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ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान ईश्वर साक्षात्कार की सबसे सहज प्रक्रिया



 ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान 

ईश्वर साक्षात्कार की सबसे सहज प्रक्रिया

       जैसा की हम सब जानते हैं कि ईश्वर सृष्टि के कण -कण में व्याप्त है, फिर हम सब ईश्वर का साक्षात्कार करने में सफल क्यों नहीं होते हैं?

    आज का विषय हमारा यहीं है, पहली बात हमें ईश्वर का साक्षात्कार क्यों करना चाहिेए?

    पहले प्रश्न का उत्तर हम इस प्रकार से दे सकते हैं, ईश्वर को हमें इसलिए प्राप्त करना चाहिए क्योंकि ईश्वर से वृद्धि शांती सुख और समृद्धि प्राप्त होती है, सबसे बड़ी बात यह है की ईश्वर के माध्यम से ही हम स्वयं को समझ सकते हैं, जिस प्रकार से प्रकाश हमारी दृष्टि को दृष्य को देखने में सहायता करता है, उसी प्रकार से हम ईश्वर की सख्यता से स्वयं को समझने में समर्थ होते हैं। इसलिए हम सभी को ईश्वर को प्राप्त करने का प्रयाश करना चाहिए।   

   दूसरा प्रश्न है, क्या ईश्वर का साक्षात्कार करने के लिए किसी वीशेष स्थान पर जाना जरूरी है?

  दूसरे प्रश्न का उत्तर ईश्वर को प्राप्त करने के लिए किसी विशेष स्थान जाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि ईश्वर हिर्ण्यगर्भः है, वह हम सब के हृदय में विद्यमान हम ईश्वर की तलाश अपने हृदय में करनी चाहिए। 

   तीसरा प्रश्न ईश्वर को कौन प्राप्त कर सकता है क्या ईश्वर सब के लिए उपलब्ध नहीं है?

     जैसा की मैं ने उपर बताया की ईश्वर सभी के लिए सुलभ है, उसे कोई भी प्राप्त कर सकता है, उसके लिए जो विशेष कार्य करना होता है, अपने हृदय से जीना होता है और ईश्वर के प्रति स्वयं का पूर्ण समर्पण करना होता है।

    चौथा प्रश्न ईश्वर को कैसे प्राप्त कर सकते हैं, उसका सहज मार्ग क्या है?

  जैसा की यजुर्वेद के 40 अध्याय प्रथम मंत्र में बताया गया है की ईश्वर ईशावास्य मिद्ं सर्वम् ।। अर्थात ईश्वर हर जगह व्याप्त है, हर कण में ईश्वर है, चाहे वह जड़ वस्तु हो या चेतन वस्तु है, यहां यह ध्यान रखना है की ईश्वर को हम सीर्फ चेतन वस्तु में साक्षात्कार कर सकते हैं, और वह चेतन व्यक्ति हम स्वयं है इसलिए हम ईश्वर का साक्षात्कार स्वयं में ही कर सकते हैं, दूसरा बाहर कहीं मंदीर मस्जिद या किसी अन्यत्र या किसी अन्यत्र तरीके से नहीं कर सकते हैं। ईश्वर को प्राप्त करने का सहज मार्ग है, की हम अपने मन को अपना सहयोगी बनाए और उसका मित्र के समान उपयोग कर या उसका सहयोग करें।

   ईस्वर को प्राप्त करने का मैंने सहज रूप से प्राप्त करने के लिए मैंने एक ध्यान की विधि को विकसित की है, जिसमें प्राचीन और नवीन दोनों का समिश्रण किया गया है, वह ध्यान की विधि है, जिसको मैं ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान कहता हूं। 

      यहां पर हमें यह समझना होगा की यह की यह ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान क्या है? 

     ज्ञान शब्द की उत्पत्ति जान से होती है, और जान की जीव से होती है और जीव को ही जीवात्मा कहते हैं, इस तरह से हम कह सकते हैं कि जीवात्मा का में स्थित होना ही ध्यान है, क्योंकि ध्यान शब्ध ज्ञान का ही अपभ्रंस है। दूसरा शब्द है विज्ञान जिसका मतलब सिधा और साफ है, जो विशेष ज्ञान है, ज्ञान का उपयोग प्रयोग अर्थात आत्मा का हम स्वयं कैसे उपयोग कर के उस परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं वह हमें विज्ञान समझाता है, तीसरा शब्ध है ब्रह्मज्ञान है जिसका मतलब है की जो आत्मा से बाहर है आत्म से अलह ब्रह्म है उसको आत्मा से एक करदेना ही ब्रह्मज्ञान है।

    इसमें जो सबसे अधिक समझने और अपने जीवन को परिवर्तित करने वाला ज्ञान विज्ञान और ब्रह्मज्ञान का दूसरा हिस्सा है, जो जिसे विज्ञान कहते हैं, क्योंकि इसी माध्यम से हमें आत्मा अर्था ज्ञान को ब्रह्म अर्थात परमात्मा को एक करते हैं। 

      अब इस विधि को प्रयोग करने से पहले कुछ इसके बारे में जान लेते हैं कि कैसे हम सब इसका अपने दैनिक जीवन में उपयोग कर सकते हैं। 

      सर्व प्रथम समय का निर्धारण करें ध्यान करने का समय सबसे अच्छा प्रातःकालिन का होता है, क्योंकि उस समय पुरावातावरण शांत और स्वच्छ निर्मल होता है, उस समय ब्रह्ममुहूर्त होता है उस समय हमारा मस्तिष्क भी किसी विषय में एकाग्र होने के लिए तैयाार होता है, सबसे बड़ी बात है की उससे समय अर्थात ब्रह्ममुहूर्त में बहुत अधिक ऊर्जावान और तरोताजा होते हैं। 

    जो साधक ईश्वर को सच में प्राप्त करना चाहते हैं, या स्वयं को गहराई से जानने की अभीलाशा रखते हैं उनको सर्वप्रथम प्रातःकालिन वेला में अर्थात लगभग चार बजे के करीब अपने विस्तर को छोड़ कर, अपने दैनिक नित्यक्रिया शौच आदि से निवृत्त हो कर, अपने घर के किसी एकांत स्थान या अपने घर के छत पर यदी बाहर कहीं पार्क या नदीं के किनारे जाना संभव हो तो और अच्छा है, सबसे अच्छा अपने घर के किसी कमरे में एक खाली और शूद्ध हवादार स्थान पर आसन विछा कर बैठ जाएं। 

    और अपनी शरीर बिल्कुल ढिला छोड़ दे, धीरे धीरे सांस को ले न ज्यादा तेज ना ज्यादा धीरे ही एक सामान्य गति से शांसों को चलने दे, फीर दो तीन गहरी शांस को पेट भर कर ले और फिर उनको अपने शरीर से वेग के साथ बाहर छोड़ दे ऐसा अपनी शारीरिक सुविधा के अनुसार बढ़ा घटा सकते है, कम से कम तीन बार प्राणायाम अवश्य करें, अर्थात सांस को अंदर ले और फिर उसके बाहर छोड़ें और यह कार्य सांस छोड़ने और लेने का नाक के द्वारा करें, मुंह को बंद रखे। 

    जब मन थोड़ा शांत और शरीर अपने आसन पर व्यवस्थित बैठ जाए तो धीरे से अपनी आँखों को बंद कर ले, अपने दोनों हाथों को अपने घुटनों पर रख कर अपने उंगली से ज्ञान मुद्रा को बना ले, यह ज्ञान मूद्रा हमारी आत्मा को जग्रर रखने में सहायता करती है, ज्ञान मूद्रा का मतलब है की अपने अंगुठे से अपनी अनामिका को धीरे जोड़ कर रखे, या फिर आप विज्ञान मुद्रा भी अपने हाथों और उंगलियों से बना सकते हैं, इसमें आपको अपने दोनों हथेलियों को अपने लिंग के उपर अपने पंजों को उपर एक दूसरे हतेली को रखना होता है। 

  अब तीसरा मुख्य कार्य ब्रह्मज्ञान का शूरु होता है, आपने अपने शरीर को तो आसन की मुद्रा दे दिया वह योग आसन सिद्ध आसन या पद्मआसन हो सकता है, दूसरा अपने हथेलियों और उंगलियों के लिए ज्ञान मुद्रा और विज्ञान मुद्रा में स्थिर कर दिया, अब तीसरा कार्य आपको अपने शरीर की बाहरी सभी प्रकार की चेष्टा को रोक कर अर्थात जिस आसन में शरीर को स्थिर कर दिया उसी में उसको स्थिर रखते हुए, अपने मन को एकाग्र करना है, मन को ईश्वर में एकाग्र करना है, और ईश्वर को हम उसके प्रमुख नाम से स्मरण करते हैं, अर्थात ओम् का जाप करना है, जाप तीन प्रकार का होता है, एक तो अपनी वाणी सो जोर जोर बोल कर किया जाता है, दूसरा केवल इतना तेज बोलना है जिससे आपके ओंठ केवल हिलते रहें और उसको केवल आप ही महसूस कर सके, तीसरा जिस उपांसू जाप कहते हैं, इसको आपको अपने मन में करना होता है। इस क्रिया को यथासंभव आप 20 मिनट से शुरु करके इसे एक घंटे तक कर सकते हैं, ऐसा नित्य करने से आपको अपने शरीर में होने वाले परिवर्तन बहुस साफ और स्पस्ट प्रतित होगा आपको अलौकिक आनंद और अद्भुत शांति का आभास होगा ऐसा ही निरंतर करने से आपको अपने अंदर ही कुछ दिनों में ईश्वर का साक्षात्कार हो जाएगा। यह कोरी कल्पना नहीं है, इसकी बात स्वयं योगेश्वर कृष्ण और इनसे पहले जितने वैदिक ऋषि हुए हैं, वह कहते हैं, जैसा योगेश्वर कृष्ण गीता में कहते हैं की मैं वेदों में साम हूं, क्योंकि सामवेद गायन या जाप अथवा संगीत मंत्र ध्वनी के माध्यम से ईश्वर से जुड़ने का सहज तरीका है, वह सभी मंत्र क्लिष्ट हैं, सभी व्यक्ति मंत्रों का स्मरण नहीं कर सकते हैं, लेकिन ओम् को सभी लोग स्मरण कर सकते हैं, क्योंकि सामवेद का सार है, ओम् के जाप से वहीं फल मिलता है, जो वेद समस्त मंत्रों के जाप से फल मिलता है, अर्थात ईश्वर का साक्षात्कार होता है। ऐसा छंद्योग्या उपनिष्द कहता है। 

      इस विधि को करने से हमारा मन जो अपने एक निश्चित आयाम से बाहर निकल कर उससे जो परे हैं, अर्थात आत्मा के आयाम में उपस्थित होता है और आत्मा परमात्मा में की तरफ प्रेरित होती है।

        जीवन की अपनी आवश्यकता है, और हम में से हर किसी को अपने जीवन की जरूरत को पूरा करना पड़ता है, जो अपनी जीवन की आवश्यकता को पूरी करने में समर्थ हैं, वह ही यहां संसार में सफल होते हैं, जो ऐसा नहीं कर सकते हैं, वहीं असफल समझे जाते हैं, यहां पर कोई भी असफल नहीं होना चाहता है, वह प्रयास करता है, लेकिन जब उसको सफलता नहीं मीलती है तो वह नीराश हो जाता है, और थक हार कर समय और परिस्थिति के समाने घुटने टेक देता है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो किसी भी स्थिति में हार नहीं मानते हैं, और अपने जीवन में उत्साह और होसले का लबरेज रखते हैं, वह जितनी बार हारते हैं, उतनी ही बार वह और दूगनी शक्ति के साथ अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करते हैं, और वह एक दिनी अपने जीवन में सफल हो ही जाते हैं।

     हमें स्वयं का निरीक्षण करना होगा की हम स्वयं किस कोटी में आते हैं, पहले वाले जो किसी शर्त या कितनी भी बुरी से बुरी परिस्थिति के आने पर हार नहीं मानते हैं, अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निरंतर जब तक अपने लक्ष्य को प्रप्त नहीं कर लेते हैं तब तक शांत हो कर नहीं बैठेते हैं। या फिर दूसरे प्रकार के व्यक्तियों की श्रेणी में आते हैं, जो एक बार कार्य को प्रारंभ तो कर देते हैं, लेकिन जब उस कार्य में रूकावटे समस्याएं या कठिनाईयां आने लगती हैं, तो उस कार्य को बीच में ही छोड़ कर बैठे जाते हैं, वह कार्य तो बहुत शुरू करते हैं, लेकिन हर कार्य को पूर्ण करने से पहले ही छोड़ देते हैं जिसकी वजह से वह अपने जीवन में सफल नहीं होते हैं, और हमेशा शिकायत और दूसरों को दोष देते हैं, मेरा तो भाग्य ही खराब था, या मेरा तो कोई सहयोग करने वाला नहीं था इत्यादि किस्म की तरह - तरह के बहाने बना लेते है। इस श्रेणी लग-भग 99.99 प्रतिशत लोग आते हैं। आप स्वयं अंदाज लगा सकते हैं, की मात्र 0.1 प्रतिशत ही पुरी तरह से सफल हो पाते हैं।  

    इस दूनीया में ऐसे लाखों हजारों हमें उदाहरण मिल जाते हैं, जिन्होंने ने स्वयं को जमीन से उठा कर संसार का शीर मौर बना लिया है, जिनको दुनीया सलाम करती है, हम भी कर सकते हैं, हमें उसके लिए परीश्रम करना होगा, हम अभी तक असफल हुए हैं, इसके पीछे कारण हमारी स्वयं की श्रद्धा हमारे काम नहीं होती है, या हम उस कार्य को आधे अधूरे मन से करते हैं। 

     पहली बात सफलता का कोई छोटा रास्ता नहीं हैं, सफलता के लिए तो आप को स्वयं ही अपने लक्ष्य को निर्धारीत करना होगा और उसको प्राप्त करने के लिए उपयुक्त योजना बनाना होगा, सिर्फ योजना ही नहीं बनाना है, यद्यपि उस योजज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान ईश्वर साक्षात्कार के सबसे सहज प्रक्रिय

       जैसा की हम सब जानते हैं कि ईश्वर सृष्टि के कण -कण में व्याप्त है, फिर हम सब ईश्वर का साक्षात्कार करने में सफल क्यों नहीं होते हैं?

    आज का विषय हमारा यहीं है, पहली बात हमें ईश्वर का साक्षात्कार क्यों करना चाहिेए?

    पहले प्रश्न का उत्तर हम इस प्रकार से दे सकते हैं, ईश्वर को हमें इसलिए प्राप्त करना चाहिए क्योंकि ईश्वर से वृद्धि शांती सुख और समृद्धि प्राप्त होती है, सबसे बड़ी बात यह है की ईश्वर के माध्यम से ही हम स्वयं को समझ सकते हैं, जिस प्रकार से प्रकाश हमारी दृष्टि को दृष्य को देखने में सहायता करता है, उसी प्रकार से हम ईश्वर की सख्यता से स्वयं को समझने में समर्थ होते हैं। इसलिए हम सभी को ईश्वर को प्राप्त करने का प्रयाश करना चाहिए।   

   दूसरा प्रश्न है, क्या ईश्वर का साक्षात्कार करने के लिए किसी वीशेष स्थान पर जाना जरूरी है?

  दूसरे प्रश्न का उत्तर ईश्वर को प्राप्त करने के लिए किसी विशेष स्थान जाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि ईश्वर हिर्ण्यगर्भः है, वह हम सब के हृदय में विद्यमान हम ईश्वर की तलाश अपने हृदय में करनी चाहिए। 

   तीसरा प्रश्न ईश्वर को कौन प्राप्त कर सकता है क्या ईश्वर सब के लिए उपलब्ध नहीं है?

     जैसा की मैं ने उपर बताया की ईश्वर सभी के लिए सुलभ है, उसे कोई भी प्राप्त कर सकता है, उसके लिए जो विशेष कार्य करना होता है, अपने हृदय से जीना होता है और ईश्वर के प्रति स्वयं का पूर्ण समर्पण करना होता है।

    चौथा प्रश्न ईश्वर को कैसे प्राप्त कर सकते हैं, उसका सहज मार्ग क्या है?

  जैसा की यजुर्वेद के 40 अध्याय प्रथम मंत्र में बताया गया है की ईश्वर ईशावास्य मिद्ं सर्वम् ।। अर्थात ईश्वर हर जगह व्याप्त है, हर कण में ईश्वर है, चाहे वह जड़ वस्तु हो या चेतन वस्तु है, यहां यह ध्यान रखना है की ईश्वर को हम सीर्फ चेतन वस्तु में साक्षात्कार कर सकते हैं, और वह चेतन व्यक्ति हम स्वयं है इसलिए हम ईश्वर का साक्षात्कार स्वयं में ही कर सकते हैं, दूसरा बाहर कहीं मंदीर मस्जिद या किसी अन्यत्र या किसी अन्यत्र तरीके से नहीं कर सकते हैं। ईश्वर को प्राप्त करने का सहज मार्ग है, की हम अपने मन को अपना सहयोगी बनाए और उसका मित्र के समान उपयोग कर या उसका सहयोग करें।

   ईस्वर को प्राप्त करने का मैंने सहज रूप से प्राप्त करने के लिए मैंने एक ध्यान की विधि को विकसित की है, जिसमें प्राचीन और नवीन दोनों का समिश्रण किया गया है, वह ध्यान की विधि है, जिसको मैं ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान कहता हूं। 

      यहां पर हमें यह समझना होगा की यह की यह ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान क्या है? 

     ज्ञान शब्द की उत्पत्ति जान से होती है, और जान की जीव से होती है और जीव को ही जीवात्मा कहते हैं, इस तरह से हम कह सकते हैं कि जीवात्मा का में स्थित होना ही ध्यान है, क्योंकि ध्यान शब्ध ज्ञान का ही अपभ्रंस है। दूसरा शब्द है विज्ञान जिसका मतलब सिधा और साफ है, जो विशेष ज्ञान है, ज्ञान का उपयोग प्रयोग अर्थात आत्मा का हम स्वयं कैसे उपयोग कर के उस परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं वह हमें विज्ञान समझाता है, तीसरा शब्ध है ब्रह्मज्ञान है जिसका मतलब है की जो आत्मा से बाहर है आत्म से अलह ब्रह्म है उसको आत्मा से एक करदेना ही ब्रह्मज्ञान है।

    इसमें जो सबसे अधिक समझने और अपने जीवन को परिवर्तित करने वाला ज्ञान विज्ञान और ब्रह्मज्ञान का दूसरा हिस्सा है, जो जिसे विज्ञान कहते हैं, क्योंकि इसी माध्यम से हमें आत्मा अर्था ज्ञान को ब्रह्म अर्थात परमात्मा को एक करते हैं। 

      अब इस विधि को प्रयोग करने से पहले कुछ इसके बारे में जान लेते हैं कि कैसे हम सब इसका अपने दैनिक जीवन में उपयोग कर सकते हैं। 

      सर्व प्रथम समय का निर्धारण करें ध्यान करने का समय सबसे अच्छा प्रातःकालिन का होता है, क्योंकि उस समय पुरावातावरण शांत और स्वच्छ निर्मल होता है, उस समय ब्रह्ममुहूर्त होता है उस समय हमारा मस्तिष्क भी किसी विषय में एकाग्र होने के लिए तैयाार होता है, सबसे बड़ी बात है की उससे समय अर्थात ब्रह्ममुहूर्त में बहुत अधिक ऊर्जावान और तरोताजा होते हैं। 

    जो साधक ईश्वर को सच में प्राप्त करना चाहते हैं, या स्वयं को गहराई से जानने की अभीलाशा रखते हैं उनको सर्वप्रथम प्रातःकालिन वेला में अर्थात लगभग चार बजे के करीब अपने विस्तर को छोड़ कर, अपने दैनिक नित्यक्रिया शौच आदि से निवृत्त हो कर, अपने घर के किसी एकांत स्थान या अपने घर के छत पर यदी बाहर कहीं पार्क या नदीं के किनारे जाना संभव हो तो और अच्छा है, सबसे अच्छा अपने घर के किसी कमरे में एक खाली और शूद्ध हवादार स्थान पर आसन विछा कर बैठ जाएं। 

    और अपनी शरीर बिल्कुल ढिला छोड़ दे, धीरे धीरे सांस को ले न ज्यादा तेज ना ज्यादा धीरे ही एक सामान्य गति से शांसों को चलने दे, फीर दो तीन गहरी शांस को पेट भर कर ले और फिर उनको अपने शरीर से वेग के साथ बाहर छोड़ दे ऐसा अपनी शारीरिक सुविधा के अनुसार बढ़ा घटा सकते है, कम से कम तीन बार प्राणायाम अवश्य करें, अर्थात सांस को अंदर ले और फिर उसके बाहर छोड़ें और यह कार्य सांस छोड़ने और लेने का नाक के द्वारा करें, मुंह को बंद रखे। 

    जब मन थोड़ा शांत और शरीर अपने आसन पर व्यवस्थित बैठ जाए तो धीरे से अपनी आँखों को बंद कर ले, अपने दोनों हाथों को अपने घुटनों पर रख कर अपने उंगली से ज्ञान मुद्रा को बना ले, यह ज्ञान मूद्रा हमारी आत्मा को जग्रर रखने में सहायता करती है, ज्ञान मूद्रा का मतलब है की अपने अंगुठे से अपनी अनामिका को धीरे जोड़ कर रखे, या फिर आप विज्ञान मुद्रा भी अपने हाथों और उंगलियों से बना सकते हैं, इसमें आपको अपने दोनों हथेलियों को अपने लिंग के उपर अपने पंजों को उपर एक दूसरे हतेली को रखना होता है। 

  अब तीसरा मुख्य कार्य ब्रह्मज्ञान का शूरु होता है, आपने अपने शरीर को तो आसन की मुद्रा दे दिया वह योग आसन सिद्ध आसन या पद्मआसन हो सकता है, दूसरा अपने हथेलियों और उंगलियों के लिए ज्ञान मुद्रा और विज्ञान मुद्रा में स्थिर कर दिया, अब तीसरा कार्य आपको अपने शरीर की बाहरी सभी प्रकार की चेष्टा को रोक कर अर्थात जिस आसन में शरीर को स्थिर कर दिया उसी में उसको स्थिर रखते हुए, अपने मन को एकाग्र करना है, मन को ईश्वर में एकाग्र करना है, और ईश्वर को हम उसके प्रमुख नाम से स्मरण करते हैं, अर्थात ओम् का जाप करना है, जाप तीन प्रकार का होता है, एक तो अपनी वाणी सो जोर जोर बोल कर किया जाता है, दूसरा केवल इतना तेज बोलना है जिससे आपके ओंठ केवल हिलते रहें और उसको केवल आप ही महसूस कर सके, तीसरा जिस उपांसू जाप कहते हैं, इसको आपको अपने मन में करना होता है। इस क्रिया को यथासंभव आप 20 मिनट से शुरु करके इसे एक घंटे तक कर सकते हैं, ऐसा नित्य करने से आपको अपने शरीर में होने वाले परिवर्तन बहुस साफ और स्पस्ट प्रतित होगा आपको अलौकिक आनंद और अद्भुत शांति का आभास होगा ऐसा ही निरंतर करने से आपको अपने अंदर ही कुछ दिनों में ईश्वर का साक्षात्कार हो जाएगा। यह कोरी कल्पना नहीं है, इसकी बात स्वयं योगेश्वर कृष्ण और इनसे पहले जितने वैदिक ऋषि हुए हैं, वह कहते हैं, जैसा योगेश्वर कृष्ण गीता में कहते हैं की मैं वेदों में साम हूं, क्योंकि सामवेद गायन या जाप अथवा संगीत मंत्र ध्वनी के माध्यम से ईश्वर से जुड़ने का सहज तरीका है, वह सभी मंत्र क्लिष्ट हैं, सभी व्यक्ति मंत्रों का स्मरण नहीं कर सकते हैं, लेकिन ओम् को सभी लोग स्मरण कर सकते हैं, क्योंकि सामवेद का सार है, ओम् के जाप से वहीं फल मिलता है, जो वेद समस्त मंत्रों के जाप से फल मिलता है, अर्थात ईश्वर का साक्षात्कार होता है। ऐसा छंद्योग्या उपनिष्द कहता है। 

      इस विधि को करने से हमारा मन जो अपने एक निश्चित आयाम से बाहर निकल कर उससे जो परे हैं, अर्थात आत्मा के आयाम में उपस्थित होता है और आत्मा परमात्मा में की तरफ प्रेरित होती है।

        जीवन की अपनी आवश्यकता है, और हम में से हर किसी को अपने जीवन की जरूरत को पूरा करना पड़ता है, जो अपनी जीवन की आवश्यकता को पूरी करने में समर्थ हैं, वह ही यहां संसार में सफल होते हैं, जो ऐसा नहीं कर सकते हैं, वहीं असफल समझे जाते हैं, यहां पर कोई भी असफल नहीं होना चाहता है, वह प्रयास करता है, लेकिन जब उसको सफलता नहीं मीलती है तो वह नीराश हो जाता है, और थक हार कर समय और परिस्थिति के समाने घुटने टेक देता है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो किसी भी स्थिति में हार नहीं मानते हैं, और अपने जीवन में उत्साह और होसले का लबरेज रखते हैं, वह जितनी बार हारते हैं, उतनी ही बार वह और दूगनी शक्ति के साथ अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करते हैं, और वह एक दिनी अपने जीवन में सफल हो ही जाते हैं।

     हमें स्वयं का निरीक्षण करना होगा की हम स्वयं किस कोटी में आते हैं, पहले वाले जो किसी शर्त या कितनी भी बुरी से बुरी परिस्थिति के आने पर हार नहीं मानते हैं, अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निरंतर जब तक अपने लक्ष्य को प्रप्त नहीं कर लेते हैं तब तक शांत हो कर नहीं बैठेते हैं। या फिर दूसरे प्रकार के व्यक्तियों की श्रेणी में आते हैं, जो एक बार कार्य को प्रारंभ तो कर देते हैं, लेकिन जब उस कार्य में रूकावटे समस्याएं या कठिनाईयां आने लगती हैं, तो उस कार्य को बीच में ही छोड़ कर बैठे जाते हैं, वह कार्य तो बहुत शुरू करते हैं, लेकिन हर कार्य को पूर्ण करने से पहले ही छोड़ देते हैं जिसकी वजह से वह अपने जीवन में सफल नहीं होते हैं, और हमेशा शिकायत और दूसरों को दोष देते हैं, मेरा तो भाग्य ही खराब था, या मेरा तो कोई सहयोग करने वाला नहीं था इत्यादि किस्म की तरह - तरह के बहाने बना लेते है। इस श्रेणी लग-भग 99.99 प्रतिशत लोग आते हैं। आप स्वयं अंदाज लगा सकते हैं, की मात्र 0.1 प्रतिशत ही पुरी तरह से सफल हो पाते हैं।  

    इस दूनीया में ऐसे लाखों हजारों हमें उदाहरण मिल जाते हैं, जिन्होंने ने स्वयं को जमीन से उठा कर संसार का शीर मौर बना लिया है, जिनको दुनीया सलाम करती है, हम भी कर सकते हैं, हमें उसके लिए परीश्रम करना होगा, हम अभी तक असफल हुए हैं, इसके पीछे कारण हमारी स्वयं की श्रद्धा हमारे काम नहीं होती है, या हम उस कार्य को आधे अधूरे मन से करते हैं। 

     पहली बात सफलता का कोई छोटा रास्ता नहीं हैं, सफलता के लिए तो आप को स्वयं ही अपने लक्ष्य को निर्धारीत करना होगा और उसको प्राप्त करने के लिए उपयुक्त योजना बनाना होगा, सिर्फ योजना ही नहीं बनाना है, यद्यपि उस योजना पर आपको निरंतर सही दिशा में कार्य को करना होगा, और उन कमियों का बार बार नहीं दोहराना है जिसने आपको असफल करने में सहयोग दिया है।

    ज्ञानविज्ञानब्रह्मज्ञान विधि ईश्वर को उपलब्ध कराने सर्वथा सिद्ध है, इसका अपना स्वयं का अनुभव है। क्योंकि इस माध्यम से मैंने स्वयं को जाना है।

   इसके दूसरे चरण पर बात अगले लेख में करेंगे की किस प्रकार से शरीर को पूर्णतः शून्य कर के आत्मास्थ हो कर परमत्व ब्रह्म में लिन होते हैं, और उसके परीणाम हमारे जीवन में क्या क्या पड़ते है, किस प्रकार से ब्रह्म की अवस्थात को उपलब्ध करते हैं। 

      धन्यवाद 

मनोज पाण्डेय अध्यक्ष ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञानना पर आपको निरंतर सही दिशा में कार्य को करना होगा, और उन कमियों का बार बार नहीं दोहराना है जिसने आपको असफल करने में सहयोग दिया है।

    ज्ञानविज्ञानब्रह्मज्ञान विधि ईश्वर को उपलब्ध कराने सर्वथा सिद्ध है, इसका अपना स्वयं का अनुभव है। क्योंकि इस माध्यम से मैंने स्वयं को जाना है। जो हमारे भारतिय करोड़ो ऋषि महर्षियों की अनुभूति है। 

   इसके दूसरे चरण पर बात अगले लेख में करेंगे की किस प्रकार से शरीर को पूर्णतः शून्य कर के आत्मास्थ हो कर परमत्व ब्रह्म में लिन होते हैं, और उसके परीणाम हमारे जीवन में क्या क्या पड़ते है, किस प्रकार से ब्रह्म की अवस्थात को उपलब्ध करते हैं। 

      धन्यवाद 

मनोज पाण्डेय अध्यक्ष ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान

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