Ad Code

न्याय दर्शन द्वितियो अध्याय द्वितिय आह्निक भाष्यकार स्वामी दर्शनानंद सरस्वती




सूत्र :न चतुष्ट्वमैतिह्यार्थापत्तिसम्भवाभावप्रामाण्यात् II2/2/1
सूत्र संख्या :1

अर्थ : दूसरे अध्याय का दूसरा आन्हिक प्रमाणों की सामान्य परीक्षा के अनन्तर अब विशेष परीक्षा आरम्भ करते हैं, प्रथम वादी आक्षेप करता है कि चार ही प्रमाण क्यों माने जायें अधिक क्यों नहीं ? चार ही प्रमाण मानना ठीक नहीं, क्योंकि ऐतिह्म, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव ये चार प्रमाण और भी हैं।
व्याख्या :श्न -ऐतिह्य किसे कहते हैं ? उत्तर - जिन बातों की परम्परा से सुनते चले आये हैं, या इतिहास ग्रन्थों में जिनका लेख मिला है कि अमुक पुरुष हुआ और उसने ऐसा किया, इत्यादि पुरावुतों की इतिहास या ऐतिह्म कहते हैं। प्रश्न - अर्थापत्ति का क्या लक्षण हैं ? उत्तर - एक बात के कहने से जो दूसरी बात अर्थ से स्ंवय जानी जाती है, उसको अर्थापत्ति कहते हैं, जैसे कोई सत्य भाषण विश्वास का कारण हैं, इस एक बात के कहने से दूसरी बात कि मिथ्या भाषण अविश्वास का कारण है, स्वंयमेव सिद्ध हो गई। प्रश्न -सम्भव किसे कहते है ? उत्तर - जहां एक वस्तु बिना दूसरी वस्तु के न ठहर सके, वहां एक के ग्रहण से दूसरे का ज्ञान होना सम्भव कहलाता हैं, जैसे श्रद्धा से प्रीति और ज्ञान से मुक्ति का होना सम्भव है। प्रश्न - अभाव का लक्षण क्या है ? उत्तर - जहां कारण न हो, वहां कार्य भी न होगा, इसको अभाव कहते हैं, जैसे मोह से अभाव में शोक और लोभ के अभाव में आदर भी न होगा। ऐतिह्यादि इन चार प्रमाणों के सिद्ध होने से आठ प्रमाण होते हैं, इसलिए प्रत्यक्षादि केवल चार ही प्रमाणों का मानना ठीक नहीं। सूत्रकार इसका उत्तर देते हैं:
सूत्र :शब्द ऐतिह्यानर्थान्तरभावा-दनुमानेऽर्थापत्तिसम्भवाभावानर्थान्तरभावाच्चाप्रतिषेधः II2/2/2
सूत्र संख्या :2

अर्थ : प्रमाण चार ही हैं क्योंकि ऐतिह्य शब्दप्रमाण के अन्तर्गत है और अर्थापत्ति सम्भव और अभाव से ये तीनों अनुमान प्रमाण के अन्तर्गत हैं।
व्याख्या :प्रश्न - शब्द प्रमाण मे ऐतिह्य का सन्निवेश कैसे करते हैं ? उत्तर - जैसे आप्तोपदिष्ट शब्द प्रमाण हैं, वैसे ही आप्त का लिखा हुआ इतिहास भी प्रमाण माना जायेगा, अनाप्त का नहीं, जो कि आप्तोपदेशरूप लक्षण दोनों में समान हैं, इसलिए ये दोनों एक ही हैं । प्रश्न - अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव ये तीनों अनुमान में किस तरह समाते हैं ? उत्तर - किसी लिंग के प्रत्यक्ष होने के पश्चात् उसके द्वारा अलिंगी का ज्ञान होना अनुमान कहलाता हैं सो अर्थापत्ति में भी इसी अनुमान से काम लिया जाता है अर्थात् जो सत्य नहीं बोलता, उसके विषय में यह अनुमान किया जायेगा कि वह अवश्य मिथ्या बोलता होगा। दूसरा सम्भव भी अनुमान के अन्तर्गत हैं, क्योंकि एक वस्तु के ग्रहण से दूसरी का अनुमान स्पष्ट है, श्रद्धा को देखकर प्रीति और ज्ञान को देखकर मुक्ति का अनुमान किया जायेगा। तीसरा अभाव भी अनुमानसे विलक्षण नहीं, क्योंकि मोह के अभाव में शोक और लोभ के अभाव में निन्दा की सम्भावना भी नहीं हो सकती। इसलिए सब प्रमाण चारों प्रमाणों के अन्तर्गत होने से अधिक प्रमाण मानने की कोई आवश्यकता नहीं। प्रश्न - क्या अनुमान और अर्थापत्ति आदि में कोई भेद नहीं ? उत्तर - अनुमान कई प्रकार का होता है, जो व्याप्ति ज्ञान सम्बन्ध रखता हैं, अर्थापत्ति आदि भी बिना सम्बन्ध के नहीं हो सकती। इसलिए ये सब अनुमान के भेदों में आ जाती हैं, अनुमान के अतिरिक्त कोई अन्य प्रमाण नहीं हो सकती। अब वादी अर्थापत्ति पर आक्षेप करता हैं:
सूत्र :अर्थापत्तिरप्रमा-णमनैकान्तिकत्वात् II2/2/3
सूत्र संख्या :3

अर्थ : अर्थापत्ति को प्रमाण मानना ठीक नहीं, क्योंकि उसमें व्यभिचार दोष है, जब यह कहते हैं कि बादल के न होने से वर्षा नहीं होती, तब अर्थापत्ति से यह सिद्ध होता है कि बादल के होने से अवश्य वर्षा होगी, परन्तु प्रायः अवसरों पर बादल के होने पर भी वर्षा नहीं होती, यही व्यभिचार दोष हैं। इसलिए अर्थापत्ति अप्रमाण हैं। इसका उत्तर सूत्रकार देते हैं:
सूत्र :अनर्थापत्तावर्थापत्त्यभिमानात् II2/2/4
सूत्र संख्या :4

अर्थ : वादी ने जो अर्थापत्ति के प्रमाण होने में दोष दिया हैं, वह ठीक नहीं, क्योंकि यह कहना बिल्कुल ठीक है कि कारण के न होने से कार्य नहीं हो सकता। इससे यह अर्थापत्ति होती है कि कारण के होने से कार्य होता हैं। परन्तु न तो कारण के होने पर कार्य की अनुत्पत्ति से कारण की सत्ता में व्यभिचार दोष आता है और न ही बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति देखी जाती है। यदि कभी बिना बादल के वृष्टि हो जाती तो व्यभिचार दोष आ सकता था। क्योंकि प्रतिज्ञा यह थी कि बिना बादल के वर्षा नहीं होतीरू। इससे अर्थापत्ति यह निकाली गई कि बादल से वर्षा होती है। यदि कभी कहीं पर बिना बादल के वर्षा होती तो व्यभिचार कहलाता। क्योंकि कारण की विद्यमानता में भी किसी प्रतिबन्ध के होने से कार्य का न होना सम्भव है। प्रतिवादी का यह आशय नहीं था कि बादल के होने से अवश्य ही वर्षा होती है, किन्तु उसका आशय यह था, जिसको उसने अर्थापत्ति से सिद्ध करना था कि बादल के होने पर वर्षा होती है। इस वास्ते जब तक बिना बादल के वर्षा का होना सिद्ध न हो जाये, तब तक व्यभिचार दोष नहीं आ सकता। वादी ने अनर्थापत्ति को अर्थापत्ति मानकर आक्षेप किया है इसलिए वह ठीक नहीं। इस पर एक हेतु और देते हैं:
सूत्र :प्रतिषेधाप्रामाण्यं चानैकान्तिकत्वात् II2/2/5
सूत्र संख्या :5

अर्थ : व्यभिचार दोष लगाकर जो वादी ने अर्थापत्ति का निषेष किया है, जबकि यह खण्डन आप ही व्यभिचार दोषयुक्त हैं, तब इससे अर्थापत्ति का खण्डन क्योंकर हो सकेगा। क्योंकि सर्वत्र अर्थांपत्ति का खण्डन इस युक्ति से नहीं हो सकता, किन्तु जहां पर भ्रान्ति से अनर्थापत्ति को अर्थापत्ति बनाया गया हो, वहीं पर यह दोष आ सकता है और जहां ठीक अर्थापत्ति हो वहां यह दोष नहीं लगता। इसलिए सब जगह लागू न होने से यह निषेध व्यभिचार युक्त है और भी हेतु देते हैं:
सूत्र :तत्प्रामाण्ये वा नार्थापत्त्यप्रामाण्यम् II2/2/6
सूत्र संख्या :6

अर्थ : व्यभिचार होने पर भी कहीं उपयोगी होने से निषेध को प्रमाण मान लिया जाये तो अर्थांपत्ति को भी यथावसर उपयोगी होने से प्रमाण मानना पड़ेगा और यह हो नहीं सकता कि सव्यभिचार होने से निषेध को तो प्रमाण मान लिया जाये और अर्थापत्ति को प्रमाण न माना जाये। इसलिए इस युक्ति से भी अर्थापत्ति का प्रमाण होना सिद्ध है। अब अभाव के प्रमाणत्व में शंका करते हैं:
सूत्र :नाभावप्रामाण्यं प्रमेयासिद्धेः II2/2/7
सूत्र संख्या :7

अर्थ : प्रत्येक प्रमाण प्रमेय की सिद्धि के लिए होता है, जबकि अभाव का कोई प्रमेय नहीं तो वह प्रमाण कैसे हो सकता है।
व्याख्या :प्रश्न - बिना प्रमाण के प्रमेय की सिद्धि नहीं हो सकती, यह तो सर्वसम्पत हैं, किन्तु बिना प्रमेय के प्रमाणकी सिद्धि नहीं होती, यह बात ठीक नहीं। उत्तर - इस संसार में कोई वस्तु निष्प्रयोजन नहीं और प्रमाण से सिवाय प्रमेय ज्ञान के और कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता, इसलिए ऐसा प्रमाण जिसका कोई प्रमेय न हो, व्यर्थ होने से माननीय नहीं हो सकता। इसका उत्तर सूत्रकार देते हैं
सूत्र :लक्षितेष्वलक्षणलक्षितत्वादलक्षितानां तत्प्रमेयसिद्धिः II2/2/8
सूत्र संख्या :8

अर्थ : अभाव का प्रमेय सिद्ध है, इसलिए यह कहना कि अप्रमेय होने के कारण अभाव प्रमाण नहीं, ठीक नहीं है।
व्याख्या :प्रश्न -अभाव का प्रमेय क्या है ? उत्तर - किसी वस्तु का लक्षण करने से उस लक्षण से व्यतिरिक्त पदार्थों का ज्ञान अभाव प्रमाण का प्रमेय है। लाल, पीले और नीले फूल मौजूद हैं, एक मनुष्य कहता है कि जो फूल नहीं हैं, उनको ले आओ, तो वह झट लाल और पीले फूल ले आता है। अब इन फूलों के लाने में उसको क्या लक्षण मिला ? केवल नीलेपन का न होना और यही उनको दूसरों से अलग करने का कारण है। इसलिए नीलेपन के अभाव से जिन पदार्थों का ज्ञान हुआ, वे ही उस अभाव का प्रमेय सिद्ध होते है। तात्पर्य यह निकला कि जिसका लक्षण किया जाये, उससे व्यतिरिक्त या विरुद्ध पदार्थ अभाव प्रमाण से जाने जाते हैं। इसलिए अभाव को प्रमाण मानना चाहिए। और भी हेतु देते हैं:
सूत्र :असत्यर्थे नाभाव इति चेन्नान्यलक्षणोपपत्तेः II2/2/9
सूत्र संख्या :9

अर्थ : जब कोई वस्तु पहले विद्यमान हो और पीछे न रहे तो उसका अभाव कहा जाता हैं, क्योंकि जिसका भाव पहले न हो, उसका अभाव हो ही नहीं सकता, वस्तुतः भाव का नाश ही अभाव है।
व्याख्या :प्रश्न -क्या जो वस्तु विद्यमान होकर नाश न हो जाये, उसका अभाव नहीं माना जायेगा ? उत्तर - वस्तु के होने पर उसके नाम और लक्षण होते है, जिसका कोई नाम या लक्षण ही नहीं, ऐसी वस्तु नहीं हो सकती, उसका भाव और अभाव दोनों नहीं हो सकते। प्रश्न -खरगोश के सींग और आकाश के फूल कभी नहीं हुए और न ही उनका नाश हुआ है, किन्तु सब लोग उनका अभाव मानते हैं ? उत्तर - सींग और फूल दोनों पदार्थ संसार में विद्यमान हैं, इनके नाम और लक्षण भी विद्यमान हैं, उनको खरगोश और आकाश के साथ मिलाकर वहां उनका अभाव सिद्ध करते है। यदि फूल और सींग कोई वस्तु न होते तो उनका भाव और अभाव दोनों नहीं हो सकते थे। जो लक्षण सींग के हैं, वे अन्यत्र देखे जाते है। खरगोश के सिर पर न होने से वहां उनका अभाव सिद्ध किया जाता है, इस पर वादी कहता हैं:
सूत्र :तत्सिद्धेरलक्षितेष्वहेतुः II2/2/10
सूत्र संख्या :10

अर्थ : जिन पदार्थों का लक्षण नहीं कहा गया उनमें लक्षण का अभाव मानना ठीक नहीं। क्योंकि ये लक्षण अन्य पदार्थों में विद्यमान हैं, जो पदार्थ लक्षण-लक्षित हैं, उनका अलक्षितों में अभाव मानना भी ठीक नहीं। क्योंकि जिस पदार्थ की सत्ता और स्वरूप का ठीक ज्ञान होता है, वही लक्षण एक को दूसरे में पृथक करता है। अभाव का कोई स्वरूप ही नहीं, इसलिए वह किसी को किसी से अलग कर ही नहीं सकता। इसका उत्तर:
सूत्र :न लक्षणावस्थितापेक्षासिद्धेः II2/2/11
सूत्र संख्या :11

अर्थ : हम यह नहीं कहते कि जो लक्षण होते हैं, उनका अभाव होता है, किन्तु हम यह कहते हैं कि कुछ लक्षण पाये जाते हैं और कुछ नहीं पाये जाते। परीक्षक जिन लक्षणों के भाव को अनुभव नहीं करता, उन्हीं लक्षणों के अभाव से उसक वस्तु का ज्ञान होता है। जैसे किसी ने कहा कि इस फूलों के ढेर में से लाल और छोड़कर दूसरे फूल लाओ। अब फूल के लक्षण तो सब फूलों मे पाए जाते हैं, किन्तु लाल और पीला होना किसी में हैं और किसी में नहीं, अब जिन फूलों में रक्तता और पीतता का अभाव होगा, उनको वह मनुष्य ले जाएगा। केवल लाल और पीले न होने से ही उन फूलों का ज्ञान हुआ हैं, अन्यथा और कोई प्रमाण उन फूलों का ज्ञान कराने वाला नहीं था। प्रश्न - अभाव कितने प्रकार का है ? सूत्रकार इसका उत्तर देते हैं:
सूत्र :प्रागुत्पत्तेरभावोपपत्तेश्च II2/2/12
सूत्र संख्या :12

अर्थ : अभाव दो प्रकार का है (1) किसी वस्तु की उत्पत्ति से पहले उसका अभाव होता है, इसको प्रागभाव कहते है । (2) किसी वस्तु के नाश हो जाने पर उसका अभाव हो जाता हैं इसी को प्रध्वंसाभाव कहते हैं। जहां किसी पदार्थ में लक्षण के अभाव से ज्ञान होता है, वह प्रागभाव है, प्रध्वंसाभाव नहीं।
व्याख्या :प्रश्न -क्या तुम अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव को नहीं मानते ? उत्तर -अन्योन्याभाव तो इन्हीं दोनों में आ जाता हैं, अत्यन्ताभाव की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि अत्यन्ताभाव किसी पदार्थ का हो नहीं सकता, कारण यह कि पदार्थ के विद्यमान होने से उसके लक्षण और नाम होते हैं, अब जिस वस्तु का अत्यन्ताभाव मानते हो, उसके नाम और लक्षण नहीं हो सकते और जब नाम और लक्षण ही नहीं हैं तो अभाव किसका कहा जाएगा ? इसलिए दो ही प्रकार का अभाव मानना ठीक है। अब शब्द की विशेष परीक्षा आरम्भ करते है। शब्द नित्य है व अनित्य ? यह प्रश्न करते हैं:
सूत्र :विमर्शहेत्वनुयोगे च विप्रतिपते: संशय II2/2/13
सूत्र संख्या :13

अर्थ : शब्द के विषय में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं, कोई तो यह मानते हैं कि शब्द आकाश का गुण, व्यापक और नित्य हैं, अनित्य किया से शब्द का केवल आविर्भांव होता है, शब्द उत्पन्न नहीं होता। कोई यह कहते हैं कि जड़ आकाश का गुण जो शब्द है वह पृथ्वी के गुण गन्ध आदि की तरह अनित्य है और कई ऐसा मानते हैं कि इन्द्रियजन्य ज्ञान की तरह शब्द उत्पत्ति और विनाश धर्म वाला है, इन भिन्न-भिन्न मतों के कारण करने से यह सन्देह होता है कि शब्द नित्य हैं व अनित्य ? अगले सूत्र में सूत्रकार उसका अनित्य होना सिद्ध करते है:
सूत्र :आदिमत्त्वा-दैन्द्रियकत्वात्कृतकवदुपचाराच्च II2/2/14
सूत्र संख्या :14

अर्थ : जबकि शब्द की कारण से उत्पत्ति है और वह इन्द्रियों से ग्रहण किया जाता हैं और उच्चारण से पहले नहीं होता, इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि शब्द अनित्य हैं। संसार में जो पदार्थ कारण से उत्पन्न होते हैं वे सब अनित्य हैं और जो इन्द्रियों से ग्रहण किए जाते हैं वे भी अनित्य हैं, क्योंकि संयुक्त द्रव्य ही इन्द्रियों से ग्रहण किए जाते हैं और शब्द बिना वायु, पृथ्वी और आकाश के उत्पन्न नहीं हो सकता, जिससे उसका संयुक्त होना सिद्ध है। संयुक्त होने से शब्द अनित्य हैं।
व्याख्या :प्रश्न - शब्द के संयुक्त होने का क्या कारण है ? उत्तर - यदि होठों को बन्द करके बोलने की चेष्टा की जाए तो शब्द बिल्कुल न होगा, क्योंकि वायु के आने और जाने का रास्ता नहीं रहा, जब वायु को रोका जाता है, तब शब्द उत्पन्न होता है। प्रश्न - शब्द को संयुक्त और विनाश धर्म वाला कहना ठीक नहीं, क्योंकि शब्द गुण है और गुण कभी संयुक्त नहीं होता। उत्तर - गुण और गुणी का समवाय सम्बन्ध होने से यदि गुणी अनित्य है तो उसका गुण भी अवश्य अनित्य होगा। पृथ्वी और जल के अनित्य और संयुक्त होने से इनके गुण गन्ध और रस कभी नित्य व असंयुक्त नहीं हो सकते। जब शब्द वायु के संयोग से उच्चारित होता है, त बवह नित्य कैसे हो सकता है। अतएव उत्पत्ति धर्मवान, इन्द्रिय जन्य और कृतक होने से शब्द अनित्य है। पुनः वादी शंका करता हैं:
सूत्र :न घटाभावसामान्यनित्यत्वान्नित्येष्व-प्यनित्यवदुपचाराच्च II2/2/15
सूत्र संख्या :15

अर्थ : . शब्द के अनित्यत्व में जो आदिमान् होने का हेतु दिया हैं, वह ठीक नहीं, क्योंकि घटादि का अभाव भी आदिमान् है और नित्य है। जब घट का नाश होता हैं, तब उसका अभाव उत्पन्न होता है, घटाभाव की उत्पत्ति का कारण घट का नाश है, इस प्रकार उत्पन्न होने पर भी घटाभाव का फिर कभी नाश नहीं होता। इस प्रकार आदिमान् घटाभाव के नित्य होने से कारणवान् शब्द का भी नित्य होना अनुमान से सिद्ध होता है। दूणरे जो इन्द्रियजन्य होने के कारण शब्द को अनित्य कहा गया हैं, यह भी ठीक नहीं, क्योंकि घटत्व और पटत्व आदि जातियों का ग्रहण भी इन्द्रियों से होता है, किन्तु जाति नित्य हैं, क्योंकि वह सब में रहती हैं, जब इन्द्रियजन्य होने से जाति अनित्य नहीं हो सकती तब फिर इसी कारण से शब्द अनित्य क्यों कर हो सकता है। तीसरा यह हेतु कि अनित्यवत् प्रतीत होने से शब्द अनित्य हैं, यह भी ठीक नहीं। क्योंकि जिस प्रकार वस्त्रादि अनित्य पदार्थों के भाग होते हैं, उसी प्रकार नित्य आकाश के भी विभाग हो सकते हैं, जैसे घटाकाश और मठाकाश आदि। इस प्रकार विभक्त होने से नित्य आकाश अनित्य नहीं हो जाता। तथा नित्य आत्मा कभी अपने को सुखी और कभी दुःखी मानता है, इससे आत्मा का अनित्य सिद्ध नहीं होता। जबकि नित्य आकाश और आत्मा में ये व्यवहार होते हैं तो शब्द में ऐसे ही व्यवहार होने से वह अनित्य क्यों कर हो सकता हैं ? इसका उत्तर सूत्रकार देते हैं:-
सूत्र :तत्त्वभाक्तयोर्नानात्वस्य विभागादव्यभिचारः II2/2/16
सूत्र संख्या :16

अर्थ : विभाग दो प्रकार का है एक वास्तविक दूसरा काल्पनिक आकाश में जो घटाकाश और मठाकाश के विभाग किए जाते हैं, वे काल्पनिक हैं, न कि वास्तविक, क्योंकि वे घट और मठ के सम्बन्ध से कल्पित किए जाते हैं, इसी प्रकार आत्मा में सुख और दुःख भी मन के सम्बन्ध से माने जाते हैं, इसलिए वे मन के धर्म हैं, न कि आत्मा के। अभाव का नित्य होना सिद्ध नहीं होता, क्योंकि यदि आदिमान् होने पर भी अभाव को नित्य माना जावे तो इसका यह अर्थ होगा कि उसकी उत्पत्ति तो हैं, विनाश नहीं। यह असम्भव हैं, इसलिए अभाव नित्य नहीं हो सकता।
व्याख्या :अभाव के काल्पनिक नित्य होने में एक हेतु वह भी है कि घट की उत्पत्ति से पहले जो घट का अभाव था, वह घट के उत्पन्न हो जाने से नाश हो जायगा और घट के नाश से जो अभाव उत्पन्न होगा, वह कारणवान न होगा, क्योंकि कारण भाव का होता है, अभाव का नहीं। अभाव तीनों कालों में रहने वाला और नित्य है। घट बनने से पहले भी घट का अभाव था, घट बनने पर भी घट से अतिरिक्त अन्य पदार्थों में घट का अभाव है, घट का अभाव है, घट के नाश होने पर भी घट का अभाव होगा। इसलिए घट के नाश होने पर घट के अभाव को कारणवान् बतलाना सरासर कल्पित हैं। शब्द के अनित्यत्व में और भी हेतु देते हैं:-
सूत्र :संतानानुमानविशेषणात् II2/2/17
सूत्र संख्या :17

अर्थ : वादी ने जो कहा था कि जाति का ज्ञान भी इन्द्रियों से होता हैं, परन्तु वह नित्य हैं, इसलिए इन्द्रियग्राह्य होने के कारण शब्द भी अनित्य नहीं हो सकता, इसके उत्तर में प्रतिवादी कहता है कि हमारा यह आशय नहीं है कि केवल इन्द्रियग्राह्य होने से ही शब्द अनित्य है किन्तु वायु के धक्के और मुखादि अवयव की चेष्टा से शब्दसन्तति की उत्पत्ति होती हैं। इससे भी उसके अनित्य होने का अनुमान किया जाता है। तीसरे हेतु का खण्डन:-
सूत्र :कारणद्रव्यस्य प्रदेशशब्देनाभिधानात् II2/2/18
सूत्र संख्या :18

अर्थ : वादी ने जो कहा था कि नित्यों में भी अनित्य का सा उपचार होता हैं, यह कथन भी ठीक नहीं, क्योंकि कारण द्रव्य का प्रदेश कहने से नित्यों में भी व्यभिचार नहीं होता। जैसे कार्यद्रव्यों के लिए प्रदेश का शब्द कहा जाता हैं, ऐसा कारण द्रव्य के लिए नहीं। कार्यद्रव्य के परिच्छिन्न होने से उसके साथ प्रदेश का विशेष सम्बन्ध समझा जाता है और कारण द्रव्य के साथ उसके परिच्छिन्न होने से प्रदेश का सामान्य सम्बन्ध होता है, इसलिए व्यभिचार दोष नहीं। पुनः शब्द का अनित्यत्व साधन करते हैं:-
सूत्र :प्रागुच्चारणादनुपलब्धेरावरणाद्यनुपलब्धेश्च II2/2/19
सूत्र संख्या :19

अर्थ : उच्चारण से पहले शब्द नहीं होता, यदि होता तो उसकी उपलब्धि होती। क्योंकि जब तक किसी पदार्थ की उपलब्धि न हो, तब तक उसकी सत्ता स्वीकार नहीं की जा सकती। यदि कोई कहे कि उस समय शब्द छिपा हुआ होता है और वह उच्चारण से प्रकट हो जाता हैं, तो कोई आवरण भी नहीं दीखता जिसने शब्द को छिपाया हुआ हो इसलिए यही मानना ठीक है कि उच्चारण ही उसकी उत्पत्ति हैं और उच्चारण से पहले उसकी कोई सत्ता नहीं है।
व्याख्या :प्रश्न - उच्चारण किसको कहते हैं ? उत्तर - जब आवश्यकता होती है तो आत्मा हृदयस्थ वायु को प्रेरणा करता हैं जिससे कण्ठ तालु आदि स्थानों पर एक प्रकार का आघात होता हैं, जैसे वीणातन्तुओं पर ऊंगली का आघात होने से भिन्न-भिन्न स्वर निकलते हैं, इसी प्रकार कण्ठादि स्थानों पर वायु का आघात होने से भिन्न-भिन्न शब्द निकलते है। प्रश्न -उच्चारण से शब्द की केवल अभिव्यक्ति (प्रकाश) होती हैं, न कि उत्पत्ति। उत्तर - यदि बोलने से शब्द की उत्पत्ति न मानोगे, तो शब्द हुआ था, हो रहा हैं और होगा, यह कहना नहीं बन सकता, क्योंकि ऐसा अनित्य कार्य के वास्ते ही कहा जा सकता है। नित्य कारण के लिए नहीं। प्रश्न - यह कहना ठीक नहीं कि शब्द संयोग से प्रकट होता है। क्योंकि संयोग के पश्चात् भी शब्द बना रहता है। जैसे कहने वाले मुंह से निकल कर सुनने वाले के कान में पहुँचने तक शब्द बने रहते हैं। इससे शब्द का कारण संयोग को मानना ठीक नहीं। उत्तर - संयोग शब्द का उपादान कारण नहीं कि संयोग के पश्चात् शब्द न रह सके। किन्तु संयोग शब्द का निमित्त कारण है और निमित्त कारण के ने रहने पर भी कार्य रह सकता है। जैसे दण्ड और चक के टूट जाने पर भी घड़ा बना रह सकता है। वादी पुनः आक्षेप करता हैं:-
सूत्र :तदनुपलब्धेरनुपलम्भादावर-णोपपत्तिः II2/2/20
सूत्र संख्या :20

अर्थ : . यह जो कहा गया है कि शब्दावरक पदार्थ के प्रतीत न होने से शब्द का छिप जाना नहीं मान सकते, किन्तु शब्द का नाश मान सकते हैं, इसका उत्तर यह है कि आवरक पदार्थ के प्रत्यक्ष न होने से यह मान लेना कि आवरक वस्तु नहीं है, ठीक नहीं है। किन्तु जब शब्द होकर नष्ट हो गया तो उसकी दोनों अवस्थायें अनुमित हो सकती हैं अर्थात् शब्द का छिप जाना या नाश हो जाना। जो कि आवरण का अभाव भी प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं है इसलिए आवरण का होना सिद्ध है। इस पर और भी हेतु देते हैं:-
सूत्र :अनुपलम्भादप्यनुपलब्धिसद्भाववन्नावरणानुपपत्तिरनुपलम्भात् II2/2/21
सूत्र संख्या :21

अर्थ : आवरण के प्रत्यक्ष न होने से जो अनुपलब्धि अर्थात् ज्ञान का न होना माना जावे और अनुपलब्धि का अभाव न माना जावे तो आवरक के न होने पर आवरण का भाव मानना चाहिए, जिससे शब्द छिप जाता है और जब बोलने वाला बोलने की चेष्टा करता है तो वह आवरण दूर हो जाता है, तब शब्द प्रकट होता है, वास्तव मे शब्द सदा विद्यमान रहता है।
व्याख्या :प्रश्न -अनुपलब्धि किसे कहते हैं ? उत्तर - किसी वस्तु के प्रत्यक्ष न होने को। प्रश्न - अनुपलब्धि का अभाव क्या हैं ? उत्तर - उसका प्रत्यक्ष होना। इसका उत्तर सूत्रकार देते हैं:-
सूत्र :अनुपलम्भात्मकत्वादनुपलब्धेरहेतुः II2/2/22
सूत्र संख्या :22

अर्थ : जिस पदार्थ की उपलब्धि होती है, उसकी की सत्ता मानी जाती है और जिसकी किसी प्रकार उपलब्धि नहीं हो सके उसका अभाव माना जाता है, यह सिद्धान्त है। ज्ञान के अभाव को अनुपलब्धि कहते हैं, इसलिए उसका भाव नहीं हो सकता। अतः आवरण के होने का ज्ञान होना चाहिए, जब तक आवरण के भाव का ज्ञान न हो जावे, तब तक आवरण की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती और यह जो हेतु दिया गया है कि अनुपलब्धि अर्थात् किसी वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान न होने से उसकी सत्ता का होना सिद्ध हैं, यह भ्रान्तियुक्त हैं, क्योंकि अभाव का हेतु अभाव नहीं हो सकता।
व्याख्या :प्रश्न -इस हेतु में त्रुटि हैं ? उत्तर -किसी पदार्थ के भाव अर्थात् सत्ता को सिद्ध करने के लिये प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए आवरण की सत्ता के लिए प्रमाण की आवश्यकता है। भाव के लिए प्रमाण न होने से अभाव स्वंयमेव सिद्ध हो जाता है। अब शब्द के नित्य होने में वादी और हेतु देता हैं:-
सूत्र :अस्पर्शत्वात् II2/2/23
सूत्र संख्या :23

अर्थ : जितने पदार्थ संयुक्त हैं उन सबका स्पर्श होता है, असंयुक्त का स्पर्श नहीं होता। जोकि शब्द का स्पर्श नहीं होता, इसलिए शब्द संयुक्त नहीं, किन्तु सूक्ष्म हैं और सूक्ष्म वस्तु नित्य होती है, इसलिए शब्द नित्य है।
व्याख्या :प्रश्न - स्पर्शरहित वस्तुओं के सूक्ष्म होने का क्या प्रमाण है ? उत्तर -पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चारों भूत संयुक्त हैं, पृथ्वी में पांचों भूत मिले रहते हैं, इसलिए उसका गुण गन्ध अनित्य है, जल में चार, अग्नि में तीन और वायु में दो तत्व मिले रहते हैं, इसलिए इनके गुण रस, दाह और स्पर्श भी अनित्य हैं। केवल आकाश असंयुक्त और विभु हैं, इसलिए उसका गुण शब्द भी असंयुक्त और नित्य हैं, वायु तक जिसका गुण स्पर्श है पदार्थ अनित्य हैं, किन्तु आकाश, आत्मा और काल इनका स्पर्श नहीं होता इसलिए ये नित्य हैं। इसका उत्तर सूत्रकार देते हैं:-
सूत्र :न कर्मानि-त्यत्वात् II2/2/24
सूत्र संख्या :24

अर्थ : शब्द को केवल स्पर्शरहित होने से नित्य मानना ठीक नहीं, क्योंकि कर्म भी स्पर्शरहित है किन्तु उत्पत्ति धर्म वाला होने से अनित्य हैं, इसी प्रकार स्पर्शरहित शब्द भी उत्पत्तिमान् होने से अनित्य हैं। अब इसके विरुद्ध स्पर्शवान् का नित्य होना सिद्ध करते हैं:-
सूत्र :नाणुनित्यत्वात् II2/2/25
सूत्र संख्या :25

अर्थ : यह हेतु कि स्पर्शवान् अनित्य और स्पर्शरहित नित्य होता है, व्यभिचारी हैं, स्पर्शरहित कर्म का अनित्य होना दिखला चुके हैं, अब स्पर्शवान् अणु का नित्य होना दिखलाते है। परमाणु स्पर्शवान् हैं, परन्तु वह नित्य है।
व्याख्या :प्रश्न -परमाणु का स्पर्शवान् होना परमाणु के अप्रत्यक्ष होने से सिद्ध नहीं होता। उत्तर - जो गुण कारण में होते हैं, वे ही कार्य में भी आते हैं, इसलिए पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु जिनका स्पर्श हो सकता हैं, उनके परमाणु भी स्पर्शरहित नहीं हो सकते। अब वादी शब्द के नित्य होने में और हेतु देता है।
सूत्र :सम्प्रदानात् II2/2/26
सूत्र संख्या :26

अर्थ : सम्प्रदान का अर्थ देना हैं, किन्तु यहां पर देने का तात्पर्य शब्द के द्वारा गुरु का शिष्य को ज्ञान देना है। दान में वह वस्तु दी जाती है जो देने से पहले विद्यमान हो। गुरु जब शिष्य को विद्यादान देता हैं, तब विद्या कि सम्पत्ति पहले से उसके पास मौजूद होती है और वह सम्पत्ति शब्दमय हैं। विद्यादान से पहले शब्द गुरु के ज्ञान में मौजूद थे, और विद्यादान के पश्चात् वे शिष्य के ज्ञान में उपस्थित हो जाते है। इस युक्ति से शब्द का उच्चारण से पूर्व और पश्चात् भी होना सिद्ध है, अतः उसको उत्पत्तिधर्मवान् नहीं कहा जा सकता और जब शब्द अनुत्पत्तिधर्मवान् है तो उसके नित्य होने में सन्देह क्या हैं ? इसका उत्तर:-
सूत्र :तदन्तरालानुपलब्धेरहेतुः II2/2/27
सूत्र संख्या :27

अर्थ : जबकि पढ़ाने से पहले और उसके पश्चात् भी शब्द की उपलब्धि नहीं होती, तब इस युक्ति से शब्द नित्य क्यों कर सिद्ध हो सकेगा। इसका तात्पर्य यह है कि गुरु के बोलते समय तो शब्द का प्रत्यक्ष होता है, उसमें पहले और पीछे नहीं होता। इसलिए शब्द गुरु के बोलने से उत्पन्न होता है, यदि शब्द नित्य होता तो पढ़ाने से पहले और पीछे भी मौजूद होता। अब वादी पुनः आक्षेप करता है:-
सूत्र :अध्यापनादप्रतिषेधः II2/2/28
सूत्र संख्या :28

अर्थ : कहने से पहले और पीछे भी शब्दों की उपलब्धि पाई जाती है, उसके प्रत्यक्ष न होने से उसकी सत्ता का निषेध नहीं हो सकता। क्योंकि गुरु के हृदय में जो शब्द मौजूद हैं, उन्हीं में से जिन शब्दों की आवश्यकता प्रतीत होती है, उनका प्रवचन किया जाता है, यदि उन शब्दों का गुरु के हृदय में विद्यमान होना न माना जाय तो गुरु और शिष्य में अन्तर ही क्या रहा ? क्योंकि दोनों को उन शब्दों का ज्ञान नहीं, इससे पढ़ना-पढ़ाना दोनों हो सकते। क्योंकि यदि पहले से शब्दों का होना न माना जाये तो गुरु में अज्ञान सिद्ध होगा। यदि पश्चात् उनका अभाव माना जावे तो शिष्य को विद्या को प्राप्ति न हो सकेगी, क्योंकि ज्ञान के आधार शब्द तो नष्ट हो गए, फिर शिष्य का विद्या की प्राप्ति क्यों कर हुई। इसलिए जिस प्रकार प्रकाश के अभाव में पदार्थों के विद्यमान होने पर भी उनका प्रत्यक्ष नहीं होता। इसी प्रकार शब्द का भी कण्ठ तालू आदि के प्रयत्न न होने से (जो उसके प्रकट करने वाले हैं) प्रकाश नहीं होता। इसका उत्तर अगले सूत्र में देते हैं:
सूत्र :उभयोः पक्षयोरन्यतरस्याध्यापनादप्रतिषेधः II2/2/29
सूत्र संख्या :29

अर्थ : जोकि शब्द की नित्य और अनित्य दोनों अवस्थाओं में पढ़ना और पढ़ाना हो सकता है। विद्या का दान उपस्थित वस्तु के दान के समान नहीं, किन्तु गुरु शिष्य को अपने उन प्रयत्न विशेषों से जो उस बोलने में करने पड़ते हें शिक्षा देता है। इसलिए पढ़ाने से शब्द का नित्य होना सिद्ध नहीं हो सकता। इस प्रकार वादी फिर आक्षेप करता है:-
सूत्र :अभ्यासात् II2/2/30
सूत्र संख्या :30

अर्थ : . एक शब्द बार-बार कहा जाता हैं, इससे भी शब्द का नित्य होना सिद्ध होता है, जैसे कोई मनुष्य कहता है कि मैनें अमुक वस्तु को पांच बार देखा, यदि वह वस्तु अनित्य होती तो एक बार देखने के पश्चात् फिर उसका देखना सम्भव न होता। इसी तरह शब्द को अनेक बार बोलते देखकर यह अनुमान होता है कि शब्द भी नित्य हैं। इसका उत्तर अगले सूत्र में देते हैं:-
सूत्र :नान्यत्वेऽप्यभ्यासस्योपचारात् II2/2/31
सूत्र संख्या :31

अर्थ : . बार-बार उच्चारण करने से शब्द नित्य नहीं हो सकता, क्योंकि अनित्य वस्तुओं का भी बार-बार उच्चारण देखा जाता है। जैसे दो बार हवन करता है, तीन बार भोजन करता है, इत्यादि जब बार-बार करने से हवन और भोजन नित्य नहीं हो सकते, तब बार-बार के उच्चारण से शब्द नित्य क्योंकर हो सकता हैं ? इसलिए व्यभिचार होने से यह हेतु ठीक नहीं। अब वादी फिर शंका करता हैं:-
सूत्र :अन्यदन्यस्माद-नन्यत्वादनन्यदित्यन्यताभावः II2/2/32
सूत्र संख्या :32

अर्थ : यह कहना कि अन्य होने पर भी बार-बार होना कहा जाता है, ठीक नहीं, क्योंकि अन्य होने की दशा में उनमे भेद होना चाहिए, जब भेद मानोगे, तो फिर उसी वस्तु का पुनः होना नहीं कहा जा सकता, किन्तु दूसरी वस्तु का भाव मानना पड़ेगा। इसलिए भेद के होने पर एक शब्द को कई बार कहना बन नहीं सकता। अतः घट शब्द को जितनी बार कहा जावेगा उसमें एकता का ही ज्ञान होगा, भिन्नता का नहीं। इसलिए एक ही शब्द बार-बार कहा जाने से नित्य है। इसका उत्तर:-
सूत्र :तदभावे नास्त्यनन्यता तयोरितरेतरापे-क्षसिद्धेः II2/2/33
सूत्र संख्या :33

अर्थ : जो तुम अन्य से अन्य कहकर फिर उसका खण्डन करते हो, यह ठीक नहीं। क्योंकि जो अन्य न हो, वह अनन्य (एक) कहलाता है। जब अन्य कोई वस्तु ही नहीं हैं, तब उसका खण्डन या अभाव हो ही नहीं सकता। इसलिए बिना अन्य के एक सिद्ध ही नहीं हो सकता, क्योंकि अन्य और एक ये दोनों परस्पर सापेक्ष्य है। जब अन्य के अभाव में तुम्हारी अनन्यता सिद्ध ही नहीं हो सकती, तब अन्यता का अभाव सिद्ध करके कैसे शब्द को नित्य सिद्ध कर सकोगे। अब वादी शब्द की नित्यता में और हेतु देता हैं:-
सूत्र :विनाशकारणानुपलब्धेः II2/2/34
सूत्र संख्या :34

अर्थ : जितने अनित्य पदार्थ हैं, उनके विनाशकारण की उपलब्धि होती है, जैसे संयोग से घड़ा बनता है और वियोग से टूट जाता है तो संयोग कारण का विरोधी वियोग कारण है। अब यदि शब्द की उत्पत्ति मानी जावे तो उसके विनाश का कारण भी होना चाहिए, परन्तु नाश का कोई कारण उपलब्ध नहीं होता, इसलिए शब्द नित्य है। आगे इसका उत्तर देते हैं:-
सूत्र :अश्रवणकारणानुपलब्धेः सतत-श्रवणप्रसङ्गः II2/2/35
सूत्र संख्या :35

अर्थ : शब्द न सुन पड़ने का कारण मौजूद न होने से सर्वदा श्रवण होना चाहिए, पर ऐसा नहीं होता, फिर शब्द के विनाश का कारण मालूम न होने से वह नित्य क्यों कर हो सकेगा। इस पर एक हेतु और भी देते हैं:-
सूत्र :उपलभ्यमाने चानुपलब्धेरसत्त्वादनपदेशः II2/2/36
सूत्र संख्या :36

अर्थ : शब्द के विनाश का कारण अनुमान से प्रतीत होता है, इसलिए शब्द के नित्य होने में विनाश कारण की अनुपलब्धि को हेतु ठहराना ठीक नहीं। जब शब्द की उत्पत्ति का कारण है, तब अनुमान से उसके विनाश का कारण स्वंय सिद्ध होता है, क्योंकि जिसकी उत्पत्ति है, उसका विनाश अवश्य होगा।
व्याख्या :प्रश्न - शब्द के नाश का कारण क्या हैं ? उत्तर - जो शब्द उत्पत्ति धर्म वाला हैं, उसकी उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न किया जाता है, वही शब्द को उत्पन्न करके फिर उसके विनाश का कारण होता हैं, जब शब्दोच्चारण की किया समाप्त हो जाती है तब शब्द नष्ट हो जाता है। प्रश्न - जो प्रयत्न शब्द की उत्पत्ति का कारण है वही उसके विनाश का कारण क्यों कर हो सकता हैं ? उत्तर -जैसे संयोग वियोग कारण है, अर्थात् वियोग होने के लिए संयोग होता है। इसी प्रकार नाश होने के लिए पदार्थ की उत्पत्ति होती है, जिसकी उत्पत्ति है, उसका विनाश अवश्य होगा। जैसे कि देहादि, जब शब्द की उत्पत्ति वादी को भी सम्मत है तब उसके नाशवान् और अनित्य होने में सन्देह ही क्या है ?
सूत्र :पाणि-निमित्तप्रश्लेषाच्छब्दाभावे नानुपलब्धिः II2/2/37
सूत्र संख्या :37

अर्थ : . जब घण्टे में चोट लगने से शब्द होता है तब उस घण्टे को हाथ से पकड़ लेने से वह आवाज बन्द हो जाती है, इससे भी शब्द का अनित्य होना स्पष्ट होता है। जिस प्रकार दण्ड के अघात से शब्द उत्पन्न हुआ था, उसी प्रकार हाथ से स्पर्श से वह नष्ट हो गया। इस पर पुनः विवेचना की जाती हैं:-
सूत्र :विनाशकारणानुपलब्धेश्चाव-स्थाने तन्नित्यत्वप्रसङ्गः II2/2/38
सूत्र संख्या :38

अर्थ : . यदि तुम ऐसा मानते हो कि शब्द के नाश का कारण नहीं है तो इससे शब्द का नित्यत्व पाया जाता है। यदि शब्द को नित्य माना जावे तो निरन्तर कानों से उसका श्रवण होना चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं होता, जिससे स्पष्ट अवगत होता है कि प्रयत्न विशेष से शब्द उत्पन्न होता है और उस प्रयत्न के समाप्त हो जाने पर नष्ट हो जाता हैं, अतः शब्द अनित्य हैं वादी पुनः शंका करता हैं:
सूत्र :अस्पर्शत्वादप्रतिषेधः II2/2/39
सूत्र संख्या :39

अर्थ : शब्द के स्पर्श रहित होने से घण्टे को हाथ से पकड़ कर शब्द का नाश नहीं हो सकता। शब्द आकाश का गुण है और वह सदा आकाश में रहता हैं। घण्टे में दण्ड के आघात से उसकी उत्पत्ति नहीं होती और न हाथ के स्पर्श से उसका नाश होता है। किन्तु इन कियाओं से शब्द का आविर्भाव और तिरोभाव मात्र होता है। इसका समाधान करते हैं:-
सूत्र :विभक्त्यन्तरोपपत्तेश्च समासे II2/2/40
सूत्र संख्या :40

अर्थ : कुछ यही एक बात नहीं कि घण्टा बजाकर छू देने से शब्द रुक जाता हो, किन्तु एक ही घण्टे में या कुछ बाजे आदि में अनेक विभागों के शब्द को हम सुनते हैं इससे सिद्ध होता है कि आकाश के अतिरिक्त अन्य द्रव्य भी शब्द भेद का कारण हैं, इसलिए यह शब्द विभाग भी शब्द के अनित्य होने का कारण है।
व्याख्या :प्रश्न -शब्द कितने प्रकार का है ? उत्तर - दो प्रकार का। एक ध्वन्यात्मक दूसरा वर्णात्मक। ध्वन्यात्मक शब्द की परीक्षा हो चुकी, अब वर्णात्मक शब्द की परीक्षा प्रारम्भ करते है। संशय कारण बतलाते हैं:-
सूत्र :विकारादेशोपदेशात्संशयः II2/2/41
सूत्र संख्या :41

अर्थ : वर्णात्मक शब्द में विकार और आदेश होते हैं, इसलिए संशय उत्पन्न होता है।
व्याख्या :प्रश्न -विकार किसे कहते हैं ? उत्तर - जैसे व्याकरण में बतलाया गया है कि “इ“ को “य“ हो जावे तो अब यकार इकार का विकार हुआ। विकार का अर्थ बिगड़ कर अन्य रूप को धारण कर लेना हैं, जैसे दूध से दही हो जाता हैं। प्रश्न -आदेश किसे कहते हैं ? उत्तर - आदेश वह है, जो स्थानी के स्थान में होता है, जैसे “इ“ के स्थान में “य“होता है। कोई इसे विकार कहते हैं और कोई आदेश। प्रश्न - यदि यकार को इकार का विकार माना जाए, तो इसमें क्या दोष होगा ? उत्तर - यदि विकार मानोगे तो इकार को यकार का कारण मानना पड़ेगा, परन्तु “इ“ “य“का कारण नहीं है। दूसरे जब “इ“ का “य“बन गया तो फिर “इ“ न रहनी चाहिए, जैसे दूध का जब दही बन जाता है तो दूध का नाश हो जाता है परन्तु ऐसा नहीं होता। प्रश्न -दो कपालों के संयोग से घटरूप कार्य बन जाता है वहां कारणरूप ज्ञान का नाश नहीं होता। इससे विकार मानने में कोई दोष नहीं। उत्तर -कपाल और घट कार्य कारण भाव है, किन्तु इकार और यकार में यह सम्बन्ध नहीं, इसलिए विकार कहना अयुक्त है, उसको आदेश ही कहना चाहिए। प्रश्न -यदि इकार और यकार में कार्य कारण भाव सम्बन्ध माना जावे तो क्या दोष हैं ? उत्तर -जब इकार में कुछ अधिक होकर यकार बन जावे, तब उसका कार्य कारण भाव सम्बन्ध हो सकता है, किन्तु न तो इकार में से कुछ कम होकर यकार बनता है और नहीं कुछ मिलकर बना है। इसलिए कार्य कारण भाव नहीं हो सकता। जिस तरह गाडी में बैल की जगह घोड़ा लगा देने से घोड़ा बैल का स्थानापन्न होता है, इसी तरह इकार की जगह यकार बोलने से उसका आदेश होगा न कि विकार। जोकि अक्षर सब नित्य हैं इसलिए कोई अक्षर किसी अक्षर का विकार नहीं हो सकता। इस पर एक हेतु और देते हैं:-
सूत्र :प्रकृतिविवृद्धौ विकारविवृद्धेः II2/2/42
सूत्र संख्या :42

अर्थ : जब किसी कार्य की प्रकृति अर्थात् उपादान कारण बढ़ जाता है तो वह कार्य भी बढ़ जाता है। जैसे एक सेर दूधसे जितना दही बन सकता है, पांच सेर दूध से उससे पांच गुना बन जायेगा। या पांच सेर मट्टी से जितना घड़ा बनता है, बीस सेर मिट्टी से उससे चौगुना बनेगा। जोकि वर्णों में प्रकृति के बढ़ने से विकार नहीं बढ़ता। जैसे एक इकार से यकार बनता है, वैसे दो इकार से दुगना यकार नहीं होता, इससे सिद्ध है कि वर्णों में विकार नहीं होता इसका उत्तर अगले सूत्र में देते हैं:-
सूत्र :न्यूनसमाधिकोपलब्धेर्विकाराणामहेतुः II2/2/43
सूत्र संख्या :43

अर्थ : यदि प्रकृति के बराबर ही उसके विकार के होने का नियम होता, तब तो कह सकते थे कि वर्णों में विकार नहीं। परन्तु विकार कहीं प्रकृति से कम, कहीं बराबर और कहीं अधिक होता है। जैसे रुई से जो सूत बनना है, वह रुई से कम होता है और सुवर्ण से जो आभूषण बनते हैं से सोने के बराबर होते हैं और बीज से जो वृक्ष बनता है, वह बीज से बहुत घड़ा होता है, इस वास्ते यह हेतु कि प्रकृति के बढ़ने से विकार भी बढ़ता है, ठीक नहीं, इसका उत्तर:-
सूत्र :नातुल्यप्रकृतीनां विकारविकल्पात् II2/2/44
सूत्र संख्या :44

अर्थ : प्रकृति से बड़ा छोटा और बराबर का विकार दिखलाकर वर्णों में विकार न होने का खण्डन किया गया है, वह ठीक नहीं। यद्यपि भिन्न-भिन्न प्रकृतियों से भिन्न-भिन्न प्रकार के विकार होते हैं परन्तु एक प्रकार की प्रकृति से भिन्न-भिन्न प्रकार के विकार नहीं होते। बट से बट का ही वृक्ष उत्पन्न होता है, आमका नहीं। बस यदि “इ“ का विकार “य“होता तो इनमें सजातीयता होती, ऐसा नहीं है इसलिए विकार मानना ठीक नहीं। इस पर पुनः आक्षेप करते हैं:-
सूत्र :द्रव्यविकार-वैषम्यवद्वर्णविकारविकल्पः II2/2/45
सूत्र संख्या :45

अर्थ : आक्षेप की पुष्टि करते हैं, जैसे द्रव्यों से विषम विकार हो जाते हैं, वैसे ही वर्णों (अक्षरों) से भी विषम विकार बा विकार विकल्प हो जाते हैं, अर्थात् जैसे मीठे दूध से खट्टा दही हो जाता हैं, ऐसे ही हृस्व व दीर्घ “इ“वर्ण से भी विषम यकार हो जाता है। अब इसका समाधान करते हैं-
सूत्र :न विकारधर्मानुपपत्तेः II2/2/46
सूत्र संख्या :46

अर्थ : विकार द्रव्य में होता है, शब्द रूप वर्णों में विकार नहीं होता, क्योंकि शब्द गुण है, द्रव्य नहीं, जो किसी दूसरे गुण का सहारा हो सके। इसलिए जो गुण विकार से उत्पन्न होते हैं, वे द्रव्य ही में होते हैं। उसका कारण यह है कि द्रव्य में से (जो परमाणुओं का सड़्घात होता है) कुछ अंश निकलकर और कुछ नये मिलकर एक पृथक रूप धारण कर लेते हैं, उसको विकार कहते है। परन्तु गुण में यह बात नहीं हो सकती, क्योंकि वह संयुक्त या परमाणुओं का सड़्घात नहीं। जब गुण में विकार धर्म हो ही नहीं सकता, तो शाद में विकार किस प्रकार हो सकता है ? अतः आदेश ही मानना ठीक है। इस पर एक और हेतु देते हैं:-
सूत्र :विकारप्राप्ता-नामपुनरापत्तेः II2/2/47
सूत्र संख्या :47

अर्थ : जो द्रव्य अपनी वास्तविक दशा से बिगड़ कर विकार होता है, वह फिर अपनी वास्तविक दशा में नहींआ सकता, जैसे दूध से दही मिलकर फिर दूध नहीं हो सकता, परन्तु शब्द में, इसके विपरीत पाया जाता है। जैसे इकार को यकार हो जाता है, फिर यकार को इकार भी हो सकता है। इसलिए शब्द में विकार मानना ठीक नहीं। अब इसका खण्डन करते हैं:-
सूत्र :सुवर्णादीनां पुनरापत्तेरहेतुः II2/2/48
सूत्र संख्या :48

अर्थ : विकृत होकर द्रव्य फिर अपनी वास्तविक दशा में नहीं आता, यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि सुवर्ण के आभूषण बनकर फिर उनका सुवर्ण बन जाता है, इसलिए यह हेतु व्यभिचारी है ? अब इसका उत्तर देते हैं:-
सूत्र :न तद्विकाराणां सुवर्णभा-वाव्यतिरेकात् II2/2/49
सूत्र संख्या :49

अर्थ : सुवर्ण के आभूषण बनने से सुवर्ण से पृथक कोई वस्तु नहीं हो जाती। इसलिए यह दृष्टान्त ठीक नहीं। यदि कोई द्रव्य बिगड़ कर और भिन्न धर्म वाला होकर अपनी वास्तविक दशा में आ जावे, उसका दृष्टान्त ठीक हो सकता है, क्योंकि जिस प्रकार सुवर्ण के आभूषण में सुवर्ण का धर्म रहता है, इस प्रकार इकार से यकार हो हो जाने पर यकार में इकार का धर्म नहीं रहता, अतः यह दृष्टान्त विषम है, अब इस पर आक्षेप करते हैं:-
सूत्र :वर्णत्वा व्यतिरेकाद्वर्ण विकारानामप्रतिषेध:II2/2/50
सूत्र संख्या :50

अर्थ : जैसे सुवर्ण के विकार आभूषणादि में सुवर्णत्व धर्म रहता है ऐसे ही इकार से बने हुए यकार में वर्णत्व धर्म रहता है अर्थात् दोनों वर्ण ही कहलाते है। अतएव वर्ण में विकार ही मानना ठीक है, आगे इसका उत्तर देते हैं:-
सूत्र :सामान्यवतो धर्मयोगो न सामान्यस्य II2/2/51
सूत्र संख्या :51

अर्थ : . सामान्यवान = सुवर्ण में किसी धर्म (गुण) का योग हो सकता है, न कि सामान्य = सुवर्णत्व में कोई गुण रह सकता है, क्योंकि जब वह आप धर्म है तो फिर कुण्डलादि आभूषण उसके धर्म नहीं हो सकते, किन्तु सुवर्ण के हो सकते हैं। जोकि वर्णत्व धर्म सामान्य है जोकि इकार और यकार दोनो में रहता हैं, इसलिए उसके धर्म ही नहीं सकते, जिससे इकार यकार को बराबर मानकर यकार को इकार का विकार माना जावे, अतएव विकार मानना ठीक नहीं। इसी पक्ष की पुष्टि करते हैं:-
सूत्र :नित्यत्वेऽविकारादनित्यत्वे चानवस्थानात् II2/2/52
सूत्र संख्या :52

अर्थ : यदि वर्ण को नित्य माना जावे तो उसमें विकार हो नहीं सकता, क्योंकि जिसमें विकार होता है, वह नित्य नहीं हो सकता। यदि वर्ण को अनित्य मानो तो दूसरे वर्ण के कहने से पहले का नाश हो जाता हैं, तब वर्ण की अनवस्थिति से विकार होना असम्भव है। इसलिए दोनों दशाओं में वर्ण में विकार होना सिद्ध नहीं हो सकता। अब इसका खण्डन करते हैं:-
सूत्र :नित्या-नामतीन्द्रियत्वात्तद्धर्मविकल्पाच्च वर्णविकाराणामप्रतिषेधः II2/2/53
सूत्र संख्या :53

अर्थ : नित्य पदार्थों के धर्म भिन्न-भिन्न हैं, कोई नित्य पदार्थ तो ऐसे है कि जो इन्द्रियों से ग्रहण नहीं होते, जैसे आकाश, काल आदि और कोई नित्य विकारी हैं और कोई इन्द्रियग्राह्य हैं, जैसे मनुष्य जाति, गो जाति इत्यादि। इसी प्रकार कोई नित्य विकारी हैं और कोई अविकारी। यदि कहो कि विकार और अविकार ये दो विरुद्ध धर्म एक पदार्थ में नहीं रह सकते तो उन नित्य पदार्थों में इन्द्रिय गोचर होना और अतीन्द्रिय होना ये दो विरुद्ध धर्म देखे जाते हैं तो उनमें विकार और अविकार ये दोनों धर्म भी रह सकते हैं। परन्तु वादी का यह हेतु ठीक नहीं, क्योंकि इन्द्रियां गोचर होना नित्य होने का विरोधी नहीं हैं, किन्तु विकारी होना नित्यता का विरोधी अवश्य है। और दो विरुद्ध गुण एक पदार्थ में रह नहीं सकते। अब जो अनित्य होने की दशा में विकार का होना सिद्ध किया हैं, उसका खण्डन करते हैं:-
सूत्र :अनवस्था-यित्वे च वर्णोपलब्धिवत्तद्विकारोपपत्तिः II2/2/54
सूत्र संख्या :54

अर्थ : वर्णों के अनवस्थान (न रहने) की दशा में भी उनका प्रत्यक्ष होना स्वीकार किया जाता है, इसी प्रकार उनके विकारों का भी प्रत्यक्ष हो सकना हैं, अब विकार हेतुओं का खण्डन करते हैं:-
सूत्र :विकारधर्मित्वे नित्यत्वाभावा-त्कालान्तरे विकारोपपत्तेश्चाप्रतिषेधः II2/2/55
सूत्र संख्या :55

अर्थ : धर्मों के वैषम्य से जो वर्ण में विकाराऽभाव का खण्डन किया गया था, वह ठीक नहीं, क्योंकि कोई विकारी पदार्थ नित्य नहीं देख पड़ता किन्तु सब नित्य पदार्थ अविकारी होते है। यदि कहो कि कालान्तर में तो विकार की उत्पत्ति हो सकती हैं, तब जैसे वर्ण के न रहने पर उसका ज्ञान माना जाता है, ऐसे ही कालान्तर में होने वाले विकार की प्रतिपत्ति माननी पड़ेगी यह भी ठीक नहीं। क्योंकि इकार के उच्चारणकाल में यकार और यकार के श्रवणकाल में इकार नहीं रहता। इसलिए शब्द का विकार मानना ठीक नहीं। इसी की पुष्टि में एक हेतु और देते हैं:-
सूत्र :प्रकृत्यनियमाद्वर्णविकाराणाम् II2/2/56
सूत्र संख्या :56

अर्थ : प्रकृति और उसका विकार नियत होते हैं, जैसे दूध प्रकृति हैं तो दही उसका विकार है, यह कभी नहीं हो सकता कि दही प्रकृति हो जावे और दूध उसका विकार, अर्थात् सदा दूध से दही बनेगा, दही दूध कभी न बनेगा, परन्तु यदि वर्णों में विकार माना जावे तो उसमें यह नियम नहीं है। क्योंकि यदि कहीं इकार से यकार बनता है तो कहीं यकार से भी इकार बन जाता है। इसलिए प्रकृति और विकार का नियम न होने से शब्दों में विकार मानना ठीक नहीं। फिर आक्षेप करते हैं:-
सूत्र :अनियमे नियमान्नानियमः II2/2/57
सूत्र संख्या :57

अर्थ : अनियम के नियत होने से अनियम न रहा, अर्थात् जब यह बात नियमित हो गई कि वर्ण विकारों में प्रकृति का नियम नहीं, तो यह भी तो एक प्रकार का नियम है, फिर अनियम क्यों कहते हो। इसका खण्डन करते हैं:-
सूत्र :नियमानियमविरोधादनियमे नियमाच्चाप्र-तिषेधः II2/2/58
सूत्र संख्या :58

अर्थ : . नियम और अनियम दोनों एक-दूसरे के विरोधी हैं, यह कभी एक साथ नहीं रह सकते। इसलिए अनियम में नियम कहना बिल्कुल असडंगत हैं, अतएव वर्ण विकार मानना ठीक नहीं। अब यदि वर्णों में विकार नहीं होता तो उनमें जो परिवर्तन होते हैं, उनको क्या माना जावे ? इस पर आचार्य अपना मत प्रकाश करते हैं:-
सूत्र :गुणान्तरापत्त्युपमर्दह्रासवृद्धिलेशश्लेषेभ्यस्तु विकारोपपत्तेर्वर्ण-विकारः II2/2/59
सूत्र संख्या :59

अर्थ : तु“ शब्द यहां पर पूर्वपक्ष की व्यावृत्ति करता है, अर्थात् वर्णों में चाहे वैसा विकार न हो, जैसा दूध का विकार दही होता हैं, किन्तु गुणान्तर, उपमर्द, ह्यास, वृद्धिलेश और श्लेष के होने से दूसरे के विकार की (जिसको परिवर्तन कहना चाहिए) तो अवश्य प्रतिपत्ति होती है। गुणान्तर = उदात्त स्वर को अनुदात्त स्वर हो जाना। उपमर्द = “अस“ की “भू“ और “ब्रुव“ को “वच“ आदेश हो जाना। ह्यास = दीर्घ का ह्यस्व हो जाना है, वृद्धि = ह्यस्व को दीर्घ हो जाना। लेश = कुछ अंश कम हो जाना, जैसे“अस“ के “अ“ कालोप हो जाना। श्लेष = कुछ बढ़ जाना, जैसे टित्, कित्, मित् के आगम। ये 6 प्रकार के परिवर्तन हैं, जिनको वर्ण विकार के नाम से निर्देश किया जाता है, वस्तुतः एक वर्ण दूसरे वर्ण का स्थानापन्न हैं, न कि विकार। अब वर्ण से पद और पद से व्यक्ति आदि का विवेचन प्रारम्भ किया जाता है। प्रथम पद का लक्षण करते हैं:-
सूत्र :ते विभक्त्यन्ताः पदम् II2/2/60
सूत्र संख्या :60

अर्थ : जब इन वर्णों के अन्त में विभक्ति लगाई जाती हैं, तब इनकी पदसंज्ञा हो जाती है। प्रश्न - विभक्ति कितने प्रकार की हैं।
व्याख्या :उत्तर -दो प्रकार की (1) वे जो नाम = संज्ञा के साथ लगती हैं (2) वे जो आख्यात = क्रिया के साथ लगती हैं। जैसे “देवदत्त पकाता है“ यहां “देवदत्त“ संज्ञाहै और “पकाता“यह क्रिया है। पद से अर्थ का ज्ञान होता है इसलिए अब अर्थ का वर्णन करते हैं:-
सूत्र :तदर्थे व्यक्तयाकृतिजातीसन्निधावुपचारातसंशय : II2/2/61
सूत्र संख्या :61

अर्थ : प्रत्येक पदार्थ जो प्रत्यज्ञ से ग्रहण किया जाता हैं, उसमें तीन बातें एक साथ मालूम होती हैं (1) व्यक्ति (2) आकृति (3) जाति। अब यह सन्देह होता है कि ये तीनों एक ही हैं या भिन्न-भिन्न। क्योंकि जब हम किसी गौ को देखते हैं यो उसके देह, रूप और जाति इन तीनों का ज्ञान होता है। अब प्रश्न यह होता है कि देह का नाम गौ है या आकार का या जाति का या तीनों का मिलकर। अब इसकी विशेष व्याख्या करते हैं:-
सूत्र :या शब्दसमूहत्यागपरिग्रहसंख्यावृद्ध्युपचयवर्णसमासानु-बन्धानां व्यक्तावुपचाराद्व्यक्तिः II2/2/62
सूत्र संख्या :62

अर्थ : . व्यक्ति ही एक पदार्थ है, क्योंकि शब्दादि का व्यवहार उसी में देखा जाता है। शब्द = गौ जाती है, समूह = गौओं का समूह, त्याग = गौ का दान, ग्रहण = गौ का लेना, संख्या = 10 गौवें, वृद्धि = गौ मोटी है, अपचय = गौ दुबली है, वर्ण = काली, या धौली गौ, समाज = गौ बैठती है, अनुबन्ध = गौ का मुख इन सब व्यवहारों का उपचार (प्रयोग) व्यक्ति में ही देखा जाता है। इनका सम्बन्ध आकृति और जाति से नहीं हैं, अतः व्यक्ति ही पद का अर्थ है। अब इस पर वादी आक्षेप करता हैं:-
सूत्र :न तदनवस्थानात् II2/2/63
सूत्र संख्या :63

अर्थ : अनावस्था दोष के होने से व्यक्ति कोई पदार्थ नहीं। क्योंकि व्यक्ति बिना आकृति और जाति के रह नहीं सकती। “गौ जाति है“ इत्यादि प्रयोगों में आकृति और जाति सहित व्यक्ति का ग्रहण है। किसी विशेष व्यक्ति से तात्पर्य नहीं है। यदि आकृति और जाति को छोड़ दिया जावे तो फिर गोत्व ही नहीं रहता। इसलिए पदार्थ जाति है, न कि व्यक्ति। जब पदार्थ जाति है तो फिर व्यक्ति में उसका उपचार क्यों किया जाता है। इसका उत्तर देते हैं।
सूत्र :सहचरणस्थान-तादर्थ्यवृत्तमानधारणसामीप्ययोगसाधनाधिपत्येभ्यो ब्राह्मणमञ्चकटराजस-क्तुचन्दनगङ्गाशाटकान्नपुरुषेष्वतद्भावेऽपि तदुपचारः II2/2/64
सूत्र संख्या :64

अर्थ : . जैसे सहचरण में यष्टि से यष्टि वाला ब्राह्याण, स्थान में मच्च से मच्चस्थ पुरुष, तादथ्र्य में-कट से तृणविशेष, वृत्त में-यम से राजा, मान में-सेरभर सत्तू से, उतने तौल के सत्तू, धारण में-तुला चन्दन से तुला में धरा चन्दन, सामीप्य से-गडातीर, योग में-काले वस्त्र से काले वस्त्र, साधन में-अन्न से प्राण और आधिपत्य में-कुल या गोत्र, शब्द से उस कुल का मुख्य पुरुष ग्रहण किया जाता है। ऐसे ही लक्षण से जाति का व्यक्ति में उपचार किया जाता है। अतएव गोशब्द से गोत्व का ही ग्रहण करना चाहिए। अब आकृतिवादी आकृति को ही पदार्थ कहता हैं:-
सूत्र :आकृतिस्तदपेक्ष-त्वात्सत्त्वव्यवस्थानसिद्धेः II2/2/65
सूत्र संख्या :65

अर्थ : पदार्थों के सम्बन्ध और जाति का निर्णय करने के वास्ते आकृति ही मुख्य साधन हैं, क्योंकि बिना आकृति के यह मनुष्य है, यह अश्व हैं, यह वृक्ष हैं, इत्यादि जाति का निर्धारण नहीं हो सकता। इसलिए आकृति ही पदार्थ है।
व्याख्या :प्रश्न - आकृति और व्यक्ति में भेद क्या हैं ? उत्तर -व्यक्ति द्रव्य है और आकृति गुण। प्रत्येक व्यक्ति में एक प्रकार की आकृति होती है, जिससे उसकी जाति का पता लगता है अर्थात् आकृति की समता ही जाति का लक्षण है। अब जातिवादी फिर अपने पक्ष को स्थापन करता हैं:-
सूत्र :व्यक्त्याकृतियुक्तेऽप्यप्रसङ्गात्प्रोक्षणादीनां मृ-द्गवके जातिः II2/2/66
सूत्र संख्या :66

अर्थ : मिट्टी की गाय में व्यक्ति और आकृति दोनों हैं परन्तु उसका दूध निकालो या उसे पानी पिलाओ यह कोई नहीं कहता। यदि केवल आकृति और व्यक्ति से पदार्थ का ग्रहण होता तो “गौ लाओ“ यह कहने पर कोई मिट्टी की गाय को भी ले जाता, परन्तु ऐसा नहीं होता इससे सिद्ध है कि केवल जाति ही पदार्थ है।
व्याख्या :प्रश्न - यदि आकृति और व्यक्ति का जाति से कुछ सम्बन्ध न माना जावे तो गाय और गधे में भेद क्योंकर होगा ? उत्तर - आकृति और व्यक्ति तो प्रत्येक भौतिक पदार्थ में रहती हैं, चाहे वह अश्व हो या वृक्ष। इसलिए आकृति और व्यक्ति से जाति का निर्णय नहीं होता, किन्तु लक्षण और धर्म से होता हैं, जिस पदार्थ में जिस जाति के लक्षण या धर्म पाये जावें, उसकी वही जाति है। प्रश्न -लक्षण और गुण भी तो व्यक्ति और आकृति में ही रहेंगे। उत्तर -यदि व्यक्ति और आकृति से लक्षणों का ज्ञान होता तो मिट्टी को गाय से सब काम चल जाते। क्योंकि गाय किसी व्यक्ति और आकृति तो उसमें भी है। अब आकृतिवादी कहता हैं:-
सूत्र :नाकृतिव्यक्त्यपेक्षत्वाज्जात्यभिव्यक्तेः II2/2/67
सूत्र संख्या :67

अर्थ : बिना आकृति और व्यक्ति के जाति का ज्ञान हो ही नहीं सकता, क्योंकि जब हम किसी को देखते हैं तो हमें सिवाय उसकी आकृति और स्थूल शरीर के और कोई वस्तु दिखती, इसलिए जाति के लक्षण हैं वे आकृति और व्यक्ति में ही रह सकते है।
व्याख्या :प्रश्न -यदि हम आकृति और व्यक्ति को पदार्थ मान लें, जाति को कुछ न माने तो क्या आपत्ति हैं ? उत्तर -यदि जाति कोई वस्तु न हो तो एक जगह पर घड़ा देखने से दूसरी जगह फिर घड़े का ज्ञान नहीं हो सकता। घड़े में जो धड़ापन है, वही हमको उसके घड़े होने का ज्ञान कराता हैं अब आचार्य अपना मत प्रकट करते हैं:-
सूत्र :व्यक्त्याकृ-तिजातयस्तु पदार्थः II2/2/68
सूत्र संख्या :68

अर्थ : . व्यक्ति, आकृति और जाति ये तीनों मिलकर ही पद के अर्थ को प्रकाश करते हैं, अलग-अलग नहीं, यह बात दूसरी है कि इनमें कहीं व्यक्ति प्रधान हो, कहीं आकृति और कहीं जाति, वस्तु की सत्ता के प्रसंग में व्यक्ति, भेद के प्रसंग में आकृति और अभेद के प्रसंग में जाति प्रधान होगी। अब सूत्रकार व्यक्ति का लक्षण करते हैं:-
सूत्र :व्यक्तिर्गुणविशेषाश्रयो मूर्तिः II2/2/69
सूत्र संख्या :69

अर्थ : जिसमें गुरुत्व, कठिनत्व, द्रवत्व आदि गुण विशेष हों ऐसे मूर्तिमान् द्रव्य संघात को व्यक्ति कहते है। गुणाश्रय आत्मा, आकाश, काल आदि अमूर्तिमान् द्रव्य भी हैं, परन्तु सूत्र में मूर्ति का विशेषण देने से उनका ग्रहण नहीं किया जा सकता। अब सूत्रकार आकृति का लक्षण कहते हैं:-
सूत्र :आकृतिर्जाति- लिङ्गाख्या II2/2/70
सूत्र संख्या :70

अर्थ : जिससे जाति के चिन्ह प्रकट होते हैं वह आकृति है अर्थात् आकृति ही जाति को बतलाती है, जैसे मनुष्य की आकृति को देखकर मनुष्य जाति का ज्ञान होता है और वह व्यक्ति के अंगों की बनावट और उनके स्वरूप से पहचानी जाती है। अब सूत्रकार जाति का लक्षण कहते है।
सूत्र :समानप्रसवात्मिका जातिः II2/2/71
सूत्र संख्या :71

अर्थ : जो भिन्न-भिन्न पदार्थों में समता का भाव हैं, या जिन की उत्पत्ति (बनावट) एक जैसी हो, वह जाति है और वह आकृति और बनावट की समता से जानी जाती है।
व्याख्या :प्रश्न - जाति कितने प्रकार की है ? उत्तर - दो प्रकार की। एक सामान्य और दूसरी विशेष। जैसे मनुष्य जाति सामान्य हैं, उसमें ब्राह्मण, क्षत्रियादि या श्वेत कृष्णादि या देश भेद या धर्म भेद और आचार भेद से विशेष या अवान्तर जातियां बनती हैं। प्रमाण और जाति की परीक्षा समाप्त हुई। इति द्वितीय आह्निकः इति द्वितीयोऽध्यायः


Post a Comment

0 Comments

Ad Code