को योग्य है कि जैसे पृथिवी के जीव और वायुओं से कार्य सिद्ध करते हैं, वैसे आकाशस्थों से भी किया करें॥५५॥
ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - बहुरुद्रा देवताः छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
नील॑ग्रीवाः शिति॒कण्ठा॒ दिव॑ꣳरु॒द्राऽउप॑श्रिताः।
तेषा॑ᳬ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि॥५६॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे हम लोग जो (नीलग्रीवाः) कण्ठ में नील वर्ण से युक्त (शितिकण्ठाः) तीक्ष्ण वा श्वेत कण्ठ वाले (दिवम्) सूर्य्य को बिजुली जैसे वैसे (उपश्रिताः) आश्रित (रुद्राः) जीव वा वायु हैं (तेषाम्) उन के उपयोग से (सहस्रयोजने) असंख्य योजन वाले देश में (धन्वानि) शस्त्रादि को (अव, तन्मसि) विस्तार करें, वैसे तुम लोग भी करो॥५६॥
भावार्थ - विद्वानों को चाहिये कि अग्निस्थ वायुओं और जीवों को जान और उपयोग में लाके आग्नेय आदि अस्त्रों को सिद्ध करें॥५६॥
ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
नील॑ग्रीवाः शिति॒कण्ठाः॑ श॒र्वाऽअ॒धः क्ष॑माच॒राः।
तेषा॑ᳬ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि॥५७॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जो (नीलग्रीवाः) नीली ग्रीवा वाले तथा (शितिकण्ठाः) श्वेत कण्ठ वाले (शर्वाः) हिंसक जीव और (अधः) नीचे को वा (क्षमाचराः) पृथिवी में चलने वाले जीव हैं (तेषाम्) उन के (सहस्रयोजने) हजार योजन के देश में दूर करने के लिये (धन्वानि) धनुषों को हम लोग (अव, तन्मसि) विस्तृत करते हैं॥५७॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो वायु भूमि से आकाश और आकाश से भूमि को जाते-आते हैं। उनमें जो अग्नि और पृथिवी आदि के अवयव रहते हैं, उन को जान और उपयोग में लाके कार्य सिद्ध करें॥५७॥
ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
ये वृ॒क्षेषु॑ श॒ष्पिञ्ज॑रा॒ नील॑ग्रीवा॒ विलो॑हिताः।
तेषा॑ᳬ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि॥५८॥
विषय - मनुष्य लोग सर्पादि दुष्टों का निवारण करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे हम लोग (ये) जो (वृक्षेषु) आम्रादि वृक्षों में (शष्पिञ्जराः) रूप दिखाने से भय के हेतु (नीलग्रीवाः) नीली ग्रीवा युक्त काट खाने वाले (विलोहिताः) अनेक प्रकार के काले आदि वर्णों से युक्त सर्प आदि हिंसक जीव हैं (तेषाम्) उन के (सहस्रयोजने) असंख्य योजन देश में निकाल देने के लिये (धन्वानि) धनुषों को (अवतन्मसि) विस्तृत करें, वैसा आचरण तुम लोग भी करो॥५८॥
भावार्थ - मनुष्यों को योग्य है कि जो वृक्षादि में वृद्धि से जीने वाले सर्प हैं, उन का भी यथाशक्ति निवारण करें॥५८॥
ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - आर्ष्युनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
ये भू॒ताना॒मधि॑पतयो विशि॒खासः॑ कप॒र्दिनः॑।
तेषा॑ᳬ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि॥५९॥
विषय - मनुष्य लोग पढ़ाना और उपदेश किससे ग्रहण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे (ये) जो (भूतानाम्) प्राणी तथा अप्राणियों के (अधिपतयः) रक्षक स्वामी (विशिखासः) शिखारहित संन्यासी और (कपर्दिनः) जटाधारी ब्रह्मचारी लोग हैं (तेषाम्) उनके हितार्थ (सहस्रयोजने) हजार योजन देश में हम लोग सर्वथा सर्वदा भ्रमण करते हैं और (धन्वानि) अविद्यादि दोषों के निवारणार्थ विद्यादि शस्त्रों का (अव,तन्मसि) विस्तार करते हैं, वैसे हे राजपुरुषो! तुम लोग भी सर्वत्र भ्रमण किया करो॥५९॥
भावार्थ - मनुष्यों को उचित है कि जो सूत्रात्मा और धनञ्जय वायु के समान संन्यासी और ब्रह्मचारी लोग सब के शरीर तथा आत्मा की पुष्टि करते हैं, उनसे पढ़ और उपदेश सुन कर सब लोग अपनी बुद्धि तथा शरीर की पुष्टि करें॥५९॥
ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
ये प॒थां प॑थि॒रक्ष॑यऽऐलबृ॒दाऽआ॑यु॒र्युधः॑।
तेषा॑ᳬ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि॥६०॥
विषय - फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हम लोग (ये) जो (पथाम्) मार्गों के सम्बन्धी तथा (पथिरक्षयः) मार्गों में विचरने वाले जनों के रक्षकों के तुल्य (ऐलबृदाः) पृथिवीसम्बन्धी पदार्थों के वर्धक (आयुर्युधः) पूर्णायु वा अवस्था के साथ युद्ध करने हारे भृत्य हैं (तेषाम्) उनके (सहस्रयोजने) असंख्य योजन देश में (धन्वानि) धनुषों को (अव, तन्मसि) विस्तृत करते हैं॥६०॥
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि जैसे राजपुरुष दिन-रात प्रजाजनों की यथावत् रक्षा करते हैं, वैसे पृथिवी और जीवनादि की रक्षा वायु करते हैं, ऐसा जानें॥६०॥
ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
ये ती॒र्थानि॑ प्र॒चर॑न्ति सृ॒काह॑स्ता निष॒ङ्गिणः॑।
तेषा॑ᳬ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि॥६१॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हम लोग (ये) जो (सृकाहस्ताः) हाथों में वज्र धारण किये हुए (निषङ्गिणः) प्रशंसित बाण और कोश से युक्त जनों के समान (तीर्थानि) दुःखों से पार करने हारे वेद आचार्य सत्यभाषण और ब्रह्मचर्यादि अच्छे नियम अथवा जिनसे समुद्रादिकों को पार करते हैं, उन नौका आदि तीर्थों का (प्रचरन्ति) प्रचार करते हैं (तेषाम्) उन के (सहस्रयोजने) हजार योजन के देश में (धन्वानि) शस्त्रों को (अव, तन्मसि) विस्तृत करते हैं॥६१॥
भावार्थ - मनुष्यों के दो प्रकार के तीर्थ हैं, उन में पहिले तो वे जो ब्रह्मचर्य, गुरु की सेवा, वेदादि शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना, सत्सङ्ग, ईश्वर की उपासना और सत्यभाषण आदि दुःखसागर से मनुष्यों को पार करते हैं और दूसरे वे जिनसे समुद्रादि जलाशयों के इस पार उस पार जाने आने को समर्थ हों॥६१॥
ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - विराडार्ष्यनुष्टुप्स्वरः - गान्धारः
येऽन्ने॑षु वि॒विध्य॑न्ति॒ पात्रे॑षु॒ पिब॑तो॒ जना॑न्।
तेषा॑ᳬ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि॥६२॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हम लोग (ये) जो (अन्नेषु) खाने योग्य पदार्थों में वर्त्तमान (पात्रेषु) पात्रों में (पिबतः) पीते हुए (जनान्) मनुष्यादि प्राणियों को (विविध्यन्ति) बाण के तुल्य घायल करते हैं (तेषाम्) उन को हटाने के लिये (सहस्रयोजने) असंख्य योजन देश में (धन्वानि) धनुषों को (अव, तन्मसि) विस्तृत करते हैं॥६२॥
भावार्थ - जो पुरुष अन्न को खाते और जलादि को पीते हुए जीवों को विष आदि से मार डालते हैं, उनसे सब लोग दूर बसें॥६२॥
ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - भुरिगार्ष्युष्णिक् स्वरः - गान्धारः
यऽए॒ताव॑न्तश्च॒ भूया॑ᳬसश्च॒ दिशो॑ रु॒द्रा वि॑तस्थि॒रे।
तेषा॑ᳬ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि॥६३॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हम लोग (ये) जो (एतावन्तः) इतने व्याख्यात किये (च) और (रुद्राः) प्राण वा जीव (भूयांसः) इन से भी अधिक (च) सब प्राण तथा जीव (दिशः) पूर्वादि दिशाओं में (वितस्थिरे) विविध प्रकार से स्थित हैं (तेषाम्) उन के (सहस्रयोजने) हजार योजन के देश में (धन्वानि) आकाश के अवयवों के (अव, तन्मसि) विरुद्ध विस्तृत करते हैं॥६३॥
भावार्थ - जो मनुष्य सब दिशाओं में स्थित जीवों वा वायुओं को यथावत् उपयोग में लाते हैं, उन के सब कार्य सिद्ध होते हैं॥६३॥
ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - निचृद्धृतिः स्वरः - ऋषभः
नमो॑ऽस्तु रु॒द्रेभ्यो॒ ये दि॒वि येषां॑ व॒र्षमिष॑वः।
तेभ्यो॒ दश॒ प्राची॒र्दश॑ दक्षि॒णा दश॑ प्र॒तीची॒र्दशोदी॑ची॒र्दशो॒र्ध्वाः।
तेभ्यो॒ नमो॑ऽअस्तु॒ ते नो॑ऽवन्तु॒ ते नो॑ मृडयन्तु॒ ते यं द्वि॒ष्मो यश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तमे॑षां॒ जम्भे॑ दध्मः॥६४॥
विषय - फिर वह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(ये) जो सर्वहितकारी (दिवि) सूर्यप्रकाशादि के तुल्य विद्या और विनय में वर्त्तमान हैं (येषाम्) जिनके (वर्षम्) वृष्टि के समान (इषवः) बाण हैं (तेभ्यः) उन (रुद्रेभ्यः) प्राणादि के तुल्य वर्त्तमान पुरुषों के लिये हम लोगों का किया (नमः) सत्कार (अस्तु) प्राप्त हो जो (दश) दश प्रकार (प्राचीः) पूर्व (दश) दश प्रकार (दक्षिणाः) दक्षिण (दश) दश प्रकार (प्रतीचीः) पश्चिम (दश) दश प्रकार (उदीचीः) उत्तर और (दश) दश प्रकार (ऊर्ध्वाः) ऊपर की दिशाओं को प्राप्त होते हैं (तेभ्यः) उन सर्वहितैषी राजपुरुषों के लिये हमारा (नमः) अन्नादि पदार्थ (अस्तु) प्राप्त हो, जो ऐसे पुरुष हैं (ते) वे (नः) हमारी (अवन्तु) रक्षा करें (ते) वे (नः) हमको (मृडयन्तु) सुखी करें (ते) वे हम लोग (यम्) जिससे (द्विष्मः) अप्रीति करें (च) और (यः) जो (नः) हम को (द्वेष्टि) दुःख दे (तम्) उसको (एषाम्) इन वायुओं की (जम्भे) बिलाव के मुख में मूषे के समान पीड़ा में (दध्मः) डालें॥६४॥
भावार्थ - जैसे वायुओं के सम्बन्ध से वर्षा होती है, वैसे जो सर्वत्र अधिष्ठित हों, वे वीर पुरुष पूर्वादि दिशाओं में हमारे रक्षक हों, हम लोग जिस को विरोधी जानें, उसको सब ओर से घेर के वायु के समान बांधें॥६४॥
ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - धृतिः स्वरः - ऋषभः
नमो॑ऽस्तु रु॒द्रेभ्यो॒ येऽन्तरि॑क्षे॒ येषां॒ वात॒ऽइष॑वः।
तेभ्यो॒ दश॒ प्राची॒र्दश॑ दक्षि॒णा दश॑ प्र॒तीची॒र्दशोदी॑ची॒र्दशो॒र्ध्वाः।
तेभ्यो॒ नमो॑ऽअस्तु॒ ते नो॑ऽवन्तु॒ ते नो॑ मृडयन्तु॒ ते यं द्वि॒ष्मो यश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तमे॑षां॒ जम्भे॑ दध्मः॥६५॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(ये) जो विमानादि यानों में बैठ के (अन्तरिक्षे) आकाश में विचरते हैं (येषाम्) जिनके (वातः) वायु के तुल्य (इषवः) बाण हैं (तेभ्यः) उन (रुद्रेभ्यः) प्राणादि के तुल्य वर्त्तमान पुरुषों के लिये हमारा किया (नमः) सत्कार (अस्तु) प्राप्त हो जो (दश) दश प्रकार (प्राचीः) पूर्व (दश) दश प्रकार (दक्षिणाः) दक्षिण (दश) दश प्रकार (प्रतीचीः) पश्चिम (दश) दश प्रकार (उदीचीः) उत्तर और (दश) दश प्रकार (ऊर्ध्वाः) ऊपर की दिशाओं में व्याप्त हुए हैं (तेभ्यः) उन सर्वहितैषियों को (नमः) अन्नादि पदार्थ (अस्तु) प्राप्त हो, जो ऐसे पुरुष हैं (ते) वे (नः) हमारी (अवन्तु) रक्षा करें (ते) वे (नः) हमको (मृडयन्तु) सुखी करें (ते) वे और हम लोग (यम्) जिससे (द्विष्मः) अप्रीति करें (च) और (यः) जो (नः) हम को (द्वेष्टि) दुःख दे (तम्) उसको (एषाम्) इन वायुओं की (जम्भे) बिडाल के मुख में मूषे के समान पीड़ा में (दध्मः) डालें॥६५॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य आकाश में रहने वाले शुद्ध कारीगरों का सेवन करते हैं, उनको ये सब ओर से बलवान् करके शिल्पविद्या की शिक्षा करें॥६५॥
ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - धृतिः स्वरः - ऋषभः
नमो॑ऽस्तु रु॒द्रेभ्यो॒ ये पृ॑थि॒व्यां येषा॒मन्न॒मिष॑वः।
तेभ्यो॒ दश॒ प्राची॒र्दश॑ दक्षि॒णा दश॑ प्र॒तीची॒र्दशोदी॑ची॒र्दशो॒र्ध्वाः।
तेभ्यो॒ नमो॑ऽअस्तु॒ ते नो॑ऽवन्तु॒ ते नो॑ मृडयन्तु॒ ते यं द्वि॒ष्मो यश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तमे॑षां॒ जम्भे॑ दध्मः॥६६॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(ये) जो भूविमान आदि में बैठे के (पृथिव्याम्) विस्तृत भूमि में विचरते हैं (येषाम्) जिन के (अन्नम्) खाने योग्य तण्डुलादि (इषवः) बाणरूप हैं (तेभ्यः) उन (रुद्रेभ्यः) प्राणादि के तुल्य वर्त्तमान पुरुषों के लिये हम लोगों का किया (नमः) सत्कार (अस्तु) प्राप्त हो जो (दश) दश प्रकार (प्राचीः) पूर्व (दश) दश प्रकार (दक्षिणाः) दक्षिण (दश) दश प्रकार (प्रतीचीः) पश्चिम (दश) दश प्रकार (उदीचीः) उत्तर और (दश) दश प्रकार (ऊर्ध्वाः) ऊपर की दिशाओं को व्याप्त होते हैं (तेभ्यः) उन सर्वहितैषी राजपुरुषों के लिये हमारा (नमः) अन्नादि पदार्थ (अस्तु) प्राप्त हो, जो ऐसे पुरुष हैं (ते) वे (नः) हमारी सब ओर से (अवन्तु) रक्षा करें (ते) वे (नः) हम को (मृडयन्तु) सुखी करें (ते) वे और हम लोग (यम्) जिसको (द्विष्मः) अप्रसन्न करें (च) और (यः) जो (नः) हम को (द्वेष्टि) दुःख दे (तम्) उस को (एषाम्) इन वायुओं की (जम्भे) बिलाड़ी के मुख में मूषे के तुल्य पीड़ा में (दध्मः) डालें॥६६॥
भावार्थ - जो पृथिवी पर अन्नार्थी पुरुष हैं, उन का अच्छे प्रकार पोषण कर उन्नति करनी चाहिये॥६६॥
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