ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - अग्न्यादियुक्ता आत्मा देवता छन्दः - भुरिगष्टिः स्वरः - मध्यमः
अ॒ग्निश्च॑ म॒ऽआप॑श्च मे वी॒रुध॑श्च म॒ऽओष॑धयश्च मे कृष्टप॒च्याश्च॑ मेऽकृष्टप॒च्याश्च॑ मे ग्रा॒म्याश्च॑ मे प॒शव॑ऽआर॒ण्याश्च॑ मे वि॒त्तञ्च॑ मे॒ वित्ति॑श्च मे भू॒तञ्च॑ मे॒ भूति॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥१४॥
पद पाठ
अ॒ग्निः। च॒। मे॒। आपः॑। च॒। मे॒। वी॒रुधः॑। च॒। मे॒। ओष॑धयः। च॒। मे॒। कृ॒ष्ट॒प॒च्याः इति॑ कृष्टऽप॒च्याः। च॒। मे॒। अ॒कृ॒ष्ट॒प॒च्या इत्य॑कृष्टऽप॒च्याः। च॒। मे॒। ग्रा॒म्याः। च॒। मे॒। प॒शवः॑। आ॒र॒ण्याः। च॒। मे॒। वि॒त्तम्। च॒। मे॒। वित्तिः॑। च॒। मे॒। भू॒तम्। च॒। मे॒। भूतिः॑। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥१४ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(मे) मेरा (अग्निः) अग्नि (च) और बिजुली आदि (मे) मेरे (आपः) जल (च) और जल में होने वाले रत्न मोती आदि (मे) मेरे (वीरुधः) लता गुच्छा (च) और शाक आदि (मे) मेरी (ओषधयः) सोमलता आदि ओषधि (च) और फल-पुष्पादि (मे) मेरे (कृष्टपच्याः) खेतों में पकते हुए अन्न आदि (च) और उत्तम अन्न (मे) मेरे (अकृष्टपच्याः) जो जङ्गल में पकते हैं, वे अन्न (च) और जो पर्वत आदि स्थानों में पकने योग्य हैं, वे अन्न (मे) मेरे (ग्राम्याः) गांव मे हुए गौ आदि (च) और नगर में ठहरे हुए तथा (मे) मेरे (आरण्याः) वन में होने हारे मृग आदि (च) और सिंह आदि (पशवः) पशु (मे) मेरा (वित्तम्) पाया हुआ पदार्थ (च) और सब धन (मे) मेरी (वित्तिः) प्राप्ति (च) और पाने योग्य (मे) मेरा (भूतम्) रूप (च) और नाना प्रकार का पदार्थ तथा (मे) मेरा (भूतिः) ऐश्वर्य (च) और उस का साधन ये सब पदार्थ (यज्ञेन) मेल करने योग्य शिल्प विद्या से (कल्पन्ताम्) समर्थ हों॥१४॥
भावार्थ - जो मनुष्य अग्नि आदि की विद्या से सङ्गति करने योग्य शिल्पविद्या रूप यज्ञ को सिद्ध करते हैं, वे ऐश्वर्य को प्राप्त होते हैं॥१४॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - धनादियुक्ता आत्मा देवता छन्दः - विराडार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
वसु॑ चे मे वस॒तिश्च॑ मे॒ कर्म॑ च मे॒ शक्ति॑श्च॒ मेऽर्थ॑श्च म॒ऽएम॑श्च मऽइ॒त्या च॑ मे॒ गति॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥१५॥
पद पाठ
वसु॑। च॒। मे॒। व॒स॒तिः। च॒। मे॒। कर्म॑। च॒। मे॒। शक्तिः॑। च॒। मे॒। अर्थः॑। च॒। मे॒। एमः॑। च॒। मे॒। इ॒त्या। च॒। मे॒। गतिः॑। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥१५ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(मे) मेरा (वसु) वस्तु (च) और प्रिय पदार्थ वा पियारा काम (मे) मेरी (वसतिः) जिसमें वसते हैं, वह वस्ती (च) और भृत्य (मे) मेरा (कर्म) काम (च) और करने वाला (मे) मेरा (शक्तिः) सामर्थ्य (च) और प्रेम (मे) मेरा (अर्थः) सब पदार्थों को इकट्ठा करना (च) और इकट्ठा करने वाला (मे) मेरा (एमः) अच्छा यत्न (च) और बुद्धि (मे) मेरी (इत्या) वह रीति जिससे व्यवहारों को जानता हूं (च) और युक्ति तथा (मे) मेरी (गतिः) चाल (च) और उछलना आदि क्रिया ये सब पदार्थ (यज्ञेन) पुरुषार्थ के अनुष्ठान से (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें॥१५॥
भावार्थ - हे मनुष्यो! जो मनुष्य अपना समस्त सामर्थ्य आदि सबके हित के लिये ही करते हैं, वे ही प्रशंसायुक्त होते हैं॥१५॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - अग्नदिविद्याविदात्मा देवता छन्दः - निचृदतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः
अ॒ग्निश्च॑ म॒ऽइन्द्र॑श्च मे॒ सोम॑श्च म॒ऽइ॒न्द्र॑श्च मे सवि॒ता च॑ म॒ऽइन्द्र॑श्च मे॒ सर॑स्वती च म॒ऽइन्द्र॑श्च मे पू॒षा च॑ म॒ऽइन्द्र॑श्च मे॒ बृह॒स्पति॑श्च म॒ऽइन्द्र॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥१६॥
पद पाठ
अ॒ग्निः। च॒। मे॒। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। सोमः॑। च॒। मे॒। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। स॒वि॒ता। च॒। मे॒। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। सर॑स्वती। च॒। मे॒। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। पू॒षा। च॒। मे॒। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। बृह॒स्पतिः॑। च॒। मे॒। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥१६ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(मे) मेरा (अग्निः) प्रसिद्ध सूर्यरूप अग्नि (च) और पृथिवी पर मिलने वाला भौतिक (मे) मेरा (इन्द्रः) बिजुलीरूप अग्नि (च) तथा पवन (मे) मेरा (सोमः) शन्तिगुण वाला पदार्थ वा मनुष्य (च) और वर्षा मेघ जल (मे) मेरा (इन्द्रः) अन्याय को दूर करने वाला सभापति (च) और सभासद् (मे) मेरा (सविता) ऐश्वर्ययुक्त काम (च) और इसके साधन (मे) मेरा (इन्द्रः) समस्त अविद्या का नाश करने वाला अध्यापक (च) और विद्यार्थी (मे) मेरा (सरस्वती) प्रशंसित बोध वा शिक्षा से भरी हुई वाणी (च) और सत्य बोलने वाला (मे) मेरा (इन्द्रः) विद्यार्थी की जड़ता का विनाश करने वाला उपदेशक (च) और सुनने वाले (मे) मेरा (पूषा) पुष्टि करने वाला (च) और योग्य आहार=भोजन, विहार=सोना आदि (मे) मेरा जो (इन्द्रः) पुष्टि करने की विद्या में रम रहा है, वह (च) और वैद्य (मे) मेरा (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े व्यवहारों की रक्षा करने वाला (च) और राजा तथा (मे) मेरा (इन्द्रः) समस्त ऐश्वर्य का बढ़ाने वाला उद्योगी (च) और सेनापति ये सब (यज्ञेन) विद्या और ऐश्वर्य की उन्नति करने से (कल्पन्ताम्) समर्थ हों॥१६॥
भावार्थ - हे मनुष्यो! तुम लोगों को अच्छे विचार से अपने सब पदार्थ उत्तमों का पालन करने और दुष्टों को शिक्षा देने के लिये निरन्तर युक्त करने चाहिये॥१६॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - मित्रश्वर्य्यसहित आत्मा देवता छन्दः - स्वराट् शक्वरी स्वरः - धैवतः
मि॒त्रश्च॑ म॒ऽइन्द्र॑श्च मे॒ वरु॑णश्च म॒ऽइन्द्र॑श्च मे धा॒ता च॑ म॒ऽइन्द्र॑श्च मे॒ त्वष्टा॑ च म॒ऽइन्द्र॑श्च मे म॒रुत॑श्च म॒ऽइन्द्र॑श्च मे विश्वे॑ च मे दे॒वाऽइन्द्र॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥१७॥
पद पाठ
मि॒त्रः। च॒। मे॒। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। वरु॑णः। च॒। मे। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। धा॒ता। च॒। मे॒। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। त्वष्टा॑। च॒। मे॒। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। म॒रुतः। च॒। मे॒। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। विश्वेः॑। च॒। मे॒। दे॒वाः। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥१७ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(मे) मेरा (मित्रः) प्राण अर्थात् हृदय में रहने वाला पवन (च) और समान नाभिस्थ पवन (मे) मेरा (इन्द्रः) बिजुलीरूप अग्नि (च) और तेज (मे) मेरा (वरुणः) उदान अर्थात् कण्ठ मे रहने वाला पवन (च) और समस्त शरीर में विचरने हारा पवन (मे) मेरा (इन्द्रः) सूर्य (च) और धारणाकर्षण (मे) मेरा (धाता) धारण करनेहारा (च) और धीरज (मे) मेरा (इन्द्रः) परम ऐश्वर्य का प्राप्त कराने वाला (च) और न्याययुक्त पुरुषार्थ (मे) मेरा (त्वष्टा) पदार्थों को छिन्न-भिन्न करने वाला अग्नि (च) और शिल्प अर्थात् कारीगरी (मे) मेरा (इन्द्रः) शत्रुओं को विदीर्ण करनेहारा राजा (च) तथा कारीगरी (मे) मेरे (मरुतः) इस ब्रह्माण्ड में रहने वाले अन्य पवन (च) और शरीर के धातु (मे) मेरी (इन्द्रः) सर्वत्र व्यापक बिजुली (च) और उसका काम (मे) मेरे (विश्वे) समस्त पदार्थ (च) और सर्वस्व (देवाः) उत्तम गुणयुक्त पृथिवी आदि (मे) मेरे लिये (इन्द्रः) परम ऐश्वर्य का दाता (च) और उसका उपयोग ये सब (यज्ञेन) पवन की विद्या के विधान करने से (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें॥१७॥
भावार्थ - मनुष्य प्राण और बिजुली की विद्या को जान और इनकी सब जगह सब ओर से व्याप्ति को जानकर अपने बहुत [दीर्घ] जीवन को सिद्ध करें॥१७॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - राज्यैश्वर्यादियुक्तात्मा देवता छन्दः - भुरिक् शक्वरी स्वरः - धैवतः
पृ॒थि॒वी च॑ म॒ऽइन्द्र॑श्च मे॒ऽन्तरि॑क्षं च म॒ऽइन्द्र॑श्च मे॒ द्यौश्च॑ म॒ऽइन्द्र॑श्च मे॒ समा॑श्च म॒ऽइन्द्र॑श्च मे॒ नक्ष॑त्राणि च म॒ऽइन्द्र॑श्च मे॒ दिश॑श्च म॒ऽइन्द्र॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥१८॥
पद पाठ
पृ॒थि॒वी। च॒। मे॒। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। च॒। मे॒। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। द्यौः। च॒। मे॒। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। समाः॑। च॒। मे॒। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। नक्ष॑त्राणि। च॒। मे॒। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। दिशः॑। च॒। मे॒। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥१८ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(मे) मेरी (पृथिवी) विस्तारयुक्त भूमि (च) और उसमें स्थित जो पदार्थ (मे) मेरी (इन्द्रः) बिजुलीरूप क्रिया (च) और बल देने वाली व्यायाम आदि क्रिया (मे) मेरा (अन्तरिक्षम्) विनाशरहित आकाश (च) और आकाश में ठहरे हुए सब पदार्थ (मे) मेरा (इन्द्रः) समस्त ऐश्वर्य का आधार (च) और उस का करना (मे) मेरी (द्यौः) प्रकाश के काम कराने वाली विद्या (च) और उसके सिद्ध कराने वाले पदार्थ (मे) मेरा (इन्द्रः) सब पदार्थों को छिन्न-भिन्न करने वाला सूर्य आदि (च) और छिन्न-भिन्न करने योग्य पदार्थ (मे) मेरी (समाः) वर्ष (च) और क्षण, पल, विपल, घटी, मुहूर्त, दिन आदि (मे) मेरा (इन्द्रः) समय के ज्ञान का निमित्त (च) और गणितविद्या (मे) मेरे (नक्षत्राणि) नक्षत्र अर्थात् जो कारण रूप से स्थिर रहते, किन्तु नष्ट नहीं होते, वे लोक (च) और उनके साथ सम्बन्ध रखने वाले प्राणी आदि (मे) मेरी (इन्द्रः) लोक-लोकान्तरों में स्थित होने वाली बिजुली (च) और बिजुली के संयोग करते हुए उन लोकों में रहने वाले पदार्थ (मे) मेरी (दिशः) पूर्व आदि दिशा (च) और उनमें ठहरी हुई वस्तु तथा (मे) मेरा (इन्द्रः) दिशाओं के ज्ञान का देने वाला (च) और ध्रुव का तारा ये सब पदार्थ (यज्ञेन) पृथिवी और समय के विशेष ज्ञान देने वाले काम से (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें॥१८॥
भावार्थ - मनुष्य लोग पृथिवी आदि पदार्थों और उनमें ठहरी हुई बिजुली आदि को जब तक नहीं जानते, तब तक ऐश्वर्य को नहीं प्राप्त होते॥१८॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - पदार्थविदात्मा देवता छन्दः - निचृदत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः
अ॒ꣳशुश्च॑ मे र॒श्मिश्च॒ मेऽदा॑भ्यश्च॒ मेऽधि॑पतिश्च मऽउपा॒शुश्च॑ मेऽन्तर्या॒मश्च॑ मऽऐन्द्रवाय॒वश्च॑ मे मैत्रावरु॒णश्च॑ मऽआश्वि॒नश्च॑ मे प्रतिप्र॒स्थान॑श्च मे शु॒क्रश्च॑ मे म॒न्थी च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पताम्॥१९॥
पद पाठ
अ॒ꣳशुः। च॒। मे॒। र॒श्मिः। च॒। मे॒। अदा॑भ्यः। च॒। मे॒। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। च॒। मे॒। उ॒पा॒अ॒शुरित्यु॑पऽ अ॒ꣳशुः। च॒। मे॒। अ॒न्त॒र्या॒म इत्य॑न्तःऽया॒मः। च॒। मे॒। ऐ॒न्द्र॒वा॒य॒वः। च॒। मे॒। मै॒त्रा॒व॒रु॒णः। च॒। मे॒। आ॒श्वि॒नः। च॒। मे॒। प्र॒ति॒प्र॒स्थान॒ इति॑ प्रतिऽप्र॒स्थानः॑। च॒। मे॒। शु॒क्रः। च॒। मे॒। म॒न्थी। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥१९ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(मे) मेरा (अंशु) व्याप्ति वाला सूर्य (च) और उसका प्रताप (मे) मेरा (रश्मिः) भोजन करने का व्यवहार (च) और अनेक प्रकार का भोजन (मे) मेरा (अदाभ्यः) विनाश रहित (च) और रक्षा करने वाला (मे) मेरा (अधिपतिः) स्वामी (च) और जिसमें स्थिर हो वह स्थान (मे) मेरा (उपांशुः) मन में जप का करना (च) और एकान्त का विचार (मे) मेरा (अन्तर्यामः) मध्य में जाने वाला पवन (च) और बल (मे) मेरा (ऐन्द्रवायवः) बिजुली और पवन के साथ सम्बन्ध करने वाला काम (च) और जल (मे) मेरा (मैत्रावरुणः) प्राण और उदान के साथ चलनेहारा वायु (च) और व्यान पवन (मे) मेरा (आश्विनः) सूर्य चन्द्रमा के बीच में रहने वाला तेज (च) और प्रभाव (मे) मेरा (प्रतिस्थापनः) चलने-चलने के प्रति वर्त्ताव रखने वाला (च) भ्रमण (मे) मेरा (शुक्रः) शुद्धस्वरूप (च) और वीर्य करने वाला तथा (मे) मेरा (मन्थी) विलोने के स्वभाव वाला (च) और दूध वा काष्ठ आदि ये सब पदार्थ (यज्ञेन) अग्नि के उपयोग से (कल्पन्ताम्) समर्थ हों॥१९॥
भावार्थ - जो मनुष्य सूर्यप्रकाशादिकों से भी उपकारों को लेवें तो विद्वान् होकर क्रिया की चतुराई को क्यों न पावें॥१९॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - यज्ञानुष्टानात्मा देवता छन्दः - स्वराडतिधृतिः स्वरः - षड्जः
आ॒ग्र॒य॒णश्च॑ मे वैश्वदे॒वश्च॑ मे ध्रु॒वश्च॑ मे वैश्वान॒रश्च॑ मऽऐन्द्रा॒ग्नश्च॑ मे म॒हावै॑श्वदेवश्च मे मरुत्व॒तीया॑श्च मे॒ निष्के॑वल्यश्च मे सावि॒त्रश्च॑ मे सारस्व॒तश्च॑ मे पात्नीव॒तश्च॑ मे हारियोज॒नश्च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥२०॥
पद पाठ
आ॒ग्र॒य॒णः। च॒। मे॒। वै॒श्व॒दे॒व इति॑ वैश्वऽदे॒वः। च॒। मे॒। ध्रु॒वः। च॒। मे॒। वै॒श्वा॒न॒रः। च॒। मे॒। ऐ॒न्द्रा॒ग्नः। च॒। मे॒। म॒हावै॑श्वदेव॒ इति॑ म॒हाऽवै॑श्वदेवः। च॒। मे॒। म॒रु॒त्व॒तीयाः॑। च॒। मे॒। निष्के॑वल्यः। निःके॑वल्य॒ इति॒ निःऽके॑वल्यः। च॒। मे॒। सा॒वि॒त्रः। च॒। मे॒। सा॒र॒स्व॒तः। च॒। मे॒। पा॒त्नी॒व॒त इति॑ पात्नीऽव॒तः। च॒। मे॒। हा॒रि॒यो॒ज॒न इति॑ हारिऽयोज॒नः। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥२० ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(मे) मेरा (आग्रयणः) अगहन आदि महीनों में सिद्ध हुआ यज्ञ (च) और इसकी सामग्री (मे) मेरा (वैश्वदेवः) समस्त विद्वानों से सम्बन्ध करने वाला विचार (च) और इसका फल (मे) मेरा (ध्रुवः) निश्चल व्यवहार (च) और इसके साधन (मे) मेरा (वैश्वानरः) सब मनुष्यों का सत्कार (च) तथा सत्कार करने वाला (मे) मेरा (ऐन्द्राग्नः) पवन और बिजुली से सिद्ध काम (च) और इसके साधन (मे) मेरा (महावैश्वदेवः) समस्त बड़े लोगों का यह व्यवहार (च) इनके साधन (मे) मेरे (मरुत्वतीयाः) पवनों का सम्बन्ध करनेहारे व्यवहार (च) तथा इनका फल (मे) मेरा (निष्केवल्यः) निरन्तर केवल सुख हो जिसमें वह काम (च) और इसके साधन (मे) मेरा (सावित्रः) सूर्य का यह प्रभाव (च) और इससे उपकार (मे) मेरा (सारस्वतः) वाणी सम्बन्धी व्यवहार (च) और इनका फल (मे) मेरा (पात्नीवतः) प्रशंसित यज्ञसम्बन्धिनी स्त्री वाले का काम (च) इसके साधन (मे) मेरा (हारियोजनः) घोड़ों को रथ में जोड़ने वाले का यह आरम्भ (च) इसकी सामग्री (यज्ञेन) पदार्थों के मेल करने से (कल्पन्ताम्) समर्थ हों॥२०॥
भावार्थ - जो मनुष्य कार्यकाल की क्रिया और विद्वानों के सङ्ग का आश्रय लेकर विवाहित स्त्री का नियम किये हों, वे पदार्थविद्या को क्यों न जानें॥२०॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - याङ्गवानात्मा देवताः छन्दः - विराड्धृतिः स्वरः - ऋषभः
स्रुच॑श्च मे चम॒साश्च॑ मे वाय॒व्यानि च मे द्रोणकल॒शश्च॑ मे॒ ग्रावा॑णश्च मेऽधि॒षव॑णे च मे पू॒त॒भृच्च॑ मऽआधव॒नीय॑श्च मे॒ वेदि॑श्च मे ब॒र्हिश्च॑ मेऽवभृ॒थश्च॑ मे स्वगाका॒रश्च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥२१॥
पद पाठ
स्रुचः॑। च॒। मे॒। च॒म॒साः। च॒। मे॒। वा॒य॒व्या᳖नि। च॒। मे॒। द्रो॒ण॒क॒ल॒श इति॑ द्रोणऽकल॒शः। च॒। मे॒। ग्रावा॑णः। च॒। मे॒। अ॒धि॒षव॑णे। अ॒धि॒सव॑ने॒ इत्य॑धि॒ऽसव॑ने। च॒। मे॒। पू॒त॒भृदिति॑ पूत॒ऽभृत्। च॒। मे॒। आ॒ध॒व॒नीय॒ इत्या॑ऽधव॒नीयः॑। च॒। मे॒। वेदिः॑। च॒। मे॒। ब॒र्हिः। च॒। मे॒। अ॒व॒भृ॒थ इत्य॑वऽभृ॒थः। च॒। मे॒। स्व॒गा॒का॒र इति॑ स्वगाऽका॒रः च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥२१ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(मे) मेरे (स्रुचः) स्रुवा आदि (च) और उनकी शुद्धि (मे) मेरे (चमसाः) यज्ञ वा पाक बनाने के पात्र (च) और उनके पदार्थ (मे) मेरे (वायव्यानि) पवनों में अच्छे पदार्थ (च) और पवनों की शुद्धि करने वाले काम (मे) मेरा (द्रोणकलशः) यज्ञ की क्रिया का कलश (च) और विशेष परिमाण (मे) मेरे (ग्रावाणः) शिलबट्टा आदि पत्थर (च) और उखली-मूसल (मे) मेरे (अधिवषणे) सोमवल्ली आदि ओषधि जिनसे कूटी पीसी जावे, वे साधन (च) और कूटना-पीसना (मे) मेरा (पूतभृत्) पवित्रता जिससे मिलती हो, वह सूप आदि (च) और बुहारी आदि (मे) मेरा (आधवनीयः) अच्छे प्रकार धोने आदि का पात्र (च) और नलिका आदि यन्त्र अर्थात् जिस नली नरकुल की चोगी आदि से तारागणों को देखते हैं, वह (मे) मेरी (वेदिः) होम करने की वेदि (च) और चौकाना आदि (मे) मेरा (बर्हिः) समीप में वृद्धि देने वाला वा कुशसमूह (च) और जो यज्ञसमय के योग्य पदार्थ (मे) मेरा (अवभृथः) यज्ञसमाप्ति समय का स्नान (च) और चन्दन आदि का अनुलेपन करना तथा (मे) मेरा (स्वगाकारः) जिससे अपने पदार्थों को प्राप्त होते हैं, उस कर्म को जो करे वह (च) और पदार्थ को पवित्र करना ये सब (यज्ञेन) होम करने की क्रिया से (कल्पन्ताम्) समर्थ हों॥२१॥
भावार्थ - वे ही मनुष्य यज्ञ करने को समर्थ होते हैं जो साधन उपसाधनरूप यज्ञ के सिद्ध करने की सामग्री को पूरी करते हैं॥२१॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - यज्ञवानात्मा देवता छन्दः - भुरिक् शक्वरी स्वरः - धैवतः
अ॒ग्निश्च॑ मे घ॒र्मश्च॑ मे॒ऽर्कश्च॑ मे॒ सूर्य॑श्च मे प्रा॒णश्च॑ मेऽश्वमे॒धश्च॑ मे पृथि॒वी च॒ मेऽदि॑तिश्च मे॒ दिति॑श्च मे॒ द्यौश्च॑ मे॒ऽङ्गुल॑यः॒ शक्व॑रयो॒ दिश॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥२२॥
पद पाठ
अ॒ग्निः। च॒। मे॒। घ॒र्मः। च॒। मे॒। अ॒र्कः। च॒। मे॒। सूर्यः। च॒। मे॒। प्रा॒णः। च॒। मे॒। अ॒श्व॒मे॒धः। च॒। मे॒। पृ॒थि॒वी। च॒। मे॒। अदि॑तिः। च॒। मे॒। दितिः॑। च॒। मे॒। द्यौः। च॒। मे॒। अ॒ङ्गुल॑यः। शक्व॑रयः। दिशः॑। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥२२ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(मे) मेरे (अग्निः) आग (च) और उस का काम में लाना (मे) मेरा (घर्मः) घाम (च) और शान्ति (मे) मेरी (अर्कः) सत्कार करने योग्य विशेष सामग्री (च) और उसकी शुद्धि करने का व्यवहार (मे) मेरा (सूर्यः) सूर्य (च) और जीविका का हेतु (मे) मेरा (प्राणः) जीवन का हेतु वायु (च) और बाहर का पवन (मे) मेरे (अश्वमेधः) राज्यदेश (च) और राजनीति (मे) मेरी (पृथिवी) भूमि (च) और इसमें स्थिर सब पदार्थ (मे) मेरी (अदितिः) अखण्ड नीति (च) और इन्द्रियों को वश में रखना (मे) मेरी (दितिः) खण्डित सामग्री (च) और अनित्य जीवन वा शरीर आदि (मे) मेरे (द्यौः) धर्म का प्रकाश (च) और दिन-रात (मे) मेरी (अङ्गुलयः) अंगुली (शक्वरयः) शक्ति (दिशः) पूर्व, उत्तर, पश्चिम, दक्षिण दिशा (च) और ईशान, वायव्य, नैर्ऋत्य, आग्नेय उपदिशा ये सब (यज्ञेन) मेल करने योग्य परमात्मा से (कल्पन्ताम्) समर्थ हों॥२२॥
भावार्थ - जो प्राणियों के सुख के लिये यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, वे महाशय होते हैं, ऐसा जानना चाहिये॥२२॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - कालविद्याविदात्मा देवता छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
व्र॒तं च॑ मऽऋ॒तव॑श्च मे॒ तप॑श्च मे संवत्स॒रश्च॑ मेऽहोरा॒त्रेऽऊ॑र्वष्ठी॒वे बृ॑हद्रथन्त॒रे च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥२३॥
स्वर सहित पद पाठ
व्र॒तम्। च॒। मे॒। ऋ॒तवः॑। च॒। मे॒। तपः॑। च॒। मे॒। सं॒व॒त्स॒रः। च॒। मे॒। अ॒हो॒रा॒त्रे इत्य॑होरा॒त्रे। ऊ॒र्व॒ष्ठी॒वेऽइत्यू॑र्वष्ठी॒वे। बृ॒ह॒द्र॒थ॒न्त॒रे इति॑ बृहत्ऽरथन्त॒रे। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥२३ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(मे) मेरे (व्रतम्) सत्य आचरण के नियम की पालना (च) और सत्य कहना और सत्य उपदेश (मे) मेरे (ऋतवः) वसन्त आदि ऋतु (च) और उत्तरायण दक्षिणायन (मे) मेरा (तपः) प्राणायाम तथा धर्म का आचरण (च) शीत उष्ण आदि का सहना (मे) मेरा (संवत्सरः) साल (च) तथा कल्प, महाकल्प आदि (मे) मेरे (अहोरात्रे) दिन-रात (ऊर्वष्ठीवे) जङ्घा और घोंटू (बृहद्रथन्तरे) बड़ा पदार्थ, अत्यन्त सुन्दर रथ तथा (च) घोड़े वा बैल (यज्ञेन) धर्मज्ञान आदि के आचरण और कालचक्र के भ्रमण के अनुष्ठान से (कल्पन्ताम्) समर्थ हों॥२३॥
भावार्थ - जो पुरुष नियम किये हुए समय में काम और निरन्तर धर्म का आचरण करते हैं, वे चाही हुई सिद्धि को पाते हैं॥२३॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - विषमाङ्कगणितविद्याविदात्मा देवता छन्दः - संकृतिः, विराट् संकृतिः स्वरः - गान्धारः
एका॑ च मे ति॒स्रश्च॑ मे ति॒स्रश्च॑ मे॒ पञ्च॑ च मे॒ पञ्च॑ च मे स॒प्त च॑ मे स॒प्त च॑ मे॒ नव॑ च मे॒ नव॑ च म॒ऽएका॑दश च म॒ऽएका॑दश च मे॒ त्रयो॑दश च मे॒ त्रयो॑दश च मे॒ पञ्च॑दश च मे॒ पञ्च॑दश॒ च मे स॒प्तद॑श च मे स॒प्तद॑श च मे॒ नव॑दश च मे॒ नव॑दश च मऽएक॑विꣳशतिश्च म॒ऽएक॑विꣳशतिश्च मे॒ त्रयो॑विꣳशतिश्च मे त्रयो॑विꣳशतिश्च मे॒ पञ्च॑विꣳशतिश्च मे॒ पञ्च॑विꣳशतिश्च मे स॒प्तवि॑ꣳशतिश्च मे स॒प्तवि॑ꣳशतिश्च मे॒ नव॑विꣳशतिश्च मे॒ नव॑विꣳशतिश्च म॒ऽएक॑त्रिꣳशच्च म॒ऽएक॑त्रिꣳशच्च मे॒ त्रय॑स्त्रिꣳशच्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥२४॥
पद पाठ
एका॑। च॒। मे॒। ति॒स्रः। च॒। मे॒। ति॒स्रः। च॒। मे॒। पञ्च॑। च॒। मे॒। पञ्च॑। च॒। मे॒। स॒प्त। च॒। मे॒। स॒प्त। च॒। मे। नव॑। च॒। मे॒। नव॑। च॒। मे॒। एका॑दश। च॒। मे॒। एका॑दश। च॒। मे॒। त्रयो॑द॒शेति॒ त्रयः॑ऽदश। च॒। मे॒। त्रयो॑द॒शेति॒ त्रयः॑ऽदशः। च॒। मे॒। पञ्च॑द॒शेति॒ पञ्च॑ऽदश। च॒। मे॒। पञ्च॑द॒शेति॒ पञ्च॑दश। च॒। मे॒। स॒प्तद॒शेति॒ स॒प्तऽद॑श। च॒। मे॒। स॒प्तद॒शेति॒ स॒प्तऽद॑श। च॒। मे॒ नव॑द॒शेति॒ नव॑ऽदश। च॒। मे॒। नव॑द॒शेति॒ नव॑ऽदश। च॒। मे॒। एक॑विꣳशति॒रित्येक॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। एक॑विꣳशति॒रित्येक॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। त्रयो॑विꣳशति॒रिति॒ त्रयः॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। त्रयो॑विꣳशति॒रिति॒ त्रयः॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। पञ्च॑विꣳशति॒रिति॒ पञ्च॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। पञ्च॑विऽꣳशतिरिति॒ पञ्च॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। स॒प्तवि॑ꣳशति॒रिति॑ स॒प्तऽवि॑ꣳशतिः। च॒। मे॒। स॒प्तवि॑ꣳशति॒रिति॑ स॒प्तऽवि॑ꣳशतिः। च॒। मे॒। नव॑विꣳशति॒रिति॒ नव॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। नव॑विꣳशति॒रिति॒ नव॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। एक॑त्रिꣳश॒दित्येक॑ऽत्रिꣳशत्। च॒। मे॒। एक॑त्रिꣳश॒दित्येक॑ऽत्रिꣳशत्। च॒। मे॒। त्रय॑स्त्रिꣳश॒दिति॒ त्रयः॑ऽत्रिꣳशत्। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥२४ ॥
विषय - अब गणितविद्याया के मूल का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ -
(यज्ञेन) मेल करने अर्थात् योग करने से (मे) मेरी (एका) एक संख्या (च) और दो (मे) मेरी (तिस्रः) तीन संख्या (च) फिर (मे) मेरी (तिस्रः) तीन (च) और दो (मे) मेरी (पञ्च) पांच (च) फिर (मे) मेरी (पञ्च) पांच (च) और दो (मे) मेरी (सप्त) सात (च) फिर (मे) मेरी (सप्त) सात (च) और दो (मे) मेरी (नव) नौ (च) फिर (मे) मेरी (नव) नौ (च) और दो (मे) मेरी (एकादश) ग्यारह (च) फिर (मे) मेरी (मे) मेरी (एकादश) ग्यारह (च) और दो (मे) मेरी (त्रयोदश) तेरह (च) फिर (मे) मेरी (त्रयोदश) तेरह (च) और दो (मे) मेरी (पञ्चदश) पन्द्रह (च) फिर (मे) मेरी (पञ्चदश) पन्द्रह (च) और दो (मे) मेरी (सप्तदश) सत्रह (च) फिर (मे) मेरी (सप्तदश) सत्रह (च) और दो (मे) मेरी (नवदश) उन्नीस (च) फिर (नवदश) उन्नीस (च) और दो (मे) मेरी (एकविंशतिः) इक्कीस (च) फिर (मे) मेरी (एकविंशतिः) इक्कीस (च) और दो (मे) मेरी (त्रयोविंशतिः) तेईस (च) फिर (मे) मेरी (त्रयोविंशतिः) तेईस (च) और दो (मे) मेरी (पञ्चविंशतिः) पच्चीस (च) फिर (मे) मेरी (पञ्चविंशतिः) पच्चीस (च) और दो (मे) मेरी (सप्तविंशतिः) सत्ताईस (च) फिर (मे) मेरी (सप्तविंशतिः) सत्ताईस (च) और दो (मे) मेरी (नवविंशतिः) उनतीस (च) फिर (मे) मेरी (नवविंशतिः) उनतीस (च) और दो (मे) मेरी (एकत्रिंशत्) इकतीस (च) फिर (मे) मेरी (एकत्रिंशत्) इकतीस (च) और दो (मे) मेरी (त्रयस्त्रिंशत्) तेंतीस (च) और आगे भी इसी प्रकार संख्या (कल्पन्ताम्) समर्थ हों। यह एक योगपक्ष है॥१॥२४॥ अब दूसरा पक्ष-(यज्ञेन) योग से विपरीत दानरूप वियोगमार्ग से विपरीत संगृहीत (च) और संख्या दो के वियोग अर्थात् अन्तर से [जैसे] (मे) मेरी (कल्पन्ताम्) समर्थ हों, वैसे (मे) मेरी (त्रयस्त्रिंशत्) तेंतीस संख्या (च) दो के देने अर्थात् वियोग से (मे) मेरी (एकत्रिंशत्) इकतीस (च) फिर (मे) मेरी (एकत्रिंशत्) इकतीस (च) दो के वियोग से (मे) मेरी (नवविंशतिः) उनतीस (च) फिर (मे) फि (मे) मेरी (नवविंशतिः) उनतीस (च) दो के वियोग से (मे) मेरी (सप्तविंशतिः) सत्ताईस समर्थ हों, ऐसे सब संख्याओं में जानना चाहिये॥ यह वियोग से दूसरा पक्ष है॥२॥२४॥ अब तीसरा (मे) मेरी (एका) एक संख्या (च) और (मे) मेरी (तिस्रः) तीन संख्या (च) परस्पर गुणी, (मे) मेरी (तिस्रः) तीन संख्या (च) और (मे) मेरी (पञ्च) पांच संख्या (च) परस्पर गुणित, (मे) मेरी (पञ्च) पांच संख्या (च) और (मे) मेरी (सप्त) सात संख्या (च) परस्पर गुणित, (मे) मेरी (सप्त) सात संख्या (च) और (मे) मेरी (नव) नव संख्या (च) परस्पर गुणित, (मे) मेरी (नव) नव संख्या (च) और (मे) मेरी (एकादश) ग्यारह संख्या (च) परस्पर गुणित, इस प्रकार अन्य संख्या (यज्ञेन) उक्त बार-बार योग अर्थात् गुणन से (कल्पन्ताम्) समर्थ हों। यह गुणन विषय से तीसरा पक्ष है॥३॥२४॥
भावार्थ - इस मन्त्र में (यज्ञेन) इस पद से जोड़ना-घटाना लिये जाते हैं, क्योंकि जो यज धातु का सङ्गतिकरण अर्थ है, उससे सङ्ग कर देना अर्थात् किसी संख्या को किसी संख्या से योग कर देना वा यज धातु का जो दान अर्थ है, उससे ऐसी सम्भावना करनी चाहिये कि किसी संख्या का दान अर्थात् व्यय करना निकाल-डालना यही अन्तर है। इस प्रकार गुणन, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, भागजाति, प्रभागजाति आदि जो गणित के भेद हैं, वे योग और अन्तर से ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि किसी संख्या को किसी संख्या से एक बार मिला दे तो योग कहाता है, जैसे २+४=६ अर्थात् २ में ४ जोड़ें तो ६ होते हैं। ऐसे यदि अनेक वार संख्या में संख्या जोड़ें तो उसको गुणन कहते हैं, जैसे अर्थात् र् २ ४ २ को ४ वार अलग अलग जोड़ें वा २ को ४ चार से गुणे तो ८ होते हैं। ऐसे ही ४ को ४ चौगुना कर दिया तो ४ का वर्ग १६ हुए, ऐसे ही अन्तर से भाग, वर्गमूल, घनमूल आदि निष्पन्न होते हैं अर्थात् किसी संख्या को जोड़ देवे वा किसी प्रकारान्तर से घटा देवे, इसी योग वा वियोग से बुद्धिमानों की यथामति कल्पना से व्यक्त, अव्यक्त, अङ्कगणित और बीजगणित आदि समस्त गणितक्रिया उत्पन्न होती हैं। इस कारण इस मन्त्र में दो के योग से उत्तरोत्तर संख्या वा दो के वियोग से पूर्व पूर्व संख्या अच्छे प्रकार दिखलाई हैं, वैसे गुणन का भी कुछ प्रकार दिखलाया है, यह जानना चाहिये॥२४॥
ऋषि: - पूर्वदेवा ऋषयः देवता - समाङ्कगणितविद्याविदात्मा देवता छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
चत॑स्रश्च मे॒ऽष्टौ च॑ मे॒ऽष्टौ च॑ मे॒ द्वाद॑श च मे॒ द्वाद॑श च मे॒ षोड॑श च मे॒ षोड॑श च मे विꣳश॒तिश्च॑ मे विꣳश॒तिश्च॑ मे॒ चतु॑र्विꣳशतिश्च मे॒ चतु॑र्विꣳशतिश्च मे॒ऽष्टावि॑ꣳशतिश्च मे॒ऽष्टावि॑ꣳशतिश्च मे॒ द्वात्रि॑ꣳशच्च मे॒ द्वात्रि॑ꣳशच्च मे॒ षट्त्रि॑ꣳशच्च मे॒ षट्त्रि॑ꣳशच्च मे चत्वारि॒ꣳशच्च॑ मे चत्वारि॒ꣳशच्च मे॒ चतु॑श्चत्वारिꣳशच्च मे॒ चतु॑श्चत्वारिꣳशच्च मेऽष्टाच॑त्वारिꣳशच्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥२५॥
पद पाठ
चत॑स्रः। च॒। मे॒। अ॒ष्टौ। च॒। मे॒। अ॒ष्टौ। च॒। मे॒। द्वाद॑श। च॒। मे॒। द्वाद॑श। च॒। मे॒। षोड॑श। च॒। मे॒। षोड॑श। च॒। मे॒। वि॒ꣳश॒तिः। च॒। मे॒। वि॒ꣳश॒तिः। च॒। मे॒। चतु॑र्विꣳशति॒रिति॒ चतुः॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। चतु॑र्विꣳशति॒रिति॒ चतुः॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। अ॒ष्टावि॑ꣳशति॒रित्य॒ष्टाऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। अ॒ष्टावि॑ꣳशति॒रित्य॒ष्टाऽवि॑ꣳशतिः। च॒। मे॒। द्वात्रि॑ꣳशत्। च॒। मे॒। द्वात्रि॑ꣳशत्। च॒। मे॒। षट्त्रि॑ꣳश॒दिति॒ षट्ऽत्रि॑ꣳशत्। च॒। मे॒। षट्त्रि॑ꣳश॒दिति॒ षट्ऽत्रि॑ꣳशत्। च॒। मे॒। च॒त्वा॒रि॒ꣳशत्। च॒। मे॒। च॒त्वा॒रि॒ꣳशत्। च॒। मे॒। चतु॑श्चत्वारिꣳश॒दिति॒ चतुः॑ऽचत्वारिꣳशत्। च॒। मे॒। चतु॑श्चत्वारिꣳश॒दिति॒ चतुः॑ऽचत्वारिꣳशत्। च॒। मे॒। अ॒ष्टाच॑त्वारिꣳश॒दित्य॒ष्टाऽच॑त्वारिꣳशत्। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥२५
विषय - अब सम अङ्कों के गणित विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(यज्ञेन) मेल करने अर्थात् योग करने में (मे) मेरी (चतस्रः) चार संख्या (च) और चारि संख्या (मे) मेरी (अष्टौ) आठ संख्या (च) फिर (मे) मेरी (अष्टौ) आठ संख्या (च) और चारि (मे) मेरी (द्वादश) बारह (च) फिर (मे) मेरी (द्वादश) बारह (च) और चारि (मे) मेरी (षोडश) सोलह (च) फिर (मे) मेरी (षोडश) सोलह (च) और चारि (मे) मेरी (विंशतिः) बीस (च) फिर (मे) मेरी (विंशतिः) बीस (च) और चारि (मे) मेरी (चतुर्विंशतिः) चौबीस (च) फिर (मे) मेरी (चतुर्विंशतिः) चौबीस (च) और चारि (मे) मेरी (अष्टाविंशतिः) अट्ठाईस (च) फिर (मे) मेरी (अष्टाविंशतिः) अट्ठाईस (च) और चारि (मे) मेरी (द्वात्रिंशत्) बत्तीस (च) फिर (मे) मेरी (द्वात्रिंशत्) बत्तीस (च) चारि (मे) मेरी (षट्त्रिंशत्) छत्तीस (च) फिर (मे) मेरी (षट्त्रिंशत्) छत्तीस (च) और चारि (मे) मेरी (चत्वारिंशत्) चालीस (च) फिर (मे) मेरी (चत्वारिंशत्) चालीस (च) और चारि (मे) मेरी (चतुश्चत्वारिंशत्) चवालीस (च) फिर (मे) मेरी (चतुश्चत्वारिंशत्) चवालीस (च) और चारि (मे) मेरी (अष्टाचत्वारिंशत्) अड़तालीस (च) आगे भी उक्तविधि से संख्या (कल्पन्ताम्) समर्थ हों, यह प्रथम योगपक्ष है॥१॥२५॥ अब दूसरा- (यज्ञेन) योग से विपरीत दानरूप वियोगमार्ग से विपरीत संगृहीत (च) और संख्या चारि-चारि के वियोग से जैसे (मे) मेरी (कल्पन्ताम्) समर्थ हों वैसे (मे) मेरी (अष्टाचत्वारिंशत्) अड़तालीस (च) चारि के वियोग से (मे) मेरी (चतुश्चत्वारिंशत्) चवालीस (च) फिर (मे) मेरी (चतुश्चत्वारिंशत्) चवालीस (च) चारि के वियोग से (मे) मेरी (चत्वारिंशत्) चालीस (च) फिर (मे) मेरी (चत्वारिंशत्) चालीस (च) चारि के वियोग से (मे) मेरी (षट्त्रिंशत्) छत्तीस (च) फिर (मे) मेरी (षट्त्रिंशत्) छत्तीस (च) चारि के वियोग से (मे) मेरी (द्वात्रिंशत्) बत्तीस इस प्रकार सब संख्याओं में जानना चाहिये। यह वियोग से दूसरा पक्ष है॥२॥२५॥ अब तीसरा पक्ष-(मे) मेरी (चतस्रः) चारि संख्या (च) और (मे) मेरी (अष्टौ) आठ (च) परस्पर गुणी, (मे) मेरी (अष्टौ) आठ (च) और (मे) मेरी (द्वादश) बारह (च) परस्पर गुणी, (मे) मेरी (द्वादश) बारह (च) और (मे) मेरी (षोडश) सोलह (च) परस्पर गुणी, (मे) मेरी (षोडश) सोलह (च) और (मे) मेरी (विंशतिः) बीस (च) परस्पर गुणी, इस प्रकार संख्या आगे भी (यज्ञेन) उक्त वार-वार गुणन से (कल्पन्ताम्) समर्थ हों। यह गुणनविषय से तीसरा पक्ष है॥३॥२५॥
भावार्थ - पिछले मन्त्र में एक संख्या को लेकर दो के योग वियोग से विषम संख्या कही। इससे पूर्व मन्त्र में क्रम से आई हुई एक, दो, तीन संख्या को छोड़ इस मन्त्र में चारि के योग वा वियोग से चौथी संख्या को लेकर सम संख्या प्रतिपादन किई। इन दोनों मन्त्रों से विषम संख्या और सम संख्याओं का भेद जानके बुद्धि के अनुकूल कल्पना से सब गणित विद्या जाननी चाहिये॥२५॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - पशुविद्याविदात्मा देवता छन्दः - ब्राह्मी बृहती स्वरः - मध्यमः
त्र्यवि॑श्च मे त्र्य॒वी च॑ मे दित्य॒वाट् च॑ मे दित्यौ॒ही च॑ मे॒ पञ्चा॑विश्च मे पञ्चा॒वी च॑ मे त्रिव॒त्सश्च॑ मे त्रिव॒त्सा च॑ मे तुर्य॒वाट् च॑ मे तुर्यौ॒ही च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥२६॥
पद पाठ
त्र्यवि॒रिति॑ त्रि॒ऽअविः॑। च॒। मे॒। त्र्य॒वीति॑ त्रिऽअ॒वी। च॒। मे॒। दि॒त्य॒वाडिति॑ दित्य॒ऽवाट्। च॒। मे॒। दि॒त्यौ॒ही। च॒। मे॒। पञ्चा॑वि॒रिति॒ पञ्च॑ऽअविः। च॒। मे॒। प॒ञ्चा॒विति॑ पञ्चऽअ॒वी। च॒। मे॒। त्रि॒व॒त्स इति॑ त्रिऽव॒त्सः। च॒। मे॒। त्रि॒व॒त्सेति॑ त्रिऽव॒त्सा। च॒। मे॒। तु॒र्य॒वाडिति॑ तुर्य॒ऽवाट्। च॒। मे॒। तु॒र्यौ॒ही। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ताम् ॥२६ ॥
विषय - अथ पशुपालन विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(मे) मेरा (त्र्यविः) तीन प्रकार का भेड़ों वाला (च) और इससे भिन्न सामग्री (मे) मेरी (त्र्यवी) तीन प्रकार की भेड़ों वाली स्त्री (च) और इनसे उत्पन्न हुए घृतादि (मे) मेरे (दित्यवाट्) खण्डित क्रियाओं में हुए विघ्नों को पृथक् करने वाला (च) और इसके सम्बन्धी (मे) मेरी (दित्यौही) उन्हीं क्रियाओं को प्राप्त कराने हारी गाय आदि (च) और उसकी रक्षा (मे) मेरा (पञ्चाविः) पांच प्रकार की भेड़ों वाला (च) और उसके घृतादि (मे) मेरी (पञ्चावी) पांच प्रकार की भेड़ों वाली स्त्री (च) और (मे) मेरा (त्रिवत्सः) तीन बछड़े वाला (च) और उसके बछड़े आदि (मे) मेरी (त्रिवत्सा) तीन बछड़े वाली गौ (च) और उसके घृतादि (मे) मेरा (तुर्यवाट्) चौथे वर्ष को प्राप्त हुआ बैल आदि (च) और इसको काम में लाना (मे) मेरी (तुर्यौही) चौथे वर्ष को प्राप्त गौ (च) और इसको शिक्षा ये सब पदार्थ (यज्ञेन) पशुओं के पालन के विधान से (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें॥२६॥
भावार्थ - इस मन्त्र में गौ और भेड़ के उपलक्षण से अन्य पशुओं का भी ग्रहण होता है। जो मनुष्य पशुओं को बढ़ाते हैं, वे इनके रसों से आढ्य होते हैं॥२६॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - पशुपालनविद्याविदात्मा देवता छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
प॒ष्ठ॒वाट् च॑ मे पष्ठौ॒ही च॑ मऽउ॒क्षा च॑ मे व॒शा च॑ मऽऋष॒भश्च॑ मे वे॒हच्च॑ मेऽन॒ड्वाँश्च॑ मे धेनु॒श्च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥२७॥
पद पाठ
प॒ष्ठ॒वाडिति॑ पष्ठ॒ऽवाट्। च॒। मे॒। प॒ष्ठौ॒ही। च॒। मे॒। उ॒क्षा। च॒। मे॒। व॒शा। च॒। मे॒। ऋ॒ष॒भः। च॒। मे॒। वे॒हत्। च॒। मे॒। अ॒न॒ड्वान्। च॒। मे॒। धे॒नुः। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥२७ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(मे) मेरे (पष्ठवाट्) पीठ से भार उठानेहारे हाथी, ऊंट आदि (च) और उनके सम्बन्धी (मे) मेरी (पष्ठौही) पीठ से भार उठाने हारी घोड़ो, ऊंटनी आदि (च) और उनसे उठाये गये पदार्थ (मे) मेरा (उक्षा) वीर्य सेचन में समर्थ वृषभ (च) और वीर्य धारण करने वाली गौ आदि (मे) मेरी (वशा) वन्ध्या गौ (च) और वीर्यहीन बैल (मे) मेरा (ऋषभः) समर्थ बैल (च) और बलवती गौ (मे) मेरी (वेहत्) गर्भ गिराने वाली (च) और सामर्थ्यहीन गौ (मे) मेरा (अनड्वान्) हल और गाड़ी आदि को चलाने में समर्थ बैल (च) और गाड़ीवान आदि (मे) मेरी (धेनुः) नवीन व्यानी दूध देने हारी गाय (च) और उसको दोहने वाला जन ये सब (यज्ञेन) पशुशिक्षारूप यज्ञकर्म से (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें॥२७॥
भावार्थ - जो पशुओं को अच्छी शिक्षा देके कार्यों में सयुक्त करते हैं, वे अपने प्रयोजन सिद्ध करके सुखी होते हैं॥२७॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - सङ्ग्रामादिविदात्मा देवता छन्दः - भुरिगाकृतिः, आर्ची बृहती स्वरः - पञ्चमः, मध्यमः
वाजा॑य॒ स्वाहा॑ प्रस॒वाय॒ स्वाहा॑पि॒जाय॒ स्वाहा॒ क्रत॑वे॒ स्वाहा॒ वस॑वे॒ स्वाहा॑ह॒र्पत॑ये॒ स्वाहाह्ने॑ मु॒ग्धाय॒ स्वाहा॑ मु॒ग्धाय॒ वैनꣳशि॒नाय॒ स्वाहा॑ विन॒ꣳशिन॑ऽआन्त्याय॒नाय॒ स्वाहान्त्या॑य भौव॒नाय॒ स्वाहा॒ भुव॑नस्य॒ पत॑ये॒ स्वाहाधि॑पतये॒ स्वाहा॑ प्र॒जाप॑तये॒ स्वाहा॑। इ॒यं ते॒ राण्मि॒त्राय॑ य॒न्तासि॒ यम॑नऽऊ॒र्जे त्वा॒ वृष्ट्यै॑ त्वा प्र॒जानां॒ त्वाधि॑पत्याय॥२८॥
पद पाठ
वाजा॑य। स्वाहा॑। प्र॒स॒वायेति॑ प्रऽस॒वाय॑। स्वाहा॑। अ॒पि॒जाय॑। स्वाहा॑। क्रत॑वे। स्वाहा॑। वस॑वे। स्वाहा॑। अ॒ह॒र्पत॑ये। स्वाहा॑। अह्ने॑। मु॒ग्धाय॑ स्वाहा॑। मु॒ग्धाय॑। वै॒न॒ꣳशि॒नाय॑। स्वाहा॑। वि॒न॒ꣳशिन॒ इति॑ विन॒ꣳशिने॑। आ॒न्त्या॒य॒नाय॑। स्वाहा॑। आन्त्या॑य। भौ॒व॒नाय॑। स्वाहा॑। भुव॑नस्य। पत॑ये। स्वाहा॑। अधि॑पतय॒ इत्यधि॑ऽपतये। स्वाहा॑। प्र॒जाप॑तय॒ इति॑ प्र॒जाऽप॑तये। स्वाहा॑। इ॒यम्। ते॒। राट्। मि॒त्राय॑। य॒न्ता। अ॒सि॒। यम॑नः। ऊ॒र्जे। त्वा॒। वृष्ट्यै॑। त्वा॒। प्र॒जाना॒मिति॑ प्र॒ऽजाना॑म्। त्वा॒। आधि॑पत्या॒येत्याधि॑ऽपत्याय ॥२८ ॥
विषय - अब कैसी वाणी का स्वीकार करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
जिस विद्वान् में (वाजाय) सङ्ग्राम के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया (प्रसवाय) ऐश्वर्य वा सन्तानोत्पत्ति के अर्थ (स्वाहा) पुरुषार्थ बलयुक्त सत्य वाणी (अपिजाय) ग्रहण करने के अर्थ (स्वाहा) उत्तम क्रिया (क्रतवे) विज्ञान के लिये (स्वाहा) योगाभ्यासादि क्रिया (वसवे) निवास के लिये (स्वाहा) धनप्राप्ति कराने हारी क्रिया (अहर्पतये) दिनों के पालन करने के लिये (स्वाहा) कालविज्ञान को देने हारी क्रिया (अह्ने) दिन के लिये वा (मुग्धाय) मूढ़जन के लिये (स्वाहा) वैराग्ययुक्त क्रिया (मुग्धाय) मोह को प्राप्त हुए के लिये (वैनंशिनाय) विनाशी अर्थात् विनष्ट होनेहारे को जो बोध उसके लिये (स्वाहा) सत्य हितोपदेश करने वाली वाणी (विनंशिने) विनाश होने वाले स्वभाव के अर्थ वा (आन्त्यायनाय) अन्त में घर जिसका हो उसके लिये (स्वाहा) सत्य वाणी (आन्त्याय) नीच वर्ण में उत्पन्न हुए (भौवनाय) भुवन सम्बन्धी के लिये (स्वाहा) उत्तम उपदेश (भुवनस्य) जिस संसार में सब प्राणीमात्र होते हैं, उसके (पतये) स्वामी के अर्थ (स्वाहा) उत्तम वाणी (अधिपतये) पालने वालों के अधिष्ठाता के अर्थ (स्वाहा) राजव्यवहार को जनाने हारी क्रिया तथा (प्रजापतये) प्रजा के पालन करने वाले के अर्थ (स्वाहा) राजधर्म प्रकाश करनेहारी नीति स्वीकार की जाती है तथा जिस (ते) आप को (इयम्) यह (राट्) विशेष प्रकाशमान नीति है और जो (यमनः) अच्छे गुणों के ग्रहणकर्त्ता आप (मित्राय) मित्र के लिये (यन्ता) उचित सत्कार करनेहारे (असि) हैं, उन (त्वा) आप को (ऊर्जे) पराक्रम के लिये (त्वा) आपको (वृष्ट्यै) वर्षा के लिये और (त्वा) आपको (प्रजानाम्) पालन के योग्य प्रजाओं के (आधिपत्याय) अधिपति होने के लिये हम स्वीकार करते हैं॥२८॥
भावार्थ - जो मनुष्य धर्मयुक्त वाणी और क्रिया से सहित वर्त्तमान रहते है, वे सुखों को प्राप्त होते हैं और जो जितेन्द्रिय होते हैं, वे राज्य के पालन में समर्थ होते है॥२८॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - यज्ञानुष्टातात्मा देवता छन्दः - स्वराड्विकृतिः स्वरः - मध्यमः
आयु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पतां प्रा॒णो य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ चक्षु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ श्रोत्रं॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ वाग्य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ मनो॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पतामा॒त्मा य॒ज्ञेन॑ कल्पतां ब्र॒ह्मा य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ ज्योति॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वर्य॒ज्ञेन॑ कल्पतां पृ॒ष्ठं य॒ज्ञेन॑ कल्पतां य॒ज्ञो य॒ज्ञेन॑ कल्पताम्। स्तोम॑श्च॒ यजु॑श्च॒ऽऋक् च॒ साम॑ च बृ॒हच्च॑ रथन्त॒रञ्च॑। स्व॑र्देवाऽअगन्मा॒मृता॑ऽअभूम प्र॒जाप॑तेः प्र॒जाऽअ॑भूम॒ वेट् स्वाहा॑॥२९॥
पद पाठ
आयुः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। प्रा॒णः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। चक्षुः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। श्रोत्र॑म्। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। वाक्। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। मनः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। आ॒त्मा। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। ब्र॒ह्मा। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। ज्योतिः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वः᳖। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। पृ॒ष्ठम्। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। य॒ज्ञः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्तोमः॑। च॒। यजुः॑। च॒। ऋक्। च॒। साम॑। च॒। बृ॒हत्। च॒। र॒थ॒न्त॒रमिति॑ रथम्ऽत॒रम। च॒। स्वः᳖। दे॒वाः॒। अ॒ग॒न्म॒। अ॒मृताः॑। अ॒भू॒म॒। प्र॒जाप॑ते॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तेः। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। अ॒भू॒म॒। वेट्। स्वाहा॑ ॥२९ ॥
विषय - अब क्या-क्या यज्ञ की सिद्धि के लिये युक्त करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्य। तेरे प्रजाजनों के स्वामी होने के लिये (आयुः) जिससे जीवन होता है, वह आयुर्दा (यज्ञेन) परमेश्वर और अच्छे महात्माओं के सत्कार से (कल्पताम्) समर्थ हो, (प्राणः) जीवन का हेतु प्राणवायु (यज्ञेन) सङ्ग करने से (कल्पताम्) समर्थ होवे, (चक्षुः) नेत्र (यज्ञेन) परमेश्वर वा विद्वान् के सत्कार से (कल्पताम्) समर्थ हों, (श्रोत्रम्) कान (यज्ञेन) ईश्वर वा विद्वान् के सत्कार से (कल्पताम्) समर्थ हों, (वाक्) वाणी (यज्ञेन) ईश्वर वा विद्वान् के सत्कार से (कल्पताम्) समर्थ हों (मनः) संकल्पविकल्प करने वाला मन (यज्ञेन) ईश्वर वा विद्वान् के सत्कार (कल्पताम्) समर्थ हो, (आत्मा) जो कि शरीर इन्द्रिय तथा प्राण आदि पवनों को व्याप्त होता है, वह आत्मा (यज्ञेन) ईश्वर वा विद्वान् के सत्कार (कल्पताम्) समर्थ हो, (ब्रह्मा) चारों वेदों का जानने वाला विद्वान् (यज्ञेन) ईश्वर वा विद्वान् के सत्कार से (कल्पताम्) समर्थ हो, (ज्योतिः) न्याय का प्रकाश (यज्ञेन) ईश्वर वा विद्वान् के सत्कार से (कल्पताम्) समर्थ हो, (स्वः) सुख (यज्ञेन) ईश्वर वा विद्वान् के सत्कार से (कल्पताम्) समर्थ हो, (पृष्ठम्) जानने की इच्छा (यज्ञेन) पठनरूप यज्ञ से (कल्पताम्) समर्थ हो, (यज्ञः) पाने योग्य धर्म (यज्ञेन) सत्यव्यवहार से (कल्पताम्) समर्थ हो, (स्तोमः) जिसमें स्तुति होती है, वह अथर्ववेद (च) और (यजुः) जिससे जीव सत्कार आदि करता है, वह यजुर्वेद (च) और (ऋक्) स्तुति का साधक ऋग्वेद (च) और (साम) सामवेद (च) और (बृहत्) अत्यन्त बड़ा वस्तु (च) और सामवेद का (रथन्तरम्) रथन्तर नाम वाला स्तोत्र (च) भी ईश्वर वा विद्वा्न के सत्कार से समर्थ हो। हे (देवाः) विद्वानो! जैसे हम लोग (अमृताः) जन्म-मरण के दुःख से रहित हुए (स्वः) मोक्षसुख को (अगन्म) प्राप्त हों तथा (प्रजापतेः) समस्त संसार के स्वामी जगदीश्वर की (प्रजाः) पालने योग्य प्रजा (अभूम) हों तथा (वेट्) उत्तम क्रिया और (स्वाहा) सत्यवाणी से युक्त (अभूम) हों, वैसे तुम भी होओ॥२९॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यहाँ पूर्व मन्त्र से (ते, आधिपत्याय) इन दो पदों की अनुवृत्ति आती है। मनुष्य धार्मिक विद्वान् जनों के अनुकरण से यज्ञ के लिये सब समर्पण कर परमेश्वर और राजा को न्यायाधीश मान के न्यायपरायण होकर निरन्तर सुखी हों॥२९॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - राज्यावानात्मा देवता छन्दः - स्वराड् जगती स्वरः - निषादः
वाज॑स्य॒ नु प्र॑स॒वे मा॒तरं॑ म॒हीमदि॑तिं॒ नाम॒ वच॑सा करामहे। यस्या॑मि॒दं विश्वं॒ भुव॑नमावि॒वेश॒ तस्यां॑ नो दे॒वः स॑वि॒ता धर्म॑ साविषत्॥३०॥
पद पाठ
वाज॑स्य। नु। प्र॒स॒वे इति॑ प्रऽस॒वे। मा॒तर॑म्। म॒हीम्। अदि॑तिम्। नाम॑। वच॑सा। का॒रा॒म॒हे॒। यस्या॑म्। इ॒दम्। विश्व॑म्। भुव॑नम्। आ॒वि॒वेशेत्याऽवि॒वेश॑। तस्या॑म्। नः॒। दे॒वः। स॒वि॒ता। धर्म॑। सा॒वि॒ष॒त् ॥३० ॥
विषय - फिर मनुष्यों को कैसे किसकी उपासना करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(वाजस्य) विविध प्रकार के उत्तम अन्न के (प्रसवे) उत्पन्न करने में (नु) ही वर्त्तमान हम लोग (मातरम्) मान्य की हेतु (अदितिम्) कारणरूप से नित्य (महीम्) भूमि को (नाम) प्रसिद्धि में (वचसा) वाणी से (करामहे) युक्त करें (यस्याम्) जिस पृथिवी में (इदम्) यह प्रत्यक्ष (विश्वम्) समस्त (भुवनम्) स्थूल जगत् (आविवेश) व्याप्त है, (तस्याम्) उस पृथिवी में (सविता) समस्त ऐश्वर्ययुक्त (देवः) शुद्धस्वरूप ईश्वर (न) हमारी (धर्म) उत्तम कर्मों की धारणा को (साविषत्) उत्पन्न करे॥३०॥
भावार्थ - जिस जगदीश्वर ने सब का आधार जो भूमि बनाई, वह सब को धारण करती है, वही ईश्वर सब मनुष्यों को उपासना करने योग्य है॥३०॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
विश्वे॑ऽअ॒द्य म॒रुतो॒ विश्व॑ऽऊ॒ती विश्वे॑ भवन्त्व॒ग्नयः॒ समि॑द्धाः। विश्वे॑ नो दे॒वाऽअव॒साग॑मन्तु॒ विश्व॑मस्तु॒ द्रवि॑णं॒ वाजो॑ऽअ॒स्मे॥३१॥
पद पाठ
विश्वे॑। अ॒द्य। म॒रुतः॑। विश्वे॑। ऊ॒ती। विश्वे॑। भ॒व॒न्तु॒। अ॒ग्नयः॑। समि॑द्धा॒ इति॒ सम्ऽइ॑द्धाः। विश्वे॑। नः॒। दे॒वाः। अ॒व॒सा। आ। ग॒म॒न्तु॒। विश्व॑म्। अ॒स्तु॒। द्रवि॑णम्। वाजः॑। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे ॥३१ ॥
विषय - अब अगले मन्त्र में प्राणियों के कर्त्तव्य विषय को कहा है॥
पदार्थ -
इस पृथिवीं में (अद्य) आज (विश्वे) सब (मरुतः) पवन (विश्वे) सब प्राणी और पदार्थ (विश्वे) सब (समिद्धाः) अच्छे प्रकार लपट दे रहे हुए (अग्नयः) अग्नियों के समान मनुष्य लोग (नः) हमारी (ऊती) रक्षा आदि के साथ (भवन्तु) प्रसिद्ध हों, (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (अवसा) पालन आदि से सहित (आ, गमन्तु) आवें अर्थात् आकर हम लोगों की रक्षा करें, जिससे (अस्मे) हम लोगों के लिये (विश्वम्) समस्त (द्रविणम्) धन और (वाजः) अन्न (अस्तु) प्राप्त हो॥३१॥
भावार्थ - जो मनुष्य आलस्य को छोड़ विद्वानों का सङ्ग कर इस पृथिवी में प्रयत्न करते हैं, वे समस्त अति उत्तम पदार्थों को पाते हैं॥३१॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - अन्नवान् विद्वान् देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
वाजो॑ नः स॒प्त प्र॒दिश॒श्चत॑स्रो वा परा॒वतः॑। वाजो॑ नो॒ विश्वै॑र्दे॒वैर्धन॑सातावि॒हाव॑तु॥३२॥
पद पाठ
वाजः॑। नः॒। स॒प्त। प्र॒दिशः॒। इति॑ प्र॒दिशः॑। चत॑स्रः। वा॒। प॒रा॒वत॒ इति॑ परा॒ऽवतः॑। वाजः॑। नः॒। विश्वैः॑। दे॒वैः। धन॑साता॒विति॒ धन॑ऽसातौ। इ॒ह। अ॒व॒तु॒ ॥३२ ॥
विषय - अब विद्वान् और प्रजाजन कैसे वर्त्तें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ -
हे विद्वानो! जैसे (विश्वैः) सब (देवैः) विद्वानों के साथ (वाजः) अन्नादि (इह) इस लोक में (धनसातौ) धन के विभाग करने में (नः) हम लोगों को (अवतु) प्राप्त होवे (वा) अथवा (नः) हम लोगों का (वाजः) शास्त्रज्ञान और वेग (सप्त) सात (प्रदिशः) जिनका अच्छे प्रकार उपदेश किया जाय, उन लोक-लोकान्तरों वा (परावतः) दूर-दूर जो (चतस्रः) पूर्व आदि चार दिशा उनको पाले अर्थात् सब पदार्थों की रक्षा करे, वैसे इनकी रक्षा तुम भी निरन्तर किया करो॥३२॥
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि बहुत अन्न से अपनी रक्षा तथा इस पृथिवी पर सब दिशाओं में अच्छी कीर्त्ति हो, इस प्रकार सत्पुरुषों का सन्मान किया करें॥३२॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - अन्नपतिर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
वाजो॑ नोऽअ॒द्य प्र सु॑वाति॒ दानं॒ वाजो॑ दे॒वाँ२ऽऋ॒तुभिः॑ कल्पयाति। वाजो॒ हि मा सर्व॑वीरं ज॒जान॒ विश्वा॒ऽआशा॒ वाज॑पतिर्जयेयम्॥३३॥
पद पाठ
वाजः॑। नः॒। अ॒द्य। प्र। सु॒वा॒ति॒। दान॑म्। वाजः॑। दे॒वान्। ऋ॒तुभि॒रित्यृ॒तुऽभिः॑। क॒ल्प॒या॒ति॒। वाजः॑। हि। मा। सर्व॑वीर॒मिति॒ सर्व॑ऽवीरम्। ज॒जान॑। विश्वाः॑। आशाः॑। वाज॑पति॒रिति॒ वाज॑ऽपतिः। ज॒ये॒य॒म् ॥३३ ॥
विषय - फिर मनुष्यों को क्या-क्या चाहने योग्य है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे (अद्य) आज जो (वाजः) अन्न (नः) हमारे लिये (दानम्) दान=दूसरे को देना (प्रसुवाति) चितावे और (वाजः) वेगरूप गुण (ऋतुभिः) वसन्त आदि ऋतुओं से (देवान्) अच्छे-अच्छे गुणों को (कल्पयाति) प्राप्त होने में समर्थ करे वा जो (हि) ही (वाजः) अन्न (सर्ववीरम्) सब वीर जिससे हों, ऐसे अति बलवान् (मा) मुझ को (जजान) प्रसिद्ध करे, उससे ही मैं (वाजपतिः) अन्नादि का अधिष्ठाता होकर (विश्वाः) समस्त (आशाः) दिशाओं को (जयेयम्) जीतूं, वैसे तुम भी जीता करो॥३३॥
भावार्थ - जितने इस पृथिवी पर पदार्थ हैं, उन सबों में अन्न ही अत्यन्त प्रशंसा के योग्य है, क्योंकि अन्नवान् पुरुष सब जगह विजय को प्राप्त होता है॥३३॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - अन्नपतिर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
वाजः॑ पु॒रस्ता॑दु॒त म॑ध्य॒तो नो॒ वाजो॑ दे॒वान् ह॒विषा॑ वर्द्धयाति। वाजो॒ हि मा॒ सर्व॑वीरं च॒कार॒ सर्वा॒ऽआशा॒ वाज॑पतिर्भवेयम्॥३४॥
पद पाठ
वाजः॑। पु॒रस्ता॑त्। उ॒त। म॒ध्य॒तः। नः॒। वाजः॑। दे॒वान्। ह॒विषा॑। व॒र्द्ध॒या॒ति॒। वाजः॑। हि। मा॒। सर्व॑वीर॒मिति॒ सर्व॑ऽवीरम्। च॒कार॑। सर्वाः॑। आशाः॑। वाज॑पति॒रिति॒ वाज॑ऽपतिः। भ॒वे॒य॒म् ॥३४ ॥
विषय - अन्न ही सब की रक्षा करता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
जो (वाजः) अन्न (हविषा) देने-लेने और खाने से (पुरस्तात्) पहिले (उत) और (मध्यतः) बीच में (नः) लोगों को (वर्द्धयाति) बढ़ावे तथा जो (वाजः) अन्न (देवान्) दिव्यगुणों को बढ़ावे जो (हि) ही (वाजः) अन्न (मा) मुझ को (सर्ववीरम्) जिससे समस्त वीर पुरुष होते हैं, ऐसा (चकार) करता है, उससे मैं (वाजपतिः) अन्न आदि पदार्थों की रक्षा करने वाला (भवेयम्) होऊं और (सर्वाः) सब (आशाः) दिशाओं को जीतूं॥३४॥
भावार्थ - अन्न ही सब प्राणियों को बढ़ाता है, अन्न से ही प्राणी सब दिशाओं में भ्रमते हैं, अन्न के विना कुछ भी नहीं कर सकते॥३४॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - रसविद्याविद्विद्वान् देवता छन्दः - विराडार्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
सं मा॑ सृजामि॒ पय॑सा पृथि॒व्याः सं मा॑ सृजाम्य॒द्भिरोष॑धीमिः। सो॒ऽहं वाज॑ꣳ सनेयमग्ने॥३५॥
पद पाठ
सम्। मा। सृ॒जा॒मि॒। पय॑सा। पृ॒थि॒व्याः। सम्। मा। सृ॒जा॒मि। अ॒द्भिरित्य॒त्ऽभिः। ओष॑धीभिः। सः। अ॒हम्। वाज॑म्। स॒ने॒य॒म्। अ॒ग्ने॒ ॥३५ ॥
विषय - फिर मनुष्य क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (अग्ने) रसविद्या के जाननेहारे विद्वन्! जो मैं (पृथिव्याः) पृथिवी के (पयसा) रस के साथ (मा) अपने को (संसृजामि) मिलाता हूं वा (अद्भिः) अच्छे शुद्ध जल और (ओषधीभिः) सोमलता आदि ओषधियों के साथ (मा) अपने को (संसृजामि) मिलाता हूं, (सः) सो (अहम्) मैं (वाजम्) अन्न का (सनेयम्) सेवन करू, इसी प्रकार तू आचरण कर॥३५॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जैसे मैं वैद्यक शास्त्र की रीति से अन्न और पान आदि को करके सुखी होता हूं, वैसे तुम लोग भी प्रयत्न किया करो॥३५॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - रसविद्विद्वान् देवता छन्दः - आर्ष्युनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
पयः॑ पृथि॒व्यां पय॒ऽओष॑धीषु॒ पयो॑ दि॒व्यन्तरि॑क्षे॒ पयो॑ धाः। पय॑स्वतीः प्र॒दिशः॑ सन्तु॒ मह्य॑म्॥३६॥
पद पाठ
पयः॑। पृ॒थि॒व्याम्। पयः॑। ओष॑धीषु। पयः॑। दि॒वि। अ॒न्तरि॑क्षे। पयः॑। धाः॒। पय॑स्वतीः। प्र॒दिश॒ इति॑ प्र॒ऽदिशः॑। स॒न्तु॒। मह्य॑म् ॥३६ ॥
विषय - मनुष्य जल के रस को जानने वाले हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वान्! तू (पृथिव्याम्) पृथिवी पर जिस (पयः) जल वा दुग्ध आदि के रस (ओषधीषु) ओषधियों में जिस (पयः) रस (दिवि) शुद्ध निर्मल प्रकाश वा (अन्तरिक्षे) सूर्य और पृथिवी के बीच में जिस (पयः) रस को (धाः) धारण करता है, उस सब (पयः) जल वा दुग्ध के रस को मंै भी धारण करूं, जो (प्रदिशः) दिशा-विदिशा (पयस्वतीः) बहुत रस वाली तेरे लिये (सन्तु) हों, वे (मह्यम्) मेरे लिये भी हों॥३६॥
भावार्थ - जो मनुष्य बल आदि पदार्थों से युक्त पृथिवी आदि से उत्तम अन्न और रसों का संग्रह करके खाते और पीते हैं, वे नीरोग होकर सब विद्याओं में कार्य की सिद्धि कर तथा जा आ सकते और बहुत आयु वाले होते हैं॥३६॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - सम्राड् राजा देवता छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्रस॑वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। सर॑स्वत्यै वा॒चो य॒न्तुर्य॒न्त्रेणा॒ग्नेः साम्रा॑ज्येना॒भिषि॑ञ्चामि॥३७॥
पद पाठ
दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒वे इति॑ प्र॒ऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। सर॑स्वत्यै। वा॒चः। य॒न्तुः। य॒न्त्रेण॑ अग्नेः॑। साम्रा॑ज्ये॒नेति॒ साम्ऽरा॑ज्येन। अ॒भिषि॑ञ्चामीत्य॒भिऽसि॑ञ्चामि ॥३७ ॥
विषय - फिर मनुष्य कैसे को राजा मानें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वन् राजन्! जैसे मैं (त्वा) आप को (सवितुः) सकल ऐश्वर्य की प्राप्ति करानेहारा जो (देवस्य) आप ही प्रकाश को प्राप्त परमेश्वर उसके (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए जगत् में (अश्विनोः) सूर्य और चन्द्रमा के प्रताप और शीतलपन के समान (बाहुभ्याम्) भुजाओं से (पूष्णः) पुष्टि करने वाले प्राण के धारण और खींचने के समान (हस्ताभ्याम्) हाथों से (सरस्वत्यै) विज्ञान वाली (वाचः) वाणी के (यन्तुः) नियम करने वाले (अग्नेः) बिजुली आदि अग्नि की (यन्त्रेण) कारीगरी से उत्पन्न किये हुए (साम्राज्येन) सब भूमि के राजपन से (अभिषिञ्चामि) अभिषेक करता हूं, वैसे आप सुख से मेरा अभिषेक करें॥३७॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि समस्त विद्या के जाननेहारे होके सूर्य आदि के गुण-कर्म सदृश स्वभाव वाले पुरुष को राजा मानें॥३७॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - ऋतुविद्याविद्विद्वान देवता छन्दः - विराडार्षी स्वरः - धैवतः
ऋ॒ता॒षाडृ॒तधा॑मा॒ग्निर्ग॑न्ध॒र्वस्तस्यौष॑धयोऽप्स॒रसो॒ मुदो॒ नाम॑। स न॑ऽइ॒दं ब्रह्म क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॒ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑॥३८॥
पद पाठ
ऋ॒ता॒षा॒ट्। ऋ॒तधा॒मेत्यृ॒तऽधा॑मा। अ॒ग्निः। ग॒न्ध॒र्वः। तस्य॑। ओष॑धयः। अ॒प्स॒रसः॑। मुदः॑। नाम॑। सः। नः॒। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। पा॒तु॒। तस्मै॑। स्वाहा॑। वाट्। ताभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥३८ ॥
विषय - फिर राजा क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जो (ऋताषाट्) सत्य व्यवहार को सहने वाला (ऋतधामा) जिसके ठहरने के लिये ठीक-ठीक स्थान है, वह (गन्धर्वः) पृथिवी को धारण करनेहारा (अग्निः) आग के समान है, वह (तस्य) उसकी (ओषधयः) ओषधि (अप्सरसः) जो कि जलों में दौड़ती हैं, वे (मुदः) जिनमें आनन्द होता है, ऐसे (नाम) नाम वाली हैं (सः) वह (नः) हम लोगों के (इदम्) इस (ब्रह्म) ब्रह्म को जानने वालों के कुल और (क्षत्रम्) राज्य वा क्षत्रियों के कुल की (पातु) रक्षा करे, (तस्मै) उसके लिये (स्वाहा) सत्य वाणी (वाट्) जिससे कि व्यवहारों को यथायोग्य वर्त्ताव में लाता है और (ताभ्यः) उक्त उन ओषधियों के लिये (स्वाहा) सत्य क्रिया हो॥३८॥
भावार्थ - जो मनुष्य अग्नि के समान दुष्ट शत्रुओं के कुल को दुःखरूपी अग्नि में जलाने वाला और ओषधियों के समान आनन्द का करने वाला हो, वही समस्त राज्य की रक्षा कर सकता है॥३८॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - सूर्यो देवता छन्दः - भुरिगार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
स॒ꣳहि॒तो वि॒श्वसा॑मा॒ सूर्यो॑ गन्ध॒र्वस्तस्य॒ मरी॑चयोऽप्स॒रस॑ऽआ॒युवो॒ नाम॑। स न॑ऽइ॒दं ब्रह्म॑ क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॒ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑॥३९॥
पद पाठ
स॒ꣳहि॒त इति॑ सम्ऽहि॒तः। वि॒श्वसा॒मेति॑ वि॒श्वऽसा॑मा। सूर्यः॑। ग॒न्धर्वः॒। तस्य॑। मरी॑चयः। अ॒प्स॒रसः॑। आ॒युवः॑। नाम॑। सः। नः॒। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। पा॒तु॒। तस्मै॑। स्वाहा॑। वाट्। ताभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥३९ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वन्! आप जो (संहितः) सब मूर्तिमान् वस्तु वा सत्पुरुषों के साथ मिला हुआ (सूर्यः) सूर्य (गन्धर्वः) पृथिवी को धारण करने वाला है (तस्य) उसकी (मरीचयः) किरणें (अप्सरसः) जो अन्तरिक्ष में जाती हैं, वे (आयुवः) सब और से संयोग और वियोग करने वाली (नाम) प्रसिद्ध हैं अर्थात् जल आदि पदार्थों का संयोग करती और छोड़ती हैं (ताभ्यः) उन अन्तरिक्ष में जाने-आने वाली किरणों के लिये (विश्वसामा) जिसके समीप सामवेद विद्यमान वह आप (स्वाहा) उत्तम क्रिया से कार्य सिद्धि करो, जिससे वे यथायोग्य काम में आवें, जो आप (तस्मै) उस सूर्य के लिये (स्वाहा) सत्य क्रिया को अच्छे प्रकार युक्त करते हो, (सः) वह आप (नः) हमारे (इदम्) इस (ब्रह्म) विद्वानों और (क्षत्रम्) शूरवीरों के कुल तथा (वाट्) कामों के निर्वाह करने की (पातु) रक्षा करो॥३९॥
भावार्थ - मनुष्य सूर्य की किरणों का युक्ति के साथ सेवन कर, विद्या और शूरवीरता को बढ़ा के अपने प्रयोजन को सिद्ध करें॥३९॥
ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - चन्द्रमा देवता छन्दः - निचृदार्षी जगती स्वरः - निषादः
सु॒षु॒म्णः सूर्य॑रश्मिश्च॒न्द्रमा॑ गन्ध॒र्वस्तस्य॒ नक्ष॑त्राण्यप्स॒रसो॑ भे॒कुर॑यो॒ नाम॑। स न॑ऽइ॒दं ब्रह्म॑ क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॑ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑॥४०॥
पद पाठ
सु॒षु॒म्णः। सु॒सु॒म्न इति॑ सुऽसु॒म्नः। सूर्य॑रश्मि॒रिति॒ सूर्य॑ऽरश्मिः। च॒न्द्रमाः॑। ग॒न्ध॒र्वः। तस्य॑। नक्ष॑त्राणि। अ॒प्स॒रसः॑। भे॒कुर॑यः। नाम॑। सः। नः॒। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। पा॒तु॒। तस्मै॑। स्वाहा॑। वाट्। ताभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥४० ॥
विषय - फिर मनुष्यों को चन्द्र आदि लोकों से उपकार लेना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जो (सूर्य्यरश्मिः) सूर्य की किरणों वाला (सुषुम्णः) जिससे उत्तम सुख होता और (गन्धर्वः) जो सूर्य की किरणों को धारण किये है, वह (चन्द्रमाः) सब को आनन्दयुक्त करने वाला चन्द्रलोक है (तस्य) उसके जो (नक्षत्राणि) अश्विनी आदि नक्षत्र और (अप्सरसः) आकाश में विद्यमान किरणें (भेकुरयः) प्रकाश को करने वाली (नाम) प्रसिद्ध हैं, वे चन्द्र की अप्सरा हैं (सः) वह जैसे (नः) हम लोगों के (इदम्) इस (ब्रह्म) पढ़ाने वाले ब्राह्मण और (क्षत्रम्) दुष्टों के नाश करनेहारे क्षत्रियकुल की (पातु) रक्षा करे (तस्मै) उक्त उस प्रकार के चन्द्रलोक के लिये (वाट्) कार्यनिर्वाहपूर्वक (स्वाहा) उत्तम क्रिया और (ताभ्यः) उन किरणों के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया तुम लोगों को प्रयुक्त करनी चाहिये॥४०॥
भावार्थ - मनुष्यों को चन्द्र आदि लोकों से भी उनकी विद्या से सुख सिद्ध करना चाहिये॥४०॥
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