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ज्ञानवान ऊर्जा ही ब्रह्मांडिय मानव या ईश्वर है।

ज्ञानवान ऊर्जा ही ब्रह्मांडीय मानव या ईश्वर है।

प꣡व꣢स्व देव꣣वी꣡रति꣢꣯ प꣣वि꣡त्र꣢ꣳ सोम꣣ र꣡ꣳह्या꣢ । 

इ꣡न्द्र꣢मिन्दो꣣ वृ꣡षा वि꣢꣯श ॥साम वेद।। १०३७॥


    जैसा कि हम सब जानते हैं, कि ऊर्जा का नियम एक समान सब जगह लागु होता है उसी प्रकार से इस ज्ञानवान ऊर्जा, का नियम जड़ चेतन पर समान रूप से लागु होता है, जो अनादि काल से जो देवताओं में पवित्र और शुद्ध रूप से विद्यमान शक्ति ज्ञानवान ऊर्जा है, वहीं शक्ति आत्मा में भी अनादि काल से विद्यमान है, जिस प्रकार से वारीस के समय में बाढ़ आ जाती है, और चारों तरफ पानी ही पानी दिखाई देता है, उसी प्रकार से जब किसी को आत्मज्ञान उपलब्ध होता है, तो दूसरी आत्माओं में आत्माज्ञान की बाढ़ आ जाती है, अर्थात आत्म ज्ञान ब्रह्मज्ञान का बिस्तार होता है।

    इस साम वेद के मंत्र में अद्भुत उपमा के माध्यम के द्वारा यह समझाने का प्रयास किया जा रहा है, कि ज्ञानवान ऊर्जा अनादि काल से विद्यमान है, और यह दिव्य रूप से देवताओं में प्रत्यक्ष दिखाई देती है, यह देवता कौन है? इसको समझना होगा, वैदिक शास्त्रों के अनुसार तैतीस देवता मुख्य है, ग्यारह आदित्य बारह आदित्य, आठ वसु और दो अश्विनी कुमार हैं, इस प्रकार से यहीं कुल देवता है,  12 आदित्य देव कौन हैं?

    निरुक्त में यास्काचार्य के अनुसार देव शब्द दा, द्युत और दिवु इस धातु से बनता हैं। इसके अनुसार ज्ञान,प्रकाश, शांति, आनंद तथा सुख देने वाली सब वस्तुओं को देव कहा जा सकता हैं। यजुर्वेद  में अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र वसु, रूद्र, आदित्य, इंद्र इत्यादि को देव के नाम से पुकारा गया हैं। परन्तु वेदों में सर्वश्रेष्ठ उपासना केवल एक सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, भगवान की ही बताई है। उपासना से अभिप्राय है किसी पदार्थ को अपना विषय बना कर उसके गुणों को धारण करना। ईश्वर के प्रमुख  गुण सत्,चित्,आनंद एवं प्रकाश(ज्ञानरूप) को धारण करना व जीवन में ईश्वर के बताये वेद मार्ग का अनुसरण करना ही ईश्वर की उपासना है। देव उपासना का अर्थ है कि किसी पदार्थ के गुण धर्म जान कर उसका उपयोग सर्वहित में करना इसी प्रकार विद्वान व्यक्तियों का उचित सम्मान कर उनका सानिध्य प्राप्त करना उन विद्वान देवों की उपासना है। देव शब्द का प्रयोग सत्यविद्या का प्रकाश करनेवाले सत्यनिष्ठ विद्वानों के लिए भी होता हैं क्यूंकि वे ज्ञान का दान करते हैं और वस्तुओं के यथार्थ स्वरुप को प्रकाशित करते हैं । 

    देव का प्रयोग जीतने की इच्छा रखनेवाले व्यक्तियों विशेषत: वीर, क्षत्रियों, परमेश्वर की स्तुति करनेवाले तथा पदार्थों का यथार्थ रूप से वर्णन करनेवाले विद्वानों, ज्ञान देकर मनुष्यों को आनंदित करनेवाले सच्चे ब्राह्मणों, प्रकाशक, सूर्य,चन्द्र, अग्नि, सत्य व्यवहार करने वाले वैश्यों के लिए भी होता हैं।

वेदों में ३३ देव कुछ स्थलों पर बताए गए हैं, जिनकी व्याख्या शतपथ ब्राह्मण १४।६।१-१०, तदनुसार बृहदारण्यकोपनिषद् ३।९।१-१०, में प्राप्त होती है ।

      शतपथ के अनुसार 33 देवता हैं 8 वसु, 11 रूद्र, 12 आदित्य, द्यावा और पृथ्वी और 34 वां प्रजापति परमेश्वर हैं।

      उन ३३ देवों के अन्तर्गत १२ आदित्य गिनाए गए हैं जिन्हें संवत्सर के १२ महीने बताया गया है ।

      सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में महर्षि दयानन्द सरस्वती कहते हैं, “संवत्सर के बारह महीने ’बारह आदित्य’ इसलिए हैं कि ये सबकी आयु को लेते जाते हैं”, अर्थात् ’अद भक्षणे’ धातु से ’आदित्य’ शब्द की निष्पत्ति होने से उसको आयु को ’खाने वाला’ बताया है ।

   सो ये १२ आदित्य १२ मासों से सम्बद्ध सूर्य के ही नाम हैं 

   निरुक्त में आदित्यों की व्याख्या निरुक्त में यास्काचार्य ने एक और भी अर्थ दर्शाया है । उसी का इस लेख में निरूपण कर रहा हूं । 

    निरुक्त के बारहवें अध्याय में १२ आदित्य गिनाए गए हैं । ये भी सूर्य के ही नाम हैं, परन्तु संवत्सर के कालावयवों से सम्बद्ध न होकर, यहां पर अहोरात्र से सम्बद्ध विवरण दिया गया है ।

    इनमें से कुछ की प्रभा के भी नाम गिनाए गए हैं । सभी शब्द वेदमन्त्रों के सन्दर्भ में बताए गए हैं ।

    ये १२ आदित्य हैं – त्वष्टा, सविता, भग, सूर्य, पूषन्, विष्णु, विश्वानर, वरुण, केशी, वृषाकपि, यम, अज एकपात् ।

इनकी व्याख्या इस प्रकार हैं –

१. त्वष्टा

रात्रिरादित्यस्यादित्योदयेऽन्तर्धीयते ॥निरुक्तम् १२।११॥ अर्थ त्वष्टा रात्रि का आदित्य है जिसका उदय होने पर अन्तर्धान हो जाता है । इस प्रकार जब सूर्य हम जहां पृथिवी पर स्थित हैं, उसके अगली ओर होता है, तब उसकी संज्ञा ’त्वष्टा’ कही गई है । वेदों में ’विवस्वत्’ इसका पर्यायवाची शब्द है । इसका निर्वचन इस प्रकार किया गया है – त्वष्टा तूर्णमश्नुते इति नैरुक्ताः । त्विषेर्वा स्याद्दीप्तिकर्मणः, त्वक्षतेर्वा स्यात् करोतिकर्मणः ॥निरुक्तम् ८।१४॥

 ’त्वर + अशूङ् व्याप्तौ सङ्घाते च + तृङ्’  शीघ्र फैलने वाला । अथवा ’त्विष दीप्तौ +तृन्’ – सम्भवतः पृथिवी के दूसरी ओर दीप्तिमान रहने वाला । अथवा ’त्वक्षू तनूकरणे + तृन्’ – यहां अर्थ प्रायः शुद्ध आदि करने से लिया जाता है; सम्भवतः आदित्य के विषय में यह निर्वचन उपयुक्त न हो ।  

रात्रिकाल के अन्धकार को ’सरण्यू’ (सृ गतौ + अन्युच् (उणा० ३।८१)) संज्ञा दी गई है ।

२. सविता

 तस्य कालो यदा द्यौरपहततमस्काकीर्णरश्मिर्भवति ॥निरुक्तम् १२।१२॥

अर्थ- सविता का काल वह है जब रश्मियों के फैलने से अन्तरिक्ष में से अन्धकार नष्ट होने लगता है । यह सूर्योदय के पहले का काल है जब सूर्य तो उदय नहीं हुआ है, परन्तु उसकी रश्मियां आकाश में फैलने लगी हैं और धरती अभी भी अन्धकारमय है । यही काल मेधाशक्ति को बढ़ाने वाला और स्वास्थ्य-वर्धक ’ब्राह्म-मुहूर्त’ कहा गया है। निर्वचन : सविता सर्वस्य प्रसविता ॥निरुक्तम् १०।३१॥ – ’षु प्रेरणे + तृच्’ – सबको उत्पन्न करने वाला, प्रेरित करने वाला । सम्भवतः यहां इसके अर्थ हैं ’दिन को उत्पन्न करने वाला’ । इस काल की प्रभा का नाम ’उषा’ है ।

३. भग

तस्य कालः प्रागुत्सर्पणात् ॥निरुक्तम् १२।१४॥

भग का काल सूर्योदय से बिल्कुल पहले का है, जब सूर्य प्रकट होने को जैसे उद्यत हो रहा होता है । इस काल को ’उषा का पुत्र’ कहा गया है । 

    इस प्रकार से यहां पर यह सिद्ध किया गया है, कि 12 आदित्य अर्थात सूर्य के ही नाम हैं, सूर्य को आदित्य कहते हैं, बारह मास पृथ्वी पर जो उपस्थित होते हैं, वह सूर्य और पृथ्वी के आपस में जो चक्र चलते हैं, उससे समय में जो परिवर्तन होता है, उसके अलग अलग प्रभाव को व्यक्त करने के लिए 12 नामों से व्यक्ति कियी गया है, किल मिला कर हम कह सकते हैं की सूर्य की प्रकाश ऊर्जा के प्रभाव और उसके द्वारा होने वाले परिणाम को यह बारह देवता के द्वारा नियंत्रण होता है, एक बात जो यहां पर ध्यान देने वाली है, वह यह है कि यह नीर्जीव नहीं माने गए हैं यह सजीव है इनका संबंध और इनका प्रभाव मानव के साथ सजीव पृथ्वी पर रहने वाले प्राणियों पर पड़ता है, जैसा की मैं अपने पिछले लेख में बताया था कि इस जगत में कोई वस्तु नीर्जीव नहीं हैं, सभी जीव सजीव हैं, इसलिए यहां पर सूर्य को भी सजीव माना गया है, यद्यपि आज के वैज्ञानिक इसके विपरित मानते हैं और वह कहते हैं की सूर्य एक नीर्जीव आग का गोला है, यद्यपि वैदिक मान्यता इसके विपरित है, इस पृथ्वी को भी सजीव मानते हैं, इसलिए इसको अदिती कहते हैं, जो सूर्य से निकली है, यह उसकी भगनी है।

   अब 11 रूद्र को समझते हैं वह कौन हैं?

  रुद्र देवता वैदिक वाङ्मय में एक शक्तिशाली देवता माने गये हैं। ये ऋग्वेद में वर्णन की मात्रात्मक दृष्टि से गौण देवता के रूप में ही वर्णित हैं। ऋग्वेद में रुद्र की स्तुति 'बलवानों में सबसे अधिक बलवान' कहकर की गयी है। यजुर्वेद का रुद्राध्याय, रुद्र देवता को समर्पित है। इसके अन्तर्गत आया हुआ मंत्र शैव सम्प्रदाय में भी बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। रुद्र को ही कल्याणकारी होने से शिव कहा गया है। वैदिक वाङ्मय में मुख्यतः एक ही रुद्र की बात कही गयी हैं; परन्तु पुराणों में एकादश रुद्र की मान्यता अत्यधिक प्रधान हो गयी है।

वेदों में रुद्र का स्वरूप

वैदिक धर्म के देवतागण अनेक हैं। उनमें एक रुद्रदेवता भी हैं। वेदों में रुद्र नाम परमात्मा, जीवात्मा, तथा शूरवीर के लिए प्रयुक्त हुआ है। यजुर्वेद के रुद्राध्याय में रुद्र के अनंत रूप वर्णन किए हैं। इस वर्णन से पता चलता है कि यह संपूर्ण विश्व इन रुद्रों से भरा हुआ है।

यास्काचार्य ने इस रुद्र देवता का परिचय इस प्रकार दिया है -

रुद्रो रौतीति सतः, रोरूयमाणो द्रवतीति वा, रोदयतेर्वा, यदरुदंतद्रुद्रस्य रुद्रत्वं' इति काठकम्। (निरुक्त देखें, १०.१.१-५)

रु' का अर्थ 'शब्द करना' है - जो शब्द करता है, अथवा शब्द करता हुआ पिघलता है, वह रुद्र है।' ऐस काठकों का मत है।

शब्द करना, यह रुद्र का लक्षण है। रुद्रों की संख्या के विषय में निरुक्त में कहा है-


     एक ही रुद्र है, दूसरा नहीं है। इस पृथवी पर असंख्य अर्थात् हजारों रुद्र हैं।' (निरुक्त १.२३) अर्थात् रुद्र देवता के अनेक गुण होने से अनेक गुणवाचक नाम प्रसिद्ध हुए हैं। एक ही रुद्र है, ऐसा जो कहा है, वहाँ परमात्मा का वाचक रुद्र पद है, क्योंकि परमात्मा एक ही है। परमात्मा के अनेक नाम हैं, उनमें रुद्र भी एक नाम है। इस विषय में उपनिषदों का प्रमाणवचन देखिए-

एको रुद्रो न द्वितीयाय तस्यु:। य इमाल्लोकानीशत ईशनीभि:॥ ( श्वेताश्वतर उप. ३.२)

'एक ही रुद्र है, दूसरा रुद्र नहीं है। वह रुद्र अपनी शक्तियों से सब लोगों पर शासन करता है।'

इसी तरह रुद्र के एकत्व के विषय में और भी कहा है - रुद्रमेंकत्वमाहु: शाश्वैतं वै पुराणम्। (अथर्वशिर उप. ५) अर्थात् 'रुद्र एक है और वह शाश्वत और प्राचीन है।'


'जो रुद्र अग्नि में, जलों में औषधिवनस्पतियों में प्रविष्ट होकर रहा है, जो रुद्र इन सब भुवनों को बनाता है, उस अद्वितीय तेजस्वी रुद्र के लिए मेरा प्रणाम है।' (अथर्वशिर उप. ६)

   यो देवना प्रभवश्चोद्भवश्च। विश्वाधिपो रुद्रो महर्षि:॥ (-श्वेताश्व. उ. ४.१२)

'जो रुद्र सब देवों को उत्पन्न करता है, जो संपूर्ण विश्व का स्वामी है और जो महान् ज्ञानी है।' यह रुद्र नि:संदेह परमात्मा ही है।

   जगत् का पिता रुद्र - संपूर्ण जगत् का पिता रुद्र है, इस विषय में ऋग्वेद का मंत्र देखिए-

भुवनस्य पितरं गीर्भिराभी रुद्रं दिवा वर्धया रुद्रमक्तौ।

बृहन्तमृष्वमजरं सुषुम्नं ऋधग्हुवेम कविनेषितार:॥ (-ऋग्वेद ६.४९.१०)

    'दिन में और रात्रि में इन स्तुति के वचनों से इन भुवनों के पिता बड़े रुद्र देव की (वर्धय) प्रशंसा करो, उस (ऋष्वं) ज्ञानी (अ-जरं सुषुम्नं) जरा रहित और उत्तम मनवाले रुद्र की (कविना इषितार:) बुद्धिवानें के साथ रहकर उन्नति की इच्छा करनेवाले हम (ऋषक् हुवेम) विशेष रीति से उपासना करेंगे।'

    यहाँ रुद्र को 'भुवनस्य पिता' त्रिभुवनों का पिता अर्थात् उत्पन्नकर्ता और रक्षक कहा है। रुद्र ही सबसे अधिक बलवान् है, इसलिए वही अपने विशेष सामर्थ्य से इन संपूर्ण विश्व का संरक्षण करता है। वह परमेश्वर का गुहानिवासी रुद्र के रूप में वर्णन भी वेद में है-

   स्तुहि श्रुतं गर्तसंद जनानां राजानं भीममुपहलुमुग्रम्।

    मृडा जरित्रे रुद्र स्तवानो अन्यमस्मत्ते निवपन्तु सैन्यम्॥ (-अथर्व १८.१.४०)

'(उग्रं भीमं) उग्रवीर और शक्तिमान् होने से भयंकर (उपहलुं) प्रलय करनेवाला, (श्रुतं) ज्ञानी (गर्तसदं) सबके हृदय में रहनेवाला, सब लोगों का राजा रुद्र है, उसकी (स्तुहि) स्तुति करो। हे रुद्र! तेरी (स्तवान:) प्रशंसा होने पर (जरित्रे) उपासना करनेवाले भक्त को तू (मृड) सुख दे। (ते सैन्यं) तेरी शक्ति (अस्मत् अन्यं) हम सब को बचाकर दूसरे दुष्ट का (निवपन्तु) विनाश करे।' इस मंत्र में 'जनानां राजांन रुद्र' ये पद विशेष विचार करने योग्य हैं। 'सब लोगों का एक राजा' यह वर्णन परमात्मा का ही है, इसमें संदेह नहीं है। इस मंत्र के कुछ पद विशेष मनन करने योग्य हैं, वे ये हैं-

(१) गर्त-सद: - हृदय की गुहा में रहनेवाला, (निहिर्त गुहा यत्) (वा. यजु. ३८.२) जो हृदय रूपी गुहा में रहता है।

(२) गुहाहित: - बुद्धि में रहनेवाला, हृदय में रहनेवाला, (परमं गुहा यत्। अथर्व. २.१.१-२) जो हृदय की गुहा में रहता है।

(३) गुहाचर: , गुहाशय: - (गुह्यं ब्रह्म) - बुद्धि के अंदर रहनेवाला, यह परमात्मा ही है।

'रुद्र' पद के ये अर्थ स्पष्ट रूप से बता रहे हैं कि यह रुद्र सर्वव्यापक परमात्मा ही है। यही भाव इस वेदमंत्र में है-'अंतरिच्छन्ति तं जने रुद्रं परो मनीषया। (ऋ.८.७२.३)

'ज्ञानी जन (तं रुद्रं) उस रुद्र को (जने पर: अन्त:) मनुष्य के अत्यंत बीच के अंत:करण में (मनीषया) बुद्धि के द्वारा जानने की (इच्छन्ति) इच्छा करते हैं।' ज्ञानी लोग उस रुद्र को मनुष्य के अंत:करण में ढूँढते हैं। अर्थात् यह रुद्र सबसे अंत:करण में विराजमान परमात्मा ही है। यही वर्णन अन्य वेदमंत्रों में है-

अनेक रुद्रों में व्यापक एक रुद्र - इस विषय का प्रतिपादन करने वाले ये मंत्र हैं-

(१) रुद्रं रुद्रेषु रुद्रियं हवामहे (ऋ. १०.६४.८);

(२) रुद्रो रुद्रेभि: देवो मृलयातिन: (ऋ. १०.६६.३);

(३) रुद्रं रुद्रेभिरावहा बृहन्तम् (ऋ. ७.१०.४);

अर्थात्

(१) अनेक रुद्रों में व्यापक रूप में रहनेवाले पूजनीय एक रुद्र की हम प्रार्थना करते हैं;

(२) अनेक रुद्रों के साथ रहनेवाला एक रुद्र देव हमें सुख देता है;

(३) अनेक रुद्रों के साथ रहनेवाले एक बड़े रुद्र का सत्कार करो।'

इससे स्पष्ट हो जाता है कि अनेक छोटे रुद्र अनेक जीवात्मा हैं और उन सब में व्यापनेवाला महान् रुद्र सर्वव्यापक परमात्मा ही है। इस विषय में यजुर्वेद का मंत्र (वा. यजु. १६.५४) भी दृष्टव्य है।

रुद्र के विषय में भाष्यकारों के मत

सायनाचार्य का मत - रुद्र पद के ये अर्थ अपने भाष्य में उन्होंने किए हैं-

(१) रुद्रकालात्मक परमेश्वर है;

(२) रुलानेवाने प्राण है;

(३) शत्रुओं को रुलानेवाले वीर रुद्र हैं;

(४) रोग दूर करनेवाला औषध रूप;

(५) संहार करनेवाला देव रुद्र है; सबको रुलाता है;

(६) रुत् का अर्थ दु:ख है, उनको दूर करनेवाला परमेश्वर रुद्र है;

(७) ज्वर का अभिमानी देव रुद्र है।

श्री उवटाचार्य का मत -

(१) शत्रु को रुलानेवाली वीर रुद्र है;

(२) रुद्र का अर्थ धीर वीर है।

श्री महीधराचार्य का मत -

(१) रुद्र का अर्थ शिव है।

(२) रुद्र का अर्थ शंकर है।

(३) पापी जनों को दु:ख देकर रुलाता है वह रुद्र है।

(४) रुद्र का अर्थ धीर बुद्धिमान्,

(५) रुद्र का अर्थ स्तुति करनेवाला है,

(६) शत्रु को रुलानेवाला रुद्र है।

स्वामी दयानंद सरस्वती का मत -

(१) रुद्र दु:ख का निवारण करनेवाला;

(२) दुष्टों को दंड देनेवाला;

(३) रोगों का नाशकर्ता;

(४) महावीर;

(५) सभा का अध्यक्ष,

(६) जीव,

(७) परमेश्वर,

(८) प्राण, तथा

(९) राजवैद्य है।

पौराणिक मान्यता

पुराणों में 'रुद्र' को शिव से अभिन्न माना गया है। रुद्र को शिव का ही पर्याय माना गया है। इनकी अष्टमूर्ति का संकेत तो यजुर्वेद में भी है; परन्तु अनेक पुराणों में इससे सम्बद्ध कथा विस्तार से दी गयी है।

  यह सब प्रमाण देखने से केवल एक बात सिद्ध होती है, कि यह रूद्ध सूर्य के समान देवता नहीं हैं यद्यपि यह चेतन हैं, और इनको ईश्वर की संज्ञा दि गई है और यह बहुत शक्तिशाली  है, क्योंकि इनके नियंत्रण में सब कुछ हैं, इसलिए सामान्य जन इस हृदयस्थ रूद्र की उपासना करते हैं। 

   अब 8 वसु कौन है इसके बारे में भी थोड़ा समझ लेते हैं।

    वसुगण प्राय: 'अष्टवसु' कहलाते हैं क्योंकि इनकी संख्या आठ है। यद्यपि इनके नामों में भेद पाया जाता है, तथापि आठों का जन्म दक्षकन्या और धर्म की पत्नी वसु में हुआ था। यह 'अष्टवसु' एक देवकुल था। स्कंद, विष्णु तथा हरिवंश पुराणों में इनके नाम घर, ध्रुव, सोम, अप्, अनल, अनिल, प्रत्यूष तथा प्रभास हैं। भागवत में इनके नाम क्रमश: द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोष, वसु और विभावसु हैं। महाभारत में अप् के स्थान में अह: और शिवपुराण में अयज नाम दिया है। अष्टवसुओं के नायक अग्नि हैं। ऋग्वेद के अनुसार ये पृथ्वीवासी देवता है। तैत्तिरीय संहिता और ब्राह्मण ग्रंथों में इनकी संख्या क्रमश: ३३३ और १२ है। पद्मपुराण के अनुसार वसुगण दक्ष के यज्ञ में उपस्थित थे और हिरण्याक्ष के विरुद्ध युद्ध में इंद्र की ओर से लड़े थे।

जालंधर दैत्य के अनुचर शुंभ को वसुओं ने ही मारा था। भागवत में कालकेयों से इनके युद्ध का वर्णन है। स्कंदपुराण के अनुसार महिषासुरमर्दिनी दुर्गा के हाथों की उँगलियों की सृष्टि अष्टवसुओं के ही तेज से हुई थी।

पितृशाप के कारण एक बार वसु लोगों को गर्भवास भुगतना पड़ा। फलस्वरूप उन्होंने नर्मदातीर जाकर १२ वर्षों तक घोर तपस्या की। पश्चात् भगवान शंकर ने इन्हें वरदान दिया। तदनंतर वसुओं ने वही शिवलिंग स्थापित करके स्वर्गगमन किया।

वसु नाम के अनेक वैदिक एवं पौराणिक व्यक्तियों का उल्लेख आया है। उत्तानपाद, नृग, सुमति, वसुदेव, कृष्ण, ईलिन्, भूतज्योति, हिरण्यरेतस्, पुरूरवस्, वत्सर, कुश आदि राजाओं के पुत्रों के नाम भी यही थे। इनके अतिरिक्त सावर्णि मनु, स्वायंभुव मनु, इंद्र, वसिष्ठ ऋषि, मुर दैत्य, भृगवारुणि ऋषि के पुत्र भी वसु नामधारी थे।

2 अश्विनी कुमार कौन थे?

    नक्षत्रों में सबसे पहला नक्षत्र (जिसमें तीन तारे होते हैं) एक अप्सरा जो बाद में अश्विनी कुमारों की माता मानी जोने लगी सूर्य पत्नी जो कि घोड़ी के रूप में छिपी हुई थी। सूर्य की पत्नी अश्विनी के यमराज पुत्र। जीवन को व्यवस्थित करने के लिए यदि हम अंतरिक्ष का सहारा लेते हैं, ग्रह-नक्षत्रों पर आश्रित होतें हैं तो इसी परा ज्ञान को ज्योतिष विद्या कहते हैं। मानव शरीर दस अवस्थाओं में विभक्त है भ्रूण शिशु किशोर तरूण गृहस्थ प्रवासी भृतक प्रौढ जरठ एवं मुमूर्षु। इन विभिन्न अवस्थाओं से होता हुआ यही शरीर पूर्णता को प्राप्त होता है। जन्मकाल में ग्रह-गोचर जिस स्थिति में होते हैं वैसा ही फल हमें सारे जीवन भोगना पड़ता है। नवग्रह- सूर्य चन्द्र मंगल बुध बृहस्पति शुक्र शनि राहु केतु हमारे नियामक है इन्हें मार्ग निर्धारक, प्रेरक, नियोजक, द्रष्टा, विधाता, स्वामी इत्यादि शब्दों में पिरोया जा सकता है। ये ग्रह बारह राशियों में विचरण करते रहते हैं मेष वृष मिथुन कर्क सिंह कन्या तुला वृश्चिक धनु मकर कुम्भ और मीन में तब इनके अपने पृथक् पृथक्, स्वभाव एवं प्रभाव के वशीभूत होकर ग्रह अलग-अलग फल देते हैं।


परिचय

नक्षत्रों की चर्चा करें तो इनकी व्यापकता अपार है इनके प्रत्येक चरण का पृथक आख्यात है। वैदिक साहित्य में नक्षत्रों का बड़ा सूक्ष्म विश्लेषण है। प्रयोगात्मक दृष्टि से वैज्ञानिकों की अनुसंधानिक उत्सुकता की शान्ति के लिए इसमें पर्याप्त भण्डार है, वैदिक ज्योतिष के मूलाधार में नक्षत्र ही हैं वेद में नक्षत्रों को उडू, रिक्ष, नभ, रोचना, तथा स्त्री पर्याय भी कहा गया है। ऋग्वेद के अनुसार 01.50.2 तथा 6.67.6 में जिस लोक का कभी क्षय नहीं होता उसे नक्षत्र कहा गया है, यजुर्वेद में नक्षत्रों को चन्द्रमा की अप्सरा कहा गया है। तैत्रीय ब्राह्मण का कथन है कि सब नक्षत्र देव ग्रह हैं, जो यह जानता है वह गृही और सुखी होता है ये रोचन है, शोभन है, तथा आकाश को अलंकृत करते हैं। इनके मध्य में सूक्ष्म जल का समुद्र है, ये उसे तरते हैं, तारते हैं, इसीलिये तारा और तारक कहे जाते हैं।


देव ग्रहा: वै नक्षत्राणि य एवं वेद गृही भवति।

रोचन्ते रोचनादिवी सलिलंवोइदमन्तरासीतयदतरस्तंताकानां तारकत्वम्।

तैत्तरीय संहिता एवं तैत्तरीय ब्राह्मण में अनेंक स्थलों पर सत्ताईस नक्षत्रों का उनके स्वामियों के सहित उल्लेख है। चन्द्रमा को नक्षत्रों का स्वामी भी कहा गया है, नक्षत्राणामधि पुन: चन्द्र:, चन्द्रमा को नक्षत्र मण्डल की एक परिक्रमा करने में लगभग 271/2 दिन लगते हैं। इसीलिये नक्षत्र 27 या 28 मानें गये हैं। चूँकि पक्ष 24 और नक्षत्र 27 इसलिये 27 नक्षत्रों के 24 नाम ही रखे गये थे। किन्तु फाल्गुनी आषाढ़ा और भाद्रप्रद तीन नक्षत्रों के दो-दो बराबर भाग करके पूर्वा एवं उत्तरा तीन नक्षत्र और बढ़ाकर 27 की संख्या कर दी गयी। उत्तरा आषाढ़ा एवं श्रवण की कुछ घटियों से अभिजित नक्षत्र का नाम देकर 28 नक्षत्र भी कहीं कहीं ज्योतिष शास्त्र में प्रयुक्त होने लगे। सतपथ ब्राह्मण में भी नक्षत्रों को समस्त देवताओं का घर नक्षत्र लोक ही है ऐसा कहा गया है-


नक्षत्राणि वै सर्वेषां देवानां आयतनं।

नक्षत्र शब्द की निष्पत्ति करते हुये महर्षि यास्क कहते हैं कि- नक्षत्रे गति कर्मण अर्थात जिस का कभी क्षय नहीं होता वे नक्षत्र हैं। इसी प्रसंग में रिक्ष शब्द निवेचन भी प्राप्त होता है।

ऋक्षाहा: स्तृभि: इति नक्षत्राणां ऋक्षा: उदीराणानि इवख्या चान्ते स्तृभि: त्रीणन्ति इव ख्यायन्ते।

अमी य ऋक्षा: निहितास उच्चा नक्तं ददृश्रे कुह चिद्यि वेयु:।

अदब्धानि वरूणस्य व्रतानि विचाकशच्चन्द्रमा नक्तमेति।।

अर्थात ये तारे नक्षत्र रूप में उन्नत स्थान में बैठे हुये रात्रि में दिखायी देते थे। वे दिन में कहाँ विलीन हो गये। चन्द्रमा भी प्रकाशित होता है, किन्तु वरुण का नियम अटल है। अन्यत्र ऋग्वेद में कहा गया है कि सब दर्शी सूर्य के प्रकट होते हैं नक्षत्रादि सिद्ध चूर के समान छिप जाते हैं-


अप त्ये तायवो यथा नक्षत्रा यन्त्यक्रुभि:। सूराय विश्वचक्षसे।

ऋग्वेद के दशम मण्डल के पचासीवें सूक्त में कहा गया है कि चन्द्रमा नक्षत्रों के मध्य विचरण करता है, इससे इसमें सोमरस रखा है-


अथो नक्षत्राणामेषामुपस्थे सोम आहित:।

आगे इसी में यह वर्णन मिलता है कि देवताओं ने नक्षत्रों से आकाश को उसी प्रकार सुसज्जित किया जिस प्रकार काले घोड़े को स्वर्ण के आभूषणों से अलंकृत किया जाता है। उन्होंने प्रकाश को दिन के लिये तथा अन्धकार को रात्रि के लिये नियन्त्रित किया। वृहस्पति ने पर्वत को विदीर्ण कर गौरूपी धन को प्राप्त किया-


अभि श्यावं न कृशनेभिरश्वं नक्षत्रेभि: पितरो द्यामपिंशन्।

रात्र्यां तमो अदध्ज्र्योतिरहन्वृहस्पतिर्भिनदद्रिं विद्दगा:।।

इसी वेद के एक मन्त्र का कथन है कि वरूण पहिया युक्त है, जिन्होंने विस्तृत द्यावा पृथ्वी की स्थापना की, इन्होंने ही आकाश और नक्षत्रों को प्रेरित कर पृथ्वी को प्रशस्त किया- धीरा त्वस्य महिना जनूंषि वि यस्तस्तंम्भ रोदसी चिदूर्वी।


प्र नाकमृष्वं नुनुदे द्विता नक्षत्रं प प्रथच्च भूम:।।

शास्त्रों में प्रथम नक्षत्र के रूप में अश्विनी का परिगणन होता है कहते हैं-


प्रियभूषण: स्वरूप सुभगो

दक्षोस्श्विनीषु मतिमांश्च।

अर्थात् अश्विनी नक्षत्र में जन्म हो तो मनुष्य श्रृंगार प्रिय, अलंकार प्रेमी, सुन्दरतनु, आकर्षक, आकृतिवाला, सब लोगों का प्यारा, कार्य करने में चतुर तथा अत्यंत बुद्धिमान होता है। एक मान्यता यह भी है-


सुरूप: सुभगो दक्ष: स्थूलकायो महाधनी अश्विनीसम्भवो लोके जायते जनवल्लभ:।

अश्विनी नक्षत्र में उत्पन्न मनुष्य सुन्दर, भाग्यवान्, कार्य में कुशल, स्थूल शरीर, धनवान् और लोकप्रिय होता है। नारद संहिता का कथन है-


वस्त्रोपनयनं क्षौर: सीमन्ताभरण क्रिया

स्थापनाश्वादियानं च कृषिविद्यादयोश्विभे।

विहित कार्यों को बतलाते हुए ऋृषि कहते हैं कि वस्त्रधारण, उपनयन, क्षौरकर्म, सीमन्त, आभूषण क्रिया, स्थापनादिकर्म, अश्वादि वाहनकर्म, कृषि, विद्या कर्म आदि अश्विनी नक्षत्र में करना शुभद होता है। यह तो स्पष्ट ही है कि अश्विनी नक्षत्र के स्वामी अश्वनीकुमार हैं नाड़ी- आदि, गण-देवता, राशि स्वामी-मंगल, योनि-अश्व, वश्य-चतुष्पद, वर्ण-क्षत्रिय, राशि-मेष तथा अक्षर हैं चू चे चो ला। इस तरह यह सर्वसुखकारक. तारक कारक नक्षत्र है।


कूर्मचक्र के आधार पर अश्विनी नक्षत्र इशान दिशा को सूचित करता है। इशान कोण से होन वाली घटनाओं या कारणों के लिए किसी भी स्थान में अश्विनी नक्षत्र ग्रहाचार जबाबदार हो सकता है। देश प्रदेश का फलादेश करते समय इशान कोण के प्रदेशों के बारे में अश्विनी नक्षत्र के द्वारा विचार किया जा सकता है।


पौराणिक मान्यता के अनुसार अश्विनी कुमार के पिता सूर्य एवं माता शंग द्वारा दो भाइयों की जोड़ी अश्विनी कुमार को जन्म दिया था। इस परिकथा के अनुसार अश्विनी कुमार स्वर्ग से तीन पहिये वाले घोड़ों से सुते रथ द्वारा स्वर्गारोहण कर रहे हैं। ऐसा सूचित किया गया है जिसके द्वारा हम इस नक्षत्र में जन्मे जातक वौद्धिक रूप से सुदृढ़, विकाशशील निरन्तर प्रगति करने वाले शक्तिशाली एवं भ्रमणशील होने की सम्भावना रहती है। इस नक्षत्र के जातक मिलिटरी, पुलिस, संरक्षण से सम्बन्धित कार्यभार एवं अन्य व्यवस्थाओं मे ज्ञान और बुद्धि के साथ व्यवसायों में विशेष रूचि देखी जाती है।


अश्विनी नक्षत्र से अश्व द्वारा सवारी, वाहन के रूप में विचार कर सकते है। इस कारण नक्षत्र में वाहन तथा ट्रांसपोर्ट के व्यवसाय के साथ जोड़ा जाता है। अश्विनी नक्षत्र के मानव जीवन पर निम्न प्रभाव पड़ते है- तन्दुरूस्त शरीर, लाल आंखे, आगे निकले हुए दांत एवं चेहरे पर किसी भी प्रकार के निशान दिखायी देते हैं। अश्विनी नक्षत्र के जातक इष्र्याखोर, शौकीन, निर्मय और स्त्रियों में आसक्त होता है।


अश्विनी नक्षत्र में सिर में दर्द, आंख, चमड़ी के दर्द से पीड़ा रहती है एवं सवारी, घुड़सवारी से सम्बन्धित व्यवसाय, ट्रान्सपोर्टेशन, मशीनरी के रूप में कार्य करते हैं। इस नक्षत्र में जन्मी स्त्रियां सुन्दर, धनधान्ययुक्त श्रृंगार में रूचि, मृदुभाषी सहनशील, मनोहर, बुद्धिशाली तथा बड़ों गुरू, माता-पिता और देवी-देवताओं में आस्था रखनेवाली होती है। अश्विनी नक्षत्र जब शुभ ग्रहों से युत या संबन्धित हो तो जातक को शुमत्व प्रदोन करती है इसके विपरीत अशुभ तत्व और तद्संबंधी रोग, बिडम्बना या मुश्किलों का अनुभव कराती है। ऐसे में अधिकतर मस्तक की चोट, मज्जातुंत की बिमारी तथा दिमाग को हानि पहुँचने वाले रोगों में चेचक, मलेरिया तथा कभी-कभी लकवे के योग बनते पाये गये हैं अश्विनी नक्षत्र के जातक सर्वसामान्य एवं रूचिकर होते हैं। इस नक्षत्र का स्वमी ग्रह मंगल है योग, विष्कुभं, जाति-पुरुष, स्वाभाव-शुभ, वर्ण वैश्य तथा विंशोत्तरी दशा अधिपति ग्रह केतु है।


अश्विनी नक्षत्र का गणितीय विस्तार 0 राशि 0 अंश 0 कला से प्रारंभ होकर 0 सराशि 13 अंश 20 कला तक होता है। इस नक्षत्र का रेखांश है। 0 राशि 10 अंश 6 कला से 47 विकला। क्रान्तिवृत से नक्षत्र की दूरी 8 अंश 28 कला 14 विकला उत्तर तथा विषुवत रेखा से 20 अंश 47 कला 36 विकला उत्तर होता है।


अश्विनी नक्षत्र तीन तारों से मिलकर बना है। इसकी आकृति अश्वमुख की भांति है। उत्तर-पूर्व का उल्का तारा हमल है परन्तु अश्विनी नक्षत्र का प्रमुख योग तारा मध्य का बीटा है। प्राचीन काल में बीटा व गामा तारों को अश्वयुज नाम दिया गया था। इन तारों को प्रात:काल पूर्व दिसा में अप्रैल माह के मध्य में उदय होते देखा जा सकता है तथा दिसम्बर माह में रात्रि के नौ बजे से ग्यारह बजे के मध्य ये तारे शिरों बिन्दु पर दिकाई देते हैं। निरयन सूर्य 13-14 अप्रैल को अश्विनी नक्षत्र मनें प्रवेश करता है, सम्पूर्ण अश्विनी नक्षत्र के चरण मेष राशि में होते हैं। अश्विन मास की पूर्णिमा तिथि को चन्द्रमा अश्विनी नक्षत्र में रहता है। अश्विनी नक्षत्र का स्वामी केतु होता है। इस नक्षत्र में चन्द्रमा के होने से जातक को आभूषण से प्रेम रहता है। जातक सुन्दर तथा सौभाग्यशाली होता है।


विभूषणेत्सुर्मतिमान् शशांके।

दक्षस्सरूप सुभगोश्विनीषु।।


प꣡व꣢स्व देव꣣वी꣡रति꣢꣯ प꣣वि꣡त्र꣢ꣳ सोम꣣ र꣡ꣳह्या꣢ । 

इ꣡न्द्र꣢मिन्दो꣣ वृ꣡षा वि꣢꣯श ॥साम वेद।। १०३७॥

    जैसा कि हम इस साम वेद के मंत्र को समझ रहे थे, हमने समझा का यह देव जिनकी बात इस मंत्र में कही जा रही है, पवस्व अर्थात जो अनादि काल से विद्यमान है, और यह देव जो दिव्यगुणों से युक्त हैं, और यह जड़ चेतन शक्ति हैं, रति अर्थात जो निरंतर शाश्वत अपने कर्म में रत हैं अर्थात अपने कार्य को संपादित कर रहें है, यह पवित्रं अर्थात शुद्ध और पवित्र हैं, जो बड़ी तीव्रता से जीवात्मा अर्थात मानव चेतना के आनंद को वढ़ाने वाले हैं। 

   इन सभी बातों को समझने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं, कि यह एक पवित्र और शूद्ध शाश्वत ज्ञान वान ऊर्जा है, जो चेतन है, और इसका मानव चेतना में निवास या केन्द्र है। जिसको समझने का सामर्थ्य मानव मस्तिष्क के पास है, जब मानव मस्तिष्क समझ जाता है तो वह स्वयं को ब्रह्मांडिय मानव बनाने में समर्थ होता है।    


पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) रस के भण्डार जगदीश्वर ! (देववीः) सदाचारी विद्वानों को प्राप्त होनेवाले आप (रंह्या) वेग से (पवित्रम् अति) पवित्र हृदय-रूप छन्नी को पार करके (पवस्व) अन्तरात्मा में परिस्रुत होओ। हे (इन्दो) रस से आर्द्र करनेवाले जगत्पति ! (वृषा) आनन्द की वर्षा करनेवाले आप (इन्द्रम्) जीवात्मा में (विश) प्रवेश करो ॥१॥


भावार्थभाषाः -

जैसे सोमौषधि का रस दशापवित्र नामक छन्नी के माध्यम से द्रोणकलश में पहुँचता है, वैसे ही परमेश्वर से आता हुआ आनन्दरस हृदय के माध्यम से अन्तरात्मा में पहुँचता है ॥१॥

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