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गार्गी और याज्ञवल्क्य Hindi (Stories of Upanisads)

 





गार्गी और याज्ञवल्क्य 



     मगध-साम्राज्य की स्थापना के पहले भी उस देश का नाम मिथिला था, जहाँ पर आजकल दरभंगा, मुगेर, शाहाबाद आदि बिहार के उत्तरी जिले फैले हुए हैं । मिथिला का राजवंश भारत की ऐतिहासिक राज- वंशावलि में बहुत प्रतिष्ठित समझा जाता था। उसका मुख्य कारण यह था कि अधिकतर राजा लोग अपनी प्रजा को पुत्र के समान स्नेह की दृष्टि से देखते थे। वे उनकी हर एक बातों में सहायता करते थे । आजकल के राजाओं की तरह प्रजा को चूस कर, अनेक प्रकार के कष्ट पहुँचाकर अपने निजी ऐशोआराम के लिए धन इकट्ठा करने की ओर उनका ध्यान नही था । वे प्रजाओं के जनक अर्थात्‌ पिता कहे जाते थे । पिता का काम है अपने बच्चों की रक्षा करना, उन्हें खाना कपड़ा देना, पढा-लिखाकर योग्य बनाना, बीमारी मे तन मन धन से दवा-दारू का प्रबन्ध रखना, सारांश यह कि सुख-दुख में सर्वत्र उनकी उन्नति और भलाई का ध्यान रखना मिथिला के राजाओं का यह गुण खानदानी बन गया था, यही कारण है कि वे प्रायः सब के सब जनक? नाम से प्रसिद्ध हुए, प्रजा की रक्षा में और अपने पारलौकिक श्रेय की चिन्ता में अपने शरीर का भी ध्यान नहीं रखते थे यही कारण है कि वे सब विदेह भी कहे जाते थे । इसी मिथिला के एक राजा विदेह या जनक की यह कथा बतला रहा हूँ। वह राजा जनक अपने समय के एक बहुत बड़े राजा ही नहीं थे बल्कि बहुत बड़े विद्वान्‌ और महात्मा भी थे । उस समय यद्यपि लोग 'ब्राह्मण-गुरु से ही विद्या सीखने जाते थे किन्तु राजा जनक से, क्षत्रिय होने पर भी, विद्या सीखने के लिए दूर-दूर से विद्यार्थी आते थे । यही नहीं, बडे़-बडे़ ऋषि मुनि महात्मा और पंडित भी किसी कठिन विषय के आ जाने पर उनसे आकर ' गुत्थी सुलझाते थे। इस तरह उनका जीवन इतना विचित्र और दुरंगी था कि लोग उनकी जीवनचर्य्या सुन कर विस्मय में पड जाते थे । 


      एक बार उन्हीं राजा जनक ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया, जिसमे दुनिया के कोने-कोने से ढूढ़-ढूढ़ कर विद्वान पंडित, महात्मा ऋषि, मुनि बुलाएं गए। बड़ी धूमधाम से' यज्ञ सम्पन्न हुआ और मंगल महूर्त में विद्वान्‌ राजा जनक ने यज्ञाग्नि में पुर्णाहुति डालकर यज्ञ की शेष क्रियाएं भी समाप्त कर दी, केवल कुछ पंडितों को अतिरिक्त दक्षिणा देना बाकी रह गया । ठीक अवसर पर राज्ञा के हृदय में एक कुतूहल जागा। उन्होंने सोचा कि आज इस विद्वानमंडली में यह निश्चय हो जाना चाहिए कि कौन सब से बड़ा विद्वान और महात्मा पंडित है । क्योंकि सभी अपने-अपने को बहुत बड़ा विद्वान समभते हैं और एक दूसरे को अपमानित करने का अवसर ढूढते रहते हैं । “इस फैसले के बाद कम से कम यह तो विदित हो ही जायगा कि इस समय का 'सब से बड़ा विद्वान कोई एक है । 

     राजा के उस यज्ञ से विशेष कर कुरु और पांचाल देश के पंडितों में बडी होड चलती थी, वे सब के सब अपनी, विद्या के मद में चूर रहते थे। राजा ने यज्ञ की समाप्ति कर प्रायः सभी विद्वानों को एक समान प्रचुर दक्षिणा देकर सन्तुष्ट किया और सब प्रसन्न मन से आर्शीवाद देकर अपने-अपने घर जाने का तैयारी में लग गए थे। ठीक इसी बीच पंडितों से आर्शावाद ग्रहण कर राजा ने कुछ अन्न-जल ग्रहण करने की आज्ञा ले अन्‍तपुर में प्रवेश किया। राजमहल के प्रवेश द्वार पर पहुँच कर उसने अपनी गौशाला के प्रधान को बुलाकर आज्ञा दी कि सहस्त्र गोओं को स्नान कराकर तैयार कराओ और अमात्य से जाकर कहो कि उनकी सींगो में दस-दस सुवर्ण की मुद्राएँ बाँध दी जायें। मैं जब तक भीतर से भोजन कर के बाहर आ रहा हूँ तब तक यह सब प्रबंध हो जाना चाहिए । 


    थोड़ी ही देर बाद भोजन कर अन्तपुर से ज्यों ही राजा बाहर निकला त्यों ही इधर से गौशाला के अध्यक्ष ने समीप जाकर हाथ जोड़ कर निवेदन किया--महाराज की आज्ञा से एक सहस्त्र गौएं स्नान करा कर पुष्पादि अलंकरणों से सजा दी गई हैं । 


   राजा ने कहा--उनके हर एक सींगो में दस दस सुवर्ण मुद्राएँ भी बंध गई हैं न, प्रधान गोपालक ने कहा--- हाँ, महाराज, सब कुछ हो चुका है । 


   राजा ने कहा--उन्हें हकवा कर यज्ञ-मण्डप के समाीप लाकर खड़ी करो । देखना, कोई भाग न सके ऐसा प्रबन्ध करना । 


  प्रधान गोपालक ने हाथ जोड़कर कहा--जो आज्ञा महाराज । प्रसन्नचित्त राजा यज्ञ मण्डप में पहुचा, जहाँ ब्राह्मण लोग अपने- अपने आश्रमों को लौटने का तेयाराी करके उसके आने की उत्सुक प्रतीक्षा मे थे। और इधर प्रधान गोपालक भी अपने अनुचरों समेत सहस्त्र गोएँ लेकर यज्ञशाला की ओर चल पडा । गौओं को आते देख ब्राह्मणों की मंडली में एक कुतूहल और हर्ष का पारावार-सा उमड़ पड़ा । सब ने समझा कि शायद राजा हमे एक-एक गौएँ और अधिक दान करना चाहता है । 


     राजा के पहुँचते ही वहां उपस्थित सभी पंडित लोग उसे घेर कर चारों ओर से खडे हो गये, और शीघ्र अपने-अपने घर जाने की आज्ञा प्राप्त करने की, प्रतीक्षा करने लगे । 


     थोडी देर तक चुप रहने के बाद राजा ने कुछ गम्भीर स्वर में कहा-- हे पूजनीय ब्राह्मणों । आप लोगों ने इस दास के ऊपर जिस प्रकार की कृपा करके इतने दिनो तक सच्चे हृदय से यज्ञ सम्पन्न करने में सहायता पहुँचाई है, उसके लिए यह आपका चिर कृतज्ञ रहेगा। यज्ञ मे इतने दिनों तक एक साथ रहने से आप लोगों को बहुत सारे कष्ट सहन करते पड़े होंगे।  मेरे अज्ञ अनुचर आप की सेवा भी अच्छी तरह नहीं कर सके होंगे, इसके लिए आप सब मुझे हृदय से क्षमा करें । आप लोगों के समान तेजस्वी एवं विद्वान ब्राह्मणों की कुछ सेवा करने का मुझे जो यह अवसर मिला है, वह कई जन्मों के पुण्य का 'फल है । मैं अपनी खुशी का वर्णन किन शब्दों में करूं । आप सब के उपकारो से मेरे रोम-रोम बिके हुए है । 


    ब्राह्यणों की मण्डली में चारों ओर से 'साधु-साधु? की ध्वनि होने लगी । ब्राह्मणों के निर्मल हृदय में राजा जनक की इस विनीत भावना ने एक अमिट छाप छोड़ दी। सब के सब कृतज्ञता के प्रवाह में बहने- से लगे । इसी बीच प्रधान गोपालक गौओं को चारों ओर से घेर कर खडी कर चुका था ।  


     राजा ने गम्भीर भाव से एक बार गौओं की भीड़ की ओर दृष्टि डाली और फिर थोड़ी देर तक चुपचाप रहने के बाद ब्राह्मणों की ओर दाहिना हाथ उठा कर विनीत स्वर में कहा--पूज्य ब्राह्मणों । मैं चाहता हूं, कि आप सब लोगों में जो सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मनिष्ठ हों वे इन सब गौओं को हाँक कर अपने घर ले जायें। उसी सर्वश्रेष्ठ विद्वान एव महात्मा के चरणों मे भेट करने के लिए मैंने इन्हें यहाँ खड़ी कराया है । 


      राजा के इन विनत शब्दों ने ब्राह्मण-मण्डली के कोलाहल को एकदम शान्‍त कर दिया। कुछ ने स्पष्ट सुना और कुछ ने अधूरा सुन कर भी सब कुछ जान लिया । थोड़ी देर तक तो सारी भीड़ मूर्ति की तरह निशचेष्ट बनी रही, क्योंकि सभी यह जानते थे कि राजा जनक के सामने अपनी विद्वता और ब्रह्मनिष्ठा का दावा करना आसान कार्य नहीं है । थोड़ी देर बाद कुछ आचायों के शिष्यों ने अपने-अपने गुरु के कान के पास जाकर एक सहस्त्र गौओं को एक साथ पाने का लोभ फुसफुस शब्दों में प्रकट किया, पर आचार्यो की हिम्मत ने जनक के सामने अपनो विद्वता प्रकट करने की धृष्टता से साफ इनकार कर दिया। वे शीर हिला-हिला कर इधर-उधर ताकने लगे। थोड़ी देर तक इस नीरवता ने राजा जनक के उस यज्ञ मण्डप में अपना अधिकार और जमाया, जहाँ पर ञ्रभी थोड़ी देर पहले तुमूल कोलाहल मचा हुआा था । यज्ञ-कुण्ड से निकलने वाली धूम की सुगन्धित काली रेखा मानो उन सभी ब्राह्मणों की भर्त्सना करती हुई ऊपर चढ़ी जा रही थी, पर वे सब के सब चुप ही बने रहे । किसी में बोलने की हिम्मत नही आई। थोड़ी देर बाद इस नीरवता को याज्ञवलक्य के इन गम्भीर शब्दों से तोड़ दिया। समुपस्थित सभी लोगों ने उत्कंठित मन से सुना की वे अपने शिष्य को सम्बोधित कर कह रहे हैं--“प्रिय दर्शन सामश्रवा ! इन समस्त गौओं को हांक कर अपने आश्रम की ओर ले चलो । याज्ञवलक्य के मुंह से इन शब्दों के निकलने भर की देर थी कि उनके उत्साही शिष्य ने गौओं के पास पहुँच कर चारों ओर से हाँकने लगे । उस समय याज्ञवलक्य का मुखमंडल तेज से प्रदीप्त हो उठा था और उनके स्वर में धीरता एवं गाम्भीर्य का मिश्रण था । 


     ब्राह्मणों ने देखा कि वह राजा के पास पहुँच कर कह रहे थे-- 'राजन ! अब आज्ञा हो तो आश्रम को चलें क्योंकि वहाँ से आए हुए काफी दिन बीत गए, पता नहीं शिष्यों की पढ़ाई ठीक से चल रही है या नही । सभा में उत्तेजना की एक छिपी लहर-सी फैल गई, क्योंकि याज्ञवलक्य के शिष्य गौंओं को हाँक कर थोड़ी दूर निकल गए थे और इधर राजा जनक भी याज्ञवलक्य की ब्रिदाई के लिए चल पड़े थे । 


   बड़े बड़ वयोवृद्ध एवं शान्त आचार्यों ने भी याज्ञवलक्य की इस धृष्ठता ने खलबली मचा दी. पर किसी में अग्रतर बनने की क्षमता नही रही । 


    राजा जनक के प्रधान होता ऋत्विज अश्वल से नहीं रहा गया, क्योंकि उन्हें यह पता था कि भुमण्डल भर के विद्वानों में उनसे वयो- वृद्ध एवं सम्मानित दूसरा कोई नहीं था इसके अतिरिक्त अपने यजमान की दक्षिणा को एक बाहरी उद्दत युवक सर्वश्रेष्ठ विद्वान एवं ब्रह्मनिष्ठ बन कर ले जाये, यह भी मृत्यु से कम दुःखदायी नहीं है। अपयश ही तो सच्ची मृत्यु भी । इस तरह अपमानित होकर फिर से राजा जनक की आँखों में अपनी पूर्व-प्रतिष्ठा का प्राप्त करना मुश्किल था । वे एकदम विचलित से हों गए, और पीछे से याज्ञवलक्य के आगे आ कर खडे होकर रूखे रवर में बोल पड़े--“याज्ञवलक्य! क्‍या तुम्हीं हम सब में सब से बड़े विद्वान ओर ब्रह्मनिष्ठ हो, जो इन गौओं को हकाएं हुए चले जा रहे हो । 


    अश्वल के ओंठ काँप रहे थे, दिल धडक रहा था और स्वर कंठ सूख जाने के कारण फटा हुआ था । याज्ञवलक्य खडे हो गए। पाछे - पाछे चलने वाले राजा जनक भी अश्वल की ओर मुंख कर के खडे हों गए । पीछे की सारी विद्वतमंडली भी इधर-उधर खड़ी होकर उत्सुक कानों से याजवलक्य का उत्तर सुनने के लिए चुप हो गई । पर याज्ञवलक्य भी अभी चुप खडे थे । 

    फिर थोड़ी देर तक इधर-उधर देखकर याज्ञवलक्य ने मुसकराते हुए कहा--भाई । इस उपस्थित ब्राह्मण मंडली में जो सब से बड़ा विद्वान्‌ तथा ब्रह्मनिष्ठ है उसे मैं सादर नमस्कार करता हूं। आप ने यह कैसे जान लिया कि मैं सवश्रेष्ठ विद्वान ओर ब्रह्मनिष्ठ बनने की धृष्ठता कर रहा हूँ । मुझे तो इन गौओं की चाह थी, इसीलिए ले जा रहा हूं । 


      अश्वल को अपनी विद्वत्ता और ब्रह्मनिष्ठा पर अधिक भरोसा था, राजा जनक के प्रधान होता के पद पर इतने दिनों तक रह कर वे देश- देशान्तर के पंडितों पर अपनी विद्वत्ता ओर व्रह्मनिष्ठा की धाक जमा चुके थे । उद्बत याज्ञवलक्य के इस शान्त उत्तर ने भी उन्हे झकझोर दिया । अपमानित करने की भावना उनसे प्रबल रुप से जाग उठी, स्व॒र को कठोर बनाते हुए वे बोले--“याज्ञवलक्य । अपनी विद्वत्ता और ब्रह्मनिष्ठा को बिना प्रकट किए हुए तुम गौओं को हांका कर नहीं ले जा सकते । महाराज ने पहले ही यह बात प्रकट कर दी हैं। क्या तुम समझते हो कि इस में से किसी के मन में इन एक सहस्त्र सुवर्ण मंड़ित गोऔ की चाह नही है। धृष्ठता मत करो और अपने शिष्यों को रोका जब तक मेरे प्रश्न का समुचित उत्तर नहीं दे लोगे, तब तक गोओं को नहीं ले जा सकते । 


     याज्ञवलक्य ने अपने शिष्यों को गौएं खडी करने का आदेश देकर अश्वल से मुस्कुराते हुए विनीत स्वर भें कहा--भाई ! गोएँ खडी हैं । आप जो प्रश्न चाहे मुझसे कर सकते हैं । 


     अश्वल ने थोड़ी देर तक सोचा विचारा । फिर याज्ञवलक्य की ओर दाहिना हाथ उठा कर कहा--'यात्रवलक्य । क्‍या तुम यह बतला सकते हो कि किस प्रकार ये हवन करने वाले होत्री गण मृत्यु को पार कर मुक्त हो सकते हैं ? 


      'याज्ञवलक्य ने बिना रुके हुए कहा--अश्वल । चारों प्रकार के होत्रियों को उस नित्य भाव का, जो इनके कर्मों के पीछे है, ज्ञान प्राप्त करना चाहिए अर्थात्‌ उन्हें ऋचाओं का पाठ करना, छन्दों का गान करना, आहुति देना, और पूजन का काम करना चाहिए । इनकी स्थिति वाणी, प्राण, चक्षु और मन पर है । किन्तु मन से उस अनन्त का ध्यान करना चाहिए जो सब के पीछे है। उसी अनन्त को प्राप्त करने के बाद होत्री गण मृत्यु को प्राप्त कर मुक्त हो सकते हैं। केवल कर्मों से मुक्ति की प्राप्ति या मृत्यु का भय दूर नहीं हो सकता । 


     राजा जनक ने साधु? कह कर याज्ञवलक्य के उत्तर की सत्यता पर अपना मुहर लगा दी । अश्वल चुप हो गए और सारी ब्राह्मण मण्डली मे थोड़ी देर के लिए किर सन्नाटा-सा छा गया । 


     इसके बाद भीड़ को चीर कर आगे बढ़ते हुए जरत्कारु के वंशज ऋतभाग के पुत्र आर्तभाग ने राजा जनक के सामने खड़े होकर याज्ञवलक्य को सम्बोधित करते हुए कहा--“याज्ञवलक्य । मेरे प्रश्न का उत्तर दिए बिना तुम्हारी विद्वता और ब्रह्मनिष्ठा की पुष्टि नहीं हो सकती। बोलो, तैयार हो मेरे प्रश्न का उत्तर देने के लिए । 


    याज्ञवलक्य ने मुस्कराते हुए सहज स्वर में कहा--आर्तभाग । मैं आपके एक नहीं अनेक प्रश्नों का उत्तर देने के लिए तैयार हूं, आप पूछ सकते हैं । 


     आर्तभाग ने कुछ देर तक सोचने-विचारने के बाद पूछा--याज्ञवलक्य । यह तो सभी जानते हैं कि मृत्यु इस संसार में सबको खा जाती है, मगर उस मृत्यु को कोन खाता है ? 


     याज्ञवलक्य ने सहज भाव से कहा--मृत्यु अग्नि है, जो सब को जला देती है, किन्तु जिस तरह साधारण अग्नि को भी जल खा लेता है उसी तरह उस मृत्यु-अग्नि को भी शक्ति का जल खा लेता है अर्थात वह शक्ति का समुद्र जिससे सृष्टि उत्पन्न होती है उस मृत्यु का भी भक्षक हे । 


     आर्तभाग चुप हो गए । थोड़ी देर तक चुप रहे, फिर बोले---क्या मनुष्य के मरने के बाद उसकी इन्द्रियाँ उसके साथ-साथ जाती हैं ? 


'नहीं, वे तो उसके शव के साथ रह जाती हैं ।? याज्ञवलक्य ने कहा। 

आर्तभाग ने कहा--“तो फिर उसके साथ क्या जाता है ? 

“उसका नाम । याशवव्क्य ने कहा । 

   आर्तभाग ने कुछ रुष्ट होकर कहा--“याज्ञवलक्य । इतना में भी जानता हूँ, तनिक स्पष्ट करके समझाओ । मैं यह पूछ रहा हूँ कि जब मनुष्य मर जाता है और उसका शरीर तथा इन्द्रियाँ नष्ट हो जाती हैं. तब फिर उसका क्‍या बच रहता है ? 


    याज्ञवलक्य ने कहा--तात आगे ! इसकी बातचीत सबके सामने नहीं हो सकती । हम दोनों महाराज के साथ एकान्त में चले तब वहीं मैं दृष्टान्त के साथ इसका पूण उत्तर आप को दे सकुंगा, आप अगर चाहे तो विद्वतमंडली से कुछ और विद्वानों को साथ ले चल सकते हैं । 


     आर्तभाग सहमत हो गए, और राजा जनक तथा दो चार प्रमुख वयोवृद्ध मुनियों के साथ एकान्त स्थल में चले गए । वहाँ दोनो बडी देर तक शास्त्राथ करते रहे । अन्त में जो कुछ निश्चय हुआ उसका तात्पर्य यही था कि 'मानव जीवन का सर्वस्य उसका कर्म है। वही सब से प्रशस्त और पूज्य है। अच्छे कर्मों से मनुष्य अच्छा होता है और बुरे कर्मों से बुरा । मरने के बाद यही कम ही शेष रह जाते हैं । 


     उस एकान्त स्थल से वापस लौट कर आर्तभाग ने विद्वतमण्डली की ओर मुंह करके उच्च स्वर में कहा-- विद्वानों । मेरे प्रश्नों का उत्तर देकर याज्ञवलक्य ने अपनी विद्वत्ता और ब्रह्मनिष्ठा का पूर्ण परिचय दिया है। मैं तो इन्हें इन गौओं को ले जाने का अधिकारी मानता हूँ। यदि आप लोगों में से कोई इनसे कुछ पूछना चाहे तो सामने आकर पूछे । 


     तदन्तर सभा की थोड़ी देर की नीरवता को भंग करते हुए लाह्य के पुत्र भुज्यु नामक आचार्य भीड़ से बाहर आकर राजा जनक और याज्ञवलक्य के सामने खड़े हुएं। उस समय उनका मुख तेज की अधिकता से चमक रहा था और सफेद दाढ़ी छाती तक नीचे लटक कर उनकी विद्वता के साथ साथ वयोवृद्धता की भी सूचना दे रहे थी । थोड़ी देर तक याज्ञवलक्य की ओर निर्निमेष तांकने के बाद भुज्यु ने कहा-- 'याज्ञवलक्य । मैं एक बहुत छोटा-सा प्रश्न कर रहा हूँ। उसका उत्तर देने के बाद तुम मेरी दृष्टि में सबसे अधिक विद्वान आर ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध होगे । 


     याज्ञवलक्य ने कहा--भगवन्‌ । आप बड़ा से बड़ा प्रश्न कर सकते हैं, में यथामति सब का उत्तर देने के लिये तैयार हूं । 


     भुज्यु याज्ञवलक्य की विनीत दपोक्ति से पहले तो सहम गए फिर गम्भीर होकर बोले--याज्ञवलक्य । मैं यह जानना चाहता हूं, कि परीक्षित आदि नृपतिगण, जो अपने समय के बड़े दानी ओर यज्ञशील थे, मृत्यु के नाद कहाँ चलते गए ? 


     याज्ञवलक्य ने बिना रुके हुए कहा--वात भुज्यु । आप ने बहुत सुन्दर प्रश्न किया। मृत्यु के बाद परीक्षित आदि भी वहीं गए जहाँ वे सब मनुष्य जाते हैं, जो उन्हीं की तरह अश्वमेघ यज्ञ करते हैं और दान देते हैं । 


     भुज्यु ने रुष्ट स्वर से कहा- 'वह स्थान कहाँ है ' इसी एथ्वी पर या समुद्र में ? 


    याज्ञवलक्य ने कहा - वह स्थल इस पृथ्वी और समुद्र के पार है । 


    भुज्यु ने कहा--'इस पृथ्वी और समुद्र से कितने अन्तर पर वह स्थल है, उसे मै जानना चाहता हैं । 


      याज्ञवलक्य ने कद्दा--'तात भुज्यु । वह स्थल इस लोक से छुरे की तेज धार अथवा मक्खी के पंख जितने सूक्ष्म अन्तर पर है। पर उसे हम देख नही सकते । उसी स्थल पर वे सब मनुष्य भी परीक्षित आदि के साथ निवास करते है, जिन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया है और प्रचुर दक्षिणाएँ दी हैं । 


    भुज्यु ने कहा--'मै यह जानना चहेूँगा कि उन्हे वहाँ पहुँचाता कौन हैं ? 


  “वे सब वहाँ वायु द्वारा पहुँचते हैं, जिसकी सर्वत्र अवाध गति है ॥! याज्ञवलक्य ने कहा ।  राजा जनक याजवलक्य के इस उचर से पुलकित हो उठे। अपने हार्दिक हर्ष  को सूचित करते हुए बोले--'ब्रह्मनिष्ठ याज्ञवल्क्य । आपके इस समुचित उत्तर की जितनी प्रशंसा की जाये थोडी है । महात्मन्‌ । आप की विद्वत्ता सराहनीय है । 


     भुज्यु चुप हो गए और सारी ब्राह्मण मण्डली याज्ञवलक्य के तेजस्वी ललाट एवं कमल के समान प्रफुल्लित मुख मण्डल की ओर तांकने लगी । थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद भुज्यु ने भी आर्तभाग की तरह याज्ञवलक्य की विद्वत्ता और ब्रह्मनिष्ठा को विनीत शब्दों भ स्वीकारते  हुए कहा--'विद्वतमंडल । निस्सन्देह याज्ञवलक्य की विद्वतता इतनी महान्‌ है कि वह एक सहस्त्र गोओं का ले जा सकते हैं। इनसे आप सब में जिसे कुछ और पूछना हो वह सामने आकर पूछे । 


     भुज्यु के चुप होते ही चक्र के पुत्र उषस्ति, जिन्हें अपनी विद्या ओर ब्रह्मनिष्ठा पर पूरा विश्वास था, भीड़ से आगे आकर याज्ञवलक्य के सामने खड़े हो गए, और गम्भीर वाणी में बोले--याज्ञवलक्य । वह ब्रह्म या आत्मा जो सब के भीतर है और जिसको हम प्रत्यक्ष देख सके क्या है ?  


    याज्ञवलक्य ने कहा--भगवन्‌ उषस्ति । वह तुम्हारी ही आत्मा है, जो सब वस्तुओं के भीतर है। वही तुम्हारे प्राण वायु को भीतर खींचती है और अपान वायु को बाहर निकालती है। किसी वस्तु का ज्ञान केवल मन या दसों इन्द्रियों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, परन्तु इन दोनों से भी उस आत्मा को कैसे जान॑ सकते है जो सब से अधिक विचारणीय, शब्दों को ग्रहण करने वाली और समस्त ज्ञान को जानने वाली है। वह इतनी सूक्ष्म और इतनी महान है कि मन समेत इन इन्द्रियों से ग्राह्म नहीं हो पाती। वह जिस तरह तुम में प्रविष्ट है उसी तरह मन में प्रवेश किए हुए है । 


    उषस्ति चुप हो गए । और बडी देर तक चुप रहने के बाद विद्वानों को मंडली की ओर मुख कर के बोले--विद्वानों । याज्ञवलक्य सच- मुच परम विद्वान और ब्रहम प्रतिष्ठित हैं । मुझे तो इनसे अब कुछ भी नहीं पूछना है । आप लोगों मे से यदि किसी का कुछ पूछना हो ता आकर पूछ लीजिए अन्यथा 'वेकार में ढेर हो रही है । 


    थोड़ी देर तक सभी आपस में एक दूसरे का मुख देखते रहे, और फिर कुशीतक के पुत्र कहोल सब को उत्सुक बनाते हुए भीड़ से निकल कर राजा जनक और याज्ञवलक्य के सम्मुख खड़े हुए । थोडी देर तक आकाश की ओर तांकने के बाद कहोल ने कहा--“याज्ञवलक्य । तुमने जिस ब्रह्म या आत्मा के बारे मे अभी-अभी यह बतलाया है कि वही सब के भीतर प्रवेश किए हुए है और उसको मन या इन्द्रियों से प्रत्यक्ष नहीं कर सकते हैं। तो उसको हम किस तरह प्राप्त कर सकते हैं? मेरे इस प्रश्न का उत्तर देकर तुम अपनी विद्वतै और ब्रह्मनिष्ठा का सच्चा परिचय दे सकते हो । 

    याज्ञवलकय ने सहज भाव में क्हा--'तात कहोल । उस आत्मा या ब्रह्म को पाना बहुत सहज काम नहीं है। उसके लिए कोशिश करो । वह तुम्हारे भीतर ही है । उसे भूख प्यास सुख दुःख का अनुभव नहीं होता । वृद्धता और मृत्यु का भी दुख उसे नहीं होता एवं अज्ञान भी उसे नहीं घेरता । अतः उसे प्राप्त करने के लिए इन सब को छोड़ना पडता है, अर्थात्‌ सारी कामनाओ का त्याग करने के बाद ही उसकी प्राप्ति सम्भव है। सन्‍तान, धन, राज्य आदि की सारी कामनाएं एक्र ही प्रकार की होती हैं। उन सब को छोड़ कर ज्ञान और मानसिक बल की प्राप्ति होती है । मानसिक बल और ज्ञान जब कुछ स्थाथी और दृढ़ बन जाता है तब मनुष्य मुनि अर्थात्‌ संसार के सभी विषयों का विचार और मनन करने वाला होता है । उसे यह विदित हो जाता है कि यह पदार्थ विचारणीय है और यह नहीं। और इस स्थिति से पहुँच कर जब दोनों का अन्तर स्पष्टतया ज्ञात हो जाता है तब उस ब्रह्म या आत्मा की प्राप्ति होती है। उस समय मनुष्य जैसी कोशिश करता है वैसा ही बन भी जाता है ।


    निश्चल कहोल का मुख प्रसन्नता से खिल उठा, राजा जनक भी याज्ञवलक्य के इस समुचित उत्तर पर बोल पड़े--'साधु महात्मन्‌ याज्ञवलक्य ! साधु, आप जैसे विद्वान्‌ ही इस प्रकार का उत्तर देने की क्षमता रखते हैं । सारी विद्वतमंडली चुप हो गई, और याज्ञवलक्य के शिष्यों का समूह प्रसन्नता से नाच उठा । 


    इस प्रकार थोडी देर तक ब्राह्मणों की मंडली में भारी सन्नाटा छा गया। याज्ञवक्य की विद्वत्ता ने मानों सब पर जादू की लकडी फेर दी, अब उस लम्बी भीड़ में कोई कुछ बोलता था और न इधर-उधर कानाफूसी ही करता था । फिर वच्कनु की पुत्री गार्गी और अरुण के पुत्र आरुणि उद्दालक ने भी याज्ञवलक्य से अनेक गम्भीर प्रश्न किए, जो सब ब्रह्म और जीव से सम्बन्ध रखने वाले थे, परन्तु याज्ञवल्क्य ने उन सब का हंसते-हंसते ऐसा उत्तर दिया कि वे दोनों भी चुप हो गए ।  


      वच्कनु की पुत्री गार्गी की प्रतिभा और विद्वत्ता की उस समय बड़ी प्रतिष्ठा थी, उसकी वाग्मिता और तर्कशैली के सामने बडे़-बडे़ विद्वान मूक हो जाते थे। सब को आशा थी कि याज्ञवलक्य गार्गी को निरुत्तर नहीं कर सकते, किन्तु गार्गी को इस तरह चुप देख कर सब को बड़ा विस्मय हुआ । अब गार्गी के प्रशंसकों से नहीं रहा गया और वे पुन; प्रश्न करने के लिए उसे बाध्य करने लगे । थोड़ी देर तक तो वह चुप रही फिर आगे बढ़ कर उन ब्राह्मणों से बोली-- पूज्य ब्राह्मणों ! इन याज्ञवलक्य ने यद्यपि मेरे प्रथम प्रश्नों का उत्तर देकर मुझे चुप कर दिया है, किन्तु में दो अमोध प्रश्नो को अभी इनसे फिर पूछना चाहती हूँ । यदि उन दोनों प्रश्नों का उत्तर यह दे सके, तो मैं फिर यह जान लूंगी कि आप में से कोई भी इस महान्‌ पंडित एव ब्रह्मवादी को नहीं जीत सकेंगे । 


     ब्राह्मणों में से जो प्रमुख थे उन सबने एक स्वर से कहा--“गार्गी ! तुम अपने उन दोनों प्रश्नों को अवश्य पूछो । 


    गार्गी थोड़ी देर तक चुप रही फिर गम्भीर स्वर मे बोली--'हे याज्ञवलक्य । जैसे वीरपुत्र विदेहराज या काशिराज युद्धक्षेत्र में एक वार उतारी हुई डोरी वाले धनुष पर फिर से डोरी चढ़ाकर शत्रु को अत्यन्त पीड़ा पहुँचाने वाले दो बाणों का हाथ में लेकर शत्रु के सामने खड़े होते हैं उसी प्रकार दो महान्‌ प्रश्नों को लेकर मैं आपके सामने खड़ी हूँ । आप यदि सच्चे ब्रह्मवक्त्ता हैं तो इन प्रश्नों का समुचित उत्तर दे कर मुझे सन्तुष्ट करे । 


     याज्ञवलक्य ने मुसकराते हुए कहा--'गार्गी । तुम दो नहीं चार छः प्रश्न पूछ सकती हो । याज्ञवलक्य प्रश्नों से घबराने वाले नहीं हैं । 


    गार्गी कुछ सहम-सी गई । फिर वाणी को कुछ गम्भीर बनाते हुए बोली--“याज्ञवलक्य । जो इस ब्रह्माण्ड से ऊपर है ओर ब्रह्माए॒ड से नीचे भी कहा जाता है, ओर जिसमे द्यु लोक, पृथ्वी, भुत, वर्तमान, भविष्य सब ओतप्रोत हैं, वह क्या है ?  


     वह सर्वव्यापी आकाश है । सहज स्वर में याज्ञवलक्य ने कहा । इस सरल, संक्षिप्त और स्पष्ट उत्तर को सुनकर गार्गी बहुत प्रसन्न हुई । उसने कहा---'याज्ञवलक्य । आपने मेरे इस प्रश्न का जो ऐसा सरल आर स्पष्ट उत्तर दिया है उसके लिये मैं आप को नमस्कार करती हूँ । अब आप मेरे दूसरे प्रश्न के लिये तैयार हो जायें । 


याजयवलक्य ने सरलता से कहा--गार्गी । तुम पूछ सकतो हो ।” 


    गार्गी ने उसी अपने प्रश्न को और याज्ञवल्क्य के उत्तर को एक बार फिर दुहराया और उसी में तर्क करते हुए पूछा--“याज्ञवलक्य । आप कह रहे हैं कि यह चराचर जगद्रुप सूत्रात्मा तीनों कालों मे सर्वदा सर्वव्यापी एवं अन्तर्यामी आकाश में ओतप्रोत है तो मै यह जानना चाहती हूं कि वह आकाश किसमें ओतप्रोत है ? 


    याज्ञवलक्य थोड़ी देर तक चुप रहे फिर गम्भीरता पूर्वक गायों की ओर दाहिना हाथ उठाकर बोले--.गार्गी ! ब्रह्म के जाननेवाले उसको अक्षर अर्थात्‌ अविनाशी कहते हैं । वह न स्थूल है न सूक्ष्म है । न छोटा है न बड़ा है । न अग्नि की तरह लाल है न जल की तरह पतला और तरल । उसमे न छाया है न तिमिर है । नवायु है, न आकाश है वह एकदम असंग है । उसमें न रस हे न गन्ध है । आँख, कान, वाणी मन, तेज, प्राणु, मुख एवं परिमाण भी उसमे नहीं हें । न वह अन्दर है न बाहर है। वह स्वय न तो कुछ खाता है और न कोई उसे ही खा सकता है । इस प्रकार वह संसार के सभी विषयों से नितान्त रहित है। गार्गीं! उसी अक्षर की आज्ञा से सूर्य और चन्द्रमा अपने-अपने मार्ग पर नियमित रूप से स्थित हैं । ध्रु लोक ओर पृथ्वी की स्थिति भी उसी अक्षर की आज्ञा मूल कारण है। क्षण, घण्टे, दिन, महुर्त, पक्ष, महीना, ऋतु, साल, सब अपने-अपने स्थान में उसी के अनुशासन से स्थित हैं। हे गार्गी । यहीं नहीं, वह इतना महान्‌ एवं महिमामय है कि उसी के गूढ़ अनुशासन से शासित नदियाँ वर्फीलि पर्वतों से निकल कर कुछ पूर्व की ओर बहती हैं और कुछ पश्चिम की ओर । हे गागीं । उस परम नियन्ता अक्षर को बिना जाने हुए जो लोग “एक सहस्त्र वर्ष तक होम, यज्ञ अथवा तपस्या करते हैं, उनका और उन सब का का फल विनाशशील होता है । उसको बिना जाने हुए जो इस लोक से जाता है वह कभी दुःखों से छुटकारा नही पाता। और जो भली भाँति उसको जानकर इस लोक से प्रस्थान करता है वही सच्चा ब्राह्मण है । 


     “हे गागि । वह सुप्रसिद्ध अविनश्वर किसी को नही दिखाई पड़ता पर वह सब को देखता है । उसकी आवाज को कोई सुन नहीं सकता पर वह सब की आवाज सुनता है। उसे कोई जान नहीं सकता पर पह सब को जानता है। उसके सिवा इस संसार में न कोई देखने वाला है न कोई सुनने वाला, न कोई समझने वाला है, न जानने वाला । है विदुषि गार्गि । उसी अत्रर मे यह आकाश ताने-वाने की भाँति बुना हुआ है । 


    महर्षि याज्ञवल्क्य के इस विस्तृत एवं विलक्षण व्याख्यान को सुनकर गार्गी समेत सारी ब्राह्मण सभा सन्न हो गई । राजा जनक प्रसन्नता से विह्वल होकर “साधु साधु! करने लगे । थोड़ी देर बाद गार्गी गदगद कंठ से ब्राह्मणों की ओर हाथ उठाकर बोली-- है पूज्य ब्राह्मणों । इस परम विद्वान एवं ब्रह्मनिष्ठ याज्ञवलक्य को सब नमस्कार करो । इसे पराजित करने की बात कल्पना से भी परे है । 


    गार्गी की बात सुनकर सारी ब्राह्मण मण्डली अवाक्‌ रह गई । किन्तु सकल के पुत्र शाकल्य से जिनका दूसरा नाम विदग्ध भी था, नहीं रहा गया । विद्वत्ता के नाते अपने शिष्यों में उनकी खासी प्रतिष्ठा थी । भीड़ से आगे बढ़ते हुए वे बोले--'याज्ञवल्क्य ! मैं तुमसे यह पूछना चाहता हूँ कि इस संसार में” देवता कुल कितने हैं, जिनकी मनुष्य को पूजा करनी चाहिए । 


    यानवव्क्य ने कुछ असन्तुष्ट होकर कहा---“विदग्धघ इस संसार में ३२००३, ३०३, ३२३, ६, ३, २, १३ और एक देवता माने जाते हैं। किन्तु वास्तव मे देवता तो ३३ ही हैं। ३१००३ या ३०३ उनकी महिमा है । यह ३३ देवता इस प्रकार से हैं। ८ वसु गण, ११ रुद्रगण, १२ आदित्यगण, १ इन्द्र तथा १ प्रजापति। आठों वसुओं में अग्नि, पृथ्वी, सूर्य, वायु, अन्तरिक्ष, द्यौ, चन्द्रमा और नक्षत्र हैं। ग्यारह रुद्रो में दस इन्द्रियाँ (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ओर पाँच कर्मेन्द्रियाँ) और एक -मन है । बारह आदित्यों में बारह महीनों की गणना है । इन्द्र वर्षा और गर्जन का देवता है तथा प्रजापति बृद्धि का अन्य ६ देवताओं में अग्नि, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष, सूर्य और दो की गणना है। २ देवता तीनो लोक हैं, जिसमे सब देवता गण वास करते हैं, दूसरा देवता “अग्नि और प्राण हैं। १.5 देवता स्वयं प्राण एवं, जो स्वय एक पदार्थ है और आधे में सब के शरीर का अंग भी है । १ देवता वह केवल प्राण वा आत्मा है जो ब्रह्म कहा जाता है । 


   याज्ञवलक्य के विचित्र तर्कपूर्ण उत्तर को सुनकर भी विदग्घ चुप नही ह॒ए, उन्होंने जाने बूझकर परेशान करने की नीयत से कई इधर उधर के भी प्रश्न किए । याज्ञवलक्य सब का यथोचित उत्तर देते गए, पर जब उन्होंने देखा कि विदग्ध चुप होना नहीं चाहते तो अन्त मे रुष्ट होकर कहा--“विदग्ध । अब मैं तुमसे एक प्रश्न पूछना चाहता हैँ, यदि तुम इसका यथोचित्त उत्त्तर नहीं दोगे तो तुम्हारा शिर घड़ से अलग हो जायगा । 


    गौरवान्वित्त विदग्ध ने कहा--याज्ञवलक्य । तुम जैसा चाहे जैसा प्रश्न कर सकते हो । 


    याज्ञवलक्य ने कहा--“विदग्ध । जिन देवताओं के बारे में तुमने अभी पूछा है क्या बतला सकते हो कि कोई ऐसा भी पुरुष हे, जो इन देवताओं से परे है। 


    विदग्ध कोई उत्तर नही दे सके । भय के मारे उनका मुख विवर्ण हो गया, ललाट से पसीना चूते लगा ओर पैर काँपने लगे । देखते ही ही देखते विशाल ब्राह्मण मंडली के सामने विव्ग्ध का शिर नीचे गिर कर नाचने लगा और धड़ थोड़ी देर तक छट-पटाकर राजा जनक के सामने से दौडता हुआ याज्ञवलक्य के चरणों के सभीप जा कर गिर पड़ा । 


     याज्ञवलक्य के ज्ञान और तेज के इस अद्भुत चमत्कार को देख कर सारी भीड़ सहम गई । स्वयं राजा जनक भी उनके तेज से आतंकित हो गए । तदन्तर याज्ञवल्क्य ने फिर ब्राह्मणों को सबोधित कर कहा-- आप लोगों मे से कोई एक या सब मिल कर मुझसे यदि कोई प्रश्न करना चाहे तो कर सकते हैं । किन्तु किसी को याशवल्क्य से प्रश्न करने का साहस नही हुश्रा। चारों ओर से याज्ञवलक्य की जय जय कार की ध्वनि होने लगी । उन का मुख मण्डल तेज की अधिकता से ज्येष्ठ के सूर्य की भाँति प्रदीत्त हो उठा । उधर गार्गी का चेहरा भी प्रसन्नता से खिल उठा । 


     तदनन्तर राजा जनक ने महर्षि याज्ञवलक्य की बड़ी प्रशंसा की और बड़े आदर सत्कार के साथ उन्हें और अधिक दक्षिणा देकर सम्मान के साथ विदा किया। सभी विद्वान्‌ ऋषि मुनि एवं महात्मा जन भी याज्ञवलक्य की विद्वत्ता तथा ब्रह्मनिष्ठा की प्रशंसा करते हुए अपने- अपने शिष्यों के साथ आश्रम को पघारें। अभागे विदग्ध के शिर और घड़ को लेकर उनके शिष्यों ने अन्तिम संस्कार सम्पन्न किया और फिर शुद्ध मन से याज्ञवलक्य के पास ज़ाकर उनकी शिष्यता ग्रहण करने का विचार पक्का किया ।



वृह्ददारण्यक उपनिषद्‌ से 


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