यजुर्वेद अध्याय 14
ऋषि: - उशना ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
ध्रु॒वक्षि॑तिर्ध्रु॒वयो॑निर्ध्रु॒वासि॑ ध्रु॒वं योनि॒मासी॑द साधु॒या।
उख्य॑स्य के॒तुं प्र॑थ॒मं जु॑षा॒णाऽ अ॒श्विना॑ऽध्व॒र्यू सा॑दयतामि॒ह त्वा॑॥१॥
इस मंत्र में चार बार ध्रुव शब्द का उपयोग किया गया है, जिसका मतलब होता है कि मनुष्य चार प्रकार के होते हैं, प्रथम जिसको ब्राह्मण कहा जाता है वह आत्मा केन्द्रित होते हैं, दूसरे वह होते हैं, जो क्षत्रिय होते हैं वह बुद्धि केन्द्रित होते है, तीसरे मनुष्य जो व्यापारी किस्म के होते हैं वह मन के केन्द्र पर स्थित होते हैं, चौथा मानव जो सबसे निम्न कोटि का होता है वह शरीर के केन्द्र पर स्थित होता है, जिसे शूद्र नाम से संबोधित किया गया है, यह चार प्रकार की मानव की कोटियाँ है, इस मंत्र के माध्यम से यह उपदेश दिया जा रहा है, कि प्रत्येक मानव को ब्राह्मण बनाना चाहिए और ब्राह्मणत्व को प्राप्त करने के लिए आत्मा केन्द्रित स्वस्थित होकर स्वस्थ होना चाहिए।
ध्रुवक्षिति- जो कभी
अपना स्थान कभी नहीं बदलता है, जो
मानव अपने आत्मा के केन्द्र पर हमेशा उपस्थित रहता है, जो शरीर सभी प्राणियों के जीवन का
मुख्य श्रोत घर है, जिसके
बिना आत्मा का इस भौतिक जगत में रहना सर्वथा असंभव है, उस योनि स्वरूप घर में सुख पूर्वक रहने
वाली आत्मा को ज्ञानी पुरुष स्वयं को जान कर स्वयं में स्थित हो जाता है, उसके लिए उसकी शरीर किसी साधारण मनुष्य
की तरह नहीं यद्यपि वह शरीर उसकी सभी दैहिक, भौतिक और आध्यात्मिक खजाने का आदि श्रोत बन जाती है जिससे साधक
साधारण मनुष्य ना हो कर वह असाधारण संसाधनों का स्वामी बन जाता है, जिस प्रकार से ऊख को पेर कर प्रथम उसके
रस को प्राप्त करके मनुष्य परमानंद को प्राप्त करता है उसी प्रकार से इस शरीर को
जब साधक योगी साधु साध लेता है तो वह इसमें विद्यमान अमृत को प्राप्त कर परमानंद
को प्राप्त करता है, क्योंकि
उसने अपने बुद्धि को पूर्ण रूप से विकसित कर लिया होता है, जिस प्रकार से सूर्य तो प्रत्येक क्षण
विद्यमान रहता है लेकिन उसको आंख के अंधे नहीं देख पाते हैं, यह स्वयं को देखने की आँख भौतिक नहीं
है यद्यपि वह सूक्ष्म है, जो
यहां मंत्र में जो अश्विना पद आया है इसका भाव यहीं है कि जगत दो प्रकार का है एक
शरीर के बाहर का जगत और एक शरीर के अंदर का जगत, जो साधक इस स्थूल और सूक्ष्म जगत का निरीक्षण करने में समर्थ होता है, वह स्वयं को इन दोनों के केन्द्र में
स्वयं को स्थित कर देता है वह दोनों द्वेत से स्वयं को मुक्त कर लेता है, जिस प्रकार से संध्या करने के लिए ऐसे
समय को चुना जाता है जो दिन और रात्रि के
मिलन बेला गोधूलि होती है, उसी
प्रकार से साधक ना शरीर के केन्द्र पर होता है और ना ही वह मन के केन्द्र पर होता
है। वह आत्मस्थ होता है, इसलिए
मंत्र आगे कहता है की तुम सब भी इस प्रकार से स्वयं को साधो। अर्थात शरीर मन बुद्ध
से अलग जो अचल केन्द्र जो ध्रुव के समान है, वहीं तुम्हारा वास्तविक स्थान हैं वहीं तुम हो तुम स्वयं में स्थित
हो वही स्थित होने पर तुम्हारी सारी समस्या का समाधान होता है और तुम्हारी समाधि
सिद्ध हो जाती है।
मनोज पाण्डेय
महर्षि स्वामी दयानंद हिन्दी भाष्य
विषय - अब चौदहवें अध्याय का आरम्भ है, इस के पहिले मन्त्र में स्त्रियों के लिये उपदेश किया है॥
पदार्थ -
हे स्त्रि! जो तू (साधुया) श्रेष्ठ धर्म के साथ (उख्यस्य) बटलोई में पकाये अन्न की सम्बन्धी और (प्रथमम्) विस्तारयुक्त (केतुम्) बुद्धि को (जुषाणा) प्रीति से सेवन करती हुई (ध्रुवक्षितिः) निश्चल वास करने और (ध्रुवयोनिः) निश्चल घर में रहने वाली (ध्रुवा) दृढ़धर्म्म से युक्त (असि) है, सो तू (ध्रुवम्) निश्चल (योनिम्) घर में (आसीद) स्थिर हो (त्वा) तुझको (इह) इस गृहाश्रम में (अध्वर्यू) अपने लिये रक्षणीय गृहाश्रम आदि यज्ञ के चाहने हारे (अश्विना) सब विद्याओं में व्यापक अध्यापक और उपदेशक (सादयताम्) अच्छे प्रकार स्थापित करें॥१॥
भावार्थ - विदुषी पढ़ाने और उपदेश करने हारी स्त्रियों को योग्य है कि कुमारी कन्याओं को ब्रह्मचर्य अवस्था में गृहाश्रम और धर्म्मशिक्षा दे के इनको श्रेष्ठ करें॥१॥
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