एकोनविंशोऽध्यायः
देवताओंका अमृतपान, देवासुरसंग्राम तथा देवताओंकी विजय
सोतिरुवाच
अथावरणमुख्यानि नानाप्रहरणानि च ।
प्रगृह्याभ्यद्रवन् देवान् सहिता दैत्यदानवाः ॥१॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं-अमृत हाथसे निकल जानेपर दैत्य और दानव संगठित हो गये और उत्तम-उत्तम कवच तथा नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लेकर देवताओंपर टूट पड़े ।। १॥
ततस्तदमृतं देवो विष्णुरादाय वीर्यवान्।
जहार दानवेन्द्रेभ्यो नरेण सहितः प्रभुः ॥२॥
ततो देवगणाः सर्वे पपुस्तदमृतं तदा।
विष्णोः सकाशात् सम्प्राप्य सम्भ्रमे तुमुले सति ॥३॥
उधर अनन्त शक्तिशाली नरसहित भगवान नारायणने जब मोहिनीरूप धारण करके दानवेन्द्रोंके हाथसे अमृत लेकर हड़प लिया, तब सब देवता भगवान विष्णुसे अमृत ले. लेकर पीने लगे; क्योंकि उस समय घमासान युद्धकी सम्भावना हो गयी थी ।। २-३ ।।
ततः पिबत्सु तत्कालं देवेष्वमृतमीप्सितम्।
राहुर्विबुधरूपेण दानवः प्रापिबत् तदा ।।४।।
जिस समय देवता उस अभीष्ट अमृतका पान कर रहे थे, ठीक उसी समय राह नामक दानवने देवतारूपसे आकर अमृत पीना आरम्भ किया ॥४॥
तस्य कण्ठमनुप्राप्ते दानवस्यामृते तदा।
आख्यातं चन्द्रसूर्याभ्यां सुराणां हितकाम्यया ॥५॥
वह अमृत अभी उस दानवके कण्ठतक ही पहुँचा था कि चन्द्रमा और सूर्यने देवताओंके हितकी इच्छासे उसका भेद बतला दिया ॥ ५ ॥
ततो भगवता तस्य शिरश्छिन्नमलंकृतम्।
चक्रायुधेन चक्रेण पिबतोऽमृतमोजसा ॥६॥
तब चक्रधारी भगवान् श्रीहरिने अमृत पीनेवाले उस दानवका मुकुटमण्डित मस्तक चक्रद्वारा बलपूर्वक काट दिया ।।६।।
तच्छेलशृङ्गप्रतिमं दानवस्य शिरो महत् ।
चक्रच्छिन्नं खमुत्पत्य ननादातिभयंकरम् ।।७।।
चक्रसे कटा हुआ दानवका महान् मस्तक पर्वतके शिखर-सा जान पड़ता था। वह आकाशमें उछल-उछलकर अत्यन्त भयंकर गर्जना करने लगा ।। ७ ॥
तत् कबन्धं पपातास्य विस्फुरद् धरणीतले ।
सपर्वतवनद्वीपां दैत्यस्याकम्पयन् महीम् ।।८।।
किंतु उस दैत्यका वह धड़ धरतीपर गिर पड़ा और पर्वत, वन तथा द्वीपोंसहित समूची पृथ्वीको कपाता हुआ तड़फड़ाने लगा ।।८।।
ततो वेरविनिर्बन्धः कृतो राहुमुखेन वै।
शाश्वतश्चन्द्रसूर्याभ्यां ग्रसत्यद्यापि चैव तो ॥९॥
तभीसे राहुके मुखने चन्द्रमा और सूर्यके साथ भारी एवं स्थायी वैर बाँध लिया; इसीलिये वह आज भी दोनोंपर ग्रहण लगाता है ।।९।।
विहाय भगवांश्चापि स्त्रीरूपमतुलं हरिः ।
नानाप्रहरणे(मानवान् समकम्पयत् ।। १०॥
(देवताओंको अमृत पिलानेके बाद) भगवान् श्रीहरिने भी अपना अनुपम मोहिनीरूप त्यागकर नाना प्रकारके भयंकर अस्त्र-शस्त्रोद्वारा दानवोंको अत्यन्त कम्पित कर दिया ॥१०॥
ततः प्रवृत्तः संग्रामः समीपे लवणाम्भसः ।
सुराणामसुराणां च सर्वघोरतरो महान् ॥ ११ ॥
फिर तो क्षारसागरके समीप देवताओं और असुरोंका सबसे भयंकर महासंग्राम छिड़ गया ॥ ११ ॥
प्रासाश्च विपुलास्तीक्ष्णा न्यपतन्त सहस्रशः ।
तोमराश्च सुतीक्ष्णाग्राः शस्त्राणि विविधानि च ।। १२ ।।
दोनों दलोंपर सहस्रों तीखी धारवाले बड़े-बड़े भालोंकी मार पड़ने लगी। तेज नोकवाले तोमर तथा भाँति-भांतिके शस्त्र बरसने लगे ।। १२ ।।
ततोऽसुराश्चक्रभिन्ना वमन्तो रुधिरं बहु ।
असिशक्तिगदारुग्णा निपेतुर्धरणीतले ॥ १३ ॥
छिन्नानि पट्टिशेश्चैव शिरांसि युधि दारुणः ।
तप्तकाञ्चनमालीनि निपेतुरनिशं तदा ।। १४ ।।
भगवानके चक्रसे छिन्न-भिन्न तथा देवताओंके खड्ग, शक्ति और गदासे घायल हुए असुर मुखसे अधिकाधिक रक्त वमन करते हुए पृथ्वीपर लोटने लगे। उस समय तपाये हुए सुवर्णकी मालाओंसे विभूषित दानवोंके सिर भयंकर पट्टिशोंसे कटकर निरन्तर युद्धभूमिमें गिर रहे थे ।। १३-१४ ।।
रुधिरेणानुलिप्ताङ्गा निहताश्च महासुराः।
अद्रीणामिव कूटानि धातुरक्तानि शेरते ।।१५।।
वहाँ खूनसे लथपथ अंगवाले मरे हुए महान् असुर, जो समरभूमिमें सो रहे थे, गेरू आदि धातुओंसे रंगे हुए पर्वत-शिखरोंके समान जान पड़ते थे ।। १५ ।।
हाहाकारः समभवत् तत्र तत्र सहस्रशः।
अन्योन्यं छिन्दतां शस्त्रैरादित्ये लोहितायति ।।१६।।
संध्याके समय जब सूर्यमण्डल लाल हो रहा था, एक-दूसरेके शस्त्रोंसे कटनेवाले सहस्रों योद्धाओंका हाहाकार इधर-उधर सब ओर गूंज उठा ।।१६।।
परिघैरायसैस्तीक्ष्णैः संनिकर्षे च मुष्टिभीः।
निघ्नतांसमरेअन्योन्यं शब्दो दिवमिवास्पृशत्।।17।।
उस समरांगणमें दूरवर्ती देवता और दानव लोहेके तीखे परिधोंसे एक-दूसरेपर चोट करते थे और निकट आ जानेपर आपसमें मुक्का -मुक्की करने लगते थे। इस प्रकार उनके पारस्परिक आघात-प्रत्याघातका शब्द मानो सारे आकाशमें गूंज उठा ।।17।।
छिन्धि भिन्धि प्रधाव त्वं पातयाभिसरेति च ।
व्यश्रूयन्त महाघोराः शब्दास्तत्र समन्ततः ।। १८ ॥
उस रणभूमिमें चारों ओर ये ही अत्यन्त भयंकर शब्द सुनायी पड़ते थे कि 'टुकड़ेटुकड़े कर दो, चीर डालो, दौड़ो, गिरा दो और पीछा करो' ॥ १८॥
एवं सुतुमुले युद्धे वर्तमाने महाभये ।
नरनारायणी देवो समाजग्मतुराहवम् ॥ १९ ॥
इस प्रकार अत्यन्त भयंकर तुमुल युद्ध हो ही रहा था कि भगवान् विष्णुके दो रूप नर और नारायणदेव भी युद्धभूमिमें आ गये ।। १९ ॥
तत्र दिव्यं धनुर्दष्टवा नरस्य भगवानपि ।
चिन्तयामास तच्चक्रं विष्णुनवसूदनम् ।। २०॥
भगवान् नारायणने वहाँ नरके हाथमें दिव्य धनुष देखकर स्वयं भी दानवसंहारक दिव्य चक्रका चिन्तन किया ।।२०।।
ततोऽम्बराच्चिन्तितमात्रमागतं महाप्रभं चक्रममित्रतापनम् । विभावसोस्तुल्यमकुण्ठमण्डलंसुदर्शनं संयति भीमदर्शनम् ।। २१ ।।
चिन्तन करते ही शत्रुओंको संताप देनेवाला अत्यन्त तेजस्वी चक्र आकाशमार्गसे उनके हाथमें आ गया। वह सूर्य एवं अग्निके समान जाज्वल्यमान हो रहा था। उस मण्डलाकार चक्रकी गति कहीं भी कुण्ठित नहीं होती थी। उसका नाम तो सुदर्शन था, किंतु वह युद्धमें शत्रुओंके लिये अत्यन्त भयंकर दिखायी देता था ।। २१ ।।
तदागतं ज्वलितहुताशनप्रभंभयंकरं करिकरबाहुरच्युतः ।
मुमोच वै प्रबलवदुगवेगवान् __ महाप्रभं परनगरावदारणम् ।। २२ ।।
वहाँ आया हुआ वह भयंकर चक्र प्रज्वलित अग्निके समान प्रकाशित हो रहा था। उसमें शत्रुओंके बड़े-बड़े नगरोंको विध्वंस कर डालनेकी शक्ति थी। हाथीकी सूंडके समान विशाल भुजदण्डवाले उग्रवेगशाली भगवान् नारायणने उस महातेजस्वी एवं महाबलशाली चक्रको दानवोंके दलपर चलाया ।। २२ ।।
तदन्तकज्वलनसमानवर्चसंपुनः पुनर्व्यपतत वेगवत्तदा ।
विदारयद् दितिदनुजान् सहस्रशः ___ करेरितं पुरुषवरेण संयुगे ।। २३ ।।
उस महासमरमें पुरुषोत्तम श्रीहरिके हाथोंसे संचालित हो वह चक्र प्रलयकालीन अग्निके समान जाज्वल्यमान हो उठा और सहस्रों दैत्यों तथा दानवोंको विदीर्ण करता हुआ बड़े वेगसे बारम्बार उनकी सेनापर पड़ने लगा ।। २३ ।।
दहत् क्वचिज्ज्वलन इवावलेलिहत्प्रसह्य तानसुरगणान् न्यकृन्तत ।
प्रवेरितं वियति मुहुः क्षिती तथापपोरणे रुधिरमथो पिशाचवत् ।। २४ ।।
श्रीहरिके हाथोंसे चलाया हुआ सुदर्शन चक्र कभी प्रज्वलित अग्निकी भाँति अपनी लपलपाती लपटोंसे असुरोंको चाटता हुआ भस्म कर देता और कभी हठपूर्वक उनके टुकड़े-टुकड़े कर डालता था। इस प्रकार रणभूमिके भीतर पृथ्वी और आकाशमें घूमघूमकर वह पिशाचकी भौति बार-बार रक्त पीने लगा ।। २४ ।।
तथासुरा गिरिभिरदीनचेतसो मुहर्मुहुः सुरगणमादयस्तदा।
महाबला विगलितमेघवर्चसः सहस्रशो गगनमभिप्रपद्य ह ।।२५।।
इसी प्रकार उदार एवं उत्साहभरे हृदयवाले महाबली असुर भी, जो जलरहित बादलोंके समान श्वेत रंगके दिखायी देते थे, उस समय सहस्रोंकी संख्यामें आकाशमें उड़-उड़कर शिलाखण्डोंकी वर्षासे बार-बार देवताओंको पीड़ित करने लगे ।। २५।।
अथाम्बराद् भयजननाः प्रपेदिरेसपादपा बहुविधमेघरूपिणः ।
महाद्रयः परिगलिताग्रसानवःपरस्परं द्रुतमभिहत्य सस्वनाः ।। २६ ।।
तत्पश्चात् आकाशसे नाना प्रकारके लाल, पीले, नीले आदि रंगवाले बादलों-जैसे बड़ेबड़े पर्वत भय उत्पन्न करते हुए वृक्षोंसहित पथ्वीपर गिरने लगे। उनके ऊँचे-ऊँचे शिखर गलते जा रहे थे और वे एक-दूसरेसे टकराकर बड़े जोरका शब्द करते थे।॥ २६ ॥
ततो मही प्रविचलिता सकानना महाद्विपाताभिहता समन्ततः ।
परस्परं भृशमभिगर्जतां मुह __ रणाजिरे भृशमभिसम्प्रवर्तिते ।। २७॥
उस समय एक-दूसरेको लक्ष्य करके बार-बार जोर-जोरसे गरजनेवाले देवताओं और असुरोंके उस समरांगणमें सब ओर भयंकर मार-काट मच रही थी; बड़े-बड़े पर्वतोंके गिरनेसे आहत हुई वनसहित सारी भूमि काँपने लगी ।। २७ ।।
नरस्ततो बरकनकाग्रभूषणे___ महेषुभिर्गगनपथं समावृणोत् ।
विदारयन् गिरिशिखराणि पत्रिभिः ___ महाभयेऽसुरगणविग्रहे तदा ।।२८॥
तब उस महाभयंकर देवासुर संग्राममें भगवान् नरने उत्तम सुवर्ण-भूषित अग्रभागवाले पंखयुक्त बड़े-बड़े बाणोंद्वारा पर्वत-शिखरोंको विदीर्ण करते हुए समस्त आकाशमार्गको आच्छादित कर दिया ।। २८ ।।
ततो महीं लवणजलं च सागरं - महासुराः प्रविविशुरर्दिताः सुरेः ।
वियद्गतं ज्वलितहुताशनप्रभं सुदर्शनं परिकुपितं निशम्य ते ।। २९ ।।
इस प्रकार देवताओंके द्वारा पीड़ित हुए महादेत्य आकाशमें जलती हुई आगके समान उदासित होनेवाले सुदर्शन चक्रको अपने ऊपर कुपित देख पृथ्वीके भीतर और खारे पानीके समुद्रमें घुस गये ।। २९ ।।
ततः सुरैर्विजयमवाप्य मन्दरःस्वमेव देशं गमितः सुपूजितः।
विनाद्य खं दिवमपि चैव सर्वशःततो गताः सलिलधरा यथागतम् ।। ३०॥
तदनन्तर देवताओंने विजय पाकर मन्दराचलको सम्मानपूर्वक उसके पूर्वस्थानपर ही पहुँचा दिया। इसके बाद वे अमृत धारण करनेवाले देवता अपने सिंहनादसे अन्तरिक्ष और स्वर्गलोकको भी सब ओरसे गुंजाते हुए अपने-अपने स्थानको चले गये ।। ३० ॥
सुराः परां मुदमभिगम्य पुष्कलाम्।
ददी च तं निधिममतस्य रक्षितुंकिरीटिने बलभिदथामरैः सह ॥ ३१॥
देवताओंको इस विजयसे बड़ी भारी प्रसन्नता प्राप्त हुई। उन्होंने उस अमृतको बड़ी सुव्यवस्थासे रखा। अमरोंसहित इन्द्रने अमृतकी वह निधि किरीटधारी भगवान् नरको रक्षाके लिये सौंप दी ।। ३१॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि
अमृतमन्थनसमाप्तिर्मिकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें अमतमन्धन-समाप्ति नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।१९।।
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