सूत्र :विमुक्तमोक्षार्थं स्वार्थं वा प्रधानस्य II2/1
सूत्र संख्या :1
अर्थ : शास्त्र का तो विषय निरूपण कर चुके, अब पुरूष का अपरिणामित्व ठहराने वास्ते प्रकृति से सृष्टि का होना विस्तार से द्वितीय अध्याय में कहेंगे और इस दूसरे अध्याय में प्रधान के जो कार्य हैं उनके स्वरूप को भी विस्तार से कहना है, क्योंकि प्रकृति के कार्यों से पुरूष का ज्ञान अच्छी तरह से होता है। कारण यह है कि प्रकृति के कार्यों के बिना ज्ञान हुए मुक्ति किसी प्रकार नहीं हो सकती, अर्थात् जब तक पुरूष, प्रकृति और प्रकृति के कार्य, इन तीनों का अच्छी तरह ज्ञान नहीं हो सकता तब तक मुक्ति भी नहीं होगी, किन्तु उनके जानने ही से मुक्ति होती है। प्रश्न- अपरिणामित्व किसको कहते हैं? उत्तर- जो परिणाम को प्राप्त न हो। यदि अचेतन प्रकृति निष्प्रयोजन सृष्टि को अत्पन्न करती है, तो मुक्त को बन्ध की प्राप्ति हो सकती है। इस आशय को विचार करके सृष्टि के उत्पन्न होने का प्रयोजन इस सूत्र में कहते हैं। अर्थ- पुरूष में जो अहंकार के सम्बन्ध से दुःख मालूम पड़ता है, उसकी मुक्ति के वास्ते अथवा स्वार्थ अर्थात् पुरूष के सम्बन्ध से जो मन आदि को दुःख होते हैं, उनके दूर करने के लिए प्रधान अर्थात् प्रकृति का कर्तृत्व है और इस सूत्र में कर्तृत्व शब्द पहिले सूत्र से लाया गया है। प्रश्न- यदि मोक्ष के वास्ते ही सृष्टि होती है, तो एक बार की ही सृष्टि से सब पुरूषों को मोक्ष हो जाता, बारम्बार सृष्टि के होने का क्या कारण है?
सूत्र :विरक्तस्य तत्सिद्धेः II2/2
सूत्र संख्या :2
अर्थ : एक बार की सृष्टि से मोक्ष नहीं होता, किन्तु बहुत से जन्म, मरण, व्याधि आदि नाना प्रकार के दुःखों से उत्यन्त तप्त (दुःखित) होने पर जब प्रकृति पुरूष का ज्ञान पैदा होता है तब वैराग्य द्वारा मोक्ष होता है और वह वैराग्य एक बार की सृष्टि से आज तक किसी को उत्पन्न नहीं हुआ। इसमें सूत्र प्रमाण है-
सूत्र :न श्रवणमात्रात्तत्सिद्धिरनादिवासनाया बलवत्त्वात् II2/3
सूत्र संख्या :3
अर्थ : मुक्ति श्रवणमात्र से भी हो सकती। यद्यपि श्रवण भी बहुत जन्मों के पुण्यों में होता है तथापि श्रवणमात्र से वैराग्य की सिद्धि भी नहीं होती है, किंतु विवेक के साक्षात्कार से मुक्ति होती है और साक्षात्कार शीघ्र नहीं होता। अनादि मिथ्यावासना के बलवान होने से और उस वासना के रहते हुए पुरूष मुक्त नहीं हो सकता, किन्तु योग से जो विवेक साक्षात्कार होता है, उसके द्वारा मुक्त होता है और इस योग में सैकड़ों विघ्न पैदा हो जाते हैं। इस कारण यह योग भी बहुत जन्मों में सिद्ध होता हैं इस कारण जन्मान्तर में वैराग्य को प्राप्त होकर किसी समय में कोई-कोई पुरूष मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं, किन्तु सब मोक्ष को नहीं प्राप्त होते। प्रश्न- सृष्टि का प्रवाह (जन्म, मरण आदि) किस तरह चल रहा है?
सूत्र :बहुभृत्यवद्वा प्रत्येकम् II2/4
सूत्र संख्या :4
अर्थ : जैसे एक गृहस्थ से सैकड़ों नौकर बाल, वृद्ध, स्त्री, पुरूष आदि का क्रम से भरण-पोषण होता है, इसी प्रकार प्रकृति के सत्वादि गुण प्रत्येक सैकड़ों पुरूषों को क्रम से मुक्त कर देते हैं, इस वास्ते कोई कोई मुक्त हो भी जाते हैं, लेकिन और जो बाकी मनुष्य हैं उनकी मुक्ति के वास्ते सृष्टिप्रवाह की आवश्यकता है, क्योंकि पुरूष अनन्त हैं। प्रश्न- प्रकृति सृष्टि की कारण है, इसमें क्या हेतु है? क्योंकि पुरूष को ही कारण सब मानते हैं?
सूत्र :प्रकृतिवास्तवे च पुरुषस्याध्याससिद्धिः II2/5
सूत्र संख्या :5
अर्थ : यद्यपि वास्तव में (निस्सन्देह) प्रकृति ही सृष्टि का कारण है तथापि सृष्टि के करने में पुरूष को अध्याय सिद्धि है।
सूत्र :कार्यतस्तत्सिद्धेः II2/6
सूत्र संख्या :6
अर्थ : कार्यों के देखते ही से प्रकृति के वास्तविक कारणत्व की सिद्धि हो सकती है, क्योंकि वह सृष्टिरूपी कार्य प्रकृति के सिवाय और किसका हो सकता है? यदि पुरूष का कहें तो पुरूष में परिणामित्व की प्राप्ति आती है, और यदि प्रकृति का न कहें तो किसका-यह सन्देह पैदा होता है? इस कारण प्रकृति ही को वास्तव में कारणत्व है और जो सृष्टि के अनित्यत्व में स्वप्न का दृष्टान्त देते हैं, सो भी ठीक नहीं, क्योंकि स्वप्न भी अपनी सवस्था में सत्य ही होता है। इस कारण सृष्टि नित्य है, और उसका कारण भी नित्य है। प्रश्न- प्रकृति अपने मोक्ष के वास्ते सृष्टि करने में क्यों तैयार होती है?
सूत्र :चेतनोद्देशा-न्नियमः कण्टकमोक्षवत् II2/7
सूत्र संख्या :7
अर्थ : विवेकी पुरूष के लिए प्रकृति का यह नियम है कि प्रकृति विवेकी पुरूष के द्वारा अपना मोक्ष करे जैसे- ज्ञानवान पुरूष बड़ी बुद्धिमानी के साथ कांटे से कांटे को निकालता है, उसका ही सहारा और अज्ञानी मनुष्य भी लेते है, इस तरह से प्रकृति को भी जानना चाहिए। प्रश्न- पुरूष में कारणत्व का होना गिनने ही मात्र कहा है सो ठीक नहीं है, क्योंकि प्रकृति के मेल से पुरूष भी महदादिकों के परिणाम को धारण कर लेता है, जैसे-काठ जमीन के ही समान हो जाती है, उसी तरह पुरूष को भी होना चाहिए?
सूत्र :अन्ययोगेऽपि तत्सिद्धिर्नाञ्जस्येनायोदाहवत् II2/8
सूत्र संख्या :8
अर्थ : प्रकृति के साथ पुरूष का योग होने पर भी पुरूष वास्तव में सृष्टि का कारण नहीं हो सकता, यह प्रत्यक्ष ही है जैसे-लोहे और अग्नि के संयोग होने पर लोहा अग्नि नहीं हो सकता। यद्यपि इस दृष्टांत से दोनों में परिणामित्व हो सकता है, क्योंकि अग्नि और लोहे ने अपनी पहली अवस्था को छोड़ दिया है, तो भी एक ही परिणामी होना चाहिए, क्योंकि दोनों का परिणामा होने से गौरव होता है, और जो दोनों ही परिणामी माना जाए तो स्फटिकमणि में लाल या पीले रंग की परछांई पड़ने से जो उसमें लाली वा पीलापन आता है वो वास्तविक मानना पड़ेगा, लेकिन वैसा माना नहीं जाता? प्रश्न- सृष्टि का मुख्य निमित्तकारण क्या है?
सूत्र :रागविरागयोर्योगः सृष्टिः II2/9
सूत्र संख्या :9
अर्थ : जिसमें राग और विराग इन तीनों का योग हो, उसे सृष्टि कहते हैं। इन दोनों का योग होना ही सृष्टि करने का निमित्त कारण है। प्रश्न- सृष्टि प्रक्रिया किस तरह होती है?
सूत्र :महदादिक्रमेण पञ्चभूतानाम् II2/10
सूत्र संख्या :10
अर्थ : महत्वादि को से आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी यह पंचभूत पैदा हुए। यद्यपि प्रकृति का सृष्टित्व अपनी मुक्ति के वास्ते है क्योंकि वह प्रकृति नित्य है किंतु महादादिकों का अपने-अपने विकार का सृष्टित्व अपनी मुक्ति के वास्ते नहीं हो सकता, क्योंकि अनित्य है। अतएव महादादिकों का सृष्टित्व पराये वास्ते है और भी प्रमाण हैं।
सूत्र :आत्मार्थत्वा-त्सृष्टेर्नैषामात्मार्थ आरम्भः II2/11
सूत्र संख्या :11
अर्थ : इन महदादिकों का कारणत्व पुरूष के मोक्ष के वास्ते है, किन्तु अपने वास्ते नहीं है, क्योंकि महादादि विनाशी है अर्थात् नाश वाले हैं। प्रश्न- यदि महादादिकों के कारणत्व पराए वास्ते हैं, तो प्रकृति के वास्ते होने चाहिए। पुरूष के वास्ते क्यों हैं? उत्तर- महादादिक प्रकृति के ही कार्य हैं, इस कारण ‘पर’ शब्द से पुरूष का ही ग्रहण होगा। प्रश्न-दिशा और काल की सृष्टि किस प्रकार से हुई?
सूत्र :दिक्कालावाकाशादिभ्यः II2/12
सूत्र संख्या :12
अर्थ : दिशा और काल यह दोनों आकाश से उत्पन्न हुए, इस कारण यह दोनों आकाश के समान नित्य हैं, अर्थात् आकाश में जो व्यापकता है, वह व्यापकता इन दोनों में भी है, इस कारण यह दोनों नित्य हैं और जो खण्ड दिशा और काल हैं, सो उपाधियों के मेल से आकाश से उत्पन्न होते है, वे अनित्य होते हैं। अब बुद्धि का स्वरूप और धर्मं दिखाते हैं।
सूत्र :अध्यवसायो बुद्धिः II2/13
सूत्र संख्या :13
अर्थ : निश्चयात्मक ज्ञान का नाम बुद्धि है, और अध्यवसाय नाम निश्चय का है, उस निश्चय को ही बुद्धि कहते हैं।
सूत्र :तत्कार्यं धर्मादिः II2/14
सूत्र संख्या :14
अर्थ : उस बुद्धि के कार्य धर्मादिक हैं। तो मूर्ख पुरूषें की बुद्धि में ज्ञानादि निन्दित क्यों प्रबल (बलवान) होते हैं?
सूत्र :महदुपरागाद्विपरीतम् II2/15
सूत्र संख्या :15
अर्थ : मन के संयोग होने यदि मन में मिथ्याज्ञान के संस्कार हैं तों धर्मादिक विपरीत हो जाते हैं, अर्थात् अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य, अनैश्वर्य यह सब विपरीत हो जाते हैं। अब महत्व के कार्य अहंकार को दिखाते हैं।
सूत्र :अभिमानोऽहंकारः II2/16
सूत्र संख्या :16
अर्थ : अहं करने वाले को अहंकार कहते हैं, जैसे-कुम्हार को कुम्भकार कहते हैं, और यह अहंकार शब्द अन्तःकरण का नाम है। अहंकार और अभिमान यह दोनों एक ही वस्तु के नाम हैं। अब अहंकार का कार्य दिखाते हैं।
सूत्र :एकादशपञ्चतन्मात्रं तत्कार्यम् II2/17
सूत्र संख्या :17
अर्थ : नेत्र आदि को लेकर १० इन्द्रियां, शब्द आदि को लेकर पंच-तन्मात्रा, सब अहंकार के कार्य हैं।
सूत्र :सात्त्विकमेकादशकं प्रवर्तते वैकृतादहंकारात् II2/18
सूत्र संख्या :18
अर्थ : विकार को प्राप्त हुए अहंकार से साहित्वक मन होता है, और यह भी समझना चाहिए कि रजोगुण वाले अहंकार से केवल दश इन्द्रियां और तमोगुण वाले अहंकार से पंचतन्मात्रा होती है, और मन सत्वगुण से होता है, इस कारण उनसे ही ग्यारह इन्द्रियां दिखाते हैं।
सूत्र :कर्मेन्द्रियबुद्धीन्द्रियैरान्तरमेकादशकम् II2/19
सूत्र संख्या :19
अर्थ : वाणी, हाथ, पांव, गुदा, उपस्थ (मूत्रस्थान) यह कर्मेनिद्रय कहलाती हैं। नेत्र, कान, त्वचा रसना, प्राण (नाक) यह पांचों ज्ञानेन्द्रिय कहलाती हैं। प्रश्न- इन्द्रियों की उत्पत्ति पंचभूतों से है?
सूत्र :आहङ्कारि-कत्वश्रुतेर्न भौतिकानि II2/20
सूत्र संख्या :20
अर्थ : बहुत-सी श्रुतियां ऐसी देखने में आती हैं, जो अहंकार से ही इन्द्रियों की उत्पत्ति को कहती हैं, जैसे- (एकोऽहं बहुस्याम्) एक मैं बहुत रूपों को धारण करता हूं इत्यादि। इस कारण आकाशादि पंचभूतों से इन्द्रियों की उत्पत्ति कहना ठीक नहीं। प्रश्न- ‘‘अग्नि वागप्येति त्रातं प्राणः’’ अग्नि में वाणी लय होती है, और पवन में प्राण लय होता है। जबकि अग्नि इत्यादि में श्रुतियां कहती हैं कि अग्नि में वाणी लय हो जाती है और वायु में प्राण-लय हो जाता है, तो उत्पत्ति भी इनसे क्यों न मानी जाय?
सूत्र :देवतालयश्रुतिर्नारम्भकस्य II2/21
सूत्र संख्या :21
अर्थ : अग्नि आदि श्रेष्ठ गुण से युक्त पदार्थों में लय दीखता है, लेकिन उत्पत्ति नहीं दीखती और यह कोई नियम भी नही है कि जो जिसमें लय हो वह उससे ही उत्पन्न भी हो, जैसे, जल की बूंद पृथिवी में लय हो जाती है, लेकिन उत्पन्न नहीं होती। इस कारण इन्द्रियों की उत्पत्ति ही से है किंतु पंचभूतों से नहीं है। प्रश्न- इन्द्रियों से सम्बन्ध रखने वाला मन नित्य है वा अनित्य?
सूत्र :तदुत्पत्तिश्रुतेर्वि-नाशदर्शनाच्च II2/22
सूत्र संख्या :22
अर्थ : नित्य नहीं है, किंतु अनित्य है, क्योंकि ‘‘एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेनिद्रयाणि च’’ इससे ही सब इन्द्रियां और मन पैदा होते हैं, इत्यादि श्रुतियों से सिद्ध है कि मन का नाश भी देखने में आता हैं, क्योंकि बुढ़ापे में चक्षु (तेज) इन्द्रियों की तरह नाश भी होता है। इससे मन नित्य नहीं है। प्रश्न- नासिक आदि इन्द्रियों के गोलक चिन्हों को ही इन्द्रिय माना है?
सूत्र :अतीन्द्रियमिन्द्रियं भ्रान्तानामधिष्ठाने II2/23
सूत्र संख्या :23
अर्थ : हां! भ्रान्त मनुष्यों की बुद्धि ने गोलक का नाम इन्द्रिय माना है, लेकिन इन्द्रियां तो अतीन्द्रिय हैं अर्थात् इन्द्रियों से इन्द्रियों का ज्ञान नहीं होता। प्रश्न- इन्द्रिय एक ही है, उसकी ही अनेक शक्तियां अनेक विलक्षण काम करती रहती हैं।
सूत्र :शक्तिभेदेऽपि भेदसिद्धौ नैकत्वम् II2/24
सूत्र संख्या :24
अर्थ : एक इन्द्रिय की भी अनेक शक्तियों के मानने से इन्द्रियों का भेद सिद्ध हो गया, क्योंकि उन शक्तियों में ही इन्द्रित्व का स्थापन हो सकता है। प्रश्न- एक अहंकार से अनेक प्रकार की इन्द्रियों की उत्पत्ति होना यह बात तो न्याय के विरूद्ध है, क्योंकि एक वस्तु से एक ही वस्तु उत्पन्न होनी चाहिए?
सूत्र :न कल्पनाविरोधः प्रमाणदृष्टस्य II2/25
सूत्र संख्या :25
अर्थ : जो वस्तु प्रमाण ही से सिद्ध है, उसके विरूद्ध कल्पना करना न्याय के विरूद्ध है, क्योंकि महादादिकों में जो गुण दीखते है वे महदादिकों के कार्यों में भी दीखते हैं। इस प्रकार प्रत्यक्षादि प्रमाणों से जो सिद्ध है वह न्याय के विरूद्ध नहीं हो सकता। कारण वास्तव में तो मन एक ही है, लेकिन उस कारण की शक्तियों के भेद से दस इन्द्रियां अपने-अपने कार्य करने में तत्पर रहती है और इस ही बात को अगला सूत्र भी पुष्ट करता है।
सूत्र :उभयात्मकं मनः II2/26
सूत्र संख्या :26
अर्थ : पांच ज्ञानेन्द्रियां और पांच कर्मेन्द्रियां-इन दसों इन्द्रियों से मन का सम्बन्ध है, अर्थात् मन के बिना कोई भी इन्द्रिय अपने किसी काम के करने में नहीं लग सकती। अब इस कहे हुए सूत्र में विस्तार से कहते हैं।
सूत्र :गुणपरिणामभेदान्नानात्वमवस्थावत् II2/27
सूत्र संख्या :27
अर्थ : गुणों के परिणाम भेद से एक मन की अनेक शक्तियां इस तरह होती हैं, जैसे- मनुष्य जैसी संगति में बैठेगा उसके वैसे ही गुण हो जायेंगे, यथा, कामिनी स्त्री की संगति से कामी और वैराग्यशील वाले के साथ वैराग्यशील वाला हो जाता है। इस ही तरह मन भी नेत्र आदि को लेकर जिस इन्द्रिय से संगति करता है, उसी इन्द्रिय से मन का मेल हो जाता है। अब ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय इन दोनों के विषय में कहते हैं।
सूत्र :रूपादिरसमलान्त उभयोः II2/28
सूत्र संख्या :28
अर्थ : रूप को आदि लेकर और मल त्याग पर्यन्त ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय के विषय हैं, जैसे नेत्र का रूप, जिह्वा का रस, नाक का गन्ध, त्वचा का स्पर्श कान का शब्द, मुख का वचन, हाथ का पकड़ना पैरों का चलना, लिंग का पेशाब करना, गुदा का विष्ठा करना- यह दशों विषय भिन्न-भिन्न हैं और जिसका आश्रय लेकर यह इन्द्रिय संज्ञा को प्राप्त विषय होती है उस हेतु को भी कहते हैं।
सूत्र :द्रष्टृत्वादिरात्मनः करणत्वमिन्द्रियाणाम् II2/29
सूत्र संख्या :29
अर्थ : इन्द्रियों का करणत्व आत्मा है अर्थात् जो-जो इन्द्रियां अपने-अपने काम करने में लगती हैं, वे आत्मा के समीप होने से कर सकती है इससे आत्मा को परिणामित्व की प्राप्ति नहीं हो सकती, जैसे चुम्बक पत्थर के संसर्गं से लोहे खिंच आता है ऐसे ही आत्मा के संसर्गं से नेत्र आदि इन्द्रियों में देखने आदि की शक्ति हो जाती है। अब अन्तःकरण की वृत्तियों को भी कहते हैं।
सूत्र :त्रयाणां स्वालक्षण्यम् II2/30
सूत्र संख्या :30
अर्थ : मन की ती वृत्तियां जो चित्त, अहंकार और बुद्धि हैं, उनका पृथक्-पृथक् लक्षण विदित होता है। अभिमान के समय अहंकार, विचार के समय चित्त और ज्ञान के समय बुद्धि स्वतः विदित होती है।
सूत्र :सामान्यकरणवृत्तिः प्राणाद्या वायवः पञ्च II2/31
सूत्र संख्या :31
अर्थ : प्राण वायु आदि को लेकर समान प्रयन्त जो पांच वायु हैं यह अन्तःकरण की साधारण वृत्ति कहलाते हैं अर्थात् जो वायु हृदय में रहता है, उसका नाम प्राण है, और जो गुदा में रहता है, उसका नाम अपान है, और जो कण्ठ में रहता है, उसका नाम उदान है, जो नाभि में रहता है, उसका नाम समान है, और जो सारे शरीर में रहता है उसका नाम व्यान वायु है यह सब अन्तःकरण के परिणामी भेद हैं, और जो बहुत से प्राण और वायु को एक मानते हैं उनका मानना इस सबब से अयोग्य है कि ‘‘एतस्माज्जायते प्राणः मनः सर्वेन्द्रियाणि च। खं वायुज्र्यातिरापश्य पृथ्वी विश्वस्य धारिणी’’ इसमें प्राण और वायु को भिन्न-भिन्न माना है। अब आचार्य अपने सिद्धान्त का प्रकाश करते हैं, जैसे कई पुरूष इन्द्रियों की वृत्ति क्रम से (एक समय में एक ही इन्द्रिय काम करेगी) मानते हैं, उसको अयुक्त सिद्ध करते हैं।
सूत्र :क्रमशोऽक्रमशश्चेन्द्रियवृत्तिः II2/32
सूत्र संख्या :32
अर्थ : इन्द्रियों की वृत्ति क्रम से भी होती है और बिना क्रम के भी होती है, क्योंकि संसार में दीखता है कि एक आदमी जब पानी पीने में तत्पर होता है, तब वह देखता भी है। प्रश्न- क्या न्याय ने जो एक ही इन्द्रिय के ज्ञान होना लिखा है, वह ठीक नहीं? उत्तर- एक काल में दों ज्ञानेन्द्रियां काम नहीं करतीं, परन्तु एक कर्मेन्द्रिय और एक ज्ञानकन्द्रिय साथ-साथ काम कर सकती हैं। मन की वृत्तियां ही संसार का निदान है, अर्थात् जन्म-मरण आदि सब मन की वृत्तियों से ही होते हैं, इसको ही कहते भी हैं-
सूत्र :वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः II2/33
सूत्र संख्या :33
अर्थ : प्रमाण (प्रत्यक्ष आदि), विपर्यय (झूठा ज्ञान), विकल्प (सन्देह), नींद, स्मृति (याद होना), यह पांच मन की वृत्तियां हैं, और इनसे ही सुख दुःख उत्पन्न होता है। जब मन की वृत्तियां निवृत्त हो जाती हैं तब पुरूष के स्वरूप में स्थित हो जाती हैं। इस बात को इस आगे के सूत्र में सिद्ध करते हैं।
सूत्र :तन्निवृत्तावुपशान्तोपरागः स्वस्थः II2/34
सूत्र संख्या :34
अर्थ : मन की वृत्तियों में निवृत्त होने पर पुरूष का उपराग शान्त हो जाता है, और पुरूष स्वस्थ हो जाता है। यही बात योग सूत्र में भी कही गई है कि जब चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाता है तब पुरूष अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। पुरूष का स्वस्थ होना यही है, कि उसके उपाधिरूप प्रतिबिम्ब का निवृत्त हो जाना, इसको ही दृष्टाँत से भी सिद्ध करते हैं।
सूत्र :कुसुमवच्च मणिः II2/35
सूत्र संख्या :35
अर्थ : जैसे स्फटिक मणि में काले, पीले इत्यादि फलों की परछाई पड़ने से काले, पीले रंग वाली वह स्फटिक मणि मालूम पड़ने लगती हैं, और जब उन काले पीले फूलों को मणि के साथ से भिन्न कर देते हैं तब वह मणि स्वच्छ प्रत्यक्ष रह जाती है। इस ही तरह मन की वृत्तियों के दूर होने पर पुरूष राग रहित और स्वस्थ हो जाता है। प्रश्न- यह इन्द्रियां किसके प्रयत्न से अपने-अपने कार्यो के करने में लगी रहती है, क्योंकि पुरूष तो निर्विकार है और ईश्वर से इन्द्रियों का कोई भी सम्बन्ध नहीं है?
सूत्र :पुरुषार्थं करणोद्भवोऽप्यदृष्ठोल्लासात् II2/36
सूत्र संख्या :36
अर्थ : पुरूष के वास्ते इन्द्रियों की प्रवृत्ति भी उसी काम के वश से है, जो पहिले प्रकृति को कह आये हैं, और इसका दृष्टान्त भी ३५ वें सूत्र में दे चुके हैं, कि संयोग से जैसे एक का गुण दूसरे में मालुम होता है उसी प्रकार प्रकृति का कर्म पुरूष संयोग से है, वही इन्द्रियों की प्रवृत्ति में हेतु है। इस सूत्र में ‘अपि’ शब्द से पूर्व कही हुई प्रकृति की याद दिलाकर पुरूष को कर्म से कुछ अंश में मुक्त किया है और फिर भी इसी पक्ष को पुष्ट करने के वास्ते दृष्टान्त देंगे। दूसरे के वास्ते भी अपने आप प्रवृत्ति होती है, इसमें दृष्टान्त भी देते हैं।
सूत्र :धेनुव-द्वत्साय II2/37
सूत्र संख्या :37
अर्थ : जैसे कि बछड़े के वास्ते गौ स्वयं दूध उतार देती है, दूसरे की कुछ भी आवश्यकता नहीं रखती इसी प्रकार अपने स्वामी के वास्ते इन्द्रियों की प्रवृत्ति स्वयं होती है। प्रश्न- भीतर और बाहर की सब इन्द्रियां कितनी हैं?
सूत्र :करणं त्रयोदशविधमवान्तरभेदात् II2/38
सूत्र संख्या :38
अर्थ : अवान्तर भेद से इन्द्रियां तेरह तरह की हैं-पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियां एक बुद्धि, मन और अहंकार, इन भेदों के होने से।
सूत्र :इन्द्रियेषु साधकतमत्व-गुणयोगात्कुठारवत् II2/39
सूत्र संख्या :39
अर्थ : जैसे कि पेड़ के काटने में चोट का मारना मुख्य कारण है और उसके काटने का मुख्य साधन कुल्हाड़ा है, इस ही प्रकार इन्द्रियों को करणत्व और मन को साधकत्व का योग है। प्रश्न- जबकि अहंकार भी इन्द्रिय माना गया है तो मन ही मुख्य कारण है, ऐसा कहना अयोग्य है?
सूत्र :द्वयोः प्रधानं मनो लोकवद्भृत्यवर्गेषु II2/40
सूत्र संख्या :40
अर्थ : बाह्य और आभ्यन्तर इन बारह प्रकार के भेद वाली इन्द्रियों में मन ही प्रधान है, क्योंकि संसार में यही बात दीखती है जैसे राजा के बहुत से नौकर-चाकर होते हैं, तथापि उन सबके बीच में एक मन्त्री ही होता है। छोटे-छोटे नौकर और जमींदार आदि सैकड़ों होते हैं, इसी तरह केवल मन प्रधान है और सब इन्द्रियां गौण हैं, और भी मन की प्रधानता को इन तीन सूत्रों से पुष्टि पहुंचती है।
सूत्र :अव्यभि-चारात् II2/41
सूत्र संख्या :41
अर्थ : यद्यपि मन सब इन्द्रियों में व्यापक है तथापि अपने कार्य में उस मन का अव्यभिचार (निश्चय दिखाई पड़ता है)।
सूत्र :तथाशेषसंस्काराधारत्वात् II2/42
सूत्र संख्या :42
अर्थ : जितने भी संस्कार हैं सबको मन ही धारण करता है यदि नेत्र आदि अहंकार अथवा मन इनका ही प्रधान मानें तो अन्धे, बहरे इत्यादिकों को स्मरण की शक्ति न होना चाहिए, लेकिन देखने में आता है कि उन लोगों की स्मरण शक्ति अच्छी होती है, और तत्व-ज्ञान के समय में अहंकार का लय भी हो जाता है, तो स्मरण- शक्ति नष्ट नहीं होती जो कि स्वभाविक बुद्धि का धर्म है।
सूत्र :स्मृत्यानुमानाच्च II2/43
सूत्र संख्या :43
अर्थ : स्मृति का अनुमान बुद्धि से ही होता है, क्योंकि चिन्ता वृत्ति (ध्यान की एक अवस्था) सब अवस्थाओं से श्रेष्ठ है और इस सूत्र से यह भी मालूम होता है, कि कपिलाचार्य बुद्धि और चित्त को एक ही मानते हैं, और मतवादियों की तरह मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, इन चारों को अन्तःकरण चतुष्टय नहीं मानते हैं। प्रश्न- चित्तावृत्ति पुरूष की ही होनी चाहियें?
सूत्र :सम्भवेन्न स्वतः II2/44
सूत्र संख्या :44
अर्थ : अपने आप पुरूष को स्मृति नहीं हो सकती, क्योंकि पुरूष कूटस्थ है। प्रश्न- जबकि मन को करण माना है, तो और इन्द्रियों से क्या प्रयोजन है। उत्तर- बिना नेत्रादि इन्द्रियों के मन अपना कोई भी काम नहीं कर सकता। यदि नेत्रादि इन्द्रियों का काम कर सकता है, तो आदमी को भी देखने की शक्ति होनी चाहिए। क्योंकि मन तो उसके भी हो होता है। परन्तु संसार में ऐसा देखने में नहीं आता, इससे प्रत्यक्ष सिद्ध होता है कि मन मुख्य है और सब इन्द्रियां गौण है। प्रश्न- जबकि मन को ही मुख्य माना है तो पहिले सूत्र में मन को उभयात्मक क्यों माना है?
सूत्र :आपेक्षिको गुणप्रधानभावः क्रियाविशेषात् II2/45
सूत्र संख्या :45
अर्थ : क्रिया के कमती-बढ़ती होने से गुणों का भी प्रधान भाव एक दूसरे की अपेक्षा से होना है, जैसे-नेत्र आदि के व्यापार में अहंकार के व्यापार में मन प्रधान है। प्रश्न- इस पुरूष की मन इन्द्रिय ही मुख्य है अर्थात् अन्य इन्द्रियां गौण है?
सूत्र :तत्कर्मार्जितत्वा-त्तदर्थमभिचेष्टा लोकवत् II2/46
सूत्र संख्या :46
अर्थ : जबकि संसार में दीखता है कि जो आदमी कुल्हाड़ी को खरीदता है, उस कुल्हाड़ी के व्यापार से खरीदने वाले को फल भी होता है, इस प्रकार मन भी पुरूष के कर्मों से पैदा होता है अतएव मन आदि का फल पुरूष को मिलता है। इस कारण मनुष्य की मन इन्द्रिय ही मुख्य है। यह समाधान पहले भी आये हैं कि पुरूष कर्म से रहित है लेकिन पुरूष में कर्म का आरोपण होता है। दृष्टांत भी इस विषय का दे चुके हैं जैसे-राजा के सेवक इत्यादि युद्ध कर और हार-जीत राजा की गिनी जाती है इस प्रकार ही पुरूष में कर्म का आरोपण होता है।
सूत्र :समानकर्मयोगे बुद्धेः प्राधान्यं लोकवल्लोकवत् II2/47
सूत्र संख्या :47
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यद्यपि सब इन्द्रियों के साथ पुरूष का समान कर्मयोग है, तथापि बुद्धि ही मुख्यता है जैसे-राज्य के रहने वाले चांडाल आदि से द्विजाति पर्यन्त सब ही लोग राजा की प्रजा हैं तथापि जमींदार से मुख्य मन्त्री ही गिना जाता है। इस दृष्टान्त को संसार परम्परा के समान यहां समझ लेना चाहिए। प्रश्न- लोकवत् वह शब्द दुबारा क्यों कहा? उत्तर- यह दुबारा का कहना अध्याय की समाप्ति दिखाता है। प्रश्न- इस अध्याय में कितने विषय कहे गये हैं? उत्तर- प्रकृति का कार्य, प्रकृति की सूक्ष्मता, दो प्रकार की इन्द्रियां, अन्तःकरण आदि का वर्ण है इतने विषय कहे गये हैं। ।। इति सांख्यदर्शंने द्वितीयोऽध्यायः समाप्तः ।।
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