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महाभारत आदिपर्व पञ्चमोऽध्यायः भृगुके आश्रमपर पुलोमा दानवका आगमन और उसकी अग्निदेवके साथ बातचीत

 पञ्चमोऽध्यायः भृगुके आश्रमपर पुलोमा दानवका आगमन और उसकी

अग्निदेवके साथ बातचीत

शौनक उवाच 

पुराणमखिलं तात पिता तेऽधीतवान् पुरा । 

कच्चित् त्वमपि तत् सर्वमधीषे लोमहर्षणे ॥१॥

शौनकजीने कहा-तात लोमहर्षणकुमार! पूर्वकालमें आपके पिताने सब पुराणोंका अध्ययन किया था। क्या आपने भी उन सबका अध्ययन किया है? ॥१॥

पुराणे हि कथा दिव्या आदिवंशाश्च धीमताम्। 

कध्यन्ते ये पुरास्माभिः श्रुतपूर्वाः पितुस्तव ॥ २॥

पुराणमें दिव्य कथाएँ वर्णित हैं। परम बुद्धिमान् राजर्षियों और ब्रह्मर्षियोंके आदिवंश | भी बताये गये हैं। जिनको पहले हमने आपके पिताके मुखासे सुना है ।।२।।

तत्र वंशमहं पूर्व श्रोतुमिच्छामि भार्गवम्। 

कथयस्व कथामेतां कल्याः स्म श्रवणे तव ॥३॥

उनसे प्रथम तो मैं भृगुवंशका ही वर्णन सुनना चाहता हूँ। अतः आप इसीसे सम्बन्ध रखनेवाली कथा कहिये। हम सब लोग आपकी कथा सुननेके लिये सर्वथा उद्यत हैं ।।३।।

सौतिरुवाच यदधीतं पुरा सम्यग् द्विजश्रेष्ठेमहात्मभिः । वैशम्पायनविप्राग्यस्तश्चापि कथितं यथा ।। ४ ।।

सूतपुत्र उग्रश्रवाने कहा-भृगुनन्दन! वैशम्पायन आदि श्रेष्ठ ब्राह्मणों और महात्मा द्विजवरोंने पूर्वकालमें जो पुराण भलीभांति पढा था और उन विद्वानोंने जिस प्रकार पुराणका वर्णन किया है, वह सब मुझे ज्ञात है।४।।

यदधीतं च पित्रा में सम्यक् चैव ततो मया । 

तावच्छृणुष्व यो देवः सेन्द्रः सर्षिमरुद्गणः ॥५॥ 

पूजितः प्रवरो वंशो भार्गवो भगुनन्दन । 

इमं वंशमहं पूर्व भार्गवं ते महामुने ।।६।। 

निगदामि यथा युक्तं पुराणाश्रयसंयुतम् । 

भृगुमहर्षिर्भगवान् ब्रह्मणा वै स्वयम्भुवा ।। ७॥ 

वरुणस्य क्रती जातः पावकादिति नः श्रुतम्। 

भृगोः सुदयितः पुत्रश्यवनो नाम भार्गवः ।।८।।


मेरे पिताने जिस पुराणविद्याका भलीभाँति अध्ययन किया था, वह सब मैंने उन्हींके मुखसे पढ़ी और सुनी है। भृगुनन्दन! आप पहले उस सर्वश्रेष्ठ भगवंशका वर्णन सुनिये, जो देवता, इन्द्र, ऋषि और मरुद्गणोंसे पूजित है। महामुने! आपके इस अत्यन्त दिव्य भार्गववंशका परिचय देता हूँ। यह परिचय अदभुत एवं युक्तियुक्त तो होगा ही, पुराणोंके आश्रयसे भी संयुक्त होगा। हमने सुना है कि स्वयम्भू ब्रह्माजीने वरुणके यज्ञमें महर्षि भगवान् भृगुको अग्निसे उत्पन्न किया था। भृगुके अत्यन्त प्रिय पुत्र च्यवन हुए, जिन्हें भार्गव भी कहते हैं ।।५-८॥

च्यवनस्य च दायादः प्रमति म धार्मिकः । 
प्रमतेरप्यभूत् पुत्रो घृताच्यां रुरुरित्युत ॥९॥ 

च्यवनके पुत्रका नाम प्रमति था, जो बड़े धर्मात्मा हुए। प्रमतिके घृताची नामक अप्सराके गर्भसे रुरु नामक पुत्रका जन्म हुआ ।। ९॥ 

रुरोरपि सुतो जज्ञे शुनको वेदपारगः । 
प्रमद्वरायां धर्मात्मा तव पूर्वपितामहः ॥ १०॥

रुरुके पुत्र शुनक थे, जिनका जन्म प्रमद्वराके गर्भसे हुआ था। शुनक वेदोंके पारंगत विद्वान् और धर्मात्मा थे। वे आपके पूर्व पितामह थे ।। १० ॥

तपस्वी च यशस्वी च श्रुतवान् ब्रह्मवित्तमः ।। 
धार्मिकः सत्यवादीच नियतो नियताशनः ।।११।।

वे तपस्वी, यशस्वी, शास्त्रज्ञ तथा ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ थे। धर्मात्मा, सत्यवादी और मन. इन्द्रियोंको वश में रखनेवाले थे। उनका आहार-विहार नियमित एवं परिमित था ॥ ११ ॥

शौनक उवाच सूतपुत्र यथा तस्य भार्गवस्य महात्मनः । 
च्यवनत्वं परिख्यातं तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः ।। १२ ।।

शोनकजी बोले-सूतपुत्र! मैं पूछता हूँ कि महात्मा भार्गवका नाम च्यवन कैसे प्रसिद्ध हुआ? यह मुझे बताइये ।। १२ ।।

सौतिरुवाच भृगोः सुदयिता भार्या पुलोमेत्यभिविश्रुता । 
तस्यां समभवद् गर्भो भृगुवीर्यसमुद्भवः ।। १३ ।।

उग्रश्रवाजीने कहा-महामुने! भृगुकी पत्नीका नाम पुलोमा था। वह अपने पतिको बहुत ही प्यारी थी। उसके उदरमें भगुजीके वीर्यसे उत्पन्न गर्भ पल रहा था ।। १३ ।।

तस्मिन् गर्भेऽथ सम्भूते पुलोमायां भृगृहह । 
समये समशीलिन्यां धर्मपत्न्यां यशस्विनः ।। १४ ।। 
अभिषेकाय निष्क्रान्ते भृगो धर्मभृतां वरे।
आश्रमं तस्य रक्षोऽथ पुलोमाभ्याजगाम ह ।।१५।।

भृगुवंशशिरोमणे! पुलोमा यशस्वी भृगुकी अनुकूल शील-स्वभाववाली धर्मपत्नी थी। उसकी कुक्षिमें उस गर्भक प्रकट होनेपर एक समय धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भृगुजी स्नान करनेके लिये आश्रमसे बाहर निकले। उस समय एक राक्षस, जिसका नाम भी पुलोमा ही था, उनके आश्रमपर आया ।। १४-१५ ।।

तं प्रविश्याश्रमं दृष्ट्वा भृगोर्भार्यामनिन्दिताम् । 
हृच्छयेन समाविष्टो विचेताः समपद्यत ।।१६।।

आश्रममें प्रवेश करते ही उसकी दृष्टि महर्षि भृगुकी पतिव्रता पत्नीपर पड़ी और वह कामदेवके वशीभूत हो अपनी सुध-बुध खो बैठा ।। १६ ॥

अभ्यागतं तु तद्रक्षः पुलोमा चारुदर्शना। 
न्यमन्त्रयत वन्येन फलमूलादिना तदा ।। 17॥

सुन्दरी पुलोमाने उस राक्षसको अभ्यागत अतिथि मानकर वनके फल-मूल आदिसे उसका सत्कार करनेके लिये उसे न्योता दिया ॥ १७ ॥

तां तु रक्षस्तदा ब्रह्मन् हृच्छयेनाभिपीडितम् । 

दृष्ट्वा हृष्टमभूद राजन् जिहीर्षुस्तामनिन्दिताम् ।। १८ ॥


ब्रह्मन! वह राक्षस कामसे पीड़ित हो रहा था। उस समय उसने वहाँ पुलोमाको अकेली देख बड़े हर्षका अनुभव किया, क्योंकि वह सती-साध्वी पुलोमाको हर ले जाना चाहता था ।। १८ ॥


जातमित्यब्रवीत् कार्य जिहीर्षुर्मुदितः शुभाम् । 

सा हि पूर्व वृता तेन पुलोम्ना तु शुचिस्मिता ।। १९ ।।


मनमें उस शुभलक्षणा सतीके अपहरणकी इच्छा रखकर वह प्रसन्नतासे फूल उठा और मन-ही-मन बोला, 'मेरा तो काम बन गया।' पवित्र मुसकानवाली पुलोमाको पहले उस पुलोमा नामक राक्षसने वरण- किया था ।। १९ ।।

तां तु प्रादात् पिता पश्चाद् भृगवे शास्त्रवत्तदा । 

तस्य तत् किल्बिषं नित्यं हदि वर्तति भार्गव ।।२०।।

किंतु पीछे उसके पिताने शास्त्रविधिके अनुसार महर्षि भृगुके साथ उसका विवाह कर दिया। भृगुनन्दन! उसके पिताका वह अपराध राक्षसके हृदयमें सदा कटि-सा कसकता रहता था ॥ २०॥


इदमन्तरमित्येवं हर्तुं चक्रे मनस्तदा। 

अथाग्निशरणेऽपश्यज्ज्वलन्तं जातवेदसम् ।।२१।।

यही अच्छा मौका है, ऐसा विचारकर उसने उस समय पुलोमाको हर ले जानेका पक्का निश्चय कर लिया। इतनेहीमें राक्षसने देखा, अग्निहोत्र-गृहमें अग्निदेव प्रज्वलित हो रहे है ।। २१ ।।

तमपृच्छत् ततो रक्षः पावकं ज्वलितं तदा । 

शंस मे कस्य भार्येयमग्ने पृच्छे ऋतेन वै ।। २२ ।।


तब पुलोमाने उस समय उस प्रज्वलित पावकसे पूछा-'अग्निदेव! मैं सत्यकी शपथ देकर पूछता हूँ, बताओ, यह किसकी पत्नी है?' ।। २२ ।।

मुखं त्वमसि देवानां वद पावक पूच्छते। 

मया हीयं वृता पूर्व भार्यार्थे वरवर्णिनी ।। २३ ।।

'पावक! तुम देवताओंके मुख हो। अतः मेरे पूछनेपर ठीक-ठीक बताओ। पहले तो मैंने ही इस सुन्दरीको अपनी पत्नी बनानेके लिये वरण किया था ।। २३ ।।

पश्चादिमां पिता प्रादाद् भृगवेऽनृतकारकः । 

सेयं यदि वरारोहा भूगोर्भार्या रहोगता ॥ २४ ॥ 

तथा सत्यं समाख्याहि जिहीर्षाम्याश्रमादिमाम्। 

समन्युस्तत्र हृदयं प्रदहन्निव तिष्ठति। 

मत्पूर्वभार्या यदिमां भगुराप सुमध्यमाम् ।। २५ ।।


'किंतु बादमें असत्य व्यवहार करनेवाले इसके पिताने भगके साथ इसका विवाह कर दिया। यदि यह एकान्तमें मिली हुई सुन्दरी भृगकी भार्या है तो वैसी बात सच-सच बता दो; क्योंकि मैं इसे इस आश्रमसे हर ले जाना चाहता हूँ। वह क्रोध आज मेरे हृदयको दग्ध-सा कर रहा है। इस सुमध्यमाको, जो पहले मेरी भार्या थी, भगने अन्यायपूर्वक हड़प लिया है ।। २४-२५ ।।

सौतिरुवाच एवं रक्षस्तमामन्त्र्य ज्वलितं जातवेदसम्। 

शङ्कमानं भृगोर्भार्या पुनः पुनरपृच्छत ।। २६ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-इस प्रकार वह राक्षस भृगुकी पत्नीके प्रति, यह मेरी है या भृगुकी-ऐसा संशय रखते हुए, प्रज्वलित अग्निको सम्बोधित करके बार-बार पूछने लगा -||२६ ॥


त्वमग्ने सर्वभूतानामन्तञ्चरसि नित्यदा । 
साक्षिवत् पुण्यपापेषु सत्यं ब्रूहि कवे वचः ।। २७ ।। 

'अग्निदेव! तुम सदा सब प्राणियोंके भीतर निवास करते हो। सर्वज्ञ अग्ने! तुम पुण्य और पापके विषयमें साक्षीकी भांति स्थित रहते हो; अतः सच्ची बात बताओ ।।२०।। 

मत्पूर्वापहृता भार्या भगुणानृतकारिणा। 
सेयं यदि तथा मे त्वं सत्यमाख्यातुमर्हसि ।। २८ ।।

"असत्य बर्ताव करनेवाले भृगुने, जो पहले मेरी ही थी, उस भार्याका अपहरण किया है। यदि यह वही है, तो वैसी बात ठीक-ठीक बता दो ।। २८ ।।

श्रुत्वा त्वत्तो भगोर्भार्या हरिष्याम्याश्रमादिमाम्। 
जातवेदः पश्यतस्ते वद सत्यां गिरं मम ।। २९ ।। 

'सर्वज्ञ अग्निदेव! तुम्हारे मुखसे सब बातें सुनकर मैं भृगुकी इस भार्याको तुम्हारे देखते-देखते इस आश्रमसे हर ले जाऊँगा; इसलिये मुझसे सच्ची बात कहो' ।। २९ ।।

सोतिरुवाच 

स्येतद् वचनं श्रुत्वा सप्तार्चिवुःखितोऽभवत् । 
भीतोऽन्ताच्च शापाच्च भूगोरित्यब्रवीच्छनः ॥ ३०॥

उग्रश्रवाजी कहते हैं-राक्षसकी यह बात सुनकर ज्वालामयी सात जिह्वावाले अग्निदेव बहुत दुःखी हुए। एक ओर वे झूठसे डरते थे तो दूसरी ओर भृगुके शापसे; अतः धीरेसे इस प्रकार बोले ॥३०॥

अग्निनरुवाच त्वया वृता पुलोमेयं पूर्व दानवनन्दन । 
किन्त्वियं विधिना पूर्व मन्त्रवन वृता त्वया ।।३१।।

अग्निदेव बोले-दानवनन्दन! इसमें संदेह नहीं कि पहले तुम्हीने इस पुलोमाका वरण किया था, किंतु विधिपूर्वक मन्त्रोच्चारण करते हुए इसके साथ तुमने विवाह नहीं किया था ।।३१।।

पित्रा तु भगवे दत्ता पुलोमेयं यशस्विनी।। 
ददाति न पिता तुभ्यं वरलोभान्महायशाः ।। ३२ ॥

पिताने तो यह यशस्विनी पुलोमा भृगुको ही दी है। तुम्हारे वरण करनेपर भी इसके महायशस्वी पिता तुम्हारे हाथमें इसे इसलिये नहीं देते थे कि उनके मनमें तुमसे श्रेष्ठ वर मिल जानेका लोभ था ।। ३२ ॥

अथेमां वेददृष्टेन कर्मणा विधिपूर्वकम्। 
भार्यामृषि गुः प्राप मां पुरस्कृत्य दानव ।। ३३ ।।

दानव! तदनन्तर महर्षि भृगुने मुझे साक्षी बनाकर वेदोक्त क्रियाद्वारा विधिपूर्वक इसका पाणिग्रहण किया था ।। ३३ ||

सेयमित्यवगच्छामि नानृतं वक्तुमुत्सहे। 
नानृतं हि सदा लोके पूज्यते दानवोत्तम ।। ३४ ।।

यह वही है, ऐसा मैं जानता हूँ। इस विषयमें मैं झूठ नहीं बोल सकता। दानवश्रेष्ठ! लोकमें असत्यकी कभी पूजा नहीं होती है ।। ३४ ।। 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पोलोमपर्वणि पुलोमाग्निसंवादे पञ्चमोऽध्यायः ।। ५।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें पुलोमा-अग्निसंवादविषयक पांचवा अध्याय पूरा हुआ ॥५॥

बाल्यावस्था पुलोमा रो रही थी। उसके रोदनकी नियतिके लिये मांने डराते हुए कहा- राक्षसा इसे पकड़ ले जाए, पर पुलोमा राक्षस पहले से ही वहां उपस्थित था। उसने मन-ही-मन उसका वरण कर लिया-कि 'यह मेरी पत्नी है। बात केवल इतनी ही थी। इसका अभिप्राय यह है कि हँसी-खेल भी या डॉटने-फटकारनेके लिये भी बालको से ऐसी बात नहीं कहानी चाहिये और राक्षसका नाम भी नहीं रखना चाहिये।

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