राष्ट्रीय प्रार्थना
ओम् आ ब्रह्म॑ण ब्रह्मणो ब्रह्मवर्च॒सी जा॑यता॒मा राष्ट्र रा॒ज॒न्युः शूर॑ ऽइष॒व्यो ऽतिव्याधी महारथो जाय ग् धे॒नुवो॑ढन॒ड्वाना॒शुः सप्ति॒: पुर॑न्ध॒र्या॑षा॒ जि॒ष्णू रथे॒ष्ठाः स॒भेयो॒ यु॒वास्य यज॑मानस्य वी॒रो जा॑यतां निका॒मेन॑कामे नः प॒र्यन्यो॑ वर्षतु फल॑वत्यो न॒ऽओष॑धयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः॑ः कल्पताम्॥
(यजु० २२/२२)
ब्रह्मण! स्वराष्ट्र में हो द्विज ब्रह्म-तेजधारी। क्षत्रिय महारथी हों अरिदल-विनाशकारी ॥ होवें दुधारु गौएँ पशु अश्व आशुवाही। आधार राष्ट्र की हों नारी सुभग सदा ही ॥ बलवान् सभ्य योद्धा यजमान पुत्र होवें। इच्छानुसार वर्षे पर्जन्य ताप धोवें ॥ फल-फूल से लदी हों औषध अमोघ सारी। हो योग क्षेमकारी स्वाधीनता हमारी॥
शिव - संकल्प (मन्त्र 2 )
ॐ येन कर्मान्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः |
यद्पूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्प्मस्तु ||
[यजुर्वेद , 34 / 1 / 2 ]
हे प्रभु ! जिस मन से पुरुषार्थि , धीर एवं मनस्वी परुष सत्कर्म और युद्धादि मे भी इष्ट कर्मों को करते हैं , जो यह मन उत्तम गुण , कर्म , स्वभाव वाला है और प्राणिमात्र के हृदय में एकीभूत हो रहा है , वह मेरा मन शिव संकल्पों वाला होवे शिव - संकल्प , (मन्त्र - 3 )
ॐ यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्जोतिरन्तरमृतं प्रजासु |
यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते , तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ||
[यजुर्वेद , ३४ / १ / ३ ]
जिस मन के अंदर ज्ञान -शक्ति , चिंतन -शक्ति , धैर्य -शक्ति रहती है , जो मन प्रजाओं में अमृतमय और तेजोमय है , जो इतना शक्तिशाली है कि इसके बिना मनुष्य कोई भी कर्म नहीं कर सकता है , सभी कर्म इसी की सहायता से किये जाते हैं , हे परमात्मा ! यह मेरा मन शिव संकल्पों वाला होवे |
ये त्वा देवोस्रिकं मन्यमानाः पापा भद्रमुपजीवन्ति पज्राः।
न दूढ्ये अनु ददासि वामं बृहस्पते चयस इत्पियारुम्॥ ऋग्वेद १-१९०-५॥🙏💐
हे परमेश्वर ! आप उन विलासी पापियों को आशीर्वाद प्रदान नहीं करते,जो आपको बूढ़ा बैल समझते हैं,जो ज्ञानी और दानी होने का नाटक करते हैं परंतु हैं ढोंगी। आप उनको अपना आशीर्वाद देते हैं जो आप को समर्पित हैं, और सत्य मार्ग पर चलते हैं।🙏💐
वेदामृत
कालो अश्वो वहति।
(अथर्ववेद- 19/53/1)
समय रूपी घोड़ा भागा जा रहा है। इसलिए अपने समय को व्यर्थ न जाने दें। तनिक सी देर होने पर गाड़ी छूट सकती है, परीक्षा में सम्मिलित होने से वंचित रह सकते हैं, साम्राज्य भी नष्ट हो सकते हैं।
यदि हम मूर्खों की तरह अपने समय को व्यर्थ खोते रहेंगे, अपने जीवन के अमूल्य क्षण आलस्य, प्रमाद, बेकार की गपशप में, तुच्छ मनोरंजन में खोते रहेंगे तो याद रखो हम महानता से वंचित हो जायेंगे तथा कठिनाइयों में फँसकर दर दर की ठोकरें खाते रहेंगे। इसलिए क्यों न हम अमूल्य समय का सम्मान करते हुए शुभ कर्म करें और परम पिता परमात्मा का ध्यान करें।
वेद संसार के सबसे पुराने ग्रंथ हैं। घर में वृद्ध का सम्मान सभी करते हैं क्योंकि उसका आदेश सभी के लिए समान रूप से कल्याणकारी होता है और उसके अनुभव से हर कोई लाभ उठा सकता है। उसी भाँति सृष्टि के ज्ञान में वयोवृद्ध होने से वेद भी संसार के सभी प्राणियों के लिए कल्याण का निर्देश करता है।
वेद मनुष्य मात्र को समान समझ कर सभी के भलाई के लिए सोचता एवं उसके अनुसार आचरण करने की बात करता है। वह सत्य को सर्वोपरि मानता है। वेद में जो भी कुछ, वह सब विज्ञान है, युक्ति तर्क और न्याय सम्मत है। वेद में किसी देश, व्यक्ति काल का वर्णन नहीं है उसमें सांसारिक इतिहास नहीं है। उसमें शाश्वत सत्य के मार्ग का दर्शन है। वेद लौकिक, पारलौकिक उन्नति के लिए समान रूप से सबके लिए प्रेरक हैं। वेद की शिक्षाएँ सबके लिए हैं।
वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। श्रेष्ठ बने के लिए प्रत्येक इच्छुक व्यक्ति को वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना परमधर्म समझकर शान्ति और आनन्द के मार्ग पर चलना चाहिए।
मनुष्य भौतिक उपलब्धियों की दौड़ में अशान्ति, चिन्ता और पीड़ा के सागर में गिरता रहता है। ऐसी विषम स्थिति में संसार का विनाश और मृत्यु से बचाने के लिए महर्षि दयानन्द सरस्वती ने लुप्त होती हुई, महान् ज्ञान राशि वेद का पुनरुद्धार किया और मानवता को अमर संजीवनी प्रदान की। उन्होंने धर्म को जीवन का अनिवार्य अंग बताया और स्पष्ट घोषणा की कि जीवन का उत्थान निर्माण और शान्ति-आनन्द का उदात्त मार्ग केवल वेद की ऋचाओं में मिलता है।
महर्षि दयानन्द क्रान्तिकारी थे। वे धरती के अज्ञान को जला देना चाहते थे। मत और वादों को समाप्त कर देना उनका उद्देश्य था । उनका किसी से द्वेष या विरोध न था। वे किसी को कुमार्ग पर चलते नहीं देखना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि सभी लोग आर्य बनें, श्रेष्ठ नहीं और सत्यमार्ग को पथिक हों और सबका कल्याण हो ।
अपनी इसी इच्छा की पूर्ति के लिए उन्होंने 'आर्यसमाज' की स्थापना की। आर्यसमाज का सर्वप्रथम उद्देश्य वेद का प्रचार करना है। आर्यसमाज मानव मात्र के कल्याण के लिए वेद पावन संदेश को घर-घर तब पहुँचाने के लिए कृत संकल्प है क्योंकि वेद के प्रचार-प्रसार से ही आज्ञनता, अन्धविश्वास, पाखण्ड एवं कुरीतियाँ आदि को मिटाया जा सकता है।
भौतिकता की चकाचौंध लोगों को गुमराह करने में लग हुई है। ऐसे में वेदों की शिक्षा पर विचार की विशेष आवश्यकता है। यह शरीर ही सब कुछ नहीं है, इसमे जो जीवन तत्व आत्मा है, उसकी भूख प्यास की चिन्ता किए बिना मनुष्य कभी मनुष्य नहीं बन सकता। संसार में केवल एक धर्म है और वह है सत्य। वह सत्य सृष्टिक्रम, विज्ञान सम्मत और मानव मन को आनन्द देने वाला है। मनुष्य की केवल एक ही जाति है 'मनुष्य'। मनुष्य और मनुष्य के बीच कोई भी जाति-वर्ण-वर्ग-देश की दीवार खड़ी करना जघन्यतम अपराध है। इसे वेद की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार कर मिटा सकते हैं। इन तथ्यों पर विचार करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि वेद ही ऐसा ज्ञान है, जो उक्त मान्यताओं को पुष्ट करता है। धरती को स्वर्ग बनाने के लिए वेद का प्रचार प्रसार और उन पर आचरण परमावश्यक है।
वेद मनुष्य मार्ग के लिए उस मार्ग का निर्देश करता है जिस पर चलकर वह सदा प्रसन्न रह सकता है। आनन्द और शान्ति को प्राप्त कर दुःखों से छुटकारा पाने का सच्चा और सीधा मार्ग, वेद के पवित्र मंत्रों में स्पष्ट रूप से वर्णित है।
1. कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतः समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥ यजु० 40/2
वेद का हमें आदेश है कि 'मनुष्य कर्म करता हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करे। हमारे लिए इससे भिन्न जीवन का मार्ग नहीं है। ऐसा करने से कर्म बन्धन मनुष्य को जकड़ता नहीं। वेद का आदेश है कि जीवन का हर एक क्षण गुजारना चाहिए। हमारा उद्देश्य केवल जीवित रहना मात्र नहीं होना चाहिए, अपितु कर्म करते हुए जीवित रहना चाहिए। वेद में कर्मशीलता के महत्त्व को प्रतिपादित किया है। वेद के शब्दों में कर्म करते हुए बिताया हुआ जीवन ही वास्तव में मनुष्य जीवन कहलाने योग्य है।
2. ईशा वास्यमिदसर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥ यजु० 40/1
इस चलायमान संसार में जो कुछ चलता हुआ है, वह सब ईश्वर से आच्छादित है। जो कुछ भोगो, ईश्वर की देन समझकर भोगो ।
वैदिक मान्यता है कि ईश्वर सर्वत्र व्यापक है और संसार की
व्यवस्था उसकी व्यवस्था है। सृष्टि में जो कुछ है, ईश्वर की व्यवथा के अधीन है।
3. स्वयं वाजिँस्तन्वं कल्पयस्व स्वयं यजस्व स्वयं जुषस्व । महिमा तेऽन्येन न सन्नशे ॥ यजु० 23/15
बलवान् आत्मा! तू अपने शरीर को समर्थ बना, स्वयं यज्ञ कर, स्वयं सेवा कर। तेरी महिमा किसी दूसरे के द्वारा प्राप्त नहीं होता।
प्रेता यजता नर इन्द्रो वः शर्म यच्छत।
उग्राः वः सन्तु बाहवोऽनाधृष्या यथाऽसथ ॥ यजु० 17/46
मनुष्यो! आगे बढ़ो। शत्रुओं को जीतो। भगवान् तुम्हें अपनी शरण प्रदान करें। तुम्हारी भुजाएँ उग्र हों जिससे कोई तुम्हें हानि न पहुँचा सके।
इन वेद मंत्रों में बताया गया है कि कौन से कर्म उपयोगी हैं स और मनुष्य को करने चाहिए। पहला मंत्र व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्धित है। इसमें बताया गया है कि व्यक्ति की महिमा या बड़ाई किसी दूसरे की देन नहीं हो सकती। वह अपने श्रम का फल होती है। व्यक्ति का प्रथम काम तो अपने शरीर को स्वस्थ बनाना है।
दूसरे वेद मंत्र में आदेश है कि हे मनुष्य 'आगे बढ़ो! शत्रुओं पर विजय प्राप्त करो। तुम्हारी भुजाएँ उग्र हों, जिससे कोई तुम्हों हानि न पहुँचा सके। आजकल जिन राष्ट्रों के हाथ में शक्ति है, वे उस आदेश को व्यवहार में ला सकते हैं। जो राष्ट्र अशक्त हैं, वे अहिंसा गुणगान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर सकते। स्वामी दयानन्द ने अहिंसा का अर्थ वैर-त्याग किया है। यही इसका तत्व है। मैं तो किसी का शत्रु नहीं, परन्तु यदि कोई मुझ से शत्रुता करता है, तो मुझे बताना चाहिए कि इस विशाल दुनिया में जीने का मुझे भी अधिकार है।
4. अनुव्रतः पितुः पुत्रो माता भवतु संमनाः। जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम्॥ मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा। सम्यञ्चः सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया॥ अथर्व० 3/30/2-3
'पुत्र पिता के अनुकूल चलने वाला हो, माता के साथ एक मन वाला। पत्नी पति के साथ ऐसी वाणी बोले जो मधु (शहद) की मिठास वाली और शान्ति देने वाली हो ।'
भाई भाई के साथ द्वेष न करे। बहन बहन के साथ द्वेष न करे। एक मत वाले एक व्रत धारण किये हुए हितकर रीति से एक-दूसरे से बातचीत करें।
इन मंत्रों में पति-पत्नी का व्यवहार संतान का व्यवहार और भाई बहनों का पारस्परिक यवहार बतलाया गया है। एक-दूसरे की ओर सद्भावना और दूसरे के दुःख-दर्द को समझना, इस व्रत का अंश है। अतः हमारे समस्त परिवार मधुरता से, एक-दूसरे का अनुगामी, सहयोगी होकर जीवन बिताएँ ।
5. अन्ति सन्तं न जहाति अन्ति सन्तं न पश्यति । देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति ॥ अथर्व० 10/8/32
'पास बैठे हुए को छोड़ता नहीं, पास बैठे को देखता नहीं। देव के काव्य को देख, जो न कभी मरता है, न बूढ़ा होता है।'
यह वेदमंत्र ईश्वर की गरिमा के सम्बन्ध में बहुमूल्य शिक्षा देता है। मंत्र के पहले भाग में जीवात्मा के विचित्र व्यवहार के लिए कहा गया है। यह अपने एक साथी प्रकृति से चिपटा हुआ है, उसे छोड़ता नहीं और दूसरे साथी परमात्मा को देखता नहीं। यही सारे रोग (दु:ख) का मूल कारण है। जो प्रभु को जान जाता है, उसके काव्य को जान जाता है, वही वास्तव में ज्ञानी है। प्रभु की अपार महिमा मनुष्य का सच्चा मार्ग दर्शन करती है। ईश्वर को जाने बिना मनुष्य मनुष्य को भी नहीं जान सकता। अपने लक्ष्य को नहीं समझ सकता और न धार्मिक जीवन को ही व्यतीत कर सकता है। इसलिए धर्मपूर्वक कार्य करने के लिए ईश्वर के स्वरूप को समझना आवश्यक है।
6. मनुर्भव जनय दैव्या जनम्॥ ऋग्वेद० 10/53/1
मनुष्य बनें। वेद में कहीं भी हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई या बौद्ध बनने की बात नहीं कही गयी। संसार में केवल एक ही धर्मग्रंथ है जो आदेश देता है कि 'तू मनुष्य बन' क्योंकि मनुष्य बनने पर तो सारा संसार ही तेरा परिवार होगा। 'उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।' उदार जनों के लिए सारा संसार ही अपना परिवार होता है। वेद संसार के सभी मनुष्यों को एक जाति का मानता है। मनुष्य मनुष्य के बीच की सारी दीवारें मनुष्य को मनुष्य से अलग कर विवाद, युद्ध, द्वेष उत्पन्न करती है। 'वेद' शान्ति के लिए इन सभी दीवारों को मिटाने का आदेश देता है। सभी से मित्रता का आदेश देता है- 'मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे' सब को मित्र की स्नेह युक्त आँख से देख। कितनी उदात्त भावना है। प्राणीमात्र से प्यार कर कितना सुन्दर उपदेश है।
वेद ने एकता और सह-अस्तित्व का अति सुन्दर उपदेश दिया है-
'संगच्छध्वजं, संवदध्वं सं नो मनांसि जानताम्।'
तुम्हारी चाल तुम्हारी वाणी, तुम्हारे मन सभी एक समान हों। इस उपदेश पर चलें तो धरती स्वर्ग कैसे न बने? मनुष्य मात्र की एकता के लिए ही उपदेश है कि 'यत्र विश्वं भवति एकनीडम्।' कोई देश, जाति, वर्ग की दीवार मध्य में न हो से कुछ हम मिलकर आपस में बाँटकर उपयोग करें तो फिर अभाव कैसे रहे?
वेद के मार्ग पर चल कर ही यह धरती स्वर्ग बन सकती है। अशान्ति और द्वेष के वर्तमान वातावरण में मनुष्य मात्र के कल्याण के लिए, परमावश्यक है कि हम वेद के महत्त्व को समझें और वेद के आदेश का अपने जीवन में पालन करें।
7. तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सवास्यास्य बाह्यतः ॥ यजु० 40/5
'वह (ब्रह्म) - जगत् उत्पन्न करने के लिए, गति शून्य पृथ्वी को गति देता है, परन्तु स्वयं गति में नहीं आता। वह दूर है, वह समीप भी है। वह इस सब जगत् के अन्दर भी है और बाहर भी है।' परमात्मा सर्वव्यापक है और सर्वशक्तिमान् है।
8. ऋतावान् ऋतजाता ऋतावृधो घोरासो
अनृतद्विषः ।
तेषां वः सुम्ने सुच्छर्दिष्टमे नरः स्याम ये च सूरयः ॥ ऋग्वेद० 7/66/13
'जो मनुष्य सत्य के पक्षपाती, सत्य की रक्षा करने वाले, सत्य की वृद्धि करने वाले और झूठ के विरोधी होते हैं, उनकी शरण में हम सब मनुष्य हों और जो विद्वान् हैं, वे भी उनका आसरा पकड़ें।' वेद का आदेश है कि हमें सदैव सत्य की अधीनता में रहना चाहिए।
वेद के पवित्र मंत्रों में जो उपदेश दिये गये हैं, वे उदात्त और हैं। हमें वेद के आदेशों का पालन करना चाहिए, वेद का स्वाध्याय करना चाहिए और वेद का प्रचार करना चाहिए क्योंकि वेद का प्रचार प्रसार ही संसार को शान्ति और आनन्द के मार्ग पर चला सकता है ।।
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