ऋषि: - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
या ते॒ धामा॑नि पर॒माणि॒ याऽव॒मा या म॑ध्य॒मा वि॑श्वकर्मन्नु॒तेमा।
शिक्षा॒ सखि॑भ्यो ह॒विषि॑ स्वधावः स्व॒यं य॑जस्व त॒न्वं वृधा॒नः॥२१॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (स्वधावः) बहुत अन्न से युक्त (विश्वकर्मन्) सब उत्तम कर्म करने वाले जगदीश्वर! (ते) आप की सृष्टि में (या) जो (परमाणि) उत्तम (या) जो (अवमा) निकृष्ट (या) जो (मध्यमा) मध्यकक्षा के (धामानि) सब पदार्थों के आधारभूत जन्मस्थान तथा नाम हैं (इमा) इन सब को (हविषि) देने-लेने योग्य व्यवहार में (स्वयम्) आप (यजस्व) सङ्गत कीजिये (उत) और हमारे (तन्वम्) शरीर की (वृधानः) उन्नति करते हुए (सखिभ्यः) आपकी आज्ञापालक हम मित्रों के लिये (शिक्ष) शुभगुणों का उपदेश कीजिये॥२१॥
भावार्थ - जैसे इस संसार में ईश्वर ने निकृष्ट, मध्यम और उत्तम वस्तु तथा स्थान रचे हैं, वैसे ही सभापति आदि को चाहिये कि तीन प्रकार के स्थान रच, वस्तुओं को प्राप्त हो, ब्रह्मचर्य से शरीर का बल बढ़ा और मित्रों को अच्छी शिक्षा देके ऐश्वर्ययुक्त होवें॥२१॥
ऋषि: - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
विश्व॑कर्मन् ह॒विषा॑ वावृधा॒नः स्व॒यं य॑जस्व पृथि॒वीमु॒त द्याम्।
मुह्य॑न्त्व॒न्येऽअ॒भितः॑ स॒पत्ना॑ऽइ॒हास्माकं॑ म॒घवा॑ सू॒रिर॑स्तु॥२२॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (विश्वकर्मन्) सम्पूर्ण उत्तम कर्म करनेहारे सभापति! (हविषा) उत्तम गुणों के ग्रहण से (वावृधानः) उन्नति को प्राप्त हुआ जैसे ईश्वर (पृथिवीम्) भूमि (उत) और (द्याम्) सूर्यादि लोक को सङ्गत करता है, वैसे आप (स्वयम्) आप ही (यजस्व) सब से समागम कीजिये। (इह) इस जगत् में (मघवा) प्रशंसित धनवान् पुरुष (सूरिः) विद्वान् (अस्तु) हो, जिससे (अस्माकम्) हमारे (अन्ये) और (सपत्नाः) शत्रुजन (अभितः) सब ओर से (मुह्यन्तु) मोह को प्राप्त हों॥२२॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य ईश्वर ने जिस प्रयोजन के लिये जो पदार्थ रचा है, उसको वैसा जान के उपकार लेते हैं, उनकी दरिद्रता और आलस्यादि दोषों का नाश होने से शत्रुओं का प्रलय होता और वे आप भी विद्वान् हो जाते हैं॥२२॥
ऋषि: - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - भुरिगार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
वा॒चस्पतिं॑ वि॒श्वक॑र्माणमू॒तये॑ मनो॒जुवं॒ वाजे॑ऽअ॒द्या हु॑वेम।
स नो॒ विश्वा॑नि॒ हव॑नानि जोषद् वि॒श्वश॑म्भू॒रव॑से सा॒धुक॑र्मा॥२३॥
विषय - कैसा पुरुष राज्य के अधिकार पर नियुक्त करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! हम लोग (ऊतये) रक्षा आदि के लिये जिस (वाचस्पतिम्) वेदवाणी के रक्षक (मनोजुवम्) मन के समान वेगवान् (विश्वकर्माणम्) सब कर्मों में कुशल महात्मा पुरुष को (वाजे) संग्राम आदि कर्म में (हुवेम) बुलावें (सः) वह (विश्वशम्भूः) सब के लिये सुखप्रापक (साधुकर्मा) धर्मयुक्त कर्मों का सेवन करनेहारा विद्वान् (नः) हमारी (अवसे) रक्षा आदि के लिये (अद्य) आज (विश्वानि) सब (हवनानि) ग्रहण करने योग्य कर्मों को (जोषत्) सेवन करे॥२३॥
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि जिसने ब्रह्मचर्य नियम के साथ सब विद्या पढ़ी हों, जो धर्मात्मा आलस्य और पक्षपात को छोड़ के उत्तम कर्मों का सेवन करता तथा शरीर और आत्मा के बल से पूरा हो, उसको सब प्रजा की रक्षा करने में अधिपति राजा बनावें॥२३॥
ऋषि: - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
विश्व॑कर्मन् ह॒विषा॒ वर्द्ध॑नेन त्रा॒तार॒मिन्द्र॑मकृणोरव॒ध्यम्।
तस्मै॒ विशः॒ सम॑नमन्त पू॒र्वीर॒यमु॒ग्रो वि॒हव्यो॒ यथास॑त्॥२४॥
विषय - मनुष्यों को कैसा पुरुष राजा मानना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (विश्वकर्मन्) सम्पूर्ण शुभकर्मों के सेवन करनेहारे सब सभाओं के पति राजा! आप (हविषा) ग्रहण करने योग्य (वर्द्धनेन) वृद्धि से जिस (अवध्यम्) मारने के अयोग्य (त्रातारम्) रक्षक (इन्द्रम्) उत्तम सम्पत्ति वाले पुरुष को राजकार्य में सम्मतिदाता मन्त्री (अकृणोः) करो, (तस्मै) उसके लिये (पूर्वीः) पहिले न्यायाधीशों ने प्राप्त कराई (विशः) प्रजाओं को (समनमन्त) अच्छे प्रकार नम्र करो, (यथा) जैसे (अयम्) यह मन्त्री (उग्रः) मारने में तीक्ष्ण (विहव्यः) विविध प्रकार के साधनों से स्वीकार करने योग्य (असत्) होवे, वैसा कीजिये॥२४॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सब सभाओं के अधिष्ठाता के सहित सब सभासद् उस पुरुष को राज्य का अधिकार देवें कि जो पक्षपाती न हो। जो पिता के समान प्रजाओं की रक्षा न करें, उनको प्रजा लोग भी कभी न मानें और जो पुत्र के तुल्य प्रजा की न्याय से रक्षा करें, उनके अनुकूल प्रजा निरन्तर हों॥२४॥
ऋषि: - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
चक्षु॑षः पि॒ता मन॑सा॒ हि धीरो॑ घृ॒तमे॑नेऽअजन॒न्नम्न॑माने।
य॒देदन्ता॒ऽअद॑दृहन्त॒ पूर्व॒ऽआदिद् द्यावा॑पृथि॒वीऽअ॑प्रथेताम्॥२५॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे प्रजा के पुरुषो! आप लोग जो (चक्षुषः) न्याय दिखाने वाले उपदेशक का (पिता) रक्षक (मनसा) योगाभ्यास से शान्त अन्तःकरण (हि) ही से (धीरः) धीरजवान् (घृतम्) घी को (अजनत्) प्रकट करता है, उसको अधिकार देके (एने) राजा और प्रजा के दल (नम्नमाने) नम्न के तुल्य आचरण करते हुए (पूर्वे) पहिले से वर्त्तमान (द्यावापृथिवी) प्रकाश और पृथिवी के समान मिले हुए जैसे (अप्रथेताम्) प्रख्यात होवे, वैसे (इत्) ही (यदा) जब (अन्ताः) अन्त्य के अवयवों के तुल्य (अददृहन्त) वृद्धि को प्राप्त हों, तब (आत्) उसके पश्चात् (इत्) ही स्थिरराज्य वाले होओ॥२५॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब मनुष्य राज और प्रजा के व्यवहार में एकसम्मति होकर सदा प्रयत्न करें, तभी सूर्य और पृथिवी के तुल्य स्थिर सुख वाले होवें॥२५॥
ऋषि: - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - भुरिगार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
वि॒श्वक॑र्म्मा॒ विम॑ना॒ऽआद्विहा॑या धा॒ता वि॑धा॒ता प॑र॒मोत स॒न्दृक्।
तेषा॑मि॒ष्टानि॒ समि॒षा म॑दन्ति॒ यत्रा॑ सप्तऽऋ॒षीन् प॒रऽएक॑मा॒हुः॥२६॥
विषय - अब परमेश्वर कैसा है यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! (विश्वकर्मा) जिसका समस्त जगत् का बनाना क्रियमाण काम और जो (विमनाः) अनेक प्रकार के विज्ञान से युक्त (विहायाः) विविध प्रकार के पदार्थों में व्याप्त (धाता) सब का धारण-पोषण करने (विधाता) और रचने वाला (सन्दृक्) अच्छे प्रकार सब को देखता (परः) और सब से उत्तम है तथा जिसको (एकम्) अद्वितीय (आहुः) कहते अर्थात् जिसमें दूसरा कहने में नहीं आता (आत्) और (यत्र) जिसमें (सप्तऋषीन्) पांच प्राण, सूत्रात्मा और धनञ्जय इन सात को प्राप्त होकर (इषा) इच्छा से जीव (सं, मदन्ति) अच्छे प्रकार आनन्द को प्राप्त होते (उत) और जो (तेषाम्) उन जीवों के (परमा) उत्तम (इष्टानि) सुखसिद्ध करने वाले कामों को सिद्ध करता है, उस परमेश्वर की तुम लोग उपासना करो॥२६॥
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि सब जगत् का बनाने, धारण, पालन और नाश करनेहारा एक अर्थात् जिसका दूसरा कोई सहायक नहीं हो सकता, उसी परमेश्वर की उपासना अपने चाहे हुए काम के सिद्ध करने के लिये करना चाहिये॥२६॥
ऋषि: - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
यो नः॑ पि॒ता ज॑नि॒ता यो वि॑धा॒ता धामा॑नि॒ वेद॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑।
यो दे॒वानां॑ नाम॒धाऽएक॑ऽए॒व तꣳ स॑म्प्र॒श्नं भुव॑ना यन्त्य॒न्या॥२७॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! (यः) जो (नः) हमारा (पिता) पालन और (जनिता) सब पदार्थों का उत्पादन करनेहारा तथा (यः) जो (विधाता) कर्मों के अनुसार फल देने तथा जगत् का निर्माण करने वाला (विश्वा) समस्त (भुवनानि) लोकों और (धामानि) जन्म, स्थान वा नाम को (वेद) जानता (यः) जो (देवानाम्) विद्वानों वा पृथिवी आदि पदार्थों का (नामधाः) अपनी विद्या से नाम धरने वाला (एकः) एक अर्थात् असहाय (एव) ही है, जिसको (अन्या) और (भुवना) लोकस्थ पदार्थ (यन्ति) प्राप्त होते जाते हैं, (सम्प्रश्नम्) जिसके निमित्त अच्छे प्रकार पूछना हो, (तम्) उसको तुम लोग जानो॥२७॥
भावार्थ - जो पिता के तुल्य समस्त विश्व का पालने और सब को जाननेहारा एक परमेश्वर है, उसके और उसकी सृष्टि के विज्ञान से ही सब मनुष्य परस्पर मिल के प्रश्न और उत्तर करें॥२७॥
ऋषि: - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - भुरिगार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
तऽआय॑जन्त॒ द्रवि॑ण॒ꣳ सम॑स्मा॒ऽऋष॑यः॒ पूर्वे॑ जरि॒तारो॒ न भू॒ना।
अ॒सूर्त्ते॒ सूर्त्ते॒ रज॑सि निष॒त्ते ये भू॒तानि॑ स॒मकृ॒॑ण्वन्नि॒मानि॑॥२८॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(ये) जो (पूर्वे) पूर्ण विद्या से सब की पुष्टि (जरितारः) और स्तुति करने वाले के (न) समान (ऋषयः) वेदार्थ के जानने वाले (भूना) बहुत से (असूर्त्ते) परोक्ष अर्थात् अप्राप्त हुए वा (सूर्त्ते) प्रत्यक्ष अर्थात् पाये हुए (निषत्ते) स्थित वा स्थापित किये हुए (रजसि) लोक में (इमानि) इन प्रत्यक्ष (भूतानि) प्राणियों को (समकृण्वन्) अच्छे प्रकार शिक्षित करते हैं, (ते) वे (अस्मै) इस ईश्वर की आज्ञा पालने के लिये (द्रविणम्) धन को (सम्, आ, अयजन्त) अच्छे प्रकार संगत करें॥२८॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग इस जगत् में परमात्मा की आज्ञा पालने के लिये सृष्टिक्रम से तत्त्वों को जानते हैं, वैसे ही अन्य लोग आचरण करें। जैसे धार्मिक जन धर्म के आचरण से धन को इकट्ठा करते हैं, वैसे ही सब लोग उपार्जन करें॥२८॥
ऋषि: - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
प॒रो दि॒वा प॒रऽए॒ना पृ॑थि॒व्या प॒रो दे॒वेभि॒रसु॑रै॒र्यदस्ति॑।
कꣳस्वि॒द् गर्भं॑ प्रथ॒मं द॑ध्र॒ऽआपो॒ यत्र॑ दे॒वाः स॒मप॑श्यन्त॒ पूर्वे॑॥२९॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जो (एना) इस (दिवा) सूर्य्य आदि लोकों से (परः) परे अर्थात् अत्युत्तम (पृथिव्या) पृथिवी आदि लोकों से (परः) परे (देवेभिः) विद्वान् वा दिव्य प्रकाशित प्रजाओं और (असुरैः) अविद्वान् तथा कालरूप प्रजाओं से (परः) परे (अस्ति) है, (यत्र) जिसमें (आपः) प्राण (कम्, स्वित्) किसी (प्रथमम्) विस्तृत (गर्भम्) ग्रहण करने योग्य पदार्थ को (दध्रे) धारण करते हुए वा (यत्) जिसको (पूर्वे) पूर्णविद्या के अध्ययन करने वाले (देवाः) विद्वान् लोग (समपश्यन्त) अच्छे प्रकार ज्ञानचक्षु से देखते हैं, वह ब्रह्म है, यह तुम लोग जानो॥२९॥
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि जो सब से सूक्ष्म, बड़ा, अतिश्रेष्ठ, सब का धारणकर्त्ता, विद्वानों का विषय अर्थात् समस्त विद्याओं का समाधानरूप अनादि और चेतनमात्र है, वही ब्रह्म उपासना करने के योग्य है, अन्य नहीं॥२९॥
ऋषि: - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
तमिद् गर्भं॑ प्रथ॒मं द॑ध्र॒ऽआपो॒ यत्र॑ दे॒वाः स॒मग॑च्छन्त॒ विश्वे॑।
अ॒जस्य॒ नाभा॒वध्येक॒मर्पि॑तं॒ यस्मि॒न् विश्वा॑नि॒ भुव॑नानि त॒स्थुः॥३०॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! (यत्र) जिस ब्रह्म में (आपः) कारणमात्र प्राण वा जीव (प्रथमम्) विस्तारयुक्त अनादि (गर्भम्) सब लोकों की उत्पत्ति का स्थान प्रकृति को (दध्रे) धारण करते हुए वा जिसमें (विश्वे) सब (देवाः) दिव्य आत्मा और अन्तःकरणयुक्त योगीजन (समगच्छन्त) प्राप्त होते हैं, वा जो (अजस्य) अनुत्पन्न अनादि जीव वा अव्यक्त कारणसमूह के (नाभौ) मध्य में (अधि) अधिष्ठातृपन से सब के ऊपर विराजमान (एकम्) आप ही सिद्ध (अर्पितम्) स्थित (यस्मिन्) जिस में (विश्वानि) समस्त (भुवनानि) लोकोत्पन्न द्रव्य (तस्थुः) स्थिर होते हैं, तुम लोग (तमित्) उसी को परमात्मा जानो॥३०॥
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि जो जगत् का आधार, योगियों को प्राप्त होने योग्य, अन्तर्यामी, आप अपना आधार, सब में व्याप्त है, उसी का सेवन सब लोग करें॥३०॥
ऋषि: - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
न तं वि॑दाथ॒ यऽइ॒मा ज॒जाना॒न्यद्यु॒ष्माक॒मन्त॑रं बभूव।
नी॒हा॒रेण॒ प्रावृ॑ता॒ जल्प्या॑ चासु॒तृप॑ऽउक्थ॒शास॑श्चरन्ति॥३१॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे ब्रह्म के न जानने वाले पुरुष (नीहारेण) धूम के आकार कुहर के समान अज्ञानरूप अन्धकार से (प्रावृताः) अच्छे प्रकार ढके हुए (जल्प्या) थोड़े सत्य-असत्य वादानुवाद में स्थिर रहने वाले (असुतृपः) प्राणपोषक (च) और (उक्थशासः) योगाभ्यास को छोड़ शब्द-अर्थ के सम्बन्ध के खण्डन-मण्डन में रमण करते हुए (चरन्ति) विचरते हैं, वैसे तुम लोग (तम्) उस परमात्मा को (न) नहीं (विदाथ) जानते हो (यः) जो (इमा) इन प्रजाओं को (जजान) उत्पन्न करता और जो ब्रह्म (युष्माकम्) तुम अधर्मी अज्ञानियों के सकाश से (अन्यत्) अर्थात् कार्य्यकारणरूप जगत् और जीवों से भिन्न (अन्तरम्) तथा सबों में स्थित भी दूरस्थ (बभूव) होता है, उस अतिसूक्ष्म आत्मा अर्थात् परमात्मा को नहीं जानते हो॥३१॥
भावार्थ - जो पुरुष ब्रह्मचर्य्य आदि व्रत, आचार, विद्या, योगाभ्यास, धर्म के अनुष्ठान, सत्संग और पुरुषार्थ से रहित हैं, वे अज्ञानरूप अन्धकार में दबे हुए, ब्रह्म को नहीं जान सकते। जो ब्रह्म जीवों से पृथक्, अन्तर्यामी, सब का नियन्ता और सर्वत्र व्याप्त है, उसके जानने को जिनका आत्मा पवित्र है, वे ही योग्य होते हैं, अन्य नहीं॥३१॥
ऋषि: - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - स्वराडार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
वि॒श्वक॑र्मा॒ ह्यज॑निष्ट दे॒वऽआदिद् ग॑न्ध॒र्वोऽअ॑भवद् द्वि॒तीयः॑।
तृ॒तीयः॑ पि॒ता ज॑नि॒तौष॑धीनाम॒पां गर्भं॒ व्यदधात् पुरु॒त्रा॥३२॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! इस जगत् में (विश्वकर्मा) जिस के समस्त शुभ काम हैं, वह (देवः) दिव्यस्वरूप वायु प्रथम (इत्) ही (अभवत्) होता है, (आत्) इसके अन्तर (गन्धर्वः) जो पृथिवी को धारण करता है, वह सूर्य वा सूत्रात्मा वायु (अजनिष्ट) उत्पन्न और (ओषधीनाम्) यव आदि ओषधियों (अपाम्) जलों और प्राणों का (पिता) पालन करनेहारा (हि) ही (द्वितीयः) दूसरा अर्थात् धनञ्जय तथा जो प्राणों के (गर्भम्) गर्भ अर्थात् धारण को (व्यदधात्) विधान करता है, वह (पुरुत्रा) बहुतों का रक्षक (जनिता) जलों का धारण करनेहारा मेघ (तृतीयः) तीसरा उत्पन्न होता है, इस विषय को आप लोग जानो॥३२॥
भावार्थ - सब मनुष्यों को योग्य है कि इस संसार में सब कामों के सेवन करनेहारे जीव पहिले, बिजुली, अग्नि, वायु और सूर्य पृथिवी आदि लोकों के धारण करनेहारे हैं, वे दूसरे और मेघ आदि तीसरे हैं, उनमें पहिले जीव अज अर्थात् उत्पन्न नहीं होते और दूसरे, तीसरे उत्पन्न हुए हैं, परन्तु वे भी कारणरूप से नित्य हैं, ऐसा जानें॥३२॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
आ॒शुः शिशा॑नो वृष॒भो न भी॒मो घ॑नाघ॒नः क्षोभ॑णश्चर्षणी॒नाम्।
सं॒क्रन्द॑नोऽनिमि॒षऽए॑कवी॒रः श॒तꣳ सेना॑ऽअजयत् सा॒कमिन्द्रः॑॥३३॥
विषय - अब सेनापति के कृत्य का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ -
हे विद्वान् मनुष्यो! तुम लोग जो (चर्षणीनाम्) सब मनुष्यों वा उन की सम्बन्धिनी सेनाओं में (आशुः) शीघ्रकारी (शिशानः) पदार्थों को सूक्ष्म करने वाला (वृषभः) बलवान् बैल के (न) समान (भीमः) भयंकर (घनाघनः) अत्यन्त आवश्यकता के साथ शत्रुओं का नाश करने (क्षोभणः) उन को कंपाने (संक्रन्दनः) अच्छे प्रकार शत्रुओं को रुलाने और (अनिमिषः) रात्रि-दिन प्रयत्न करनेहारा (एकवीरः) अकेला वीर (इन्द्रः) शत्रुओं को विदीर्ण करने वाला सेना का अधिपति पुरुष हम लोगों के (साकम्) साथ (शतम्) अनेकों (सेनाः) उन सेनाओं को जिनसे शत्रुओं को बांधते हैं, (अजयत्) जीतता है, उसी को सेनाधीश करो॥३३॥
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि जो धनुर्वेद और ऋग्वेदादि शास्त्रों का जानने वाला, निर्भय, सब विद्याओं में कुशल, अति बलवान्, धार्मिक, अपने स्वामी के राज्य में प्रीति करने वाला, जितेन्द्रिय, शत्रुओं का जीतनेहारा तथा अपनी सेना को सिखाने और युद्ध कराने में कुशल वीर पुरुष हो, उसको सेनापति के अधिकार पर नियुक्त करें॥३३॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - स्वराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
सं॒क्रन्द॑नेनानिमि॒षेण॑ जि॒ष्णुना॑ युत्का॒रेण॑ दुश्च्यव॒नेन धृ॒ष्णुना॑।
तदिन्द्रे॑ण जयत॒ तत्स॑हध्वं॒ युधो॑ नर॒ इषु॑हस्तेन॒ वृष्णा॑॥३४॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (युधः) युद्ध करनेहारे (नरः) मनुष्यो! तुम (अनिमिषेण) निरन्तर प्रयत्न करते हुए (दुश्च्यवनेन) शत्रुओं को कष्ट प्राप्त कराने वाले (धृष्णुना) दृढ़ उत्साही (युत्कारेण) विविध प्रकार की रचनाओं से योद्धाओं को मिलाने और न मिलानेहारे (वृष्णा) बलवान् (इषुहस्तेन) बाण आदि शस्त्रों को हाथ में रखने (संक्रन्दनेन) और दुष्टों को अत्यन्त रुलानेहारे (जिष्णुना) जयशील शत्रुओं को जीतने और वा (इन्द्रेण) परम ऐश्वर्य करनेहारे (तत्) उस पूर्वोक्त सेनापति आदि के साथ वर्त्तमान हुए शत्रुओं को (जयत) जीतो और (तत्) उस शत्रु की सेना के वेग वा युद्ध से हुए दुःख को (सहध्वम्) सहो॥३४॥
भावार्थ - हे मनुष्यो! तुम लोग युद्धविद्या में कुशल, सर्वशुभलक्षण और बलपराक्रमयुक्त मनुष्य को सेनापति करके उसके साथ अधार्मिक शत्रुओं को जीत के निष्कंटक चक्रवर्त्ति राज्य भोगो॥३४॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
सऽइषु॑हस्तैः॒ स नि॑ष॒ङ्गिभि॑र्व॒शी सꣳस्र॑ष्टा॒ स युध॒ऽइन्द्रो॑ ग॒णेन॑।
स॒ꣳसृ॒ष्ट॒जित् सो॑म॒पा बा॑हुश॒र्ध्युग्रध॑न्वा॒ प्रति॑हिताभि॒रस्ता॑॥३५॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(सः) वह सेनापति (इषुहस्तैः) शस्त्रों को हाथों में रखनेहारे और अच्छे सिखाये हुए बलवान् (निषङ्गिभिः) जिनके भुशुण्डी=बन्दूक, शतघ्नी=तोप और आग्नेय आदि बहुत अस्त्र विद्यमान हैं, उन भृत्यों के साथ वर्त्तमान (सः) वह (संस्रष्टा) श्रेष्ठ मनुष्यों तथा शस्त्र और अस्त्रों का सम्बन्ध करने वाला (वशी) अपने इन्द्रिय और अन्तःकरण को जीते हुए जो (संसृष्टजित्) प्राप्त शत्रुओं को जीतता (सोमपाः) बलिष्ठ ओषधियों के रस को पीता (बाहुशर्द्धी) भुजाओं में जिसके बल विद्यमान हो और (उग्रधन्वा) जिसका तीक्ष्ण धनुष् है, (सः) वह (युधः) युद्धशील (अस्ता) शस्त्र और अस्त्रों को अच्छे प्रकार फेंकने तथा (इन्द्रः) शत्रुओं को मारने वाला और (गणेन) अच्छे सीखे हुए भृत्यों वा सेनावीरों ने (प्रतिहिताभिः) प्रत्यक्षता से स्वीकार की हुई सेना के साथ वर्त्तमान होता हुआ जनों को जीते॥३५॥
भावार्थ - सब का ईश राजा वा सब सेनाओं का अधिपति अच्छे सीखे हुए वीर भृत्यों की सेना के साथ वर्त्तमान दुःख से जीतने योग्य शत्रुओं को भी जीत सके, वैसे सब को करना चाहिये॥३५॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
बृह॑स्पते॒ परि॑ दीया॒ रथे॑न रक्षो॒हामित्राँ॑२ऽ अप॒बाध॑मानः।
प्र॒भ॒ञ्जन्त्सेनाः॑ प्रमृ॒णो यु॒धा जय॑न्न॒स्माक॑मेद्ध्यवि॒ता र॒था॑नाम्॥३६॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (बृहस्पते) धार्मिकों वृद्धों वा सेनाओं के रक्षक जन! (रक्षोहा) जो दुष्टों को मारने (अमित्रान्) शत्रुओं को (अपबाधमानः) दूर करने (प्रमृणः) अच्छे प्रकार मारने और (सेनाः) उनकी सेनाओं को (प्रभञ्जन्) भग्न करने वाला तू (रथेन) रथसमूह से (युधा) युद्ध में शत्रुओं को (परि, दीया) सब ओर से काटता है, सो (जयन्) उत्कर्ष अर्थात् जय को प्राप्त होता हुआ (अस्माकम्) हम लोगों के (रथानाम्) रथों की (अविता) रक्षा करने वाला (एधि) हो॥३६॥
भावार्थ - राजा सेनापति और अपनी सेना को उत्साह कराता तथा शत्रुसेना को मारता हुआ धर्मात्मा प्रजाजनों की निरन्तर उन्नति करे॥३६॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
ब॒ल॒वि॒ज्ञा॒यः स्थवि॑रः॒ प्रवी॑रः॒ सह॑स्वान् वा॒जी सह॑मानऽउ॒ग्रः।
अ॒भिवी॑रोऽअ॒भिस॑त्वा सहो॒जा जैत्र॑मिन्द्र॒ रथ॒माति॑ष्ठ गो॒वित्॥३७॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (इन्द्र) युद्ध की उत्तम सामग्री युक्त सेनापति! (बलविज्ञायः) जो अपनी सेना को बली करना जानता (स्थविरः) वृद्ध (प्रवीरः) उत्तम वीर (सहस्वान्) अत्यन्त बलवान् (वाजी) जिसको प्रशंसित शास्त्रबोध है, (सहमानः) जो सुख और दुःख को सहने तथा (उग्रः) दुष्टों के मारने में तीव्र तेज वाला (अभिवीरः) जिस के अभीष्ट अर्थात् तत्काल चाहे हुए काम के करने वाले वा (अभिसत्वा) सब ओर से युद्धविद्या में कुशल रक्षा करनेहारे वीर हैं, (सहोजाः) बल से प्रसिद्ध (गोवित्) वाणी, गौओं वा पृथिवी को प्राप्त होता हुआ, ऐसा तू युद्ध के लिये (जैत्रम्) जीतने वाले वीरों से घेरे हुए (रथम्) पृथिवी, समुद्र और आकाश में चलने वाले रथ को (आ, तिष्ठ) आकर स्थित हो अर्थात् उसमें बैठ॥३७॥
भावार्थ - सेनापति वा सेना के वीर जब शत्रुओं से युद्ध की इच्छा करें, तब परस्परर सब ओर से रक्षा और रक्षा के साधनों को संग्रह कर विचार और उत्साह के साथ वर्त्तमान आलस्य रहित होते हुए शत्रुओं को जीतने में तत्पर हों॥३७॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - भुरिगार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
गो॒त्र॒भिदं॑ गो॒विदं॒ वज्र॑बाहुं॒ जय॑न्त॒मज्म॑ प्रमृ॒णन्त॒मोज॑सा।
इ॒मꣳ स॑जाता॒ऽअनु॑ वीरयध्व॒मिन्द्र॑ꣳ सखायो॒ऽअनु॒ सꣳर॑भध्वम्॥३८॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (सजाताः) एकदेश में उत्पन्न (सखायः) परस्पर सहाय करने वाले मित्रो! तुम लोग (ओजसा) अपने शरीर और बुद्धि वा बल वा सेनाजनों से (गोत्रभिदम्) जो कि शत्रुओं के गोत्रों अर्थात् समुदायों को छिन्न-भिन्न करता, उनकी जड़ काटता (गोविदम्) शत्रुओं की भूमि को ले लेता (वज्रबाहुम्) अपनी भुजाओं में शस्त्रों को रखता (प्रमृणन्तम्) अच्छे प्रकार शत्रुओं को मारता (अज्म) जिससे वा जिसमें शत्रुजनों को पटकते हैं, उस संग्राम में (जयन्तम्) वैरियों को जीत लेता और (इमम्) उनको (इन्द्रम्) विदीर्ण करता है, इस सेनापति को (अनु, वीरयध्वम्) प्रोत्साहित करो और (अनु, संरभध्वम्) अच्छे प्रकार युद्ध का आरम्भ करो॥३८॥
भावार्थ - सेनापति आदि तथा सेना के भृत्य परस्पर मित्र होकर एक-दूसरे का अनुमोदन करा युद्ध का आरम्भ और विजय कर शत्रुओं के राज्य को पा और न्याय से प्रजा को पालन करके निरन्तर सुखी हों॥३८॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
अ॒भि गो॒त्राणि॒ सह॑सा॒ गाह॑मानोऽद॒यो वी॒रः श॒तम॑न्यु॒रिन्द्रः॑।
दु॒श्च्य॒व॒नः पृ॑तना॒षाड॑यु॒ध्योऽअ॒स्माक॒ꣳ सेना॑ अवतु॒ प्र यु॒त्सु॥३९॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वानो! जो (युत्सु) जिनसे अनेक पदार्थों का मेल अमेल करें, उन युद्धों में (सहसा) बल से (गोत्राणि) शत्रुओं के कुलों को (प्र, गाहमानः) अच्छे यत्न से गाहता हुआ (अदयः) निर्दय (शतमन्युः) जिसको सैकड़ों प्रकार का क्रोध विद्यमान है, (दुश्च्यवनः) जो दुःख से शत्रुओं के गिराने योग्य (पृतनाषाट्) शत्रु की सेना को सहता है, (अयुध्यः) और जो शत्रुओं के युद्ध करने योग्य नहीं है, (वीरः) तथा शत्रुओं की विदीर्ण करता है, वह (अस्माकम्) हमारी (सेनाः) सेनाओं को (अभि, अवतु) सब ओर से पाले और (इन्द्रः) सेनाधिपति हो, ऐसी आज्ञा तुम देओ॥३९॥
भावार्थ - जो धार्मिक जनों में करुणा करने वाला, दुष्टों में दयारहित और सब ओर से सब की रक्षा करने वाला मनुष्य हो, वही सेना के पालने में अधिकारी करने योग्य है॥३९॥
ऋषि: - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - विराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
इन्द्र॑ऽआसां ने॒ता बृह॒स्पति॒र्दक्षि॑णा य॒ज्ञः पु॒रऽए॑तु॒ सोमः॑।
दे॒व॒से॒नाना॑मभिभञ्जती॒नां जय॑न्तीनां म॒रुतो॑ य॒न्त्वग्र॑म्॥४०॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
युद्ध में (अभिभञ्जतीनाम्) शत्रुओं की सेनाओं को सब ओर से मारती (जयन्तीनाम्) और शत्रुओं को जीतने से उत्साह को प्राप्त होती हुई (आसाम्) इन (देवसेनानाम्) विद्वानों की सेनाओं का (नेता) नायक (इन्द्रः) उत्तम ऐश्वर्य वाला शिक्षक सेनापति पीछे (यज्ञः) सब को मिलने वाला (पुरः) प्रथम (बृहस्पतिः) सब अधिकारियों का अधिपति (दक्षिणा) दाहिनी ओर और (सोमः) सेना को प्रेरणा अर्थात् उत्साह देने वाला बार्इं ओर (एतु) चले तथा (मरुतः) पवनों के समान वेग वाले बली शूरवीर (अग्रम्) आगे को (यन्तु) जावें॥४०॥
भावार्थ - जब राजपुरुष शत्रुओं के साथ युद्ध किया चाहें, तब सब दिशाओं में अध्यक्ष तथा शूरवीरों को आगे और डरपने वालों को बीच में ठीक स्थापन कर भोजन, आच्छादन, वाहन, अस्त्र और शस्त्रों के योग से युद्ध करें और वहां विद्वानों की सेना के आधीन मूर्खों की सेना करनी चाहिये। उन सेनाओं को विद्वान् लोग अच्छे उपदेश से उत्साह देवें और सेनाध्यक्षादि पद्मव्यूह आदि बांध के युद्ध करावें॥४०॥
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