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यजुर्वेद अध्याय 17 मंत्र (61-80)

 ऋषि: - मधुच्छन्दा ऋषिः । सुतजेता ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः


इन्द्रं॒ विश्वा॑ऽअवीवृधन्त्समु॒द्रव्य॑चसं॒ गिरः॑। 

र॒थी॒त॑मꣳ र॒थीनां॒ वाजा॑ना॒ सत्प॑तिं॒ पति॑म्॥६१॥


विषय - फिर जगत् बनाने वाले ईश्वर के गुणों को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! तुम जिस (समुद्रव्यचसम्) अन्तरिक्ष की व्याप्ति के समान व्याप्ति वाले (रथीनाम्) प्रशंसायुक्त सुख के हेतु पदार्थ वालों में (रथीतमम्) अत्यन्त प्रशंसित सुख के हेतु पदार्थों से युक्त (वाजानाम्) ज्ञानी आदि गुणी जनों के (पतिम्) स्वामी (सत्पतिम्) विनाशरहित वा विनाशरहित कारण और जीवों के पालनेहारे (इन्द्रम्) परमात्मा को (विश्वाः) समस्त (गिरः) वाणी (अवीवृधन्) बढ़ाती अर्थात् विस्तार से कहती हैं, उस परमात्मा की निरन्तर उपासना करो॥६१॥


भावार्थ - सब मनुष्यों को चाहिये कि सब वेद जिसकी प्रशंसा करते, योगीजन जिसकी उपासना करते और मुक्त पुरुष जिसको प्राप्त होकर आनन्द भोगते हैं, उसी को उपासना के योग्य इष्टदेव मानें॥६१॥


ऋषि: - विधृतिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः


दे॒व॒हूर्य॒ज्ञऽआ च॑ वक्षत् सुम्न॒हूर्य॒ज्ञऽआ च॑ वक्षत्। 

यक्ष॑द॒ग्निर्दे॒वो दे॒वाँ२ऽआ च॑ वक्षत्॥६२॥


विषय - फिर ईश्वर कैसा है, यह अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जो (देवहूः) विद्वानों को बुलाने (यज्ञः) पूजा करने योग्य ईश्वर हम लोगों को सत्य (आ, वक्षत्) उपदेश करे (च) और असत्य से हमारा उद्धार करे वा जो (सुम्नहूः) सुखों को बुलाने वाला (यज्ञः) पूजन करने योग्य ईश्वर हम लोगों के लिये सुखों को (आ, वक्षत्) प्राप्त करे (च) और दुःखों का विनाश करे वा जो (अग्निः) आप प्रकाशमान (देवः) समस्त सुख का देने वाला ईश्वर हम लोगों को (देवान्) उत्तम गुणों वा भोगों को (यक्षत्) देवे (च) और (आ, वक्षत्) पहुँचावे अर्थात् कार्य्यान्तर से प्राप्त करे, उसको आप लोग निरन्तर सेवो॥६२॥


भावार्थ - जो उत्तम शास्त्र जानने वाले विद्वानों से उपासना किया जाता तथा जो सुखस्वरूप और मङ्गल कार्य्यों का देने वाला परमेश्वर है, उसकी समाधियोग से मनुष्य उपासना करें॥६२॥


ऋषि: - विधृतिर्ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः


वाज॑स्य मा प्रस॒वऽउ॑द्ग्रा॒भेणोद॑ग्रभीत्। 

अधा॑ स॒पत्ना॒निन्द्रो॑ मे निग्रा॒भेणाध॑राँ२ऽअकः॥६३॥


विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जैसे (इन्द्रः) पालन करने वाला (वाजस्य) विशेष ज्ञान का (प्रसवः) उत्पन्न करने वाला ईश्वर (मा) मुझे (उद्ग्राभेण) अच्छे ग्रहण करने के साधन से (उद्, अग्रभीत्) ग्रहण करे, वैसे जो (अध) इसके पीछे उसके अनुसार पालना करने और विशेष ज्ञान सिखाने वाला पुरुष (मे) मेरे (सपत्नान्) शत्रुओं को (निग्राभेण) पराजय से (अधरान्) नीचे गिराया (अकः) करे, उसको तुम लोग भी सेनापति करो॥६३॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ईश्वर पालना करे, वैसे जो मनुष्य पालना के लिये धार्मिक मनुष्यों को अच्छे प्रकार ग्रहण करते और दण्ड देने के लिये दुष्टों को निग्रह अर्थात् नीचा दिखाते हैं, वे ही राज्य कर सकते हैं॥६३॥


ऋषि: - विधृतिर्ऋषिः देवता - इन्द्राग्नी देवते छन्दः - आर्ष्युनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


उ॒द्ग्रा॒भं च॑ निग्रा॒भं च॒ ब्रह्म॑ दे॒वाऽअ॑वीवृधन्। 

अधा॑ स॒पत्ना॑निन्द्रा॒ग्नी मे॑ विषू॒चीना॒न् व्यस्यताम्॥६४॥


विषय - फिर अगले मन्त्र में राजधर्म का उपदेश किया है॥


पदार्थ -

(देवाः) विद्वान् जन (उद्ग्राभम्) अत्यन्त उत्साह से ग्रहण (च) और (निग्राभम्, च) त्याग भी करके (ब्रह्म) धन को (अवीवृधन्) बढ़ावें (अध) इसके अनन्तर (इन्द्राग्नी) बिजुली और आग के समान दो सेनापति (मे) मेरे (विषूचीनान्) विरोधभाव को वर्त्तने वाले (सपत्नान्) वैरियों को (व्यस्यताम्) अच्छे प्रकार उठा-उठा के पटकें॥६४॥


भावार्थ - जो मनुष्य सज्जनों का सत्कार और दुष्टों को पीट, मार, धन को बढ़ा निष्कण्टक राज्य का सम्पादन करते हैं, वे ही प्रशंसित होते हैं। जो राजा राज्य में वसनेहारे सज्जनों का सत्कार और दुष्टों का निरादर करके अपना तथा प्रजा के ऐश्वर्य्य को बढ़ाता है, उसी के सभा और सेना की रक्षा करने वाले जन शत्रुओं नाश कर सकें॥६४॥


ऋषि: - विधृतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः


क्रम॑ध्वम॒ग्निना॒ नाक॒मुख्य॒ꣳ हस्ते॑षु॒ बिभ्र॑तः। 

दि॒वस्पृ॒ष्ठ स्व॑र्ग॒त्वा मि॒श्रा दे॒वेभि॑राध्वम्॥६५॥


विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे वीरो! तुम (अग्निना) बिजुली से (नाकम्) अत्यन्त सुख और (उख्यम्) पात्र में पकाये हुए चावल, दाल, तर्कारी आदि भोजन को (हस्तेषु) हाथों में (बिभ्रतः) धारण किये हुए (क्रमध्वम्) पराक्रम करो। (देवेभिः) विद्वानों से (मिश्राः) मिले हुए (दिवः) न्याय और विनय आदि गुणों के प्रकाश से उत्पन्न हुए दिव्य (पृष्ठम्) चाहे हुए (स्वः) सुख को (गत्वा) प्राप्त होकर (आध्वम्) स्थित होओ॥६५॥


भावार्थ - राजपुरुष विद्वानों के साथ सम्बन्ध कर आग्नेय आदि अस्त्रों आदि से शत्रुओं में पराक्रम करें तथा स्थिर सुख को पाकर बारम्बार अच्छा यत्न करें॥६५॥


ऋषि: - विधृतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


प्राची॒मनु॑ प्र॒दिशं॒ प्रेहि॑ वि॒द्वान॒ग्नेर॑ग्ने पु॒रोऽअ॑ग्निर्भवे॒ह। 

विश्वा॒ऽआशा॒ दीद्या॑नो॒ वि भा॒ह्यूर्जं॑ नो धेहि द्वि॒पदे॒ चतु॑ष्पदे॥६६॥


विषय - फिर उसी विषय के अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) शत्रुओं के जलानेहारे सभापति! तू (प्राचीम्) पूर्व (प्रदिशम्) दिशा की ओर को (अनु, प्र, इहि) अनुकूलता से प्राप्त हो, (इह) इस राज्यकर्म में (अग्नेः) आग्नेय अस्त्र आदि के योग से (पुरोऽअग्निः) अग्नि के तुल्य अग्रगामी (विद्वान्) कार्य्य के जानने वाले विद्वान् (भव) होओ (विश्वाः) समस्त (आशाः) दिशाओं को (दीद्यानः) निरन्तर प्रकाशित करते हुए सूर्य्य के  समान (नः) हम लोगों के (द्विपदे) मनुष्यादि और (चतुष्पदे) गौ आदि पशुओं के लिये (ऊर्ज्जम्) अन्नादि पदार्थ को (धेहि) धारण कर तथा विद्या, विनय और पराक्रम से अभय का (वि, भाहि) प्रकाश कर॥६६॥


भावार्थ - जो पूर्ण ब्रह्मचर्य्य से समस्त विद्याओं का अभ्यास कर युद्धविद्याओं को जान सब दिशाओं में स्तुति को प्राप्त होते हैं, वे मनुष्यों और पशुओं के खाने योग्य पदार्थों की उन्नति और रक्षा का विधान कर आनन्दयुक्त होते हैं॥६६॥


ऋषि: - विधृतिर्ऋषिः देवता - अग्नि देवता छन्दः - पिपीलिकामध्या बृहती स्वरः - मध्यमः


पृ॒थि॒व्याऽअ॒हमुद॒न्तरि॑क्ष॒मारु॑हम॒न्तरि॑क्षा॒द् दिव॒मारु॑हम्। 

दि॒वो नाक॑स्य पृ॒ष्ठात् स्वर्ज्योति॑रगाम॒हम्॥६७॥


विषय - फिर योगियों के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जैसे किये हुए योग के अङ्गों के अनुष्ठान संयमसिद्ध अर्थात् धारणा, ध्यान और समाधि में परिपूर्ण (अहम्) मैं (पृथिव्याः) पृथिवी के बीच (अन्तरिक्षम्) आकाश को (उद्, आ, अरुहम्) उठ जाऊं वा (अन्तरिक्षात्) आकाश से (दिवम्) प्रकाशमान सूर्य्यलोक को (आ, अरुहम्) चढ़ जाऊं वा (नाकस्य) सुख करानेहारे (दिवः) प्रकाशमान उस सूर्य्यलोक के (पृष्ठात्) समीप से (स्वः) अत्यन्त सुख और (ज्योतिः) ज्ञान के प्रकाश को (अहम्) मैं (अगाम्) प्राप्त होऊं, वैसा तुम भी आचरण करो॥६७॥


भावार्थ - जब मनुष्य अपने आत्मा के साथ परमात्मा के योग को प्राप्त होता है, तब अणिमादि सिद्धि उत्पन्न होती हैं, उसके पीछे कहीं से न रुकने वाली गति से अभीष्ट स्थानों को जा सकता है, अन्यथा नहीं॥६७॥


ऋषि: - विधृतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः


स्व॒र्यन्तो॒ नापे॑क्षन्त॒ऽआ द्या रो॑हन्ति॒ रोद॑सी। 

य॒ज्ञं ये वि॒श्वतो॑धार॒ꣳ सुवि॑द्वासो वितेनि॒रे॥६८॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(ये) जो (सुविद्वांसः) अच्छे पण्डित योगी जन (यन्तः) योगाभ्यास के पूर्ण नियम करते हुओं के (न) समान (स्वः) अत्यन्त सुख की (अप, ईक्षन्ते) अपेक्षा करते हैं वा (रोदसी) आकाश और पृथिवी को (आ, रोहन्ति) चढ़ जाते अर्थात् लोकान्तरों में इच्छापूर्वक चले जाते वा (द्याम्) प्रकाशमय योगविद्या और (विश्वतोधारम्) सब ओर से सुशिक्षायुक्त वाणी हैं, जिसमें (यज्ञम्) प्राप्त करने योग्य उस यज्ञादि कर्म का (वितेनिरे) विस्तार करते हैं, वे अविनाशी सुख को प्राप्त होते हैं॥६८॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सारथि घोड़ों को अच्छे प्रकार सिखा और अभीष्ट मार्ग में चला कर सुख से अभीष्ट स्थान को शीघ्र जाता है, वैसे ही अच्छे विद्वान् योगी जन जितेन्द्रिय होकर नियम से अपने को अभीष्ट परमात्मा को पाकर आनन्द का विस्तार करते हैं॥६८॥


ऋषि: - विधृतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः


अग्ने॒ प्रेहि॑ प्रथ॒मो दे॑वय॒तां चक्षु॑र्दे॒वाना॑मु॒त मर्त्या॑नाम्। 

इय॑क्षमाणा॒ भृगु॑भिः स॒जोषाः॒ स्वर्य्यन्तु॒ यज॑मानाः स्व॒स्ति॥६९॥


विषय - फिर विद्वान् के व्यवहार का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) विद्वन्! (देवयताम्) कामना करते हुए जनों के बीच तू (प्रथमः) पहिले (प्रेहि) प्राप्त हो जिससे (देवानाम्) विद्वान् (उत) और (मर्त्यानाम्) अविद्वानों का तू (चक्षुः) व्यवहार देखने वाला है, जिससे (इयक्षमाणाः) यज्ञ की इच्छा करने (सजोषाः) एक-सी प्रीतियुक्त (यजमानाः) सबको सुख देनेहारे जन (भृगुभिः) परिपूर्ण विज्ञान वाले विद्वानों के साथ (स्वस्ति) सामान्य सुख और (स्वः) अत्यन्त सुख को (यन्तु) प्राप्त हों, वैसा तू भी हो॥६९॥


भावार्थ - हे मनुष्यो! विद्वान् और अविद्वानों के साथ प्रीति से बातचीत करके सुख को तुम लोग प्राप्त होओ॥६९॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


नक्तो॒षासा॒ सम॑नसा॒ विरू॑पे धा॒पये॑ते॒ शिशु॒मेक॑ꣳ समी॒ची। 

द्यावा॒क्षामा॑ रु॒क्मोऽअ॒न्तर्विभा॑ति दे॒वाऽअ॒ग्निं॑ धा॑रयन् द्रविणो॒दाः॥७०॥


विषय - फिर मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! तुम जैसे (समनसा) एक से विज्ञान युक्त (समीची) एकता चाहती हुई (विरूपे) अलग-अलग रूप वाली धाय और माता दोनों (एकम्) एक (शिशुम्) बालक को दुग्ध पिलाती हैं, वैसे (नक्तोषासा) रात्रि और प्रातःकाल की वेला जगत् को (धापयेते) दुग्ध सा पिलाती हैं अर्थात् अति आनन्द देती हैं वा जैसे (रुक्मः) प्रकाशमान अग्नि (द्यावाक्षामा, अन्तः) ब्रह्माण्ड के बीच में (वि, भाति) विशेष करके प्रकाश करता है, उस (अग्निम्) अग्नि को (द्रविणोदाः) द्रव्य के देने वाले (देवाः) शास्त्र पढ़े हुए जन (धारयन्) धारण करते हैं, वैसे वर्त्ताव वर्त्तो॥७०॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे संसार में रात्रि और प्रातःसमय की वेला अलग रूपों से वर्त्तमान और जैसे बिजुली अग्नि सर्व पदार्थों में व्याप्त वा जैसे प्रकाश और भूमि अतिसहनशील हैं, वैसे अत्यन्त विवेचना करने और शुभगुणों में व्यापक होने वाले होकर पुत्र के तुल्य संसार को पालें॥७०॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः


अग्ने॑ सहस्राक्ष शतमूर्द्धञ्छ॒तं ते॑ प्रा॒णाः स॒हस्रं॑ व्या॒नाः। 

त्वꣳ सा॑ह॒स्रस्य॑ रा॒यऽई॑शिषे॒ तस्मै॑ ते विधेम॒ वाजा॑य॒ स्वाहा॑॥७१॥


विषय - फिर योगी के कर्मों के फलों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे (सहस्राक्ष) हजारों व्यवहारों में अपना विशेष ज्ञान वा (शतमूर्द्धन्) सैकड़ों प्राणियों में मस्तक वाले (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशमान योगिराज! जिस (ते) आप के (शतम्) सैकड़ों (प्राणाः) जीवन के साधन (सहस्रम्) (व्यानाः) सब क्रियाओं के निमित्त शरीरस्थ वायु जो (त्वम्) आप (साहस्रस्य) हजारों जीव और पदार्थों का आधार जो जगत् उसके (रायः) धन के (ईशिषे) स्वामी हैं, (तस्मै) उस (वाजाय) विशेष ज्ञान वाले (ते) आप के लिये हम लोग (स्वाहा) सत्यवाणी से (विधेम) सत्कारपूर्वक व्यवहार करें॥७१॥


भावार्थ - जो योगी पुरुष तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान आदि योग के साधनों से योग (धारणा, ध्यान, समाधिरूप संयम) के बल को प्राप्त हो, अनेक प्राणियों के शरीरों में प्रवेश करके, अनेक शिर, नेत्र आदि अङ्गों से देखने आदि कार्यों को कर सकता है, अनेक पदार्थों वा धनों का स्वामी भी हो सकता है, उसका हम लोगों को अवश्य सेवन करना चाहिये॥७१॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


सु॒प॒र्णोऽसि ग॒रुत्मा॑न् पृ॒ष्ठे पृ॑थि॒व्याः सी॑द। 

भा॒सान्तरि॑क्ष॒मापृ॑ण॒ ज्योति॑षा॒ दिव॒मुत्त॑भान॒ तेज॑सा॒ दिश॒ऽउद्दृ॑ꣳह॥७२॥


विषय - फिर विद्वान कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे विद्वान् योगीजन! आप (भासा) प्रकाश से (सुपर्णः) अच्छे-अच्छे पूर्ण शुभ लक्षणों से युक्त और (गरुत्मान्) बड़े मन तथा आत्मा के बल से युक्त (असि) हैं, अतिप्रकाशमान आकाश में वर्त्तमान सूर्यमण्डल के तुल्य (पृथिव्याः) पृथिवी के (पृष्ठे) ऊपर (सीद) स्थिर हो, वा वायु के तुल्य प्रजा को (आ, पृण) सुख दे, वा जैसे सूर्य (ज्योतिषा) अपने प्रकाश से (दिवम्) प्रकाशमय (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष को वैसे तू राजनीति के प्रकाश से राज्य को (उत्, स्तभान) उन्नति पहुँचा, वा जैसे आग अपने (तेजसा) अतितीक्ष्ण तेज से (दिशः) दिशाओं को वैसे अपने तीक्ष्ण तेज से प्रजाजनों को (उद्, दृंह) उन्नति दे॥७२॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब मनुष्य राग=प्रीति और द्वेष=वैर से रहित परोपकारी होकर, ईश्वर के समान सब प्राणियों के साथ वर्ते, तब सब सिद्धि को प्राप्त होवे॥७२॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


आ॒जुह्वा॑नः सु॒प्रती॑कः पु॒रस्ता॒दग्ने॒ स्वं योनि॒मासी॑द साधु॒या। 

अ॒स्मिन्त्स॒धस्थे॒ऽअध्युत्त॑रस्मि॒न् विश्वे॑ देवा॒ यज॑मानश्च सीदत॥७३॥


विषय - फिर विद्वान्, गुणी जन कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) योगाभ्यास से प्रकाशित आत्मा युक्त (पुरस्तात्) प्रथम से (आजुह्वानः) सत्कार के साथ बुलाये (सुप्रतीकः) शुभगुणों को प्राप्त हुए (यजमानः) योगविद्या के देने वाले आचार्य्य! आप (साधुया) श्रेष्ठ कर्मों से (अस्मिन्) इस (सधस्थे) एक साथ के स्थान में (स्वम्) अपने (योनिम्) परमात्मा रूप घर में (आ, सीद) स्थिर हो (च) और हे (विश्वे) सब (देवाः) दिव्य आत्मा वाले योगीजनो! आप लोग श्रेष्ठ कामों से (उत्तरस्मिन्) उत्तर समय एक साथ सत्य सिद्धान्त पर (अधि, सीदत) अधिक स्थित होओ॥७३॥


भावार्थ - जो अच्छे कामों को करके योगाभ्यास करने वाले विद्वान् के संग और प्रीति से परस्पर संवाद करते हैं, वे सब के अधिष्ठान परमात्मा को प्राप्त होकर सिद्ध होते हैं॥७३॥


ऋषि: - कण्व ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


ता स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यस्य चि॒त्रामाहं वृ॑णे सुम॒तिं वि॒श्वज॑न्याम्। 

याम॑स्य॒ कण्वो॒ अदु॑ह॒त् प्रपी॑ना स॒हस्र॑धारां॒ पय॑सा म॒हीं गाम्॥७४॥


विषय - अब कौन ईश्वर को पा सकता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जैसे (कण्वः) बुद्धिमान् पुरुष (अस्य) इस (वरेण्यस्य) स्वीकार करने योग्य (सवितुः) योग के ऐश्वर्य के देनेहारे ईश्वर की (याम्) जिस (चित्राम्) अद्भुत आश्चर्य्यरूप वा (विश्वजन्याम्) समस्त जगत् को उत्पन्न करती (प्रपीनाम्) अति उन्नति के साथ बढ़ती (सहस्रधाराम्) हजारों पदार्थों को धारण करनेहारी और (सुमतिम्) यथातथ्य विषय को प्रकाशित करती हुई उत्तम बुद्धि तथा (पयसा) अन्न आदि पदार्थों के साथ (महीम्) बड़ी (गाम्) वाणी को (अदुहत्) परिपूर्ण करता अर्थात् क्रम से जान अपने ज्ञानविषयक करता है, वैसे (ताम्) उसको (अहम्) मैं (आ, वृणे) अच्छे प्रकार स्वीकार करता हूं॥७४॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मेधावीजन जगदीश्वर की विद्या को पाकर वृद्धि को प्राप्त होता है, वैसे ही इसको प्राप्त होकर और सामान्य जन को भी विद्या और योगवृद्धि के लिये उद्युक्त होना चाहिये॥७४॥


ऋषि: - गृत्समद ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


वि॒धेम॑ ते पर॒मे जन्म॑न्नग्ने वि॒धेम॒ स्तोमै॒रव॑रे स॒धस्थे॑। 

यस्मा॒द् योने॑रु॒दारि॑था॒ यजे॒ तं प्र त्वे ह॒वीᳬषि॑ जुहुरे॒ समि॑द्धे॥७५॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) योगीजन! (ते) तेरे (परमे) सब से अति उत्तम योग के संस्कार से उत्पन्न हुए (जन्मन्) जन्म में वा (त्वे) तेरे वर्त्तमान जन्म में (अवरे) न्यून (सधस्थे) एक साथ स्थान में वर्त्तमान हम लोग (स्तोमैः) स्तुतियों से (विधेम) सत्कारपूर्वक तेरी सेवा करें, तू हम लोगों को (यस्मात्) जिस (योनेः) स्थान से (उदारिथ) अच्छे-अच्छे साधनों के सहित प्राप्त हो, (तम्) उस स्थान को मैं (प्र, यजे) अच्छे प्रकार प्राप्त होऊं और जैसे होम करने वाले लोग (समिद्धे) अच्छे प्रकार जलते हुए अग्नि में (हवींषि) होम करने योग्य वस्तुओं को (जुहुरे) होमते हैं, वैसे योगाग्नि में हम लोग दुःखों के होम का (विधेम) विधान करें॥७५॥


भावार्थ - इस संसार में योग के संस्कार से युक्त जिस जीव का पवित्र भाव से जन्म होता है, वह संस्कार की प्रबलता से योग ही के जानने की चाहना करने वाला होता है और उसका जो सेवन करते हैं, वे भी योग की चाहना करने वाले होते हैं, उक्त सब योगीजन जैसे अग्नि इन्धन को जलाता है, वैसे समस्त दुःख अशुद्धि भाव को योग से जलाते हैं॥७५॥


ऋषि: - वसिष्ठ ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्ष्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः


प्रेद्धो॑ऽअग्ने दीदिहि पु॒रो नोऽज॑स्रया सू॒र्म्या यविष्ठ। 

त्वा शश्व॑न्त॒ऽउप॑यन्ति॒ वाजाः॑॥७६॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (यविष्ठ) अत्यन्त तरुण (अग्ने) आग के समान दुःखों के विनाश करनेहारे योगीजन! आप (पुरः) पहिले (प्रेद्धः) अच्छे तेज से प्रकाशमान हुए (अजस्रया) नाशरहित निरन्तर (सूर्म्या) ऐश्वर्य्य के प्रवाह से (नः) हम लोगों को (दीदिहि) चाहें (शश्वन्तः) निरन्तर वर्त्तमान (वाजाः) विशेष ज्ञान वाले जन (त्वाम्) आपको (उप, यन्ति) प्राप्त होवें॥७६॥


भावार्थ - जब मनुष्य शुद्धात्मा होकर औरों का उपकार करते हैं, तब वे भी सर्वत्र उपकारयुक्त होते हैं॥७६॥


ऋषि: - वसिष्ठ ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी गायत्री स्वरः - षड्जः


अग्ने॒ तम॒द्याश्व॒न्न स्तोमैः॒ क्रतु॒न्न भ॒द्रꣳ हृ॑दि॒स्पृश॑म्। 

ऋ॒ध्यामा॑ त॒ऽओहैः॑॥७७॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) बिजुली के समान पराक्रम वाले विद्वन्! जो (अश्वम्) घोड़े के (न) समान वा (क्रतुम्) बुद्धि के (न) समान (भद्रम्) कल्याण और (हृदिस्पृशम्) हृदय में स्पर्श करने वाला है, (तम्) उस पूर्व मन्त्र में कहे तुझ को (स्तोमैः) स्तुतियों से (अद्य) आज प्राप्त होकर (ते) आप के (ओहैः) पालन आदि गुणों से (ऋध्याम) वृद्धि को पावें॥७७॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे शरीर आदि में स्थिर हुए बिजुली आदि से वृद्धि, वेग और वृद्धि के सुख बढ़ें, वैसे विद्वानों की सिखावट और पालन आदि से मनुष्य आदि सब वृद्धि को पाते हैं॥७७॥


ऋषि: - वसिष्ठ ऋषिः  देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - विराडतिजगती स्वरः - निषादः


चित्तिं॑ जुहोमि॒ मन॑सा घृ॒तेन॒ यथा॑ दे॒वाऽइ॒हागम॑न् वी॒तिहो॑त्राऽऋता॒वृधः॑। 

पत्ये॒ विश्व॑स्य॒ भूम॑नो जु॒होमि॑ वि॒श्वक॑र्मणे वि॒श्वाहादा॑भ्यꣳ ह॒विः॥७८॥


विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! (यथा) जैसे मैं (मनसा) विज्ञान वा (घृतेन) घी से (चित्तिम्) जिस क्रिया से सञ्चय करते हैं, उसको (जुहोमि) ग्रहण करता हूँ वा जैसे (इह) इस जगत् में (वीतिहोत्राः) सब ओर से प्रकाशमान जिन का यज्ञ है, वे (ऋतावृधः) सत्य से बढ़ते और (देवाः) कामना करते हुए विद्वान् लोग (भूमनः) अनेक रूप वाले (विश्वस्य) समस्त संसार के (विश्वकर्म्मणे) सब के करने योग्य काम को जिसने किया है, उस (पत्ये) पालनेहारे जगदीश्वर के लिये (अदाभ्यम्) नष्ट न करने और (हविः) होमने योग्य सुख करने वाले पदार्थ का (विश्वाहा) सब दिनों होम करने को (आगमन्) आते हैं और मैं होमने योग्य पदार्थों को (जुहोमि) होमता हूं, वैसे तुम लोग भी आचरण करो॥७८॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे काष्ठों में चिना हुआ अग्नि घी से बढ़ता है, वैसे मैं विज्ञान से बढूं वा जैसे ईश्वर की उपासना करनेहारे विद्वान् संसार के कल्याण करने का प्रयत्न करते हैं, वैसे मैं भी यत्न करूं॥७८॥


ऋषि: - सप्तऋषय ऋषयः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी जगती स्वरः - निषादः


स॒प्त ते॑ऽअग्ने स॒मिधः॑ स॒प्त जि॒ह्वाः स॒प्तऽऋष॑यः स॒प्त धाम॑ प्रि॒याणि॑। 

स॒प्त होत्राः॑ सप्त॒धा त्वा॑ यजन्ति स॒प्त योनी॒रापृ॑णस्व घृ॒तेन॒ स्वाहा॑॥७९॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) तेजस्वी विद्वन्! जैसे आग के (सप्त, समिधः) सात जलाने वाले (सप्त, जिह्वाः) वा सात काली कराली आदि लपटरूप जीभ वा (सप्त, ऋषयः) सात प्राण, अपान, उदान, समान, व्यान, देवदत्त, धनञ्जय वा (सप्त, प्रियाणि, धाम) सात पियारे धाम अर्थात् जन्म, स्थान, नाम, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष वा (सप्त, होत्राः) सात प्रकार के ऋतु-ऋतु में यज्ञ करने वाले हैं, वैसे (ते) तेरे हों, जैसे विद्वान् उस अग्नि को (सप्तधा) सात प्रकार से (यजन्ति) प्राप्त होते हैं, वैसे (त्वा) तुझको प्राप्त होवें, जैसे यह अग्नि (घृतेन) घी से और (स्वाहा) उत्तम वाणी से (सप्त, योनीः) सात संचयों को सुख से प्राप्त होता है, वैसे तू (आ, पृणस्व) सुख से प्राप्त हो॥७९॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे र्इंधन से अग्नि बढ़ता है, वैसे विद्या आदि शुभगुणों से समस्त मनुष्य वृद्धि को प्राप्त होवें, जैसे विद्वान् जन अग्नि में घी आदि को होम के जगत् का उपकार करते हैं, वैसे हम लोग भी करें॥७९॥


ऋषि: - सप्तऋषय ऋषयः देवता - मरुतो देवताः छन्दः - आर्ष्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः 


शु॒क्रज्यो॑तिश्च चि॒त्रज्यो॑तिश्च स॒त्यज्योति॑श्च॒ ज्योति॑ष्माँश्च। 

शु॒क्रश्च॑ऽऋत॒पाश्चात्य॑ꣳहाः॥८०॥


विषय - अब ईश्वर कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जैसे (शुक्रज्योतिः) शुद्ध जिसका प्रकाश (च) और (चित्रज्योतिः) अद्भुत जिसका प्रकाश (च) और (सत्यज्योतिः) विनाशरहित जिसका प्रकाश (च) और (ज्योतिष्मान्) जिस के बहुत प्रकाश हैं (च) और (शुक्रः) शीघ्र करने वाला वा शुद्धस्वरूप (च) और (अत्यंहाः) जिसने दुष्ट काम को दूर किया (च) और (ऋतपाः) सत्य की रक्षा करने वाला ईश्वर है, वैसे तुम लोग भी होओ॥८०॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे इस जगत् में बिजुली वा सूर्य आदि प्रजा और शुद्धि के करने वाले पदार्थों को बना कर ईश्वर ने जगत् शुद्ध किया है, वैसे ही शुद्धि, सत्य और विद्या के उपदेश की क्रियाओं से विद्वान् जनों को मनुष्यादि शुद्ध करने चाहियें। इस मन्त्र में अनेक चकारों के होने से यह भी ज्ञात होता है कि सब के ऊपर प्रीति आदि गुण भी विधान करने चाहियें॥८०॥

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