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महाभारत आदिपर्व चतुस्त्रिंशोऽध्यायः इन्द्र और गरुडकी मित्रता, गरुडका अमृत लेकर नागोंके पास आना और विनताको दासीभावसे छुड़ाना तथा इन्द्रद्वारा अमृतका अपहरण

 चतुस्त्रिंशोऽध्यायः 


इन्द्र और गरुडकी मित्रता, गरुडका अमृत लेकर नागोंके पास आना और विनताको दासीभावसे छुड़ाना तथा इन्द्रद्वारा अमृतका अपहरण

गरुड उवाच 

सख्यं मेऽस्तु त्वया देव यथेच्छसि पुरन्दर । 

बलं तु मम जानीहि महच्चासह्यमेव च ॥१॥


गरुडने कहा-देव पुरन्दर! जैसी तुम्हारी इच्छा है, उसके अनुसार तुम्हारे साथ (मेरी) मित्रता स्थापित हो। मेरा बल भी जान लो, वह महान् और असह्य है ।।१॥

काम नैतत् प्रशंसन्ति सन्तः स्वबलसंस्तवम्। 

गुणसंकीर्तनं चापि स्वयमेव शतक्रतो ॥२॥


शतक्रतो! साधु पुरुष स्वेच्छासे अपने बलकी स्तुति और अपने ही मुखसे अपने गुणोंका बखान अच्छा नहीं मानते ॥२॥


सखेति कृत्वा तु सखे पृष्टो वक्ष्याम्यहं त्वया। 

नह्यात्मस्तवसंयुक्तं वक्तव्यमनिमित्ततः ॥३॥ 


किंतु सखे! तुमने मित्र मानकर पूछा है, इसलिये मैं बता रहा हूँ, क्योंकि अकारण ही अपनी प्रशंसासे भरी हुई बात नहीं कहनी चाहिये (किंतु किसी मित्रके पूछनेपर सच्ची बात कहने में कोई हर्ज नहीं है।) ॥३॥


सपर्वतवनामुर्वी ससागरजलामिमाम् । 

वहे पक्षेण वै शक्र त्वामप्यत्रावलम्बिनम् ।। ४ ।। 


इन्द्र! पर्वत, वन और समुद्रके जलसहित सारी पृथ्वीको तथा इसके ऊपर रहनेवाले आपको भी अपने एक पंखपर उठाकर में बिना परिश्रमके उड़ सकता हूँ।। ४ ।।


सर्वान् सम्पिण्डितान वापि लोकान् सस्थाणुजङ्गमान्। 

वहेयमपरिश्रान्तो विद्धीदं मे महद् बलम्॥५॥


अथवा सम्पूर्ण चराचर लोकोंको एकत्र करके यदि मेरे ऊपर रख दिया जाय तो मैं | सबको बिना परिश्रमके ढो सकता हूँ। इससे तुम मेरे महान् बलको समझ लो ।। ५॥


सोतिरुवाच 

इत्युक्तवचनं वीरं किरीटी श्रीमतां वरः । 

आह शौनक देवेन्द्रः सर्वलोकहितः प्रभुः ॥६॥ 

एवमेव यथात्थ त्वं सर्व सम्भाव्यते त्वयि ।

संगृह्यतामिदानी मे सख्यमत्यन्तमुत्तमम् ।। ७॥


उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनक! वीरवर गरुडके इस प्रकार कहनेपर श्रीमानोंमें श्रेष्ठ किरीटधारी सर्वलोक-हितकारी भगवान् देवेन्द्रने कहा-'मित्र! तुम जैसा कहते हो, वैसी ही बात है। तुममें सब कुछ सम्भव है। इस समय मेरी अत्यन्त उत्तम मित्रता स्वीकार करो ।। ६-० ।।


न कार्य यदि सोमेन मम सोमः प्रदीयताम् । 

अस्मांस्ते हि प्रबाघेयुर्येभ्यो दद्या भवानिमम् ॥८॥


'यदि तुम्हें स्वयं अमृतकी आवश्यकता नहीं है तो वह मुझे वापस दे दो। तुम जिनको यह अमृत देना चाहते हो, वे इसे पीकर हमें कष्ट पहुँचावेंगे' ।।८।।

गरुड उवाच 

किंचित् कारणमुद्दिश्य सोमोऽयं नीयते मया । 

नदास्यामि समादातुं सोमं कस्मेचिदप्यहम् ॥९॥ 

यत्रेमं तु सहस्राक्ष निक्षिपेयमहं स्वयम् । 

त्वमादाय ततस्तूर्ण हरेथास्त्रिदिवेश्वर ।। १०॥


गरुडने कहा-स्वर्गक सम्राट् सहस्राक्ष! किसी कारणवश मैं यह अमत ले जाता हूँ। इसे किसीको भी पीनेके लिये नहीं दूंगा। मैं स्वयं जहाँ इसे रख दै. वहाँसे तुरंत तुम उठा ले जा सकते हो ॥ ९-१०॥


शक्र उवाच 

वाक्येनानेन तुष्टोऽहं यत् त्वयोक्तमिहाण्डज । 

यमिच्छसि वरं मत्तस्तं गृहाण खगोत्तम ।।११।।


इन्द्र बोले-पक्षिराज! तुमने यहाँ जो बात कही है, उससे मैं बहुत संतुष्ट हूँ। खगश्रेष्ठ!  तुम मुझसे जो चाहो, वर माँग लो ।। ११ ।।


सौतिरुवाच 

इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं कटूपुत्राननुस्मरन् । 

स्मृत्वा चैवोपधिकृतं मातुर्दास्यनिमित्ततः ।। १२ ।। 

ईशोऽहमपि सर्वस्य करिष्यामि तु तेऽर्थिताम् । 

भवेयुर्भुजगाः शक्र मम भक्ष्या महाबलाः ।। १३ ।।


उग्रश्रवाजी कहते हैं-इन्द्रके ऐसा कहनेपर गरुडको कद्रूपुत्रोंकी दुष्टताका स्मरण हो आया। साथ ही उनके उस कपटपूर्ण बर्तावकी भी याद आ गयी, जो माताको दासी बनानेमें कारण था। अतः उन्होंने इन्द्रसे कहा-'इन्द्र! यद्यपि मैं सब कुछ करनेमें समर्थ हूँ, तो भी तुम्हारी इस याचनाको पूर्ण करूंगा कि अमृत दूसरोंको न दिया जाय। साथ ही तुम्हारे कथनानुसार यह वर भी माँगता हूँ कि महाबली सर्प मेरे भोजनकी सामग्री हो जायें' ।। १२-१३ ॥


तथेत्युक्त्वान्वगच्छत् तं ततो दानवसूदनः । 
देवदेवं महात्मानं योगिनामीश्वरं हरिम् ।। १४ ।।

तब दानवशत्रु इन्द्र 'तथास्तु' कहकर योगीश्वर देवाधिदेव परमात्मा श्रीहरिके पास गये ।। १४ ॥

स चान्वमोदत् तं चार्थ यथोक्तं गरुडेन वै। 
इदं भूयो वचः प्राह भगवांस्त्रिदशेश्वरः ॥ १५ ॥ 
हरिष्यामि विनिक्षिप्तं सोममित्यनुभाष्य तम्। 
आजगाम ततस्तूर्ण सुपर्णो मातुरन्तिकम् ।। १६ ॥

श्रीहरिने भी गरुडकी कही हुई बातका अनुमोदन किया। तदनन्तर स्वर्गलोकके स्वामी भगवान् इन्द्र पुनः गरुडको सम्बोधित करके इस प्रकार बोले-'तुम जिस समय इस अमृतको कहीं रख दोगे उसी समय मैं इसे हर ले आऊँगा' (ऐसा कहकर इन्द्र चले गये)। फिर सुन्दर पंखवाले गरुड तुरंत ही अपनी माताके समीप आ पहुँचे ।। १५-१६ ॥

अथ सर्पानुवाचेदं सर्वान् परमहष्टवत् ।। 
इदमानीतममृतं निक्षेप्स्यामि कुशेषु वः ।। १० ।। 
स्नाता मंगलसंयुक्तास्ततः प्राश्नीत पन्नगाः । 
भवद्भिरिदमासीनर्यदुक्तं तद्वचस्तदा ॥ १८ ॥ 
अदासी चैव मातेयमद्यप्रभूति चास्तु में। 
यथोक्तं भवतामेतद् वचो मे प्रतिपादितम् ॥ १९ ॥

तदनन्तर अत्यन्त प्रसन्न-से होकर वे समस्त साँसे इस प्रकार बोले-'पन्नगो! मैंने तुम्हारे लिये यह अमृत ला दिया है। इसे कुशोंपर रख देता हूँ। तुम सब लोग स्नान और मंगल-कर्म (स्वस्ति-वाचन आदि) करके इस अमृतका पान करो। अमृतके लिये भेजते समय तुमने यहाँ बैठकर मुझसे जो बातें कही थीं, उनके अनुसार आजसे मेरी ये माता दासीपनसे मुक्त हो जायें; क्योंकि तुमने मेरे लिये जो काम बताया था, उसे मैंने पूर्ण कर दिया है ।। १७-१९॥

ततः स्नातुं गताः सर्पाः प्रत्युक्त्वा तं तथेत्युत । 
शक्रोऽप्यमृतमाक्षिप्य जगाम त्रिदिवं पुनः ।।२०।।

तब सर्पगण 'तथास्तु' कहकर स्नानके लिये गये। इसी बीचमें इन्द्र वह अमृत लेकर पुनः स्वर्गलोकको चले गये ।।२०।।

अधागतास्तमुद्देशं सर्पाः सोमार्थिनस्तदा। 
स्नाताश्च कृतजप्याश्च प्रहृष्टाः कृतमंगलाः ।। २१ ।। 
यत्रेतदमृतं चापि स्थापितं कुशसंस्तरे।
तद् विज्ञाय हुतं सर्पाः प्रतिमायाकृतं च तत् ।। २२ ॥


इसके अनन्तर अमृत पीनेकी इच्छावाले सर्प स्नान, जप और मंगल-कार्य करके प्रसन्नतापूर्वक उस स्थानपर आये, जहाँ कुशके आसनपर अमृत रखा गया था। आनेपर उन्हें मालूम हुआ कि कोई उसे हर ले गया। तब सोने यह सोचकर संतोष किया कि यह हमारे कपटपूर्ण बर्तावका बदला है ।। २१-२२ ।।।


सोमस्थानमिदं चेति दर्भास्ते लिलिहस्तदा। 

ततो द्विधाकृता जिह्वाः सर्पाणां तेन कर्मणा ।। २३ ।। 


फिर यह समझकर कि यहाँ अमृत रखा गया था, इसलिये सम्भव है इसमें उसका कुछ अंश लगा हो, सोने उस समय कुशोंको चाटना शुरू किया। ऐसा करनेसे सोकी जीभके दो भाग हो गये ।। २३ ॥


अभवंश्चामृतस्पर्शादर्भास्तेऽथ पवित्रिणः । 

एवं तदमृतं तेन हृतमाहृतमेव च । 

द्विजिहाश्च कृताः सर्पा गरुडेन महात्मना ।। २४ ।।


तभीसे पवित्र अमृतका स्पर्श होनेके कारण कुशोंकी 'पवित्री' संज्ञा हो गयी। इस प्रकार महात्मा गरुडने देवलोकसे अमृतका अपहरण किया और सर्पोके समीपतक उसे पहुँचाया; साथ ही सोको द्विजिह्न (दो जिह्वाओंसे युक्त) बना दिया ।। २४ ।। 


ततः सुपर्णः परमप्रहर्षवान् विहृत्य मात्रा सह तत्र कानने। 

भुजङ्गभक्षः परमार्चितः खगे रहीनकीर्तिर्विनतामनन्दयत् ।। २५ ।। 


उस दिनसे सुन्दर पंखवाले गरुड अत्यन्त प्रसन्न हो अपनी माताके साथ रहकर वहाँ वनमें इच्छानुसार घूमने-फिरने लगे। वे सर्पोको खाते और पक्षियोंसे सादर सम्मानित होकर अपनी उज्ज्वल कीर्ति चारों ओर फैलाते हुए माता विनताको आनन्द देने लगे ॥ २५ ।।

 

इमां कथां यः शृणुयान्नरः सदापठेत वा द्विजगणमुख्यसंसदि। 

असंशयं त्रिदिवमियात् स पुण्यभाक्महात्मनः पतगपतेः प्रकीर्तनात् ।। २६ ।।

 जो मनुष्य इस कथाको श्रेष्ठ द्विजोंकी उत्तम गोष्ठीमें सदा पढ़ता अथवा सुनता है, वह पक्षिराज महात्मा गरुडके गुणोंका गान करनेसे पुण्यका भागी होकर निश्चय ही स्वर्गलोकमें जाता है।॥२६॥ 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सोपणे चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ।। ३४ ।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक चौतीसा अध्याय पूरा हुआ।। ३४ ।।


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