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न्याय दर्शन अध्याय 3 आह्निक 1 भाष्यकार स्वामी दर्शनानंद सरस्वती


सूत्र :दर्शनस्पर्शनाभ्यामेकार्थग्रहणात् II3/1/1

सूत्र संख्या :1


अर्थ : अथ तृतीयोऽध्यायः दूसरे अध्याय के दूसरे आह्निक में प्रमाणों की परीक्षा तो हो चुकी, अब प्रमेयों की जो प्रमाणों से परखे जाते हैं, परीक्षा आरम्भ की जाती हैं। प्रमेयों में पहला और मुख्य आत्मा है, इसलिए सबसे पहले उसी की परीक्षा आरम्भ की जाती है। प्रथम यह सन्देह उत्पन्न होता है कि क्या देहेन्द्रिय बुद्धि आदि के सडघात का नाम ही आत्मा है, या आत्मा इनसे कोई भिन्न पदार्थ है। प्रश्न -यह सन्देह क्यों हुआ ? उत्तर - दो प्रकार का व्यपदेश होने से। प्रश्न - व्यपदेश किसे कहते हैं ? उत्तर -जिसमें कत्र्ता, क्रिया और करण का सम्बन्ध वर्णन किया जावे। प्रश्न - वह दो प्रकार का व्यपदेश क्या है ? उत्तर -पहला अवयव से अवयवी का व्यपदेश होता है, जैसे कहा जावे कि जड़ से वृक्ष की स्थिति है या स्तम्भों से मन्दिर स्थित है इत्यादि। दूसरा अन्य से अन्य का व्यपदेश होता है, जैसे कुल्हाड़ी से काटता है, दीपक से देखता है इत्यादि। आत्मा के लिए जो यह कहा जाता है, कि आंख से देखता हैं, मन से जानता हें, बुद्धि से सोचता है और देह से सुख-दुःख भोगता हैं, यह व्यपदेश पहले प्रकार का है या कि दूसरे प्रकार का। यदि पहले प्रकार का है तो देहादि आत्मा के अंग हैं और यदि दूसरे प्रकार का है तो वह उनसे भिन्न है। अब आगे यह सिद्ध किया जायेगा कि आत्मा में दूसरे प्रकार का व्यपदेश सिद्ध होता है - प्रथम इन्द्रिय चैतन्य वादियों का खण्डन करते हैं:- जिस वस्तु को आंख से देखते हैं, उसी को हाथ से उठाते या त्वचा से स्पर्श करते हैं और कहते है कि जिसको हमने आंख से देखा था, उसी को त्वचा से स्पर्श करते हैं , या जिसको स्पर्श किया था, उसको आंख से देखते हैं। नींबू को देखकर जिह्या में पानी भर आता हैं, यदि इन्द्रिय ही ज्ञाता होते तो ऐसा कभी नहीं हो सकता था, क्योंकि और के देखे का और को कभी स्मरण नही हो सकता, फिर आंख के देखे हुए विषय का जिह्या से या त्वचा से क्योंकर अनुभव किया जाता। जो आंख से देखकर फिर उसी अर्थ का त्वचा या रसना से ग्रहण करता हैं, वह ग्रहीता इन इन्द्रियों से पृथक है। अतः इस पर शंका करते हैं:-

सूत्र :न विषयव्यवस्थानात् II3/1/2

सूत्र संख्या :2


अर्थ : इन्द्रिय संड्घात के अतिरिक्त और कोई चेतन आत्मा नहीं है, क्योंकि इन्द्रियों के विषय नियत है। आंख के होने से रूप का ज्ञान होता है, न होने से नहीं होता और यह नियम है कि जो जिसके होने से हो और न होने से न हो, वह उसी का कार्य समझा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि रूप को देखना आंख का काम हैं, गन्ध को सूंघना नाक का काम है। अतएव प्रत्येक इन्द्रिय अपने-अपने विषय के ज्ञान में स्वतन्त्र है, क्योंकि उसके होने से उसका ज्ञान होता है, न होने से नहीं होता। इस दशा में इन्द्रियों के अतिरिक्त किसी चेतन आत्मा के मानने की क्या आवश्यता हैं ? अब इसका समाधान करते हैं: -

सूत्र :तद्व्यवस्था-नादेवात्मसद्भावादप्रतिषेधः II3/1/3

सूत्र संख्या :3


अर्थ : यदि प्रत्येक इन्द्रिय सब विषयों के जानने में निरपेक्ष स्वतन्त्र होता या सब मिलकर ही सर्वज्ञ होते तो कौन उनसे भिन्न चेतन का अनुमान करता। जबकि प्रत्येक इन्द्रिय प्रत्येक विषय के वास्ते के वास्ते नियत हैं, अपने विषय के सिवाय वह दूसरे विषय का ज्ञान कराने में असमर्थ हैं। इसी से तद्भिन्न चेतन आत्मा का अनुमान किया जाता है। इन्द्रिय भृत्यों के सदृश अपना-अपना काम करते हैं, इनसे नियत काम लेने वाला कोई अध्यक्ष (स्वामी) है, जो इनसे काम लेता है, ये उसके कारण मात्र है। इसके अतिरिक्त एक इन्द्रिय या सब इन्द्रियों के विकृत हो जाने पर भी देह स्थित रहता है, यदि इन्द्रिय ही चैतन्य होते तो उनके न रहने पर देह का भी अवसान हो जाना चाहिए था। यदि इन्द्रियों के अतिरिक्त और कोई आत्मा न होता तो सबको यह ज्ञान होना चाहिए था कि ‘मैं‘ आंख हूं, मैं कान हूं, परन्तु कोई ऐसा नहीं समझता, प्रत्युत सब यही कहते हैं कि ‘मेरी आंख है, मेरा कान है‘ इत्यादि। इससे भी यही सिद्ध होता है कि आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है। इसके अतिरिक्त जिस विषय को हमने आज देखा है, इस वर्ष के बाद फिर हम उसका स्मरण करते हैं और वह हमको प्रत्यक्ष सा मालूम देता है। यदि इन्द्रिय ही चैतन्य होते तो ऐसा नहीं हो सकता था, इन कारणों से सिद्ध है कि आत्मा इन्द्रियसंड्घात से पृथक है। अब देहात्मवादियों का खण्डन करते हैं:-

 

सूत्र :शरीरदाहे पातकाभावात् II3/1/4

सूत्र संख्या :4


अर्थ : यदि देह से भिन्न कोई आत्मा न होता, तो मृत देह को जलाने में पाप होना चाहिए, परन्तु मुर्दे को जलाने वाला दण्डनीय समझा जाता है। इसके अतिरिक्त जब देह ही चेतन है, तो उसके न रहने पर पाप और पुण्य कुछ भी न रहेगें। पाप पुण्य के अभाव में किसी को दुःख और किसी को सुख न होना चाहिए। यदि कहो कि बिना पाप पुण्य के भी केवल ईश्वर की इच्छा या कर्म के कारण दुख-सुःख हो सकता है तो यह सर्वथा असंगत हैं, क्योंकि इसमें कृतहानि और अकृताभ्यागम दोष आता है। जिस शरीर ने पाप किये थे, वह नाश हो गया, अब उसको किस प्रकार पाप का फल मिल सकता है और जिस शरीर ने अभी कोई पाप नहीं किया, उसको बिना अपराध क्यों दुःख मिलता हैं ? यह बात सर्वथा शास्त्र और युक्ति के विरुद्ध है कि जिसने पाप किया, उसको फल न मिले और जिसने पाप नहीं किया, उसको फल मिले। यदि कहो कि देहात्मवादी पाप पुण्य को नहीं मानते, तो देह की रक्षा और विनाश से लाभ हानि तो मानते हैं, बस उस देह (आत्मा) के नाश से जो हानि होगी, वही पाप है। इसलिए आत्मा देह से भिन्न हैं। अब इस पर शंका करते हैं:-


सूत्र :तदभावः सात्म-कप्रदाहेऽपि तन्नित्यत्वात् II3/1/5

सूत्र संख्या :5


अर्थ : वादी कहता हैं, जब तुम आत्मा को नित्य मानते हो तो उसे हिंसारूप पाप का अभाव सजीव शरीर को जलाने में भी होना चाहिए, क्योंकि तुम्हारे मत में आत्मा तो नित्य है, उसकी कोई हिंसा हो ही नहीं सकती, तो हिंसा का पाप क्योंकर हो सकता हैं ? अतएव दोनों दशाओं में आपत्ति है। देह को आत्मा मानने से तो हिंसा निष्फल हो जाती है और आत्मा की देह से भिन्न मानने में हिंसा हो ही नहीं सकती। अब इसका समाधान सूत्रकार करते हैं :


सूत्र :न कार्याश्रयकर्तृवधात् II3/1/6

सूत्र संख्या :6


अर्थ : हम नित्य आत्मा के नाश का हिंसा नहीं कहते, किन्तु नित्य आत्मा जिस शरीर और इन्द्रियों के साथ मिलकर काम करता हैं, उनके उपघात को हिंसा कहते हैं। इसलिए हमारे मत में उक्त दोष नहीं आता।

व्याख्या :प्रश्न -जबकि शरीर के नाश से आत्मा को कुछ हानि नहीं पंहुचती और वह उस शरीर से निकल कर दूसरे शरीर में चला जाता है तो उसकी हिंसा से पाप क्यों होता और उसको उस शरीर के छोड़ने में दुःख क्यों होता हैं ? उत्तर -जिस शरीर में आत्मा रहती हैं उसको अहंकार के कारण वह अपना समझता हैं, इसलिए उससे उसको एक प्रकार का अनुराग होता है उस अनुराग के कारण उस शरीर को छोड़ने में वह दुःख मानता हैं, अतएव आत्मा को शरीर से वियुक्त करने ही का नाम हिंसा या मृत्यु हैं, न कि आत्मा के नाश का। आत्मा के देह से भिन्न होने में एक हेतु और देते हैं:-


सूत्र :सव्यदृष्टस्येतरेण प्रत्यभिज्ञानात् II3/1/7

सूत्र संख्या :7


अर्थ : . जिसको बाई आंख से देखा हो उसका दाईं से प्रत्यभिज्ञान होता हैं, इससे सिद्ध है कि आत्मा देह से भिन्न है।

व्याख्या :प्रश्न -प्रत्यभिज्ञान किसे कहते हैं ? उत्तर - पहले और पिछले ज्ञान को एक विषय में मिलाने का नाम प्रत्यभिज्ञान है। जब किसी वस्तु को पहले बाईं आंख से देखा हो, अब उसको दाईं आंख से देखकर यह ज्ञान होता है कि यह वही वस्तु हैं, जिसको पहले मैनें बाईं आंख से देखा था। यदि देह से भिन्न कोई आत्मा न माना जावे तो प्रत्यभिज्ञान हो ही नहीं सकता, क्योंकि अन्य के देखे का अन्य को स्मरण नहीं होता। अब इस पर आक्षेप करते हैं:-


सूत्र :नैकस्मिन्नासास्थिव्यवहिते द्वित्वाभिमानात् II3/1/8

सूत्र संख्या :8


अर्थ : यह समझना कि बाईं ओर दाई दो आंख हैं, ठीक नहीं, क्योंकि आंख केवल एक ही है, नाक की हड्डी के बीच में आ जाने से दो मालूम होती हैं जैसे किसी तडाग में पुल बांध देने से दो तड़ाग नहीं हो जाते, ऐसे ही नाक की हड्डी के बीच में आ जाने से दो आंख नहीं हो सकती। इसलिए जो व्यक्ति आत्मा को इन्द्रियों से भिन्न सिद्ध करने के लिए दो गई, यह ठीक नहीं। अब इसका उत्तर देते हैं:-


सूत्र :एकविनाशे द्वितीयाविनाशान्नैकत्वम् II3/1/9

सूत्र संख्या :9


अर्थ : यदि आंख दो नहीं होती, किन्तु एक ही होती, (जैसा कि वादी ने कहा है) तो एक के नाश होने पर दूसरी का भी नाश हो जाता, परन्तु ऐसा नहीं होता, एक आंख के नष्ट हो जाने पर दूसरी बराबर रहती है और उससे काम लिया जाता है। इसलिए आंख एक नहीं, अब बादी पुनः शंका करता हैं: -


सूत्र :अवयवनाशेऽप्यवयव्युपलब्धेरहेतुः II3/1/10

सूत्र संख्या :10


अर्थ : दो आंखो की सिद्धि में एक आंख के नष्ट होने पर दूसरी के शेष रहने की जो युक्ति दी गई है, वह ठीक नहीं, क्योंकि किसी वस्तु के एक भाग के नष्ट होने से उस वस्तु का सर्वनाश नहीं होता। जैसे वृक्ष की शाखाओं के कट जाने से भी वृक्ष का नाश नहीं होता। इसलिए आंख एक ही है, उसके एक अवयव का नाश होने से अवयवी का नाश नहीं हो सकता। इसका उत्तर देते हैं:-


सूत्र :दृष्टा-न्तविरोधादप्रतिषेधः II3/1/11

सूत्र संख्या :11


अर्थ : . वृक्ष का दृष्टान्त ठीक नहीं, क्योंकि वृक्ष अवयवी है शाखायें उसका अवयव। इस प्रकार एक आंख दूसरी आंख का अवयव नहीं अर्थात् वे दोनों किसी अवयवी का अवयव है। इस दृष्टान्त विरोध से उनका एक होना सिद्ध नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त नाक की हड्डी निकालने पर भी दोनों आंखों के गोलक भिन्न-भिन्न दृष्ट पड़ते हैं। जिनसे दो आंखों का होना प्रत्यक्ष सिद्ध हैं, जब आंख दो सिद्ध हो गयीं, तब एक के देखे हुए अर्थ की दूसरी से प्रत्यभिज्ञा का होना यह सिद्ध करता है कि उस प्रत्यभिज्ञा का कर्ता इन्द्रियों से भिन्न कोई और ही पदार्थ है और चेतन आत्मा है। फिर उसी की पुष्टि करते हैं:-


सूत्र :इन्द्रियान्तरविकारात् II3/1/12

सूत्र संख्या :12


अर्थ : प्रायः स्थलों पर किसी पके हुए फल को देखते ही मुंह में पानी भर आता हैं, इससे भी मालूम होता है कि स्मरण करने वाला इन्द्रियों से भिन्न आत्मा है, जिसको फल देखते ही उसका स्वाद स्मरण होकर मुंह में पानी भर आया। यदि इन्द्रियों को ही निरपेक्ष अपने-अपने विषयों का ज्ञाता माना जावे तो आंख के देखने से मुंह में पानी भर आना नहीं हो सकता, क्योंकि कोई इन्द्रिय दूसरे इन्द्रिय के विषय को नहीं जान सकता और न आंख के देखने से रसना के उसका ज्ञान हो सकता है। अब वादी पुनः आक्षेप करता हैं: -


सूत्र :न स्मृतेः स्मर्तव्य-विषयत्वात् II3/1/13

सूत्र संख्या :13


अर्थ : किसी गुजरी हुई बात को स्मरण करना स्मृति का धर्म हैं, क्योंकि स्मर्तव्य जितने विषय है, वे स्मृति में आते ही रहते है। और यह कोई नियम नहीं है कि पहले जिस इन्द्रिय से जो ज्ञान हुआ हो, फिर उसी इन्द्रिय के द्वारा उसका स्मरण भी हो। जिस वस्तु का एक बार प्रत्यक्ष हो चुका है (चाहे वह किसी इन्द्रिय के द्वारा हो) उसी की स्मृति होती है, अप्रत्यक्ष की नहीं। इसके लिए इन्द्रियों से भिन्न आत्मा के मानने की क्या आवश्यकता हैं ? अब इसका समाधान करते हैं:-


सूत्र :तदात्मगुणसद्भावादप्रतिषेधः II3/1/14

सूत्र संख्या :14


अर्थ : स्मृति आत्मा का गुण हैं, न कि किसी इन्द्रिय का। यदि इन्द्रियों का गुण स्मृति हो तो तो किसी एक कर्ता के न होने से विषयों का प्रतिसन्धान नहीं हो सकता था अर्थात् एक इन्द्रिय से जिस विषय का ज्ञान हुआ, दूसरा इन्द्रिय उसके स्मरण का हेतु क्यों कर हो सकेगा ? यदि स्मर्तव्य विषय को ही स्मृति का कारण माना जावे तो मृत देह में स्मृति क्यों नहीं उत्पन्न होती। जबकि उसमें इन्द्रिय भी मौजूद हैं और समर्तव्य विषय भी सम्मुख हैं, फिर स्मृति का बाधक कौन हैं ? इससे सिद्ध है कि स्मृति केवल आत्मा का गुण है, स्मर्तव्य विषय उसके उदबोधक अवश्य हैं, परन्तु उसका आधार केवल आत्मा हैं, बिना आत्मा के स्मृति और किसी पदार्थ में रह नहीं सकती। इसके अतिरिक्त ‘मैं स्मरण करता हूं‘ यह प्रत्यय भी जो प्रत्येक मनुष्य को होता होता है, स्मृति का आत्मगुण होना सिद्ध करता है। इस पर और भी हेतु हैं:-


सूत्र :अपरिसंख्यानाच्च स्मृतिविषयस्य II3/1/15

सूत्र संख्या :15


अर्थ : वादी ने यह जो कहा था कि स्मर्तव्य विषय ही स्मृति का कारण हैं, यह ठीक नहीं क्योंकि स्मर्तव्य विषय असंख्य हैं, इसलिए वे स्मृति का कारण नहीं हो सकते।

व्याख्या :प्रश्न - स्मृति विषय किसे कहते हैं ? उत्तर - स्मृति चार प्रकार की है। (1) मैंने इस पदार्थ को जाना, (2) मैं इसका जानने वाला हूं, (3)मुझसे यह पदार्थ जाना गया, (4)मुझे यह ज्ञान हुआ, यह जो चार प्रकार का परोक्ष ज्ञान है यही स्मृति का मूल हैं, इन चार प्रकार की स्मृति में सर्वत्र ज्ञान का सम्बन्ध ज्ञाता और ज्ञेय दोनो से है। यह ज्ञान न तो बिना ज्ञाता के रह सकता है और न अनेक ज्ञाताओं से इसका सम्बन्ध है किन्तु एक ही ज्ञाता ज्ञेय पदार्थों के अनुरोध से अपने सम्पूर्ण ज्ञानों का प्रतिसन्धान करता है। ‘मैनें इस बात को जाना, मैं इस बात को जानता हूं और मैं इसको जानूंगा‘ इन तीनों कालों के ज्ञान का प्रतिसन्धान यदि ज्ञाता न हो तो नहीं हो सकता। यदि इसको केवल संस्कारों का फैलाव मात्र हो माना जावे, प्रथम तो संस्कार उत्पन्न होकर विलीन हो जाते हैं, दूसरे कोई संस्कार ऐसा नहीं हैं, जो तीनों काल के ज्ञान को अपने में धारण कर सके। बिना ज्ञाता के संस्कार से ‘मैं और मेरा‘ यह ज्ञान उत्पन्न ही नहीं हो सकता। अतएव स्मृति विषय के अपरिसंख्येय और आत्माश्रित होने से ज्ञान का कारण स्मर्तव्य विषय नहीं हो सकते। इस पर वादी पुनः शंका करता हैं: -


सूत्र :नात्मप्रतिपत्तिहेतूनां मनसि सम्भवात् II3/1/16

सूत्र संख्या :16


अर्थ : जो हेतु तुमने आत्मा की सिद्धि में दिए हैं, उनसे मन की सिद्धि होती है, न कि भिन्न-भिन्न अर्थों का ज्ञान या एक अर्थ का ज्ञान और फिर उनका प्रतिसन्धान यह सब काम मन कर सकता है, फिर देहादि से भिन्न आत्मा के मानने की क्या आवश्यकता हैं ? इसका समाधान करते हैं:-


सूत्र :ज्ञातुर्ज्ञानसाधनोपपत्तेः संज्ञाभेदमात्रम् II3/1/17

सूत्र संख्या :17


अर्थ : यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि प्रत्येक करण कर्ता की सहायता के लिए होता है, यदि कर्ता न हो तो सब करण मिलकर भी कोई काम नहीं कर सकते, इसी प्रकार ज्ञान प्राप्ति के जितने साधन हैं, वे सब ज्ञाता की सहायता के लिए हैं, जैसे आंख से देखता हैं, नाक से सूंघता हैं, त्वचा से स्पर्श करता हैं, मन से सोचता है, इत्यादि, आंख आदि के समान मन भी एक ज्ञान साधन हैं, जिसको अन्तःकरण भी कहते हैं वह ज्ञान की उपलब्धि में मन का साधक है न कि बाधक। यदि मन को ही चेतन माना जावे, करण न माना जावे, तब भी केवल सज्ञा भेद मात्र होगा, अर्थ भेद नहीं, अर्थात् जिसको हम आत्मा कहते हैं, उसको तुम मन कहते हो, मन के स्थान में कोई और नाम कल्पित करना पड़ेगा। परन्तु इससे उस सिद्धान्त में कि ‘देहादिसंघात से आत्मा पृथक है‘ कोई हानि नहीं होती। इस पर एक हेतु और भी देते हैं:-


सूत्र :नियमश्च निरनुमानः II3/1/18

सूत्र संख्या :18


अर्थ : यदि कोई कहे कि रूपादि के ग्रहण करने वाले चक्षुरादि इन्द्रिय तो अवश्य हैं, परन्तु सुखादि के अनुभव करने वाले मन या अन्तःकरण की कोई आवश्यकता नहीं, वह बिना किसी कारण के ही उपलब्ध होते हैं, ऐसा नियम बांधना अनुमान के विरुद्ध है। क्योंकि इसमें तो किसी को सन्देह नहीं कि रूपादि से पृथक सुखादि विषय हैं उनके जानने के लिए भी कारण का होना आवश्यक है। जैसे आंख से गन्ध का ज्ञान नहीं होता, उसके लिए दूसरा इन्द्रिय घ्राण मानना पड़ता हैं, और आंख और नाक दोनों से रस का ज्ञान नहीं होता, इसलिए उसके लिए तीसरा इन्द्रिय रसना को मानना पड़ता है। ऐसे ही आंख आदि पांचों इन्द्रियों से सुखादि का ज्ञान नहीं होता, तब उसके लिए मन अन्तःकरण की आवश्यकता क्यों नहीं ? सारे इन्द्रिय मन से सम्बन्ध रखते हैं यही कारण है कि एक साथ अनेक विषयों का ज्ञान नहीं होता, क्योकि जब जिस इन्द्रिय के साथ उसका संयोग होता हैं, तभी तद्विषयक ज्ञान उत्पन्न होता है। इसलिए पूर्व आत्म सिद्धि के लिए जो हेतु दिए गये हैं, वे मन में कदापि नहीं घट सकते। अब उस आत्मा के विषय में जिसकी देहादि संघात से पृथक सिद्ध किया है, यह सन्देह उत्पन्न होता कि वह नित्य है या अनित्य ? अगले सूत्र में आत्मा की नित्यता सिद्ध करते हैं:-


सूत्र :पूर्वाभ्यस्तस्मृत्यनुबन्धाज्जातस्य हर्षभयशोकसम्प्रतिपत्तेः II3/1/19

सूत्र संख्या :19


अर्थ : पहले जन्म के अभ्यास से जो सद्योजात बालक के हृदय में हर्ष, भय और शोक उत्पन्न होते हैं, उससे जीवात्मा का जन्म से पूर्व होना सिद्ध होता है। क्योंकि इस जन्म में तो उसने इनके कारणों को अनुभव ही नहीं किया। बिना किसी वस्तु को देखे या अनुभव किए उसकी स्मृति नहीं हो सकती। जब अभी तक उसने सुख-दुःख या भय के कारणों को अनुभव ही नहीं किया तो उस पर इनका प्रभाव क्यों पड़ता हैं ? इसका कारण सिवाय पूर्वजन्म के अभ्यास के और कोई नहीं हो सकता अतएव आत्मा नित्य है। अब इस पर शंका करते हैं: -


सूत्र :पद्मादिषु प्रबोधसम्मीलनविकारवत्तद्विकारः II3/1/20

सूत्र संख्या :20


अर्थ : जैसे अनित्य कमल के फूल में प्रबोध (खिलना) सम्मीलन (बन्द होना) आदि विकार स्वाभाविक हैं, ऐसे ही सद्योजात वालक में भी हर्ष भय, शोक स्वाभाविक रीति पर उत्पन्न हो जाते हैं, इस दशा में पूर्वजन्म के मानने की कोई आवश्यकता नहीं, अब इसका समाधान करते हैं:-


सूत्र :नोष्णशीतवर्षाकालनिमित्त-त्वात्पञ्चात्मकविकाराणाम् II3/1/21

सूत्र संख्या :21


अर्थ : जो कमल के फूल का दृष्टान्त आत्मा से दिया गया है, वह ठीक नहीं, क्योंकि फूल आदि पच्चभूतों का विकार है, उनमें उष्ण शीत और वर्षा ऋतुओं के कारण विकार उत्पन्न होते हैं, आत्मा भौतिक नहीं हैं, जो कालका प्रभाव उन पर पड़ सकें। इसलिए यह दृष्टान्त ठीक नहीं। अथवा पद्मादिकों में भी प्रबोधादि विकार निर्निमित नहीं है सर्दी गर्मी और वर्षां आदि का होना ही उनका निमित्त है, इसी प्रकार आत्मा के हर्ष शोकादि का निमित्त पूर्वाभ्यस्त संस्कार हैं। जैसे बिना सर्दी-गर्मी आदि निमित्तों के पद्मादि में प्रबोधादि विकार नहीं हो सकते, वैसे ही बिना पूर्वाभ्यास संस्कारों के तत्काल जन्मे बालक में हर्ष शोकादि भी नहीं हो सकते। अतएव आत्मा नित्य है, इसी की पुष्टि में दूसरा हेतु देते हैं:-


सूत्र :प्रेत्याहाराभ्यासकृतात्स्तन्याभिलाषात् II3/1/22

सूत्र संख्या :22


अर्थ : जन्म लेते ही बालक माता के स्तन को चूसने लगता हैं, इससे अनुमान होता है पहले जन्म के संस्कार उसको दूध पीना सिखला देते हैं, अन्यथा जब तक जीव को कोई बात सिखलाई न जावे, तब तक उसको उसका ज्ञान नहीं होता। जैसे हम लोग इस जन्म के अभ्यास से भूख लगने पर खाना खाते हैं, ऐसे ही उत्पन्न हुआ बालक पूर्वजन्म के अभ्यास से दूध पीता है, क्योंकि इस जन्म में तो अभी उसने अभ्यास किया ही नहीं।

व्याख्या :प्रश्न -क्या जीव को बिना अभ्यास के स्वंयमेव किसी काम के करने का ज्ञान नहीं होता, सब बातों के सीखने की आवश्यकता होती हैं ? उत्तर -जीवात्मा को दो ही प्रकार से ज्ञान होता है, या तो प्रत्यक्ष से या स्मृति से, इनके सिवाय किसी बात को सीखने के नही जान सकता। प्रश्न -अनुमानादि से भी तो बिना सीखने के ज्ञान होता हैं, फिर कैसे कहते हो कि बिना प्रत्यक्ष या स्मृति के ज्ञान नहीं होता। उत्तर - अनुमान तो प्रत्यक्ष का ही शेष है और शब्द दूसरे से जाना जाता है, इसलिए वह शिक्षा के अन्तर्गत है। प्रश्न - जबकि हम पूर्व जन्म को ही नहीं मानते तो पूर्व जन्म के अभ्यास को (जो अभी साध्यपक्ष में है) हेतु ठहराना साध्यसमहेत्वाभास है। उत्तर - पूर्व जन्म को हमने हेतु में नहीं रखा है, हेतु तो जन्म लेते ही बालक का दूध पीने लगता है, जिससे कोई नास्तिक भी इन्कार नहीं कर सकता। हां इस हेतु से साध्य पूर्व जन्म की सिद्धि अवश्य होती है। वादी फिर आक्षेप करता हैं: -


सूत्र :अयसोऽयस्कान्ताभिगमनवत्तदुपसर्पणम् II3/1/23

सूत्र संख्या :23


अर्थ : जैसे चुम्बक पत्थर अभ्यास के बिना ही लोहे को अपनी तरफ खीचंता है, उस लोहे में न तो स्मृति है और न पूर्वाभ्यास। ऐसे ही बालक भी बिना स्मृति और अभ्यास के दूध पीने लगता है। इसलिए यह हेतु कि बिना पूर्वाभ्यास के भोजन में प्रवृत्ति नहीं हो सकती, ठीक नहीं। अब इसका उत्तर देते है:-


सूत्र :नान्यत्र प्रवृत्त्यभावात् II3/1/24

सूत्र संख्या :24


अर्थ : लोहे और चुम्बक का दृष्टान्त ठीक नहीं क्योंकि लोहे का चुम्बक के पास सरकना भी किसी कारण से है, यदि इसमें कोई कारण न होता तो मिट्टी पत्थर आदि भी लोहे के पास सरक जाते। यह नियम है कि लोहा चुम्बक हो ही अपनी और आकर्षण करता है, अन्य किसी को नहीं, इनके विशेष सम्बन्ध रूप निमित्त को सूचना करता है। बस ऐसे ही बालक को दूध पीने में प्रवृत्ति भी अकारण नहीं हैं, अब रही यह बात है कि वह कारण क्या हैं ? हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि जीवों की भोजन में प्रवृत्ति पूर्वाभ्यस्त आहार की स्मृति से होती है, इससे आत्मा का नित्य होना सिद्ध है। अब इसकी पुष्टि में दूसरा हेतु देते हैं:-


सूत्र :वीतरागजन्मादर्शनात् II3/1/25

सूत्र संख्या :25


अर्थ : आत्मा के नित्य होने में दूसरा कारण यह भी है, कि रामानुबद्ध जीव ही जन्म लेता है, वीतराग नहीं। राग जन्म का कारण हैं और यह बिना पूर्वाभ्यस्त संस्कारों के हो नहीं सकता। वह आत्मा पूर्व शरीर में अनुभव किये विषयों का स्मरण करता हुआ उनमें रक्त होता है, और यही जन्म का कारण है। तत्वज्ञान के निरन्तर अभ्यास से जब राग की वासनायें समूल नष्ट हो जाती हैं तब कारण के अभाव से कार्य जन्मादि का भी अभाव हो जाता है, इसी को मुक्तावस्था कहते हैं। इससे भी आत्मा को नित्य होना सिद्ध है। अब इस पर शंका करते हैं:-


सूत्र :सगुणद्रव्योत्पत्तिवत्तदुत्पत्तिः II3/1/26

सूत्र संख्या :26


अर्थ : जैसे उत्पत्ति धर्म वाले घटादि कार्यों के रूपादि गुण कार्योंत्पत्ति के साथ हो आप ही उत्पन्न हो जाते हैं, ऐसे ही उत्पन्न होने वाले आत्मा में रागादि गुणों की उत्पत्ति भी स्वंयमेव हो जायेगी। इसमें पूर्व संस्कार या स्मृति के मानने की क्या आवश्यकता हैं ? अतएव आत्मा अनित्य है, अब इसका उत्तर देते हैं: -


सूत्र :न संकल्पनि-मित्तत्वाद्रागादीनाम् II3/1/27

सूत्र संख्या :27


अर्थ : सगुण द्रव्य की उत्पत्ति के समान रागादि की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि रागादि संकल्प मूलक हैं। घटादि कार्यों में रूपादि गुण समवाय सम्बन्ध से सदा बने रहते हैं, परन्तु आत्मा में राग सदा नहीं रहता, वह जब पूर्वानुभूत संस्कार या उनकी स्मृति से मन में कोई संकल्प उत्पन्न होता है, तभी राग या द्वेष की उत्पत्ति होती है, अन्यथा नहीं। अतएव राग के संकल्प मूलक होने से सगुण द्रव्यवत् उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती।

व्याख्या :आत्म परीक्षा समाप्त हुई, अब दूसरे प्रमेय शरीर की परीक्षा आरम्भ करते हैं। प्रथम शरीर का मुख्य उपादान क्या हैं ? इसका प्रतिपादन करते हैं:-


सूत्र :पार्थिवं गुणान्तरोपलब्धेः II3/1/28

सूत्र संख्या :28


अर्थ : देह का भौतिक होना तो सर्वसम्मत हैं, परन्तु पांचों (पृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश) सामान्य रूप से इसका उपादान है, या इनमें कोई विशेष हैं ? इसके उत्तर में सूत्रकार कहते हैं। यद्यपि यह देह पच्चभूतात्मक हैं, तथापि पृथ्वी इसका विशेषरूप से उपादान है। अन्य अप तेज आदि इसके निमित्त कारण हैं, उपादान नहीं। इसका कारण यह है कि देह में जलादि के गुण द्रवत्वादि नहीं पाये जाते, पृथ्वी के काठिन्य और गन्धादि गुण प्रत्यक्ष उपलब्ध होते हैं, अतः यह देह पार्थिव है ?

व्याख्या :प्रश्न - क्या शरीर में केवल पार्थिव ही परमाणु होते हैं, जलादि के नहीं ? उत्तर - पृथ्वी मे तो पार्थिव प्रधान ही शरीर होते हैं, अन्य लोकों में जलादि प्रधान शरीरों का होना माना गया है। यद्धपि संयोग सब भूतों का होता है, तथापि पृथ्वी में पार्थिव अंश ही प्रधान हैं। इसी की पुष्टि में अन्य हेतु भी देते हैं:-


सूत्र :पार्थिवाप्यतैजसं तद्गुणोपलब्धेः II3/1/29

सूत्र संख्या :29


अर्थ : श्रुति के प्रमाण से भी शरीर का पार्थिव होना सिद्ध होता है, वह श्रुति का प्रमाण यह है ‘सूर्यन्ते चक्षुर्गच्छतात्‘ पृथ्वी ते शरीरम्‘ इत्यादि। इस श्रुति में जहां यह कहा गया है कि सूर्य में तेरी आंख जावे वहां पृथ्वी में शरीर का जाना कहा गया है। कार्य सदा अपने कारण में लीन होता है और इसी को नाश कहते हैं। जब शरीर पृथ्वी का कार्य हैं, तो वह नष्ट हो जाने पर अवश्य पृथ्वी में मिलेगा। इस श्रूति से तथा ‘भस्मान्तूं शरीरम्‘ इत्यादि यजुर्वेद की श्रुतियों से शरीर का पार्थिव होना सिद्ध है। अब इन्द्रियों की परीक्षा आरम्भ करते हैं। प्रथम इस प्रश्न पर विचार किया जाता है कि इन्द्रिय भौतिक हैं वा अभौतिक ?


सूत्र :कृष्णसारे सत्युपलम्भाद्व्यतिरिच्य चोपलम्भात्संशयः II3/1/30

सूत्र संख्या :30


अर्थ : आंख में जो काले रंग की पुतली हैं, उसके होने पर रूप का ग्रहण होता है, न होने पर नहीं, इससे मालूम होता है कि यह पुतली ही आंख है और वह पुतली भौतिक है, इसलिए आंख का भी भौतिक होना सिद्ध हे, एक पक्ष तो वह हुआ, दूसरा पक्ष यह है कि आंख की पुतली का विषय से जब कुछ व्यवधान (फासला) होगा, तभी उसका ग्रहण हो सकेगा, अन्यथा यदि कोई वस्तु आंख की पुतली से मिला दी जाय तो कदापि उसका ग्रहण हो सकेगा। इससे यह मालूम होता है कि यह पुतली तो आंख के भीतर ही रहती है, बाहर नहीं जाती, परन्तु रूप का ग्रहण तब होता है,-जब वृत्ति बाहर निकल कर विषय में तदाकार हो जाती हैं, और वह वृत्ति इस पुतली से पृथक है। इससे इन्द्रियों के अभौतिक होने का अनुमान होता है, क्योंकि अप्राप्त और दूर वस्तु को ग्रहण करना भौतिक पदार्थ का काम नहीं। इसलिए यह संशय उत्पन्न होता है कि इन्द्रिय भौतिक है या अभौतिक? अगले सूत्र में इन्द्रियों को अभौतिक सिद्ध करते हैं-


सूत्र :महदणुग्रहणात् II3/1/31

सूत्र संख्या :31


अर्थ : आखं से छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा पदार्थ भी देखा जाता है, इसलिए इन्द्रिय अभौति हैं, क्योंकि भौतिक पदार्थों का यह नियम हैं कि वे जितनी सोमा में होते हैं उनकी शक्ति और प्रभाव उस सीमा का अतित्रमण नहीं कर सकते।

व्याख्या :प्रश्न- क्या आंख सब छोटे-बड़े पदार्थ में व्यापक हो जाती हे? उत्तर-छोटे से छोटे सरसों के दानें और बड़े से बड़े पहाड़ को इसी आंख से देखते हैं इससे आंख का अभौतिक होना सिद्ध हैं, क्योंकि यदि पुतली आंख होती, तो इतने बड़े पहाड़ को कैसे देख सकती आक्षेप हो चुके, अब इसका समाधान करते हैं-


सूत्र :रश्म्य-र्थसंनिकर्षविशेषात्तद्ग्रहणम् II3/1/32

सूत्र संख्या :32


अर्थ : चक्षु तैजस इन्द्रिय है इसलिए उसकी किरणें तेज की किरणों से मिलकर दृश्य वस्तु में व्यापक हो जाती हैं जिससे छोटे-बड़े पदार्थों का प्रत्यक्ष होता है। दृष्टान्त हम दीपक का दे सकते हैं, दीपक छोटा होता है, परन्तु उसकी ज्योति जहां तक आवरण नहीं होता वहां तक फैल जाती है, ऐसे ही आंख की पुतली भी यद्यपि छोटी होती हैं, तथापि उसकी ज्योति दूर तक फैल सकती है। यदि आंख अभौतिक होती तो आगे-पीछे दांये-बायें सब तरफ को देखती और आवरण भी उसकी दर्शन शक्ति को नहीं रोक सकता था। इससे सिद्ध हैं कि आंख अभौतिक है। अब इस पर शंका करते हैं -


सूत्र :तदनुपलब्धेरहेतुः II3/1/33

सूत्र संख्या :33


अर्थ : यदि दीपक के समान आंख की भी किरणें होतीं, तो वे दीपक की ज्योति के समान उपलब्ध होतीं। जब किरणों की उपलब्धि ही नहीं होती तब उनका मानना व्यर्थ है। हमको तो गोलक और पुतली के अतिरिक्त आंख में और कुछ नहीं दीखता, अतएव यही चक्षुरिन्द्रिय हैं। अब इसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :नानुमीयमानस्य प्रत्यक्षतोऽनुपलब्धिरभावहेतुः II3/1/34

सूत्र संख्या :34


अर्थ : जो वस्तु अनुमान से सिद्ध है, उसका प्रत्यक्ष से न ग्रहण किया जाना अभाव का कारण नहीं हो सकता। जैसे चन्द्रमा का पिछला भाग और पृथ्वी का नीचे का भाग हमको नहीं दीखता, परन्तु अनुमान से सिद्ध है इसलिए सब मानते हैं ऐसे ही आंख की ज्योति यदि प्रत्यक्ष नहीं तो अनुमान से तो सिद्ध है। इसलिए उसका अभाव नहीं माना जा सकता। फिर इसी की पुष्टि करते हैं-


सूत्र :द्रव्यगुणधर्मभेदाच्चोपलब्धिनियमः II3/1/35

सूत्र संख्या :35


अर्थ : बहुत से द्रव्य ऐसे होते हैं कि जिनका प्रत्यक्ष होता है और बहुत से ऐसे भी होते हैं कि जिनका प्रत्यक्ष तो नहीं होता, किन्तु अपने गुण से पहचाने जाते है। जैसे जल और अग्नि व परमाणु किसी को प्रत्यक्ष नहीं दीखते, किन्तु वे अपने शीत या उष्ण स्पर्श से जाने जाते हैं। इसी प्रकार चक्षु इन्द्रिय भी प्रत्यक्ष नहीं दीखता, किन्तु अपनी दर्शनशक्ति से पहचाना जाता है। फिर इसी की पुष्टि करते हैं-


सूत्र :अनेकद्रव्यसमवायाद्रूपविशेषाच्च रूपोपलब्धिः II3/1/36

सूत्र संख्या :36


अर्थ : रूप अग्नि का गुण और वह दो प्रकार का होता है, एक वह जो उद्भूत होने से प्रत्यक्ष होता है, दूसरा अनुद्भूत होने से प्रत्यक्ष नहीं होता, किन्तु अनुभव या स्पर्श से जाना जाता है। अनेक द्रव्य जब आपस में मिलते हैं तब उनमें रूप का अनुद्भव रहता है। आंख की किरणें अनुद्भूत रूप है।, इसलिए उनका प्रत्यक्ष नहीं होता, किन्तु अनुभव या स्पर्श से जाना जाता है अनेक द्रव्य जब आपस में मिलते है, तब उनमें रूप का उद्भव होता है और जब वे अपने कारण्रूप में रहते हैं तब उनमें रूप का अनुद्भव रहता हैं। आंख की किरणें अनुद्भूत रूप हैं इसलिए उनका प्रत्यक्ष नहीं होता। तेज के परमाणुओं या गुणों में यह देखा जाता है कि कहीं तो रूप और स्पर्श दोनों की उपलब्धि नहीं होती। जिसमें रूप स्पर्श दोनों की उपलब्धि होती है, उसी का प्रत्यक्ष होता है, जैसे सूर्य की किरणों का जिसमें केवल रूप की उपलब्धि होती है, स्पर्श की नहीं, उसका भी प्रत्यक्ष होता है, जैसे दीपक की किरणों का और जिसमें केवल स्पर्श की उपलब्धि होती है, रूप की नहीं, उसका भी प्रत्यक्ष होता होता है। जैसे उष्णजल में स्पर्श से अग्नि का प्रत्यक्ष होता है। जिसमें रूप और रूपर्श दोनों की उपलब्धि नहीं होती, उसका प्रत्यक्ष नहीं होता है। जैसे आंख की किरणों में न स्पर्श, इसीलिए उनका प्रत्यक्ष नहीं होता। आंख की किरणें भी सूर्य या दीपक की किरणों के समान उद्भूत रूप क्यों नही, इस प्रश्न का उत्तर देते हैं -


सूत्र :कर्मकारितश्चेन्द्रियाणां व्यूहः पुरुषार्थतन्त्रः II3/1/37

सूत्र संख्या :37


अर्थ : सब इन्द्रिय जीवात्मा के कर्मफल भोगने के वास्ते बनाये गये हैं और इन्द्रियों की सारी शक्ति जीवात्मा के अधीन है। तात्पर्य यह कि शरीर और इन्द्रियगण स्वतन्त्र नहीं हैं, वे जीवों के कर्मफल भोगने के वास्ते साधन बनाये गए हैं। यदि कर्मों का भोग न होता तो शरीर और इन्द्रिय भी न होते।

व्याख्या :प्रश्न-आंख को तैजस क्यों माना जाए, जबकि उसका प्रत्यक्ष नहीं होता। उत्तर- आंख बिना प्रकाश के काम नहीं कर सकती, प्रकाश उसका सहायक है और प्रकाश तेज का धर्म है, इलिए चक्षु तेजस है। फिर इसी की पुष्टि करते हैं-


सूत्र :अव्यभिराच्च प्रतिघातो भौतिकधर्म:II3/1/38

सूत्र संख्या :38


अर्थ : बीच में किसी आचरण के आ जाने से चक्षु की दर्शन-शक्ति रूक जाती है, और आवरण से भौतिक पदार्थ की ही शक्ति का अवरोध हो सकता है, अभौतिक का नहीं, उसलिए चक्षु भौतिक है। यदि आवरण की रूकावट होने से चक्षु को भौतिक मानोगे तो कहीं पर रूकावट न होने से अभौतिक भी मानना पड़ेगा। जैसे कांच या जल का आवरण होते हुए भी चक्षुरश्मि नहीं रूकती। अनुपलब्धि का और भी कारण हैः


सूत्र :मध्यन्दिनोल्काप्रकाशानुपलब्धिवत्तदनुपलब्धिः II3/1/39

सूत्र संख्या :39


अर्थ : जैसे दिन में सूर्य के प्रकाश से अभिभूत होकर तारे नहीं दीखते, या खद्योत नहीं चमकते, परन्तु उनका या उनके प्रकाश का अभाव नहीं माना जाता। ऐसे ही आंखों की रश्मि भी नहीं दीखती। इस पर वादी शंका करता हैः


सूत्र :न रात्रावप्यनुपलब्धेः II3/1/40

सूत्र संख्या :40


अर्थ : खद्योत या तारों का जो दृष्टांत दिया गया है, वह ठीक नहीं, क्योंकि उनका प्रकाश यदि दिन में सूर्य के प्रकाश से दबा रहता है तो रात्रि में जब सूर्य का प्रकाश नहीं होता, उसकी उपलब्धि होती है। परन्तु आंख की किरणें तो न दिन में दीखती हैं न रात में। इसलिए जिसकी उपलब्धि किसी काल में भी नहीं होती, उसका मानना व्यर्थ है। अब इसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :वाह्यप्रकाशानुग्रहाद्विषयोपलब्धेरनभिव्यक्तितो-ऽनुपलब्धिः II3/1/41

सूत्र संख्या :41


अर्थ : बाह्य प्रकाश की सहायता से अर्थात् सूर्यादि के प्रकाश की सहायता से आंख देखने में समर्थ होती है और बाह्य प्रकाश के न होने से किसी वस्तु के रूप का ज्ञान नहीं होता। किन्तु बाह्य प्रकाश से भी उन्हीं पदार्थो का ज्ञान होता है जो उद्भूत रूप हैं और जो अनदभूत रूप हैं उनका ज्ञान नहीं होता। क्योंकि वाह्य प्रकाश स्थूल पदार्थों को ही दिखला सकता है, सूक्ष्म को नहीं। आंख की किरणें भी सूक्ष्म हैं, इसलिए उनका प्रत्यक्ष नहीं होता। पुनःइसी की पुष्टि करते हैं -


सूत्र :अभिव्यक्तौ चाभिभवात् II3/1/42

सूत्र संख्या :42


अर्थ : जो पदार्थ अभिव्यक्त (उद्भूत रूप) होते हैं और वाह्य प्रकाश की अपेक्षा नहीं रखते, जैसे कि नक्षत्र और दीपादि, उन्ही का अभिभव (दब जाना) होता है तथा जो पदार्थ उद्भूत रूप तो नहीं होते किन्तु बाह्य प्रकाश की अपेक्षा रखते हैं, जैसे की घटपटादि स्थूल पदार्थ और चक्षुरश्मि आदि सूक्ष्म पदार्थ, इनका अभिभव नहीं होता जो कि आंख की रश्मि दीपादि के समान अभिव्यक्त नहीं, इसलिए उसका प्रत्यक्ष होता इस पर और भी हेतु देते हैं-


सूत्र :नक्तञ्चरनयनरश्मिदर्शनाच्च II3/1/43

सूत्र संख्या :43


अर्थ : रात को घूमने वाले सिंह सिंह मार्जार आदि जितने जन्तु हैं उनकी आंखों में तेज की किरणें देखने में आती हैं इससे सब जन्तुओं की आंखों में प्रकाश की किरणों के होने का अनुमान होता है। भेद केवल इतना है कि तीब्र ज्योति वाले जन्तुओं में इसका प्रत्यक्ष होता है, मन्द ज्योति में नहीं।


सूत्र :अप्राप्यग्रहणं काचाभ्रपटलस्फटिकान्तरितोपलब्धेः II3/1/44

सूत्र संख्या :44


अर्थ : इन्द्रिय और पदार्थ का संयोग ही प्रत्यक्ष का कारण नहीं, क्योंकि कांच अभ्रक और स्फटिक के व्यवधान (आवरण) होने पर भी आंख से रूप का ग्रहण होता है। यदि इन्द्रिय और अर्थ का संयों ही प्रत्यक्ष का कारण होता तो आवरण होने पर कोई वस्तु न दीखती, परन्तु दीखती है, इससे सिद्ध है कि इन्द्रिय अप्राप्त को ग्रहण करते हैं, अतएव वे अभौतिक है, क्योंकि केवल प्राप्त को ग्रहण करना भौतिक पदार्थ का धर्म है। अब इसका समाधान करते हैं-


सूत्र :कुड्यान्तरिता-नुपलब्धेरप्रतिषेधः II3/1/45

सूत्र संख्या :45


अर्थ : यदि इन्द्रियों में यह शक्ति होती कि वे अप्राप्त का भी ग्रहण कर लें तो भित्ति (दीवार)का आवरण होने पर भी वस्तु की उपलब्धि होती, परन्तु ऐसा नही होता। इन्द्रियों के भौतिक होने का निषेध नहीं होता। जो कि कांचादि के आवरण में देख लेना और भित्ति के आवरण में न देख सकना ये दोनों प्रकार के धर्म चक्षु में पाए जाते हैं, इसका समाधान अगले सूत्र में करते हैं-


सूत्र :अप्रतिघातात्संनिकर्षोपपत्तिः II3/1/46

सूत्र संख्या :46


अर्थ : कांच, अभ्रक और स्फटिक आदि पदार्थ स्पच्छ होने से आंखों की किरणों को रोक नहीं सकते, इसलिए उनका आवरण होने पर भी संयोग में रूकावट नहीं होती। संयोग की उपस्थिति होने पर भी ग्रहण होता है और यह समझना कि भौतिक पदार्थों में रूकावट होती है, इसका उत्तर अगले सूत्र में देते हैं-


सूत्र :आदित्यरश्मेः स्फटिकान्तरेऽपि दाह्येऽविघातात् II3/1/47

सूत्र संख्या :47


अर्थ : सूर्य की किरणें कांचादि का आवरण होने पर भी दूसरी तरफ चली जाती हैं, जिसका प्रमाण आवरित पदार्थ का उष्ण हो जाना है। और देखिए एक बटलोई में पानी डालकर नीचे आग जला देते हैं तो आग की गरमी देगची के परदे से गुजर कर पानी में जाती है,इससे जाना जाता है कि तेज की किरणें सूक्ष्म होने से इन आवरणों से रूक नहीं सकतीं। जैसे सूर्य की किरणों को कुम्भादि का आवरण पानी में उष्णता पहुंचाने से नहीं रोक सकता, ऐसे ही आंख आंख की किरणों को भी कांचादि का आवरण दृश्य पदार्थ में जाने से नहीं रोक सकता। फिर आक्षेप करते हैं -


सूत्र :नेतरेतरधर्मप्रसङ्गात् II3/1/48

सूत्र संख्या :48


अर्थ : कहीं पर आवरण होने से आंख की किरणों का रूक जाना जैसे कि दीवार आदि में और कहीं आवरण होने से न रूकना जैसे कि कांचादि में ये दोनों बातें परस्पर विरूद्ध है। या तो दीवार से भी रूकावट होनी चाहिए या कोच से भी रूकावट होनी चाहिए। इसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :आदर्शो-दकयोः प्रसादस्वाभाव्याद्रूपोपलब्धिवत्तदुपलब्धिः II3/1/49

सूत्र संख्या :49


अर्थ : जैसे दर्पण और जल स्वभावस्वच्छ होने से नेत्ररश्मि को नहीं रोकते, ऐसे ही स्फटिकादि भी स्वच्छ स्वभाव होने से नेत्ररश्मि के बाधक नहीं होते। भित्ति आदि मलिन स्वभाव होने से रूकावट का कारण होते हैं।

व्याख्या :प्रश्न- भित्ति आदि के मलिन स्वभाव और कांचादि के स्वच्छ स्वभाव होने का क्या कारण है? उत्तर- सत्व, रज, तम प्रकृति के ये तीन गुण हैं, अग्नि से सत्वगुण प्रधान है, जल में रजस और पृथ्वी में तमस। अग्नि के परमाणु अधिक होने से कांचादि स्वच्छ स्वभाव है, पृथ्वी के परमाणु अधिक होने से भित्त्यादि मलिन स्वभाव हैं। दर्पणादि के समान आंख की ज्योति को क्यों माना जाये?


सूत्र :दृष्टानुमितानां नियोगप्रतिषेधानुपपत्तिः II3/1/50

सूत्र संख्या :50


अर्थ : जो बातें प्रत्यक्ष या अनुमान प्रमाण से सिद्ध हैं उनमें भी मीन मेष निकालना या यों कहना कि ऐसा चाहिए, ऐसा न होना चाहिए, ठीक नहीं है। जैसे कांच का आवरण होने से दूसरी तरफके पदार्थ दीखते हैं, भित्ति के आवरण में नहीं दीखते यह बात प्रत्यक्ष सिद्ध हैं अब इसमें आक्षेप करना कि कांच के आवरण में क्यों दीखते हैं, या भित्ति के आवरण में क्यों नहीं दीखते बिल्कुल असंगत है। क्योंकि प्रत्येक पदार्थ की बनावट और दशा भिन्न-भिन्न है, इस लिए सब में एकसा नियम हो सकता। इस विषय को यहीं समाप्त करके इस बात का विवेचन किया जाता है कि इन्द्रिय एक है व अनेक? प्रथम संशय का कारण कहते हैं-


सूत्र :स्थानान्यत्वे नानात्वादवयविनानास्थानत्वाच्च संश-यः II3/1/51

सूत्र संख्या :51


अर्थ : इन्द्रियों के स्थान पृथक-पृथक होने और अनेक स्थानों में अनेक द्रव्यों के देखने से और एक ही अवयवी को भिन्न-भिन्न स्थानों में देखने से यह संदेह उत्पन्न होता है कि इन्द्रिय एक है व अनेक? इसका तात्पर्य यह है कि इस देह में जो इन्द्रिय हैं, उसके स्थान अलग-अलग हैं, सन्देह यह होता है कि इन स्थानों में एक एक ही इन्द्रिय अवयवी रूप से व्यापक है वा भिन्न-भिन्न स्थानों मे भिन्न-भिन्न इन्द्रिय काम करते हैं? एकेन्द्रियवादी कहता हैं -


सूत्र :त्वगव्यतिरेकात् II3/1/52

सूत्र संख्या :52


अर्थ : त्वग अर्थात् खाल से रहित देह का कोई भाग नहीं या शरीर के किसी भाग या इन्द्रियमें त्वचा का अभाव नहीं है और न कोई इन्द्रिय ऐसा है कि जिसका सहारा त्वचा न हो। यहद खाल का चमड़ा मढ़ा हुआ न हो तो सारे इन्द्रिय और शरीर विकल हो जायें और कुछ भी काम न कर सकें, इसलिए त्वचा ही एक इन्द्रिय है। इसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :नेन्द्रीयान्तरार्थानुपलब्ध:II3/1/53

सूत्र संख्या :53


अर्थ : यदि एक त्वचा ही को इन्द्रिय माना जाय तो सब विषयों का उससे ज्ञान होना चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं होता, क्योंकि अन्धे को रूप का ज्ञान और बहरे को शब्द का ज्ञान नही होता। इससे जाना जाता है, न और भी इन्द्रिय है, जिनके होने से उन विषयों का ज्ञान होता है, न होने से नहीं होता। त्वचा से केवल स्पर्श की उपलब्धि होती है, गन्ध रस, रूप औश्र शब्द का ज्ञान उससे नहीं होता। इससे सिद्ध है कि इन्द्रिय अनेक हैं। इस पर वादी फिर आक्षेप करता हैं-


सूत्र :त्वगवयवविशेषेण धूमोपलब्धिवत्तदुप्लब्धिII3/1/54

सूत्र संख्या :54


अर्थ : जैसे त्वगिन्द्रिय का एक विशेष भाग धूम की उपलब्धि करता है, ऐसे ही त्वचा का कोई भाग रूप की उपलब्धि करता है। कोई रस की, कोई शब्द की। उस विशेष भाग के विकृत या नष्ट हो जाने पर अन्धे करूप और बहरे को शब्द की उपलब्धि नहीं होती। इसलिए केवल त्वचा को इन्द्रिय मानने में कोई हानि नहीं। अब इसका खण्डन करते हैं-


सूत्र :आहतत्वादहेतु II3/1/55

सूत्र संख्या :55


अर्थ : वादी ने प्रथम तो यह कहा था कि शरीर का कोई भाग पृथक नहीं अर्थात् सब शरीर में व्यापक होने से त्वचा ही एक इन्द्रिय है। अब कहता है कि उसके एक विशेष भाग से धूमादिवत् रूपादि की उपलब्धि होती है। विशेष भागों से विशेष विषयों की उपलब्धि होना और उनके न होने से न होना यह बात विषय ग्राहक इन्द्रियों का अनेक होना सिद्ध करती है, जिससे पहला पक्ष खण्डित हो जाता है। इन्द्रियों स्थान में व्यापक होने से जो त्वचा को एक इन्द्रिय माना है यह भी ठीक नहीं, क्योंकि यदि सबसे फली हुई होने से ही त्वचा सबका काम कर सकती है तो फिर पृथ्वीयादि भूत भी जो सब जगह फैले हुए हैं और सब इन्द्रियों का आधार भी हैं, इनको ही एक इन्द्रिय क्यों न मान लिया जाये। ऐसा मानना प्रमाण और युक्ति के विरूद्ध है। इस पर एक हेतु और देते हैं।


सूत्र :न युगपदर्थानुपलब्धेः II3/1/56

सूत्र संख्या :56


अर्थ : यदि त्वचा ही एक इन्द्रिय होती तो एक साथ बहुत से विषयों का ज्ञान होता, क्योंकि वह सब शरीर में व्यापक होने सब विषयों का ज्ञान कराने में समर्थ होती। परन्तु ऐसा नहीं हैं, इसलिए अनेक हैं। जो लोग त्वचा ही को एक मानते हैं, उनके मतानुसार अन्धा, बहरा कोई हो ही नहीं सकता। क्योंकि अन्धे और बहरे को भी त्वचा के रूप और शब्द का ज्ञान हो ही जाता है और जिसको रूप और शब्द का ज्ञान हो, उसें अन्धा और बहरा कहना नहीं बन सकता। जब हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि अन्धों और बहरों को रूप और शब्द का ज्ञान नहीं होता तब केवल एक इन्द्रिय मानना अयुक्त है। इस पर और भी युक्ति देते हैं-


सूत्र :विप्रतिषेधाच्च न त्वगेका II3/1/57

सूत्र संख्या :57


अर्थ : विप्रतिषेय से भी त्वचा ही एक इन्द्रिय नहीं है।

व्याख्या :प्रश्न- विप्रतिषेय किसे कहते हैं? उत्तर- जहां दो बराबर शक्तियां परस्पर विरोध करती हैं। प्रश्न- यहां पर परस्पर विरोध क्या है? उत्तर- यहां विरोध यह है कि आंख से दूरस्थ पदार्थों की उपलब्धि होती है, परन्तु त्वचा से दूर के पदार्थों का स्पर्श नहीं होता। यदि त्वचा एक ही इन्द्रिय होती तो उससे दूर वस्तु का स्पर्श और रूप दोनों को ग्रहण होता या संयुक्त वस्तु के स्पर्श के समान उसको रूप ज्ञान भी होता, परन्तु रूप का ज्ञान सदा दूर से होता है और स्पर्श का ज्ञान संयोग से। इनमें परस्पर विरोध होने से सिद्ध है कि इन दोनों के इन्द्रिय अलग-अलग हैं। प्रश्न-यदि ऐसा माना जाये कि त्वचा में दो दो गुण हैं (1) संयुक्त वस्तु के स्पर्श को (2) दूरस्थ वस्तु के रूप को ग्रहण करना, तो क्या हानि है? उत्तर-यह ठीक नहीं क्योंकि इन्द्रिय और अर्थ के संयोग बिना किसी वस्तु का ज्ञान नहीं होता तो क्या दूरस्थ पदार्थ कें रूप को ग्रहण करते समय त्वचा शरीर को छोड़कर उसके पास चली जाती है कदापि नहीं। नेत्ररश्मि के द्वारा ही दूरस्थ वस्तु के रूप का ग्रहण होता हैं अतएव इन्द्रिय अनेक हैं। अब इस पर हेतु और देते हैं -


सूत्र :इन्द्रियार्थपञ्चत्वात् II3/1/58

सूत्र संख्या :58


अर्थ : इन्द्रियों कें विषय पांच हें, जिसके नाम ये हैं, शब्द, स्पर्श रूप, रस और गन्ध । त्वचा से केवल स्पर्श का ज्ञान होता है, शब्दादि अन्य चार का नहीं, जिन कान, आंख जिहां और नासिका से शब्दादि अन्य चार विषयों का ज्ञान होंता है, उनका त्वचा से भिन्न होना अनुमान सिद्ध हैं उक्त पांचों विषयों का भिन्न-भिन्न पांचों इन्द्रियों से ज्ञान होने और एक के विषय का दूसरे इन्द्रिय से ज्ञान न होने से यह सिद्ध है कि पांच ही ज्ञानेन्द्रिय हैं, न कि एक। वादी फिर आक्षेप करता हैः


सूत्र :न तदर्थबहुत्वात् II3/1/59

सूत्र संख्या :59


अर्थ : इन्द्रियों के पांच ही विषय नहीं, किन्तु अनेक हैं। जैसे शीत, उष्ण, कोमल और कठ़ोर आदि से स्पर्श कई प्रकार का है और लाल, पीला, काला और हरा इत्यादि भेदों से रूप भ कई प्रकार का है, ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक भेदों से शब्द भी कई प्रकार का है। कडवा, मीठा, खट्टाऔर तीखा आदि भेदों से रस के भी कई भेद हैं और सुगन्ध और दुर्गन्ध आदि भेदों से गन्ध भी कई प्रकार का है। जब अर्थ अनेक हैं तो उनके ग्राहक इन्द्रिय भी अनेक होने चाहिएं न कि पांच। अब इसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :गन्ध-त्वाद्यव्यतिरेकाद्गन्धादीनामप्रतिषेधः II3/1/60

सूत्र संख्या :60


अर्थ : गन्धादि के भेदों को अलग-अलग गिनकर विषयों का बहुत्व मानना और उससे इन्द्रिय बहुत्व की कल्पना ठीक नहीं। गन्ध का जो गन्धत्व धर्म है, वह सब गन्धों में सामान्य रूप से विद्यमान है, इसी प्रकार रूपादि के विशेष धर्म अपने-अपने सामान्य धर्म में आ जाते हैं। इसलिए वे सब भेद एक ही इन्द्रिय से ग्रहण किए जाते हैं। जैसे लाल, पीला, काला आदि रूप के भेद एक ही आंख से ग्रहण किए जाते हैं। इनके लिए भिन्न-भिन्न इन्द्रियों की आवश्यकता नहीं हैं। ऐसे ही शीतोष्णादि रूपर्श त्वगिन्द्रिय से ग्रहण होतें हैं अर्थात् जिस त्वचा से शीत स्पश ग्रहण किया जाता है, उसी से उष्णस्पर्श भ। अतएव इन्द्रिय पांच ही हैं। अब वादी फिर आक्षेप करता हैं-


सूत्र :विषयत्वाव्यतिरेकादेकत्वम् II3/1/61

सूत्र संख्या :61


अर्थ : यदि भिन्न-भिन्न प्रकार केविषयों को एक जाति मानकर पांच विषय मानते हो तो पाँच विषयों की कल्पना क्यों की जाती है, एक ही विषय क्यों न मान लिया जाय, क्योंकि विषय का जो विषयत्व धर्म है, वह सब विषयों में समान है। यदि गन्धत्व के सामान्य से सुगन्ध और दुर्गन्ध एक है तो विषयत्व के सामान्य से गन्ध, रस शब्दादि भी एक ही हैं। जब विषय एक हैं, तो फिर उसका ग्राहक इन्द्रिय भी एक ही होना चाहिए। इसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :न बुद्धिलक्षणाधिष्ठानगत्याकृतिजातिपञ्चत्वेभ्यः II3/1/62

सूत्र संख्या :62


अर्थ : बुद्धि ज्ञान को कहते हैं, वह चक्षुषादि भेदों से पांच प्रकार का है, जब ज्ञान पांच प्रकार का है, तब उसके कारण भी पांच ही होने चाहियें। (2) इन्द्रियों अधिष्ठान (स्थान) भी पांच ही हैं, (3) गतिभेद भी जिनसे विषयों का ज्ञान होता है, पांच ही हैं, (4) आकृति भी पांच इन्द्रियों की भिन्न-भिन्न है। (5) जाति (कारण) भी पांच हीं हैं अर्थात् श्रोत्र का आकाश, त्वचा का वायु, चक्षु का अग्नि, जिह्वा का जल और घारण का पृथ्वी। जब कारण पांच हैं, तब उनका कार्य एक कैसे हो सकता है, अतएव पांच इन्द्रिय हैं, न कि एक। इन्द्रियों का कारण पंचभूत हैं, अब यह दिखलाया जाता हैं--


सूत्र :भूतगुणविशेषोपलब्धे-स्तादात्म्यम् II3/1/63

सूत्र संख्या :63


अर्थ : पंचभूतों से गन्धादि गुणों की उपलब्धि प्रत्यक्ष देखने में आती है, जैसे वायु से स्पर्श, आकाश से शब्द, अगिन से रूप, जल से रस और पृथ्वी से गन्ध की उपलब्धि होती है और यही भूतों के पांच गुण इन्द्रियों के विषय हैं, इससे सिद्ध है कि इन्द्रियों की प्रकृति पांच भूत है, वह इन्द्रिय उसी भूत का कार्य है, यह अनुमान सिद्ध है इसलिए पंचभूत ही पांचों इन्द्रियों के कारण है। अब इनके गुण दिखलाते हैं-


सूत्र :गन्धरसरूपस्पर्शशब्दानां स्पर्शपर्यन्ताः पृथिव्याः II3/1/64

सूत्र संख्या :64


अर्थ : गन्ध, रस, रूप, और स्पर्श ये चार गुण पृथ्वी के है। रस, रूप और स्पर्श ये तीन जल के गुण हैं। रूप और स्पर्श ये दो अग्नि के गुण है। स्पर्श वायु का गुण है, और शब्द केवल आकाश का गुण है। अब इस पर शंका करते हैं-


सूत्र :न सर्वगुणानुपलब्धेः II3/1/65

सूत्र संख्या :65


अर्थ : उक्त सूत्रों में जो गुणों का कारण भूतों को बतलाया है वह ठीक नहीं, क्योंकि जिस भूत की इन्द्रिय से जिन-जिन गुणों का सम्बन्ध बतलाया है उनसे रस, रूप और स्पर्श का ज्ञान नहीं होता, केवल गन्ध का ज्ञान होता है। इससे रूप, रस और स्पर्श का पृथ्वी में होना सिद्ध नहीं होता। ऐसे ही जल के इन्द्रिय रसना से रूप और स्पर्श का ज्ञान नहीं होता, केवल रस का ज्ञान होता है। ऐसे ही तेज की इन्द्रिय आंख से स्पर्श का ज्ञान नहीं होता, केवल रूप का ज्ञान होता है। इससे सिद्ध होता है कि भूतों में केवल एक ही एक गुण है, न कि अधिक। इसी की पुष्टि करते हैं-


सूत्र :एकैकश्येनोत्तरोत्तरगुणसद्भावादुत्तरोत्तराणां तदनुपलब्धिः II3/1/66

सूत्र संख्या :66


अर्थ : जैसे पृथ्वी, जल, तेज वायु और आकाश म से ये पांच भूत बतलाये गए हैं, ऐसे ही गन्ध, रस, रूप स्पर्श और शब्द त्रम से इनके पांच ही गुण हैं अर्थात् पृथ्वी का गुण ग्रन्थ है, जल का रस, तेज का रूप, वायु का स्पर्श आकाश का शब्द गुण है और जो जिसका गुण है, उसी का ज्ञान उसके कार्यभूत इन्द्रिय से होता है, जैसे घ्रात से गन्ध का, रसना से रस का, आंख से रूप का, त्वचा से स्पर्श का और कान से शब्द का ज्ञान होता है। यदि एक भूत में एक ही गुण हैं, तो फिर 64 वें सूत्र में पृथ्वी के चार, जल के तीन और अग्नि के दो गुण क्यों मानेगए हैं? इसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :संसार्गाच्चानेकगुणग्रहणं II3/1/67

सूत्र संख्या :67


अर्थ : यद्यपि पृथ्वी, में अपना एक ही गुण गन्ध है, तथापि उसमें जल, अग्नि और वायु के परमाणु मिले हुए हैं, इसलिए इनका संसर्ग होने में इनके गुण भी उसमें माने गये हैं। वस्तुतः कार्यरूप पृथ्वी में ही ये चार गुण पाये जाते हैं, कारण में नहीं। इसी प्रकार कार्यरूप जल में ही तीन गुण माने गए हैं कारण रूप में नहीं। कारण रूप द्रव्यों में संसर्ग न होने से केवल अपना ही गुण रहता है। इनका संसर्ग अनियम है, या नियम पूर्वक? इसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :विष्टं ह्यपर-म्परेण II3/1/68

सूत्र संख्या :68


अर्थ : पृथ्वी आदि पंचभूतों में पहला-पहला पिछले-पिछले से मिला हुआ है अर्थात् पहला पृथ्वी पिछले जल तेज और वायु से मिली हुई है। इसी प्रकार पहला जल, और वायु से और पहला तेज, वायु से मिला हुआ है। इससंयोग के कारण ही कार्य दशा में अपने गुण के सिवाय अन्य गुण भी इसमें अपलब्ध होते हैं। अब इस पर शंका करते हैं-


सूत्र :न पार्थिवाप्ययोः प्रत्यक्षत्वात् II3/1/69

सूत्र संख्या :69


अर्थ : पुथिव्यादि भूतों में एक-एक गुण नहीं है, क्योंकि यदि एक ही गुण होता तो इनमें उसी का प्रत्यक्ष होता न कि अन्य गुण का। यथा पृथ्वी में गन्ध का और जल में रस का प्रत्यक्ष होता, अग्नि के गुण या वायु के गुण स्पर्श का इनमें प्रत्यक्ष न होना चाहिए था। क्योंकि जब कारण रूप पृथ्वी और जल में रूप नहीं, तो कार्य रूप में कहां से आ गया। कारण के विरूद्ध कार्य में कोई धर्म नहीं आ सकता। अतएव पार्थिव पदार्थों में गन्ध के अतिरिक्त रस रूप और स्पर्श का प्रत्यक्ष होने से एक भूतों में अनेक गुणों का होना सिद्ध है। और यह जो हेतु दिया गया है कि अन्य भूतों के संसर्ग से उनके गुणों का प्रत्यक्ष होता है, ठीक नहीं क्याकेकि यदि वायु के संसर्ग से आग्नेय पदार्थों में स्पर्श की उपलब्धि होती है तो अग्नि से संसर्ग से वासव्य पदार्थों के रूप की उपलब्धि क्यों नहीं होती। क्योंकि संसर्ग दोनों का समान है। इसके अतिरिक्त रस पार्थिव और आप्य दोनों प्रकार के पदार्थों में पाया जाता है, परन्तु पार्थिव द्रव्यों में 6 प्रकार का रस होता है, आप्त में केवल एक ही प्रकार मधुर रस होता है। इसी प्रकार पार्थिव द्रव्यों में हरा, पीला, काला आदि अनेक प्रकार का रूप होता है, जल में केवल एक ही प्रकार का रूप देखा जाता है। इसलिए यह कथन कि भूतों के परस्पर संसर्ग से एक दूसरे के गुण उनमें पाए जाते हैं। ठीक नहीं। अब इसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :पूर्वपूर्वगुणोत्कर्षात्तत्तत्प्रधानम् II3/1/70

सूत्र संख्या :70


अर्थ : पृथ्वी के चार गुण बतलाये गए हैं, गन्ध, रस, रूप और स्पर्श, इनमें पहला गन्ध अत्कृष्ट होने से प्रधान हैं, इतर रस, रूप और स्पर्श गौण होने से अप्रधान और ऐसे ही रस, रूप और स्पर्श ये तीन गुण जल के हैं, जिनमें पहला रस प्रधान और दूसरे दो अप्रधान हैं। एंव तेज के रूप और स्पर्श इनके गुणों में पहला रूप प्रधान है, दूसरा स्पर्श अप्रधान। बस इनमें जो जिसका प्रधान गुण है, वही उसके इन्द्रिय से ग्रहण किया जाता है, अन्य नहीं। यही कारण है कि एक इन्द्रिय से अनेक गुणों का ग्रहण नहीं। पुनः इसी की पुष्टि करते हैं-


सूत्र :तद्व्यवस्थानं तु भूयस्त्वात् II3/1/71

सूत्र संख्या :71


अर्थ : जिस भत का जिस इन्द्रिय के साथ अधिक सम्बन्ध है, उसी भूत के गुणों का उस इन्द्रिय से ज्ञान होता है और वह इन्द्रिय उसी भूत का कार्य समझा जाता है। जैसे तेज चक्षु की शक्ति बढ़ती है, इसलिए वह तेज का ही कार्य समझा जाता है। बस अधिक सम्बन्ध होने के कारण ही ही इन्द्रिय अपने कारण विषय को ग्रहण करते हैं, दूसरों के विषयों को नहीं। अपने-अपने गुणों को इन्द्रिय उनकी सहायता से ही ग्रहण कर सकतें हैं-


सूत्र :सगुणानामिन्द्रियभावात् II3/1/72

सूत्र संख्या :72


अर्थ : घ्राणदि इन्द्रिय जबकि पृथ्व्यिादि भूतों का कार्य है, तो उनमें भी गन्धादि गुण विद्यमान है, फिर बिना किसी बाह्य वस्तु की विद्यमानता के उनमें गन्धादि की उपलब्धि क्यों नहीं होती? इसका उत्तर यह है कि अपने गुणों के सहित ही घ्राणादि में इन्द्रियत्व है, यदि गुणों को अलग कर दिया जाय तो फिर उनमें इन्द्रियत्व धर्म ही न रहे। क्योंकि घ्राण अपने गुण गन्ध की सहायता से ही बाहर के गन्ध को ग्रहण करता है। यदि उसे अपने सहचरी गन्ध की सहायता न हो तो वह कभी उसका ग्रहण न कर कसे। क्रूा काररण है कि इन्द्रिय अपनआन्तरिक गुणों को ग्रहण नहीं करते, किन्तु बाह्य गुणों को ग्रहण करते है? इसका उत्तर ः-


सूत्र :तेनैव तस्याग्रहणाच्च II3/1/73

सूत्र संख्या :73


अर्थ : सहायक के न होने से इन्द्रिय अपने स्वरूप को अथवा आन्तरिे गुणों को ग्रहण नहीं कर सकते। इसका कारण यह है कि कोई वस्तु बिना बाहर की सहायता के अपने को ग्रहण नहीं कर सकती। जैसे आंख अपने बाहर के पदार्थों को देख सकती है, भीतर के नहीं। हाथ बाहर के पदार्थों को पकड़ सकता है, भीतर के नहीं। अतएव केवल उस ही उसका ग्रहण नहीं हो सकता। इस पर वादी शंका करता हैं-


सूत्र :न शब्दगुणोपलब्धेः II3/1/74

सूत्र संख्या :74


अर्थ : यह बात ठीक नहीं कि इन्द्रिय अपने गुण को ग्रहण नहीं कर सकते, क्योंकि कान अपने गुण शब्द को ग्रहण करते हैं, अर्थात् जब कान बन्द कर लिए जाते हैं तो वे भीतर के शब्द को सुनते हैं। अब इसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :तदुपलब्धिरितरेतरद्रव्य-II3/1/75

सूत्र संख्या :75


अर्थ : रूपादि गुणों के ग्रहण में सहायता पदार्थ बाहर रहते हैं शब्द का सहायक आकाश भीतर बाहर सब जगह मौजूद है। इसलिए शब्द के समान रूपादि गुणों को बाह्य सहायता के इन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं कर सकते। इन्द्रियपरीक्षाप्रकरण समाप्त हुआ। इति तृतीयाध्यायस्य।



न्याय दर्शन द्वितिय अध्याय द्वितिय आह्निक

न्यायदर्शन तृतिय अध्याय द्वितिय आह्निक 

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