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सांख्यदर्शन कपिल मुनी कृत अध्याय 1 भाष्याकार स्वामी दर्शनानंद सरस्वती






 सांख्यदर्शन कपिलमुनी कृत 


सूत्र :अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः II1/1

सूत्र संख्या :1


अर्थ : तीन प्रकार के दुःखों का अत्यन्ताभाव हो जाना प्राणी मात्र का मुख्य उद्देश्य है।


सूत्र :न दृष्टात्तत्सिद्धिर्निवृत्तेरप्य-नुवृत्तिदर्शनात् II1/2

सूत्र संख्या :2


अर्थ : दष्ट पदार्थों अर्थात् औषधादि द्वारा दुःख का अत्यन्ताभाव हो जाना सम्भव नही, क्योकि जिस पदार्थ के संयोग से दुःख दूर होता है, असके वियोग से वही दुःख फिर उपस्थित हो जाता है, जैसे अग्नि के निकट बैठने या कपड़े के संसर्ग से शीत दूर हो जाता है, और अग्नि या कपड़े के अलग होने से फिर वही शीत उपस्थित हो जाता है, अतएव दृष्ट पदार्थ अनागत दुःख की औषध नही। प्रश्न- क्या दृष्ट पदार्थ दुःख की अत्यन्त निवृत्ति का कारण नही? उत्तर- नही।


सूत्र :प्रात्यहिकक्षुत्प्रतीकारवत्तत्प्रतीकारचेष्टनात्पुरुषार्थत्वम् II1/3

सूत्र संख्या :3


अर्थ : नित्यप्रति क्षुधा लगती है उसकी निवृत्ति भोजन से हो जाती है। इसी प्रकार और दुःख भी प्राकृतिक वस्तुओं से दूर हो सकते है अर्थात् जैसे औषध से रोग की निवृत्ति हो जाती है अतएव वर्तवान काल के दुःख दृष्ट पदार्थों से दूर हो जाते है, इसी को पुरूषार्थ मानना चाहिये।


सूत्र :सर्वासम्भवात्सम्भवेऽपि सत्त्वासम्भवाद्धेयः प्रमाणकुशलैः II1/4

सूत्र संख्या :4


अर्थ : प्रथम तो प्रत्येक दुःख दृष्ट पदार्थों से दूर ही नही होता, क्योकि सर्व वस्तु प्रत्येक देष और काल में प्राप्त नहीं हो सकती। यदि मान भी लें कि प्रत्येक आवष्यकीय वस्तुयें सुलभ भी हों तथापि उन पदार्थों से दुःख का अभाव नही हो सकता, केवल दुःख का तिरो-भाव कुछ काल के लिये हो जायेगा, अतएव बुद्धिमान को चाहिए कि दृष्ट पदार्थों से दुःख दूर करने का प्रयत्न न करै, दुःख के मूलोच्छेद करने का प्रयत्न करे, जैसा कि लिखा है-


सूत्र :उत्कर्षादपि मोक्षस्य सर्वोत्कर्षश्रुतेः II1/5

सूत्र संख्या :5


अर्थ : मोक्ष सब सुखों से परे है और प्रत्येक बुद्धिमान् सबसे परे पदार्थ की ही इच्छा करता है। इस हेतू से दृष्ट पदार्थों को छोड़कर मोक्ष के लिए प्रयत्न करें, यही प्राणियों का मुख्य उद्देश्य है।


सूत्र :अविशेषश्चोभयोः II1/6

सूत्र संख्या :6


अर्थ : यदि मोक्ष की अन्य सुखों के समान माना जावे तो दोनों बातें समान हो जावेंगी, परन्तु क्षणिक सुख को महाकल्प पर्यन्त सुख के समान समझना बड़ी मूर्खता है।


सूत्र :न स्वभावतो बद्धस्य मोक्ष-साधनोपदेशविधिः II1/7

सूत्र संख्या :7


अर्थ : दुःख जीव का स्वाभाविक गुण नही, क्योकि जो गुण स्वभाव से होता है, वह गुणी से अलग नही होता है, वह गुणी से अलग नही होता अतएव दुःख के नाश के कथन से ही प्रतीत होता है, कि दुःख जीव का स्वाभाविक गुणी से अलग हो नही सकता।


सूत्र :स्वभावस्यानपायित्वादननुष्ठानलक्षणमप्रामाण्यम् II1/8

सूत्र संख्या :8


अर्थ : स्वाभाविक गुण के अविनाशी होने से जिन मन्त्रों में दुःख दूर करने का उपदेश किया गया है, वह सब प्रमाण नही रहेंगे, अतएव दुःख जीव का स्वाभाविक गुण नही।


सूत्र :नाशक्योपदेशविधिरुपदिष्टेऽप्यनुपदेशः II1/9

सूत्र संख्या :9


अर्थ : निष्फल कर्म के निमित्त वेद में कभी उपदेष नही हो सकता क्योकि असम्भव कि लिये उपदेष करना भी न करने के समान है, अतएव दुःख जीव का स्वाभाविक गुण नही किन्तु नैमित्तिक है।


सूत्र :शुक्लपटवद्बीजवच्चेत् II1/10

सूत्र संख्या :10


अर्थ : स्वाभाविक गुण का भी नाश हो जाता है, जैसे-श्वेत वस्त्र का श्वेत रंग स्वाभाविक गुण है, परन्तु वह मैला हो जाने से नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार बीज में अंकुर लाने का स्वाभाविक गुण है, परन्तु वह बीज के जला देने से नष्ट हो जाता है, अतएव यह विचार करना ठीक नही।


सूत्र :श-क्त्युद्भवानुद्भवाभ्यां नाशक्योपदेशः II1/11

सूत्र संख्या :11


अर्थ : उपर्युक्त उदाहरण स्वाभाविक गुण के अत्यन्ताभाव का सर्वथा अयुक्त व अप्रामाणिक है, क्योकि यह तो शक्ति के गुप्त व प्रकट होने का उदाहरण है, क्योकि यदि रजक के धोने से पुनः यह वस्त्र श्वेत न हो जाता तब यह ठीक होता। इसी प्रकार जला हुआ बीज अनेक औषधियों के मेल से ठीक हो जाता है, अतएव यह कथन ठीक नही कि स्वाभाविक गुण का भी नाश हो सकता है।


सूत्र :न कालयोगतो व्यापिनो नित्यस्य सर्वसम्बन्धात् II1/12

सूत्र संख्या :12


अर्थ : दुःख काल के कारण से नही हो सकता, क्योंकि काल सर्वव्यापक और नित्य है और उसका सबसे सम्बन्ध है, अतएव काल के हेतु से तो बन्धन मुक्त हो नही सकता, क्योकि यदि काल ही दुःख का हेतु माना जावे तो सब ही दुःखी होने चाहियें।


सूत्र :न देशयोगतोऽप्यस्मात् II1/13

सूत्र संख्या :13


अर्थ : चूंकि काल के अनुसार देश भी सर्वव्यापक और सबसे सम्बन्ध रखने वाला तथा नित्य है, इसीलिए देश-योग से बन्धन नही हो सकता।


सूत्र :नावस्थातो देहधर्मत्वात्तस्याः II1/14

सूत्र संख्या :14


अर्थ : प्रश्न- तो फिर क्या अवस्था अर्थात् दशाओं के हेतु से दुःख उत्पन्न होता है? क्योकि तीन अवस्था अर्थात् जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति या बाल्यावस्था या युवावस्था या वृद्धावस्था इन छः दशाओं में किसके हेतु से दुःख और बन्धन होता है?


सूत्र :असङ्गोऽयं पुरुष इति II1/15

सूत्र संख्या :15


अर्थ : यह जीव सर्वथा असंग है, इसका बाल्य, वृद्ध और युवावस्था से किंचित् सम्बन्ध नही। प्रश्न- तो क्या दुःख अर्थात् बन्धन के उत्पन्न होने का हेतु कर्म है?


सूत्र :न कर्मणान्यधर्मत्वादतिप्रसक्तेश्च II1/16

सूत्र संख्या :16


अर्थ : वेदविहित या निषिद्ध कर्मों से जीव का बन्धन रूपी दुःख उत्पन्न नही होता, क्योकि कर्म करना भी शरीर व चित्त का धर्म है। द्वितीय कर्म शरीर से होगा और शरीर कर्म के फल से होता है, तो अनवस्था दोष उपस्थित हो जायेगा। तीसरे यदि शरीर का कर्म आत्मा के बन्धन का हेतु माना जावे तो बंधन में हुए जीव के कर्म में मुक्त-जीव का बन्धन होना सम्भव हो सकता है, अतएव कर्म द्वारा बन्धन उत्पन्न नही होता।


सूत्र :विचित्र-भोगानुपपत्तिरन्यधर्मत्वे II1/17

सूत्र संख्या :17


अर्थ : यदि दुःख भोग रूप बन्धन केवल चित्त का धर्म माना जाये तो नाना प्रकार के भोग में संसार प्रवृत्त है, नही रहना चाहिये, क्योकि जीव को दुःख होने के बिना ही यदि दुःख का अनुभव कर्ता माना जाये तो सारे मनुष्य दुःखी हो जायेंगे, क्योकि जिस प्रकार दुःख का सम्बन्ध न होने से जैसे दुःखी प्रतीत होता है ऐसे ही दुःख के न होने पर सब लोग दुःखी हो सकते है, अतएव कोई दुःखी या कोई सुखी इस प्रकार अन्य प्रकार का भोग नही हो सकेगा। प्रश्न- क्या प्रकृति के संयोग से दुःख होता है?


सूत्र :प्रकृतिनिबन्धनाच्चेन्न तस्या अपि पारतन्त्र्यम् II1/18

सूत्र संख्या :18


अर्थ : यदि बन्धन का कारण प्रकृति मानो तो प्रकृति स्वयं ही स्वतन्त्र नही, तो परतन्त्र प्रकृति किसी को किस प्रकार बांध सकती है, क्योकि जब तक प्रकृति का संयोग न हो तब तक वह किसी को बांध ही नही सकती और संयोग दूसरे के अधिकार में है। प्रश्न- क्या ब्रह्य की उपाधि से जीव रूप होकर अपने आप बन्ध गया है?


सूत्र :न नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावस्य तद्योगस्तद्योगादृते II1/19

सूत्र संख्या :19


अर्थ : जो ईश्वर नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव है, उसका तो प्रकृति के साथ सदैव सम्बन्ध है इसलिए वह जीव-रूप होकर दुःख नही पा सकता, क्योकि उसके गुण एक रस है, इस कारण ब्रह्य को उपाधिकृत बन्धन नही वरन् जीव अल्पज्ञ नित्य पदार्थ है उसी का प्रकृति के साथ योग होता है और वह मिथ्या ज्ञान के कारण बद्ध हो जाता है, जैसा कि आगे कथन होगा।


सूत्र :नाविद्यातोऽप्यवस्तुना बन्धायोगात् II1/20

सूत्र संख्या :20


अर्थ : अविद्या से, जो कोई पदार्थ ही नही, बन्धन का होना सम्भव नही, क्योकि आकाश के फूल की सुगन्ध किसी को भी नही आती। यदि मायावादी जो अविद्या, उपाधि से जीव का बन्धन मानते है अविद्या को वस्तु अर्थात् द्रव्य मानते है तो उनका सिद्धान्त उड़ जायेगा जैसा कि लिखा हैः


सूत्र :वस्तुत्वे सिद्धान्तहानिः II1/21

सूत्र संख्या :21


अर्थ : यदि अविद्या को वस्तु मान लिया जावे तो उनके एक अद्वैत ब्रह्य के सिद्धान्त का खण्डन हो जायेगा क्योंकि एक वस्तु जो ब्रह्य है दूसरी अविद्या हो गई, इसलिए अद्वैत न रहा। प्रश्न- इसमें क्या दोष है?


सूत्र :विजातीयद्वैतापत्तिश्च II1/22

सूत्र संख्या :22


अर्थ : अद्वैतवादी ब्रह्य को सजातीय अर्थात् बराबर जाति वाले, विजातीय विरूद्ध जाति वाले, स्वगत अपने भाग इत्यादि के भेद से रहित मानते है और यहां अविद्या के वस्तु मानने से विजाति अर्थात् दूसरी जाति का पदार्थ उपस्थित होने से अद्वैत सिद्धान्त का खण्डन हो गया। प्रश्न- हम अविद्या को वस्तु और अवस्तु दोनों से पृथक् अनिर्वचनीय पदार्थ मानते है, जैसे-


सूत्र :विरुद्धोभयरूपा चेत् II1/23

सूत्र संख्या :23


अर्थ : यदि दोनों से पृथक् मानो तो यह दोष आ जायेगा।


सूत्र :न तादृक्पदार्थाप्रतीतेः II1/24

सूत्र संख्या :24


अर्थ : इस प्रकार अविद्या वस्तु अवस्तु से पृथक् नही हो सकतो, क्योकि ऐसा कोई पदार्थ नही जो सत्-असत् से पृथक् हो और यहां यह भी प्रश्न उत्पन्न होता है कि तुम्हारी अविद्या के अनिर्वचनीय होने में कोई प्रमाण है या नही। यदि कहो प्रमाण है तो वह प्रमेय हो गई फिर अनिर्वचनीय किस प्रकार हो सकती है। यदि कहो प्रमाण नही, तो उसके होने का क्या प्रमाण है?


सूत्र :न वयं षट्पदार्थवादिनो वैशेषिकादिवत् II1/25

सूत्र संख्या :25


अर्थ : हम षट् पदार्थों को वैशेषिक के सदृष नही मानते और न्याय के समान सोलह भी मानते है। इस कारण हमारे मत में सत्-असत् से अविद्या बिलक्षण होना ठीक है और वही बन्ध का हेतु है।


सूत्र :अनयितत्वेऽपि नायौक्तिकस्य संग्रहोऽन्यथा बालोन्म-त्तादिसमत्वम् II1/26

सूत्र संख्या :26


अर्थ : आप पदार्थों की संख्या का नियत मानें चाहें न माने, परन्तु सत्-असत् से पृथक् कोई पदार्थ बिना युक्ति के माननीय नही हो सकते। नही तो बालक और उन्मत्त का कहना भी ठीक हो सकता है। जिस प्रकार बालक और उन्मत्त का कहना युक्ति शून्य होने से प्रामाणिक नही, इसी प्रकार तुम्हारा कहना भी असंगत है। प्रश्न- तो क्या जीव अनादि वासना से बन्धन में पड़ा है?


सूत्र :नानादिविषयोपरागनिमित्तकोऽप्यस्य II1/27

सूत्र संख्या :27


अर्थ : इस आत्मा को अनादि प्रवाह-रूप-वासना से बन्धन होना भी असम्भव मालूम होता है, क्योंकि निम्नलिखित प्रमाण से अशुद्ध प्रतीत होता है।


सूत्र :न बाह्याभ्य-न्तरयोरुपरज्योपरञ्जकभावोऽपि देशव्यवधानाच्छ्रुघ्नस्थपाटलिपुत्रस्थयोरिव II1/28

सूत्र संख्या :28


अर्थ : जो मनुष्य जीव-आत्मा को शरीर में एक देशी मानते है इस कारण जीव-आत्मा का कुछ भी सम्बन्ध बाह्य विषयों से नही रहेगा, क्योकि आत्मा और जड़ के बीच अति का अन्तर है, जैसे- पटना का रहने वाला बिना आगरा पहुंचे वहां के रहने वाले को नही बांध सकता, इसी प्रकार बाह्य इन्द्रियों से उत्पन्न हुई वासना आभ्यन्तरूप आत्मा के बन्धन का हेतु किस प्रकार हो सकती है? और लोक में भी ऐसा देखा जाता है कि जब रंग और वस्त्र का सम्बन्ध बिना अन्तर के होता है तब तो वस्त्र रंग पर चढ़ जाता है। यदि उनके बीच कुछ अन्तर हो तो रंग कदापि नही चढ़ सकता, अतएव वासना से बन्धन नही हो सकता, परन्तु जब लोग आत्मा और बाह्य इन्द्रियों में अन्तर मानते है तो इन्द्रियकृत वासना से आत्मा किस प्रकार का बन्धन में नही आ सकती। यदि यह कहा जाय कि बाह्य इन्दिंयों का आभ्यन्तर इन्द्रिय मन आदि से सम्बन्ध है और आभ्यन्तर इन्द्रियों का आत्मा से। इस परम्परा सम्बन्ध से आत्मा भी विषय वासना से बद्ध हो सकता है, यह कहना अयुक्त ही है, क्योंकिः -


सूत्र :द्वयोरेकदेशलब्धोपरागान्न व्यवस्था II1/29

सूत्र संख्या :29


अर्थ : जब आत्मा और इन्द्रिय दोनों को विषय वासना में बंधा हुआ मानोगे तो मुक्त और बन्धन में रहने वाले का पता भी नही लगेगा। इसका आशय यह है कि जब आत्मा और इन्द्रिय दोनों ही विषय वासना से समान सम्बन्ध रखते है तो इन्द्रियों का बन्धन न कह कर केवल आत्मा ही का बन्धन बतलाना अयुक्त होगा। इस कारण वासना से भी बन्धन नही होता।


सूत्र :अदृष्टवशाच्चेत् II1/30

सूत्र संख्या :30


अर्थ : तो क्या फिर अदृष्ट अर्थात् पूर्व किये धर्म-अधर्म से जो एक भोग-शक्ति पैदा होती है उससे बन्धन होता है?


सूत्र :न द्वयो-रेककालायोगादुपकार्योपकारकभावः II1/31

सूत्र संख्या :31


अर्थ : जब तुम्हारा बन्धन और अदृष्ट एक काल में उत्पन्न होते है तो उनमें कत्र्ता और कर्म नही हो सकता। क्योकि तुम्हारी दृष्टि में संसार प्रत्येक क्षण में बदलता है तो एक स्थिर आत्मा के न होने से दूसरे आत्मा के आदृष्ट से दूसरे आत्मा का बन्धन रूप दोष होगा।


सूत्र :पुत्रकर्मवदिति चेत् II1/32

सूत्र संख्या :32


अर्थ : जिस प्रकार उसी काल में तो गर्भाधान किया जाता है और उसी समय उसका संस्कार किया जाता है, अतएव एक काल में उत्पन्न होने वाले पदार्थों में पूर्व कथित सम्बन्ध हो सकता है।


सूत्र :नास्ति हि तत्र स्थिर एकात्मा यो गर्भाधानादिना संस्क्रियेत II1/33

सूत्र संख्या :33


अर्थ : तुम्हारे मत मे तो स्थित जीवात्मा ही जिसका गर्भाधानादि से संस्कार किया जावे, अतएव तुम्हारे पुत्र-कर्म वाला दृष्टान्त ठीक नही। यह दृष्टान्त एक स्थिर आत्मा मानने वालों के मन में तो कुछ घट भी सकता है। प्रश्न- बन्धन भी (क्षणिक) एक क्षण रहने वाला है इसलिए उसका कारण अर्थात् नियम नही, या अभाव ही कारण है अथवा वह बिना कारण ही है?


सूत्र :स्थिरकार्यासिद्धेः क्षणिकत्वम् II1/34

सूत्र संख्या :34


अर्थ : यदि तुम बन्धन को (क्षणिक) एक क्षण रहने वाला मानो तो उसमें दीप शिखा अर्थात् दीपज्योति के समान दोनों का कोई स्थिर कार्य उत्पन्न नही होगा। इससे अगले सूत्र में स्पष्ट करते है कि कार्य को क्षणिक माने में क्या दोष होगा।


सूत्र :न प्रत्यभिज्ञाबाधात् II1/35

सूत्र संख्या :35


अर्थ : लोक में कोई भी पदार्थ (क्षणिक) अर्थात् एक क्षण रहने वाला नही, क्योकि यह ज्ञान के सर्वथा विरूद्ध है, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य यह कहता हुआ सुनाई देता है कि जिसको मैने देखा उसको स्पर्श किया। दृष्टान्त यह है कि जैसे यदि एक घोड़ा मोल लिया जावे तो क्षणिकवादी के मत में परीक्षा करके मोल लेना असम्भव है, क्योकि जिस क्षण घोड़े को देखा था तब और घोड़ा था, जिस क्षण में हाथ लगाया तब और था दुबारा देखा तब और हुआ, इस कारण कोई हो ही नही सकता। अतएव जिसके लिए दृष्टान्त न हो वह ठीक नही इसलिए बन्धनादि क्षणिक नही वरन स्थिर है, और प्रमाण देते है -


सूत्र :श्रुतिन्यायविरोधाच्च II1/36

सूत्र संख्या :36


अर्थ : यह कहना कि जगत् एक क्षण रहता है श्रुति अर्थात् वेद और न्याय अर्थात् तर्क से सर्वथा विरूद्ध है, जैसा कि लिखा है-


सूत्र :दृष्टा-न्तासिद्धेश्च II1/37

सूत्र संख्या :37


अर्थ : क्षणिक मे जो दीपशिखा का दृष्टान्त दिया वह अयुक्त है, क्योकि क्षण ऐसा सूक्ष्म काल है कि जिसकी इयत्ता नही हो सकती और न उसकी कुछ इयत्ता है और प्रत्यक्ष में दीपशिखा कई क्षण तक एक सी बराबर रहती है, यह कथन भी सर्वथा अयुक्त है और क्षणिकवादियों के मत में एक दोष यह भी होगा कारण और कार्यभाव नही हो सकेगा और जब कार्य कारण का नियम न रहा तो किसी रोग की औषध जो निदान अर्थात् कारण के ज्ञान को जानकर उसके विरूद्ध शक्ति से की जाती है, नही हो सकेगी और संसार में जो घट का कारण मृत्तिका को माना जाता है सर्वथा न कह सकेंगे क्योकि जिस क्षण में मृत्तिका घट का कारण है वह क्षण अब नष्ट हो गया और यह कहना सर्वथा अयसुक्त है कि मृत्तिका घट का कारण नही, क्योकि बिना कारण जाने घट बनाने में कुलाल की प्रवृत्ति नही होती और यदि दोनों की अर्थात् मृत्तिका और घट की उत्पत्ति एक ही क्षण में माने तो दोष होगा-


सूत्र :युगपज्जायमानयोर्न कार्यकारणभावः II1/38

सूत्र संख्या :38


अर्थ : जो पदार्थ एक साथ उत्पन्न होते है उनमें कार्य-कारण भाव नही हो सकता, क्योंकि ऐसा कोई दृष्टान्त लोक में नही है, जिसके कारण की उत्पत्ति एक साथ ही हो। यदि क्षणिकवादी यह कहें कि मृत्तिका और घट त्रम से है, पहले मृत्तिका कारण फिर घट कार्य उत्पन्न हों गया तो इसमें भी दोष है।


सूत्र :पूर्वापाय उत्तरा-योगात् II1/39

सूत्र संख्या :39


अर्थ : इस पक्ष में यह दोष होगा कि पूर्व क्षण में मृत्तिका उत्पन्न हुई, दूसरे क्षण में नष्ट हुई, तब पीछे उसमें कार्यरूप घट क्यों कर उत्पन्न हो सकता है? इसलिए जब तक उपादान कारण न माना जाय तब तक कार्य की उत्पत्ति नही हो सकती अतएव कार्य कारण भाव क्षणिकवादियों के मत से सिद्ध नही हो सकता।


सूत्र :तद्भावे तदयोगादुभयव्यभिचारादपि न II1/40

सूत्र संख्या :40


अर्थ : कारण की विद्यमानता से और कार्य के साथ उसका सम्बन्ध न मानने से दोनों दशाओं में व्यभिचार दोष होने से कारण-कार्य का सम्बन्ध नही रहता। जब कार्य बनता था तब तो कारण नही था और कारण हुआ तब कार्य बनाने का विचार नही, अतएव क्षणिकवादियों के मत में कार्य-कारण का सम्बन्ध किसी प्रकार हो नही सकता। प्रश्न- जिस प्रकार घट का निमित्त कारण कुलाल पहिले से ही माना जाता है. यदि इसी भांति उपादान कारण भी माना जावे तो क्या शंका है?


सूत्र :पूर्वभावमात्रे न नियमः II1/41

सूत्र संख्या :41


अर्थ : यदि कारण को नियत न मानकर पूर्वभावमात्र ही माना जावे तो यह नियम न रहेगा, कि मृत्तिका ही से घट बनता है और वायु से नही बनता, क्योंकि क्षणिकवादि किसी विशेष कारण को भाव से तो मानते नही, किन्तु भाव ही मानेंगे। अतएव उपरोक्त दोष बना रहेगा और निमित्त कारण और उपादान का अन्तर भी मालूम नही होगा और लोक में उपादान कारण और निमित्त कारण का भेद निश्चित है, इसलिए क्षणिकवाद ठीक नही। प्रश्न- जो कुछ संसार में है, सब मिथ्या ही है और संसार में होने से बन्धन भी मिथ्या है, अतएव उसका कारण खोजने की कोई आवश्यकता नही, वह स्वयम् नाशरूप है?


सूत्र :न विज्ञानमात्रं बाह्यप्रतीतेः II1/42

सूत्र संख्या :42


अर्थ : इस जगत् को केवल मिथ्याज्ञान का विज्ञानमात्र नही कह सकते, क्योकि ज्ञान आन्तरिक अर्थात् भीतर ही होता है और जगत् बाहर और भीतर दोनों दशाओं में प्रकट है। प्रश्न- जब हम बाहर किसी पदार्थ के भाव को मानते ही नही केवल भीतर के विचार ही मनोराज्य की सृष्टि की भांति मालूम होते है?


सूत्र :तदभावे तदभावाच्छून्यं तर्हि II1/43

सूत्र संख्या :43


अर्थ : यदि तुम जगत् को बाह्य न मानो केवल भीतर ही मानोगे तो इस दीखते हुए संसार में विज्ञान का भी अभाव मानना पड़ेगा और जगत् का शून्य कहना पड़ेगा। इसका कारण यह है कि प्रतीति विषय का साधन करने वाली होती है, इसलिए यदि बाह्य प्रतीत जगत् का साधन न करे तो विज्ञान प्रतीत भी विज्ञान को नही सिद्ध कर सकती इस हेतु से विज्ञानवाद में शून्यवाद हो जायेगा। प्रश्न- अब शून्यवादी नास्तिक अपनी दलोल देता है।


सूत्र :शून्यं तत्त्वं भावो विनश्यति वस्तुधर्मत्वाद्विनाशस्य II1/44

सूत्र संख्या :44


अर्थ : जितने पदार्थ है सब शून्य है, और जो कुछ भाव है, वह सब नाशवान है और जो विनाशी है, स्वप्न की भांति मिथ्या हैं इससे सम्पूर्ण वस्तुओं के आदि और अन्त का तो अभाव सिद्ध ही हो गया। अब रहा केवल माध्यभाग सो यथार्थ नही तब कौन किसको बांध सकता है? और कौन छोड़ सकता है? इस हेतु से बन्ध मिथ्या ही प्रतीत होता है। विद्यमान वस्तुओं का नाश इसलिए है कि नाश होना वस्तुमात्र का धर्म है। इस शून्यवादी के पूर्वपक्ष का खण्डन करते है।


सूत्र :अपवादमात्र-मबुद्धानाम् II1/45

सूत्र संख्या :45


अर्थ : जो कुछ मात्र पदार्थ हैं वह सब नाशमात्र् है’ यह कथन मूर्खों का अपवाद मात्र है, क्योंकि नाशमात्र वस्तु का स्वभाव कह कर, नाश में कुछ कारण न बताने से जिन पदार्थों का कुछ अवयव नही है उनका नही कह सकते। इसका हेतु यह कि कारण में लय हो जाने को ही नाश कहते है और जब निरवयव वस्तुओं को कुछ कारण न माना तो उसका लय किसी में न होने से उनका नाश न हो सकेगा। इसके सिवाय एक और भी दोष रहेगा कि हर एक कार्य का अभाव लोक में नही कह सकते, जैसे- ‘‘घट टूट गया’’ इस कहने से यह ज्ञात होगा कि घट की दूसरी दशा हो गई परन्तु घटरूपी कार्यं तो बना ही रहा। आकृति को इस हेतु से माना कि वह एक घट के टूट जाने से दूसरे घटों में तो रहती है। अब तीनों लक्षणों को खंडन करते है अर्थात्-विज्ञानवादी क्षणिकवादी और शून्यवादी।


सूत्र :उभयपक्षसमानक्षमत्वादयमपि II1/46

सूत्र संख्या :46


अर्थ : जिस प्रकार क्षणिकवादी और विज्ञानवादी का मत प्रत्यभिज्ञादि दोष बाह्य प्रतीति से खण्डित हो जाता है, इसी प्रकार शून्यवादी का मत भी खण्डित हो जाता है। क्योंकि उस दशा में पुरूषार्थ का बिल्कुल अभाव हो जाता है। यदि यह कहो कि शून्यवाद करने पर भी पुरूषार्थ तो स्वीकार करते है, तो वह भी मानना आयुक्त होगा।


सूत्र :अपुरुषार्थत्वमुभयथा II1/47

सूत्र संख्या :47


अर्थ : शून्यवादी के मत में पुरूषार्थ अर्थात् मुक्ति नही हो सकती, क्योंकि जब दुःख है ही नही केवल शून्य ही है तो उसकी निवृत्ति का उपाय क्यों किया जावे और मुक्ति भी शून्य ही होगी उसके लिए साधन भी शून्य ही होंगे, तो ऐसे शून्य पदार्थ के लिए पुरूषार्थ भी शून्य ही होगा। अतैव शून्यवादी का मत किसी प्रकार भी शान्ति-दायक नही और न उससे मुक्ति हो सकती है।


सूत्र :न गतिविशेषात् II1/48

सूत्र संख्या :48


अर्थ : गति के तीन अर्थ है -ज्ञान, गमन, प्राप्ति। ये तीनों बंधन का हेतु नही होते। पहले जब कहा जावे कि ज्ञान विषेश से बन्धन होता है। ज्ञान तीन प्रकार का है- प्रातिभासिक, व्यावहारिक, पारमार्थिक। यदि कहा जावे कि प्रातिभासिक सत्ता के ज्ञान से बन्धन होता है तो ये कहना ठीक नही क्योंकि प्रातिभासिक सत्ता का ज्ञान इन्द्रिय और न संस्कार दोष से उत्पन्न होता है, परन्तु आत्मा में न इन्द्रिय है न संस्कार है, इसी लिए जिसका कारण है ही नही उसका कार्य कैसे हो सकता है। और रहा व्यवहारिक ज्ञान, सो तो बद्ध अवस्था को छोड़ रहता ही नही, वह बन्ध का कारण किस प्रकार हो सकता है और पारमार्थिक ज्ञान तो मुक्ति का हेतु है वह बन्ध का कारण क्यों कर हो सकता है, अतैव ज्ञानविशेष से बन्ध नही होता। दूसरा गमन शरीरादि में होता है, वह जीव का स्वाभाविक धर्म होने से बन्ध का हेतु नही हो सकता।


सूत्र :निष्क्रियस्य तदसम्भवात् II1/49

सूत्र संख्या :49


अर्थ : क्रिया से शून्य जड़ प्रकृति में भी असम्भव है और व्यापक ब्रह्य में भी गति असम्भव है, और यदि जीव की गति पर विचार किया जावे तो प्रश्न यह उपस्थित होगा, कि जीव विभु है अथवा मध्यम परिणाम वाला है अथवा अणु है? यदि विभु मान लें तो गति हो नही सकती। यदि मध्यम परिमाण वाला मान लें तो यह दोष होगा। प्रश्न- क्या आत्मा अंगुष्ठमात्र नही है? यदि अंगुष्ठमात्र है तो उसमें गति इत्यादि सम्भव है। यदि विभु है तो गति हो ही नहीं सकती।


सूत्र :मूर्त्तत्वाद्घटादिव-त्समानधर्मापत्तावपसिद्धान्तः II1/50

सूत्र संख्या :50


अर्थ : आत्मा के मूर्तिमान होने से घटादिकों की भांति सावयव इत्यादि दोष आ जायेंगे सावयव होने से संयोग वियोग अर्थात् उत्पत्ति और नाश भी मानना पड़ेगा। जो कि आत्मा नित्य है, इसलिए मूर्ति वाला नही हो सकता और जब मूर्तिवाला नही तो उसमें इस प्रकार की गति भी नही मानी जा सकती। अतएव आत्मा को मूर्तिवाला मानना सिद्धांत का खंडन करना है।


सूत्र :गतिश्रुतिरप्युपाधियोगादाकाशवत् II1/51

सूत्र संख्या :51


अर्थ : शरीर के सब अवयवों में जो गति है अर्थात् दूसरे शरीरों में जो गमन है वह सूक्ष्म शरीर में न हो तब तक एक शरीर छोड़कर दूसरे शरीर मे नही जा सकता,जैसे-आकाश घट की उपाधि से चलता है, क्योंकि घट में जो आकाश है जहां घट जाएगा साथ ही जाएगा।


सूत्र :न कर्मणाप्यतद्धर्मत्वात् II1/52

सूत्र संख्या :52


अर्थ : कर्म से भी बन्धन नही होता, क्योंकि वह भी शरीर सहित आत्मा में होता है और शरीर सुख-दुःख भोगने से होता है। इसलिए कर्म से पहिले शरीर का होना आवश्यक है और शरीर होने से बन्धन भी है, उसके उत्पन्न होने की आवश्यकता नही।


सूत्र :अतिप्रसक्तिरन्यधर्मत्वे II1/53

सूत्र संख्या :53


अर्थ : यदी और धर्म से बन्धन मान लें तो नियम टूट जायेंगे, क्योंकि उस अवस्था में बद्ध पुरूष के पाप से मुक्त बन्धन में आ जायेंगे, जो असंगत है।


सूत्र :निर्गुणादिश्रुतिवि-रोधश्चेति II1/54

सूत्र संख्या :54


अर्थ : यदि उपादि के बिना पुरूष का बन्धन माना जावे जिन सूत्रों में जीव को साक्षिरूप और निर्गुण बतलाया है उनमें दोष आ जायेगा, इसलिए जीव स्वभाव से बद्ध है न मुक्त है वरन् यह दोनों औपाधिक धर्म है, प्रकृति के संसर्गं से बद्ध हो जाता है और परमात्मा के संसर्गं से मुक्त हो जाता है। यथार्थ में जीव सुख-दुःख से पृथक और तीनों तापों से किनारे साक्षिरूप है। इस सूत्र में इति शब्द कहने से बन्धन के कारण की परीक्षा समाप्त कर दी गई है।


सूत्र :तद्योगोऽप्यविवेकान्न समानत्वम् II1/55

सूत्र संख्या :55


अर्थ : प्रकृति का योग भी अविवेक से होता है, इस वास्ते यह काल और दिशा के समान नही।


सूत्र :नियतकारणात्तदुच्छित्तिर्ध्वान्तवत् -II1/56

सूत्र संख्या :56


अर्थ : जिस प्रकार मन्द अन्धकार से सीप में चांदी का ज्ञान या रज्जू में सर्प का ज्ञान है, उसके नाश का नियत उपाय है, अर्थात् प्रकाश का होना, किन्तु प्रकाश के बिना किसी अन्य उपाय से यह अज्ञान नष्ट नही हो सकता। इसी प्रकार अविवेक से उत्पन्न होने वाला जो बन्धन है, उसके नष्ट करने का उपाय विवेक अर्थात् पदार्थ ज्ञान है।


सूत्र :प्रधानाविवेकादन्याविवेकस्य तद्धाने हानम् II1/57

सूत्र संख्या :57


अर्थ : जीव में प्रधान अर्थात् प्रकृति के अविवेक अर्थात् पदार्थ ज्ञान के न होने से और कारण आदि से पदार्थों वा अज्ञान होता है। आशय यह है कि बन्धन का कारण जीव की अल्पज्ञता है, क्योंकि जीव अपनी स्वाभाविक अल्पज्ञता से प्रकृति का विवेक नही रखता, जिससे प्राकृतिक पदार्थों में मिथ्या ज्ञान उत्पन्न होता है, और मिथ्या ज्ञान से राग-द्वेष से प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, और उससे बंधन अर्थात् तीन प्रकार का दुःख उत्पन्न होता है, और जिस समय प्रकृति का मिथ्या ज्ञान नष्ट हो जाता है, तब प्रकृति के पदार्थों का अविवेक दूर होकर दुःख रूप बन्धन से छूट जाता है।


सूत्र :वाङ्मात्रं न तु तत्त्वं चित्तस्थितेः II1/58

सूत्र संख्या :58


अर्थ : दुःखादि को चित्त में रहने वाला होने से उनका पुरूष में कथमात्र ही है, जैसे- लाल डांक के आने से अंगूठी का हीरालाल मालूम होता है, ऐसे जीव मन के दुःखी मालूम होता है और मन के सुखी मालूम होता है, वास्तव में सुख-दुःख से पृथक् है। प्रश्न- यदि इस भांति दुःख कथनमात्र से भी दूर हो जाएगा, उसके लिए विवेक की क्या आवश्कता है, इसका उत्तर अगले सूत्र में देते है?


सूत्र :युक्तितोऽपि न बाध्यते दिङ्मूढवदपरोक्षादृते II1/59

सूत्र संख्या :59


अर्थ : इस केवल कथनमात्र दुःख का भी युक्ति से नाश नही सकता, बिना अपरोक्ष ज्ञान के। जैसे किसी मनुष्य को पूर्व दिशा में उत्तर का भ्रम हो जावे तो जब तक पूर्व और उत्त दिशा का भली-भांति ज्ञान न हो जावे, तब तक यह भ्रम जा ही नही सकता, इस कारण विवेक की आवश्यकता है, और सूत्र में भी दिखलाया गया है कि जब तक दिशा का प्रत्यक्ष न हो जावे तब तक भ्रमनिवृत्ति नही हो सकती। इसलिए जब तक प्रकृति और पुरूष के धर्मं का ठीक निश्चय करके प्रकृति से निवृत्ति और पुरूष की प्राप्ति न हो तब तक दुःख भी दूर न होगा।


सूत्र :अचाक्षुषाणामनुमानेन बोधो धूमादिभिरिव वह्नेः II1/60

सूत्र संख्या :60


अर्थ : प्रकृति, पुरूष अर्थात् जीवात्मा परमात्मा और प्रकृति का तो प्रत्यक्ष नही है, अनुमान से ज्ञान होता है।


सूत्र :सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान्महतोऽहंकारोऽहंका-रात्पञ्च तन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं तन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि पुरुष इति पञ्च-विंशतिर्गणः II1/61

सूत्र संख्या :61


अर्थ : सत्वगुण प्रकाश करने वाला, रजोगुण न प्रकाश और न आवरण करने वाला, तमोगुण आवरण करने वाला जब ये तीनो गुण समान रहते है, उस दशा का नाम प्रकृति है, क्योंकि वर्तमान दशा में सत्वगुण, तमोगुणा परस्पर विरोध है। इस समय जिस शरीर में सत्वगुण रहता है, वहां तमोगुण का वास नही और इसी तरह जहां तमोगुण का निवास है वहां सत्वगुण नही, परन्तु कारण अर्थात् परमाणु की दशा में एक दूसरे के विरूद्ध हीं कर सकते, उस समय पास ही पास रह सकते है। अब उस प्रकृति से महत्तम अर्थात् मन उत्पन्न होता है और मन अहंकार और अहंकार से पंच सूक्षम तन्मात्रा या रूप, रस, गंध स्पर्श और शब्द उत्पन्न होते है, उनसे पांच ज्ञानेन्द्रि और पांच कमेंन्द्रिय उत्पन्न होते है,और पंचंतन्मात्राओं से पांच भूत अर्थात् पृथ्वी, अप, तेज वायु और आकाश होते है और जब इनसे पुरूष अर्थात् जीव और ब्रह्य मिल जाता है। तो २५ गुण कहलाते है।


सूत्र :स्थूलात्पञ्चतन्मात्रस्य II1/62

सूत्र संख्या :62


अर्थ : इन पांच प्रकाशवान् तत्त्वों से उन सूक्ष्म तन्मात्रों का अनुमान होता है जिस प्रकार कार्य को देखकर कारण का अनुमान होता है. जैसे लिखा है - अर्थात् कार्यो के गुणों के अनुसार कारण और और कारण के अनुसार कार्य के गुणों का अनुमान होता है। इसी प्रकार यहां कार्य तत्त्वों को देखकर तन्मात्र का ज्ञान हो जाता है।


सूत्र :बाह्याभ्यन्तराभ्यां तैश्चाहंकारस्य II1/63

सूत्र संख्या :63


अर्थ : बाहर की ओर आभ्यन्तरीय इन्द्रियों से पंच तन्मात्र रूप कार्य का ज्ञान होकर उसके कारण अहंकार का भी ज्ञान होता है, क्योंकि स्पर्शादि विषयों का ज्ञान समाधि और सुषुप्ति अवस्था में जबकि अहंकार रूप वृत्ति का अभाव होता है नही होता, इससे अनुमान होता है कि यह इस वृत्ति से उत्पन्न होते है, अर्थात् अहंकार के कार्य है और अहड्कार इनका कारण है, क्योंकि यह नियम है कि जो जिसके बिना पैदा न हो सके वह उसका कारण होता है और भूत बिना अहंकार के सुषुप्ति अवस्था में दृष्टिगत नही होते, अतएव यहाँ उनका कारण अनुमान से प्रतीत होता है।


सूत्र :तेनान्तःकरणस्य II1/64

सूत्र संख्या :64


अर्थ : और अहंकारूपी कार्यं से उसके कारण अन्तः कारण का अनुमान होता है, क्योंकि प्रथम मन में वस्तु के, अस्तित्व का निश्चय करके उसमें अहंकार किया जाता है, अर्थात् उसे अपना मानते है। जिस समय तक वस्तु का अस्तित्व का निश्चय न हो तब तक उसमें अभिमान नही होता है, अर्थात् मै हूं, और मेरा है, यह ज्ञान जब तक अपने और चीज के अस्तित्व का ज्ञान न हो, किस तरह हो सकता है?


सूत्र :ततः प्रकृतेः II1/65

सूत्र संख्या :65


अर्थ : और उस मन से प्रकृति, जो मन का कारण है, उसका अनुमान होता है, क्योंकि मन मध्यम परिणाम वाला होने से कार्य है और प्रत्येक कार्य का कारण अवश्य होता है, अब मन का कारण प्रकृति के अतिरिक्त और कुछ हो नही सकता। क्योंकि पुरूष तो परिणाम रहित है, और मन का शरीर की तरह मध्यम परिणाम वाला होना श्रुति, स्मृति और युक्ति से सिद्ध है? क्योकि मन सुख, दुःख और मोह धर्मंवाला है, इस वास्ते उसका कारण भी मोह धर्म वाला होना चाहिए। दुःख परतन्त्रता का नाम है, और पुरूष की परतन्त्रता हो नही सकतो। परतन्त्रता केवल जड़द्य प्रकृति का धर्म है उसका कार्य मन है।


सूत्र :संहतपरार्थत्वात्पुरुषस्य II1/66

सूत्र संख्या :66


अर्थ : प्रकृति के अवयवों की संहित सर्वदा दूसरे के वास्ते होती है, अपने लिए नही इससे पुरूष का अनुमान होता है, क्योंकि मन आदि जो प्रकृति के कार्य है, उनसे पुरूष को लाभ होता है। मन आदिक अपने लिए कुछ भी नही कर सकते, और जितने शरीर से लेकर अन्न, वस्त्र, पात्रादि के विकार है, उनसे दूसरों का ही उपकार होता है, और पुरूष की क्रिया का भोग पदार्थ नही है, क्योंकि उपनिषद् में लिखा है। ‘‘न वा अरे सर्वस्य का माय सर्वं प्रियं भवति आत्मनस्तु का माप सर्वं प्रियं भवति अर्थात् सम्पूर्ण वस्तुओं के उपयोगी होने से सब वस्तुयें प्यारी नही, किन्तु आत्मा के उपयोगी होने से सब वस्तुयें प्यारी प्रतीत होती है।


सूत्र :मूले मूलाभावादमूलं मूलम् II1/67

सूत्र संख्या :67


अर्थ : २२ तत्वों का मूल उपादान कारण प्रकृति है, और मूल अर्थात् जड़ की नही होती, इस वास्ते मूल बिना के ही होता है।


सूत्र :पारम्पर्येऽप्येकत्र परिनिष्ठेति संज्ञामात्रम् II1/68

सूत्र संख्या :68


अर्थ : कारणों की परम्परा के विचार से परमाणु ही घट का कारण है, मृत्तिका तो नाममात्र है।


सूत्र :समानः प्रकृतेर्द्वयोः II1/69

सूत्र संख्या :69


अर्थ : घट और मृत्तिका के साथ प्रकृति का समान सम्बन्ध है, अर्थात् परम्परा से प्रकृति ही घट और मृत्तिका का कारण है, और निरयव होने से नित्य है, उसका कोई कारण नहि।


सूत्र :अधिकारित्रैविध्यान्न नियमः II1/70

सूत्र संख्या :70


अर्थ : यद्यपि प्रकृति सब का उपादान कारण है परन्तु प्रत्येक कार्य में जो तीन प्रकार के कारण माने जाते है अर्थात् (१) उपादान, (२) निमित्त और (३) साधारण इनकी भी व्यवस्था न रहेगी, क्योकि जब कुम्हार मिट्टी दण्डादि का कारण प्रकृति ही ठहरी तो इन तीन कारणों की अनावश्यकता होने से बहुत गोलमाल हो जायेगा। इसमें हेतु यह है कि फिर कोई भी किसी का निमित्त व असाधारण कारण न रहेगा, अतएव जहां-जहां कारणत्व कहा जाये वहाँ-वहां प्रकृति को छोड़कर कहना चाहिए, क्योंकि प्रकृति तो सबका कारण है ही उसके कहने की कोई भी आवश्यकता नही है, जैसे- कुम्हार के पिता को घट का कारण कहना आवश्यक है, क्योंकि वह तो अन्यथासिद्ध है। यदि वही न होता तो कुलाल कहां से आता? परन्तु घट के बनने में कुलाल के पिता की कोई भी आवश्यकता नही है, ऐसा ही नवीन नैयायिका भी मानते है, कि कारणत्व प्रकृति को छोड़कर कहना चाहिए।


सूत्र :महदाख्यमाद्यं कार्यं तन्मनः II1/71

सूत्र संख्या :71


अर्थ : प्रकृति का पहला कार्य महत् है और वह मन कहलाता है। मन अहड्कारादि होते है, मन की उत्पतत्त ६१ सूत्र में कह चुके है।


सूत्र :चरमोऽहंकारः II1/72

सूत्र संख्या :72


अर्थ : और प्रकृति का दूसरा कार्य अहड्कार है। इन तीनों सूत्रों का अभिप्राय यह है कि यदि प्रकृति को कारणत्व कहा जावे, तो केवल उन्ही दो कार्यों का कहना अन्य कार्यों का कारण महदादि को कहना चाहिए। इसी बात को अगले सूत्रों से स्पष्ट करते है।


सूत्र :तत्कार्यत्वमुत्तरेषाम् II1/73

सूत्र संख्या :73


अर्थ : महत् और अहंकार को छोड़कर बाकी सब प्रकृति के कार्य नही, किन्तु उनके कारण महदादि है।


सूत्र :आद्यहेतुता तद्द्वारा पारम्पर्येऽप्यणुवत् II1/74

सूत्र संख्या :74


अर्थ : जिस प्रकार परम्परा सम्बन्ध में घटादि के कारण अणु माने थे, उसी भांति परम्परा सम्बन्ध से महादादिकों का कारण भी प्रकृति ही है, अतएव कुछ दोष न रहेगा।


सूत्र :पूर्वभावित्वे द्वयोरेकतरस्य हानेऽन्यतरयोगः II1/75

सूत्र संख्या :75


अर्थ : पहिले होने में एक यह भी युक्ति है कि कार्य नाश होकर कारण में मिल जाता है, और अन्त में सब कार्य पदार्थ प्रकृति में लय हो जाते है। यदि कोई शंका करे कि जब प्रकृति और पुरूष दोनों कार्य जगत् से पहले थे, तो अकेली प्रकृति को क्यों कारण माना जावे? इसका उत्तर यह है कि पुरूष परिणामी नही और उपादान कारण का परिणाम ही कार्य कहलाता है, और पुरूष के अपरिणामी होने में १५-१६ के सूत्र प्रमाण है। यदि प्रकृति सम्बन्ध से प्रकृति द्वारा पुरूष में परिणाम मानें और दोनों को कारण माने तो वृथा गौरव होगा।


सूत्र :परिच्छिन्नं न सर्वोपादानम् II1/76

सूत्र संख्या :76


अर्थ : एक देशी और अनित्य पदार्थ सर्व जगत् का उपदान कारण नही हो सकते, क्योंकि, अनित्य पदार्थ को कार्य होने से स्वयं कारण की आवश्यकता है। प्रश्न- एक देशी पदार्थ की उत्पत्ति में क्या प्रमाण है?


सूत्र :तदुत्पत्तिश्रुतेश्च II1/77

सूत्र संख्या :77


अर्थ : अनित्य और एक देशी पदार्थों की उत्पत्ति श्रुति में मानी है और जिसकी उत्पत्ति है उसका विनाश अवश्य होगा। प्रश्न- अविद्या सम्बन्ध से जगदुत्पत्ति है, इसमें क्या दोष है? इसका उत्तर महात्मा कपिल जी देते है।


सूत्र :नावस्तुनो वस्तुसिद्धिः II1/78

सूत्र संख्या :78


अर्थ : जो अवि़द्या द्रव्य नही है केवल मात्र है, या कोई वस्तु नही है, उससे जगत् जो द्रव्य वस्तु है, किस प्रकार उत्पन्न हो सकता है? क्योंकि गुण द्रव्य का एक अवयव होता है। एक अवयव से अवयवी की उत्पत्ति नही हो सकती और न अभाव से भाव की उत्पत्ति होती है? जैसे- मनुष्य के सींग नही हो तो उस सींग से कमान कैसे बन सकती है? प्रश्न- यह संसार भी अवस्तु है, इसलिए यह अविद्या से बना है?


सूत्र :अबाधाददुष्टकारणजन्यत्वाच्च नावस्तुत्वम् II1/79

सूत्र संख्या :79


अर्थ : यदि कहो जगत् भी अवस्तु है, तो कहना ठीक नही, क्योंकि न तो स्वप्न पदार्थों के तुल्य जगत् का किसी अवस्था विशेष में बोध होता है, जैसे स्वप्न के पदार्थों का जाग्रत अवस्था में बोध हो जाता है औ न जगत् किसी इन्द्रिय के दोष से प्रतीत होता है, जैसे- पीलिया रोग अवस्था में सब वस्तुओं को पीला प्रतीत करता है परन्तु यह पीलापन सत्य नही। जगत् इस प्रकार के किसी दोषयुक्त कारण से उत्पन्न नही हुआ, जगत् को इस प्रकार अवस्तु नही कह सकते।


सूत्र :भावे तद्योगेन तत्सिद्धिरभावे तदभावात्कुतस्तरां तत्सिद्धिः II1/80

सूत्र संख्या :80


अर्थ : कारण के होने से उसके संयोग से कार्य बन सकता है और कारण के अभाव में किसके योग से द्रव्यरूप कार्य बनेगा जैसे- मिट्टी के होने से तो उसका घट बन जायेगा, मृत्तिका नही तो किसका घट बनेगा। प्रश्न- तुम प्रधान अर्थात् प्रकृति को क्यों कारण मानते हो? कर्म को मानना चाहिये।


सूत्र :न कर्मण उपादानायोगात् II1/81

सूत्र संख्या :81


अर्थ : कर्म से जगत् की उत्पत्ति नही हो सकती, क्योकि कर्म द्रव्य तो है ही नही। द्रव्य के बिना गुणादि में उपादान कारण होने की योग्यता नही। कारण यह है कि द्रव्य का उपादान कारण द्रव्य होता है। यदि यह कहो हम कल्पना करते है तो कल्पना दृष्टि के अनुसार प्रामाणिक और विरूद्ध होने से अप्रामाणिक है और वैशेषिक में कहे हुए गुण और कर्म कही उपादान कारण होते नहीं। देखो यहां कर्म शब्द से अविद्या और गुणों को भी लेना चाहिये, वह भी उपादान के योग्य नही।


सूत्र :नानुश्रविकादपि तत्सिद्धिः साध्यत्वेनावृत्तियोगादपुरु-षार्थत्वम् II1/82

सूत्र संख्या :82


अर्थ : यह तो पहिले कह चुके है कि दुष्ट पदार्थों वा कर्म से दुःखत्यन्त निवृत्ति नही होती। अब कहते है कि ज्ञान के बिना वेदोक्त कर्म से भी मुक्ति नही होती, क्योंकि वैदिक कर्मों से जो स्वर्गादि सुख मिलते हैं उनका भी नाश हो जाता है, इस वास्ते यह पुरूषार्थ नहीं। पहिले ‘‘न कर्मण अन्यधर्मत्वात्’’ इस सूत्र में कर्म से बन्धन नही होता, इसका खण्डन किया था, अब कर्म से मुक्ति होती है इसका भी खंडन कर दिया। प्रश्न- श्रुति में बतलाया गया है कि इस प्रकार कर्म से ब्रह्मलोक को प्राप्त होकर ब्रह्मलोक की आयु तक पुनरावृत्ति नही होती?


सूत्र :तत्र प्राप्तविवेकस्यानावृत्तिश्रुतिः II1/83

सूत्र संख्या :83


अर्थ : इस श्रुति में भी प्राप्त विवेक ही के वास्ते वैदिक कर्मों से अनावृत्ति मानी गई है। यदि ऐसा न मानो तो दूसरी श्रुतियों से जो ब्रह्मलोक से पुनरावृत्ति का कथन करती है, विरोध होकर दोनों का प्रमाण नहीं रहेगा, इसलिए प्राप्त विवेक ही से मुक्ति माननी चाहिए।


सूत्र :दुःखाद्दुःखं जलाभि-षेकवन्न जाड्यविमोकः II1/84

सूत्र संख्या :84


अर्थ : जो कर्म शरीर से उत्पन्न होता है और शरीर के न होने पर नहीं होता, इस वास्ते कर्म स्वयं दुःख रूप या अविद्या स्वरूप है। जिस प्रकार दुःख से दुःख का नाश नहीं होता, उसी प्रकार कर्म से दुःख का नाश नहीं हो सकता, जैसे- जल नहाने से शीत बढ़ता है नाश नही होता, ऐसे ही विवेक रहित कर्म से मुक्ति नही होती नही होती।


सूत्र :काम्येऽकाम्येऽपि साध्यत्वाविशेषात् II1/85

सूत्र संख्या :85


अर्थ : चाहे कर्म निष्काम हो चाहे सकाम हो, परन्तु ज्ञान के बिना मुक्ति का साधन नहीं हो सकता, क्योंकि दोनों प्रकार के कर्मो में साध्यत्व अर्थात् शरीर से उत्पत्ति वाला होना समान है और श्रुति में भी लिखा है ‘न कर्मणा न प्रजया’’ इत्यादि अर्थात् न तो कर्म से मुक्ति होती, न प्रजा से, न धन से, ज्ञान के बिना किसी साधन से मुक्ति नही होती है ?


सूत्र :निजमुक्तस्य बन्धध्वंसमात्रं परं न समानत्वम् II1/86

सूत्र संख्या :86


अर्थ : कर्मं का फल तो भावरूप सुख है, इसलिए वह अनित्य है, परन्तु ज्ञान का फल तो अविद्या का विनाश रूप है। जब कार्याभाव रूप न ही तो उसका नाश होगा। दूसरे कर्म देहात्म विशिष्ट से होता है, और उसका फल भी देहात्मा मिलकर भोगते है, परन्तु देह विनाशी है, इसलिए कर्म का फल भी विनाशी है ज्ञानात्मा का धर्म आत्मा में नित्य हो सकता है।


सूत्र :द्वयोरेकतरस्य वाप्य-संनिकृष्टार्थपरिच्छित्तिः प्रमा तत्साधकतमं यत्तत् II1/87

सूत्र संख्या :87


अर्थ : ज्ञाता और ज्ञेय के पास-पास होने से जो ज्ञान होता है, उसे प्रमा कहते है। इस प्रमा के साधन तीन प्रकार के प्रमाण है- एक प्रत्यक्ष, दूसरा अनुमान, तीसरा शब्द। जो पदार्थं भौतिक और समीप है उनका ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से होता है, और जो पदार्थ अभौतिक तथा दूर है, उनका शब्द और अनुमान से होता है, यहां दूर का आशय परोक्ष है। जिन पदार्थों का तीन काल प्रत्यक्ष न हो उनका शब्द प्रमाण से बोध होता है। यहां शब्द का आशय योगी और ईश्वर की आज्ञा है। जहां भौतिक पदार्थों का परोक्ष होने में शब्द प्रमाण लिया गया है, वहां सत्यवादी आप्त पुरूष का वाक्य समझना चाहिए।


सूत्र :त्रिविधं प्रमाणं तत्सिद्धौ सर्वसिद्धेर्नाधिक्यसिद्धिः II1/88

सूत्र संख्या :88


अर्थ : इन तीन प्रमाणों के सिद्ध होने से सब पदार्थों की सिद्धि हो जाती है, इसलिए और प्रमाण मानने की आवश्यकता नही, क्योंकि महात्मा मनु ने भी लिखा हैः- अर्थात प्रत्यक्ष अनुमान शास्त्र के अनकूल जान कर कार्य करना चाहिए, क्योंकि धर्म की शुद्धि की इच्छा वालों की इच्छा इनसे पूरी हो सकती है और उपमानादि प्रमाण नही के अन्दर आ जाते है।


सूत्र :यत्सम्बद्धं सत्तदाकारोल्लेखि विज्ञानं तत्प्र-त्यक्षम् II1/89

सूत्र संख्या :89


अर्थ : जिस सामने उपस्थित पदार्थ के साथ ज्ञानेन्द्रिय का सम्बन्ध हो और मन को भी उस इन्दिंय के द्वारा उसका यथार्थ बोध हो जाय, तो उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कहते है और इस ज्ञान का कारण ज्ञानेन्द्रिय और मन की वृत्ति है। इसलिए मन और इन्द्रियें प्रत्यक्ष प्रमाण कहलाती है और इनका विषय केवल प्राकृत पदार्थ ही है। प्रत्यक्ष से अप्राकृत पदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकता। प्रश्न- योगियों को तीनों काल के पदार्थों का साक्षात ज्ञान हो सकता है और योगी समाधि अवस्था में आत्मा और अन्दर के पदार्थों को पत्यक्ष करता है, इस वास्ते तुम्हारा प्रत्यक्ष लक्षण ठीक नही?


सूत्र :योगिनामबाह्यप्रत्यक्षत्वान्न दोषः II1/90

सूत्र संख्या :90


अर्थ : यह लक्षण बाह्य प्रत्यक्ष का है और योगियों को अबाह्य प्रत्यक्ष भी होता है, इसलिए योगियों का प्रत्यक्ष बाह्य रूप न होने से दोष नही। इसके लिए और युक्ति देते है।


सूत्र :लीनवस्तुलब्धातिशय-सम्बन्धाद्वादोषः II1/91

सूत्र संख्या :91


अर्थ : योगि लोग ऐसी वस्तु का जो दूर हो अथवा दूसरे के चित्त में हो उसके साथ भी सम्बन्ध रखते है, इस वास्ते योगियों के ऐसे प्रत्यक्ष में दोष नहीं आता।


सूत्र :ईश्वरासिद्धेः II1/92

सूत्र संख्या :92


अर्थ : मानसिक प्रत्यक्ष के न मानने से ईश्वर की सिद्धि न होगी क्योंकि रूप न होने से वह चक्षु का विषय नही, सुगन्ध न होने से वह नासिक का विषय नही, रस न होने से वह रसना का विषय नही। जब ईश्वर का प्रत्यक्ष न हुआ तो अनुमान भी न होगा, क्योंकि अनुमान प्रत्यक्ष पूर्वक होता है। जिनका काल में प्रत्यक्ष न हो उसमें अनुमान हो ही नही सकता और शब्द प्रमाण से भी काम न चलेगा, क्योंकि वेद के ईश्वर-वाक्य होने से वेद को प्रमाण मानते है। जब ईश्वर स्वयं असिद्ध होगा तो उाका वाक्य वेद कैसे प्रमाण माना जाएगा? यहां अन्यान्याश्रय दोष है, क्योंकि ईश्वर की सिद्धि बिना, वेद का प्रमाण हो नही सकता, और वेद के बिना ईश्वर-वाक्य सिद्ध हुए प्रमाण ही नही हो सकता।


सूत्र :मुक्तबद्धयोरन्यतराभावान्न तत्सिद्धिः II1/93

सूत्र संख्या :93


अर्थ : संसार में कोई चेतन मुक्त और बद्ध से भिन्न नही। यदि तुम ईश्वर को बद्ध मानो तो वह सृष्टि करने की शक्ति नही रखता। यह मुक्त मानो तो इच्छा के अभाव से सृष्टि उत्पन्न नही कर सकता क्योंकि संसार में जितनी सृष्टि को नियमित देखते है, वह कर्ता की इच्छा से होती है।


सूत्र :उभयथाप्यसत्करत्वम् II1/94

सूत्र संख्या :94


अर्थ : इस प्रकार मुक्त, बद्ध दोनों के चेतन से सृष्टि का होना अनुमान सिद्ध न होगा। इसलिए मानसिक प्रत्यक्ष अवश माना पड़ेगा। ईश्वर योगियों को समाधि अवस्था में प्रत्यक्ष होते है, क्योंकि स्थिर मन के बिना ईश्वर का बोधक कोई प्रमाण नह। ईश्वर बद्ध और मुक्त दोनों प्रकार का नही कह सकते, क्योंकि दोनों सापेक्ष है। अर्थात् जो पहिले बंधा हो, वह ही बंध छूटने से मुक्त कहला सकता है। ईश्वर इन दोनों अवस्थाओं से पृथक् है। जगत् का करना उसका स्वभाव है इसलिए इच्छा की आवश्यकता नही। प्रश्न- एक वस्तु में दो विरूद्ध स्वभाव हो नही सकते। यदि रचना ईश्वर का स्वभाव मानोगे तो विनाश किसका स्वभाव मानोगे। उत्तर- यह शंका परतन्त्र और अचेतन में हो सकती है क्योंकि कर्ता स्वतन्त्र होता है और स्वतन्त्र उसे कहते है, जिसें करने, न करने और उल्टा करने की सामथ्र्य हो।


सूत्र :मुक्तात्मनः प्रशंसा उपासा सिद्धस्य वा II1/95

सूत्र संख्या :95


अर्थ : उपासना के सिद्ध होने से जो मुक्तात्मा की प्रशंसा की जाती है, इससे प्रतीत है कि ईश्वर है, जिसकी उपासना से अविवेक की निवृत्ति और विवेक की प्राप्ति होकर मुक्ति प्राप्त होती है।


सूत्र :तत्संनिधानादधिष्ठातृत्वं मणिवत् II1/96

सूत्र संख्या :96


अर्थ : प्रकृति त्रिया रहित है। उसको त्रिया शक्ति ईश्वर की समीपता से प्र्राप्त होती है, जैसे मणि को कांच की समरपता से सुरखी प्राप्त होती है, परमात्मा में इच्छा के न होने से उसे अकत्र्ता कहा जाता है, और बिना उसकी समीपता के प्रकृति करने में असमर्थ है, जैसे बिना हाथ के जीव उठा नही सकता, इस वास्ते कहते है, उठाना जीव का धर्मं नही, परन्तु कत्र्ता हाथ में जीव त्रिया शक्ति नही इस वास्ते जीवात्मा को कत्र्ता माना जाता है।


सूत्र :विशेषकार्येष्वपि जीवानाम् II1/97

सूत्र संख्या :97


अर्थ : जो कार्य सामान्य रूप से जगत् में होते है, वह तो परमात्मा की सत्ता से होते है, और जो कार्य विशेष रूप से प्रति शरीर में भिन्न -भिन्न होते है, वे जीव की सत्ता से होते है। संसार के आत्मा को परमात्मा और शरीर के आत्मा को जीवात्मा कहते है। प्रश्न- यहद प्रत्यक्ष प्रमाण से या और प्रमाणों से ईश्वर की सिद्धि हो गइ, तो वेद का क्या प्रमाण माना जाय? क्योंकि भोतिक पदार्थों का तो प्रत्यक्ष से ज्ञान हो ही जायेगा, और अभौतिक का योगियों के अवाह्य प्रत्यक्ष से हो जाऐगा।


सूत्र :सिद्धरूपबोद्धृत्वाद्वाक्यार्थोपदेशः II1/98

सूत्र संख्या :98


अर्थ : अन्य प्रमाणों से ईश्वर के होने की तो सिद्धि हो जाएगी, परन्तु उसके स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नही होगा, जैसे- पुत्र को देख कर उसके पिता के होने का ज्ञान तो अनुमान से हो सकता है, परन्तु उसके रूप और वायु आदि के ज्ञान के वास्ते शब्द की आवश्यकता है इस वास्ते वेद का अवश्य प्रमाण मानना चाहिये।


सूत्र :अन्तःकरणस्य तदुज्ज्वलितत्वाल्लो-हवदधिष्ठातृत्वम् II1/99

सूत्र संख्या :99


अर्थ : अन्तःकरण भी चैतन्य के संयोग से उज्ज्वलित (प्रकाशित) है, अतएव संकल्प विकल्पादि कायों का अधिष्ठातृत्व अन्ःकरण को है, जैसे- अग्नि से तपाये हुए लोहे में यद्यपि दाहाशक्ति अग्नि संयोग के कारण है तथापि अन्य पदार्थों के दा करने को लोहशक्ति भी हेतु हो कती है।


सूत्र :प्रतिबन्धदृशः प्रतिबद्धज्ञानमनुमानम् II1/100

सूत्र संख्या :100


अर्थ : जो इन्द्रिय ग्राह्य पदार्थ नही दीखता, उसके ज्ञान के साधन को अनमान कहते है, जैसे- अग्नि प्रत्यक्ष नही दीखती, किन्तु धूम को देखकर उसका ज्ञान हो जाना, इसी का नाम अनुमान है। यह अनुमान व्याप्ति और साहचर्य नियम के ज्ञान बिना नही होता, जैसे- जब तक कोई पुरूष पाकशाला आदि में धूम अग्नि को व्याप्त न समझ लगा कि जहां-जहां धूम होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि अवश्य होती है तब तक धूम को देख कर अग्नि का अनुमान कदापि नही कर सकता। वह अनुमान कितने प्रकार का है, इसका निर्णय आगे करेगे। किन्तु प्रथम शब्द प्रमाण का लक्षण करते है।


सूत्र :आप्तोपदेशः शब्दः II1/101

सूत्र संख्या :101


अर्थ : यह सूत्र सब शास्त्रों में ऐसा ही है। जैसे तीनों वेदों में गायत्री मन्त्र एक सम है, इसी भांति इस सूत्र को भी जनता चाहिये। जो पुरूष धर्मनिष्ट वाह्य धर्म के ज्ञान को यथार्थ रीति पर जानते हैं, तथा शुद्ध आचरणवान् हैं, उनका नाम आप्त है। उनके उपदेश को शब्द प्रमाण कहते हैं, आप्ति का अर्थ योग्यता हैं, इस कारण तत्त्वज्ञान से युक्त अपौरूष वाक्य वेद हो शब्द प्रमाण जनता चाहिये। अब अगले सूत्र से प्रमाण मानने की आवश्यकता को प्रकट करते हैं।


सूत्र :उभयसिद्धिः प्रमाणात्तदुपदेशः II1/102

सूत्र संख्या :102


अर्थ : जब तक मनुष्य को वस्तु का सामान्य ज्ञान हो, परन्तु यथार्थ ज्ञान न हो, तब तक वह संशय कहाता है। संशय की निवृत्ति बिना प्रमाण के हो नहीं सकती और संशय की निवृत्ति के बिना प्रवृत्ति नहीं हो सकती। प्रमाण के आत्म, अनात्म, सद्, दोनों प्रकार की सिद्धि होती हैं, इसी कारण प्रमाण का उपदेश किया है।


सूत्र :सामान्यतो दृष्टादुभयसिद्धिः II1/103

सूत्र संख्या :103


अर्थ : तीन प्रकार के अनुमान होते हैं-पूर्ववत् शेषवत् और सामान्य-तो दृष्ट। पूर्ववत् अनुमान उसे कहते हैं, जैसे धूम को देखकर अग्नि का अनुमान किया जाता हैं, क्योंकि पहले पाकशाला में धूम और अग्नि दोनों देखे थे, वैसे ही अन्यत्र होंगे, इस प्रकार का अनुमान पूर्ववत् कहाता हैं। जो विषय कभी प्रत्यक्ष नहीं किया उसका कारण द्वारा अनुमान करना शेषवत् अनुमान कहाता है।, जैसे-स्त्री और पुरूष दोनों को निरोग और हृष्ट-पृष्ट देख कर इनके पुत्रोत्पत्ति होगी यह अनुमान करना मेघ को देखकर जल बरसेगा, यह अनुमान करना शेषवत् का उदाहरण है। जिस जातिय विषय को प्रत्यक्ष कर लिया हैं, उसके द्वारा समस्त जाति मात्र के कार्य का अनुमान करना सामान्य तो दृष्ट कहाता हैं, जैसे- दो एक मनुष्य को देखकर यह बात निश्चय कर ली कि मनुष्य के सींग नहीं होते, तो अन्य मनुष्य मात्र के सींग न होंगे। यह सामान्यतोदृष्ट का उदाहरण है। इसी भांति सामान्यतोदृष्ट अनुमान में यह बात भी आ सकती है, कि जैसे बिना कारण के कार्य की अनुत्पत्ति सामान्यतोदृष्ट है। इससे यह निश्चय कर लेना चाहिये कि जहां-जहां कार्यं होगा, वहां-वहां कारण अवश्य होगा।


सूत्र :चिदवसानो भोगः II1/104

सूत्र संख्या :104


अर्थ : चैतन्यता का जो अवसान अर्थात् अभाव है, उसे भोग कहते हैं। यहाँ पर महर्षि भोक्ता और भोग को पृथक्-पृथक् करते हैं, क्योंकि जड़ पदार्थ भोग होते और चैतन्य भोक्त होता है, तथा भोग सदा परिणामी होता है, और भोक्ता है, एक-रस और चैतन्य होता है। प्रश्न- क्या जड़ मन और इन्द्रियां नही। उत्तर- नहीं, यह तो भोग के माधन हैं। प्रश्न- कर्मं तो मन और इन्द्रियाँ करते हैं तो अकर्ता जीवत्मा उसका फल क्यों भोक्ता है?


सूत्र :अकर्तुरपि फलोपभोगोऽन्नाद्यवत् II1/105

सूत्र संख्या :105


अर्थ : जिस प्रकार किसानों के उत्पन्न किये अन्नादि का भोग राजा करता है। और सेना के हार जाने से राजा का दूःखी होता हैं, इसी प्रकार इन्द्रियों के किये कर्मों का फल आत्मा भोगता है। प्रश्न- पहिले मान चुके हो कि अन्य के कर्म से दूसरे का बन्धन नहीं होता, अब कहते हो दूसरे का किया दूसरा भोगता है? उत्तर- स्वतन्त्र कर्ता होता है स्वतन्त्र के किये का फल स्वतन्त्र को नहीं मिलता। यह इन्द्रियें और मन स्वतन्त्र नहीं, किन्तु आत्मा के करने के साधन हैं। जैसे खड्ग से काटने का कर्ता मनुष्य कहलाता है।, ऐसे ही इन्द्रियों के कर्मों का फल जीव को होता हैं। प्रश्न- चैतन्य जीवात्मा को दुःखादि विकार कैसे हो सकता हैं?


सूत्र :अवि-वेकाद्वा तत्सिद्धेः कर्तुः फलावगमः II1/106

सूत्र संख्या :106


अर्थ : कर्ता के कर्म फल अविवेक से होता है, क्योंकि जीवात्मा अल्पज्ञ है। वस्तु का यथार्थ ज्ञान बिना नैमित्तिक ज्ञान के नहीं रहता, इसलिए वह अविवेक में शरीरादि के विकारों को अपने में मानता है, जिससे उसे दुःख सुख प्रतीत होते हैं और संसार में लोग प्राकृत धन को अपना मान कर उसके नाश से दुःख मानते हैं, ऐसे ही अविवेक के शरीरनिष्ठ विकारों से जीव अपने को दुःखी-सुखी अनुभव करता है।


सूत्र :नोभयं च तत्त्वाख्याने II1/107

सूत्र संख्या :107


अर्थ : जब पुरूष प्रमाणों से यथार्थ ज्ञान को प्राप्त हो जाता हैं, तो सुख दुःख दोनों नहीं रहते, क्योंकि जब हमें यह निश्चय हो जाता है।, हम शरीर नहीं और न यह शरीर हमारा है, किन्तु प्रकृति का विकार है, तो इसके दुःख सुख का हमें लेश भी नहीं प्रतीत होता।


सूत्र :विषयोऽविषयोऽप्यतिदूरादेर्हानोपादानाभ्यामिन्द्रियस्य II1/108

सूत्र संख्या :108


अर्थ : इन्द्रियों के विषय अति दूरादि कारणें से अविषय हो जाते हैं, इस वास्ते किसी इन्द्रिय का विषय न होने से प्रकृति की असिद्धि नहीं हो सकती हैं, जैसे-अभी एक मनुष्य था, परन्तु थोड़े काल में दूर चला गया, अब वह किसी इन्द्रिय का विषय नहीं रहा।


सूत्र :सौक्ष्म्यात्तद-नुपलब्धिः II1/109

सूत्र संख्या :109


अर्थ : प्रकृति और पुरूष का सूक्ष्म होने से प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता, सूक्ष्म से अत्यन्त अणु होना अभिप्राय नहीं, क्योंकि प्रकृति और पुरूष सर्वत्र व्यापक हैं इनका प्रत्यक्ष योगियों को ही होता है। प्रश्न- प्रकृति के प्रत्यक्ष न होने से यह क्यों माना जावे; कि अति सूक्ष्म होने से प्रकृति का प्रत्यक्ष नहीं होता किन्तु प्रकृति का अभाव ही मानना चाहिये, नहीं तो शशश्रृड़ग की अप्रतीति भी सूक्ष्म होने से माननी पड़ेगी।


सूत्र :कार्यदर्शनात्तदुपलब्धेः II1/110

सूत्र संख्या :110


अर्थ : संसार में प्रकृति के कार्यों को देखने से प्रकृति का होना सिद्ध होता है, क्योंकि कार्यं को देखने से कारण का अनुमान होता है, और इन कार्यों को बिगाड़कर सूक्ष्म होकर कारण में लय होने से कारण की सूक्ष्मता का अनुमान होता है।


सूत्र :वादिविप्रतिपत्तेस्तदसिद्धिरिति चेत् II1/111

सूत्र संख्या :111


अर्थ : यदि संसार में वादी लोग प्रकृति की असिद्धि में यह यह हेतु दें कि कोई ब्रह्य को जगत् का कारण मानते हैं, कोई परमाणुओं को, कोई जगत् को अनुत्पन्न ही मानते हैं, तो इस जगत्-रूप कार्यसे प्रकृति के अनुमान करने में क्या हेतु है? प्रथम तो जगत् का कार्य होना साध्य है, दूसरे कारण ब्रह्य है, या प्रकृति यह संशयात्मक हैं, इसलिये प्रकृति असिद्धि है।


सूत्र :तथाप्येकतरदृष्ट्यैकतरसिद्धेर्नापलापः II1/112

सूत्र संख्या :112


अर्थ : जब एक कार्य को देखकर कारण का अनुमान होता है और कारण को देखकर कार्य का अनुमान होता हैं, तो प्रकृति को कारण सिद्ध मानना अनुचित नहीं, क्योंकि सब कार्य प्रकृति में लय होते हैं। द्वितीय पुरूष जो अपरिणामी उसको, परिणामी प्रकृति के अविवेक से वन्ध और विवेक से मुक्ति होती हैं।


सूत्र :त्रिविधविरोधापत्तेः II1/113

सूत्र संख्या :113


अर्थ : सब कार्य तीन प्रकार के होते हैं-अतीत अर्थात् गुजरा हुआ, दूसरे वर्तमान, तीसरे आने वाला। यदि कार्य को सत् न मानें तो यह तीन प्रकार का व्यावहार जैसे घट टूट गया, अथवा घट वर्तमान है, अर्थवा घट होगा, नहीं, बन सकेगा। दूसरे दुःख-सुख मोहादि की उत्पत्ति में विरोध होगा, क्योंकि ब्रह्य तो आनन्दस्वरूप होने से दुःखादि से शून्य है, और परमाणु और प्रकृति में नाममात्र भेद है इसलिए प्रकृति जगत् का कारण सिद्ध है, अगले सूत्र में इसे और भी पुष्ट करते हैं-


सूत्र :नासदुत्पादो नृशृङ्गवत् II1/114

सूत्र संख्या :114


अर्थ : असत् किसी वस्तु का कारण नहीं हो सकता, जैसे-मनुष्य के सींग नहीं, इसलिए संसार में उसका कोई कार्य भी नही होता, न उससे कोई कुछ बना सकता हैं।


सूत्र :उपादाननियमात् II1/115

सूत्र संख्या :115


अर्थ : संसार में सब वस्तुओं का उपादान नियत है, जैसे मृत्तिका से घट तो बन सकता है परन्तु पट नहीं सकता, या लोहे से तलवार बन सकती है, रूई से नहीं बन सकती, जल से बर्फ बनती है, घी से नहीं बनती, इसी प्रकार सब पदार्थों के उपादान कारण नियत हैं, नियमित कार्य-कारण भाव से सत् होने से कार्य को भी सत् मानना पड़ेगा।


सूत्र :सर्वत्र सर्वदा सर्वासम्भवात् II1/116

सूत्र संख्या :116


अर्थ : यह कथन सर्वथा असम्भव है, क्योंकि संसार में ऐसे वाक्यों का साधक कोई भी दृष्टान्तादिक नहीं दीखता कि (असतः सज्जायते) अर्थात् असत् से सत् होता है। अतः मानना पड़ेगा कि (सतः सज्जायते) अर्थात् सत् ही उत्पन्न होता है।


सूत्र :शक्तस्य शक्यकरणात् II1/117

सूत्र संख्या :117


अर्थ : कार्य में कारण का शक्तिमत्त्व होना ही उपादान कारण होता है, क्योंकि जिस द्रव्य में जो कार्यशक्ति वर्तमान ही नहीं है, उससे अभिलषित कार्य कदापि नहीं हो सकता, जैसे कि कृष्ण रंग से श्वेत रंग कदापि नहीं हो सकता। अब इससे यथार्थ सिद्ध हो गया कि जैसे कृष्ण रंग से श्वेत रंग उत्पन्न नहीं हो सकता, इसी प्रकार असत् से सत् भी उत्पन्न नहीं हो सकता।


सूत्र :कारणभावाच्च II1/118

सूत्र संख्या :118


अर्थ : उत्पत्ति से पहिले ही कार्य का कारण से भेद नहीं है, क्योकि कार्य कारण के भीती ही सदैव रहता है, जैसे कि तेल तिलों के भीतर रहता है।


सूत्र :न भावे भावयोगश्चेत् II1/119

सूत्र संख्या :119


अर्थ : अब इसमें प्रश्न पैदा होता है कि कार्य तो नित्य है तो भाव रूप ‘सत्’ कार्य में भावरूप उत्पत्तियोग नहीं हो सकता, असत् से सत् की उत्पत्ति के व्यवहार होने से। अब इस विषय में आचार्य अपने मत प्रकाश करते है।


सूत्र :नाभिव्यक्तिनिबन्धनौ व्यवहाराव्यवहारौ II1/120

सूत्र संख्या :120


अर्थ : अब यहां पर संदेह होता है कि यद्यपि उत्पत्ति से पहिले सत् कार्य की किसी प्रकार उत्पत्ति हो, परन्तु जब कार्य सत्ता अनादि है, तो उसका नाश क्यों हो सके। इसका उत्तर यह है कि कार्य की उत्पत्ति का व्यवहार और अव्यवहार अभिव्यक्ति निमित्तक है, अर्थात् अभिव्यक्ति के भाव से कार्य की उत्पत्ति होती है अभिव्यक्ति के अभाव से उत्पत्ति का अभाव है। जो पूर्व यह यह शंका की थी, कि यदि कारण में कार्य रहता है, तो उत्पन्न हुआ ऐसा कहना भी नहीं हो सकता। उसके ही उत्तर में यह सूत्र है कि अभिव्यज्यमान कार्य की उत्पत्ति का व्यवहार अभिव्यक्ति निमित्तक है। पूर्व जो कार्य असत् नहीं वा उसकी अब उत्पत्ति हुई यह कथन ठीक नहीं है।


सूत्र :नाशः कारणलयः II1/121

सूत्र संख्या :121


अर्थ : लीड्.’’ श्लेषणे धातु से लय शद बनता है। अति सूक्ष्मता के साथ कार्य का कारण में मिल जाना, इसी का नाम नाश है। कार्य की व्यतीत अवस्था अर्थात् जो अवस्था कार्य की उत्पत्ति से पूर्व थी, उसी को धारण कर लेना और जो नाश भविष्यत् में होने वाला है, उसी का नाम प्रागभाव नामक नाश है।


सूत्र :पारम्पर्यतोऽन्वेषणाद्बीजान्नरवत् II1/122

सूत्र संख्या :122


अर्थ : बीज और अंकुर के समान अर्थात जब विचार किया जाता है कि पहिले बीज था या वृक्ष, इस विषय में परम्परा मानी गई है। इसी तरह अभिव्यक्ति मानी गई है सिर्फ भेद इतना ही है, कि उसमें त्रमित परम्परा दोष उत्पन्न होता है। अर्थात पहिले कौन था और इसमें एक कालिक एक ही समय में एक का दूसरे से उत्पन्न होना यह दोष होगा लेकिन यह दोष इस कारण माना जाता है कि पतंजलि भाष्य में भी व्यास जी ने कार्यों को स्वरूप में नित्य अवस्थाओं से विनाशी माना है, वहां अनवस्था दोष को प्रामाणिक माना है। यह बीजांकुर का दृष्टान्त केवल लौकिक है, वास्तव में यहां जन्म और कर्म का दृष्टान्त दिया जाता तो श्रेष्ठ था, जैसे-जन्म से कर्म होता है या कर्म से जन्म, क्योंकि बीतांकुर के झगड़े में कोई-कोई आदि सर्ग में वृक्ष के बिना ही बीज की उत्पत्ति मानते हैं, वास्तव में अवस्था कोई वस्तु नहीं है, इसको कहते हैः-


सूत्र :उत्पत्तिवद्वादोषः II1/123

सूत्र संख्या :123


अर्थ : जैसे कि घट की उत्पत्ति के स्वरूप को ही वैशेषिकादि असत्कार्यवादी कमी के कारण मानते हैं अर्थात् यह उत्पत्ति किससे उत्पन्न हुई, ऐसा संदेह नहीं करते, केवल एक ही उत्पत्ति को मानते हैं। इसी तरह अभिव्यक्ति की उत्पत्ति किससे हुई यह विवाद नहीं करना चाहिए। केवल अभिव्यक्ति को ही मानना चाहिए। सत्कार्यवादी और और असत्-कार्यवादी इन दोनों में केवल इतना ही भेद है कि असत्कार्यवादी कार्य उत्पत्ति की पूर्व दशा को प्रागभाग और कार्य के कारण में लय हो जाने को ध्वंस कहते हैं, और इन दोनों अवस्थाओं में कार्य का अभाव मानते हैं, और इसी प्रकार सत्कार्यवादी कही हुई दोनों अवस्थाओं को अनागत और अतीत कहते हैं, तथा उन अवस्थाओं में कार्य का भाव मानते हैं, कार्य से कारण का अनुमान कर लेना चाहिए। प्रश्न- किस-किसका कार्य कहते हैं?


सूत्र :हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रितं लिङ्गम् II1/124

सूत्र संख्या :124


अर्थ : उत्तर- हेतुमान अर्थात् कारण वाला, अनित्य अर्थात् हमेशा एक-सा जो न अव्यापि अर्थात् एक देश में रहने वाला, सहत्रय-त्रिया की अपेक्षा वाला, अनेक जिसके अलग-अलगभेद मालूम होवें, आश्रित कारण के अधीन इसकी लिंग अर्थात् कार्य के पहिचानने का चिन्ह कहते हैं।


सूत्र :आञ्जस्याद-भेदतो वा गुणसामान्यादेस्तत्सिद्धिः प्रधानव्यपदेशाद्वा II1/125

सूत्र संख्या :125


अर्थ : आंजस्य (प्रत्यक्ष) से वा कारण सामान्य गुण कार्य में पाए जाते हैं। विशेषगुणों में भेद रहता है, इससे प्रधान व्यपदेश से अर्थात् यह कारण है, यह कार्य है। इस लौकिकक व्यवहार से कार्य कारण भेद की सिद्धि होती है।


सूत्र :त्रिगुणाचेतन-त्वादि द्वयोः II1/126

सूत्र संख्या :126


अर्थ : अब कार्य कारण का भेद कहकर कार्य कारण के साधम्र्य अर्थात् बराबरीपन कहते हैं- कि सत्य, रज तम, यह तीनों गुण अचेतनत्वादि का धर्म दोनों के समान ही हैं, आदि शब्द से परिणामित्वादि का ग्रहण होता है।


सूत्र :प्रीत्यप्रीतिविषादाद्यैर्गुणानामन्योन्यं वैधर्म्यम् II1/127

सूत्र संख्या :127


अर्थ : जब कार्य कारण का परस्पर (आपस में) वैधम्र्य कहते हैं। सत्य, रज, तम, इन गुणों का सुख-दुःख मोह इनमें अन्योऽन्य वैधम्र्य (एक ही कारण से अनेक-अनेक प्रकार के कार्यकी उत्पत्ति होना) दिखाई पड़ता है। इस सूत्र में आदि शब्द से जितना ग्रहण होता है, उनका वर्णन पंचाशिखाचार्य ने इस प्रकार किया है कि सत्वगुण से प्रोति, तितिक्षा, सन्तोष आदि सुखात्मक अनन्त अनेक धर्म वाले कार्य पैदा होते हैं। इस रीति से रजोगुण से अप्रीत शोक आदि दुःखात्मक अनन्त अनेक धर्म वाले कार्य पैदा होते हैं, एवं तम से विषाद, निद्रा (नींद) आदि मोहात्मक अनन्त अनेक धर्म वाले कार्य पैदा होते हैं। घटरूप कार्य में केवल मिट्टी से रूपमात्र का ही वैधम्र्य हैं।


सूत्र :लघ्वादिधर्मैरन्योन्यं साधर्म्यं वैधर्म्यं गुणानाम् II1/128

सूत्र संख्या :128


अर्थ : लघुत्वादि धर्मो से सत्वादि गुणों का सामाथ्र्य और वैधम्र्य है, जैसे लघुत्व के साथ सर्व सत्वव्यक्तियों का (सतोगुण के पदार्थों का) साधम्र्य है, रज और तम का वैधम्र्म है, एवं चंचलत्वादि के साथ रजोव्यक्तियों का (रजोगुण के पदार्थों का) साधम्र्य है, और सत्व तम का वैधम्र्य है, इस ही प्रकार गुरूत्व आदि के साथ तमोव्यक्तियों का (तमोगुण के पदार्थों का) साधम्र्म है, और सत्व, रज से वैधम्र्य है। प्रश्न- यद्यपि महदादि स्वरूप से सिद्धि है तो भी प्रत्यक्ष से उनकी उत्पत्ति नहीं दीखती, इसी कारण महदादिकों के कार्य होने में कोई भी प्रमाण नहीं?


सूत्र :उभयान्यत्वात्कार्यत्वं महदादेर्घटादिवत् II1/129

सूत्र संख्या :129


अर्थ : प्रकृति और पुरूष इन दोनों से महदादिक और ही है, इस सबब उन्हे कार्य मानना चाहिए, जैसे-घट मिट्टी से अलग है इसी सब का कार्य है, क्योंकि मिट्टी कहने से न तो घट का बोध होता है, और न घट कहने से मिट्टी का ही ज्ञान होता है। इसी प्रकार प्रकृति और पुरूष कहने से महादादिकों का भी ज्ञान नहीं होता है। इस कारण महादादिकों को प्रकृति और पुरूष से भिन्न कार्य मानना चाहिए, क्योंकि प्रकृति और पुरूष कारण हैं किन्तु कार्य नहीं है।


सूत्र :परिमाणात् II1/130

सूत्र संख्या :130


अर्थ : प्रकृति पुरूष परिमित भाव से रहते हैं, कभी घटते बढ़ते नहीं। इसी कारण उनको कार्य नहीं कह सकते, क्योंकि-


सूत्र :समन्वयात् II1/131

सूत्र संख्या :131


अर्थ : मन को आदि ले के जो कि महादादियों के अवान्तर भेद हैं सो अन्नादिकों के मिलने से बढ़ते रहते हैं, और भूखे रहने से क्षीण होते हैं। इस पूर्वोंक्त समन्वय से भी महादादिकों का कार्यत्व मालूम होता है, क्योंकि जो नित्य पदार्थ होता है वह अवयव (टुकड़ा) रहित होता है अतः उनका घटना बढ़ना नहीं हो सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि घटना-बढ़ना आदि कार्य में हो सकता है। कारण में नही हो सकता। मन आदि अन्न के मिलने से बढ़ते हैं, और न मिलने से घटते हैं। इसी से महादादिकों का कार्यत्व सिद्ध होता है।


सूत्र :शक्तितश्चेति II1/132

सूत्र संख्या :132


अर्थ : महादादिक पुरूष के कारण हैं, इसी में महदादिकों को कार्यत्व है, क्योंकि इनके बिना पुरूष कुछ नही कर सकता, जैसे कि नेत्रों के बिना पुरूष कुछ नहीं कर सकता, अर्थात् देख नहीं सकता, और पुरूष के बिना नेत्र में देखने की शक्ति नहीं हो सकती, क्योंकि नेत्र तो जड़ है, इस कारण मनुष्य दर्शन रूप क्रिया को नेत्र रूपी कारण के बिना नहीं कर सकता, इस ही सबब से नेत्रादिकों को कार्यत्व माना है। इस सूत्र में इति शब्द से यह जानना चाहिए कि प्रत्येक कार्य सिद्धि में इतने ही प्रमाण होते है।


सूत्र :तद्धाने प्रकृतिः पुरुषो वा II1/133

सूत्र संख्या :133


अर्थ : महदादिको को कार्य नहीं माने महत्तत्व को प्रकृति वा पुरूष इन दोनों में से एक अवश्य माना जाएगा, क्योंकि जो महदादि परिणाम हों तो प्रकृति, और महदादि अपरिणामी हों तो पुरूष मानना पड़ेगा। प्रश्न- प्रकृति और पुरूष से अर्थात् और कोई यथार्थ मान लिया जाय तो हानि हैं?


सूत्र :तयोरन्यत्वे तुच्छत्वम् II1/134

सूत्र संख्या :134


अर्थ : हां! हानि है, तुच्छत्व दोष की प्राप्ति होती है।, क्योंकि लोग में प्रकृति और पुरूष के सिवाय अन्य को अबस्तु माना है अर्थात् प्रकृति और पुरूष यह दो ही वस्तु हैं और सब अवस्तु हैं, अतएव इसकों प्रकृति का कार्य मानना चाहिए। यदि दूसरा मानें तो इसके कारण भी दूसरे ही मानने पड़ेंगे। इस प्रकार अनुमान सिद्ध करते है।

सूत्र :कार्या-त्कारणानुमानं तत्साहित्यात् II1/135

सूत्र संख्या :135


अर्थ : कार्य से कारण का अनुमान होता है, क्योंकि जहां-जहाँ कार्य होता है, वहीं-वहीं कारण भी होता है, और महादादिक भी अपने कार्यों के उपादान कारण हैं, जैसे कि तिल-रूप कार्य स्वगत (अपने में रहने वाले) तेल का उपादान कारण है। इस कथन से महदादिकों के कार्यत्व में किसी प्रकार की हानि नहीं है।


सूत्र :अव्यक्तं त्रिगुणाल्लिङ्गात् II1/136

सूत्र संख्या :136


अर्थ : महत्तत्वादियों की अपेक्षा भी मूल कारण प्रकृति अव्यक्त अर्थात् सूक्ष्म है क्योंकि महत्तत्व के कार्य सुखादिकों का प्रत्यक्ष होता है और सूक्ष्मता के कारण प्रकृति का कोई गुण प्रत्यक्ष नहीं होता है। प्रश्न- प्रकृति तो परम सूक्ष्म है, अतः उसका न होना ही सिद्ध होता है?


सूत्र :तत्कार्यत-स्तत्सिद्धेर्नापलापः II1/137

सूत्र संख्या :137


अर्थ : प्रकृति का अभाव (न होना) नहीं हो सकता, क्योंकि प्रकृति की सिद्धि (होना) मालूम पड़ती है। उसके महदादिक उसको सिद्ध कर रहे हैं। यहां तक प्रकृति का अनुमान समाप्त हुआ। अब अध्याय की समाप्ति तक पुरूष का अनुमान कहेंगे।


सूत्र :सामान्येन विवादाभावाद्धर्मवन्न साधनम् II1/138

सूत्र संख्या :138


अर्थ : जिस वस्तु में सामान्य ही से विवाद नहीं है उसकी सिद्धि में साधनों की कोई अपेक्षा नही है जैसे-प्रकृति में सामान्य ही से विवाद है, उसकी सिद्धि के वास्ते साधनों की अपेक्षा आवश्यक है, वैसे पुरूष में नहीं हैं, क्योंकि बिना चेतन के संसार में अंधेरा प्रतीत (मालूम) होगा, यहां तक कि बौद्ध भी सामान्यतः कर्म भोक्ता अहं पदार्थ को पुरूष मानते हैं, तो उसमें किसी प्रकार का विवाद नहीं हो सकता। उदाहरण, धर्मवत्-धर्म की तरह जैसे कि धर्म को सभी बौद्ध नास्तिक आदि मानते हैं। वैसे ही एक चेतन को सभी मानते हैं। प्रश्न- पुरूष किसको कहते हैं।


सूत्र :शरीरादिव्यतिरिक्तः पुमान् II1/139

सूत्र संख्या :139


अर्थ : शरीर को आदि से लेकर प्रकृति तक जो २३ पदार्थ हैं उनसे जो पृथक् है उसका नाम पुरूष है। प्रश्न- शरीरादि से जो भिन्न उसका ही नाम पुरूष है। इसमें क्या हेतु है?


सूत्र :संहतपरार्थत्वात् II1/140

सूत्र संख्या :140


अर्थ : जैसें शैय्या आदिक संहत पदार्थ दूसरे के वास्ते के सुख देने वाले होते हैं, अपने वास्ते नहीं। इसी प्रकार प्रकृत्यादिक पदार्थ भी दूसरे के वास्ते है। स्पष्ट आशय यह है, कि प्रकृति आदि जितने संहत पदार्थ हैं, वह किसी दूसरे के वास्ते हैं और जो वह दूसरा है, उसी का नाम पुरूष है, और संहत देहादि से भिन्न का नाम पुरूष है। यह पहिले भी कह आये हैं फिर यहाँ कहना हेतुओं को केवल गिनती बढ़ानी है। प्रश्न- पुरूष को प्रकृति ही क्यों न माना जाय, इसमें क्या कारण हैं?


सूत्र :त्रिगुणादिविपर्ययात् II1/141

सूत्र संख्या :141


अर्थ : त्रिगुण अर्थात् सत्व, रज, तम, आदि शब्द से मोह जड़त्वादि, इनसे विपरीत होने से पुरूष प्रकृति नहीं हो सकता, अर्थात् वह प्रकृति से भिन्न है, क्योंकि त्रिगुणत्व विशिष्ट का नाम प्रकृति हैं, अर्थात् सत्वोगुण, रजोगुण तमोगुण इन से जिसका सम्बन्ध है उसका ही नाम प्रकृति माना है, और जिसमें नित्यत्व, शुद्धत्व, बद्धत्व, मुक्तत्व, यह धर्म है उसका ही नाम पुरूष है, तो विचारना चाहिए प्रकृति और पुरूष में कितना भेद है। इस ही कारण पुरूष को प्रकृति नहीं मान सकते हैं।


सूत्र :अधिष्ठानाच्चेति II1/142

सूत्र संख्या :142


अर्थ : और भी कारण है, पुरूष अधिष्ठान होने से प्रकृति से जुदा ही है। अधिष्ठान अधिष्ठेय संयोग से मालूम पड़ता है, कि दो के बिना संयोग हो ही नहीं सकता। इससे सिद्ध हुआ कि पुरूष प्रकृति से भिन्न है। आशय यह है कि जब प्रकृति को आधार कहते हैं तब उसमें आधेय भी अवश्य होना चाहिए, वह आधेय पुरूष है।


सूत्र :भोक्तृभावात् II1/143

सूत्र संख्या :143


अर्थ : यदि यह कहो, शरीरादिक ही भोक्ता है, तो कर्ता और कर्म का विरोध होता है, क्योंकि आप ही अपने को भोग नहीं सकता, अर्थात् शरीरादिक प्रकृति के कार्य हैं, और स्त्रक्चन्दनादिक भी प्रकृति के कार्य हैं। इस कारण आप अपना भोग नहीं कर सकता।


सूत्र :कैवल्यार्थं प्रवृत्तेः II1/144

सूत्र संख्या :144


अर्थ : यदि शरीरादिक को ही भोक्ता माना जाएगा, तो दूसरा दोष यह भी होगा कि मोक्ष के उपाय करने में किसी की प्रवृत्ति न होगी, क्योंकि शरीरादिक के विनाश होने से आप ही मोक्ष होना सम्भव है, और तीसरा दोष यह होगा, कि सुख दुःखादि प्रकृति के कारण स्वाभाविक धर्म हैं, और स्वभाव से किसी का नाश नहीं होता, इस कारण मोक्ष असम्भव हैं, इससे पुरूष को ही भोक्ता मानना ठीक है। पूर्वं कहे हुए प्रमाणों से पुरूष को २३ तत्वों से भिन्न कह चुके हैं, अब पुरूष क्या वस्तु है, यह बिचार करते हैं।


सूत्र :जडप्रकाशायोगात्प्रकाशः II1/145

सूत्र संख्या :145


अर्थ : इस विषय में वैशेषिक कहते हैं कि प्रकाश स्वरूप आत्मा मन के संयोग होने से वाध्य ज्ञान से मुक्त होता है और परमात्मा प्रकाशमय हैं, जड़ प्रकृति से प्रकाशमय नहीं हो सकता। लोक में जड़ (प्रकाश रहित) कोष्ठ लोष्ठादिक है, इसमें प्रकाश किसी तरह नहीं देखने में आता। इस कारण सूर्यादिक के समान प्रकाश रूप पुरूष जानना चाहिए। प्रश्न- प्रकाश स्वरूप आत्मा में तमादि गुणों का भाव है, या नहीं?


सूत्र :निर्गुणत्वान्न चिद्धर्मा II1/146

सूत्र संख्या :146


अर्थ : उत्तर- नहीं! कारण यह है कि पुरूष निर्गुण है, इसी से चित् सत् रजादि गुणवाला नहीं हो सकता, क्योंकि ये गुण प्रकृति के धर्म हैं। प्रश्न- बहुत से तीन गुण पुरूष में मानकर उसको शिव, विष्णु, ब्रह्या कहते हैं?


सूत्र :श्रुत्या सिद्धस्य नापलापस्तत्प्रत्यक्षबाधात् II1/147

सूत्र संख्या :147


अर्थ : यद्यपि उक्त कथन से पुरूष में गुण कल्पना किया जाता है, लेकिन युक्ति और श्रुति इन दोनों से विरूद्ध है, क्योंकि श्रुतियों में भी साक्षी चेतना केवलो निर्गुणश्च इत्यादि विशेषणों से पुरूष को निर्गुण ही प्रतिपादन किया है, एवं उस अनुभव प्रत्यक्ष में दोष भी हो सकता है, क्योंकि वह अनुभव किसको होगा। यदि पुरूष को होगा, तो ज्ञान को पुरूष से पृथक् वस्तु मानना पड़ेगा। इस कारण पुरूष निर्गुण है। प्रश्न-जो पुरूष प्रकाश स्वरूप ही है, तो सुषुप्ति आदि अवस्थाओं की कल्पना नहीं हो सकती, क्योंकि उन अवस्थाओं में प्रकाश स्वरूपता नहीं रहती। यह जीव पर शंका है?


सूत्र :सुषुप्त्याद्यसाक्षित्वम् II1/148

सूत्र संख्या :148


अर्थ : पुरूष सुषुप्ति का आद्य साक्षी है अर्थात् जिन अन्तःकरण की वृत्तियों का नाम सुषुप्ति है, वह अन्तःकरण पुरूष के आश्रय है इसी कारण उस सुषुप्ति का साक्षी पुरूष है, और सुषुप्ति अन्तःकरण का धर्म है। प्रश्न- यदि पुरूष प्रकाश स्वरूप है, और अन्तःकरण वृत्तियों का आश्रय है, तो वह पुरूष एक है या अनेक?


सूत्र :जन्मादिव्यव-स्थातः पुरुषबहुत्वम् II1/149

सूत्र संख्या :149


अर्थ : संसार में जन्म को आदि लेकर अनेक अवस्था देखने में आती हैं तो इससे ही सिद्ध होता कि पुरूष बहुत हैं, क्योंकि यदि सब अन्तःकरण की वृत्तियों का आधार एक ही पुरूष होता, तो यह घट है, इस घट को मैं जानता हूं, इस घट को मैं देखता हूं। इस प्रकार का अनुभव जिस क्षण में एक अन्तःकरण को होता हैं, उसी क्षण में सब अन्तः करणों को होना चाहिए, क्योंकि वह एक ही सबका आश्रयी है, लेकिन संसार में ऐसा देखने में नहीं आता है, इस कारण पुरूष अनेक हैं, और जो कोई-कोई टीकाकार इस सूत्र का यह अर्थ करते हैं कि जन्मादि व्यवस्था ही से बहुत प्रतीत होते है वस्तुतः नहीं। उनका कहना इस कारण अयोग्य है ‘‘पुण्यवान स्वर्गे जयते’’ पापो नरके, अज्ञोवध्यते, ज्ञानी मुच्यते। ‘‘पुण्यात्मा स्वर्ग में पैदा होता है, और पापी नरक में पैदा होता है, अज्ञ बन्धन का प्राप्त होता है, ज्ञानी मुक्त होता है, इत्यादि श्रुतियां बहुत्व का प्रतिपादन करती हैं उनसे विरोध होगा। प्रश्न- एक पुरूष को ही अनेक जन्मादि व्यवस्था हो सकती हैं या एक पुरूष को ही जन्मादि व्यवस्था है?


सूत्र :उपाधिभेदेऽप्येकस्य नानायोग आकाशस्येव घटादिभिः II1/150

सूत्र संख्या :150


अर्थ : उपाधि (शरीरादि) भेद होने पर भी एक पुरूष का अनेक जन्मों में अनेक शरीरों से योग होता हैं, जैसे कि एक आकाश का घटादिकों के साथ योग होता है एक ही पुरूष जन्मान्तर में अनेक उपाधियों को धारण करता है और अनेक योग वाला कहाता है, आकाश के समान, जैसे कि आकाश एक ही है, लेकिन जब घट के साथ योग को प्राप्त होता है, तो घटाकाश कहलाता है और मठ के साथ योग को प्राप्त होता है, तो मठाकाश कहलाता है। लेकिन वे उपाधियां आकाश को एक ही समय और एक ही देश में एक साथ नहीं हो सकतीं, अर्थात जितने स्थान आकाश का नाम मठाकाश है, उस वक्त उस ही आकाश का नाम घटाकाश किसी प्रकार नहीं हो सकता, किन्तु मठ की उपाधि का नाश करके दूसरे वक्त घट के स्स्थापन होने पर घटाकाश कह सकते हैं। इस प्रकार ही पुरूष भी देशकाल में अनेक उपाधियों को धारण करके नाना योग वाला कहने में आता है अर्थात् एक ही जीव कभी मनुष्य कभी पशु, पक्षी आदि नाना प्रकार के शरीर धारण करके एक ही रहता हैं, इस ही प्रकार अनेक जीव अनेक उपाधियों को धारण करते हैं, यह ज्ञाननियों का ही अनुभव हो सकता है, और भी इस ही विषय में कहते हैं।


सूत्र :उपाधिर्भिद्यते न तु तद्वान् II1/151

सूत्र संख्या :151


अर्थ : उपाधि के बहुत से रूप होते हैं और उपाधि को ही नाना रूपों में बोलते हैं लेकिन उपाधि वाला पुरूष एक ही है। यद्यपि अनेक नव्य वेदान्ती यह कहा करते हैं, कि एक आत्मा का कार्य कारण उपाधि में में प्रतिबिम्ब के पड़ने से जीव ईश्वर का भेद है और प्रतिबिम्ब आपस में पृथक् होने से जन्मादि व्यवस्था भी हो सकती है यह कथन इस प्रकार अयोग्य है इसमें भेद और अभेद की कोई कल्पना नहीं हो सकती क्योंकि बिम्ब (परछाई) वाला प्रतिबिम्ब परछाई इन दोनों को बिना पृथक् माने विम्ब प्रतिबिम्ब भाव हो ही नहीं सकता, और जीव को ब्रह्य का प्रतिबिम्ब मानते हैं, तो देखते हैं कि प्रतिबिम्ब जड़ है। अतएव पुरूष को भोक्ता, बद्ध, मुक्त कभी नहीं कह सकते हैं, और जीव ब्रह्म की एकता के विषय में हानि होगी। अतएव सांख्य मतानुसार, जीव ब्रह्य को एक मानना भी नहीं हो सकता है। एक ही जीव रूप को धारण करता इस पक्ष का खण्डन इस सूत्र से होता है-


सूत्र :एवमेकत्वेन परिवर्त-मानस्य न विरुद्धधर्माध्यासः II1/152

सूत्र संख्या :152


अर्थ : यदि एक ही ब्रह्म सम्पूर्ण उपाधियों से मिलकर जीव रूप हो जाता है, तो उसमें विरूद्ध धर्म दुःख बन्धनादि का अध्याय अवश्य होता इस कारण जीव ब्रह्म को एक मानना योग नहीं है।


सूत्र :अन्यधर्मत्वेऽपि नारोपात्तत्सिद्धिरेकत्वात् II1/153

सूत्र संख्या :153


अर्थ : मन आदिकों का धर्म जो सुख-दुःखादि धर्म का पुरूष में आरोप करने पर भी पुरूष को परिणामित्व को सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि सुख दुःखादि पुरूष के धर्म नहीं है किन्तु मन के धर्म हैं। पुरूष जन्मान्तर में एक ही बना रहता है, जब हर एक शरीर में एक-एक पुरूष है तो नाना पुरूष सिद्ध हुए और ‘‘एकमेवाद्वितीयं ब्रह्य’’ इत्यादिक अद्वैत प्रतिपादक भुतियों से विरोध होगा?


सूत्र :नाद्वैतश्रुतिविरोधो जातिपरत्वात् II1/154

सूत्र संख्या :154


अर्थ : अद्वैत की प्रतिपादन करने वाली श्रुतियों से विरोध न होगा कि क्योंकि वहां पर अद्वैत शब्द जाति पर है, जैसे एक आदमी के समान कोई नहीं है, जैसाकि संसार में देखने में आता है कि अमुक पुरूष अद्वितीय है। इसका आशय यह है कि उसके समान दूसरा और कोई नहीं है इस ही प्रकार ईश्वर को भी अद्वैत व अद्वितीय कहते हैं। प्रश्न- जिस रीति से अद्वैत श्रुतियों का विरोध दूर करने के वास्ते ईश्वर में अद्वैत शब्द जाति पर कहा है, उस प्रकार ही पुरूष को भी ईश्वर का ही रूपान्तर क्यों नहीं मानते हैं।


सूत्र :विदितबन्धकारणस्य दृष्ट्या तद्रूपम् II1/155

सूत्र संख्या :155


अर्थ : मनुष्य के बन्ध आदि कारण सब विदित हैं, और ईश्वर, नित्य, शुद्ध, मुक्तस्वरूप है, इस कारण ईश्वर का रूपान्तर नहीं हो सकता। प्रश्न- यदि जीव ईश्वर का रूपान्तर नहीं है, तो अनेक शरीर धारण करने पर भी एक ही पुरूष रहता है, इसमें क्या प्रमाण है?


सूत्र :नान्धादृष्ट्या चक्षुष्मतामनुपलम्भः II1/156

सूत्र संख्या :156


अर्थ : जो पदार्थ अन्धे को नहीं दीखे, उसका अभाव नेत्रवान् मनुष्य कदापि नहीं कह सकता, क्योंकि उसकी नेत्रन्द्रिय की शक्ति नष्ट हो गई है, इस कारण उसको दीख नहीं सकता, और चक्षुष्मान के नेत्रेन्द्रिय की शक्ति वर्तमान है, इस कारण वह अभाव नहीं कह सकता।


सूत्र :वामदेवादिर्मुक्तो नाद्वैतम् II1/157

सूत्र संख्या :157


अर्थ : यद्यपि वामदेवादिक मुक्त हो गये, लेकिन अद्वैत स्वरूप तो नहीं हुए, क्योंकि यदि मुक्त जीव सब ही अद्वैतस्वरूप हो जाते तो आज तक सहज-सहज सब पुरूष अद्वैत होकर पुरूष का नाममात्र भी न रहता। प्रश्न- वामदेवादिकों का परम मोक्ष नहीं हुआ?


सूत्र :अनादावद्य यावदभावाद्भविष्यदप्येवम् II1/158

सूत्र संख्या :158


अर्थ : अनादि काल से लेकर आज तक जो बात नहीं हुई है वह भविष्यत् काल में भी होगी, यही नियम है। इससे यह सिद्ध होता है कि अनादि काल से लेकर आज तक कोई भी पुरूष मुक्त होकर ब्रह्य नहीं हुआ, क्योंकि पुरूषों की संख्या कमती देखने में नहीं आती, और नई पुरूषों की उत्पत्ति मानी गई है, तो भविष्यत् काल में भी ऐसा ही होगा। अब मोक्ष के विषय में सांख्यकार अपना सिद्धान्त कहते हैं।


सूत्र :इदानीमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेदः II1/159

सूत्र संख्या :159


अर्थ : इस वर्तमान काल के दृष्टांत से यह जानना चाहिये कि पुरूष के बन्धन का किसी समय में भी अत्यन्त उच्छेद नहीं हो सकता। इसका मतलब यह है कि कोई भी पुरूष ऐसा मुक्त नहीं है, कि फिर उसका कभी बन्धन न हो सके और इससे यह भी मालूम होता है, कि मुक्त पुरूष फिर भी जन्म होता है।


सूत्र :व्यावृत्तोभयरूपः II1/160

सूत्र संख्या :160


अर्थ : मुक्ति संसार के दुःख दोनों ही से विलक्षण है, अर्थात् मुक्ति में पुरूष को शान्त सुख होता है स्वरूप है। प्रश्न- जबकि पुरूष को शांत साक्षो कह चुके वह साक्षीपन मोक्ष समय में नहीं हो सकता, क्योंकि वहां मनादि का अभाव है, तो पुरूष सदा एक रूप रहता है, यह कहना असंगत हुआ?


सूत्र :अक्षसम्बन्धात्साक्षित्वम् II1/161

सूत्र संख्या :161


अर्थ : पुरूष को जो साक्षित्व कहा है, वह मन आदि के साथ साक्षत् सम्बन्ध में कहा है, किंतु वास्तव में पुरूष साक्षी नहीं है, क्योंकि पाणिनिमुनि ने साक्षी शब्द का ऐसा अर्थ किया है ‘‘साक्षाद् द्रष्टरि संज्ञायाम्’’। इस सूत्र से साक्षी शब्द निपातन किया है, कि जितने समय में निरन्तर देखता है उतने ही समय में उसको साक्षी संज्ञा है। इसमें यह सिद्ध होता है, कि जितने समय तक पुरूष का मन से सम्बन्ध रहता है, उतने ही समय तक पुरूष की साक्षी संज्ञा रहती है, अथवा मन के संसर्ग से पुरूष में दुःख सुख आदि को माना जाय, तो पुरूष को वास्तव में दुःखादि से मुक्ति होने में यह दोष होगा कि-


सूत्र :नित्यमुक्तत्वम् II1/162

सूत्र संख्या :162


अर्थ : यदि पुरूष को नित्यमुक्त मानें, तो मुक्ति का साधन करना व्यर्थ होता है, मुक्ति प्रतिपादक जो श्रुतियां हैं उनमें भी दोषारोपन होगा, और इस सूत्र के अर्थ में जो विज्ञान भिक्षु ने (नित्य-मुक्तत्वम्) यह पुरूष को विशेषण दिया है, अर्थात् पुरूष को नित्य मुक्त माना है। यह कथन इस कारण अयोग्य है, कि ‘‘इदानीमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेदः’’ इस सूत्र से पुरूष का अनित्य मुक्त कपिलाचार्य ने माना है। इससे यहां विरोध होगा। उन टीकाकारों ने यह सोचा क्या उन ऋषियों की बुद्धि मनुष्यों की बुद्धि की तरह क्षणिक होती है, कि कभी कुछ कहें कभी कुछ कहें, जबकि उक्त सूत्र ‘‘इदानीमित्यादि’’ से पुरूष को अनित्य मुक्त प्रतिपादन कर चुके, फिर नित्य-मुक्त कैसे कह सकते हैं और पूर्वोक्त टीकाकार के कथन में इस कारण से भी अयोग्यता है कि जो दोष कपिलाचार्य को अपने कहे हुए विशेषणों से दीखे, उनके दुरूस्त करने के लिए ‘‘साक्षात् संबंधात् साक्षित्वम्’’ यह सूत्र फिर कहा, इसी प्रकार ‘‘नित्यमुक्तत्वम्’’ और ‘‘औदासीन्यत्वम्’’यह दो तरह के दो दोष आवेंगे उनका समाधान इस अध्याय के अन्तिम से सिद्ध कर दिया गया है। इस ही कारण ‘‘नित्यमुक्तत्वम्’’ और ‘‘औदासीन्यत्र्चेति,’’ यह दोनों सूत्र दोष के दिखाने वाले हैं।


सूत्र :औदासीन्यं चेति II1/163

सूत्र संख्या :163


अर्थ : अर्थ- और पुरूष को वास्तव में मुक्त मानें तो औदासीन्य दोष होगा, क्योंकि पुरूष का किसी से सम्बन्ध ही नहीं है, तो वह किसी कर्म का कर्ता क्यों होगा। जब किसी कर्म का कर्ता तो रहा ही नहीं तो बन्धन् आदि में क्यों पड़ेगा, तब उसमें औदासीन्य दोष होगा। इस सूत्र का भाव और पुरूष कर्तव्य अगले सुत्र से प्रतिपादन करेंगे। प्रश्न- ‘‘औदासीन्यत्र्चेति’’ इस सूत्र में ‘इति’ शब्द क्यों है? उत्तर- यह इस वास्ते है कि पुरूष की सिद्धि में दोष आदि का खंडन कर चुके।


सूत्र :उपरागात्कर्तृत्वं चित्सांनिध्याच्चित्सांनिध्यात् II1/164

सूत्र संख्या :164


अर्थ : पुरूष में जो कर्तृत्व है, सो मन के उपराग से है, और मन में जो चित्तशक्ति है; वह पुरूष के संसर्ग से है। यहां पर जो ‘‘चित्सा-निध्यात्’’ यह दो बार कहा है सो अध्याय की समाप्ति का जताने वाला है और इस अध्याय में शास्त्र के मुख्य चार ही अर्थ कहे गये हैं ‘‘हेय’’ त्यागने के लायक, ‘‘हान’’ त्यागना। ‘‘हेय’’ और ‘‘हान’’ और इन दोनों के हेतु। ।। इति सांख्यदर्शंने प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ।।



सांख्यदर्शन कपिलमुनी कृत अध्याय 2






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