(पौलोमपर्व) चतुर्थोऽध्यायः
कथा-प्रवेश
लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाः सौतिः पौराणिको नैमिषारण्ये शोनकस्य कुलपतेद्वादशवार्षिके सत्रे ऋषीनभ्यागतानुपतस्थे ॥१॥
नैमिषारण्यमें कुलपति शौनकके बारह वर्षोंतक चालू रहनेवाले सत्रमें उपस्थित महर्षियोंके समीप एक दिन लोमहर्षणपुत्र सूतनन्दन उग्रश्रवा आये। वे पुराणोंकी कथा कहनेमें कुशल थे ॥१॥
पौराणिकः पुराणे कृतश्रमः स कृताञ्जलिस्तानुवाच ।
किं भवन्तः श्रोतुमिच्छन्ति किमहं ब्रवाणीति ॥ २॥
वे पुराणोंके ज्ञाता थे। उन्होंने पुराणविद्यामें बहुत परिश्रम किया था। वे नैमिषारण्यवासी महर्षियोंसे हाथ जोड़कर बोले-'पूज्यपाद महर्षिगण! आपलोग क्या सुनना चाहते हैं? मैं किस प्रसंगपर बोलूँ? ॥२॥
तमृषय ऊचुः परमं लोमहर्षणे वक्ष्यामस्त्वां नः प्रतिवक्ष्यसि वचः शुश्रूषतां कथायोगं नः कथायोगे ॥३॥
तब ऋषियोंने उनसे कहा-लोमहर्षणकुमार! हम आपको उत्तम प्रसंग बतलायेंगे और कथा-प्रसंग प्रारम्भ होनेपर सुननेकी इच्छा रखनेवाले हमलोगोंके समक्ष आप बहुत-सी कथाएँ कहेंगे ||३||
तत्र भगवान् कुलपतिस्तु शोनकोऽग्निशरणमध्यास्ते ।। ४ ।। किंतु पूज्यपाद कुलपति भगवान् शौनक अभी अग्निकी उपासनामें संलग्न हैं ।। ४ ।। योऽसी दिव्याः कथा वेद देवतासुरसंश्रिताः । मनुष्योरगगन्धर्वकथा वेद च सर्वशः ॥५॥
वे देवताओं और असुरोंसे सम्बन्ध रखनेवाली बहुत-सी दिव्य कथाएँ जानते हैं। मनुष्यों, नागों तथा गन्धर्वोकी कथाओंसे भी वे सर्वथा परिचित हैं ।।५।।
स चाप्यस्मिन् मखे सोते विद्वान् कुलपतिर्द्विजः ।
दक्षो धूतव्रतो धीमाञ्छास्त्रे चारण्यके गुरुः ॥६॥
सूतनन्दन! वे विद्वान् कुलपति विप्रवर शौनकजी भी इस यज्ञमें उपस्थित हैं। वे चतुर, उत्तम व्रतधारी तथा बुद्धिमान् हैं। शास्त्र (श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण) तथा आरण्यक (बृहदारण्यक आदि)-के तो वे आचार्य ही हैं।। ६॥
सत्यवादी शमपरस्तपस्वी नियतव्रतः ।
सर्वेषामेव नो मान्यः स तावत् प्रतिपाल्यताम् ॥७॥
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