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यजुर्वेद अध्याय 21 मंत्र (01-31)

 ऋषि: - शुनःशेप ऋषिः देवता - वरुणो देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः


इ॒मं मे॑ वरुण श्रु॒धी हव॑म॒द्या च॑ मृडय। त्वाम॑व॒स्युरा च॑के॥१॥


 पद पाठ


इम॒म्। मे॒। व॒रु॒ण॒। श्रु॒धि। हव॑म्। अ॒द्य। च॒। मृ॒ड॒य॒। त्वाम्। अ॒व॒स्युः। आ। च॒के॒ ॥१ ॥


विषय - अब इक्कीसवें अध्याय का आरम्भ है, इसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों के विषय में कहा है॥


पदार्थ -

हे (वरुण) उत्तम विद्यावान् जन! जो (अवस्युः) अपनी रक्षा की इच्छा करनेहारा मैं (इमम्) इस (त्वाम्) तुझ को (आ, चके) चाहता हूँ वह तू (मे) मेरी (हवम्) स्तुति को (श्रुधि) सुन (च) और (अद्य) आज मुझ को (मृडय) सुखी कर॥१॥


भावार्थ - सब विद्या की इच्छा वाले पुरुषों को चाहिए कि अनुक्रम से उपदेश करने वाले बड़े विद्वान् की इच्छा करें, वह विद्यार्थियों के स्वाध्याय को सुन और उत्तम परीक्षा करके सब को आनन्दित करे॥१॥


ऋषि: - शुनःशेप ऋषिः देवता - वरुणो देवता छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


तत्त्वा॑ यामि॒ ब्रह्म॑णा॒ वन्द॑मान॒स्तदाशा॑स्ते॒ यज॑मानो ह॒विर्भिः॑। 

अहे॑डमानो वरुणे॒ह बो॒ध्युरु॑शꣳस॒ मा न॒ऽआयुः॒ प्र मो॑षीः॥२॥


 पद पाठ

तत्। त्वा॒। या॒मि॒। ब्रह्म॑णा। वन्द॑मानः। तत्। आ। शा॒स्ते॒। यज॑मानः। ह॒विर्भि॒रिति॑ ह॒विःऽभिः॑। अहे॑डमानः। व॒रु॒ण॒। इ॒ह। बो॒धि॒। उरु॑शꣳसेत्युरु॑ऽशꣳस। मा। नः॒। आयुः॑। प्र। मो॒षीः॒ ॥२ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (वरुण) अति उत्तम विद्वान् पुरुष! जैसे (यजमानः) यजमान (हविर्भिः) देने योग्य पदार्थों से (तत्) उस की (आ, शास्ते) इच्छा करता है वैसे (ब्रह्मणा) वेद के विज्ञान से (वन्दमानः) स्तुति करता हुआ मैं (तत्) उस (त्वा) तुझ को (यासि) प्राप्त होता है। हे (उरुशंस) बहुत लोगों से प्रशंसा किये हुए जन! मुझ से (अहेडमानः) सत्कार को प्राप्त होता हुआ तू (इह) इस संसार में (नः) हमारे (आयुः) जीवन वा विज्ञान को (मा) मत (प्र, मोषीः) चुरा लेवे और शास्त्र का (बोधि) बोध कराया कर॥२॥


भावार्थ - इस में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य जिससे विद्या को प्राप्त हो, वह उसको प्रथम नमस्कार करे। जो जिस का पढ़ाने वाला हो, वह उसको विद्या देने के लिए कपट न करे, कदापि किसी को आचार्य का अपमान न करना चाहिए॥२॥


ऋषि: - वामदेव ऋषिः देवता - अग्निवरुणौ देवते छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः


त्वं नो॑ऽअग्ने॒ वरु॑णस्य वि॒द्वान् दे॒वस्य॒ हेडो॒ऽअव॑ यासिसीष्ठाः। 

यजि॑ष्ठो॒ वह्नि॑तमः॒ शोशु॑चानो॒ विश्वा॒ द्वेषा॑सि॒ प्र मु॑मुग्ध्य॒स्मत्॥३॥


 पद पाठ


त्वम्। नः॒। अ॒ग्ने॒। वरु॑णस्य। वि॒द्वान्। दे॒वस्य॑। हेडः॑। अव॑। या॒सि॒सी॒ष्ठाः॒। यजि॑ष्ठः। वह्नि॑तम इति वह्नि॑ऽतमः। शोशु॑चानः। विश्वा॑। द्वेषा॑सि। प्र। मु॒मु॒ग्धि॒। अ॒स्मत्॥३ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) के तुल्य प्रकाशमान (यजिष्ठः) अतीत यजन करने (वह्नितमः) अत्यन्त प्राप्ति कराने और (शोशुचानः) शुद्ध करने हारे (विद्वान्) विद्यायुक्त जन! (त्वम्) तू (वरुणस्य) श्रेष्ठ (देवस्य) विद्वान् का जो (हेडः) अनादर उस को (अव) मत (यासिसीष्ठाः) करे। हे तेजस्वि! तू जो (नः) हमारा अनादर हो उस को अङ्गीकार मत कर। हे शिक्षा करने हारे! तू (अस्मत्) हम से (विश्वा) सब (द्वेषांसि) द्वेष आदि युक्त कर्मों को (प्र, मुमुग्धि) छुड़ा दे॥३॥


भावार्थ - कोई भी मनुष्य विद्वानों का अनादर और कोई भी विद्वान् विद्यार्थियों का असत्कार न करे, सब मिल के ईर्ष्या, क्रोध आदि दोषों को छोड़ के सब के मित्र होवें॥३॥


ऋषि: - वामदेव ऋषिः देवता - अग्निवरुणौ देवते छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः


स त्वं नो॑ऽअग्नेऽव॒मो भ॑वो॒ती नेदि॑ष्ठोऽअ॒स्याऽउ॒षसो॒ व्युड्टष्टौ।

अव॑ यक्ष्व नो॒ वरु॑ण॒ꣳ ररा॑णो वी॒हि मृ॑डी॒कꣳ सु॒हवो॑ नऽएधि॥४॥


 पद पाठ


सः। त्वम्। नः॒। अ॒ग्ने॒। अ॒व॒मः। भ॒व॒। ऊ॒ती। नेदि॑ष्ठः। अ॒स्याः। उ॒षसः॑। व्यु॑ष्टा॒विति॒ विऽउ॑ष्टौ। अव॑। य॒क्ष्व॒। नः॒। वरु॑णम्। ररा॑णः। वी॒हि। मृ॒डी॒कम्। सु॒हव॒ इति॑ सु॒ऽहवः॑। नः॒। ए॒धि॒ ॥४ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) अग्नि के समान विद्वान्! जैसे (अस्याः) इस (उषसः) प्रभात समय के (व्युष्टौ) नाना प्रकार के दाह में अग्नि (नेदिष्ठः) अत्यन्त समीप और रक्षा करने हारा है, वैसे (सः) वह (त्वम्) तू (ऊती) प्रीति से (नः) हमारा (अवमः) रक्षा करने हारा (भव) हो (नः) हम को (वरुणम्) उत्तम गुण वा उत्तम विद्वान् वा उत्तम गुणीजन का (अव, यक्ष्व) मेल कराओ और (रराणः) रमण करते हुए तुम (मृडीकम्) सुख देने हारे को (वीहि) व्याप्त होओ (नः) हम को (सुहवः) शुभदान देनेहारे (एधि) हूजिये॥४॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रातः समय में सूर्य समीप स्थित हो के साथ सब समीप के मूर्त्त पदार्थों को व्याप्त होता है, वैसे शिष्यों के समीप अध्यापक हो के इनको अपनी विद्या से व्याप्त करे॥४॥


ऋषि: - वामदेव ऋषिः देवता - आदित्या देवताः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


म॒हीमू॒ षु मा॒तर॑ꣳ सुव्र॒ताना॑मृ॒तस्य॒ पत्नी॒मव॑से हुवेम।

तु॒वि॒क्ष॒त्राम॒जर॑न्तीमुरू॒ची सु॒शर्मा॑ण॒मदितिꣳ सु॒प्रणी॑तिम्॥५॥


 पद पाठ


म॒हीम्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। सु। मा॒तर॑म्। सु॒व्र॒ताना॑म्। ऋ॒तस्य॑। पत्नी॑म्। अव॑से। हु॒वे॒म॒। तु॒वि॒क्ष॒त्रामिति॑ तुविऽक्ष॒त्राम्। अ॒जर॑न्तीम्। उ॒रू॒चीम्। सु॒शर्मा॑ण॒मिति॑ सु॒ऽशर्मा॑णम्। अदि॑तिम्। सु॒प्रणी॑तिम्। सु॒प्रनी॑ति॒मिति॑ सु॒ऽप्रनी॑तिम् ॥५ ॥


विषय - अब पृथिवी के विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जैसे हम लोग (मातरम्) माता के समान स्थित (सुव्रतानाम्) जिन के शुभ सत्याचरण हैं, उन को (ऋतस्य) प्राप्त हुए सत्य की (पत्नीम्) स्त्री के समान वर्त्तमान (तुविक्षत्राम्) बहुत धन वाली (अजरन्तीम्) जीर्णपन से रहित (उरूचीम्) बहुत पदार्थों को प्राप्त कराने हारी (सुशर्माणम्) अच्छे प्रकार के गृह से और (सुप्रणीतिम्) उत्तम नीतियों से युक्त (उ) उत्तम (अदितिम्) अखण्डित (महीम्) पृथिवी को (अवसे) रक्षा आदि के लिए (सु, हुवेम) ग्रहण करते हैं, वैसे तुम भी ग्रहण करो॥५॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे माता सन्तानों और पतिव्रता स्त्री पति का पालन करती है, वैसे यह पृथिवी सब का पालन करती है॥५॥


ऋषि: - गयप्लात ऋषिः देवता - अदितिर्देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


सु॒त्रामा॑णं पृथि॒वीं द्याम॑ने॒हस॑ꣳ सु॒शर्मा॑ण॒मदि॑तिꣳ सु॒प्रणी॑तिम्।

दै॒वीं नाव॑ꣳ स्वरि॒त्रामना॑गस॒मस्र॑वन्ती॒मा रु॑हेमा स्व॒स्तये॑॥६॥


 पद पाठ


सु॒त्रामा॑ण॒मिति॑ सु॒ऽत्रामा॑णम्। पृ॒थि॒वीम्। द्याम्। अ॒ने॒हस॑म्। सु॒शर्म्मा॑ण॒मिति॑ सु॒ऽशर्मा॑णम्। अदि॑तिम्। सु॒प्रणी॑तिम्। सु॒प्रनी॑ति॒मिति॑ सु॒ऽप्रनी॑तिम्। दैवी॑म्। नाव॑म्। स्व॒रि॒त्रामिति॑ सुऽअरि॒त्राम्। अना॑गसम्। अस्र॑वन्तीम्। आ। रु॒हे॒म॒। स्व॒स्तये॑ ॥६ ॥


विषय - अब जलयान विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे शिल्पि जनो! जैसे हम (स्वस्तये) सुख के लिए (सुत्रामाणम्) अच्छे रक्षण आदि से युक्त (पृथिवीम्) विस्तार और (द्याम्) शुभ प्रकाश वाली (अनेहसम्) अहिंसनीय (सुशर्माणम्) जिस में सुशोभित घर विद्यमान उस (अदितिम्) अखण्डित (सुप्रणीतिम्) बहुत राजा और प्रजाजनों की पूर्ण नीति से युक्त (स्वरित्राम्) वा जिस में बल्ली पर बल्ली लगी हैं, उस (अनागसम्) अपराधरहित और (अस्रवन्तीम्) छिद्ररहित (दैवीम्) विद्वान् पुरुषों की (नावम्) प्रेरणा करने हारी नाव पर (आ, रुहेम) चढ़ते हैं, वैसे तुम लोग भी चढ़ो॥६॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जिस में बहुत घर, बहुत साधन, बहुत रक्षा करने हारे, अनेक प्रकार का प्रकाश और बहुत विद्वान् हों उस छिद्र रहित बड़ी नाव में स्थित होके समुद्र आदि जल के स्थानों में पारावार देशान्तर और द्वीपान्तर में जा आ के भूगोल में स्थित देश और द्वीपों को जान के लक्ष्मीवान् होवें॥६॥


ऋषि: - गयप्लात ऋषिः देवता - स्वर्ग्यानौर्देवता छन्दः - यवमध्या गायत्री स्वरः - षड्जः


सु॒नाव॒मा रु॑हेय॒मस्र॑वन्ती॒मना॑गसम्। 

श॒तारि॑त्रा स्वस्तये॑॥७॥


 पद पाठ


सु॒नाव॒मिति॑ सु॒ऽनाव॑म्। आ। रु॒हे॒य॒म्। अस्र॑वन्तीम्। अना॑गसम्। श॒तारि॑त्रा॒मिति॑ श॒तऽअ॑रित्राम्। स्व॒स्तये॑ ॥७ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जैसे मैं (स्वस्तये) सुख के लिए (अस्रवन्तीम्) छिद्रादि दोष वा (अनागसम्) बनावट के दोषों से रहित (शतारित्राम्) अनेकों लङ्गर वाली (सुनावम्) अच्छे बनी नाव पर (आ, रुहेयम्) चढ़ूं, वैसे इस पर तुम भी चढ़ो॥७॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य लोग बड़ी नावों की अच्छे प्रकार परीक्षा करके और उनमें स्थिर होके समुद्र आदि के पारावार जायें, जिनमें बहुत लङ्गर आदि होवें, वे नावें अत्यन्त उत्तम हों॥७॥


ऋषि: - विश्वामित्र ऋषिः देवता - मित्रावरुणौ देवते छन्दः - निचृद गायत्री स्वरः - षड्जः


आ नो॑ मित्रावरुणा घृ॒तैर्गव्यू॑तिमुक्षतम्। 

मध्वा॒ रजा॑सि सुक्रतू॥८॥


 पद पाठ


आ। नः॒। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। घृ॒तैः। गव्यू॑तिम्। उ॒क्ष॒त॒म्। मध्वा॑। रजा॑ꣳसि। सु॒क्र॒तू॒ इति॑ सुऽक्रतू ॥८ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (मित्रावरुणा) प्राण और उदान वायु के समान वर्त्तने हारे (सुक्रतू) शुभ बुद्धि वा उत्तम कर्मयुक्त शिल्पी लोगो! तुम (घृतैः) जलों से (नः) हमारे (गव्यूतिम्) दो कोश को (उक्षतम्) सेचन करो और (आ, मध्वा) सब ओर से मधुर जल से (रजांसि) लोकों का सेचन करो॥८॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो शिल्पविद्या वाले लोग नाव आदि को जल आदि मार्ग से चलावें तो वे ऊपर और नीचे मार्गों में जाने को समर्थ हों॥८॥


ऋषि: - वसिष्ठ ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


प्र बा॒हवा॑ सिसृतं जी॒वसे॑ न॒ऽआ नो॒ गव्यू॑तिमुक्षतं घृ॒तेन॑।

आ मा॒ जने॑ श्रवयतं युवाना श्रु॒तं मे॑ मित्रावरुणा॒ हवे॒मा॥९॥


 पद पाठ


प्र। बा॒हवा॑। सि॒सृ॒त॒म्। जी॒वसे॑। नः॒। आ। नः॒। गव्यू॑तिम्। उ॒क्ष॒त॒म्। घृ॒तेन॑। आ। मा। जने॑। श्र॒व॒य॒त॒म्। यु॒वा॒ना॒। श्रु॒तम्। मे॒। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। हवा॑। इ॒मा ॥९ ॥


विषय - फिर विद्वानों के विषय में अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(मित्रावरुणा) मित्र और वरुण उत्तम जन (बाहवा) दोनों बाहु के तुल्य (युवाना) मिलान और अलग करने हारे तुम (नः) हमारे (जीवसे) जीने के लिए (मा) मुझ को (प्र, सिसृतम्) प्राप्त होओ (घृतेन) जल से (नः) हमारे (गव्यूतिम्) दो कोश पर्यन्त (आ, उक्षतम्) सब ओर से सेचन करो। नाना प्रकार की कीर्त्ति को (आ, श्रवयतम्) अच्छे प्रकार सुनाओ और (मे) मेरे (जने) मनुष्यगण में (इमा) इन (हवा) वाद-विवादों को (श्रुतम्) सुनो॥९॥


भावार्थ - अध्यापक और उपदेशक प्राण और उदान के समान सब के जीवन के कारण होवें, विद्या और उपदेश से सब के आत्माओं को जल से वृक्षों के समान सेचन करें॥९॥


ऋषि: - आत्रेय ऋषिः देवता - ऋत्विजो देवताः छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः


शन्नो॑ भवन्तु वा॒जिनो॒ हवे॑षु दे॒वता॑ता मि॒तद्र॑वः स्व॒र्काः।

ज॒म्भय॒न्तोऽहिं॒ वृक॒ꣳ रक्षा॑सि॒ सने॑म्य॒स्मद्यु॑यव॒न्नमी॑वाः॥१०॥


 पद पाठ


शम्। नः॒। भ॒व॒न्तु॒। वा॒जिनः॑। हवे॑षु। दे॒वता॒तेति॑ दे॒वऽता॑ता। मि॒तद्र॑व॒ इति॑ मि॒तऽद्र॑वः। स्व॒र्का इति॑ सुऽअ॒र्काः। ज॒म्भय॑न्तः। अहि॑म्। वृक॑म्। रक्षा॑सि। सने॑मि। अ॒स्मत्। यु॒य॒व॒न्। अमी॑वाः ॥१० ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।


पदार्थ -

हे (स्वर्काः) अच्छे अन्न वा वज्र से युक्त और (मितद्रवः) प्रमाणित चलने और (देवताता) विद्वानों के समान वर्त्तने हारे (वाजिनः) अति उत्तम विज्ञान से युक्त (हवेषु) लेने-देने में चतुर आप लोग (अहिम्) मेघ को सूर्य के समान (वृकम्) चोर और (रक्षांसि) दुष्ट जीवों का (जम्भयन्तः) नाश करते हुए (नः) हमारे लिए (सनेमि) सनातन (शम्) सुख करने हारे (भवन्तु) होओ और (अस्मत्) हमारे (अमीवाः) रोगों को (युयवन्) दूर करो॥१०॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य अन्धकार को हटा के सब को सुखी करता है, वैसे विद्वान् लोग प्राणियों के शरीर और आत्मा के सब रोगों को निवृत्त करके आनन्दयुक्त करें॥१०॥


ऋषि: - आत्रेय ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


वाजे॑वाजेऽवत वाजिनो नो॒ धने॑षु विप्राऽअमृताऽऋतज्ञाः।

अ॒स्य मध्वः॑ पिबत मा॒दय॑ध्वं तृ॒प्ता या॑त प॒थिभि॑र्देव॒यानैः॑॥११॥


 पद पाठ


वाज॑वाज॒ऽइति॑ वाजे॑ऽवाजे। अ॒व॒त॒। वा॒जि॒नः॒। नः॒। धने॑षु। वि॒प्राः॒। अ॒मृ॒ताः॒। ऋ॒त॒ज्ञा॒ऽइत्यृ॒॑तज्ञाः। अ॒स्य। मध्वः॑। पि॒ब॒त॒। मा॒दय॑ध्वम्। तृ॒प्ताः। या॒त॒। प॒थिभि॒रिति॑ प॒थिऽभिः॑। दे॒व॒यानै॒रिति॑ देव॒ऽयानैः॑ ॥११ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (अमृताः) आत्मस्वरूप से अविनाशी (ऋतज्ञाः) सत्य के जानने हारे (वाजिनः) विज्ञान वाले (विप्राः) बुद्धिमान् लोगो! तुम (वाजेवाजे) युद्ध-युद्ध में और (धनेषु) धनों में (नः) हमारी (अवत) रक्षा करो और (अस्य) इस (मध्वः) मधुर रस का (पिबत) पान करो और उस से (मादयध्वम्) विशेष आनन्द को प्राप्त होओ और इस से (तृष्ताः) तृप्त हाके (देवयानैः) विद्वानों के जाने योग्य (पथिभिः) मार्गों से (यात) जाओ॥११॥


भावार्थ - जैसे विद्वान् लोग विद्यादान से और उपदेश से सब को सुखी करते हैं, वैसे ही राजपुरुष रक्षा और अभयदान से सब को सुखी करें तथा धर्मयुक्त मार्गों में चलते हुए अर्थ, काम और मोक्ष इन तीन पुरुषार्थ के फलों को प्राप्त होवें॥११॥


ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


समि॑द्धोऽअ॒ग्निः स॒मिधा॒ सुस॑मिद्धो॒ वरे॑ण्यः।

गा॒य॒त्री छन्द॑ऽइन्द्रि॒यं त्र्यवि॒र्गौर्वयो॑ दधुः॥१२॥


 पद पाठ


समि॑द्ध॒ऽइति॒ सम्ऽइ॑द्धः। अग्निः। स॒मिधेति॑ स॒म्ऽइधा॑। सुस॑मिद्ध॒ इति॒ सुऽस॑मिद्धः। वरे॑ण्यः। गा॒य॒त्री। छन्दः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। त्र्यवि॒रिति॒ त्रिऽअ॑विः। गौः। वयः॑। द॒धुः॒ ॥१२ ॥


विषय - फिर विद्वान् के विषय में अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जैसे (समिद्धः) अच्छे प्रकार देदीप्यमान (अग्निः) अग्नि (समिधा) उत्तम प्रकाश से (सुसमिद्धः) बहुत प्रकाशमान सूर्य (वरेण्यः) अङ्गीकार करने योग्य जन और (गायत्री, छन्दः) गायत्री छन्द (इन्द्रियम्) मन को प्राप्त होता है और जैसे (त्र्यविः) शरीर, इन्द्रिय, आत्मा इन तीनों की रक्षा करने और (गौः) स्तुति प्रशंसा करने हारा जन (वयः) जीवन को धारण करता है, वैसे विद्वान् लोग (दधुः) धारण करें॥१२॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् लोग विद्या से सब के आत्माओं को प्रकाशित और सब को जितेन्द्रिय करके पुरुषों को दीर्घ आयु वाले करें॥१२॥


ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


तनू॒नपा॒च्छुचि॑व्रतस्तनू॒पाश्च॒ सर॑स्वती।

उ॒ष्णिहा॒ छन्द॑ऽइन्द्रि॒यं दि॑त्य॒वाड् गौर्वयो॑ दधुः॥१३॥


 पद पाठ


तनू॒नपा॒दिति॒ तनू॒ऽनपा॑त्। शुचि॑ऽव्रतः। त॒नू॒पा इति॑ तनू॒ऽपाः। च॒। सर॑स्वती। उ॒ष्णिहा॑। छन्दः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। दि॒त्य॒वाडिति॑ दित्य॒ऽवाट्। गौः। वयः॑। द॒धुः॒ ॥१३ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जैसे (शुचिव्रतः) पवित्र धर्म के आचरण करने (तनूनपात्) शरीर को पड़ने न देने (तनूपाः) किन्तु शरीर की रक्षा करने हारा (च) और (सरस्वती) वाणी तथा (उष्णिहा) उष्णिह (छन्दः) छन्द (इन्द्रियम्) जीव के चिह्न को धारण करता है वा जैसे (दित्यवाट्) खण्डनीय पदार्थों के लिये हित प्राप्त कराने और (गौः) स्तुति करने हारा जन (वयः) इच्छा को बढ़ाता है, वैसे इन सब को विद्वान् लोग (दधुः) धारण करें॥१३॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग पवित्र आचरण वाले हैं और जिनकी वाणी विद्याओं में सुशिक्षा पाई हुई है, वे पूर्ण जीवन के धारण करने को योग्य हैं॥१३॥


ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


इडा॑भिर॒ग्निरीड्यः॒ सोमो॑ दे॒वोऽअम॑र्त्यः।

अ॒नु॒ष्टुप् छन्द॑ऽइन्द्रि॒यं पञ्चा॑वि॒गौर्वयो॑ दधुः॥१४॥


 पद पाठ


इडा॑भिः। अ॒ग्निः। ईड्यः॑। सोमः॑। दे॒वः। अम॑र्त्यः। अ॒नु॒ष्टुप्। अ॒नु॒स्तुबित्य॑नुऽस्तुप्। छन्दः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। पञ्चा॑वि॒रिति॒ पञ्च॑ऽअविः। गौः। वयः॑। द॒धुः॒ ॥१४ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जैसे (अग्निः) अग्नि के समान प्रकाशमान (अमर्त्यः) अपने स्वरूप से नाशरहित (सोमः) ऐश्वर्यवान् (ईड्यः) स्तुति करने वा खोजने के योग्य (देवः) दिव्य गुणी (पञ्चाविः) पांच से रक्षा को प्राप्त (गौः) विद्या से स्तुति के योग्य विद्वान् पुरुष (इडाभिः) प्रशंसाओं से (अनुष्टुप्, छन्दः) अनुष्टुप् छन्द (इन्द्रियम्) ज्ञान आदि व्यवहार को सिद्ध करने हारे मन और (वयः) तृप्ति को धारण करे, वैसे इस को सब (दधुः) धारण करें॥१४॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग धर्म से विद्या और ऐश्वर्य को प्राप्त होते हैं, वे सब मनुष्यों को विद्या और ऐश्वर्य प्राप्त करा सकते हैं॥१४॥


ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


सु॒ब॒र्हिर॒ग्निः पू॑षण्वान्त्स्ती॒र्णब॑र्हि॒रम॑र्त्यः।

बृ॒ह॒ती छन्द॑ऽइन्द्रि॒यं त्रि॑व॒त्सो गौर्वयो॑ दधुः॥१५॥


 पद पाठ


सु॒ब॒र्हिरिति॑ सु॒ऽब॒र्हिः। अ॒ग्निः। पू॒ष॒ण्वानिति॑ पूष॒ण्ऽवान्। स्ती॒र्णब॑र्हिरिति॑ स्ती॒र्णऽब॑र्हिः। अम॑र्त्यः। बृ॒ह॒ती। छन्दः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। त्रि॒व॒त्स इति॑ त्रिऽव॒त्सः। गौः। वयः॑। द॒धुः॒ ॥१५ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जैसे (पूषण्वान्) पुष्टि करने हारे गुणों से युक्त (स्तीर्णबर्हिः) आकाश को व्याप्त होने वाला (अमर्त्यः) अपने स्वरूप से नाशरहित (सुबर्हिः) आकाश को शुद्ध करने हारा (अग्निः) अग्नि के समान जन और (बृहती) बृहती (छन्दः) छन्द (इन्द्रियम्) जीव के चिह्न को धारण करें और (त्रिवत्सः) त्रिवत्स अर्थात् देह, इन्द्रिय, मन जिस के अनुगामी वह (गौः) गौ के समान मनुष्य (वयः) तृप्ति को प्राप्त करें, वैसे इस को सब लोग (दधुः) धारण करें॥१५॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अग्नि अन्तरिक्ष में चलता है, वैसे विद्वान् लोग सूक्ष्म और निराकार पदार्थों की विद्या में चलते हैं, जैसे गाय के पीछे बछड़ा चलता है, वैसे अविद्वान् जन विद्वानों के पीछे चला करें और अपनी इन्द्रियों को वश में लावें॥१५॥


ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


दुरो॑ दे॒वीर्दिशो॑ म॒हीर्ब्र॒ह्मा दे॒वो बृह॒स्पतिः॑।

प॒ङ्क्तिश्छन्द॑ऽइ॒हेन्द्रि॒यं तु॑र्य्य॒वाड् गौर्वयो॑ दधुः॥१६॥


 पद पाठ


दुरः॑। दे॒वीः। दिशः॑। म॒हीः। ब्र॒ह्मा। दे॒वः। बृह॒स्पतिः॑। प॒ङ्क्तिः। छन्दः॑। इ॒ह। इ॒न्द्रि॒यम्। तु॒र्य्य॒वाडिति॑ तर्य्य॒ऽवाट्। गौः। वयः॑। द॒धुः॒ ॥१६ ॥


विषय - अब वायु आदि पदार्थों के प्रयोजन विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जैसे (इह) यहां (देवीः) देदीप्यमान (महीः) बड़े (दुरः) द्वारे (दिशः) दिशाओं को (ब्रह्मा) अन्तरिक्षस्थ पवन (देवः) प्रकाशमान (बृहस्पतिः) बड़ों का पालन करने हारा सूर्य और (पङ्क्तिश्छन्दः) पङ्क्ति छन्द (इन्द्रियम्) धन तथा (तुर्य्यवाट्) चौथे को प्राप्त होने हारी (गौः) गाय (वयः) जीवन को (दधुः) धारण करें, वैसे तुम लोग भी जीवन को धारण करो॥१६॥


भावार्थ - कोई भी प्राणी अन्तरिक्षस्थ पवन आदि के बिना नहीं जी सकता॥१६॥


ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


उ॒षे य॒ह्वी सु॒पेश॑सा॒ विश्वे॑ दे॒वाऽअम॑र्त्याः।

त्रि॒ष्टुप् छन्द॑ऽइ॒हेन्द्रि॒यं प॑ष्ठ॒वाड् गौर्वयो॑ दधुः॥१७॥


 पद पाठ


उ॒षेऽइत्यु॒षे। य॒ह्वीऽइति॑ य॒ह्वी। सु॒पेश॒सेति॑ सु॒ऽपेश॑सा। विश्वे॑। दे॒वाः। अम॑र्त्याः। त्रि॒ष्टुप्। त्रि॒स्तुबिति॑ त्रि॒ऽस्तुप्। छन्दः॑। इ॒ह। इ॒न्द्रि॒यम्। प॒ष्ठ॒वाडिति॑ पष्ठ॒ऽवाट्। गौः। वयः॑। द॒धुः॒ ॥१७ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जैसे (इह) इस जगत् में (सुपेशसा) सुन्दर रूपयुक्त पढ़ाने और उपदेश करने हारी (यह्वी) बड़ी (उषे) दहन करने वाली प्रभात वेला के समान दो स्त्री (अमर्त्याः) तत्त्वस्वरूप से नित्य (विश्वे) सब (देवाः) देदीप्यमान पृथ्वी आदि लोक (त्रिष्टुप् छन्दः) त्रिष्टुप् छन्द और (पष्ठवाट्) पीठ से उठाने वाला (गौः) बैल (वयः) उत्पत्ति और (इन्द्रियम्) धन को धारण करते हैं, वैसे (दधुः) तुम लोग भी आचरण करो॥१७॥


भावार्थ - जैसे पृथ्वी आदि पदार्थ परोपकारी हैं, वैसे इस जगत् में मनुष्यों को होना चाहिए॥१७॥


ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


दैव्या॒ होता॑रा भि॒षजेन्द्रे॑ण स॒युजा॑ यु॒जा।

जग॑ती॒ छन्द॑ऽइन्द्रि॒यम॑न॒ड्वान् गौर्वयो॑ दधुः॥१८॥


 पद पाठ


दैव्या॑। होता॑रा। भि॒षजा॑। इन्द्रे॑ण स॒युजेति॑ स॒ऽयुजा॑। यु॒जा। जग॑ती। छन्दः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। अ॒न॒ड्वान्। गौः। वयः॑। द॒धुः॒ ॥१८ ॥


विषय - अब अगले मन्त्र में वैद्य के तुल्य अन्यों को आचरण करना चाहिए, इस विषय को कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्य लोगो! जैसे (इन्द्रेण) ऐश्वर्य से (सयुजा) ओषधि आदि का तुल्य योग करनेहारे (युजा) सावधान चित्त हुए (दैव्या) विद्वानों में निपुण (होतारा) विद्यादि के देने वाले (भिषजा) उत्तम दो वैद्य लोग (अनड्वान्) बैल (गौः) गाय और (जगती छन्दः) जगती छन्द (वयः) सुन्दर (इन्द्रियम्) धन को (दधुः) धारण करें, वैसे इस को तुम लोग धारण करो॥१८॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वैद्यों से अपने और दूसरों के रोग मिटाके अपने आप और दूसरे ऐश्वर्यवान् किये जाते हैं, वैसे सब मनुष्यों को वर्त्तना चाहिए॥१८॥


ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


ति॒स्रऽइडा॒ सर॑स्वती॒ भार॑ती म॒रुतो॒ विशः॑।

वि॒राट् छन्द॑ऽइ॒हेन्द्रि॒यं धे॒नुर्गौर्न वयो॑ दधुः॥१९॥


 पद पाठ


ति॒स्रः। इडा॑। सर॑स्वती। भार॑ती। म॒रुतः॑। विशः॑। वि॒राडिति॑ वि॒ऽराट्। छन्दः॑। इ॒ह। इ॒न्द्रि॒यम्। धे॒नुः। गौः। न। वयः॑। द॒धुः॒ ॥१९ ॥


विषय - फिर विद्वानों के विषय में अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जैसे (इह) इस जगत् में (इडा) पृथ्वी (सरस्वती) वाणी और (भारती) धारण वाली बुद्धि ये (तिस्रः) तीन (मरुतः) पवनगण (विशः) मनुष्य आदि प्रजा (विराट्) तथा अनेक प्रकार से देदीप्यमान (छन्दः) बल (इन्द्रियम्) धन को और (धेनुः) पान कराने हारी (गौः) गाय के (न) समान (वयः) प्राप्त होने योग्य वस्तु को (दधुः) धारण करें, वैसे सब मनुष्य लोग इस को धारण करके वर्त्ताव करें॥१९॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे विद्वान् लोग सुशिक्षित वाणी, विद्या, प्राण और पशुओं से ऐश्वर्य को प्राप्त होते हैं, वैसे अन्य सब को प्राप्त होना चाहिए॥१९॥


ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


त्वष्टा॑ तु॒रीपो॒ऽअद्भु॑तऽइन्द्रा॒ग्नी पु॑ष्टि॒वर्ध॑ना।

द्विप॑दा॒ छन्द॑ऽइन्द्रि॒यमु॒क्षा गौर्न वयो॑ दधुः॥२०॥


 पद पाठ


त्वष्टा॑। तु॒रीपः॑। अद्भु॑तः। इ॒न्द्रा॒ग्नीऽइति इन्द्रा॒ग्नी। पु॒ष्टि॒वर्ध॒नेति॑ पुष्टि॒ऽवर्ध॑ना। द्विप॑देति॒ द्विऽप॑दा। छन्दः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। उ॒क्षा। गौः। न। वयः॑। द॒धुः॒ ॥२० ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्य लोगो! जो (अद्भुतः) आश्चर्य्य गुण-कर्म-स्वभावयुक्त (तुरीपः) शीघ्र प्राप्त होने (त्वष्टा) और सूक्ष्म करने हारे तथा (पुष्टिवर्द्धना) पुष्टि को बढ़ाने हारे (इन्द्राग्नी) पवन और अग्नि दोनों और (द्विपदा) दो पाद वाले (छन्दः) छन्द (इन्द्रियम्) श्रोत्र आदि इन्द्रिय को (उक्षा) सेचन करने में समर्थ (गौः) बैल के (न) समान (वयः) जीवन को (दधुः) धारण करें, उनको जानो॥२०॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे प्रसिद्ध अग्नि, बिजुली, पेट में का अग्नि, व[वानल ये चार और प्राण, इन्द्रियां तथा गाय आदि पशु सब जगत् की पुष्टि करते हैं, वैसे ही मनुष्यों को ब्रह्मचर्य आदि से अपना और दूसरों का बल बढ़ाना चाहिए॥२०॥


ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


श॒मि॒ता नो॒ वन॒स्पतिः॑ सवि॒ता प्र॑सु॒वन् भग॑म्।

क॒कुप् छन्द॑ऽइ॒हेन्द्रि॒यं व॒शा वे॒हद्वयो॑ दधुः॥२१॥


 पद पाठ


श॒मि॒ता। नः॒। वन॒स्पतिः॑। स॒वि॒ता। प्र॒सु॒वन्निति॑ प्रऽसु॒वन्। भग॑म्। क॒कुप्। छन्दः॑। इ॒ह। इ॒न्द्रि॒यम्। व॒शा। वे॒हत्। वयः॑। द॒धुः॒ ॥२१ ॥


विषय - फिर प्रजाविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जो (शमिता) शान्ति देने हारा (वनस्पतिः) औषधियों का राजा वा वृक्षों का पालक (सविता) सूर्य (भगम्) धन को (प्रसुवन्) उत्पन्न करता हुआ (ककुप्) ककुप् (छन्दः) छन्द और (इन्द्रियम्) जीव के चिह्न को तथा (वशा) जिस के सन्तान नहीं हुआ और (वेहत्) जो गर्भ को गिराती है, वह (इह) इस जगत् में (नः) हमारे (वयः) प्राप्त होने योग्य वस्तु को (दधुः) धारण करे, उस को तुम लोग जान के उपकार करो॥२१॥


भावार्थ - जिस मनुष्य से सर्वरोग की नाशक औषधियां और ढांकने वाले उत्तम वस्त्र सेवन किये जाते हैं, वह बहुत वर्षों तक जी सकता है॥२१॥


ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


स्वाहा॑ य॒ज्ञं वरु॑णः। सुक्ष॒त्रो भे॑ष॒जं क॑रत्।

अति॑च्छन्दाऽइन्द्रि॒यं बृ॒हदृ॑ष॒भो गौर्वयो॑ दधुः॥२२॥


पद पाठ


स्वाहा॑। य॒ज्ञम्। वरु॑णः। सु॒क्ष॒त्र इति॑ सुऽक्ष॒त्रः। भे॒ष॒जम्। क॒र॒त्। अति॑च्छन्दा॒ इत्यति॑ऽछन्दाः। इ॒न्द्रि॒यम्। बृ॒हत्। ऋ॒ष॒भः। गौः। वयः॑। द॒धुः॒ ॥२२ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! तुम जैसे (वरुणः) श्रेष्ठ (सुक्षत्रः) उत्तम धनवान् जन (स्वाहा) सत्य क्रिया से (यज्ञम्) संगममय (भेषजम्) औषध को (करत्) करे और जो (अतिच्छन्दाः) अतिच्छन्द और (ऋषभः) उत्तम (गौः) बैल (बृहत्) बड़े (इन्द्रियम्) ऐश्वर्य और (वयः) सुन्दर अपने व्यवहार को धारण करते हैं, वैसे ही सब (दधुः) धारण करें, इसको जानो॥२२॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग अच्छे पथ्य और औषध के सेवन से रोगों का नाश करते हैं और पुरुषार्थ से धन तथा आयु का धारण करते हैं, वे बहुत सुख को प्राप्त होते हैं॥२२॥


ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


व॒स॒न्तेन॑ऽऋ॒तुना॑ दे॒वा वस॑वस्त्रि॒वृता॑ स्तु॒ताः।

र॒थ॒न्त॒रेण॒ तेज॑सा ह॒विरिन्द्रे॒ वयो॑ दधुः॥२३॥


 पद पाठ


व॒स॒न्तेन॑। ऋ॒तुना॑। दे॒वाः। वस॑वः। त्रि॒वृतेति॑ त्रि॒ऽवृता॑। स्तु॒ताः। र॒थ॒न्त॒रेणेति॑ रथम्ऽत॒रेण॑। तेज॑सा। ह॒विः। इन्द्रे॑। वयः॑। द॒धुः॒ ॥२३ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जो (वसवः) पृथिवी आदि आठ वसु वा प्रथम कक्षा वाले विद्वान् लोग (देवाः) दिव्य गुणों से युक्त (स्तुताः) स्तुति को प्राप्त हुए (त्रिवृता) तीनों कालों में विद्यमान (वसन्तेन) जिस में सुख से रहते हैं, उस प्राप्त होने योग्य वसन्त (ऋतुना) ऋतु के साथ वर्त्तमान हुए (रथन्तरेण) जहां रथ से तरते हैं, उस (तेजसा) तीक्ष्ण स्वरूप से (इन्द्रे) सूर्य के प्रकाश में (हविः) देने योग्य (वयः) आयु बढ़ाने हारे वस्तु को (दधुः) धारण करें, उनको स्वरूप से जानकर संगति करो॥२३॥


भावार्थ - जो मनुष्य लोग रहने के हेतु दिव्य पृथिवी आदि लोकों वा विद्वानों की वसन्त में सङ्गति करें, वे वसन्तसम्बन्धी सुख को प्राप्त होवें॥२३।


ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः




ग्री॒ष्मेण॑ऽऋ॒तुना॑ दे॒वा रु॒द्राः प॒ञ्च॒द॒शे स्तु॒ताः।

बृ॒ह॒ता यश॑सा॒ बल॑ꣳह॒विरिन्द्रे॒ वयो॑ दधुः॥२४॥


 पद पाठ


ग्री॒ष्मेण॑। ऋ॒तुना॑। दे॒वाः। रुद्राः। प॒ञ्च॒द॒श इति॑ पञ्चऽद॒शे। स्तु॒ताः। बृ॒ह॒ता। यश॑सा। बल॑म्। ह॒विः। इन्द्रे॑। वयः॑। द॒धुः॒ ॥२४ ॥


विषय - मध्यम ब्रह्मचर्य विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जो (स्तुताः) प्रशंसा किये हुए (रुद्राः) दश प्राण ग्यारहवां जीवात्मा वा मध्यम कक्षा के (देवाः) दिव्यगुणयुक्त विद्वान् (पञ्चदशे) पन्द्रहवें व्यवहार में (ग्रीष्मेण) सब रसों के खेंचने और (ऋतुना) उष्णपन प्राप्त करनेहारे ग्रीष्म ऋतु वा (बृहता) बड़े (यशसा) यश से (इन्द्रे) जीवात्मा में (हविः) ग्रहण करने योग्य (बलम्) बल और (वयः) जीवन को (दधुः) धारण करें, उन को तुम लोग जानो॥२४॥

भावार्थ - जो ४४ चवालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य से विद्वान् हुए अन्य मनुष्यों के शरीर और आत्मा के बल को बढ़ाते हैं, वे भाग्यवान् होते हैं॥२४॥


ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

व॒र्षाभि॑र्ऋ॒तुना॑दि॒त्या स्तोमे॑ सप्तद॒शे स्तु॒ताः।
वै॒रू॒पेण॑ वि॒शौज॑सा ह॒विरिन्द्रे॒ वयो॑ दधुः॥२५॥

 पद पाठ

व॒र्षाभिः॑। ऋ॒तुना॑। आ॒दि॒त्याः। स्तोमे॑। स॒प्त॒द॒श इति॑ सप्तऽद॒शे। स्तु॒ताः। वै॒रू॒पेण॑। वि॒शा। ओज॑सा। ह॒विः। इन्द्रे॑। वयः॑। द॒धुः॒ ॥२५ ॥


विषय - अब उत्तम ब्रह्मचर्य विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

पदार्थ -
हे मनुष्यो! जो (वर्षाभिः) जिसमें मेघ वृष्टि करते हैं, उस वर्षा (ऋतुना) प्राप्त होने योग्य ऋतु (वैरूपेण) अनेक रूपों के होने से (ओजसा) जो बल और उस (विशा) प्रजा के साथ रहने वाले (आदित्याः) बारह महीने वा उत्तम कल्प के विद्वान् (सप्तदशे) सत्रहवें (स्तोमे) स्तुति के व्यवहार में (स्तुताः) प्रशंसा किये हुए (इन्द्रे) जीवात्मा में (हविः) देने योग्य (वयः) काल के ज्ञान को (दधुः) धारण करते हैं, उन को तुम लोग जानकार उपकार करो॥२५॥

भावार्थ - जो मनुष्य लोग विद्वानों के संग से काल की स्थूल-सूक्ष्म गति को जान के एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गमाते हैं, वे नानाविध ऐश्वर्य को प्राप्त होते हैं॥२५॥


ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - विराड् बृहती स्वरः - मध्यमः


शा॒र॒देन॑ऽऋ॒तुना॑ दे॒वाऽए॑कवि॒ꣳशऽऋ॒भव॑ स्तु॒ताः।
वै॒रा॒जेन॑ श्रि॒या श्रिय॑ꣳ ह॒विरिन्द्रे॒ वयो॑ दधुः॥२६॥


 पद पाठ


शा॒र॒देन॑। ऋ॒तुना॑। दे॒वाः। ए॒क॒वि॒ꣳश इत्ये॑कऽवि॒ꣳशे। ऋ॒भवः॑। स्तु॒ताः। वै॒रा॒जेन॑। श्रि॒या। श्रिय॑म्। ह॒विः। इन्द्रे॑। वयः॑। द॒धुः॒ ॥२६ ॥

पदार्थ -
हे मनुष्यो! जो (एकविंशे) इक्कीसवें व्यवहार में (स्तुताः) स्तुति किये हुए (ऋभवः) बुद्धिमान् (देवाः) दिव्यगुणयुक्त (शारदेन) शरद् (ऋतुना) ऋतु वा (वैराजेन) विराट् छन्द में प्रकाशमान अर्थ के साथ (श्रिया) शोभा और लक्ष्मी के साथ वर्त्ताव वर्त्तने हारे जन (इन्द्रे) जीवात्मा में (श्रियम्) लक्ष्मी और (हविः) देने-लेने योग्य (वयः) वाञ्छित सुख को (दधुः) धारण करें, उन का तुम लोग सेवन करो॥२६॥

भावार्थ - जो लोग अच्छे पथ्य करने हारे शरद् ऋतु में रोगरहित होते हैं, वे लक्ष्मी को प्राप्त होते हैं॥२६॥

ऋषि: - आत्रेय ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


हे॒म॒न्तेन॑ऽऋ॒तुना॑ दे॒वास्त्रि॑ण॒वे म॒रुत॑ स्तु॒ताः।
बले॑न॒ शक्व॑रीः॒ सहो॑ ह॒विरिन्द्रे॒ वयो॑ दधुः॥२७॥


 पद पाठ


हे॒म॒न्तेन॑। ऋ॒तुना॑। दे॒वाः। त्रि॒ण॒वे। त्रि॒न॒व इति॑ त्रिऽन॒वे। म॒रुतः॑। स्तु॒ताः। बले॑न। शक्व॑रीः। सहः॑। ह॒विः। इन्द्रे॑। वयः॑। द॒धुः॒ ॥२७ ॥

विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

पदार्थ -
हे मनुष्य लोगो! जो (त्रिणावे) सत्ताईसवें व्यवहार में (हेमन्तेन) जिस में जीवों के देह बढ़ते जाते हैं, उस (ऋतुना) प्राप्त होने योग्य हेमन्त ऋतु के साथ वर्त्तते हुए (स्तुताः) प्रशंसा के योग्य (देवाः) दिव्यगुणयुक्त (मरुतः) मनुष्य (बलेन) मेघ से (शक्वरीः) शक्ति के निमित्त गौओं के (सहः) बल तथा (हविः) देने-लेने योग्य (वयः) वाञ्छित सुख को (इन्द्रे) जीवात्मा में (दधुः) धारण करें, उस का तुम सेवन करो॥२७॥

भावार्थ - जो लोग सब रसों को पकाने हारे हेमन्त ऋतु में यथायोग्य व्यवहार करते हैं, वे अत्यन्त बलवान् होते हैं॥२७॥

ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


शै॒शि॒रेण॑ऽऋ॒तुना॑ दे॒वास्त्र॑यस्त्रि॒ꣳशेऽमृता॑ स्तु॒ताः।
स॒त्येन॑ रे॒वतीः॑ क्ष॒त्रꣳ ह॒विरिन्द्रे॒ वयो॑ दधुः॥२८॥


 पद पाठ


शै॒शि॒रेण॑। ऋ॒तुना॑। दे॒वाः। त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳश इति॑ त्रयःऽत्रि॒ꣳशे। अ॒मृताः॑। स्तु॒ताः। स॒त्येन॑। रे॒वतीः॑। क्ष॒त्रम्। ह॒विः। इन्द्रे॑। वयः॑। द॒धुः॒ ॥२८ ॥

विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

पदार्थ -
हे मनुष्यो! जो (अमृताः) अपने स्वरूप से नित्य (स्तुताः) प्रशंसा के योग्य (शैशिरेण, ऋतुना) प्राप्त होने योग्य शिशिर ऋतु से (देवाः) दिव्य गुण-कर्म-स्वभाव वाले (सत्येन) सत्य के साथ (त्रयस्त्रिंशे) तेंतीस वसु आदि के समुदाय में विद्वान् लोग (रेवतीः) धनयुक्त शत्रुओं की सेनाओं को कूद के जाने वाली प्रजाओं और (इन्द्रे) जीव में (हविः) देने-लेने योग्य (क्षत्रम्) धन वा राज्य और (वयः) वाञ्छित सुख को (दधुः) धारण करें, उन से पृथिवी आदि की विद्याओं का ग्रहण करो॥२८॥

भावार्थ - जो लोग पीछे कहे हुए आठ वसु, एकादश रुद्र, द्वादश आदित्य, बिजुली और यज्ञ इन तेंतीस दिव्य पदार्थों को जानते हैं, वे अक्षय सुख को प्राप्त होते हैं॥२८॥

ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अग्न्यश्वीन्द्रसरस्वत्याद्या लिङ्गोक्ता देवताः छन्दः - निचृदष्टिः स्वरः - मध्यमः


होता॑ यक्षत्स॒मिधा॒ऽग्निमि॒डस्प॒देऽश्विनेन्द्र॒ꣳ सर॑स्वतीम॒जो धू॒म्रो न गो॒धूमैः॒ कुव॑लैर्भेष॒जं मधु॒ शष्पै॒र्न तेज॑ऽइन्द्रि॒यं पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रुता॑ घृ॒तं मधु॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑॥२९॥

 पद पाठ


होता॑। य॒क्ष॒त्। स॒मिधेति॑ स॒म्ऽइधा॑। अ॒ग्निम्। इ॒डः। प॒दे। अ॒श्विना॑। इन्द्र॑म्। सर॑स्वतीम्। अ॒जः। धू॒म्रः। न। गो॒धूमैः॑। कुव॑लैः। भे॒ष॒जम्। मधु॑। शष्पैः॑। न। तेजः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। पयः॑। सोमः॑। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। घृ॒तम्। मधु॑। व्यन्तु॑। आज्यस्य॑। होतः॑। यज॑ ॥२९ ॥

विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

पदार्थ -
हे (होतः) यज्ञ करने हारे जन! जैसे (होता) देने वाला (इ[स्पदे) पृथिवी और अन्न के स्थान में (समिधा) इन्धनादि साधनों से (अग्निम्) अग्नि को (अश्विना) सूर्य और चन्द्रमा (इन्द्रम्) ऐश्वर्य वा जीव और (सरस्वतीम्) सुशिक्षायुक्त वाणी को (अजः) प्राप्त होने योग्य (धूम्रः) धुमैले मेढ़े के (न) समान कोई जीव (गोधूमैः) गेहूं और (कुवलैः) जिन से बल नष्ट हो, उन बेरों से (भेषजम्) औषध को (यक्षत्) संगत करे, वैसे (शष्पैः) हिंसाओं के (न) समान साधनों से जो (तेजः) प्रगल्भपन (मधु) मधुर जल (इन्द्रियम्) धन (पयः) दूध वा अन्न (परिस्रुता) सब ओर से प्राप्त हुए रस के साथ (सोमः) औषधियों का समूह (घृतम्) घृत (मधु) और सहत (व्यन्तु) प्राप्त हों, उनके साथ (आज्यस्य) घी का (यज) होम कर॥२९॥

भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो लोग इस संसार में साधन और उपसाधनों से पृथिवी आदि की विद्या को जानते हैं, वे सब उत्तम पदार्थों को प्राप्त होते हैं॥२९॥

ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो लिङ्गोक्ता देवताः छन्दः - भुरिगत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः


होता॑ यक्ष॒त् तनू॒नपा॒त् सर॑स्वती॒मवि॑र्मे॒षो न भे॑ष॒जं प॒था मधु॑मता॒ भर॑न्न॒श्विनेन्द्रा॑य वी॒र्यं बद॑रैरुप॒वाका॑भिर्भेष॒जं तोक्म॑भिः॒ पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रुता॑ घृ॒तं मधु॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑॥३०॥


 पद पाठ


होता॑। य॒क्ष॒त्। तनू॒नपा॒दिति॒ तनू॒ऽनपा॑त्। सर॑स्वतीम्। अविः॑। मे॒षः। न। भे॒ष॒जम्। प॒था। मधु॑म॒तेति॒ मधु॑ऽमता। भर॑न्। अ॒श्विना॑। इन्द्रा॑य। वी॒र्य᳕म्। बद॑रैः। उ॒प॒वाका॑भि॒रित्यु॑प॒ऽवाका॑भिः। भे॒ष॒जम्। तोक्म॑भि॒रिति॒ तोक्म॑ऽभिः। पयः॑। सोमः॑। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। घृ॒तम्। मधु॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥३० ॥

विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

पदार्थ -
हे (होतः) हवनकर्त्ता जन! जैसे (तनूनपात्) देह की ऊनता को पालने अर्थात् उस को किसी प्रकार पूरी करने और (होता) ग्रहण करने वाला जन (सरस्वतीम्) बहुत ज्ञान वाली वाणी को वा (अविः) भेड़ और (मेषः) बकरा के (न) समान (मधुमता) बहुत जलयुक्त (पथा) मार्ग से (भेषजम्) औषध को (भरन्) धारण करता हुआ (इन्द्राय) ऐश्वर्य के लिए (अश्विना) सूर्य-चन्द्रमा और (वीर्यम्) पराक्रम को वा (बदरैः) बेर और (उपवाकाभिः) उपदेशरूप क्रियाओं से (भेषजम्) औषध को (यक्षत्) संगत करे, वैसे जो (तोक्मभिः) सन्तानों के साथ (पयः) जल और (परिस्रुता) सब ओर से प्राप्त हुए रस के साथ (सोमः) औषधियों के समूह (घृतम्) घृत और (मधु) सहत (व्यन्तु) प्राप्त हों, उनके साथ वर्त्तमान तू (आज्यस्य) घी का (यज) हवन कर॥३०॥

भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो संगति करने हारे जन विद्या और उत्तम शिक्षायुक्त वाणी को प्राप्त हो के पथ्याहार-विहारों से पराक्रम बढ़ा और पदार्थों के ज्ञान को प्राप्त होके ऐश्वर्य को बढ़ाते हैं, वे जगत् के भूषक होते हैं॥३०॥

ऋषि: - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - अतिधृतिः स्वरः - षड्जः

होता॑ यक्ष॒न्नरा॒शꣳसं॒ न न॒ग्नहुं॒ पति॒ꣳ सुर॑या भेष॒जं मे॒षः सर॑स्वती भि॒षग्रथो॒ न च॒न्द्र्यश्विनो॑र्व॒पा इन्द्र॑स्य वी॒र्यं बद॑रैरुप॒वाका॑भिर्भेष॒जं तोक्म॑भिः॒ पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रुता॑ घृ॒तं मधु॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑॥३१॥

 पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। न॒रा॒शꣳस॑म्। न। न॒ग्नहु॑म्। पतिम्। सुर॑या। भे॒ष॒जम्। मेषः॒। सर॑स्वती। भि॒षक्। रथः॑। न। च॒न्द्री। अश्विनोः॑। व॒पाः। इन्द्र॑स्य। वी॒र्य᳕म्। बद॑रैः। उ॒प॒वाका॑भि॒रित्यु॑प॒ऽवाका॑भिः। भे॒ष॒जम्। तोक्म॑भि॒रिति॒ तोक्म॑ऽभिः। पयः॑। सोमः॑। प॒रिस्रु॒तेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। घृ॒तम्। मधु॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥३१ ॥

विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

पदार्थ -
हे (होतः) हवनकर्त्ता जन! जैसे (होता) देने वाला (नराशंसम्) जो मनुष्यों से स्तुति किया जाये उसके (न) समान (नग्नहुम्) नग्न दुष्ट पुरुषों को कारागृह में डालने वाले (पतिम्) स्वामी वा (सुरया) जल के साथ (भेषजम्) औषध को वा (इन्द्रस्य) दुष्टगण का विदारण करने हारे जन के (वीर्यम्) शूरवीरों में उत्तम बल को (यक्षत्) संगत करे तथा (मेषः) उपदेश करने वाला (सरस्वती) विद्यासंबन्धिनी वाणी (भिषक्) वैद्य और (रथः) रथ के (न) समान (चन्द्री) बहुत सुवर्ण वाला जन (अश्विनोः) आकाश और पृथिवी के मध्य (वपाः) क्रियाओं को वा (बदरैः) बेरों के समान (उपवाकाभिः) समीप प्राप्त हुई वाणियों के साथ (भेषजम्) औषध को संगत करे, वैसे जो (तोक्मभिः) सन्तानों के साथ (पयः) दूध (परिस्रुता) सब ओर से प्राप्त हुए रस के साथ (सोमः) ओषधिगण (घृतम्) घी और (मधु) सहत (व्यन्तु) प्राप्त होवें, उनके साथ वर्त्तमान तू (आज्यस्य) घी का (यज) हवन कर॥३१॥

भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो लोग लज्जाहीन पुरुषों को दण्ड देते, स्तुति करने योग्यों की स्तुति और जल के साथ औषध का सेवन करते हैं, वे बल और नीरोगता को पाके ऐश्वर्य वाले होते हैं॥३१॥

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