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ज्ञान वान ऊर्जा है विश्वब्रह्मांड

योगी के लिए विश्वब्रह्मांड में कोई वस्तु निर्जीव नहीं होती है।  

 ते꣡ विश्वा꣢꣯ दा꣣शु꣢षे꣣ व꣢सु꣣ सो꣡मा꣢ दि꣣व्या꣢नि꣣ पा꣡र्थि꣢वा । प꣡व꣢न्ता꣣मा꣡न्तरि꣢꣯क्ष्या ॥सामवेद।। १०३६॥


    योग को उपलब्ध योगी ही इस विश्व का सच्चा स्वामी होता है, उसके लिए जगत के सभी प्राणी के साथ सभी भौतिक पदार्थ उसके दाश के तुल्य होता हैं, वह सब को वसाने वाले वशु के समान होता है, जैसे पृथ्वी सभी प्राणीयों को अपने उपर धारण करती है, उसी प्रकार से संसार के सभी जीव जंतु के साथ समग्र भौतिक संपदा समृद्धि के समस्त साधन को धारण करने की शक्ति का स्वामी अपने ब्रह्मचर्य के तप से इतना अधिक शक्तिशाली होता जाता है, जिससे उसके पास दिव्य शक्तियां आजाती है, जिसके द्वारा वह प्रकृति की सीमा का अतिक्रमण कर जाता है, अर्थात वह वायु के साथ एकाकार हो कर आकाश में भ्रमण कर सकता है, वह पृथ्वी के साथ एकाकार करके वह पृथ्वी में प्रवेश कर सकता है, जिस प्रकार से जल पृथ्वी में समा जाता है, या फिर जिस प्रकार से सूर्य की किरणों की गर्मी प्रत्येक शितल वस्तु में समाहित हो जाती है, उसी प्रकार से योगी सूर्य के साथ एकाकार करके वह प्रत्येक वस्तु में समाहित हो सकता है. वह अपनी भौतिक शरीर को इतना अधिक सूक्ष्म कर सकता है जिससे वह रूइ के समान हल्का हो सकता है, वह जल के उपर किसी पत्ते के समान तैर सकता है, वह और वह अंतरिक्ष में उड़ सकता है किसी वायुयान की तरह से क्योंकि वह प्रकृति की शक्तियों पर जब अधिकार कर लेता है तो उसकी भौतीक शरीर उसके लिए बाधक के स्थान पर उसके सहायक के समान कार्य करती है और वह अपने मन की इच्छा के अनुरूप शरीर को त्याग भी सकता है, अर्थात शरीर से बाहर भी निकल सकता है और बिना शरीक के वह कही भिना बिना किसी व्यधान के आ जा सकता है। वह विश्व ब्रह्मांड में उसी प्रकार से विचरण कर सकता है जिस प्रकार से ग्रह नक्षत्र आदि वसु इस अंतरिक्ष में रमण करते हैं उसी प्रकार वह भी रमण कर सकता है।  

     यह किसी साधारण मनुष्य के लिए कभी संभव नहीं है, जैसा कि हम सब जानते हैं, लेकिन एक सच्चा योगी के लिए कुछ भी असंभव यहां जगत में  नहींं होता है, क्योंकि वह स्वयं को शरीर का सीमा के उपर उठा लेता है, शरीर की सीमा से किसी भी आदमी को ऊफर उठने के लिए उसे शरीर को अपने नियंत्रण में योग के माध्यम से करना होता है जरूरी नहीं है कि यह सब कार्य एक ही जन्म में सिद्ध हो जाएंगे इसमें कई जन्म लग सकते हैं, क्योंकि भारतिय मनिषियों की मान्यता है, कि वह एक शरीर से जब उनका पूर्ण कार्य नहीं होता है तो वह दूसरी और शरीर को धारण कर लेते हैं। आज के समय में जो हम सभी को असंभव लगता है, वह ऋषियों के समय में असंभव नहीं था, आज योग के नाम पर केवल आसन और प्राणायाम इत्यादि कृयाएं भौतिक शरीर के सुख के लिए करते हैं, यद्यपि योग का संबंध अपनी आत्मा को अपने  को बनाने वाला जो इस विश्व ब्रह्मांड का नियम है, उससे एक होजाना है, जिस प्रकार से आइस्टिन कहता है कि सभी ठोस वस्तु को ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है, यहां ऊर्जा का सूक्ष्म रूप विद्युत है, और यह विद्युत जिस प्रकार से परमाणु बनाती है, उसी प्रकार से योगी भी अपनी ठोस दिखने वाली शरीर को परमाणु के समान सूक्ष्म और ऊर्जा मय बना लेता है, वह दिखने में भौतिक होता है, यद्यपि उसका नियंत्रण पूरा उसके हाथ में होता है। वह इस विद्युतिय ज्ञान का स्वामी होता है, इसलिए महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती कहते हैं की वेद विद्युतिय ज्ञान हैं, अर्थात वेद का ज्ञान ऊर्जा का ज्ञान हैं, विद्युत का ज्ञान हैं इसका मतलब यह नहीं है कि ऊर्जा की जानकारी है, यद्यपि इसका मतलब है, कि यह ऊर्जा जान वाली है, अर्थात यह ऊर्जा जिसका ऊपयोग योगी करता है, वह उसकी स्वयं की जान होती है, उसकी स्वयं की आत्मा होती है, अभी यहां पृथ्वी पर आत्मा की शक्ति आभास बहुती ही कम मनुष्य को है, जबकि वेद मंत्र उस मूल यथार्थ ज्ञान की बात करते हैं, जिसकी बात वैज्ञानिक कहते हैं, जिस प्रकार से आज हम एक ऐसे यंत्र से परीचित हैं, जो विद्युत से चलता है, लेकिन वह किसी पात्र को गर्म नहीं करता है, यद्यपि वह किसी भी पात्र को गर्म करके उसमें पकने के पदार्थ को पुरी तरह से पका देता है, जिसको भोजन पकाने के लिए उपयोग करते हैं, (इन्डेक्सन) इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि योगी शरीर को कुछ इस प्रकार से गर्म करता है, या इतनी शक्ति देता है, जिससे इसकी सूक्ष्म शक्तियां जागृत हो जाती हैं, और यह ऐसे कार्यों को करने में समर्थ हो जाती है, जिसको साधारण मनुष्य असंभव समझता है। उदाहरण के लिए आज मोबाइल जिस प्रकार से तरंगों के द्वारा कही भी पृथ्वी पर संपर्क स्थापित कर लेता है, उसी प्रकार से योगी अपनी शरीर से निकलने वाली तंरग को नियंत्रित करके अदृश्य होजाता है, वह रहता है लेकिन किसी भौतिक आंखों से दिखाई नहीं देता है। 

    यहां मंत्र का सरल अर्थ कुछ इस प्रकार से कर सकते हैं, जिससे संपूर्ण विश्व ब्रह्मांड निर्मित हो रहा है, वह ऊर्जा ज्ञानवान है, अर्थात वह जीवित है, इसलिए ही वह संपूर्ण विश्वब्रह्मांड की भौतिक पादार्थों को अपने नियंत्रण में समर्थ है, क्योंकि सभी वस्तु उसके शंष्लेषण से ही बन रही है, जिस प्रकार से सभी भौतिक वस्तु परमाणु से बनी है, परमाणुओं को भी तोड़ दिया जाए तो उससे भी जो सूक्ष्म तत्व निर्मित होगा वह विद्य़ुत ही होहा क्योंकि विद्युत स्वयं कभी उत्पन्न या नष्ट नहीं होती है, जहां पर विद्युत की मात्रा बहुत अधिक मात्रा में सघनत्व होता है वह परमाणु बन जाता है, जिस प्रकार से पानी की एक बुंद को बनाने के लाखों आक्सिजन और हाइड्रेजन के परमाणु को एक साथ होना पड़ता है तब पानी की एक बुंद बनती है, और पानी की लाखों करोणों बुंद बर्फ का एक टुकड़ा बनाती हैं, उसी प्रकार से इस आक्सिजन और हाइड्रोजन के परमाणु बनते हैं, इस परमाणु का मूल विद्युत है, सभी प्रकार के परमाणु का मूल विद्युत ही है, और यह विद्युत ऊर्जा या एक प्रकार की शक्ति है, लेकिन अभी वैज्ञानिक ने ऐसा कोई यंत्र निर्मित नहीं किया है, जिससे यह सिद्ध हो की इस परमाणु की शक्ति या ऊर्जा में जान है, इसके विपरित जो ऊर्जा मानव के अंदर विद्यमान है उसमें ज्ञान है, अर्थात वह वस्तुओं को अपने अधिकार में करने में समर्थ है, इसलिए वेद का मंत्र जब किसी योगी के शक्ति की व्याख्या करता है तो वह उसे साधारण मनुष्य नहीं कहती है, यद्यपि उसको वह दिव्यानि पार्थिवा कहता है, इससे यह सिद्ध होता है, कि वह पार्थिव नहीं है, जैसा की हम सब अकसर सुनते हैं कि कोई फला आदमी में मर गया है जो एक बहुत बड़ा नेता या अभिनेता था और उनकी पार्थिव शरीर को जनता के दर्शन के लिए रखा गया है। यहां पार्थिव का मतलब है, जो ज्ञान से रहित है, अर्थात जो निर्जीव है, इस जगत में निर्जीव कौन सी वस्तु है, यह निश्चित करना असंभव है, जैसा कि जिसको आज के वैज्ञानिक निर्जीव कहते हैं वह पुरी तरह से सत्य नहीं है, क्योंकि निर्जीव वस्तु यदि हैं तो उसमें क्षरण नहीं होना चाहिए, लेकिन हमारे देखने में ऐसी कोई भी वस्तु इस भौतिक जगत में नहीं दिखाई देती है जिसका क्षरण नहीं होता है, अर्थात यहां सभी वस्तु का क्षरण होता है, इसलिए वह जीवित है, लेकिन जीवित वस्तु भी दो प्रकार की है, एक तो चेतन प्राणी है, चल हैं जो गति करते हैं अपनी शरीर के साथ और एक दूसरे प्रकार के जीव हैं जो गति नहीं करते हैं, वह अपने स्थान पर स्थित हैं, जिसे वैज्ञानिक निर्जीव कहते हैं, मंत्र कहता है, दिव्यानि अर्थात दिव्य शक्ति से जो सुसज्जित है, जिसमें दिव्य अद्वितिय सामर्थ है, जिसकी हम किसी दूसरी वस्तु से तुलना नहीं कर सकते हैं, जो पवन्ताम पवन वायु के समान है, जैसा की हम सब जानते हैं कि वायु आकाश में फैलने वाला एक पदार्थ है, जिसमें आक्सिजन विद्यमान है, इसलिए इसको अंतरिक्ष्या खाली स्थान में रहने वाला है, इसका मतलब यह हुआ की यह आत्मा सब जगह है, ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहां नहीं हो और यह निरंतर विकसित हो रही है। इस तरह से हम इस मंत्र का यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि मानव चेतना एक वीज के समान है, जिसमें से एक वृक्ष रूपी हैं जिसमें से मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, सूक्ष्म शरीर निकलती है, इस शूक्ष्म शरीर से स्थुल शरीर का निर्वाण होता है, जिसे हम देख सकते हैं, अर्थात जिसका हम सब साधारण जन अनुभव करते, लेकिन जो योगी की किस्म के जन होते है, वह अपनी सूक्ष्म शरीर को अनुभव करते हैं और उसका उपयोग करते हैं, जिस प्रकार से आज की कुछ आधुनिक गाड़ियों होती हैं, जो अपने बाहरी आवरण को बाहरी वातावरण के अनुरूप बदल लेती है, जैसे गीरगिट अपने रंग बदल लेता है, जैसे एक प्रोग्राम किसी मशीन को अंदर से बदल देता है, और उस मशीन का बाहरी व्यवहार बदल जाता है,  वैसे ही एक योगी होता है जो अपनी सूक्ष्म शरीर को नियंत्रित करता है और उसका परीणाम उसके भौतीक शरीर पर दिखाई देता है। इस प्रकार से वह जो जड़ हमें वस्तु दिखाई देती है उसके वह वस्तु जड़ नहीं दिखाई देती है वह सभी वस्तु को चेतन समझता है और उनके साथ चेतन व्यवहार करता है जिससे वह जड़ वस्तु भी उसके साथ किसी चेतन वस्तु के समान व्यहार करता है, इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि कोई भी वस्तु इस जगत में निर्जीव नहीं हैं सब सजीव है, जिस प्रकार से एक प्राणी दूसरा प्राणी प्रेम करता हैं, उसी प्रकार एक योगी अपनी भौतिक शरीर को या संसार की प्रत्येक वस्तु को अपने में लिन कर लेता है या वह स्वयं सभी वस्तु में समाहित या लिन हो जाता है।          

पदार्थान्वयभाषाः -

(ते सोमाः) उपासक के अन्तरात्मा में बहते हुए वे ब्रह्मानन्द-रस (दाशुषे) परमात्मा को आत्मसमर्पण करनेवाले उस उपासक के लिए (दिव्यानि) आनन्दमय और विज्ञानमय लोकों से सम्बद्ध, (पार्थिवा) अन्नमय और प्राणमय लोकों से सम्बद्ध तथा (आन्तरिक्ष्या) मनोमय लोक से सम्बद्ध (विश्वा वसु) सब ऐश्वर्यों को (पवन्ताम्) प्रवाहित करें ॥३॥


भावार्थभाषाः -

ब्रह्मानन्द अधिगत हो जाने पर देह, प्राण, मन, बुद्धि एवं आत्मा से सम्बद्ध सभी सम्पदाएँ वा सिद्धियाँ योगियों को प्राप्त हो जाती हैं ॥३॥

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