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न्याय दर्शन तृतिय अध्याय आह्निक द्वितिय



सूत्र :कर्माकाशसाधर्म्यात्संशयः II3/2/1

सूत्र संख्या :1


अर्थ : पिछले आह्निक में आत्मा, शरीर और इन्द्रियों की परीक्षा करके अब बुद्धि की परीक्षा आरम्भ करते है। पहले इस बात का विचार करते हैं कि बुद्धि नित्य है वा अनित्य ? कर्म और आकाश के समान बुद्धि में भी स्पर्शत्व धर्म नहीं है, परन्तु इन दोनों में कर्म अनित्य और आकाश नित्य है, अब यह सन्देह होता है कि बुद्धि कर्म के समान अनित्य है अथवा आकाश के समान नित्य ? दूसरा सन्देह का कारण यह भी है कि कहीं पर तो शास्त्र में आत्म गुण होने से बुद्धि को नित्य बतलाया गया है और कहीं इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध से उत्पन्न होने के कारण उसको अनित्य कहा गया है, इनमें कौन सा पक्ष ठीक है। प्रथम बुद्धि का नित्यत्व स्थापन करते हैः-


सूत्र :विषयप्रत्यभिज्ञानात् II3/2/2

सूत्र संख्या :2


अर्थ : . किसी देखी हुई वस्तु को देखने से जो स्मरण होता है कि यह वही वस्तु है, जिसको मैनें पहले देखा था, इसको प्रत्यभिज्ञा कहते हैं, इस प्रत्यभिज्ञा से सिद्ध होता है कि बुद्धि नित्य न होती तो उसमें प्रत्यभिज्ञा कभी हो ही नहीं सकती। क्योंकि ज्ञान उत्पन्न होकर नष्ट हो जाते, फिर उनका स्मरण कैसे होता, अतएव बु़द्धि नित्य है। अब इसका खण्डन करते हैः-


सूत्र :साध्यसमत्वादहेतुः II3/2/3

सूत्र संख्या :3


अर्थ : वादी ने जो प्रत्यभिज्ञा को बुद्धि का धर्म मानकर हेतु दिया है, वह साध्य होने से ही ठीक नहीं, क्योंकि जैसे बुद्वि का नित्य होना साध्य है, वैसे ही प्रत्यभिज्ञा का बुद्धि धर्म होना भी साध्य है। एक साध्य की सिद्धि में दूसरे साध्य का हेतु देना साध्यसम-हेत्वाभास है। वादी को चाहिए था कि पहले प्रत्यभिज्ञा को बुद्धि का धर्म सिद्ध कर लेता, तब उसको हेतु में रखता। अस्तु, प्रत्यभिज्ञा बुद्धि का धर्म नहीं है, किन्तु वह चेतन जीवात्मा का धर्म है, जीवात्मा ही किसी ज्ञात विषय का बुद्धि के द्वारा स्मरण करता है।

व्याख्या :प्रश्न - ज्ञान जीवात्मा का धर्म नहीं, किन्तु अन्तःकरण का धर्म है। उत्तर - ज्ञान अन्तःकरण का धर्म नहीं, किन्तु जीवात्मा का धर्म है, अन्तःकरण तो केवल साधन मात्र है। यदि ज्ञान अन्तःकरण का धर्म माना जावे तो केतन का क्या धर्म होगा ? चेतना, ज्ञान, स्मृति ये सब पर्यायवाचक शब्द हैं, इनका कारण केवल जीवात्मा है, हां मन, बुद्धि आदि उसके उपकरण हो सकते है। प्रश्न - यदि यह माना जावे कि बुद्धि जानती हैं तो इसमें क्या दोष है ? उत्तर - बुद्धि और ज्ञान दोनों पर्यायवाचक शब्द हैं और ये गुण हैं न कि द्रव्य। गुण सदा द्रव्य में रहता है, गुण में गुण नहीं रहता। इन में द्रव्य में केवल जीवात्मा है, इसलिए ये सब उसी के गुण हैं, जिस प्रकार आंख से जीवात्मा देखता है, कान से सुनता है, इसी प्रकार मन से मनन करता और बुद्धि से जानता है। यदि आंख और कान द्रव्य और श्रोता नहीं तो मन मन्ता और बुद्धि ज्ञाता कैसे हो सकती है ? इसलिए बुद्धि जानती है आत्मा जानती है, यही सिद्धान्त है। अतएव वादी ने बुद्धि के नित्य होने में जो हेतु दिया था, वह साध्यसम होने से जब अहेंतु ठहरा तब बुद्धि का अनित्य होना सिद्ध है। अब जो लोग बुद्धि को स्थिर मानकर उसकी वृत्तियों को चल मानते हैं और वृत्ति और वृत्तिमान् में भेद करते, उनका खण्डन करते हैं:-


सूत्र :न युगपदग्रहणात् II3/2/4

सूत्र संख्या :4


अर्थ : यदि वृत्ति (बुद्धि की किरणें) और वृत्तिमान् (बुद्धि) में अभेद माना जावे तो बुद्धि के स्थिर होने से वृत्तियां भी स्थिर माननी पडे़ंगी औरवृत्तियों के स्थिर होने से एक समय में अनेक विषयों का ज्ञान होना चाहिए, परन्तु यह असम्भव है, इसलिए वृत्ति और वृत्तिमान् एक नहीं हो सकते। फिर इसी आशय की पुष्टि करते है:-


सूत्र :अप्रत्यभिज्ञाने च विनाशप्रसङ्गः II3/2/5

सूत्र संख्या :5


अर्थ : प्रत्यभिज्ञान के निवृत्त होने पर वृत्तिमान् का भी नाश मानना पड़ेगा और ऐसा होने पर अन्तःकरण ही न रहेगा, क्योंकि वादी वृत्ति और वृत्तिमान् में भेद नहीं मानता, तब वृत्ति के नष्ट होने पर वृत्तिमान् क्योंकर रह सकेगा। अतएव ये दोनों एक नहीं हो सकते। अब एक समय में अनेक ज्ञानों के न होने का कारण कहते:-


सूत्र :क्रमवृत्ति-त्वादयुगपद्ग्रहणम् II3/2/6

सूत्र संख्या :6


अर्थ : मन परिच्छिन्न होने से एक देशी है, इसलिए एक ही बार उसका सब इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता, जिसके कारण सब इन्द्रियों के विषयों का एक साथ ज्ञान नहीं होता। जब इन्द्रिय के साथ मन मिलता है, तब उसी के विषय का ज्ञान होता है और जिसके साथ नहीं मिलता उसका ज्ञान नहीं होता। पुनः इसी की पुष्टि करते है:-


सूत्र :अप्रत्यभिज्ञानञ्च विषयान्तरव्यासङ्गात् II3/2/7

सूत्र संख्या :7


अर्थ : जब मन किसी इन्द्रिय के विषय में लगा हुआ होता है तब उसको किसी दूसरे इन्द्रिय के विषय का ज्ञान नहीं होता। मन की लगावट ही विषयों के ज्ञान का कारण है, इससे भी वृत्ति और वृत्तिमान का भेद सिद्ध है, अन्यथा एक मानने से लगावट नहीं हो सकती। अब मन के विभृत्व का खण्डन करते है:-


सूत्र :न गत्यभा-वात् II3/2/8

सूत्र संख्या :8


अर्थ : यदि मन को सारे देह में व्यापक माना जावे तो उसमें गति का होना अर्थात् एक इन्द्रिय को छोड़कर दूसरे में जाना नहीं हो सकेगा, क्योंकि विभु पदार्थ सब में एक रस व्यापक होता है, परन्तु मन का इन्द्रियों से संयोग होता है, इसलिए विभु मानना ठीक नहीं। अब वादी वृत्ति का एकत्व स्थापन करता है:


सूत्र :स्फटिकान्यत्वाभिमानवत्तदन्यत्वाभिमानः II3/2/9

सूत्र संख्या :9


अर्थ : जैसे लाल, पीले, हरे आदि रंग वाले पदार्थों के संयोग से स्फटिक वैसा ही दीख पड़ता है, वास्तव में स्फटिक न लाल है, न पीला, न हरा, किन्तु वह श्वेत है, ऐसे ही भिन्न-भिन्न विषयों के संसर्ग से वृत्ति भी अनेक प्रकार की सी उपलक्षित होती है, वास्तव में वृत्ति एक ही है। अब इसका उत्तर देते हैं:-


सूत्र :न हेत्वभावात II3/2/10

सूत्र संख्या :10


अर्थ : . स्फटिक का जो दृष्टान्त दिया गया है, वह अहैतुक होने से ठीक नहीं, क्योंकि स्फटिक में लाल, पीले ही आदि रंग की भ्रान्ति होती है, न कि ज्ञान, जब भ्रान्ति का कारण मालूम हो जाता है, तब कोई भी स्फटिक को लाल, पीला या हरा नहीं समझता। परन्तु इन्द्रियों से जो विषयों का ज्ञान होता है, वह निश्चित और सर्वत्र एकसा उपलब्ध होता है, उसमें कहीं भ्रान्ति या सन्देह नहीं होता, क्योंकि भ्रान्तियुक्त या सन्देहात्मक होने से वह प्रमाण ही नहीं होता, क्योंकि भ्रान्तियुक्त या सन्देहात्मक होने से वह प्रमाण ही नहीं मानाजाता। इसके अतिरिक्त साकार होने से स्फटिक में दूसरी वस्तु का प्रतिबिम्ब पड़ सकता है, परन्तु बुद्धि निराकार है, उसमें किसी का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ सकता। अतएव अहैतुक होने से यह दृष्टान्त वृत्ति और वृत्तिमान को एक सिद्ध नहीं कर सकता। अब क्षणिकवादी शंका करता है:-


सूत्र :स्फटिकेऽप्यपरापरो-त्पत्तेः क्षणिकत्वाद्व्यक्तीनामहेतुः II3/2/11

सूत्र संख्या :11


अर्थ : यह जो कहा था कि स्फटिक एक ही होता है, परन्तु भिन्न-भिन्न रंग के फूलों का प्रतिबिम्ब पड़ने से उसमें अनेकत्व की भ्रान्ति होती है, वास्तव में वह अपने स्वरूप से अवस्थित हैं, क्षणिकवादी इसका खण्डन करता है और कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति के क्षणिक होने से उत्पत्ति और विनाश होता रहता है। स्फटिक भी क्षणिक हैं, इसलिए उसमें नई व्यक्ति उत्पन्न होती रहती है और पुरानी नष्ट।

व्याख्या :प्रश्न - तुम्हारे इस क्षणिकवाद में क्या प्रमाण है ? उत्तर - शरीर के अवयव सदा बदलते रहते हैं, कभी दुबले होते हैं, कभी मोटे, जिससे प्रतिक्षण शरीर में वृद्धि और ह्यास होता रहता हैं, जहां वृद्धि हो रहीहैं, वहीं उत्पत्ति हैं और जहां ह्यास है, वहीं विनाश हैं, भोजन का परिपाक होकर रस रक्त में परिणत होना कहीं शरीर की उन्नति और कहीं अवनति का कारण होता हैं, तौल में अन्तर होने के कारण भी वृद्धि और ह्यसका पता लगता हैं, सूक्ष्म और क्रमशः होने के कारण हम इस परिवर्तन को मालूम नहीं कर सकते, परन्तु प्रतिक्षण यह परिवर्तन न हो रहा है, देह के ही समान प्रत्येक वस्तु क्षणिक हैं। अब इसका उत्तर देते हैं:-


सूत्र :नियमहेत्वभावाद्यथादर्शनमभ्यनुज्ञा II3/2/12

सूत्र संख्या :12


अर्थ : यद्यपि ज्ञान में भेद होना वृत्ति और वृत्तिमान का एक न होना ठीक हैं, तथापि स्फटिक को क्षणिक मानकर जो भेद का खण्डन किया गया हैं, वह ठीक नहीं, क्योंकि सब वस्तुओं में वृद्धि और ह्यासका नियम एक सा नहीं हैं।

व्याख्या :प्रश्न - एक सा नियम न होने में क्या प्रमाण हैं ? उत्तर -नियम होने में किसी प्रमाण का न होना ही न होने का प्रमाण हैं। यदि नियम होता तो उसकी सिद्धि में कोई प्रमाण अवश्य होता। जब कोई नियामक हेतु नहीं हैं तो जैसा देखा जावे, वैसा ही मानना चाहिए। जिसमें वृद्धिऔर ह्यासके चिन्ह देखे जावें जैसे देहादि उनमें वृद्धि और ह्यास मानना चाहिए और जिन पदार्थों में ये चिन्ह अवगत न हों, जैसे सोना, लोहा, पत्थर आदि उसमें भी क्षणिक वृद्धि और ह्यासका मानना ठीक नहीं। स्फटिक में भी क्षणिक वृद्धि और ह्यास नहीं देखें जाते, इसलिए देहवत् उसको भी क्षणिक मानना ठीक नहीं। इस पर एक हेतु और देते हैं:-


सूत्र :नोत्पत्तिविनाशकारणोपलब्धेः II3/2/13

सूत्र संख्या :13


अर्थ : जैसे देहादि के उत्पत्ति और विनाश के कारण उपलब्ध होते हैं, अर्थात् वृद्धि उत्पत्ति का कारण और क्षय नाश का कारण समझा जाता हैं, ऐसे स्फटिकादि में उत्पत्ति और विनाश के कारण प्रत्यक्ष नहीं देखे जाते, अतः उनको भी देहादिवत क्षणिक मानना ठीक नहीं अब इस पर आक्षेप करते हैं:-


सूत्र :क्षीरविनाशे कारणानुपलब्धिव-द्दध्युत्पत्तिवच्च तदुपपत्तिः II3/2/14

सूत्र संख्या :14


अर्थ : . जैसे दूध का नाश होकर जब दही बन जाता है तो दूध के नाश का कारण और दही की उत्पत्ति का कारण ज्ञान नहीं होता, परन्तु तो भी दही की उत्पत्ति और दूध का नाश माना जाता है। ऐसे ही बिना कारण के जाने भी स्फटिक में पहली व्यक्ति का नाश और पिछली व्यक्ति की उत्पत्ति माननी चाहिए। इसका उत्तर देते हैं:-


सूत्र :लिङ्गतो ग्रहणान्नानुपलब्धिः II3/2/15

सूत्र संख्या :15


अर्थ : दूध का नाश और दही की उत्पत्ति ये दोनों कार्य प्रत्यक्ष उपलब्ध होते हैं, इसलिए इनके कारण का अनुमान किया जा सकता है, किन्तु स्फटिक में पहली व्यक्ति के नाश और दूसरी की उत्पत्ति का कोई चिन्ह नहीं पाया जाता, जिससे उनके कारण का अनुमान किया जावे बिना प्रत्यक्ष के जो अनुमान किया जाता है, वह, ठीक नहीं होता। इसलिए दूध और दही का दृष्टान्त ठीक नहीं, अब पुनः शंका करते हैं:-


सूत्र :न पयसः परिणामगुणान्तरप्रादुर्भावात् II3/2/16

सूत्र संख्या :16


अर्थ : परिणाम होने से दूध की दशा बदल जाती है, उसका नाश नहीं होता।

व्याख्या :प्रश्न - परिणाम किसे कहते हैं ? उत्तर - किसी वस्तु में पहले गुणों का नाश और नये गुणों का प्रादुर्भाव होना नाश कहाता है। प्रश्न - नाश किसे कहते हैं ? उत्तर- कार्य से कारण रूप हो जाना नाश कहलाता हैं। प्रश्न -परिणाम और नाश में क्या भेद हैं ? उत्तर - परिणाम में तो वस्तु के कुछ गुण विद्यमान रहते हैं, कुछ निकल जाते हैं और कुछ नए आ जाते हैं, परन्तु नाश में वस्तु के सब अंग छिन्न-भिन्न होकर कारण रूप हो जाते है। अब इसका उत्तर देते हैं:-


सूत्र :व्यूहान्तराद्द्रव्यान्तरोत्पत्तिदर्शनं पूर्वद्रव्य-निवृत्तेरनुमानम् II3/2/17

सूत्र संख्या :17


अर्थ : पहला शरीर जिन परमाणुओं से बना था, उनका निकल जाना और दूसरे परमाणुओं का उनके स्थान में आ जाना एक प्रकार का विनाश और उत्पत्ति ही है। जैसे जिन परमाणुओं से एक मट्टी का गोला बना था, जब उससे न्यूनाधिक होकर घड़ा या थाली आदि बन जाती है तो उस गोले का नाश और घड़े या थाली की उत्पत्ति मानी जाती हैं, ऐसे ही दूध का नाश और दही की उत्पत्ति भी माननी चाहिए। अतः परिणाम उत्पत्ति और विनाश का बाधक नहीं हो सकता। पुनः इसी की पुष्टि करते हैं:-


सूत्र :क्वचिद्विनाशकारणानुपलब्धेः क्वचिच्चोपलब्धेरनेकान्तः II3/2/18

सूत्र संख्या :18


अर्थ : कहीं तो नाश के कारण का ज्ञान प्रत्यक्ष होता है, जैसा घटादि में देखा जाता हैं कि डण्डा या ईंट लगी और घड़ा फट गया और कहीं नाश का कारण प्रत्यक्ष नहीं होता, जैसे दूध के नाश का कारण इन्द्रियों से नहीं जाना जाता। इसलिए स्फटिकादि में उत्पत्ति और विनाश सिद्ध करने के लिए दूध और दही का दृष्टान्त देना अनेकान्त (व्याभिचार) होने से माननीय नहीं हो सकता। बुद्धि वृत्ति की अनेकता और अनित्यत्व सिद्धकरके अब यह विचार किया जाता है कि यह ज्ञान किसका गुण हैं ? जोकि ज्ञान इन्द्रिय और अर्थ के संबंध से उत्पन्न होता हैं, इसलिए प्रथम इसी का निषेध करते हैं कि ज्ञान इन्द्रियों का गुण हैं ?


सूत्र :नेन्द्रियार्थयोस्तद्विनाशेऽपि ज्ञानावस्थानात् II3/2/19

सूत्र संख्या :19


अर्थ : ज्ञान न तो इन्द्रिय का गुण है और न अर्थ का क्योंकि इन्द्रिय और अर्थ के नाश होने पर भी ज्ञान मौजूद रहता है अर्थात् जब इन्द्रिय और अर्थ नहीं रहते तब भी मैंने यह देखा था, या सुना था इत्यादि स्मरण होता हैं, इससे जाना जाता हैं कि ज्ञान इन्द्रिय या अर्थ का गुण नहीं, किन्तु जो इन्द्रियों के द्वारा अर्थों को ग्रहण करता हैं, उसका गुण हैं। बुद्धि का गुण होना अगले सूत्र से निषिद्ध है:-


सूत्र :युगपज्ज्ञेयानुपलब्धेश्च न मनसः II3/2/20

सूत्र संख्या :20


अर्थ : एक साथ अनेक ज्ञान उत्पन्न नहीं होते, इससे सिद्ध है कि ज्ञान मन का भी गुण नहीं हैं, क्योंकि यदि मन का गुण होता तो एक साथ अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति होने में कोई कारण वाधक नहीं हो सकता था।

व्याख्या :प्रश्न - जबकि मन के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध होने से उसके विषय का ज्ञान होता है और न होने से नहीं होता इससे सिद्ध है कि ज्ञान मन ही का गुण है। उत्तर -इन्द्रिय और मन के सम्बन्ध से जो ज्ञान होता है, वह दोनों में से एक के भी न होने पर नहीं हो सकता। इसलिए मन और इन्द्रिय दोनों ज्ञान के कारण हैं न कि कर्ता या ज्ञाता। जैसे हाथ और कुल्हाड़ी से लकड़ी कटती हैं, परन्तु हाथ और कुल्हाड़ी दोनों काटने के साधन हैं, अतएव ज्ञान (बुद्धि)मन का गुण नहीं, किन्तु मन के अधिष्ठाता आत्मा का गुण है:- प्रश्न -यदि हम ज्ञान को मन का गुण माने तो क्या दोष होगा ? उत्तर -यदि ज्ञान मन का गुण माना जावे तो मन फिर अन्तःकरण न रहेगा, किन्तु ज्ञाता हो जायगा: यदि अन्तःकरण को ज्ञाता माना जावे तो फिर वहिष्करण इन्द्रियों को भी ज्ञाता मानना पड़ेगा। अनेक ज्ञाताओं के होने से फिर ज्ञान का प्रतिसन्धान या प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकेगा। अतएव ज्ञान मन का गुण नहीं। प्रश्न -यदि हमम न को अणु न मानें, किन्तु विभु मानें तो क्या दोष हैं ? जब मन विभु अर्थात् सारेद देह में व्यापक हैं, तो मन का सब इन्द्रियों के साथ एक काल में सम्बन्ध होने से सब विषयों का एक साथ ज्ञान होना चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं होता, इससे मन का शरीर में अणु होना सिद्ध है। इस पर वादी आक्षेप करता हैं:-


सूत्र :तदात्मगुणत्वेऽपि तुल्यम् II3/2/21

सूत्र संख्या :21


अर्थ : जब ज्ञान सारे देह में रहने वाले आत्मा का गुण माना जावेगा, तो भी वहीं दोष आवेगा जो मन को विभु मानकर ज्ञान को उसका गुण मानने में आता है। क्योंकि आत्मा के सारे देह में व्यापक होने से सब इन्द्रियों के साथ एक समय में उसका सम्बन्ध होगा और ऐसा होने से एक साथ सब विषयों का ज्ञान होना चाहिए। इसका उत्तर देते हैं:-


सूत्र :इन्द्रियैर्मनसः संनिकर्षाभावा-त्तदनुत्पत्तिः II3/2/22

सूत्र संख्या :22


अर्थ : विभु होने से यद्यपि आत्मा का सारे शरीर के साथ सम्बन्ध हैं, तथापि इन्द्रिय और मन का संयोग न होने से एक काल में अनेक विषयों का ज्ञान नहीं होता। मन का अणु होना सिद्ध हो चुका है, इसलिए उसका एक समय में सब इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता, अतएव एक साथ अनेक ज्ञान उत्पन्न नहीं होते। इस पर वादी पुनः आक्षेप करता है -


सूत्र :नोत्पत्तिकारणानपदेशात् II3/2/23

सूत्र संख्या :23


अर्थ : . बुद्धि की उत्पत्ति का कोई कारण नहीं बतलाया, मन और इन्द्रियों का संयोब केवल ज्ञान का उद्बोधक हैं न कि उत्पादक, जब बुद्धि का कोई उपादान नहीं और उसको नित्य एंव विभु आत्मा का गुण बतलाया है, तो उसके नित्य होने में सन्देह क्या है ? इसी आक्षेप की पुनः पुष्टि करते हैं:-


सूत्र :विनाशकारणानुपलब्धेश्चाव-स्थाने तन्नित्यत्वप्रसङ्गः II3/2/24

सूत्र संख्या :24


अर्थ : बुद्धि अर्थात् ज्ञान के नाश होने का भी कोई कारण मालूम नहीं होता, इससे भी बुद्धि का नित्य होना ही सिद्ध होता है। यदि नित्य न हो तो फिर नित्य आत्मा का गुण कैसे हो सके ? गुण का नाश दो प्रकार से होता हैं, एक तो गुणी के नाश होने से, दूसरे गुणी में किसी विरोधी गुण के आ जाने से। जब बुद्धि आत्मा का गुण है तो न तो कभी आत्मा का नाश हो सकता है और उसके एक रस होने से उसमें कोई विरोधी गुण भी नहीं आ सकता। अतएव प्रतिवादी को या तो बुद्धि को नित्य मानना पड़ेगा या उसके आत्मगुण होने से इन्कार करना पड़ेगा। अब इसका उत्तर देते हैं:-


सूत्र :अनित्यत्वग्रहाद्बुद्धेर्बुद्ध्यन्तराद्विनाशः शब्दवत् II3/2/25

सूत्र संख्या :25


अर्थ : बुद्धि अनित्य हैं, इसको प्रत्येक विचारशील पुरुष जानता हैं, क्योंकि शब्द के तुल्य बुद्धि की उत्पत्ति और विनाश के कारण देखे जाते हैं, जैसे पहले उच्चारण किये हुए शब्द नष्ट और पिछले उच्चारित उत्पन्न होते हैं, ऐसे ही पहला ज्ञान नष्ट होकर पिछला उत्पन्न होता है। यदि बुद्धि नित्य होती तो कोई ज्ञान कभी नष्ट न होता, किन्तु सब ज्ञान काल में एक से बने रहते। ऐसा होने पर स्मृति और प्रत्यभिज्ञा इन सबका लोप को जाता। अतएव बुद्धि का अनित्य होना सिद्ध है। दूसरा वादी कहता है:-


सूत्र :ज्ञानसमवेतात्मप्रदेशसंनिकर्षान्मनसः स्मृत्युत्पत्तेर्न युगपदुत्पत्तिः II3/2/26

सूत्र संख्या :26


अर्थ : ज्ञान के संस्कारों से युक्त आत्मा के भागों के साथ क्रमशः मन का सम्बन्ध होने से स्मृति की उत्पत्ति होती है, यही कारण है कि एक साथ बहुत-सी स्मृतियां उत्पन्न नहीं होतीं। अब इसका उत्तर देते हैं:-


सूत्र :नान्तःशरीरवृत्तित्वान्मनसः II3/2/27

सूत्र संख्या :27


अर्थ : आत्मा के विशेष भागों से मन का सम्बन्ध होने से ज्ञान और स्मृति की उत्पत्ति मानना ठीक नहीं, क्योंकि यदि आत्मा और मन के सम्बन्ध से स्मृति होती तो मन के शरीरान्तवर्ती होने से और आत्मा के सम्पूर्ण शरीर में व्यापक होने से मन के साथ निरन्तर आत्मा का सम्बन्ध रहना चाहिए जिससे स्मृति में भी नैरन्तर्य की प्रसक्ति होगी और यह प्रत्यक्ष के विरुद्ध है, इसलिए आत्मा और मन के संयोग से समृति का मानना ठीक नहीं। इस पर शंका करते हैं:-


सूत्र :साध्यत्वादहेतुः II3/2/28

सूत्र संख्या :28


अर्थ : कर्मफल भोगने के लिए जो संस्कार हैं, यदि केवल संस्कार ही जीवन माने जावे और इन संस्कारों से युक्त आत्मा के भागों के साथ मन का सम्बन्ध होने से स्मृति उत्पन्न होती है तो कोई हेतु इसका कि शरीर के भीतर ही आत्मा और मन का सम्बन्ध होता है, बाहर नहीं, मौजूद नहीं है, इसलिए शरीर के भीतर ही आत्मा मन का संयोग होना साध्य हैं, फिर वह हेतु क्योंकर हो सकता हैं ? इसका उत्तर देते हैं ?


सूत्र :स्मरतः शरीरधार-णोपपत्तेरप्रतिषेधः II3/2/29

सूत्र संख्या :29


अर्थ : शरीर की विद्यमानता में ही स्मृति होती है, यह मानना पड़ेगा कि शरीर के भीतर ही आत्मा और मन के सम्बन्ध से स्मृति होती हैं। यदि मन और शरीर व भीतर न होता तो शरीर की स्थिति कैसे होती ? आत्मा और मन के संयोग से जो प्रयत्न उत्पन्न होता हैं वह दो प्रकार का हैं, एक धारक दूसरा प्रेरक। धारक शरीर के धारण करता हैं, प्रेरक इन्द्रियों को प्रेरणा करता हैं। यदि मन का बाहर के आत्मा से सम्बन्ध होकर स्मृति उत्पन्न होती तो धारक शक्ति के न होने से बोझ के कारण शरीर गिर पड़ता, क्योंकि उस धारक शक्ति का आधार मन तो शरीर के बाहर हैं। इसलिए मन का आत्मा के साथ शरीर के भीतर ही सम्बन्ध होने से ज्ञान उत्पन्न होता है। इस पर फिर आक्षेप करते हैं:-


सूत्र :न तदाशुगतित्वान्मनसः II3/2/30

सूत्र संख्या :30


अर्थ : मन अत्यन्त ही शीघ्र गामी हैं, इसलिए वह बाहर जाकर आत्मा से संयुक्त होता हैं, और फिर शीघ्र ही शरीर के भीतर आ जाता है और चेष्टा करता हैं, इस कारण शरीर बोझ से नहीं गिरता। इस प्रकार मन बाहर और भीतर आत्मा से सम्बन्ध रखता हैं, अब इसका उत्तर देते हैं:-


सूत्र :न स्मरणकालानियमात् II3/2/31

सूत्र संख्या :31


अर्थ : . मन को शीघ्रगामी मानकर बाहर आत्मा के साथ भी उसका सम्बन्ध मानना ठीक नहीं। क्योंकि स्मरण करने का समय नित्य नहीं। अर्थात् कोई बात शीघ्र स्मरण हो आती है कोई देर से। जब कोई बात देर से स्मरण होती हैं तो स्मृति की इच्छा से मन सोचने लगता है और यह सोचना स्मृति का कारण होता है अर्थात् बहुत देर तक सोचने से स्मरण आता है। जब देर तक मन शरीर से बाहर आत्मा से संयुक्त हुआ सोचता रहता है, तब शरीर गिर पड़ना चाहिए और बिना शरीर के सम्बन्ध के केवल आत्मा और मन का सम्बन्ध स्मृति का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि शरीर आत्मा के सुख-दुःख भोगने का स्थान हैं, उससे बाहर निकला हुआ मन आत्मा के सुख-दुःख का कारण नहीं हो सकता।

व्याख्या :प्रश्न -यदि हम यह माने कि केवल आत्मा और मन के सम्बन्ध होने से ही सुख-दुःख का भोग होता है तो क्या हानि है ? उत्तर - इस दशा में शरीर की कोई आवश्यकता ही न रहेगी, इसलिए जैसे सुखादि आत्मा के भीतर होने की दशा में ही अनुभव किये जाते हैं, ऐसे ही स्मृति भी आत्मा और मन के शरीर के अन्दर होने से ही होती है। इस पर और हेतु देते हैं:-


सूत्र :आत्मप्रेरणयदृच्छाज्ञताभिश्च न संयोगविशेषः II3/2/32

सूत्र संख्या :32


अर्थ : शरीर के बाहर आत्मा और मन का संयोग तीन ही प्रकार से मानोगे। (1) या तो आत्मा अपनी इच्छा से शरीर के बाहर मन से संयोग करे, (2) या अचानक हो जाये, (3) या मन के ज्ञाता होने से हो। परन्तु ये तीनों प्रकार के सम्बन्ध असम्भव हैं (1) जब किसी वस्तु को जान कर आत्मा मन को प्रेरणा करेगा, तो इस दशा में प्रेरणा से पहले ही वह वस्तु स्मृति हो गई, फिर उसका स्मरण कैसा ? (2) अचानक स्मरण करना भी नहीं कह सकते, क्योंकि जब आत्मा किसी वस्तु को स्मरण करने की इच्छा करता हें, तभी उसका स्मरण होता हैं, (3)मन को चेतन (ज्ञाता) मानकर स्मरण की कल्पना करना भी ठीक नहीं, क्योंकि मन अचेतन और ज्ञान-रहित हैं। इसका समाधान करते हैं:-


सूत्र :व्यासक्तमनसः पाद-व्यथनेन संयोगविशेषेण समानम् II3/2/33

सूत्र संख्या :33


अर्थ : जब किसी विचार में मन लगा हुआ हो, और दूसरी किसी बात का ध्यान न हो उस समय भी पैर में कांटा चुभाने से तत्काल उसे दुःख का अनुभव होता है। यह आत्मा और मन का विशेष प्रकार का सम्बन्ध हैं। ऐसा ही तीव्र स्मरणीय वस्तु के योग में होता है। अब एक साथ अनेक स्मृति न होने का कारण कहते हैं:-


सूत्र :प्रणिधानलिङ्गादिज्ञानानामयुगप-द्भावादयुगपत्स्मरणम् II3/2/34

सूत्र संख्या :34


अर्थ : जैसे आत्मा और मन का संयोग तथा संस्कार स्मृति के कारण होते हैं ऐसे ही चित्त की एकाग्रता और स्मर्तव्य विषय के लिंग आादि भी स्मृति का कारण हैं, जब वे एक साथ नहीं होते तो फिर उनसे होने वाली स्मृतियां एक साथ कैसे हो सकती हैं। अब इसका विशेष दशाओं में अपवाद कहते हैं:


सूत्र :प्रातिभावत्तु प्रणिधाना द्यानपेक्षेस्मार्त्ते II3/2/35

सूत्र संख्या :35


अर्थ : कोई-कोई ज्ञान ऐसे हैं कि जिनमें चित्त की एकाग्रता या स्मत्र्तव्य लिंगों की अपेक्षा नहीं होती, किन्तु वे आकस्मिक होते हैं, जैसे प्रातिभ ज्ञान जो प्रतिभा (बुद्धि की स्फूर्ति) से उत्पन्न होता हैं, वह अकस्मात् ही उत्पन्न हो जाता है, इस प्रकार के आकस्मिक ज्ञानों की एक साथ उत्पत्ति हो सकती हैं, परन्तु इस अपवाद से सामान्य नियम में कोई बाधा नहीं आती। अब जो लोग ज्ञान को आत्मा का और इच्छा, द्वेष, सुख और दुःख को अन्तःकरण का गुण मानते हैं, उनका खण्डन करते हैं:


सूत्र :ज्ञस्येच्छाद्वेषनिमित्तत्वादारम्भनिवृत्त्योः II3/2/36

सूत्र संख्या :36


अर्थ : ज्ञाता जिस वस्तु को अपने सुख का कारण समझता हैं, उसके प्राप्त करने की इच्छा करता है और जिसको दुःख का कारण जानता हैं, उससे वचना चाहता है। सुख-साधनों के प्राप्त करने और दुःख-साधनों के छोड़ने का प्रयत्न करता है। इसलिए ज्ञान, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और प्रयत्न ये सब आपस में एक दूसरे से सम्बन्ध रखते हैं अर्थात् जिसको सुख के साधन का ज्ञान होगा, उसी को इच्छा होगी और वही उसके लिए यत्न करेगा। दुःखसाधन का ज्ञान होने पर द्वेष होगा, अतः इन सबका आधार केवल आत्मा ही है। इस पर वादी शंका करता हैं:


सूत्र :त-ल्लिङ्गत्वादिच्छाद्वेषयोः पार्थिवाद्येष्वप्रतिषेधः II3/2/37

सूत्र संख्या :37


अर्थ : पार्थिव, आप्य और आग्नेय आदि जितने शहरी हैं उनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति का होना पाया जाता हैं, प्रवृत्ति और निवृत्ति इच्छा और द्वेष से होती है। बिना इच्छा के प्रवृत्ति और बिना द्वेष के निवृत्ति का होना असम्भव हैं, क्योंकि बिना कारण के कार्य नहीं होता। अतएव इच्छा द्वेष पार्थिवादि शरीरों के धर्म हैं। अब इसका खण्डन करते हैं:


सूत्र :परश्वादिष्वारम्भनिवृत्ति-दर्शनात् II3/2/38

सूत्र संख्या :38


अर्थ : . कुल्हाड़ी आदि हथियारों में भी आरम्भ और निवृत्ति देखे जाते हैं, परन्तु उनमें इच्छा द्वेष का होना किसी को अभिमत नहीं हैं। इसी प्रकार शरीर में भी प्रवृत्ति और निवृत्ति को देख कर इच्छा द्वेष की कल्पना करना ठीक नहीं। इस पर आक्षेप:


सूत्र :कुम्भादिश्वनुलब्धेरहेतु :II3/2/39

सूत्र संख्या :39


अर्थ : . कुम्भादि में प्रवृत्ति और निवृत्ति की उपलब्धि न होने से उक्त हेतु अहेतु हैं। अब इसका उत्तर देते हैं:


सूत्र :नियमानियमौ तु तद्विशेषकौ II3/2/40

सूत्र संख्या :40


अर्थ : नियम और अनियम इच्छा द्वेष के विभाजक हैं, तात्पर्य यह कि चेतन और अचेतन का भेद इच्छा द्वेष के सम्बन्ध और असम्बन्ध से ही विदित होता है। इच्छा और द्वेष का साक्षात् सम्बन्ध आत्मा से ही है, आत्मा ही इच्छा और द्वेष के कारण शरीर को प्रेरणा करता हैं अर्थात् ज्ञाता की इच्छा और द्वेष के कारण ही प्रवृत्ति और निवृत्ति शरीर से होती हैं, स्वंयमेव नहीं, इसका आशय यह है कि इच्छा द्वेष आत्मा के गुण हैं, उनके आश्रय से ही शरीर में प्रवृत्ति और निवृत्ति उत्पन्न होती हैं अन्यथा नहीं। अब इच्छादि के मनोधर्म होने का भी निषेध करते हैं:


सूत्र :यथोक्तहेतुत्वात्पारतन्त्र्या-दकृताभ्यागमाच्च न मनसः II3/2/41

सूत्र संख्या :41


अर्थ : इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान ये 6 आत्मा के लिंग बतलाये जा चुके हैं और अनुमान तथा युक्तियों से इनका आत्म गुण होना सिद्ध किया गया हैं। साथ ही इसके शरीर, इन्द्रिय और मन के चेतन (ज्ञाता) होने का विषेध किया गया हैं। इस सूत्र में मन शब्द में षरीर इन्द्रिय और मन तीनों का ग्रहण होता है। उक्त हेतुओं से तथा मन के परतन्त्र होने से और अकृताभ्यागम दोष की आपत्ति से इच्छादि मन के धर्म नहीं हो सकते।

व्याख्या :प्रश्न - अकृताभ्यागम दोष की आपत्ति कैसे होगी। उत्तर -यदि इच्छादि मन के धर्म माने जायेंगे, तो इस जन्म में किसी अन्तःकरण ने स्वतन्त्रता से कोई कर्म किया, अब परजन्म में उसका फल दूसरे अन्तःकरण को भोगना पड़ेगा और यह अन्याय हैं। इसलिए आत्मा ही स्वतन्त्रता से मन आदि कारणों के द्वारा कर्म करता हैं और वही जन्मान्तर में इनका फल भोगता हैं, यही सिद्धान्त शास्त्र और युक्तिमूलक है। पुनः इसी की पुष्टि करते हैं-


सूत्र :परिशेषाद्यथोक्तहेतूपपत्तेश्च II3/2/42

सूत्र संख्या :42


अर्थ : मन, इन्द्रिय और शरीर के अचेतन होने से इच्छादि उनका धर्म नहीं हो सकते। अब उनसे शेष केवल आत्मा रह गया है। अतएव ये उसी के धर्म या गुण हैं।

व्याख्या :जिन हेतुओं से आत्मसिद्धि की गई हैं, उन्हीं हेतुओं से आत्मा का नित्य होना भी सिद्ध होता हैं और नित्य होने के कारण ही आत्मा धर्म से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति करता है और अधर्म से नरक और दुःख भोगता हैं, यदि आत्मा अनित्य होता तो शरीर के नष्ट होने पर उसका भी नाश हो जाता। इस पर हेतु देते हे:


सूत्र :स्मरणं त्वात्मनो ज्ञस्वाभाव्यात् II3/2/43

सूत्र संख्या :43


अर्थ : स्मृति भी एक प्रकार का ज्ञान है और ज्ञान आत्मा का धर्म सिद्ध हो चुका है, इसलिए स्मृति भी आत्मा का ही गुण है। प्रत्येक आत्मा में तीन प्रकार का ज्ञान होता है। “मैनें जाना था, मैं जानता हूं, मैं जानूँगा“ यह विकालिक ज्ञान केवल आत्मा में ही रह सकता हैं, इसलिए स्मृति भी आत्मा को ही होती है। अब जिन कारणों से स्मृति उत्पन्न होती है, उनको कहते हैं:


सूत्र :प्रणिधाननिबन्धाभ्यासलिङ्गलक्षणसादृश्यपरि-ग्रहाश्रयाश्रितसम्बन्धानन्तर्यवियोगैककार्यविरोधातिशयप्राप्तिव्यवधानसुख-दुःखेच्छाद्वेषभयार्थित्वक्रियारागधर्माधर्मनिमित्तेभ्यः II3/2/44

सूत्र संख्या :44


अर्थ : प्रणिधान आदि 27 निमित्तों से स्मृति उत्पन्न होती है। (1)स्मरण की इच्छा से मन को किसी एक विषय में लगा देना प्रणिधान कहलाता है। (2) एक ग्रंथ में अनेक अर्थों के परस्पर सम्बन्ध को निबन्ध कहते है। (3)किसी काम के बारबार करने से जो संस्कार उत्पन्न होते हैं उनको अभ्यास कहते हैं। (4)धूम को देखने से जो अग्नि का स्मरण होता है इसको लिंग कहते हैं। (5) जो धर्म किसी पदार्थ को दूसरे से पृथक करे या जिनसे कोई पदार्थ जाना जाये, उसको लक्षण कहते है। (6) सादृश्य अर्थात् समता जैसे चित्र को देख कर चित्रस्थ व्यक्ति का स्मरण हो आता है। (7)परिग्रह, पुत्र के देखने से पिता और शिष्य के देखने से गुरु का स्मरण हो आता है। (8-9) आश्रय और आश्रित जो जिसके सहारे रहे, सहारे को आश्रय और सहारे रहने वाले को आश्रित कहते हैं, जैसे भृत्य और स्वामी। (10) सम्बन्ध, जैसे गुरु शिष्य का या पिता पुत्र का। (11)आनन्तर्य, एक काम के पीछे जो दूसरा किया जाता हैं, उसे आनन्तर्य कहते हैं, जैसे ब्रह्मयज्ञ के पश्चात् देवयज्ञ। (12) वियोग, जिसका वियोग होता है, उसका स्मरण किया जाता है। (13) एक कार्य, यदि बहुत से मनुष्य एक काम के करने वाले हों तो वे परस्पर स्मरण का हेतु होते है। (14) विरोध, जिसका परस्पर विरोध हैं, वे भी एक दूसरे को याद दिलाते है। (15)अतिशय, अत्यन्त होते से, जैसे अत्यन्त बुद्धिमान होने से बहस्पति और अत्यन्त नीतिमान होने से शुक्र का स्मरण होता है। (16) प्राप्ति, जिससे जिसको जिस वस्तु की प्राप्ति होती है, वह वस्तु उसकी याद दिलाती है। (17) व्यवधान, आवरण को कहते हैं, जैसे भित्ति को देखकर गृह का स्मरण होता है। (18-19)सुखःदुख प्रसिद्ध हैं, इनसे इनके हेतु का ज्ञान होता है। (20-21)इच्छा, द्वेष से इष्ट अनिष्ट का स्मरण होता है। (22)भय से भय के हेतु का स्मरण होता है। (23)अथित्वे, मांगने से दाता का स्मरण होता है। (24) क्रिया से कर्ता का, (25)राग से ईप्सित अर्थ का। (26) धर्म और (27) वे अधर्म से सुख-दुख तथा इनके अदृष्ट कारणों का स्मरण होता है। ये 27 स्मृति के कारण हैं, इनके अतिरिक्त और भी कारण हो सकते हैं। अब बुद्धि के अनित्य होने में और भी हेतु देते है:


सूत्र :कर्मानवस्थायि-ग्रहणात् II3/2/45

सूत्र संख्या :45


अर्थ : प्रत्येक अर्थ के लिए बुद्धि नियत हैं, जब तक जिस अर्थ का सम्बन्ध बुद्धि के साथ रहता है, तब तक ही उसकी स्मृति भी रहती है। अर्थ के प्रत्यक्ष होने पर बुद्धि की उत्पत्ति और विनाश होने पर बुद्धि का नाश्ज्ञ हो जाता है। यह प्रत्यक्ष सिद्ध है, जब तक कोई पदार्थ सामने होता है, तब उसका ज्ञान भी नहीं रहता। इसलिए अस्थायी कर्म की ग्राहक होने से बुद्धि अनित्य है। फिर इसी की पुष्टि करते है:


सूत्र :बुद्धयवस्थानात प्रत्यक्ष्त्वे स्म्रित्यभावः II3/2/46

सूत्र संख्या :46


अर्थ : यदि बुद्धि को नित्य माना जाये तो जो पदार्थ देखे गए हैं, उनका प्रत्यक्ष रहना चाहिए और उनके सदा प्रत्यक्ष रहने पर स्मृति का अभाव होना चाहिए। क्योंकि जब तक प्रत्यक्ष है, तब तक स्मृति नहीं और जब स्मृति है, तब प्रत्यक्ष नहीं। इससे पाया जाता है कि बुद्धि अनित्य है। वादी शंका करता है।


सूत्र :अव्यक्तग्रहणमनवस्थायित्वाद्विद्युत्सम्पाते रूपाव्यक्तग्रहणवत् II3/2/47

सूत्र संख्या :47


अर्थ : . यदि बुद्धि को अनित्य (शीघ्र नष्ट होने वाला) मानोगे ता उससे ज्ञेय का स्पष्ट रूप से ग्रहण न हो सकेगा। जैसे बिजली के गिरने पर उसकी चमक के अस्थायी होने से रूप का ग्रहण नहीं होता, ऐसे ही बुद्धि के भी अस्थाई होने से सारे ज्ञान भ्रमात्मक होगें, परन्तु बुद्धि से पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, इसलिए बुद्धि को अनित्य मानना ठीक नहीं। अब इसका उत्तर देते हैं:


सूत्र :हेतूपादानात्प्रतिषेद्धव्याभ्यनुज्ञा II3/2/48

सूत्र संख्या :48


अर्थ : वादी ने जो बिजली का दृष्टान्त दिया है, उससे बुद्धि का अनित्य होना सिद्ध हैं, क्योंकि जैसेविद्युतप्रकाश के क्षणिक होने से केवल उसका ही अव्यक्त ग्रहण होता है, न कि उन पदार्थों का जिन पर बिजली गिरती है। ऐसे ही बुद्धि के अनित्य होने से केवल उसका ही अस्पष्ट ग्रहण होगा, न कि बुद्धिगम्य पदार्थों का। अतएव वादी के ही हेतु से बुद्धि का अनित्य होना सिद्ध है फिर उसी की पुष्टि करते हैं:-


सूत्र :प्रदीपार्चिःसंतत्यभिव्यक्तग्रहणव-त्तद्ग्रहणम् II3/2/49

सूत्र संख्या :49


अर्थ : बुद्धि के अस्थिर होने पर भी पदार्थों का ठीक-ठीक ज्ञान होता है। जैसे दीपक की किरणों का प्रत्येक क्षण में नाश होता जाता है और नई-नई किरणों का प्रत्येक क्षण में नाश होता जाता है और नई-नई किरणें बत्ती में पैदा होती जाती है, परन्तु उनसे पदार्थों का यथार्थ ज्ञान होने में कोई बाधा नहीं पड़ती। उत्पन्न होने से दीपक की किरणें तथा उन किरणों से जिन का प्रकाश होता हैं, ये दोनों अनित्य हैं, अर्थात् न तो दीपक की किरणें ही स्थिर रहती हैं और न वे पदार्थ ही जिनका उन किरणों से मालूम करते हैं, स्थिर रहते हैं, प्रत्येक वस्तु के साथ बुद्धि का सम्बन्ध होने से उन पदार्थों के समान बुद्धि वृत्तियां भी अनित्य है। जैसे दीप किरणें अस्थिर होने पर भी ठीक-ठीक अर्थ का प्रकाश करती हैं, ऐसे ही बुद्धिवृत्तियां अनित्य होने पर भी यथार्थ ज्ञान का कारण होती है। बुद्धि अनित्यता का प्रकरण समाप्त हुआ, अब यह विचार किया जाता है कि चेतनता शरीर का धर्म है न किसी अन्य का ? प्रथम सन्देह का कारण कहते हैं:


सूत्र :द्रव्ये स्वगुणपरगुणोपलब्धेः संशयः II3/2/50

सूत्र संख्या :50


अर्थ : द्रव्य में अपने गुण और दूसरे के गुण भी पाये जाते है। जैसे जल में द्रव्यत्व अपना गुण और उष्णत्व अग्नि का गुण पाया जाता है, ऐसे ही सब पदार्थों में कुछ गुण अपने होते है और कुछ अन्य पदार्थों के योग से आते है। अब यह सन्देह होता है कि शरीर में जो चेतनता मालूम होती हैं, यह उनका अपना गुण, या किसी अन्य पदार्थ का ? इसका उत्तर देते हैं:

सूत्र :यावच्छरीर-भावित्वाद्रूपादीनाम् II3/2/51

सूत्र संख्या :51


अर्थ : शरीर किसी दशा में भी रूपादि से रहित नहीं होता, किन्तु चेतनता से रहित शरीर देखा हैं, इससे सिद्ध होता है कि चेतनता शरीर का धर्म नहीं है। जैसे उष्णत्व जल का धर्म नहीं किन्तु अग्नि का है, उससे रहित जल हो सकता है, ऐसे ही चेतनता जो किसी अन्यका धर्म हैं, उससे रहित शरीर हो सकता है, यदि कहा जाय कि संस्कार सहित शरीर का धर्म हैं तो भी ज्ञान के न रहने और उसके कारण के बने रहने से ऐसा होना सिद्ध नहीं हो सकता। अब इस पर शंका करते हैं:


सूत्र :न पाकजगुणान्तरोत्पत्तेः II3/2/52

सूत्र संख्या :52


अर्थ : . जैसे पकाने से गुणान्तर की उत्पत्ति होती हैं, ऐसे ही शरीर में भी चेतनता की उत्पत्ति हो जायेगी। अर्थात् किसी वस्तु में पहले जो गुण नहीं होते, पाक होने पर उत्पन्न हो जाते हैं, ऐसे ही शरीर के परिपक्व होने पर उसमें चेतनता की उत्पत्ति हो जाएगी। अब इसका उत्तर देते हैं:


सूत्र :प्रतिद्वन्द्विसिद्धेः पा-कजानामप्रतिषेधः II3/2/53

सूत्र संख्या :53


अर्थ : . पाक से जो गुण उत्पन्न होते हैं, वे पूर्व गुणों के विरोधी होते हैं, अर्थात् बीज में जो उत्पन्न होने का गुण है, वह पाक होने पर नहीं रहता। शारांश यह कि पूर्व गुणों के साथ पाकज गुणों का कुछ सम्बन्ध नहीं रहता । परन्तु शरीर में चेतनता के विरुद्ध कोई दूसरा गुण देखा नहीं जाता। यदि चेतनता शरीर का गुण होती तो वह जब तक शरीर है तब तक उसमें रहती, परन्तु शरीर का धर्म नहीं। इसी अर्थ की पुष्टि में दूसरा हेतु देते हैं:


सूत्र :शरीरव्यापित्वात् II3/2/54

सूत्र संख्या :54


अर्थ : कुल शरीर में चेतनता व्यापक है अर्थात् शरीर का कोई भाग ऐसा नहीं, जिसमें चेतनता न हो तो क्या शरीर के सारे अवयव चेतन माने जायेंगे ? यदि शरीर के प्रत्येक अवयव में चेतनता की उपलब्धि होने से उनका चेतन माना जाएगा तो एक शरीर में अनेक चेतन होने से उनका ज्ञान भिन्न-भिन्न होगा, किन्तु ऐसा नहीं है इसलिए चेतनता शरीर का धर्म नहीं। अब इस पर आक्षेप करते हैं:


सूत्र :न केशनखादिष्वनुपलब्धेः II3/2/55

सूत्र संख्या :55


अर्थ : . चेतनता सारे शरीर में मौजूद नहीं हैं, क्योंकि शरीर के रोम और नखादि में उसकी उपलब्धि नहीं होती। इसलिए यह कहना कि चेतनता सारे शरीर में व्याप्त है, ठीक नहीं। अब इसका उत्तर देते हैं:



सूत्र :त्वक्पर्यन्तत्वाच्छरीरस्य केशनखादिष्वप्रसङ्गः II3/2/56

सूत्र संख्या :56


अर्थ : जहां शरीर का लक्षण कहा गया है, वहां चेष्टा और इन्द्रियों के आश्रय को शरीर कहा है इसलिए त्वचापर्यन्त (खाल तक)यह शरीर हैं, केश और नख उससे बाहर हैं। क्योंकि इनमें न तो चेष्टा पाई जाती हैं और न ही ये कोई इन्द्रिय हैं और न किसी इन्द्रिय अथिष्ठान हैं, इसलिए केश और नख शरीर नहीं हैं। इसी अर्थ की पुष्टि में दूसरा हेतु देते हैं:


सूत्र :शरीरगुणवैधर्म्यात् II3/2/57

सूत्र संख्या :57


अर्थ : शरीर के गुण दो प्रकार के हैं, एक प्रत्यक्ष जैसे रूपादि, दूसरे अप्रत्यक्ष जैसे गुरुत्वादि, परन्तु चेतनता इन दोनों से विलक्षण है। यह मन का विषय होने से इन्द्रियों से, ग्रहण नहीं की जाती और ज्ञान का विषय होने से अप्रत्यक्ष भी नहीं। इसलिए चेतनता शरीर का धर्म नहीं। वादी आक्षेप करता हैं:


सूत्र :न रूपादीनामितरेतरवैधर्म्यात् II3/2/58

सूत्र संख्या :58


अर्थ : रूपादि गुणों से चेतनता को विलक्षण मान कर जो उसके शारीरिक गुण होने का निषेध किया गया हैं, वह ठीक नहीं, क्योंकि शरीर के गुण रूप और गुरुत्वादि भी एक दूसरे से भिन्न और विलक्षण है। जबकि शरीर के भिन्न-भिन्न गुणों में परस्पर विरोध होने पर भी उनको शरीर का गुण माना जाता है, तो चेतनता (बुद्धि) का रूपादि से विरोध होने पर उसको शरीर का गुण क्यों न मान लिया जाय। इसका उत्तर देते हैं:


सूत्र :ऐन्द्रियकत्वाद्रूपादीनामप्रतिषेधः II3/2/59

सूत्र संख्या :59


अर्थ : वादी ने जो यह कहा हैं कि शरीर के गुणों में भी परस्पर विरोध हैं, यह ठीक नहीं। क्योंकि सब शरीर के गुण इन्द्रियों से ग्रहण किये जाते हैं, इन्द्रिय ग्राह्म होना उनमें एक ऐसा धर्म हैं जो सब में पाया जाता है। एक ही शरीर में रहने और इन्द्रियों से ग्रहण किये जाने के कारण रूपादि गुण सजातीय हैं। चेतनता (बुद्धि)का किसी इन्द्रिय से ग्रहण नहीं होता, इसलिए वह शरीर का गुण नहीं हो सकती, किंतु अतीन्द्रिय आत्मा का धर्म है।

व्याख्या :यहां तक बुद्धि की परीक्षा हुई, अब मन की परीक्षा आरम्भ करते हैं। मन प्रति शरीर में एक है वा अनेक ? इस प्रश्न का उत्तर देते हैं:


सूत्र :ज्ञानायौगपद्यादेकं मनः II3/2/60

सूत्र संख्या :60


अर्थ : मन एक समय में एक ही इन्द्रिय के विषय को ग्रहण करता है। एक समय में दो इन्द्रिय के विषयों का ज्ञान न होना ही मन के होने का प्रमाण हैं, इस लिए मन एक है। यदि मन अनेक होते तो एक समय में अनेक ज्ञानों का होना सम्भव था। क्योंकि सब इन्द्रियों के साथ एक-एक मन का संयोग होकर सब विषयों का एक साथ ज्ञान होता, परन्तु ऐसा नहीं होता। इसलिए मन एक है। वादी आक्षेप करता है:


सूत्र :न युगपदनेकक्रियोपलब्धेः II3/2/61

सूत्र संख्या :61


अर्थ : यह कथन कि एक साथ अनेक ज्ञान न होने के कारण मन एक है, ठीक नहीं। क्योंकि एक साथ न केवल बहुत से ज्ञान किन्तु बहुत सी क्रियायें भी देखी जाती हैं। एक मनुष्य मार्ग में चलता हुआ कुछ पढता हुआ जाता है, पक्षियों के शब्द सुनता हैं, पथिकों से बातचीत करता हैं, कहां जाना है इस बात को सोचता हैं, ऐसे ही और भी बहुत से विचार और काम एक साथ करता जाता है। अतएव यह कहना कि एक साथ या एक काल में बहुत से ज्ञान या काम नहीं हो सकते, ठीक नहीं, अतः मन अनेक हैं। इसका उत्तर देते हैं:


सूत्र :अलातचक्र-दर्शनवत्तदुपलब्धिराशुसंचारात् II3/2/62

सूत्र संख्या :62


अर्थ : जैसे शीघ्रगामी अलातचक (आतिशबाजी की चर्खी) यद्यपि कमपूर्वक चलता हैं, तथापि शीघ्र गति होने के कारण उसका कम मालूम नहीं होता, किन्तु वह एक साथ ही चलता हुआ सा मालूम होता है। ऐसे ही शीघ्रगामी मन यद्यपि एक विचार को छोड़कर दूसरे विचार में और एक काम को छोड़कर दूसरे काम में जाता हैं, तथापि उसकी शीघ्र गति होने के कारण वह कम नहीं दिखता, किन्तु वे काम एक साथ होते हुए मालूम होते हैं।

व्याख्या :इस विषय में दूसरा दृष्टांत वर्ण, पद और वाक्यों का भी है। पहले कमपूर्वक वर्णों का उच्चारण होता है, जिससे सार्थक पद बनते हैं फिर क्रमशः पदों के मिलाने से वाक्य बनता है जिससे श्रोता को उसके अर्थ का ज्ञान होता है। यद्यपि ये सब काम क्रमपूर्वक होते हैं तथापि शीघ्रता के कारण कोई इनके क्रम पर ध्यान नहीं देता। अतः सब काम क्रमपूर्वक होने से एक साथ नहीं हो सकते। अब मन का अणु होना सिद्ध करते हैं:


सूत्र :यथोक्तहेतुत्वाच्चाणु II3/2/63

सूत्र संख्या :63


अर्थ : उक्त हेतु से मन का अणु होना भी सिद्ध होता है, क्योंकि यदि मन विभु होता तो उसका सब इन्द्रियों के साथ एक काल में सम्बन्ध होता, जिससे सब विषयों का एक साथ ज्ञान होना चाहिए। ऐसा न होने से जहां मन का एक होना सिद्ध होता है वहां उसका अणु होना भी सिद्ध हैं। अब यह संदेह होता है कि एक शरीर में रहने वाले मन के संस्कार उसी शरीर से सम्बन्ध रखते हैं अथवा किसी दूसरे से भी उनका सम्बन्ध हैं ? या इस प्रश्न को दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कह सकते हैं कि मन सहित शरीर की उत्पत्ति जीवों के पूर्वकृत कर्माधीन है अथवा स्वतन्त्र पच्चभूतों से होता हैं ? इसका उत्तर देते हैं:


सूत्र :पूर्वकृतफला-नुबन्धात्तदुत्पत्तिः II3/2/64

सूत्र संख्या :64


अर्थ : पूर्व जन्म में जो मन, वाणी और शरीर से कर्म किये हैं और उससे जो धर्माऽधर्म और उनका फल सुखःदुख का भोग उत्पन्न हुआ है, वही इस जन्म के होने का निमित्त कारण है। क्योंकि शरीर में उत्पन्न होते ही भोग का आरम्भ हो जाता है, जो बिना किसी निमित्त के नहीं हो सकता। इसलिए कार्यरूप शरीर और उसके भोग से पूर्वकृत कर्मों का अनुमान होता है, क्योंकि बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता। अतएव पच्चभूत इस शरीर का उपादान कारण है, न कि निमित्त कारण:

व्याख्या :प्रश्न - जब इस शरीर का नाश हो जाता है, तो धर्माधर्म के संस्कार किस में रहते हैं ? उत्तर- सूक्ष्म शरीर अर्थात् मन में। प्रश्न - जब जीवात्मा इस शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाता है, तो उसके साथ क्या जाता हैं ? उत्तर-सूक्ष्म शरीर और उसमें रहने वाले संस्कार। प्रश्न - सूक्ष्म शरीर नित्य है वा अनित्य ? उत्तर - सूक्ष्म शरीर प्रकृति का कार्य होने से अनित्य है, किन्तु ईश्वरीय नियमानुसार मुक्तिपर्यन्त रहता हैं, मुक्ति में नहीं रहता। अब वादी आक्षेप करता है:


सूत्र :भूतेभ्यो मूर्त्युपादानवत्तदुपादानम् II3/2/65

सूत्र संख्या :65


अर्थ : जैसे बिना कर्म और फलभोग के भूतों से मिट्टी, धातु, पत्थर आदि की मूर्तियां बनती हैं और भूतों के परमाणु ही उनके उपादान वा निमित्त कारण माने जाते हैं। ऐसे ही बिना कर्म और उनके फलभोग के मनुष्यादि के शरीर उत्पन्न होते हैं, कर्म या फलभोग के निमित्त मानने की क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर देते हैं:


सूत्र :न साध्य-समत्वात् II3/2/66

सूत्र संख्या :66


अर्थ : . जैसे बिना कर्म के शरीर की उत्पत्ति साध्य है, ऐसे ही बिना कर्मरूप निमित्त के मिट्टी, पत्थर और धातु की उत्पत्ति भी साध्य है, अतएव साध्य को हेतु में रखना साध्यसम हेत्वाभास है, कोई सिद्ध दृष्टांत होना चाहिए। वादी पुनः आक्षेप करता हैं:


सूत्र :नोत्पत्तिनिमित्तत्वान्मातापित्रोः II3/2/67

सूत्र संख्या :67


अर्थ : माता पिता के रजवीर्य से शरीर की उत्पत्ति होती है, इसको सब जानते हैं, फिर इस दृष्ट और प्रसिद्ध कारण को छोड़कर अदृष्ट कर्म को निमित्त मानना ठीक नहीं। वादी दूसरा हेतु और देता है:


सूत्र :तथाहारस्य II3/2/68

सूत्र संख्या :68


अर्थ : रजवीर्य के ही समान माता-पिता का आहार भी शरीर की उत्पत्ति का कारण है। इन अनुभव सिद्ध कारणों की उपस्थिति में अदृष्ट कर्म को कारण मानना किसी तरह ठीक नहीं। अब इन आक्षेपों का उत्तर देते है।:-


सूत्र :प्राप्तौ चानियमात् II3/2/69

सूत्र संख्या :69


अर्थ : स्त्री-पुरुष के संयोग से भी यह नियम नहीं कि अवश्य ही पुत्रोत्पत्ति होगी, इसलिए स्त्री-पुरुष का संयोग शरीरत्पत्ति का अन्यतम कारण नहीं हो सकता। इसी प्रकार आहार भी यद्यपि रजवीर्य को उत्पन्न करता है तथापि जब रजवीर्य ही शरीरत्पत्ति का अन्यतम कारण नहीं, तब आहार क्योंकर हो सकता है ? केवल कर्म ही शरीरत्पत्ति का अन्यतम कारण हो सकता है। यदि कर्मफल निमित्त होता है तो एक ही बार के संयोग से गर्भास्थिति हो जाती है, अन्यथा बार-बार के संयोग से भी सफलता नहीं होती। फिर इसी की पुष्टि करते हैः-


सूत्र :शरीरोत्पत्तिनिमित्तवत्संयोगोत्पत्तिनिमित्तं कर्म II3/2/70

सूत्र संख्या :70


अर्थ : जिस प्रकार शरीर की उत्पत्ति का कारण पूर्वजन्म के कर्म हैं, ऐसे ही परमाणुओं के संयोग से सृष्टि बनने का कारण भी पूर्वसृष्टि के कर्म है। जैसे मनुष्य का शरीर पूर्व जन्म के कर्मों से बनता हैं, ऐसे सृष्टि के सब स्थावर और जड्ढम शरीर कर्मानुसार ही बनते हैं। अर्थात् सब शरीर जीवात्माके कर्मफल भोगने के लिए हैं।

व्याख्या :प्रश्न - यदि हम कर्म और ईश्वर को ने मानकर पच्चभूतों के मिलाप को ही सृष्टि का कारण मानें तो इसमें क्या हानि हैं ? उत्तर - पच्चभूत जड़ हैं, उनमें एक प्रकार की शक्ति रह सकती हैं, परस्पर विरुद्ध दो शक्तियां नहीं रह सकतीं। यदि संयोग उनके मिलाप से होता है तो वियोग का कारण क्या है ? इसके अतिरिक्त यदि पच्चभूत ही कारण होते, जीवों के कर्म और ईश्वर इस सृष्टि का निमित्त कारण न होते, तो सब शरीर एक जैसे बनने चाहिए थे और सबको एक सा सुखःदुख होता, परन्तु ऐसा नहीं हैं। यह शरीर और कर्मफल की भिन्नता ही ईश्वर और जीव के पूर्वकृत कर्मों को सिद्ध कर रही है। पुनः इसी की पुष्टि करते हैं:-


सूत्र :एतेना-नियमः प्रत्युक्तः II3/2/71

सूत्र संख्या :71


अर्थ : . इससे अनियम का खण्डन होता है अर्थात् सृष्टि की रचना में नियम देखने में आता है, यदि इस सृष्टि का कोई चेतनकर्ता न होता तो सृष्टि के पदार्थों में कोई नियम न होता, किसी से किसी की उत्पत्ति हो जाती। यदि शरीरों की रचना में पूर्व कर्म कारण न होते तो सुख-दुःख की व्यवस्था भिन्न-भिन्न होती। अतएव पूर्वकृत कर्म शरीरादि का निमित्त हैं। पुनः इसी की पुष्टि करते हैं:-

व्याख्या :कर्म के नाश हो जाने पर अर्थात् जब भोगते-भोगते कर्म समाप्त हो जाते हैं, तब शरीर से आत्मा अलग हो जाती है और शरीर की उत्पत्ति में कर्म को निमित्त न मानोगे तो पच्चभूतों के नाश न होने से शरीर और आत्मा का वियोग कभी न होगा। दूसरी शंका करते हैं:-


सूत्र :उपपन्नश्च: त्द्विगर्योगे कर्मक्षयोपपत्ते II3/2/72

सूत्र संख्या :72


अर्थ : कर्म के नाश हो जाने पर अर्थात् जब भोगते-भोगते कर्म समाप्त हो जाते हैं, तब शरीर से आत्मा अलग हो जाती है और शरीर की उत्पत्ति में कर्म को निमित्त न मानोगे तो पच्चभूतों के नाश न होने से शरीर और आत्मा का वियोग कभी न होगा। दूसरी शंका करते हैं:-


सूत्र :तददृष्टकारितमिति चेत्पुनस्तत्प्रसङ्गोऽपवर्गे II3/2/73

सूत्र संख्या :73


अर्थ : यदि शरीर की उत्पत्ति का कारण अदृष्ट(प्रारब्ध) को माना जावे तो मुक्त जीवों के शरीर की उत्पत्ति भी माननी पड़ेगी, क्योंकि कर्म और जीवात्मा का सम्बन्ध तो इच्छा होने पर होता है, राग द्वेष के निवृत्त होने पर नहीं होता। पर जब शरीर की उत्पत्ति का कारण प्रारब्ध को माना जावेगा तो मुक्त और बद्ध दोनो के लिए शरीर मानना पड़ेगा। अब इसका उत्तर देते हैं:-


सूत्र :न करणाकरणयोरारम्भदर्शनात II3/2/74

सूत्र संख्या :74


अर्थ : आत्मा बद्ध होकर कर्म करता है मुक्त होकर नहीं करता। जब करना न करना इन दोनों का आरम्भ देखा जाता है, तब तत्व ज्ञान होने पर कर्म का त्याग मुक्त जीव को शरीर के बन्धन में नहीं पड़ने देगा। मन भी शरीरोत्पत्ति का कारण नहीं हैं:-


सूत्र :मनः-कर्मनिमित्तत्वाच्च संयोगानुच्छेदः II3/2/75

सूत्र संख्या :75


अर्थ : . यदि अदृष्ट कारण को मन का गुण माना जावे तो शरीर से मन का वियोग कभी न होना चाहिए। क्योंकि मन किसी दूसरे कारण से तो शरीर में गया नहीं, केवल अपने गुण अदृष्ट के कारण से गया है और वह जब तक मन रहेगा, अवश्य ही रहेगा, क्योंकि गुणी बिना गुण के कभी रह नहीं सकता। परन्तु मन का इन्द्रियों के साथ संयोग जो दुख-सुख आदि का कारण है, सदा रह नहीं सकता। इसलिए अदृष्ट जो शरीर की उत्पत्ति का कारण है, मन का गुण नहीं। मन का संयोग सदा क्यों नहीं रहता:-


सूत्र :नित्यत्वप्रसङ्गश्च प्रायणानुपपत्तेः II3/2/76

सूत्र संख्या :76


अर्थ : . जिन कर्मों का फल भोगने के लिए जीवात्मा शरीर में आया था उसके भोगने के बाद मृत्यु हो जाती है और दूसरे कर्मों का फल भोगने के लिए और जन्म होता है। कर्म को निमित्त न मानकर यदि केवल भूतों से शरीर की उत्पत्ति मानी जावे या मन के संयोग से देहोत्पत्ति मानी जावे, तब ऐसी दशा में मृत्यु का होना असम्भव होगा - क्योंकि भूत या मन जब रहेंगे, तब तक शरीर भी बना रहेगा।

व्याख्या :प्रश्न - हम कहते है कि किसी आकस्मिक कारण से मृत्यु हो जाती है। उत्तर - वह आकस्मिक कारण भूतों से पृथक किसी का गुण हैं, या भूतों का ? यदि कहो भूतों का है तो दो विरुद्ध धर्म भूत में नहीं रह सकते अर्थात् वही संयोग का कारण हो और वही वियोग का। यदि कहो भूतों से अलग कोई गुण हैं, तो उसी को हम कर्मफल कहते हैं। इस पर वादी आक्षेप करता है।


सूत्र :अणुश्यामतानित्यत्ववदेतत्स्यात् II3/2/77

सूत्र संख्या :77

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : जैसे परमाणु की श्यामता नित्य होने पर भी अग्नि संयोग से नष्ट हो जाती है ऐसे ही मन का गुण अदृष्ट नित्य होने पर भी नष्ट हो जाता है और मोक्ष में शरीरत्पत्ति का कारण नहीं होता। अब इसका उत्तर देते हैं:-




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