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न्यायदर्शन चतुर्थ अध्याय प्रथम आह्निक

 सूत्र :प्रवृत्तिर्यथोक्ता II4/1/1

सूत्र संख्या :1


अर्थ : तीसरे अध्याय में आत्मादि 6 प्रमेयों की परीक्षा की गई। अब चौथे अध्याय में प्रवृत्यादि शेष 6 प्रमेयों की परीक्षा की जाती है। पहले प्रवृत्ति और दोष की परीक्षा करते हैः- प्रवृत्ति का जो लक्षण कहा गया है, अर्थात् मन वाणी और शरीर से किसी काम का आरम्भ करना उसमें कुछ वक्तव्य नहीं है, क्योंकि वह सर्वसम्मत सिद्धान्त है। अब दोषों का वर्णन करते हैः


सूत्र :तथा दोषाः II4/1/2

सूत्र संख्या :2


अर्थ : ऐसे ही दोनों का जो लक्षण किया गया है अर्थात् प्रवृत्ति के कारण दोष हैं, उसमें भी कुछ विवाद नहीं हैं। अब दोषों के भेद कहते हैः-


सूत्र :तत्त्रैराश्यं रागद्वेषमोहार्थान्तरभावात् II4/1/3

सूत्र संख्या :3


अर्थ : दोष के तीन भेद हैं (1) रोग, (2) द्वेष, (3) मोह। ये तीन दोषों की राशि (समूह) हैं, इनमें से एक-एक के अन्तर्गत बहुत से दोष आ जाते हैं। जैसे राग के अन्तर्गत काम, मत्सर, स्पृहा, तृष्णा, माया, दम्भ और लोभ इत्यादि हैं। द्वेष के अन्तर्गत त्रोध, ईष्र्या, असूया, द्रोह अमर्ष अभिमान इत्यादि हैं। मोह के अन्तर्गत मिथ्याज्ञान, संशय, तर्क मान, प्रसाद, भय और शोकइत्यादि हैं। इनमें से राय प्रवृत्ति कारण है, द्वेष त्रोध का उत्पादक और मोह मिथ्या ज्ञान का कारण है। वादी आक्षेप करता हैः


सूत्र :नैकप्रत्यनीकभावात् II4/1/4

सूत्र संख्या :4


अर्थ : रागादि दोषों के तीन भेद मानना ठीक नहीं, क्योंकि तीनों प्रकार के दोष एक ही तत्त्व ज्ञान के विरोधी हैं या एक ही तत्त्व ज्ञान इन सबका विरोधी और नाशक है। यदि इनके तीन भेद माने जावे तो फिर इनके प्रतिद्वन्द्वी भी तीन ही होने चाहिएं। जोकि प्रतिद्वन्द्वि इनका एक है, इसलिए इनमें भी भेद न होना चाहिए। इसका उत्तर देते हैः-


सूत्र :व्यभिचारादहेतुः II4/1/5

सूत्र संख्या :5


अर्थ : व्यभिचार युक्त होने से उक्त हेतु अहेतु है। क्योंकि श्याम, हरित, पीतादि वर्णो का एक अग्नि विरोधी है, जो इन सबकों जलाकर नष्ट कर देता है, एक अग्नि के विरोधी होने पर भी ये सब पृथक्-पृथक् हैं। ऐसे ही एक तत्त्व ज्ञान के विरोधी होने पर भी रागादि दोष भिन्न-भिन्न एक नहीं हो सकते। अब इन तीनों में मोह की प्रबलता दिखलाते हैं-


सूत्र :तेषां मोहः पापीयान्नामूढस्ये-तरोत्पत्तेः II4/1/6

सूत्र संख्या :6


अर्थ : इन सब दोषों का मूल मोह है, जिसको मोह नहीं रहता, उसको राग द्वेष भी होते। तत्त्व ज्ञान से मोह का नाश होता है, मोह के ने रहने पर राग द्वेष की उत्पत्ति ही नहीं होती, क्योंकि कारण के नाश से कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। इसलिए मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु मोह है। अहित से अनुराग और हित से द्वेष ये दोनों मोह के कारण है। तत्त्व ज्ञान इसी मिथ्या ज्ञान का विरोधी है, अतएव मिथ्याज्ञान के निवृत होते ही राग और द्वेष की उत्पत्ति ही नहीं हो सकती इसलिए मोह तीनों में प्रधान है। वादी आक्षेप करता हैः-


सूत्र :निमित्तनैमित्तिकभावादर्थान्तरभावो दोषेभ्यः II4/1/7

सूत्र संख्या :7


अर्थ : जब मोह दोषों के उत्पन्न होने का कारण है तो कार्य कारण भाव के होने से वह द्वेषादि से भिन्न है। क्योंकि कारण कभी नहीं हो सकता। इसलिए मोह दोष नहीं है, किन्तु दोषों का कारण है। इसका उत्तर देते हैः-


सूत्र :न दोषलक्षणा-वरोधान्मोहस्य II4/1/8

सूत्र संख्या :8


अर्थ : मोह में दोष के लक्षण पाये जाते हैं, इसलिए मोह दोषों से भिन्न नहीं, क्योंकि लक्षण और प्रमाण ही से वस्तु का यथार्थ-ज्ञान होता है। दोष का लक्षण किसी कार्य के करने में प्रवृत्त होनाबताया गया है अर्थात् प्रवृत्ति का कारण होना। जबकि मोह प्रवृत्ति का कारण है, तो वह दोष क्यों नहीं? अब कार्य कारण भाव का उत्तर देते हैः-


सूत्र :निमित्तनैमित्तिकोपपत्तेश्च तुल्यजातीयानामप्रतिषेधः II4/1/9

सूत्र संख्या :9


अर्थ : तुल्य जातीय (एक जाति वालों) में एक की उत्पत्ति का कारण दूसरे को देखते है। जैसे पृथ्वी की उत्पत्ति का कारण जल है और जल की उत्पत्ति का कारण तेज है। परन्तु यह कार्य कारण भाव होते हुए भी पृथ्वी, जल, तेज आदि भूत कहलाते हैं। ऐसे ही मोह राग और द्वेष का कारण होते हुए भी कहला सकता है। अब प्रेत्यभाव की परीक्षा करते हैं। प्रश्न-जब कि आत्मा नित्य है तो उसका जन्म मरण नहीं हो सकता और प्रेत्यभाव जन्म मरण का नाम है इसलिए नित्य आत्मा का प्रेत्यभाव नहीं हो सकता। इसका उत्तर-


सूत्र :आत्मनित्यत्वे प्रेत्यभावसिद्धिः II4/1/10

सूत्र संख्या :10


अर्थ : आत्मा के नित्य होने से ही प्रेत्यभाव (पुनर्जन्म) का होना सिद्ध होता है। यदि आत्मा नित्य न होता तो पुनर्जन्म किसी प्रकार सिद्ध नहीं हो सकता था। प्रेत्यभाव का अर्थ ही यह है कि एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाना। यदि आत्मा अनित्य होती तो शरीरके साथ हीव नष्ट हो जाना, फिर उसकी उत्पत्ति कैसे हो सकती थी। किन्तु जो उत्पन्न होता, वह नया उत्पन्न होता, क्योंकि उसी आत्मा का पुनर्जन्म कैसा?

व्याख्या :प्रश्न-यदि हम पुनर्जन्म का आश नाश और नवीन जन्म की उत्पत्ति तो क्या हानि है। उत्तर- इस दोष में कृत हानि और अकृताभ्यागम दोष होगा अर्थात् जिसने कर्म किये हैं, उसको तो फल नहीं मिलेगा, जिसने नहीं किये उसको सुख दुःखादि मिले। इसलिए ऐसा मानना ठीक नहीं, क्योंकि जो करता है, वही भोगाता है। सजातीय कारण से कार्योंत्पत्ति होती है या विजातीय कारण से? इसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :व्यक्ताद्व्यक्तानां प्रत्यक्षप्रामाण्यात् II4/1/11

सूत्र संख्या :11


अर्थ : स्थूल पृथिव्यादि कारणों से शरीर की उत्पत्ति होती है, जैसे स्थूल मूर्तिकादि से स्थूल घटादि बनते हैं। यह प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है। इससे शरीरादि के कारण परमाणुओं का भी साकार होना अनुमान होता है। इसलिए सजातीय कारण ही सजातीय कार्यों को उत्पन्न करते हैं अर्थात् जो गुण में होंगे, वह उसके कार्य में भी अवश्य आवेंगे। अब वादी आक्षेप करता है-


सूत्र :न घटाद्घटानिष्पत्तेः II4/1/12

सूत्र संख्या :12


अर्थ : सजातीय स्थूल घट की उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए महान् से महान की उत्पत्ति नहीं हो सकती, किन्तु अणु ही महान् की उत्पत्ति होती हैं उसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :व्यक्ताद्घटनिष्पत्तेरप्रतिषेधः II4/1/13

सूत्र संख्या :13


अर्थ : हमारे कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि कार्य उत्पन्न होता है, किन्तु कारण से कार्य की उत्पत्ति होना हमारा मन्तव्य है। घट कार्य है, इसलिए उससे दूसरा घट रूप कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता, किन्तु मत्तिका कारण है, उससे वह घट को उत्पन्न करने में समर्थ है। कारण मृत्तिका भी स्थूल है औश्र उससे कार्य घट भी स्थूल ही उत्पन्न होता है। इसलिए स्थूल से स्थूल की उत्पत्ति का निषेध नहीं हो सकता। वादी पुनः आक्षेप करता हैः


सूत्र :अभावाद्भावोत्पत्ति-र्नानुपमृद्य प्रादुर्भावात् II4/1/14

सूत्र संख्या :14


अर्थ : वादी कहता है कि अभाव की उत्पत्ति होती है, यह हमारा पक्ष है, इसमें हेतु यह है कि जब तक बीज गलकर नाश न हो जावे, अंकुर उत्पन्न नहीं होता। नाश का ही नाम अभाव हैं, इससे सिद्ध है कि अभाव से भाव की उत्पत्ति होती है। अब इसका उत्तर देते हैः


सूत्र :व्याघातादप्रयोगः II4/1/15

सूत्र संख्या :15


अर्थ : यह कहना कि बीज के नाश होनपे पर अंकुर की उत्पत्ति होती है, ठीक नहीं क्योंकि इसमें व्याघात दोष आता है। क्योंकि बीज के गलने से उसका अभाव नहीं होता। यदि अभाव से उत्पत्ति होती तो बीज के होने और उसके गलने की आवश्यकता ही क्या थी, किन्तु बिना बीज के ही अंकुर उत्पन्न हो जाता। दूसरे जब बीज को तोड़ कर अंकुर उत्पन्न होता है तो बीज के तोड़ने वाले का अभाव नहीं, यदि उसका अभाव होता तो बीज को कौन तोड़ता? इसलिए अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं होती। वादी फिर आक्षेप करता हैः-


सूत्र :नातीतानागतयोः कार-कशब्दप्रयोगात् II4/1/16

सूत्र संख्या :16


अर्थ : बीज का नाश करके अंकुर का उत्पन्न होना अहैतुक नहीं है, क्योंकि भूत और भविष्य में भी जो अविद्यमान है कार्य कारण भाव का प्रयोग होता है। जैसे पुत्र की उत्पत्ति से पहले उसके जन्म होने होने का हर्ष होता है। या घड़े के टूटने के पश्चात् उसका शोक होता है। ऐसे ही बीज के नाश करने वाले अंकुर के होने से पहले उसको जोड़ने वाला कहा गया। इसमें कुछ भी व्याघात नहीं, अब इसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :न विनष्टेभ्योऽनिष्पत्तेः II4/1/17

सूत्र संख्या :17


अर्थ : नष्ट बीज से अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, बीज का गलना नष्ट होना नहीं है, किन्तु वह एक अवस्थान्तर को प्राप्त होकर अंकुर को उत्पन्न करता है, न कि नष्ट होकर। इसलिए अभाव से भाव की उत्पत्ति मानन ठीक नहीं। पुनः इसी की पुष्टि करते हैं-


सूत्र :क्रमनिर्देशादप्रतिषेधः II4/1/18

सूत्र संख्या :18


अर्थ : बीज के गलने और अंकुर निकलने का जो सिलसिला है, उसको त्रम कहते हैं, पहले बीज जब गल जाता है तब उससे अंकुर उत्पन्न होता है। बीज गलने से नष्ट हो जाता है किन्तु उसकी बनावट में कुछ परिणाम होकर अंकुर लाने में समर्थ हो जाता है। यदि नष्ट बीज से अंकेरोत्पत्ति होती तो जला या पिसा हुआ बीज भी अंकुर उत्पन्न कर सकता, परन्तु ऐसा नहीं हो सकता, इससे सिद्ध है कि अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं हो सकती। कर्म स्वयं फल देते हैं या कोई औश्र फल देने वाला है?


सूत्र :ईश्वरः कारणं पुरुषकर्माफल्यदर्शनात् II4/1/19

सूत्र संख्या :19


अर्थ : मनुष्य जिस प्रयोजन से कर्म करता है प्रायः उस कर्म से वह प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, इससे वह कर्म निष्फल जाता है। मनुष्य की इच्छा और कर्म के अनुसार फल होता हुआ न देखकर अनुमान होता है कि कर्मों का फल देने वाला कोई दूसरा है। यदि कर्म आप ही फल देने वाला होता तो कर्म के समाप्त होने पर उनका फल अवश्य मिलना चाहिए था परन्तु कर्म स्वयं फल देने में असमर्थ है, इसलिए कर्म फल देने वाला ईश्वर है। दूसरा प्रतिपक्षी कहता हैः-


सूत्र :न पुरुषकर्माभावे फलानिष्पत्तेः II4/1/20

सूत्र संख्या :20


अर्थ : कर्मफल देने वाला ईश्वर है, यह कथन ठीक नहीं। क्योंकि जो दुःख सुख का होना ईश्वर के अधीन होता तो वह बिना कर्म के भी दे देता, परन्तु बिना कर्म के फल किसी को नहीं मिलता। इससे जाना जाता है कि कर्मफल देने वाला ईश्वर नहीं, किन्तु कर्म स्वयं ही फल देते हैं। जो कर्म करता है, वह फल पाता है, जो नहीं करता, वह नहीं पाता। अब सूत्रकार इनका उत्तर देते हैं-


सूत्र :तत्कारितत्वादहेतुः II4/1/21

सूत्र संख्या :21


अर्थ : कर्म करने से जो फल होता है, यद्यपि कर्म उनका निमित्त है, तथापि जड़ होने से उसमें ज्ञान नहीं हैं, अज्ञानी कभी स्वतन्त्र नहीं हो सकता। जैसे हाथ बिना जीवात्मा की इच्छा के कोई काम नहीं कर सकता। ऐसे ही कर्म भी बिना ईश्वर की प्रेरणा के स्वयं फल देने में समर्थ नहीं।

व्याख्या :प्रश्न- यदि ईश्वर को फलदार माना जाये तो यह कैसे मालूम हो कि किस कर्म का क्या फल है? क्योंकि ईश्वर प्रत्यक्ष होकर तो बतलाना नहीं। उत्तर- वेदादि शास्त्रों में और सृष्टि के नियमों में कर्मफल की व्यवस्था पाई जाती है, उसका अध्ययन करने से मालूम हो सकता है कि सात्विक कर्म का यह फल है, राजस का यह और तामस का यह। प्रश्न- जब ईश्वर में राग और द्वेष नहीं तो वह कार्यों का फल देने वाला और सृष्टि का बनाने वाला क्योंकर हो सकता है, क्योंकि बिना राग के प्रवृत्ति और बिना द्वेष के निवृत्ति हो ही नहीं सकती। उत्तर- ईश्वर का स्वभाव ही न्याय और दया करना है, अपने इसी स्वाभाविक गुण के कारण वह सृष्टि की उत्पत्ति और जीवों को कर्मफल प्रदान करता है। अल्पज्ञ और एकदेशी जीवात्मा राग से प्रेरित होकर कर्म करता है न कि सर्वज्ञ और सर्वव्यापक ईश्वर। प्रश्न- ईश्वर दयालू और न्यायकारी किस प्रकार हो सकता है, क्योंकि दया और न्याय ये दोनों परस्पर विरूद्ध गुण हैं, वे दोनों ईश्वर में कैसे रह सकते हैं? उत्तर- ईश्वर जो न्याय करता है, वह किसी प्रयोजन के लिए नहीं, किन्तु जीवों पर दया करने के लिए और ये दोनों परस्पर विरूद्ध नहीं, किन्तु एक दूसरे से सहायक हैं। जो न्यायी है वही दयालु भी है, और दयालु है वही न्यायी है। अब स्वभाववादी आक्षेप करता हैः


सूत्र :अनिमित्ततो भावोत्पत्तिः कण्टकतैक्ष्ण्यादिदर्शनात् II4/1/22

सूत्र संख्या :22


अर्थ : जैसे बिना निमित्त के स्वभाव ही से कांटों में तीखापन और पहाड़ी धातुओं में भिन्न-भिन्न वर्ण गुण देखने में आते हैं। ऐसे ही मनुष्यादि प्राणियों के शरीर भी बिना किसी ईश्वर या कर्मफल आदि के निमित्त के स्वभाव से उत्पन्न होते हैं। इस खण्डन करते हैं-


सूत्र :अनिमित्तनिमित्तत्वान्नानिमित्ततः II4/1/23

सूत्र संख्या :23


अर्थ : यदि अनिमित्त से भाव की उत्पत्ति होती है तो अनिमित्त ही उसका कारण होगा। क्योंकि जिससे जो उत्पन्न होता है, वह उसका कारण कहलाता है। जब अनिमित्त से उत्पत्ति होगी तो वह बड़ी उत्पत्ति का कारण होगा। फिर बिना कारण के उत्पत्ति कहां रही। अब सूत्रकार अपना मत दिखलाते हैं-


सूत्र :निमित्तानिमित्तयोरर्थान्तरभावा-दप्रतिषेधः II4/1/24

सूत्र संख्या :24


अर्थ : निमित्त और वस्तु है और उसका खण्डन और कोई वस्तु अपना ही खण्डन नहीं कर सकती। जैसे अग्नि और पदार्थों को जलाता है पर अपने को नहीं जला सकता, वायु अन्य पदार्थों को सुखाता है पर अपने को नहीं सुखा सकता। ऐसे ही कारण का अभाव किसी का कारण नहीं हो सकता। ज बवह स्वयं अभाव है तो फिर उससे भाव की कल्पना आकाश कुसुम से बढ़ कर नहीं है। अब अनित्यवादी आक्षेप करता हैः


सूत्र :सर्वमनित्यमुत्पत्तिविनाशधर्मकत्वात् II4/1/25

सूत्र संख्या :25


अर्थ : जो वस्तु होकर न रहे, वह अनित्य कहलाती है, अर्थात् जो उत्पत्ति से पूर्व न हो और नाश के पश्चात् न रहे, वह अनित्य है। जबकि शरीरादि भौतिक पदार्थ और बुद्धयादि अभौतिक पदार्थ सब उत्पन्न होगर नष्ट होने वाले हैं, इसलिएवे सब अनित्य हैं इसका खण्डन करते हैः


सूत्र :नानित्यतानि-त्यत्वात् II4/1/26

सूत्र संख्या :26


अर्थ : सब अनित्य है ऐसा कहने से सब में जो अनित्या है, उसका नित्य होना सिद्ध होता है। क्योंकि यदि अनित्या को भी अनित्यमान लिया जाए तो सबका नित्य होना सिद्ध हो जायेगा और यदि अनित्या नित्य है तो फिर सब का अनित्य होना कहा रहां। क्या वह अनित्यता सब से बाहर है? इस पर भी आक्षेप करते हैं-


सूत्र :तदनित्यत्वमग्नेर्दाह्यं विनाश्यानुविनाशवत् II4/1/27

सूत्र संख्या :27


अर्थ : वह अनित्या भी अनित्य है, जैसे अग्नि दाह्य इन्धनादि को नष्ट करके आप भी नष्ट हो जाता है। ऐसे ही अनित्या भी सब पदार्थों का नाश करके आप भी नष्ट हो जाती है। अब सूत्रकार अपना मत दिख्लाते हैं-


सूत्र :नित्यस्या-प्रत्याख्यानं यथोपलब्धिव्यवस्थानात् II4/1/28

सूत्र संख्या :28


अर्थ : नित्य वस्तुओं का खण्डन करना अयुक्त है, क्योंकि परीक्षा करने से पदार्थों के नित्य दोप्रकार के भेद पाये जाते हैं। अर्थात् जिन पदार्थों की उत्पत्ति किसी कारण से सिद्ध नहीं होती, जैसे आकाश काल, आत्मा इत्यादि वे सब नित्य हैं। अतः प्रमाण सिद्ध होने पर नित्य का खण्डन नहीं हो सकता। अब नित्यवादी आक्षेप करता हैः


सूत्र :सर्वं नित्यम्पञ्चभूतनित्यत्वात् II4/1/29

सूत्र संख्या :29


अर्थ : कारण रूप से पंचभूत नित्य हैं, किसी प्रमाण से इनका नाश सिद्ध नहीं होता। जब कारण नित्य हैं तो फिर उनके कार्य अनित्य कैसे हो सकते हैं। अतः सब पदार्थ नित्य हैं। अब इसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :नोत्पत्तिविनाशकारणोपलब्धेः II4/1/30

सूत्र संख्या :30


अर्थ : सब पदार्थों को नित्य कहना ठीक नहीं, क्योंकि घट पटादि पदार्थों के उत्पत्ति और विनाशख प्रत्यक्ष देखे जाते हैं, जिससे उनका अनित्य होना सिद्ध होता है। अतः उत्पत्ति और विनाश् कारणों के उपलब्ध होने से सब पदार्थ नित्य नहीं हो सकते। फिर वादी आक्षेप करता हैः


सूत्र :तल्लक्षणावरोधादप्रतिषेधः II4/1/31

सूत्र संख्या :31


अर्थ : प्रत्येक पदार्थ में भूतों के लक्षण पाये जाते हैं, क्योंकि वे सब भूतों से बने हैं, जैसे घट पृथ्वी के परमाणुओं से बना हुआ है, पृथ्वी के परमाणु नित्य है। यद्यपि घट छिन्न-भिन्नहोकर नष्ट हो जाता है, तथापि उसके परमाणुओं का नाश नहीं होता, वे सदा किसी न किसी अवस्था में वर्तमान रहते हैं। जब समस्त पदार्थ उन्हीं परमाणुओं से बने हैं, तब उनकी नित्यता का निषेध नहीं हो सकता, क्योंकि भूतों का लक्षण उनमें भी विद्यमान है। फिर वादी कथन की पुष्टि करता हैः


सूत्र :नोत्प-त्तितत्कारणोपलब्धेः II4/1/32

सूत्र संख्या :32


अर्थ : उत्पत्ति और विनाश के जो कारण देखे जाते हैं, वे औपाधिक हैं न कि वास्तविक। क्योंकि प्रत्येक पदार्थ नित्य होने से उत्पत्ति के पूर्व भी विद्यमान होता है और विनाश के उपरांत भी वर्तमान रहता है और यह बात प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है कि घड़ा बनने से पूर्व कुम्हार के ज्ञान में था और नाश के पश्चात् भी उसके ज्ञान में रहेगा।

व्याख्या :प्रश्न-किसी वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती, केवल आविर्भाव और तिरोभाव होता है, घड़ा पहले मिट्टी में छिपा हुआ था, वह प्रकट हो गया। इसी का नाम अविर्भाव या उत्पत्ति है। घड़ा टूट करअपने कारण में लीन हो गया। इसी का नाम तिराभाव या नाश है,दोनों अवस्थाओं में वस्तु की शत्ता विद्यमान रहती है। उत्तर-आविर्भाव या तिरोभाव नित्य है वा अनित्य? यदि कहो नित्य है तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि ये दोनों सदा नहीं होते रहते, किन्तु किसी समय विशेष में होतु हैं। यदि कहो अनित्य हैं तो फिर इनके द्वारा जो पदार्थ उत्पन्न या नष्ट होते रहते हैं वे नित्य कि प्रकार हो सकते हैं? उत्तर-हमने तो प्रत्येक पदार्थ में पंचभूतों के लक्षण होने से उनको नित्य माना है। प्रश्न- यह भी ठीक नहीं क्योंकि प्रत्येक कार्य अपने कारण रूप परमाणुओं के संयोग से बना है और संयोग किसी समय विशेष में हुआ है। जो किसी समयविशेष में हुआ हो और समय विशेष तक रहे, सदा न रहे नित्य नहीं हो सकता। प्रश्न-उत्पत्ति का कोई कारण नहीं, केवल स्वप्नदृष्ट वस्तुओं की तरह उसका अभिमान होता है, वास्तव में वह कल्पित है। उत्तर- यदि कार्य वस्तु स्वप्न के समान कल्पित है, तो कारण पंचभूतों को भी कल्पित-मानना पड़ेगा, जिससे सबको नित्य सिद्ध करते-करते पंचभूत भी नित्य न रहेंगे। सूत्रकार स्वयं इसका उत्तर देते हैं।


सूत्र :न व्यवस्थानुपपत्तेः II4/1/33

सूत्र संख्या :33


अर्थ : सबको नित्य मानने से यह उत्पत्ति होती है, यह विनाश है, यह व्यवस्था नहीं रह सकती। क्योंकि जब उत्पत्ति से पहले वह पदार्थ विद्यमान है तो फिर उत्पत्ति किस की और कैसी? ऐसे ही नाश के पश्चात् उसके विद्यमान रहने पर नाश किसका और कैसा? न उत्पत्ति उत्पत्ति रहेगी और न विनाश रहेगा। इसके अतिरिक्त इन दोनों में काल का अन्तर भीनही रहेगा। अर्थात् कब उत्पत्ति हुई और कब विनाश होगा। इसकी कुछ व्यवस्था न रहेगी। इससे भूत और भविष्य दोनों कालों का लोप हो जायेगा, केवल वर्तमानकाल रहेगा। इसलिए अविद्यमान को रूप विशेष की प्राप्ति उत्पत्ति और स्वरूप हानि ही विनाश है। यही व्यवस्था युक्ति सिद्ध है। अब अनेक वादी आक्षेप करता हैः


सूत्र :सर्वं पृथग्भावलक्षण-पृथक्त्वात् II4/1/34

सूत्र संख्या :34


अर्थ : प्रत्येक पदार्थ पृथक-पृथक और अनेक हैं, किसी वस्तु की एक सत्ता नहीं, क्योंकि भाव के लक्षण पृथक-पृथक हैं। जैसे कुम्भ यह पदार्थ गन्ध, रस, रूप, स्पर्श तथा कपाल घट, पाश्र्व ग्रीवा आदि अनेक पदार्थों का समुदाय होने से उन सबका वाचक है, किसी एक वस्तु का नहीं, ऐसे ही अन्य पदार्थो को भी समझना चाहिए। इसलए जाति, आकृति और व्यक्ति भी कोई एक पदार्थ नहीं सूत्र का अभिप्राय यह है कि सिवाय गुणों या अवयवों के कोई गुणी या अवयवी नहीं। इसका खण्डन करते हैं-


सूत्र :नानेकलक्षणैरेकभावनिष्पत्तेः II4/1/35

सूत्र संख्या :35


अर्थ : अनेक लक्षणों से एकभाव की सिद्धि होती है, इसलिए अनेकवाद ठीक नहीं। अनेक गुण और भिन्न भिन्न अवयव मिलकर एक गुणी या अवयवी को सिद्ध करते हैं। गुणों के रहित गुणी और अवयवों से पृथक अवयवी नहीं हो सकता। इस पर और भी हेतु देते हैः


सूत्र :लक्षणव्यवस्थानादेवा-प्रतिषेधः II4/1/36

सूत्र संख्या :36


अर्थ : भाव का लक्षण जो संज्ञा है, उसका नियम एक अवयवी में देखा जाता है। ‘घड़े में पानी भर दो’ यह कहने पर कोई मिट्टी के परमाणुओं में पानी नहीं भरता और न उनमें पानी भरा ही जा सकता है। अवयवी से जो काम सिद्ध हो सकता है, वह उसके अवयवों से नहीं हो सकता। इससे सिद्ध है कि अनेक लक्षणों में एकभाव और अनेक गुणों से एक गुणी सिद्ध होता है। यदि एक न मानोगे तो फिर समुदाय भी न रहेगा। अब अभाववादी आक्षेप करता हैः


सूत्र :सर्वमभावो भावेष्वितरेतराभावसिद्धेः II4/1/37

सूत्र संख्या :37


अर्थ : सब कुछ अभाव है, क्योंकि भावों में परस्पर अभाव की सिद्धि होती है। जैसे घड़े में कपड़े का अभाव है और कपड़े घड़े का। गौ में घोड़े का अभाव है और घोड़े में गौ का। जब भाव में एक दूसरे का अभाव सिद्ध है तब सबका अभाव ही क्यों न मान लिया जाय? अब इसका खण्डन करते हैं-


सूत्र :न स्वभावसि-द्धेर्भावानाम् II4/1/38

सूत्र संख्या :38


अर्थ : संसार में जितने पदार्थ हैं, वे सब अपने-अपने भाव से वर्तमान हैं, उनमें अपने से भिन्न पदार्थों का भाव न होना उनके भाव का निषेधक नहीं हो सकता, प्रत्युत साधक है। यदि घट में पट का अभाव है तो घट का तो भाव है घोड़ा गाय नहीं तो घोड़ा है, फिर भाव से अभाव की सिद्धि कैसे होगी? अतएव सब पदार्थों में अपना-अपना भाव होने से अभाव किसी का नहीं हो सकता। वादी फिर आक्षेप करता हैः


सूत्र :न स्वभावसिद्धिरापेक्षिकत्वात् II4/1/39

सूत्र संख्या :39


अर्थ : अपने भाव की सिद्धि आपेक्षिक होने से बिना एक-दूसरे की अपेक्षा के सिद्ध नहीं हो सकती। क्योंकि जैसे छोटे की अपेक्षा बड़ा और बड़े की अपेक्षा छोटा सिद्ध होता है, वैसे ही घट की अपेक्षा पट और गौ की अपेक्षा अश्व की सिद्धि होती है। इसलिए बिना दूसरों की अपेक्षा के स्वतः किसी भाव की सिद्धि नहीं हो सकती। अब इसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :व्याहतत्वादयुक्तम् II4/1/40

सूत्र संख्या :40


अर्थ : यदि घोड़ा गाय की अपेक्षा से है तो गाय किसकी अपेक्षा से है, यदि कहो घोड़ें की तो इसमें अन्यान्याश्रय दोष आयेगा। दोनो अपनी-अपनी सिद्धि में एक दूसरें के आक्षित होंगे। जिससे अनवस्था दोष उत्पन्न होगा। इसलिए सम्पूर्ण पदार्थ अपनी सिद्धि में निपेक्ष हैं। अब संख्यावाद की परीक्षा की जाती हैं-


सूत्र :संख्यैकान्तासिद्धिः कारणानुपपत्त्युपपत्तिभ्याम् II4/1/41

सूत्र संख्या :41


अर्थ : यदि कार्य और कारण भिन्न-भिन्न हैं, तो भेद के सिद्ध होने से उनका एकान्त सिद्ध न हो सकेगी। दोनों हेतुओं से संख्यावाद असिद्ध है। अब इस पर शंका करते हैं-


सूत्र :न कारणावयव-भावात् II4/1/42

सूत्र संख्या :42


अर्थ : कारण कार्य का एक अवयव है कि समष्टि व्यष्टि से पृथक नहीं, क्योंकि जो गुण समष्टि में होते हैं, वही उसकी व्यष्टि में भी होते हैं। इसलिए एक का निषेध नहीं हो सकता। क्योंकि सब कार्य एक ही कारण के अवयव हैं, इसलिए वे उससे पृथक नहीं। अब इसका खण्डन करते हैं।


सूत्र :निरवयवत्वादहेतुः II4/1/43

सूत्र संख्या :43


अर्थ : जब कि कारण सूक्ष्म होने से निरवयव है, तब कार्य को कारण का अवयव मान कर एक कारण को सिद्ध करना अयुक्त है। क्योंकि जब कारण के अवयव ही नहीं होते, तब उन सब को मिला कर एक पदार्थ कैसे हो सकेगा?

व्याख्या :प्रश्न- यदि हम कारण को सावयव मानें, तब तो ऐसा हो सकता है। उत्तर- सावयव पदार्थ संयुक्त होने से अनित्य होते हैं अर्थात् किसी समय विशेष में उनकी उत्पत्ति होती है और जब उत्पत्ति तो विनाश भी अवश्य होगा। क्योंकि एक तट वाली नदी हो नहीं सकती।इसलिए तुम कारण को सावयव मानोगे तो वह अनित्य होगा। परन्तु कारण नित्य होने से सदा रहता है। अतएव उसका एक होना प्रमाण और युक्ति के विरूद्ध है। जब एक नहीं तो दो, तीन या चार आदि की संख्या नियत करना भी ठीक नहीं। प्रेत्यभाव की परीक्षा समाप्त हुई। अब आगे फल की परीक्षा की जाती हैः


सूत्र :सद्यः कालान्तरे च फलनिष्पत्तेः संशयः II4/1/44

सूत्र संख्या :44


अर्थ : बहुत से कर्मों का फल शीघ्र मिलता है, जैसे रोटी पकाना, दूध दुहाना इत्यादि। बहुत सी त्रियाओं का फल देर में मिलता है, जैसे खेती करना, वृक्ष लगाना इत्यादि। अब जिन कर्मों का फल शास्त्र में लिखा है अर्थात् ‘यज्ञादि करने से स्वर्ग मिलता है’ और ‘अनृत भाषणादि से नरक होता है’ इसमें सन्देह होता है कि कौन कर्म शीघ्र और कौन देरे में फलदायक होता है? इसका उत्तर देते हैः


सूत्र :न सद्यः कालान्तरोपभोग्यत्वात् II4/1/45

सूत्र संख्या :45


अर्थ : प्रत्येक कर्म का फल शीघ्र नहीं मिलता बहुत से कर्म ऐसे हैं कि उनका फल कालान्तर या जन्मान्तर में मिलता है।

व्याख्या :प्रश्न- हम बहुत से कर्मों का फल शीघ्र मिलता हुआ देखते हैं। उत्तर-कर्म दो प्रकार के हैं एक भोक्तव्य और दूसरे कत्र्तव्य। जैसे बोना और काटना दोनों कर्म है, पर बोने का फल देर से, काटने का फल शीघ्र मिलता है। इनमें बोना कत्र्तव्य और काटना भेक्तव्य है। अतएव जो कर्म कत्र्तव्य हैं अर्थात् आगे के वास्ते किये जाते हैं, उनका फल देर से मिलता है और जो भेक्तव्य हैं अर्थात् भोगने के लिए हैं, उनका फल शीघ्र मिलता है। वादी फिर शंका करता हैः-


सूत्र :कालान्तरेणानिष्पत्तिर्हेतुविनाशात् II4/1/46

सूत्र संख्या :46


अर्थ : फल के लिए जो यज्ञादि कर्म किये जाते हैं, वे वहां ही नष्ट हो जाते हैं, जब वे आप ही मिट जाते हैं, तो कालान्तर या जन्मान्तर में क्या फल उत्पन्न करेंगे? क्योंकि नष्ट कारण से कोई उत्पन्न नहीं हो सकता, अतएव जन्मान्तर में कर्मफल का मानना ठीक नहीं। अब इसका उत्तर देते हैः


सूत्र :प्राङ्निष्पत्तेर्वृक्षफलवत्तत्स्यात् II4/1/47

सूत्र संख्या :47


अर्थ : जिस फल की इच्छा से पहले किसान भूमि को जोतता, पानी देता और फिर बीत को बोता है और ये सब कर्म फलोत्पत्ति से पहले नष्ट हो जाते हैं। इनके नष्ट होने पर बीज मिट्टि और जल के परमाणुओं से बढ़ता रहता है और फिर कमशः पत्ते, डालियां, फूल और फल आते हैं। ऐसे ही प्रत्येक कर्म से धर्माऽधर्मरूप संस्कार उत्पन्न होते हैं। वादी फिर शंका करता है।:


सूत्र :नासन्न सन्न सदसत्सदसतोर्वैधर्म्यात् II4/1/48

सूत्र संख्या :48


अर्थ : उत्पत्ति से पहले कर्मों के फल को न तो सत् कहते हैं न असत् और न सदसत् ही कह सकते हैं, क्योंकि जो फल आगामी काल में होगा, उसको सत् इसलिए हीं कह सकते कि वह अब विद्यमान नहीं हैः जब विद्यमान नहीं है तो उसके लिए जो कर्म किये जायेंगे, उनमें और आगामी होने वाले फल में कार्य कारण भाव सम्बन्ध नहीं हो सकता। यदि उत्पत्ति से पहले कार्य असत् माने, तो ऐसा मानना ठीक नहीं, क्योंकि प्रत्येक का कारण उत्पत्ति से पूर्व विद्यमान होता है। यदि असत् दोनों मानें तो भी ठीक नहीं, क्योंकि एक पदार्थ में दो विरूद्ध धर्म रह नहीं सकते। तात्पर्य यह कि उत्पत्ति से पहले किसी वस्तु का अभाव नहीं हो सकता, यदि अभाव होता तो वह उत्पन्न क्यों कर होती। न भाव ही हो सकता है क्योंकि यदि उत्पत्ति से पूर्व उसका भाव होता तो फिर उत्पत्ति की आवश्यकताही न थी। सदसत् भी हो सकता क्योंकि इन दोनों का परस्पर विरोध है। अब इसका उत्तर देते हैं-


सूत्र :उत्पादव्ययदर्शनात् II4/1/49

सूत्र संख्या :49


अर्थ : जो पदार्थ उत्पन्न होता है, वह उत्पत्ति से पहले असत् होता है क्योंकि उसकी उत्पत्ति और विनाश देखा जाता है। यदि सत् होता तो उत्पत्ति और नाश हो नहीं सकता था और यह प्रत्यक्ष से भी सिद्ध होता है कि घड़ा पहले नहीं था, कुम्हार ने बनाया फिर टूट गया। असत् के ही उत्पत्ति ओर नाश होते हैं, सत् के नहीं। इसलिए उत्पत्ति से पूर्व प्रत्येक पदार्थ असत् है। इसी की पुष्टि करते हैः


सूत्र :बुद्धिसिद्धं तु तदसत् II4/1/50

सूत्र संख्या :50


अर्थ : बुद्धि और प्रमाण से कारण का नित होना और उससे कार्य का उत्पन्न होना सिद्ध होता है, इसलिए प्रत्येक पदार्थ कार्यरूप में आने से पहले इसत् है। प्रत्येक कारण में अपने अनुरूप ही कार्य उत्पन्न करने की शक्ति होती है। यदि उत्पत्ति से पहले भी उसका भाव माना जाये तो फिर उत्पत्ति का होना नहीं बन सकता। क्योंकि जुलाहा यह जान कर ही कपड़ा नहीं है, सूत से कपड़ा बनाता है, यदि बनने से पहले भी कपड़ा मौजूद हो तो फिर उसका बनाना कैसा? इसलिए सत् कारण से असत् कार्य की उत्पत्ति होती है। यही सिद्धांत ठीक है। वादी शंका करता हैः


सूत्र :आश्रयव्यतिरे-काद्वृक्षफलोत्पत्तिवदित्यहेतुः II4/1/51

सूत्र संख्या :51


अर्थ : जिस शरीर ने कर्म किया हैं, उसके नाश हो जाने पर फल की प्राप्ति किसको होगी? इसमें वृक्ष का जो दृष्टांत दिया गया है, वह ठीक नहीं, क्योंकि जल सींचना औश्र वृक्ष लाना ये दोनों बातें एक ही वुक्ष के आश्रित हैं, अर्थात् वृक्ष में पानी सींचा जाता है, वही कालान्तर में फल लाता है, परन्तु दृष्टांत में वह बात नहीं है, वहां जिस शरीर से कर्म किया जाता है,वह तो यही नष्ट हो जाता है, दूसरा शरीर उसके किये हुए कर्मों के फल को भोगता है, इसलिए आश्रयभेद होने से यह दृष्टांत ठीक नही।


सूत्र :प्रीतेरात्माश्रयत्वादप्रतिषेधः II4/1/52

सूत्र संख्या :52


अर्थ : कर्म जो धर्माऽधर्मभेद से दो प्रकार का है, इच्छा से सम्बन्ध रखता है और इच्छा आत्मा का गुण है शरीर तो केवल उनका अधिष्ठान मात्र है, इसलिए कर्म उसका फल ये दोनों आत्मा से ही सम्बन्ध रखते हैं, आत्मस दोनों शरीरों में एक ही रहता है, इसलिए वृक्ष का दृष्टांत सर्वथा उपयुक्त है। वादी पुनः शंका करता हैः


सूत्र :न पुत्रपशुस्त्रीपरिच्छदहिरण्यान्नादिफलनिर्देशात् II4/1/53

सूत्र संख्या :53


अर्थ : एक ही आश्रय में कर्म और कर्मफल के होने का नियम नहीं, क्योंकि स्तगी पुत्र आदि भी कर्मों का फल माने जाते हैं, और वे अपने आत्मा से भिन्न हैं अपना आत्मा आश्रय नहीं। इसलिए कर्म और फल इन दोनों को आश्रय एक नहीं, किन्तु भिन्न-भिन्न हैं, इसलिए वृक्ष का दृष्टांत अयुक्त है। इसका उत्तर देते है।


सूत्र :तत्सम्बन्धात्फलनिष्प-त्तेस्तेषु फलवदुपचारः II4/1/54

सूत्र संख्या :54


अर्थ : पुत्रादि के सम्बन्ध से सुखादि की उत्पत्ति होती है, इसलिए पुत्रादि में फल का उपचार माना गया हैं। जैसे उपनिषदों में अन्न को प्राण कहा गया है वास्तव में अन्न प्राण नहीं, किन्तु प्राण को पोशक होने से उसी का अन्न कहा गया हैं इसी प्रकार पुत्र सुख नहीं, किन्तु सुख का बढ़ाने वाला है, इसलिए उसमें फल का उपचार किया गया है। फल की परीक्षा समाप्त हुई। अब दुःख की परीक्षा की जाती हैः


सूत्र :विविधबाधनायोगाद्दुःखमेव जन्मोत्पत्तिः II4/1/55

सूत्र संख्या :55


अर्थ : शरीर का प्रकट होना जन्म है और शरीर तीन प्रकार के हैं (1) उत्तम (2) मध्यम (3) अधम। उत्तम शरीर देवताओं को होता है, मध्यम मनुष्यों का अधम असुरों का या तिर्यक जन्तुओं का। यद्यपि इनमें दुःख का तारतम्य है, अर्थात् देवताओं के शरीर में दुःख बहुत कम हैं, मनुष्यों में दुःख-सुख बराबर हैं, और अधम शरीरों में दुःख बहुत है, तथापि बांधना का योग होने से सब शरीर दुःखात्रांत है। तात्पर्य यह कि जन्म ही दुःख का कारण है। इस मूलोच्छेद बिना तत्त्वज्ञान के नहीं हो सकता। अब इस पर आक्षेप करते है।-


सूत्र :न सुखस्याप्यान्तरालनिष्पत्तेः II4/1/56

सूत्र संख्या :56


अर्थ : मनुष्य को इस जीवन में केवल दुख ही नहीं है, किन्तु उसमें सुख भी मिला हुआ है क्योंकि दुःख-सुख दोनों सापेक्ष्य हैं। दुःख के पश्चात् सुख अवश्य होता है और यदि दुःख न हो तो किसी को सुख का अनुभव ही हनीं हो सकता। अतएव सबको दुःख रूप बतलाना ठीक नहीं। अब इसका उत्तर नहीं।


सूत्र :बाधनानिर्वृत्तेर्वेदयतः पर्येषणदोषाद-प्रतिषेधः II4/1/57

सूत्र संख्या :57


अर्थ : सुखार्थी मनुष्य जो सुख प्रवृत्त होता है, वह पयषण दोध से सुख को प्राप्त नहीं कर कर सकता। क्योंकि प्रत्येक मनुष्य संसार में कुछ न कुछ दुःख अवश्य रखता है। चाहे अविद्या के मद में वह उसके प्रभाव को अनुभव न करे। जैसे कोई विक्षत पुरूष मद्य पीकर क्षत की पीड़ा को अनुभव न करे, परन्तु उसे दुःख से मुक्त नहीं कह सकते, ऐसे ही संसार के प्रत्येक सुख का परिणाम दुःख है।

व्याख्या :प्रश्न-पर्येषण दोष किसे कहते है? उत्तर-विषयों में अत्यन्त लिप्सा को पर्येषण दोष कहते हैं। जिस वस्तु के प्राप्त करने का यत्य किया जाता है, प्रथम तो वह प्राप्त नहीं होती, या प्राप्त होकर नाशहो जाती है और उसकी आशा में भी बहुत कुछ कष्ट उठाना पड़ता है और फिर आशा पूरी होकर भी तृप्ति या शांति नहीं होती। एक इच्छा पूरी होती है दूसरी ओर उत्पन्न हो जाती है। किसी को संसार का साम्राज्य भी मिल जावे, जब भी तब भी जब तक इच्छा है, उसको शान्ति नहीं होती, इसलिए राग दुःख का और केवल वैराग्य ही सुख का कारण है, इसी की पुष्टि करते हैं-


सूत्र :दुःखविकल्पे सुखाभिमानाच्च II4/1/58

सूत्र संख्या :58


अर्थ : यदि कोई कहे कि सुख को भी दुःख समझना ठीक नहीं। सुख के लिए प्रयत्न करते हुए यदि कोई दुःख उत्पन्न होगा तो उसका भी उपाय हो सकता है, यह बुद्धिमत्ता नहीं कि दुःख की आशंका में सुख को भी त्याग दिया जावे। इसका उत्तर यह कि अविद्या के कारण लोग दुःख को ही सुख समझ रहे हैं, जब दुःख के कारण अधिक इकट्ठे हो जाते हैं, तब उनका उपाय भी कठिन हो जाता है। इसलिए बुद्धिमान को पहले ही साकचना चाहिए कि हम जिसको सुख मान रहे हैं, वास्तव में उसका परिणाम हमारे लिए दुःख जनक है। जब तक मनुष्य विवेक के शास्त्र से ममता की फांसी नहीं काटता, तब तक उसके हृदय में वैराग्य उत्पन्न नहीं होता और वैराग्य के अभाव में कोई सच्चे सुख का अधिकारी नहीं हो सकता। दुःख की परीक्षा समाप्त हुई, अब अपवर्ग (मोक्ष) की परीक्षा की जाती है।


सूत्र :ऋणक्लेशप्रवृत्त्यनुबन्धा-दपवर्गाभावः II4/1/59

सूत्र संख्या :59


अर्थ : ऋण, क्लेश और प्रवृत्ति के लगाव से मोक्ष सिद्ध नहीं होता, प्रत्येक मनुष्य के ऊपर तीन ऋण होते हैं, (1) देव ऋण (2) ऋषि ऋण (3) पितृ ऋण जब तक मनुष्य इन तीनों ऋणों को नहीं चुका लेता, मोक्ष का अधिकारी नहीं हो सकता, यह शास्त्र की आज्ञा है। अपने अल्प जीवन में मनुष्य इन्ही ऋणों को नहीं चुका सकता, फिर उसे मोक्ष के लिए समय मिल सकता है। अविद्यादि क्लेशों के लगाव से भी मोक्ष की सम्भावना नहीं हो सकती क्योंकि मनुष्य यावज्जीवन क्लेशों में बन्धा हुआ रहता है मरणान्तर भी क्लेश संस्कारों के अनुबन्ध से जन्म लेता है, तब मोक्ष साधन के लिए समय कहां रहा? प्रवृत्ति यावज्जीवन मन, वाणी और शरीर से कुछ न कुछ कर्म करता हुआ धर्माऽधर्म का उपर्जन करता रहता है, फिर मोक्ष के लिए अवसर कहां ?


सूत्र :प्रधानशब्दानुपपत्तेर्गुणशब्देनानुवादो निन्दाप्रशंसोपपत्तेः II4/1/60

सूत्र संख्या :60


अर्थ : शास्त्र में जहां मनुष्य के ऊपर तीन ऋण बतलाये गये हैं, वहां ऋण शब्द का प्रयोग औपचारिक है। तात्पर्य यह है कि जैसे देव ऋण का चुकाना प्रत्येक मनुष्य का धर्म है, ऐसे ही ऋण के तुल्य देव, ऋषि और पितरों की पूजा करना भी प्रत्येक मनुष्य का धर्म है। इन कर्मों की आवश्यकता और प्रशंसा जतलाने के लिए यहां गौणिक ऋण शब्द से अनुवाद किया गया है। इसलिए वे लोग जी पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा इन तीनों एषणाओं से निवृत्त हो गए हैं, (चाहे वे किसी आश्रम में हों) इन तीनों ऋणों के लिए बाध्य नहीं हो सकते। ऐसे लोगों के लिए शास्त्र यह भी आज्ञा देता है कि जिस दिन उनको वैराग्य उत्पन्न हो मोक्ष के लिए यत्न करें। अतएव ऋण विधायक वाक्यां के अर्थ वारपरक होने से मोक्ष का अभाव नहीं हो सकता। फिर इसी की पुष्टि करते हैं-


सूत्र :समारोपणादात्मन्यप्रतिषेधः II4/1/61

सूत्र संख्या :61


अर्थ : प्रत्येक शास्त्र उसी बात का वर्णन करता है, जो उसका प्रतिपाद्य विषय है, दूसरे के प्रतिपाद्य में वह हस्तक्षेप नहीं करता। ब्राह्यण ग्रन्थ जिनमें अधिकतर यज्ञ का वर्णन है गृहस्थश्रम से सम्बन्ध रखते हैं। इसलिए उनमें विशेष कर गृहस्थ के धर्मों की ही वर्णन है, परन्तु वे अन्य आश्रम या उनके धर्मो का खण्डन नहीं करते। इसी प्रकार वेदान्त शास्त्र उपनिषदादि जो अधिकतर मोक्ष धर्मों का विधान करते हैं, वे गृहस्थादि आश्रम या उनके धर्मों के विरोधी नहीं अतएव गृहस्थ के अधिकार में ऋणादि का विधान से मोक्ष शास्त्र में कुछ बाधा नहीं पड़ती। फिर इसी अर्थ की पुष्टि करते हैं-


सूत्र :पात्रचयान्तानुपपत्तेश्च फलाभावः II4/1/62

सूत्र संख्या :62


अर्थ : सन्यासी के लिए आहवनीयादि तीनों अग्नियों के त्याग का श्रुति में उपदेश किया गया है अर्थात् सन्यासाश्रम में अग्निहोत्रादि नित्य कर्म के न करने से पाप नहीं होता। क्योंकि अग्निहोत्रादि कर्मों का फल स्वर्ग है, सन्यासी को स्वर्गफल की कामना नहीं होती। इसलिए जिस फल की इच्छा ही नहीं उसके लिए बीज बोने की क्या आवश्यकता है? अतएव वीतराग मुमुक्षु के लिए ऋणादि बन्धन की कोई आवश्यकता नहीं।

व्याख्या :प्रश्न- शास्त्र में यह जो कहा है कि बिना तीन ऋणों को चुकाये जो मोक्ष की आशा करता है, उसकी आशा कभी पूरी नहीं होती, इसकी क्या गति होगी? उत्तर-सर्व साधारण के लिए सांसारिक कामनाओं में अनुरक्त है, शास्त्र की यह आज्ञा है, परन्तु संसार से विरक्त हो गए हैं और तीनों एषणाओं का जिन्होंने त्याग कर दिया है, निदा स्तुति, मानापमान और हर्ष शोक आदि द्वन्द्व जिन पर अपना अच्छा या बुरा प्रभाव नहीं डाल सकते, ऐसे तत्त्वदर्शी और आत्मज्ञ लोगों के लिए शास्त्र में निमय का अपवाद भी मौजूद है। अतएव ऐसे लोगों के लिए ऋणादि का बन्धन नहीं हैः अब क्लेशानुबन्ध का उत्तर देते हैं-


सूत्र :सुषुप्तस्य स्वप्नादर्शने क्लेशाभाववदपवर्गः II4/1/63

सूत्र संख्या :63


अर्थ : जैसे गाढ़ निद्रा में सोये हुए पुरूष को इन्द्रिय और मन का विषयों के साथ सम्बन्ध न रहने से सुख दुःख का कुछ भी अनुभव नहीं होता। ऐसे ही मुक्तावस्था में केवल आनन्दस्वरूप ब्रह्य के साथसम्बन्ध होने से और गगानुबन्ध के टूट जाने से दुःख का अभाव हो जाता है। अतएव मोक्ष में जब क्लेश रहता ही नहीं, तब वह उसका बाधक कैसे हो सकता है। मोक्ष में प्रवृत्ति का बन्धन भी नहीं रहता, इसको अगले सूत्र में दिखाते हैं-


सूत्र :न प्रवृत्तिः प्रतिसंधानाय हीन-क्लेशस्य II4/1/64

सूत्र संख्या :64


अर्थ : राग, द्वेष और मोह ये तीन दोष क्लेश का कारण है। ये तीनों दोष जिसके निवृत्त हो जाते हैं, उसकी प्रवृत्ति बन्धन का कारण नहीं होती। प्रवृत्ति बन्धन का कारण वही होती है, जो राग से उत्पन्न होती है और जो निष्काम प्रवृत्ति है, वह कभी बन्धन का कारण नहीं हो सकती। अब इस पर शंका करते हैं-


सूत्र :न क्लेशसंततेः स्वाभाविकत्वात् II4/1/65

सूत्र संख्या :65


अर्थ : क्लेश सन्तति दुःखादि जीवात्मा के स्वाभाविक गुण है, फिर उनका नाश किस प्रकार हो सकता है? क्योंकि स्वाभाविक गुण का नाश नहीं होता, और जिसका नाश हो वह स्वाभाविक नहीं। इसका आंशिक समाधान करते हैं-


सूत्र :प्रागुत्पत्तेरभावानित्य-त्ववत्स्वाभाविकेऽप्यनित्यत्वम् II4/1/66

सूत्र संख्या :66


अर्थ : किसी पदार्थ की उत्पत्ति से पहले उसका अभाव अनित्य होता है, अर्थात् किसी वस्तु के उत्पन्न होने से पूर्व जो उसका अभाव है, उसकी उत्पत्ति को कोई कारण और समय नहीं। परन्तु उसका नाश उस वस्तु के उत्पन्न होने से हो जाता है, अर्थात् अब वह अभाव नहीं रहताः ऐसे ही क्लेशस्वाभाविक होने पर भी नाश हो सकता है। इससे मुक्ति का होना सम्भव है। वादी फिर कहता हैं-


सूत्र :अणुश्यामतानित्यत्ववद्वा II4/1/67

सूत्र संख्या :67


अर्थ : जैसे परमाणुओं में श्यामता स्वाभाविक है, किन्तु वह अग्नि के संयोग से नष्ट हो जाती है, ऐसे हो क्लेश सन्तति स्वाभविक होने पर भी अनित्य हो सकती है। इन दोनों हेतुओं को जो ऊपर के सूत्रों में दिए गए हैं और जिनमें स्वाभाविक गुण का नाश माना गया है, अपर्याप्त समझकर सूत्रकार अब अपना मत प्रकाश करते हैं-


सूत्र :न संक-ल्पनिमित्तत्वाच्च रागादीनाम् II4/1/68

सूत्र संख्या :68


अर्थ : रागादि आत्मा के स्वाभाविक गुण नहीं है, क्योंकि इनकी उत्पत्ति का कारण संकल्प है। तत्वज्ञान के होने पर जब सारे संकल्प और विकल्प निवृत्त हो जाते हैं, तब कारण के अभाव में रागादि कार्य उत्पन्न नहीं हो सकते। इसलिए रागादि का प्रभाव से अनादि होना तो सम्भव है, परन्तु स्वरूप से ये अनादि कभी नहीं हो सकते। अतएव ऋण, क्लेश और प्रवृत्ति ये तीनों मोक्ष के बाधक नहीं हो सकते। चतुर्थाध्यायस्य प्रथमममान्हिकं समाप्तम्।



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