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सहनशिलता का रहस्य



सहनशील बनो।

     दुःख और सुख, मान तथा अपमान, हानि और लाभ एवं स्तुति और निन्दा में जो सम रहता है, दुःख और सङ्कटों में भी जो हँसता और मुस्कराता रहता है-ऐसे व्यक्ति को सहनशील कहते हैं। ___ "सहनशीलता क्या है ?" किसी ने मंसूर से पूछा।

     उन्होंने उत्तर दिया, "हाथ और पैर काटकर शरीर को सूली पर लटका दिया जाये, फिर भी मुख से उफ तक न निकले, उसे सहनशीलता कहते हैं।"

     आपत्तियों और सङ्कटों को ईश्वर का वरदान और आशीर्वाद समझो। अपने कर्तव्यपथ पर हँसते और मुस्कराते हुए चलो। इसी में गौरव है। इसी में आन और शान, मान और मर्यादा है । इसी में वीरता, धीरता और सहनशीलता है। सङ्कटों से घबराओ मत, रोओ और बिसूरो मत । यदि आप रोकर चले तो चलना क्या हुया ! रोने से मार्ग सरल नहीं हो जायेगा। अतः सावधान ! मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की भांति, योगेश्वर श्री कृष्ण और महर्षि दयानन्द की भाँति, महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के समान, सुभाषचन्द्र बोस और वल्लभभाई पटेल के समान, भगतसिंह और चन्द्रशेखर आजाद के पदचिह्नों पर चलते हुए कष्टों को सहन करने का स्वभाव बनायो।

    भगवान राम के जीवन में कितनी आपत्तियाँ और संकट आये ! राज्याभिषेक के स्थान पर उन्हें वन में जाना पड़ा, परन्तु फिर भी उनके चेहरे पर विषाद और शोक की क्षीण-सी रेखा तक नहीं थी। उनकी उस अवस्था का वर्णन वसिष्ठ जी के शब्दों में पढ़िये--------

आहूतस्याभिषेकाय विसृष्टस्य बनाय च ।

न मया लक्षितस्तस्य स्वल्पोऽध्याकारविभ्रमः॥ 

    राज्याभिषेक के लिए बुलाए गए और वन के लिए विदा किये हुए, श्रीराम के मुख के आकार में मैंने कुछ भी अन्तर नहीं देखा।

     महर्षि दयानन्द के ऊपर ईंट और पत्थर फेंके गये। उन्हें हलाहल विष दिया गया। उन्हें नाना प्रकार से अपमानित किया गया । उनपर लांछन लगाये गये। उन्हें विदेशियों का एजेण्ट बतलाया गया, परन्तु वे सब-कुछ सहते रहे और मानवमात्र का कल्याण ही करते रहे।

     श्री कृष्ण के ऊपर कौन-से संकट नहीं पाये! उन्होंने कंस के अत्याचार सहे, जरासन्ध के प्रहार सहे, शिशुपाल के भी दुर्वचन सहे, परन्तु फिर भी वे शान्त रहे।

     युवको! इन जीवनियों से प्रेरणा लो और सहनशील बनो। सहनशीलता की प्रशंसा करते हुए महात्मा विदुर जी कहते है----

जिता सभा वस्त्रवता मिष्टाशा गोमता जिता। 

अध्वा जितो यानवता सर्व शीलवता जितम् ।।

(विदुर प्रजागर ३४ । ४८) सुन्दर वस्त्रधारी सभा को जीत लेता है अर्थात् सभा में आदर और सम्मान पाता है। जिसके पास गौएँ होती हैं वह पायस और मिष्टान्न को जीत लेता है। जिसके पास गाड़ी होती है वह मार्ग को जीत लेता है । जो सहनशील होता है वह सबकुछ जीत लेता है । अतः सहनशील बनो !

     सहनशील व्यक्ति के लिए संसार में कुछ भी असम्भव नहीं है। श्री भर्तृहरि जी ने कितना सुन्दर लिखा है

वह्निस्तस्य जलायते जलनिधिः कुल्यायते तत्क्षणात् । 

मेरुः स्वल्पशिलायते मृगपतिः सद्यः कुरङ्गायते॥ 

व्यालो माल्यगुणायते विषरसः पीयूषवर्षायते । 

यस्यांगोऽखिल लोकबल्लयतमं शीलं समुन्मीलति ॥

(नीतिशतक १०६) 

   जिसके हृदय में विश्वविमोहक सहनशीलता विराजमान है उसके लिए अग्नि जल के समान शीतल, समुद्र छोटी नदी-सा, मेरु पर्वत पत्थर के खण्ड के समान, सिंह हरिण के समान, सर्प पुष्पों का हार और विष अमृत के समान हो जाता है।

    मूखों के दुर्व्यवहार और कटु वचनों को सहन करो। उनके ऊपर तरस खायो। उनसे बदला लेने और उन्हें कष्ट देने की बात मत सोचो।

    एक नौका में कुछ यात्रा यात्रा कर रहे थे। एक साधु भी एक कोने में बैठे थे । कुछ दुष्टों ने साधु को छेड़ा, उन्हें तंग किया परन्तु साधु जी मौन ही रहे। इससे दुष्टों का उत्साह दुगुना हो गया। उन्होंने सन्त जी को डराया, धमकाया और अन्त में पीटा भी । मल्लाहों को साधु पर दया और दुष्टों पर क्रोध आया । उन्होंने सन्त जी से निवेदन किया, "आप आज्ञा दें तो हम इन्हें डुबा दें !" साधु ने कहा, "नहीं, ऐसा न करो । इन्होंने अज्ञानवश ऐसा किया है।"

कैसी अद्भुत सहनशीलता है !

    आज डालडा खाने के कारण सहनशीलता समाप्त हो गई है। न प्रध्यापकों में सहनशीलता है न शिष्यों में, न दुकानदारों में सहनशीलता है और न ग्राहकों में। आज तो बात-बात पर क्रोध आता है । यात्री कण्डक्टर से लड़ पड़ता है और कण्डक्टर यात्रियों से । सभाओं, समाजों और गोष्ठियों में "तू-तू, मैं-मैं" होकर लड़ाई तक हो जाती है । सभाओं, समाजों और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सहनशीलता की बड़ी आवश्यकता है। असहनशीलता और क्रोध को त्यागकर ऐसे सहनशील बनो कि वेद के शब्दों में आप यह घोषणा कर सकें

अहमस्मि महमानः। (अथवं १२ । १ । ५४) अरे! मैं तो अत्यन्त सहनशील हूँ।


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