विंशोऽध्यायः
कद्रू और विनताकी होड़, कद्रूद्वारा अपने पुत्रोंको शाप एवं ब्रह्माजीद्वारा उसका अनुमोदन
सौतिरुवाच
एतत् ते कथितं सर्वममृतं मथितं यथा।
यत्र सोऽश्वः समुत्पन्नः श्रीमानतुलविक्रमः ॥१॥
यं निशम्य तदा कदूर्विनतामिदमब्रवीत् ।
उच्चैःश्रवा हि किं वर्णो भद्रे प्रब्रूहि माचिरम् ।।२।।
उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनकादि महर्षियो! जिस प्रकार अमृत मथकर निकाला गया, वह सब प्रसंग मैंने आपलोगोंसे कह सुनाया। उस अमृत-मन्थनके समय ही वह अनुपम वेगशाली सुन्दर अश्व उत्पन्न हुआ था, जिसे देखकर कद्रूने विनतासे कहा-'भद्रे! शीघ्र बताओ तो यह उच्चैःश्रवा घोड़ा किस रंगका है?' ।। १-२ ।।
विनतोवाच
श्वेत एवाश्वराजोऽयं किं वा त्वं मन्यसे शुभे ।
ब्रूहि वर्णं त्वमप्यस्य ततोऽत्र विपणावहे ।।३।।
विनता बोली-शुभे! यह अश्वराज श्वेत वर्णका ही है। तुम इसे कैसा समझती हो? तुम भी इसका रंग बताओ, तब हम दोनों इसके लिये बाजी लगायेंगी ।। ३ ।।
कदूरुवाच कृष्णवालमहं मन्ये हयमेनं शुचिस्मिते ।
एहि सार्थ मया दीव्य दासीभावाय भामिनि ।। ४ ।।
कद्रू ने कहा-पवित्र मुसकानवाली बहन! इस घोड़े (का रंग तो अवश्य सफेद है, किंतु इस)-की पूँछको मैं काले रंगकी ही मानती हूँ। भामिनि! आओ, दासी होनेकी शर्त रखकर मेरे साथ बाजी लगाओ (यदि तुम्हारी बात ठीक हुई तो मैं दासी बनकर रहूँगी; अन्यथा तुम्हें मेरी दासी बनना होगा) ।। ४ ।।
सौतिरुवाच
एवं ते समयं कृत्वा दासीभावाय वै मिथः ।
जग्मतुः स्वगृहानेव श्वो द्रक्ष्याव इति स्म ह॥५॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं-इस प्रकार वे दोनों बहनें आपसमें एक-दूसरेकी दासी होनेकी शर्त रखकर अपने-अपने घर चली गयीं और उन्होंने यह निश्चय किया कि कल आकर घोड़ेको देखेंगी ॥ ५ ॥
ततः पुत्रसहस्रं तु कटूर्जिा चिकीर्षती।
आज्ञापयामास तदा वाला भूत्वाञ्जनप्रभाः ॥६॥
आविशध्वं हयं क्षिप्रं दासी न स्यामहं यथा ।
नावपद्यन्त ये वाक्यं ताञ्छशाप भुजङ्गमान् ।।७॥
सर्पसत्रे वर्तमाने पावको वः प्रधक्ष्यति ।
जनमेजयस्य राजर्षेः पाण्डवेयस्य धीमतः ।।८॥
कद्रू कुटिलता एवं छलसे काम लेना चाहती थी। उसने अपने सहस्र पुत्रोंको इस समय आज्ञा दी कि तुम काले रंगके बाल बनकर शीघ्र उस घोडे़की पूँछमें लग जाओ, जिससे मुझे दासीन होना पड़े। उस समय जिसने उसकी आज्ञा न मानी उन्हें उसने शाप दिया कि, 'जाओ, पाण्डववंशी बुद्धिमान् राजर्षि जनमेजयके सर्पयज्ञका आरम्भ होनेपर उसमें प्रज्वलित अग्नि तुम्हें जलाकर भस्म कर देगी ।। ६-८॥
शापमेनं तु शुश्राव स्वयमेव पितामहः ।
अतिक्रूरं समुत्सृष्टं कट्वा देवादतीव हि ॥९॥
इस शापको स्वयं ब्रह्माजीने सुना। यह देवसंयोगकी बात है कि सर्पोको उनकी माता कटूकी ओरसे ही अत्यन्त कठोर शाप प्राप्त हो गया ।। ९ ।।
सार्ध देवगणैः सर्वैर्वाचं तामन्वमोदत ।
बहुत्वं प्रेक्ष्य सर्पाणां प्रजानां हितकाम्यया ।।१०।।
सम्पूर्ण देवताओंसहित ब्रह्माजीने सोंकी संख्या बढ़ती देख प्रजाके हितकी इच्छासे कटूकी उस बातका अनुमोदन ही किया ।। १०॥
तिग्मवीर्यविषा ह्येते दन्दशूका महाबलाः ।
तेषां तीक्ष्णविषत्वाद्धि प्रजानां च हिताय च ।।११।।
युक्तं मात्रा कतं तेषां परपीडोपसर्पिणाम ।
अन्येषामपि सत्त्वानां नित्यं दोषपरास्तु ये ॥ १२ ॥
तेषां प्राणान्तको दण्डो देवेन विनिपात्यते ।
एवं सम्भाष्य देवस्तु पूज्य कटूंच तां तदा ॥ १३ ॥
आहूय कश्यपं देव इदं वचनमब्रवीत् ।
यदेते दन्दशूकाश्च सर्पा जातास्त्वयानघ ।। १४ ।।
विषोल्बणा महाभोगा मात्रा शप्ता: परंतप ।
तत्र मन्युस्त्वया तात न कर्तव्यः कथंचन ।। १५ ।।
दृष्टं पुरातनं ह्येतद् यज्ञे सर्पविनाशनम् ।
इत्युक्त्वा सृष्टिकृद् देवस्तं प्रसाद्य प्रजापतिम् ।
प्रादाद् विषहरी विद्यां कश्यपाय महात्मने ।। १६ ।।
'ये महाबली दुःसह पराक्रम तथा प्रचण्ड विषसे युक्त हैं। अपने तीखे विषके कारण ये सदा दूसरोंको पीड़ा देनेके लिये दौड़ते-फिरते हैं। अतः समस्त प्राणियोंके हितकी दृष्टिसे इन्हें शाप देकर माता कद्रू ने उचित ही किया है। जो सदा दूसरे प्राणियोंको हानि पहुँचाते रहते हैं, उनके ऊपर देवके द्वारा ही प्राणनाशक दण्ड आ पड़ता है।' ऐसी बात कहकर ब्रह्माजीने कद्रू की प्रशंसा की और कश्यपजीको बुलाकर यह बात कही-'अनघ! तुम्हारे द्वारा जो ये लोगोंको डंसनेवाले सर्प उत्पन्न हो गये हैं. इनके शरीर बहुत विशाल और विष बड़े भयंकर हैं। परंतप! इन्हें इनकी माताने शाप दे दिया है. इसके कारण तुम किसी तरह भी उसपर क्रोध न करना। तात! यज्ञमें सर्पोका नाश होनेवाला है, यह पुराणवृत्तान्त तुम्हारी दृष्टि में भी है ही।' ऐसा कहकर सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीने प्रजापति कश्यपको प्रसन्न करके उन महात्माको सर्पों का विष उतारनेवाली विद्या प्रदान की ।।११-१६।।
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