ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
इन्द्र॑स्य॒ वृष्णो॒ व॑रुणस्य॒ राज्ञ॑ऽआदि॒त्यानां॑ म॒रुता॒ᳬ शर्द्ध॑ऽउ॒ग्रम्।
म॒हाम॑नसां भुवनच्य॒वानां॒ घोषो॑ दे॒वानां॒ जय॑ता॒मुद॑स्थात्॥४१॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(वृष्णः) वीर्य्यवान् (इन्द्रस्य) सेनापति (वरुणस्य) सब से उत्तम (राज्ञः) न्याय और विनय आदि गुणों से प्रकाशमान सब के अधिपति राजा के (भुवनच्यवानाम्) जो उत्तम घरों को प्राप्त होते (महामनसाम्) बड़े-बड़े विचार वाले वा (जयताम्) शत्रुओं के जीतने को समर्थ (आदित्यानाम्) जिन्होंने ४८ वर्ष तक ब्रह्मचर्य्य किया हो, (मरुताम्) और जो पूर्ण विद्या बल युक्त हैं, उन (देवानाम्) विद्वान् पुरुषों का (उग्रम्) जो शत्रुओं को असह्य (शर्द्धः) बल (घोषः) शूरता और उत्साह उत्पन्न करने वाला विचित्र बाजों का स्वरालाप शब्द है, वह युद्ध के आरम्भ से पहिले (उदस्थात्) उठे॥४१॥
भावार्थ - सेनाध्यक्षों को चाहिये कि शिक्षा और युद्ध के समय मनोहर वीरभाव को उत्पन्न करने वाले अच्छे बाजों के बजाए हुए शब्दों से वीरों को हर्षित करावें तथा जो बहुत काल पर्यन्त ब्रह्मचर्य और अधिक विद्या से शरीर और आत्मबलयुक्त हैं, वे ही योद्धाओं की सेनाओं के अधिकारी करने योग्य है॥४१॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - विराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
उद्ध॑र्षय मघव॒न्नायु॑धा॒न्युत्सत्व॑नां माम॒कानां॒ मना॑ᳬसि।
उद् वृ॑त्रहन् वा॒जिनां॒ वाजि॑ना॒न्युद्रथा॑नां॒ जय॑तां यन्तु॒ घोषाः॑॥४२॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
सेना के पुरुष अपने स्वामी से ऐसे कहें कि हे (वृत्रहन्) मेघ को सूर्य के समान शत्रुओं को छिन्न-भिन्न करने वाले (मघवन्) प्रशंसित धनयुक्त सेनापति! आप (मामकानाम्) हम लोगों के (सत्वनाम्) सेनास्थ वीर पुरुषों के (आयुधानि) जिनसे अच्छे प्रकार युद्ध करते हैं, उन शस्त्रों का (उद्धर्षय) उत्कर्ष कीजिए। हमारे सेनास्थ जनों के (मनांसि) मनों को (उत्) उत्तम हर्षयुक्त कीजिए। हमारे (वाजिनाम्) घोड़ों की (वाजिनानि) शीघ्र चालों को (उत्) बढ़ाइये तथा आपकी कृपा से हमारे (जयताम्) विजय कराने वाले (रथानाम्) रथों के (घोषाः) शब्द (उद्यन्तु) उठें॥४२॥
भावार्थ - सेनापति और शिक्षक जनों को चाहिये कि योद्धाओं के चित्तों को नित्य हर्षित करें और सेना के अङ्गों को अच्छे प्रकार उन्नति देकर शत्रुओं को जीतें॥४२॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
अ॒स्माक॒मिन्द्रः॒ समृ॑तेषु ध्व॒जेष्व॒स्माकं॒ याऽइष॑व॒स्ता ज॑यन्तु।
अ॒स्माकं॑ वी॒राऽउत्त॑रे भवन्त्व॒स्माँ२ऽउ॑ देवाऽअवता॒ हवे॑षु॥४३॥
विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (देवाः) विजय चाहने वाले विद्वानो! तुम (अस्माकम्) हम लोगों के (समृतेषु) अच्छे प्रकार सत्य-न्याय प्रकाश करानेहारे चिह्न जिनमें हों, उन (ध्वजेषु) अपने वीर जनों के निश्चय के लिये रथ आदि यानों के ऊपर एक-दूसरे से भिन्न स्थापित किये हुए ध्वजा आदि चिह्नों में नीचे अर्थात् उनकी छाया में वर्त्तमान जो (इन्द्रः) ऐश्वर्य्य करने वाला सेना का ईश और (अस्माकम्) हम लोगों की (याः) जो (इषवः) प्राप्त सेना हैं, वह इन्द्र और (ताः) वे सेना (हवेषु) जिनमें ईर्ष्या से शत्रुओं को बुलावें, उन संग्रामों में (जयन्तु) जीतें (अस्माकम्) हमारे (वीराः) वीर जन (उत्तरे) विजय के पीछे जीवनयुक्त (भवन्तु) हों (अस्मान्) हम लोगों की (उ) सब जगह युद्धसमय में (अवत) रक्षा करो॥४३॥
भावार्थ - सेनाजन और सेनापति आदि को चाहिये कि अपने अपने रथ आदि में भिन्न-भिन्न चिह्न को स्थापन करें, जिससे यह इसका रथ आदि है, ऐसा सब जानें और जैसे अश्व तथा वीरों का अधिक विनाश न हो, वैसा ढंग करें, क्योंकि परस्पर के पराक्रम के क्षय होने से निश्चल विजय नहीं होता, यह जानें॥४३॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - विराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
अ॒मीषां॑ चि॒त्तं प्र॑तिलो॒भय॑न्ती गृहा॒णाङ्गा॑न्यप्वे॒ परे॑हि।
अ॒भि प्रेहि॒ निर्द॑ह हृ॒त्सु शोकै॑र॒न्धेना॒मित्रा॒स्तम॑सा सचन्ताम्॥४४॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (अप्वे) शत्रुओं के प्राणों को दूर करनेहारी राणी क्षत्रिया वीर स्त्री! (अमीषाम्) उन सेनाओं के (चित्तम्) चित्त को (प्रतिलोभयन्ती) प्रत्यक्ष में लुभाने वाली जो अपनी सेना है, उसके (अङ्गानि) अङ्गों को तू (गृहाण) ग्रहण कर अधर्म्म से (परेहि) दूर हो, अपनी सेना को (अभि, प्रेहि) अपना अभिप्राय दिखा और शत्रुओं को (निर्दह) निरन्तर जला, जिससे ये (अमित्राः) शत्रुजन (हृत्सु) अपने हृदयों में (शोकैः) शोकों से (अन्धेन) आच्छादित हुए (तमसा) रात्रि के अन्धकार के साथ (सचन्ताम्) संयुक्त रहें॥४४॥
भावार्थ - सभापति आदि को योग्य है कि जैसे अतिप्रशंसित हृष्ट-पुष्ट अङ्ग उपाङ्गादियुक्त शूरवीर पुरुषों की सेना को स्वीकार करें, वैसे शूरवीर स्त्रियों की भी सेना स्वीकार करें और जिस स्त्रीसेना में अव्यभिचारिणी स्त्री रहें, उस सेना से शत्रुओं को वश में स्थापन करें॥४४॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इषुर्देवता छन्दः - आर्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
अव॑सृष्टा॒ परा॑ पत॒ शर॑व्ये॒ ब्रह्म॑सꣳशिते।
गच्छा॒मित्रा॒न् प्र प॑द्यस्व॒ मामीषां॒ कञ्च॒नोच्छि॑षः॥४५॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (शरव्ये) बाणविद्या में कुशल (ब्रह्मसंशिते) वेदवेत्ता विद्वान् से प्रशंसा और शिक्षा पाये हुए सेनाधिपति की स्त्री! तू (अवसृष्टा) प्रेरणा को प्राप्त हुई (परा, पत) दूर जा (अमित्रान्) शत्रुओं को (गच्छ) प्राप्त हो और उनके मारने से विजय को (प्र, पद्यस्व) प्राप्त हो, (अमीषाम्) उन दूर देश में ठहरे हुए शत्रुओं में से मारने के विना (कम्, चन) किसी को (मा) (उच्छिषः) मत छोड़॥४५॥
भावार्थ - सभापति आदि को चाहिये कि जैसे युद्धविद्या से पुरुषों को शिक्षा करें, वैसे स्त्रियों को भी शिक्षा करें। जैसे वीरपुरुष युद्ध करें, वैसे स्त्री भी करे। जो युद्ध में मारे जावें, उनसे शेष अर्थात् बचे हुए कातरों को निरन्तर कारागार में स्थापन करें॥४५॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - योद्वा देवता छन्दः - विराडार्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
प्रेता॒ जय॑ता नर॒ऽइन्द्रो॑ वः॒ शर्म॑ यच्छतु।
उ॒ग्रा वः॑ सन्तु बा॒हवो॑ऽनाधृ॒ष्या यथास॑थ॥४६॥
विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (नरः) अनेक प्रकार के व्यवहारों को प्राप्त करने वाले मनुष्यो! तुम (यथा) जैसे शत्रुजनों को (इत) प्राप्त होओ, उन्हें (जयत) जीतो तथा (इन्द्रः) शत्रुओं को विदीर्ण करने वाला सेनापति (वः) तुम लोगों के लिये (शर्म्म) घर (प्र, यच्छतु) देवे (वः) तुम्हारी (बाहवः) भुजा (उग्राः) दृढ़ (सन्तु) हों और (अनाधृष्याः) शत्रुओं से न धमकाने योग्य (असथ) होओ, वैसा प्रयत्न करो॥४६॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो शत्रुओं को जीतने वाले वीर हों, उनका सेनापति धन, अन्न, गृह और वस्त्रादिकों से निरन्तर सत्कार करे तथा सेनास्थ जन जैसे बली हों, वैसा व्यवहार अर्थात् व्यायाम और शस्त्र-अस्त्रों का चलाना सीखें॥४६॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - मरुतो देवताः छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
अ॒सौ या सेना॑ मरुतः॒ परे॑षाम॒भ्यैति॑ न॒ऽओज॑सा॒ स्पर्द्ध॑माना।
तां गू॑हत॒ तम॒साप॑व्रतेन॒ यथा॒मीऽअ॒न्योऽअ॒न्यन्न जा॒नन्॥४७॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (मरुतः) ऋतु-ऋतु में यज्ञ करने वाले विद्वानो! तुम (या) जो (असौ) वह (परेषाम्) शत्रुओं की (स्पर्द्धमाना) ईर्ष्या करती हुई (सेना) सेना (ओजसा) बल से (नः) हम लोगों के (अभि, आ, एति) सन्मुख सब ओर से प्राप्त होती है, (ताम्) उसको (अपव्रतेन) छेदनरूप कठोर कर्म्म से और (तमसा) तोप आदि शस्त्रों के उठे हुए धूम वा मेघ (या) पहाड़ के आकार जो अस्त्र का धूम होता है, उससे (गूहत) ढांपो (अमी) ये शत्रुसेनास्थ जन (यथा) जैसे (अन्यः, अन्यम्) परस्पर एक-दूसरे को (न) न (जानन्) जानें, वैसा पराक्रम करो॥४७॥
भावार्थ - जब युद्ध के लिये प्राप्त हुई शत्रुओं की सेनाओं से युद्ध करे, तब सब ओर से शस्त्र और अस्त्रों के प्रहार से उठी धूम-धूली आदि से उसको ढांपकर जैसे ये शत्रुजन परस्पर अपने दूसरे को न जानें, वैसा ढंग सेनापति आदि को करना चाहिये॥४७॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रबृहस्पत्यादयो देवताः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
यत्र॑ बा॒णाः स॒म्पत॑न्ति कुमा॒रा वि॑शि॒खाऽइ॑व।
तन्न॒ऽइन्द्रो॒ बृह॒स्पति॒रदि॑तिः॒ शर्म॑ यच्छतु वि॒श्वाहा॒ शर्म॑ यच्छतु॥४८॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(यत्र) जिस संग्राम में (विशिखा इव) विना चोटी के वा बहुत चोटियों वाले (कुमाराः) बालकों के समान (बाणाः) बाण आदि शस्त्र अस्त्रों के समूह (संपतन्ति) अच्छे प्रकार गिरते हैं, (तत्) वहां (बृहस्पतिः) बड़ी सभा वा सेना का पालने वाला (इन्द्रः) सेनापति (शर्म) आश्रय वा सुख के (यच्छतु) देवे और (अदितिः) नित्य सभासदों से शोभायमान सभा (विश्वाहा) सब दिन (नः) हम लोगों के लिये (शर्म) सुख सिद्ध करने वाले घर को (यच्छतु) देवे॥४८॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे बालक इधर-उधर दौड़ते हैं, वैसे युद्ध के समय में योद्धा लोग भी चेष्टा करें। जो युद्ध में घायल, क्षीण, थके, पसीजे, छिदे, भिदे, कटे, फटे अङ्ग वाले मूर्छित हों, उनको युद्धभूमि से शीघ्र उठा सुखालय (शफाखाने) में पहुँचा औषध पट्टी कर स्वस्थ करें और जो मर जावें, उनको विधि से दाह दें, राजजन उनके माता-पिता, स्त्री और बालकों की सदा रक्षा करें॥४८॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - सोमवरुणादेवा देवताः छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
मर्मा॑णि ते॒ वर्म॑णा छादयामि॒ सोम॑स्त्वा॒ राजा॒मृते॒नानु॑ वस्ताम्।
उ॒रोर्वरी॑यो॒ वरु॑णस्ते कृणोतु॒ जय॑न्तं॒ त्वानु॑ दे॒वा म॑दन्तु॥४९॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे युद्ध कराने वाले शूरवीर! मैं (ते) तेरे (मर्माणि) मर्मस्थलों अर्थात् जो ताड़ना किये हुए शीघ्र मरण उत्पन्न करनेवाले शरीर के अङ्ग हैं, उनको (वर्मणा) देह की रक्षा करनेहारे कवच से (छादयामि) ढांपता हूं। यह (सोमः) शान्ति आदि गुणों से युक्त और (राजा) विद्या, न्याय तथा विनय आदि गुणों से प्रकाशमान राजा (अमृतेन) समस्त रोगों के दूर करने वाली अमृतरूप ओषधि से (त्वा) तुझ को (अनु, वस्ताम्) पीछे ढांपे (वरुणः) सबसे उत्तम गुणों वाला राजा (ते) तेरे (उरोः) बहुत गुण और ऐश्वर्य से भी (वरीयः) अत्यन्त ऐश्वर्य को (कृणोतु) करे तथा (जयन्तम्) दुष्टों को पराजित करते हुए (त्वा) तुझे (देवाः) विद्वान् लोग (अनु, मदन्तु) अनुमोदित करें अर्थात् उत्साह देवें॥४९॥
भावार्थ - सेनापति आदि को चाहिये कि सब युद्धकर्त्ताओं के शरीर आदि की रक्षा सब ओर से करके इन को निरन्तर उत्साहित और अनुमोदित करें, जिससे निश्चय करके सब से विजय को पावें॥४९॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडार्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
उदे॑नमुत्त॒रां न॒याग्ने॑ घृतेनाहुत।
रा॒यस्पोषे॑ण॒ सꣳसृ॑ज प्र॒जया॑ च ब॒हुं कृ॑धि॥५०॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (घृतेन) घृत से (आहुत) तृप्ति को प्राप्त हुए (अग्ने) प्रकाशयुक्त सेनापति तू (एनम्) इस जीतने वाले वीर को (उत्तराम्) जिससे उत्तमता से संग्राम को तरें, विजय को प्राप्त हुई उस सेना को (उत्, नय) उत्तम अधिकार में पहुंचा (रायः, पोषेण) राजलक्ष्मी की पुष्टि से (सम्, सृज) अच्छे प्रकार युक्त कर (च) और (प्रजया) बहुत सन्तानों से (बहुम्) अधिकता को प्राप्त (कृधि) कर॥५०॥
भावार्थ - जो सेना का अधिकारी वा भृत्य धर्मयुक्त युद्ध से दुष्टों को जीते, उसका सभा, सेना के पति धनादिकों से बहुत प्रकार सत्कार करें॥५०॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - आर्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
इन्द्रे॒मं प्र॑त॒रां न॑य सजा॒ताना॑मसद्व॒शी।
समे॑नं॒ वर्चसा सृज दे॒वानां॑ भाग॒दाऽअ॑सत्॥५१॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (इन्द्र) सुखों के धारण करनेहारे सेनापति! तू (सजातानाम्) समान अवस्था वाले (देवानाम्) विद्वान् योद्धाओं के बीच (इमम्) विजय को प्राप्त होते हुए इस वीरजन को (प्रतराम्) जिससे शत्रुओं के बलों को हटावें उस नीति को (नय) प्राप्त कर, जिससे यह (वशी) इन्द्रियों को जीतने वाला (असत्) हो और (एनम्) इसको (वर्चसा) विद्या के प्रकाश से (सम्, सृज) संसर्ग करा, जिससे यह (भागदाः) अलग-अलग यथायोग्य भागों का देने वाला (असत्) हो॥५१॥
भावार्थ - युद्ध में भृत्यजन शत्रुओं के जिन पदार्थों को पावें, उन सबों को सभापति राजा स्वीकार न करे, किन्तु उनमें से यथायोग्य सत्कार के लिये योद्धाओं को सोलहवां भाग देवे। वे भृत्यजन जितना कुछ भाग पावें, उस का सोलहवां भाग राजा के लिये देवें। जो सब सभापति आदि जितेन्द्रिय हों तो उनका कभी पराजय न हो, जो सभापति अपने हित को किया चाहे तो लड़नेहारे भृत्यों का भाग आप न लेवे॥५१॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
यस्य॑ कु॒र्मो गृ॒हे ह॒विस्तम॑ग्ने वर्द्धया॒ त्वम्।
तस्मै॑ दे॒वाऽअधि॑ब्रुवन्न॒यं च॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑॥५२॥
विषय - अब पुरोहित ऋत्विज् और यजमान के कृत्य को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (अग्ने) विद्वान् पुरोहित! हम लोग (यस्य) जिस राजा के (गृहे) घर में (हविः) होम (कुर्मः) करें, (तम्) उसको (त्वम्) तू (वर्द्धय) बढ़ा अर्थात् उत्साह दे तथा (देवाः) दिव्य गुण वाले ऋत्विज् लोग (तस्मै) उसको (अधि, ब्रुवन्) अधिक उपदेश करें (च) और (अयम्) यह (ब्रह्मणः) वेदों का (पतिः) पालन करनेहारा यजमान भी उन को शिक्षा देवे॥५२॥
भावार्थ - पुरोहित का वह काम है कि जिससे यजमान की उन्नति हो और जो, जिसका, जितना, जैसा काम करे, उसको उसी ढंग उतना ही नियम किया हुआ मासिक धन देना चाहिये। सब विद्वान् जन सब के प्रति सत्य का उपदेश करें और राजा भी सत्योपदेश करे॥५२॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडार्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
उदु॑ त्वा॒ विश्वे॑ दे॒वाऽअग्ने॒ भर॑न्तु॒ चित्ति॑भिः।
स नो॑ भव शि॒वस्त्वꣳ सु॒प्रती॑को वि॒भाव॑सुः॥५३॥
विषय - अब सभापति के विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (अग्ने) विद्वान् सभापति! जिस (त्वा) तुझे (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् जन (चित्तिभिः) अच्छे-अच्छे ज्ञानों से (उद्भरन्तु) उत्कृष्टतापूर्वक धारण और उद्धार करें अर्थात् अपनी शिक्षा से तेरे अज्ञान को दूर करें (सः, उ) सोई (त्वम्) तू (नः) हम लोगों के लिये (शिवः) मंगल करनेहारा (सुप्रतीकः) अच्छी प्रतीति करने वाले ज्ञान से युक्त तथा (विभावसुः) विविध प्रकार के विद्यासिद्धान्तों में स्थिर (भव) हो॥५३॥
भावार्थ - जो जिनको विद्या देवें, वे विद्या लेने वाले उन के सेवक हों॥५३॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - दिग् देवता छन्दः - स्वराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
पञ्च॒ दिशो॒ दैवी॑र्य॒ज्ञम॑वन्तु दे॒वीरपाम॑तिं दुर्म॒तिं बाध॑मानाः।
रा॒यस्पो॑षे य॒ज्ञप॑तिमा॒भज॑न्ती रा॒यस्पोषे॒ऽअधि॑ य॒ज्ञोऽअ॑स्थात्॥५४॥
विषय - अब स्त्री-पुरुष के कृत्य को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(अप, अमतिम्) अत्यन्त अज्ञान और (दुर्मतिम्) दुष्ट बुद्धि को (बाधमानाः) अलग करती हुर्इं (दैवीः) विद्वानों की ये (देवीः) दिव्य गुण वाली पण्डिता ब्रह्मचारिणी स्त्री (पञ्च, दिशः) पूर्व आदि चार और एक मध्यस्थ पांच दिशाओं के तुल्य अलग-अलग कामों में बढ़ी हुई (रायः, पोषे) धन की पुष्टि करने के निमित्त (यज्ञपतिम्) गृहकृत्य वा राज्यपालन करने वाले अपने स्वामी को (आभजन्तीः) सब प्रकार सेवन करती हुई (यज्ञम्) संगति करने योग्य गृहाश्रम को (अवन्तु) चाहें। जिससे यह (यज्ञः) गृहाश्रमः (रायः, पोषे) धन की पुष्टाई में (अधि, अस्थात्) अधिकता से स्थिर हो॥५४॥
भावार्थ - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जिस गृहाश्रम में धार्मिक विद्वान् और प्रशंसायुक्त पण्डिता स्त्री होती हैं, वहां दुष्ट काम नहीं होते। जो सब दिशाओं में प्रशंसित प्रजा होवें तो राजा के समीप औरों से अधिक ऐश्वर्य्य होवे॥५४॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
समि॑द्धेऽअ॒ग्नावधि॑ मामहा॒नऽउ॒क्थप॑त्र॒ऽईड्यो॑ गृभी॒तः।
त॒प्तं घ॒र्म्मं प॑रि॒गृह्या॑यजन्तो॒र्जा यद्य॒ज्ञमय॑जन्त दे॒वाः॥५५॥
विषय - यज्ञ कैसे करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! तुम लोग जैसे (देवाः) विद्वान् जन (समिद्धे) अच्छे जलते हुए (अग्नौ) अग्नि में (यत्) जिस (यज्ञम्) अग्निहोत्र आदि यज्ञ को (अयजन्त) करते हैं, वैसे जो (अधि, मामहानः) अधिक और अत्यन्त सत्कार करने योग्य (उक्थपत्रः) जिसके कहने योग्य विद्यायुक्त वेद के स्तोत्र हैं, (ईड्यः) जो स्तुति करने तथा चाहने योग्य वा (गृभीतः) जिसको सज्जनों ने ग्रहण किया है, उस (तप्तम्) तापयुक्त (घर्मम्) अग्निहोत्र आदि यज्ञ को (ऊर्जा) बल से (परिगृह्य) ग्रहण करके (अयजन्त) किया करो॥५५॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि संसार के उपकार के लिये जैसे विद्वान् लोग अग्निहोत्र यज्ञ का आचरण करते हैं, वैसे अनुष्ठान किया करें॥५५॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
दैव्या॑य ध॒र्त्रे जोष्ट्रे॑ देव॒श्रीः श्रीम॑नाः श॒तप॑याः।
प॒रि॒गृह्य॑ दे॒वा य॒ज्ञमा॑यन् दे॒वा दे॒वेभ्यो॑ऽअध्व॒र्यन्तो॑ऽअस्थुः॥५६॥
विषय - अब यज्ञ कैसे करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे (अध्वर्य्यन्तः) अपने को यज्ञ की इच्छा करने वाले (देवाः) विद्या के दाता विद्वान् लोग (देवेभ्यः) विद्वानों की प्रसन्नता के लिये गृहाश्रम वा अग्निहोत्रादि यज्ञ में (अस्थुः) स्थिर हों वा जैसे (दैव्याय) अच्छे-अच्छे गुणों में प्रसिद्ध हुए (धर्त्रे) धारणशील तथा (जोष्ट्रे) प्रीति करने वाले होता के लिये (देवश्रीः) जो सेवन की जाती वह विद्यारूप लक्ष्मी विद्वानों में जिसकी विद्यमान हो (श्रीमनाः) जिसका कि लक्ष्मी में मन और (शतपयाः) जिसके सैकड़ों दूध आदि वस्तु हैं, वह यजमान वर्त्तमान है, वैसे (देवाः) विद्या के दाता तुम लोग विद्या को (परिगृह्य) ग्रहण करके (यज्ञम्) प्राप्त करने योग्य गृहाश्रम वा अग्निहोत्र आदि को (आयन्) प्राप्त होओ॥५६॥
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि धनप्राप्ति के लिये सदैव उद्योग करें, जैसे विद्वान् लोग धनप्राप्ति के लिये प्रयत्न करें, वैसे उनके अनुकूल मनुष्यों को भी यत्न करना चाहिये॥५६॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - निचृदार्षी बृहती स्वरः - मध्यमः
वी॒तꣳ ह॒विः श॑मि॒तꣳ श॑मि॒ता य॒जध्यै॑ तु॒रीयो॑ य॒ज्ञो यत्र॑ ह॒व्यमेति॑।
ततो॑ वा॒काऽआ॒शिषो॑ नो जुषन्ताम्॥५७॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जो (शमिता) शान्ति आदि गुणों से युक्त गृहाश्रमी (यजध्यै) यज्ञ करने के लिये (वीतम्) गमनशील (शमितम्) दुर्गुणों की शान्ति करने वाले (हविः) होम करने योग्य पदार्थ को अग्नि में छोड़ता है जो (तुरीयः) चौथा (यज्ञः) प्राप्त करने योग्य यज्ञ है तथा (यत्र) जहां (हव्यम्) होम करने योग्य पदार्थ (एति) प्राप्त होता है (ततः) उन सबों से (वाकाः) जो कही जाती हैं, वे (आशिषः) इच्छासिद्धि (नः) हम लोगों को (जुषन्ताम्) सेवन करें, ऐसी इच्छा करो॥५७॥
भावार्थ - अग्निहोत्र आदि यज्ञ में चार पदार्थ होते हैं अर्थात् बहुत-सा पुष्टि, सुगन्धि, मिष्ट और रोग विनाश करने वाला होम का पदार्थ, उसका शोधन, यज्ञ का करने वाला तथा वेदी, आग, लकड़ी आदि। यथाविधि से हवन किया हुआ पदार्थ आकाश को जाकर फिर वहां से पवन वा जल के द्वारा आकर इच्छा की सिद्धि करने वाला होता है, ऐसा मनुष्य को जानना चाहिये॥५७॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
सूर्य॑रश्मि॒र्हरि॑केशः पु॒रस्ता॑त् सवि॒ता ज्योति॒रुद॑याँ॒२ऽअज॑स्रम्।
तस्य॑ पू॒षा प्र॑स॒वे या॑ति वि॒द्वान्त्स॒म्पश्य॒न् विश्वा॒ भुव॑नानि गो॒पाः॥५८॥
विषय - अब अगले मन्त्र में सूर्य्यलोक के स्वरूप का कथन किया है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जो (पुरस्तात्) पहिले से (सविता) सूर्यलोक (ज्योतिः) प्रकाश को देता है, जिसमें (हरिकेशः) हरे रंग वाली (सूर्यरश्मिः) सूर्य्य की किरण वर्त्तमान हैं, जो (प्रसवे) उत्पन्न हुए जगत् में (अजस्रम्) निरन्तर (पूषा) पुष्टि करने वाला है, जिसको (विद्वान्) विद्यायुक्त पुरुष (संपश्यन्) अच्छे प्रकार देखता हुआ उसकी विद्या को (याति) प्राप्त होता है, (तस्य) उसके सकाश से (गोपाः) संसार की रक्षा करने वाले पृथिवी आदि लोक और तारागण भी (विश्वा) समस्त (भुवनानि) लोक-लोकान्तरों को (उदयान्) प्रकाशित करते हैं, वह सूर्य्यमण्डल अतिप्रकाशमय है, यह तुम जानो॥५८॥
भावार्थ - जो यह सूर्य्यलोक है, उसके प्रकाश में श्वेत और हरी रङ्ग-विरङ्ग अनेक किरणें हैं, जो सब लोकों की रक्षा करती हैं, इसी से सब की सब प्रकार से सदा रक्षा होती है, यह जानने योग्य है॥५८॥
ऋषि: - विश्वावसुर्ऋषिः देवता - आदित्यो देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
वि॒मान॑ऽए॒ष दि॒वो मध्य॑ऽआस्तऽआपप्रि॒वान् रोद॑सीऽअ॒न्तरि॑क्षम्।
स वि॒श्वाची॑र॒भिच॑ष्टे घृ॒तीची॑रन्त॒रा पूर्व॒मप॑रं च के॒तुम्॥५९॥
विषय - अब ईश्वर ने किसलिये सूर्य का निर्माण किया है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ -
विद्यावान् पुरुष जो (एषः) यह सूर्य्यमण्डल (दिवः) प्रकाश के (मध्ये) बीच में (विमानः) विमान अर्थात् जो आकाशादि मार्गों में आश्चर्य्यरूप से चलनेहारा है, उसके समान और (रोदसी) प्रकाश-भूमि और (अन्तरिक्षम्) अवकाश को (आपप्रिवान्) अपने तेज से व्याप्त हुआ (आस्ते) स्थिर हो रहा है, (सः) वह (विश्वाचीः) जो संसार को प्राप्त होती अर्थात् अपने उदय से प्रकाशित करतीं वा (घृताचीः) जल को प्राप्त कराती हैं, उन अपनी द्युतियों अर्थात् प्रकाशों को विस्तृत करता है, (पूर्वम्) आगे दिन (अपरम्) पीछे रात्रि (च) और (अन्तरा) दोनों के बीच में (केतुम्) सब लोकों के प्रकाशक तेज को (अभिचष्टे) देखता है, उसे जाने॥५९॥
भावार्थ - जो सूर्य्यलोक ब्रह्माण्ड के बीच स्थित हुआ अपने प्रकाश से सब को व्याप्त हो रहा है, वह सब का अच्छा आकर्षण करने वाला है, ऐसा मनुष्यों को जानना चाहिये॥५९॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - आदित्यो देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
उ॒क्षा स॑मु॒द्रोऽअ॑रु॒णः सु॑प॒र्णः पूर्व॑स्य॒ योनिं॑ पि॒तुरावि॑वेश।
मध्ये॑ दि॒वो निहि॑तः॒ पृश्नि॒रश्मा॒ वि च॑क्रमे॒ रज॑सस्पा॒त्यन्तौ॑॥६०॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जो परमेश्वर ने (दिवः) प्रकाश के (मध्ये) बीच में (निहितः) स्थापित किया हुआ (उक्षा) वृष्टि-जल से सींचने वाला (समुद्रः) जिससे कि अच्छे प्रकार जल गिरते हैं, (अरुणः) जो लाल रङ्ग वाला तथा (सुपर्णः) जिससे कि अच्छी पालना होती है, (पृश्निः) वह विचित्र रङ्ग वाला सूर्यरूप तेज और (अश्मा) मेघ (रजसः) लोकों को (अन्तौ) बन्धन के निमित्त (वि, चक्रमे) अनेक प्रकार घूमता तथा (पाति) रक्षा करता है तथा (पूर्वस्य) जो पूर्ण (पितुः) इस सूर्य्यमण्डल के तेज को उत्पन्न करने वाला बिजुलीरूप अग्नि है, उसके (योनिम्) कारण में (आ, विवेश) प्रवेश करता है, वह सूर्य्य और मेघ अच्छे प्रकार उपयोग करने योग्य हैं॥६०॥
भावार्थ - मनुष्यों को ईश्वर के अनेक धन्यवाद कहने चाहियें, क्योंकि जिस ईश्वर ने अपने जानने के लिये जगत् की रक्षा का कारणरूप सूर्य्य आदि दृष्टान्त दिखाया है, वह कैसे न सर्वशक्तिमान् हो॥६०॥
यजुर्वेद अध्याय 17 मंत्र (21-40)
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know