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चेतना का साम्राज्य


  हम सब जिस दुनीया के बारे में जानते हैं, और जिस दुनीया या संसार में रहते हैं, वह दुनीया भौतिक हैं, अर्थात पदार्थों से निर्मित होती है, और उसी पदार्थ में अंत में मिल जाती है, एक दुनीया और हैं, जिसके बारे में इस दुनीया में अधिकतर लोग नहीं जानते हैं। जैसा की जिस दुनीया के व्याख्या आज का हमारा आधुनीक विज्ञान करता है, वह दुनीया भौतीक पदार्थों से नीर्मित है, आज विज्ञान इसीलिए मनुष्यों को भी एक वस्तु की तरह मानता है, और उसके साथ वह किसी भौतीक पदार्थ की तरह से ही व्यवहार करता है। 

    इसके अतीरिक्त एक अलग दुनीया है, जिसकी बात वेद करते हैं, और वेदों की मान्यता है, की इस भौतीक दुनीया का आधार वहीं अदृश्य दुनीया है, अर्थात जो चेतन दुनीया है, इसलिए वेद उसको चेतना का साम्राज्य कहते हैं, और वेद उसी दुनीया को आधार बना कर मानव को उसके सभी कर्म को करने की बात करते है, कुछ लोग वेदों को धर्म से जोड़ते हैं, वास्तव में सत्य इसके विपरित है, वेद पूरी तरह से वैज्ञानिक ग्रन्थ हैं, वह इस दुनीया के आधार अदृश्य चेतन पदार्थ को मानते हैं, इस प्रकार से इस जगत में दो प्रकार के पदार्थ हैं, एक भौतीकि पदार्थ हैं, जिसको हम सब अपनी नग्न आंखों से देख सकते हैं और उसका वैज्ञानिक प्रयोग भी कर सकते हैं, और एक अदृश्य चेतन पदार्थ है, जिसे विज्ञान नहीं मानता है, लेकिन जो तत्वदर्शी महात्मा जन हैं। जिसको प्राचिन काल में ऋषि महर्षि कहते थे वह वास्तव में तात्विक ज्ञान को मानते और उसपर प्रयोग करके उसको सिद्ध भी करते थे। उनके कथन के अनुसार जगत का मुल चेतन है।

   इसको हम सब इस प्रकार से समझ सकते हैं, जैसे किसी वस्तु को भौतिक रूप से निर्मित करने से पहले हम उसका खाका तैयार करते हैं, अर्थात उसका ढांचा तैयार करते हैं, इसी प्रकार से इस जगत का जो सबसे सूक्ष्म तत्व या पदार्थ है, वह परमाणु है, और परमाणु के जोड़ से ही जगत की प्रत्येक वस्तु निर्मित हैं, वह विशाल पर्वत पृथ्वी आकाश गंगा या ब्रह्मांड हो, यदि छोटे स्तर पर देखें तो जो सबसे सूक्ष्म जीव हैं, जिसको वैक्टेरीया कहते हैं, उसका शरीर भी सूक्ष्म कोशीका और परमाणुओं से निर्मित है, यहां कोशीका की व्याख्या और परमाणु की व्याख्य मैं नहीं करूंगा। क्योंकि आज का विज्ञान इसकी बड़े विस्तार से व्याख्या करता है, इस परमाणु को तोड़ कर विज्ञान ऊर्जा को प्राप्त करता है, जिसे परमाणु ऊर्जा कहते हैं, यहां तक तो सब जानते हैं। लेकिन जो परमाणु मानव सरीर का निर्माण करते हैं, उनमें भी एक शक्ति और ऊर्जा है, और यह ऊर्जा या शक्ति चेतन है, जो मानव मस्तिष्क और उसकी बुद्धि को प्रभावित करती है।

    मानव मस्तिष्क या बुद्धि का संबंध एक ऊर्जा के श्रोत से हैं, जिससे वैदिक भाषा में आत्मा कहते हैं, यह आत्मा एक चेतन ऊर्जा है, और यह मानव मस्तिष्क में एक ऐसी अवस्था को उत्पन्न करती है, जिससे मानव मस्तिष्क यह समझने या इस वोध को प्राप्त करने में समर्थ होता है जिससे उसको जगत के प्रत्येक वस्तु में चेतना दिखाई देती है। और ऐसा देखने वाले को भारतीय वैदिक शास्त्र कार दार्शनिक कहते हैं, अर्थात वह मनुष्य जिसने इस परम सत्य का साक्षात्कार कर लिया होता है, जो सब जीव के साथ सभी जड़ भौतिक पदार्थ में भी सूक्ष्म रूप से व्याप्त चेतन तत्व है। वह दार्शनिक व्यक्ति सिर्फ उसका साक्षात्कार ही नहीं करता है, यद्यपि उनसे अपना संबाद स्थापित करने में समर्थ होता है। जैसा की प्रमाण के लिए ऋग्वेद मंडल 1 के सूक्त  3 के कुछ एक मंत्र में हम इसका संकेत प्राप्त करते हैं। 

        विश्वे॑ दे॒वासो॑ अ॒स्रिध॒ एहि॑मायासो अ॒द्रुहः॑। मेधं॑ जुषन्त॒ वह्न॑यः॥

   जैसा की मंत्र का प्रारंभ ही विश्वे से होता है, अर्थात विश्व का मतलब ही संसार से है, विश्वे अर्थात विश्व के देवासो अर्थात दिव्यागुणों को जानने वाले जो दार्शनिक जन है, वह अस्रिध हैं, अस्रिध का मतलब है वह मनुष्य जो दार्शनिक हैं अर्थात अस्रिध का मतलब आश्रय भी होता है जो परीपूर्ण रूप से  से शुद्ध ज्ञान को धारण करने वाले होते हैं, अर्थात वह चेतना पर आश्रीत होता है, यहां पर हमें शुद्ध का मतलब समझना होगा, जैसा की विज्ञान का मानना है, की जो पदार्थ सिर्फ एक प्रकार परमाणुओं से मिल कर बना है वहीं शुद्ध है, और इस जगत में बहुत कम ही ऐसे पदार्थ पाए जाते हैं, जो पूर्ण रूप से शुद्ध हों, क्योंकि अकसर एक अणु दूसरे परमाणु के अणु के साथ मिल कर किसी पदार्थ का एक परमाणु बनाता है, अर्थात परमाणु में ही अशुद्धि अर्थात मिश्रण है, उदाहरण के लिए हम यदि पानी के एक परमाणु को ले वह हमें शुद्ध दिखता है, यद्यपि वह शुद्ध नहीं है, उसमें दो हाइड्रोजन के अणु और एक आक्सिजन का अणु होता है, यह तीन अणु मिल कर ही एक जल का परमाणु बनाते हैं। और इस पर ही के वैज्ञानिक आश्रीत है, अर्थात आज के विज्ञान भौतिक पदार्थ की व्याख्या करने में ही समर्थ है, यद्यपि मंत्र कहता है, कि विश्व के श्रेष्ठ दार्शनिक शुद्ध और दृढ़ ज्ञान को धारण करने वाले हैं, इसका मतलब है कि वह पदार्थ के मिश्रित ज्ञान को धारण नहीं करते हैं, जैसा की आज के वैज्ञानिक करते हैं, इनके पास जो ज्ञान हैं वह दृढ़ नहीं है अर्थात वह अस्थिर है, और समय के साथ बदलने वाला है, और वह शुद्ध भी नहीं क्योंकि वह मिश्रित पदार्थों की व्याख्या करते हैं, और उसी को मानते भी हैं। यद्यपि जो दार्शनिक है, वह चेतना के साक्षात्कर्ता होते हैं, इसलिए उस चेतना में कही कोई मिश्रण नहीं होता है, वहीं सभी जीवों में और जगत के पदार्थ में शुद्ध रूप से व्याप्त है। इसलिए वह दार्शनिक पूर्णतः उसी पर आश्रीत्र अर्थात निर्भर रहता है, वहीं उसके जीवन का मुख्य श्रोत है इसलिए वह उसी को पकड़ कर उसी में स्वंय को विलिन कर देता है। अर्थात उसी में समाहित हो जाता है, उसकी समाधि उसी लग जाती है, अर्थात उसके संपू्र्ण जीवन का समाधान उसी एक तत्व के साक्षात्कार हो जाता है। इसके अतीरिक्त उसको किसी और पदार्थ की जांच पड़ताल नहीं करनी पड़ती है। जैसा की हमारे वैज्ञानिक नित नुतन नये वस्तुओं की खोज करते हैं, और उनकी खोज कभी अपने पूर्णता को उपलब्ध नहीं होती है। और ना ही उनके जीवन की समस्या का ही समाधान होता है। और ना ही विश्व के मनुष्य या विश्व की समस्या का ही समाधान होता है, इसी लिए आज विश्व में मानव के लिए विज्ञान के कितने सामान भौतिक रूप से उपलब्ध किये गये हैं, फिर भी मानव जीवन में शांति नही है। और ना ही विश्व में ही शांति  है, आज अशांति और समस्या ही समस्या चारों तरफ विश्व में दिखाई देती है।  मंत्र का अगला शब्द इसी विषय को और खोलते अर्थात समझाते हुए कहता है, एहिमायासो यह विश्व अथवा संसार इसी की माया है, अर्थात जिस चेतना का साक्षात्कार दार्शनिक जिसको संत ऋषि महर्षि मंत्र द्रष्टा कहते हैं, वह चेतना को देखने वाला है, और वहीं इस सत्य का साक्षात्कार करता है अर्थात देखता है कि यह जो संसार का चित्र विचित्र रूप अनंत प्रकार से दिखाई देता है वह सब इस चेतना का ही माया है। अर्थात उसी बनाया हुआ छद्मभेस हैं, जिस प्रकार से हम सब फील्मों को देखते हैं, वह हमारे समाज में होने वाले कार्य को ध्यान में रख उसी को सजा संवार कर प्रस्तुत करता है, जिस प्रकार से फील्म अथवा चलचीत्रों का आधार हमारे समाज में देश में होने वाली मानवी घटनाए ही होती हैं, उसी प्रकार से इस भौतिक संसार का आधार इसके अंदर विद्यमान इसकी चेतना है, जिस प्रकार से हमें चांद में प्रकाश दिखाई देता है, जो उसका स्वयं का नहीं होता है। वह मात्र सूर्य के प्रकाश का प्रतिबिंब मात्र होता है, उसी प्रकार से संसार चेतना के प्रकाश से सजीव और जीवन्त दिखाई देता है। इसको सिर्फ वहीं देख पाते हैं, जिनके पास उनकी चेनता की अन्तःप्रज्ञा होती है। इसी बात को और स्पष्ट मंत्र का अंतीम भाग करते हुए कहता है- मेधं॑ जुषन्त॒ वह्न॑यः मेधं का अर्थ हुआ मेधा में अर्थात बुद्धि में जुषन्त अर्थात जो मानव बुद्धि से जुड़ जाता हैं, अगला शब्द कहता है बह्नयः अर्थात बहता है जिस प्रकार से हिमालय से निकलने वाली पानी की कुछ बुंदे एक धारा का रूप लेकर वह नदी बन जाती है। अर्थात गंगा नदी के रूप में बहती हुई समाज के एक बड़े समुह का कल्याण करती है। उसी प्रकार से मानव चेतना ऋषि दार्शनिक संत की बुद्धि से जुड़ कर एक होकर उसकी प्रज्ञा में स्थित हो कर, वह संसार में सभी जगत के मनुष्यों के कल्याण का कार्य करती है। अर्थात इनके जीवन का समाधान करने के लिए उपस्थित होती है। 

    इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए इसी सूक्त का अगला मंत्र कुछ इस प्रकार से संकेत करता है- 

    पा॒व॒का नः॒ सर॑स्वती॒ वाजे॑भिर्वा॒जिनी॑वती। य॒ज्ञं व॑ष्टु धि॒याव॑सुः॥

   मंत्र का प्रारंभ जिस शब्द से होता है वह शब्द है, पावका अर्थात वह अग्नि के समान है, अब अग्नि को समझते हैं, अग्नि का गुण होता है, की वह किसी भी अशुद्ध पदार्थ को अपने अंदर आते ही शुद्ध कर देती है, अर्थात उसके मुल रूप में परीवर्तित कर देती है, उदाहरण के रूप में हम स्वर्ण को अग्नि में डाल कर उसको शुद्ध करते हुए स्वर्णकारों को अवश्य देखा होगा। दूसरा उदाहरण है जिस प्रकार से यज्ञ किया जाता है उसमें मंत्र के आवाह्न के साथ घृत समिधा और जड़ी बुटियों से मिश्रित सामग्री को हवनकुंड में, अर्थात यज्ञ वेदी में अग्नि को प्रज्वलीत करके डालते हैं, तो अग्नि सभी पदार्थों को जला कर उसके सार को धूम्र के रूप में हमारे वायुमंडल में छोड़ देती है, जिससे हमारे वातावरण का प्रदूषण दूर होता है। अर्थात हमारे वायुमंडल को शुद्ध और ताजा करने के लिए ही हमारे शास्त्रों में यज्ञ करने का विधान किया गया है। इस लिए प्राचिन काल में भारत में राजा महाराजा बड़े - बड़े यज्ञों को किया करते थे। निरंतर कई कई सालों तक चलते थे, यहां तक रोज शुबह शाम किया जाता था। आज भी भारत में बहुत से आश्रम हैं, जो वेद विधि से चलते हैं वहां पर यज्ञ रोज किया जाता है। यहां पर मंत्र में जो पावका शब्द आया हैं वह रूपक के रूप में इसका मतलब हैं, जो हमारी बुद्धि को शुद्ध पवीत्र और निर्मल करती है, और यह पावक के रूप में मानव के अंदर विद्यमान उसकी चेतना है, अगला शब्द इसी मंत्र का और स्पष्ट इसी विषय को करता है और बताता है, कि किसको शुद्ध करता है, और कौन शुद्ध करता है? इसके उत्तर में मंत्र कहता है, नः सरस्वती अर्थात मानव के अंदर रहने वाली उसकी चेतना उसके अंदर विद्यमान उसकी बुद्धि को शुद्ध करती है, अर्थात जो मानव बुद्धि में विकार भौतिक शरीर रूपी संसार में रहने से उत्पन्न होता है, उसको शुद्ध और पवीत्र मानव चेतना के माध्यम से ही संभव है, हम बाहरी संसारिक ज्ञान और जानकारी से मानव बुद्धि को और अधिक वैज्ञानिक भौतिकवादी बना सकते हैं, जैसा की आज के हमारे वैज्ञानिक बन रहें हैं। जो चेतना की सत्ता को ही नहीं मानते हैं, उनके लिए केवल भौतिक पदार्थ ही सत्य है, क्योंकि उनकी चेतना उनकी बुद्धि को शुद्ध नहीं करती है, अर्थात वह इस योग्य नहीं होते हैं कि उनकी बुद्धि उनकी चेतना का साक्षात्कार करने में समर्थ हो। अर्थात उनकी सरस्वती नामक बुद्धि आत्मा से अवतरीत नहीं होती है। यहां पर विशेष जोर दे कर मंत्र कहता है की हमारी सरस्वती नामक बुद्धि को हमारी चेतना शुद्ध करती है, सरस्वती शब्द को तोड़ते हैं तो इसमें से तीन शब्द नीकलते हैं, जो इसके अर्थ को बिल्कुल स्पष्ट करते हैं, सर  +स्व + ती पहला शब्द सर अर्थात सार अर्थात जिस प्रकार से हम सब खाद्य पदार्थ को भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं, उससे रस बनता है, रस से खून बनता है, और खून से मांस बनता है, मांस मज्जा बनती है, मज्जा से मेद बनता है, मेद से हड्डी बनती है, और हड्डी से मानव वीर्य बनता है। इस प्रकार से हम कह सकते हैं, की खाने का जो सार है वह मानव का वीर्य है। इसी प्रकार से यहां सार का मतलब हुआ जो संपूर्ण शरीर का नीचोड़ हैं वह स्व है, अगला शब्द इसमें और जोड़ते हैं जो ती है वह उसका मतलब हुआ तत्व हैं। इन तीनों शब्दों का एक छोटा सा वाक्य बनता है, स्वयं के अस्तीत्व का नीचोड़ हमारी चेतना का प्रतीबींब है, हमारी बुद्धि है। अर्थात चेतना के प्रकाश जो प्रकाशीत होती है वह बुद्धि सरस्वती है। इसलिए ज्ञान की देवी को भारतिय शास्त्र में सरस्वती कहते हैं, यह कोई शरीरधारी स्त्री नहीं है, यह चेतना का ही माया रूप अर्थात उसका प्रतिबींब मात्र है। इसको और स्पष्ट मंत्र का अगला शब्द करते हुए कहता है-  वाजे॑भिर्वा॒जिनी॑वती  इस एक शब्द में चार शब्दों को एक साथ रखा गया है, पहलना शब्द इसमें वाजे है, जिसका मतलब भौतिक जगत संसार संग्राम युद्ध कार्य प्रपंच इत्यादि होता है, दूसरा शब्द है भीर्वा आर्थात आभीर्भाव प्रारंभ होना, जिनी अर्थात जो जीवन से संबंधित जींदगी है, इसके लिए जो वती अर्थात जो वटी के समान है अर्थात जो औषधी है। इन चारो शब्दों को एक छोटे से वाक्य में इस प्रकार से कह सकते हैं कि जो इस भौतिक संसार में शरीर के प्रारंभ के साथ जीने के लिए संघर्ष किया जाता है, उस संघर्ष या उससे मिलने वाले कष्ट दुःख बीमारी मृत्यु आदि को दूर करने की जो औषधि है, जिसको मंत्र में पहले सरस्वती नामक बुद्धि कहा गया और यह बुद्धि पावक नामक चेतना से शुद्ध होती है, इस प्रकार से हम कह सकते हैं, यहां तक मंत्र का भाव कुछ इस प्रकार का है, हमारी चेतना से उद्भाषित होने वाली हमारे मस्तिष्क में सरस्वती नामक बुद्धि संसार में संघर्ष से होने वाले क्लेश को दूर करने के लिए सबसे बड़ी सहायक औषधि की तरह है। आगे और स्पष्ट करते हुए मंत्र का अगला वाक्य कहता है - य॒ज्ञं व॑ष्टु धि॒याव॑सुः यहां भी एक साथ तीन चार शब्द हैं, पहला शब्द है, यज्ञं अर्थात एक प्रकार की प्रयोगशाला क्योंकि यज्ञ का मतलब से होता है जहां पर किसी प्रकार का प्रयोग किया जाता है, जिस प्रकार से वैज्ञानिक किसी पदार्थ को गहराई से अध्ययन करने के लिए उसको अपने प्रयोग शाला में अर्थात लौबोरेटरी में शंश्लेषण और विश्लेषण करते हैं।  उसी प्रकार से हमारे प्राचिन ऋषि वैज्ञानिक अपने यज्ञ रूपी प्रयोग शाला में पदार्थों का शंश्लेषण और उसका विश्लेषण करते थे। यहां मत्र में यज्ञ का सीधा सा अर्थ प्रयोग से किसी पदार्थ का जहां पर शंश्लेषण और विश्लेषण किया जाता है वह यज्ञं अर्थात वह प्रयोगशाला है, दूसरा शब्द है, वष्टु का मतलब सीधा सा अर्थ है वस्तु पदार्थ है, धिया अर्थात बुद्धि, वसु अर्थात  रखने का स्थान। इस प्रकार से इस पुरे मंत्र का अर्थ हुआ, पावक नामक हमारी चेतना हमारी बुद्धि को शु्द्ध करके सरवस्ती नामक बुद्धि में रूपांतरीत करती है, और यह सरस्वती नामक बुद्धि हमारे शरीर में होने वाले हर प्रकार के कष्टों में सबसे बड़ा कष्ट मृत्यु के लिए औषधि अर्थात अमृत है, क्योंकि यह सरस्वती नामक बुद्धि अपने अंदर संसार के किसी भी पदार्थ अर्थात इस मृत्यु का शंश्लेषण और विश्लेषण करके उसकी औषधि अर्थात अमृत रूप चेतना को प्राप्त होने में समर्थ होती है।  इसी सूक्त का अगला मंत्र इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए कुछ प्रकार से अपने भाव को व्यक्त करते हुए कहता है-  

      चो॒द॒यि॒त्री सू॒नृता॑नां॒ चेत॑न्ती सुमती॒नाम्। य॒ज्ञं द॑धे॒ सर॑स्वती॥
  
     अब इस सरस्वती नामक बुद्धि के गुण के बताते हुए मंत्र कहता है चोदयित्री अर्थात इस बुद्धि में एक विशेष गुण होता है, जिससे यह सिर्फ श्रेष्ठ चेतना के गुणों को संग्रह करती है, जिससे उसमें ज्यादा से ज्यादा चेतना का प्रकाश का ज्ञान उद्भाषित या प्रकाशित हो सके, इसलिए वह इस बात पर विशेष सतर्क रहती है, कि वह सिर्फ सूनृताना अर्थात जिससे उसकी शरीर सुन्दर और श्रेष्ठ गुणों को धारण करने में समर्थ हो, और चेतना के प्रकाश को ज्ञान को हस्तांतरीत करने में समर्थ हों, अर्थात वह मनुष्य जिसकी जिसके पास सरस्वती नामक बुद्धि हैं वह अपने उस बुद्धि की सहायता से अपने शरीर को साधना के माध्यम से इतना सुन्दर और आकर्षक बना लेता है, जिससे उसके शरीर के छोटे से छोटे कर्म से भी उसकी आत्मा की चेतनता का आभाष किसी दूसरे संसार के प्राणी को सहजता से होने लगता है। अर्थात जिस प्रकार से अंधेरे में दीपक के जलते ही वहां चारों तरफ प्रकाश की सत्ता स्थापित हो जाती है। अंधेरा भले ही करोड़ों साल पुरना क्यों ना हो? अर्थात सिद्ध पुरुष अपने बुद्धि का सुन्दर से सुन्दर से तरीके से उपयोग करता है, इसलिए मंत्र का अगला शब्द कहता सुमतीनाम यह उस सिद्ध पुरुष के बुद्धि का ही काम है, कि वह अपनी सरस्वती नामक बुद्धि में अपनी चेतना को धारण करता है। अर्थात चेतना के साम्राज्य को स्थापित करने में समर्थ होता है। इसी विषय को और अधिक स्पष्ट करते हुए इसी सूक्त का अंतिम मंत्र कहता है।- 
   
        म॒हो अर्णः॒ सर॑स्वती॒ प्र चे॑तयति के॒तुना॑। धियो॒ विश्वा॒ वि रा॑जति॥
 
     जैसा की मंत्र का प्रारंभ ही महो शब्द से होता है, जिसका दो अर्थ होता है, पहला जो साधारण अर्थ है वह इसमें महानता को व्यक्त करने के लिए या इस सरस्वती नामक बुद्धि विशालता को व्यक्ति करने के लिए उपयोग किया गया है, दूसरा अर्थ इस महो शब्द से होता है जिस मतलब हैं ऐसी बुद्धि जो ईश्वर को देखने या उसके साक्षात्कार करने में समर्थ है, इसलिए वेद का जो गुरु मंत्र जिसको गायत्री मंत्र के नाम से जानते हैं, उसमें भी कहा गया धी मही धीयो प्रचोदयात।। अर्थात इस मंत्र के माध्यम से साधक ईश्वर से कामना करता है की उसको मही नामक बुद्धि प्रदान की जाए। इसी मंत्र का अगला शब्द अर्णः अर्णः का अर्थ है, सुखी लकड़ी में रहने वाली अग्नि है, इसी मंत्र का अगला शब्द सरस्वती है, इन तीनो शब्दों का एक अर्थ इस प्रकार से होगा, सरस्वती नामक बुद्धि में मही नामक ईश्वरी ज्ञान का सामर्थ्य रहता है, जिस प्रकार से सुखी लकड़ी में अग्नि रहता है, उसी प्रकार से इस सरस्वती नामक बुद्धि में जो आत्मा से उत्पन्न होने वाली है, इसमें ईश्वर के ज्ञान को भी अपने अंदर धारण करने का सामर्थ्य होता है। और आगे इसके विस्तार को बताते हुए मंत्र कहता है- प्र अर्थात जो सबसे प्राचीन अनादि काल से विद्यमान है, जिसका कही ना प्रारंभ है और ना कही अंत है, वह चेतयति अर्थात वहीं चेतना ही अपनी ज्ञान के सामर्थ्य अर्थात केतुनां अन्तःप्रज्ञा से सभी वस्तु की जड़ों में अर्थता सूक्ष्म रूप से विद्यमान होकर बड़ी सफाई बुद्धिमानी के संपूर्ण विश्व ब्रह्मांड में राज्य करती है।  अर्थात संपूर्ण विश्व ब्रह्मांड में उसका एकाधिकार साम्राज्य विद्यमान हैं और वह इस सब राजा है, सम्राट है, जो मानव शरीर में ही विद्यमान रहता है या रहती है। 

मनोज पाण्डेय 
अध्यक्ष ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान  

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