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न्यायदर्शन गौतम मुनी कृत पंचम अध्याय द्वितिय आह्निक

 सूत्र :प्रतिज्ञाहानिः प्रतिज्ञान्तरं प्रतिज्ञाविरोधः प्रतिज्ञासंन्यासो हेत्वन्तरमर्थान्तरं निरर्थकमविज्ञातार्थमपार्थकमप्राप्तकालं न्यूनमधिकं पुनरुक्तमननुभाषणम-ज्ञानमप्रतिभा विक्षेपो मतानुज्ञा पर्यनुयोज्योपेक्षणं निरनुयोज्यानुयोगोऽप-सिद्धान्तो हेत्वाभासाश्च निग्रहस्थानानि II5/2/1

सूत्र संख्या :1


अर्थ : पहले अध्याय में यह कह चुके हैं कि विप्रतिपत्ति और अप्रतिपत्ति इन दोनों के विकल्प से बहुत से निग्रह उत्पन्न होते हैं। निग्रहस्थान उनको कहते हैं कि जिनमें पड़ कर वादी और प्रतिवादी निगृहीत (परास्त) हो जाते है। अतएव वादी और प्रतिवादी के लिए उनका जानना परमावश्यक है। अब इस आन्हिक में उनके भेद और लक्षण बतलाये जाते हैं: 1. सब निग्रहस्थान 26 है, जिनका विवरण इस प्रकार हैं: 1 - प्रतिज्ञाहानि 2 - प्रतिज्ञान्तर 3 - प्रतिज्ञा विरोध 4 - प्रतिज्ञा सन्यास 5 - हेत्वन्तर 6 - अर्थान्तर 7 - निरर्थक 8 - अविज्ञातार्थ 9 - अपार्थक 10 - अप्राप्तकाल 11 - न्यून 12 - अधिक 13 - पुनरुक्त 14 - अननुभाषण 15 - अज्ञान 16 - अप्रतिभा 17 - विक्षेप 18 - मतानुज्ञा 19 - पर्यनुयोज्योपेक्षण 20 - निरनुयोज्यानुयोग 21 - अपसिद्धान्त और 5 हेत्वाभास। ये सब मिलकर 26 होते है। इनके लक्षण और उदाहरण पृथक-पृथक वर्णन करते है। प्रथम प्रतिज्ञाहानि का लक्षण करते हैं:


सूत्र :प्रतिदृष्टान्तधर्माभ्यनुज्ञा स्वदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानिः II5/2/2

सूत्र संख्या :2


अर्थ : अपने पक्ष के विरुद्ध प्रतिवादी जो हेतु या दृष्टान्त देता हैं, उसको स्वीकार कर लेना प्रतिज्ञाहानि निग्रहस्थान है क्योंकि परपक्ष को स्वीकार करना मानो अपने पक्ष को त्याग देना हैं। जैसे वादी ने प्रतिज्ञा की कि इन्द्रिय का विषय होने से घट के समान शब्द अनित्य है। इस पर प्रतिवादी हैं कि सामान्य जाति भी इन्द्रिय का विषय हैं और वह नित्य हैं, ऐसे ही शब्द भी नित्य हो सकता है। इस पर वादी कहने लगे कि यदि इन्द्रिय का विषय जाति नित्य हैं तो शब्द भी नित्य होगा। यहां वादी ने प्रतिवादी के पक्ष को स्वीकार कर लिया और अपने पक्ष को त्याग दिया इसी को प्रतिज्ञज्ञहानि कहते हैं। अब प्रतिज्ञान्तर का लक्षण कहते हैं:


सूत्र :प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे धर्मविकल्पात्तदर्थनिर्देशः प्रतिज्ञान्तरम् II5/2/3

सूत्र संख्या :3


अर्थ : अपनी प्रतिज्ञा का खण्डन होने पर उसका समाधान न करके किसी दूसरी प्रतिज्ञा को कर बैठना प्रतिज्ञान्तर निग्रहस्थान कहलाता हैं। जैसे वादी ने यह प्रतिज्ञा की कि इन्द्रिय का विषय होने से शब्द अनित्य है। इसका प्रतिवादी ने खण्डन किया कि जाति इन्द्रिय का विषय होने से नित्य हैं। इसके उत्तर में यह कहना कि जाति इन्द्रिय का विषय होने पर भी सर्वगत होने से नित्य हैं, परन्तु घट और शब्द सर्वगत नहीं, इसलिए वे अनित्य हैं। इस कथन में प्रतिज्ञान्तर निग्रहस्थान होता है। क्योंकि पहली प्रतिज्ञा यह थी कि शब्द अनित्य हैं, उसे सिद्ध न करके वादी ने अब दूसरी प्रतिज्ञा और कर दी कि शब्द सर्वगत नहीं, प्रतिज्ञा के साधक हेतु या दृष्टान्त होते हैं न कि प्रतिज्ञा, इसलिए यह प्रतिज्ञान्तर निग्रहस्थान हैं। अब प्रतिज्ञा विरोध का लक्षण कहते हैं:


सूत्र :प्रतिज्ञाहेत्वोर्विरोधः प्रतिज्ञाविरोधः II5/2/4

सूत्र संख्या :4


अर्थ : प्रतिज्ञा और हेतु के विरोध से प्रतिज्ञाविरोध निग्रहस्थान होता हैं, जैसे किसी ने प्रतिज्ञा की कि द्रव्य गुण से भिन्न है, इस पर यह हेतु दिया कि रूपादि से अतिरिक्त किसी वस्तु की उपलब्धि न होने से। यहां पर प्रतिज्ञा और हेतु दोनों परस्पर विरुद्ध हैं। क्योंकि यदि द्रव्य से भिन्न गुण हैं तो रूपादि से अतिरिक्त वस्तु की अनुपलब्धि होना ठीक नहीं और जो रूपादिकों से भिन्न अर्थ की अनुपलब्धि हो द्रव्य गुण से भिन्न हैं, यह कहना नहीं बन सकता। दोनों में विरोध होने से प्रतिज्ञाविरोध निग्रहस्थान होता है। अब प्रतिज्ञासन्यास का लक्षण कहते हैं:


सूत्र :पक्षप्रतिषेधे प्रतिज्ञातार्थापनयनं प्रतिज्ञासंन्यासः II5/2/5

सूत्र संख्या :5


अर्थ : जो प्रतिज्ञा की हो उसका खण्डन होने पर उसको छोड़ देना प्रतिज्ञासन्यास कहलाता हैं। जैसे किसी ने कहा कि इन्द्रिय का विषय होने से शब्द अनित्य है। इस पर प्रतिवादी ने कहा कि जाति भी इन्द्रिय का विषय है परन्तु वह नित्य हैं: इसको सुन कर वादी कहने लगे कि कौन कहता है कि शब्द अनित्य है। यह प्रतिज्ञासन्यासनामक निग्रहस्थान है। अब हेत्वन्तर का लक्षण कहते है:


सूत्र :अविशेषोक्ते हेतौ प्रतिषिद्धे विशेषमिच्छतो हेत्वन्तरम् II5/2/6

सूत्र संख्या :6


अर्थ : अपने पक्ष की पुष्टि में जो सामान्य हेतु दिया गया हो उसके खण्डित होने पर विशेष हेतु की इच्छा करना हेत्वन्तर निग्रहस्थान कहलाता है। जैसे किसी ने कहा कि घट परिमाणवान होने से एक कारण वाला है, इस पर प्रतिवादी कहता है कि यह हेतु ठीक नहीं, क्योंकि अनेक कारण वाले पदार्थों का भी परिमाण देखने में आता हैं, इस पर प्रतिवादी का यह कहना कि आकारवान होने से घड़ा एक कारण वाला है। परिमाण वाला होना पहला हेतु था, उसका खण्डन होने पर वादी ने उसे छोड़कर दूसरा हेतु आकार वाला होना दिया। बस पहले हेतु को छोड़कर दूसरे हेतु की शरण लेना हेत्वन्तर निग्रहस्थान कहलाता है। अब अर्थान्तर का लक्षण कहते हैं:


सूत्र :प्रकृतादर्थादप्रतिसम्बद्धार्थमर्थान्तरम् II5/2/7

सूत्र संख्या :7


अर्थ : जिस बात के सिद्ध करने की प्रतिज्ञा की गई हो, उसको प्रकृत अर्थ कहते हैं। प्रकृत अर्थ को छोड़कर अन्य अर्थ को जो उससे कुछ सम्बन्ध अर्थ को जो उससे कुछ सम्बन्ध नहीं रखता, कहना अर्थान्तर निग्रहस्थान कहलाता है। जैसे किसी ने कहा कि कार्य होने से शब्द गुण हैं, आकाश में रहता है। इस कथन का प्रकृत अर्थ से कुछ सम्बन्ध न होने से यह अर्थान्तर निग्रह स्थान हैं। अब निरर्थक का लक्षण कहते हैं:


सूत्र :वर्णक्रमनिर्देशवन्निरर्थकम् II5/2/8

सूत्र संख्या :8


अर्थ : जिन शब्दों का कोई अर्थ न हो, उनके उच्चारण को निरर्थक निग्रहस्थान कहते हैं, जैसे कोई यह प्रतिज्ञा करे कि शब्द नित्य हैं और हेतु यह देने लगे कि ज ब ग ड़ द श्। होने से। जबगड़दश् यद्यपि वर्णकम निर्देश निर्देश हैं। अतएव जिसमें हेतु के स्थान में निरर्थक शब्दों का उच्चारण किया जाय, उसको निरर्थक निग्रहस्थान कहते हैं। अब अविज्ञातार्थ का लक्षण कहते हैं:


सूत्र :परि-षत्प्रतिवादिभ्यां त्रिरभिहितमप्यविज्ञातमविज्ञातार्थम् II5/2/9

सूत्र संख्या :9


अर्थ : वादी जिस बात को ऐसे शब्दों में कहे कि जिनको कोई समझ न सके अर्थात् जो प्रसिद्ध न हो, उनके अप्रसिद्ध होने के कारण या शीघ्र उच्चारण के कारण या कथित शब्दों के वहृर्थ वाचक होने के कारण सभा और प्रतिवादी के तीन बार कहने पर भी यदि वादी का कहना समझ में न आये, तो वादी अविज्ञात निग्रहस्थान में फंस जाता है। क्योंकि इससे यह जाना जाता है कि वादी जिस अर्थ को कहता हैं, उसे खुद नहीं जानता। धूर्तवादी तो ऐसे शब्दों को इसलिए कहता हैं कि कोई उसे न समझ कर उत्तर न दे सके, परन्तु इसका फल उसके लिए उल्टा होता हैं, क्योंकि वह आप अविज्ञातार्थरूप निग्रहस्थान में पड़ जाता है। अब अपार्थक का लक्षण कहते हैं:

सूत्र :पौर्वापर्यायोगाद-प्रतिसम्बद्धार्थमपार्थकम् II5/2/10

सूत्र संख्या :10


अर्थ : जिस कथन में पूर्वापर वाक्यों का कुछ सम्बन्ध या अन्वय न हो, उसे अपार्थक कहते है। जैसे दस घोड़े, छः अनार, मधु, चर्म, सिंह आदि असम्बद्ध शब्दों का उच्चारण करना अपार्थक निग्रहस्थान कहलाता हैं। अप्राप्त काल का लक्षण:


सूत्र :अवयवविपर्यासवचनमप्राप्तकालम् II5/2/11

सूत्र संख्या :11


अर्थ : प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन ये पांच वाक्यों के अवयव प्रथमाध्याय में जो कहे गये हैं, इनको कमपूर्वक न कहकर लौट पौट कर कहना अप्राप्तकाल निग्रहस्थान हैं। जैसे कोई पहले प्रतिज्ञा को न कह कर उदाहरण देने लगे या निगमन से पश्चात् हेतु कहने लगे वह अप्राप्तकाल निग्रहस्थान में पड़ जाता है। न्यून का लक्षण कहते हैं:


सूत्र :हीन-मन्यतमेनाप्यवयवेन न्यूनम् II5/2/12

सूत्र संख्या :12


अर्थ : प्रतिज्ञादि जो पांच वाक्य के अवयव हैं, वाद के समय उनमें से किसी को छोड़ देना सब से यथावसर काम न लेना न्यून नामक निग्रहस्थान हैं। क्योंकि पांचों अवयवों से अर्थ की सिद्धि होती है, इनमें से यदि एक भी छूट जाये तो अर्थ में गड़बड़ हो जाती हैं। अधिक का लक्षण कहते हैं:


सूत्र :हेतूदाहरणाधिकमधिकम् II5/2/13

सूत्र संख्या :13


अर्थ : जहां एक ही हेतु और दृष्टान्त से साध्य सिद्ध हो जाता हैं, वहां व्यर्थ अनेक हेतु और उदाहरणों को प्रस्तुत करना अधि कनाम निग्रहस्थान है। अब पुनरुक्त का लक्षण कहते हैं:


सूत्र :शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तमन्यत्रानुवादात् II5/2/14

सूत्र संख्या :14


अर्थ : यदि किसी प्रयोजन से कोई बात दो बार या अधिक बार कही जाये तो उसे अनुवाद कहते है। अनुवाद को छोड़ कर किसी बात को दो बार या अधिक बार कहना पुनरुक्त निग्रहस्थान है। अनुवाद और पुनरुक्त में क्या भेद हैं ?


सूत्र :अनुवादे त्वपुनुरुक्तम शब्दाभ्यासादर्थविशेषोपपत्ते II5/2/15

सूत्र संख्या :15


अर्थ : किसी शब्द या वाक्य की विशेष आवश्यकता होने पर पुनः कहना अनुवाद कहलाता हैं और विशेष अर्थ को जताने के लिए यह अनुवाद करना ही पड़ता है जैसे हेतु को कह कर प्रतिज्ञा का पुनर्वचन निगमन कहलाता है। यह हेतु और उदाहरण द्वारा प्रतिज्ञा को सिद्ध करने के लिए किया जाता है। अतएव पुनरुक्त नहीं कहलाता। पुनरुक्त कहलाता। पुनरुक्त किसे कहते हैं:


सूत्र :अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनं पुनरुक्तम् II5/2/16

सूत्र संख्या :16


अर्थ : एक अर्थ का जिस शब्द या वाक्य से बोध हो जावे, उसी अर्थ को फिर दूसरे शब्दों या वाक्यों से वर्णन करना पुनरुक्त कहलाता हैं जो दो प्रकार हैं। (1) शाब्दिक पुनरुक्त, (2) आर्थिक पुनरुक्त। जिसमें बार-बार बिना प्रयोजन एक ही शब्दों का प्रयोग किया जाये, वह शाब्दिक पुनरुक्त है। जैसे द्रव्य-द्रव्य, गुण-गुण। जिसमें किन्हीं शब्दों से एक अर्थ कह दिया गया हो, फिर दूसरे शब्दों में उसी अर्थ को कहना आर्थिक पुनरुक्त हैं। जैसे किसी ने कहा जो उत्पन्न होता हैं व अनित्य हैं, इस कहने से यह अपने आप सिद्ध हो गया कि जो उत्पन्न नहीं होता है वह अनित्य हैं, इस अर्थ से सिद्ध हुई बात को फिर कहना आर्थिक पुनरुक्त हैं, इसी को अर्थापत्ति भी कहते हैं। अब अननुभाषण का लक्षण कहते हैं:-


सूत्र :विज्ञातस्य परिषदा त्रिरभिहितस्याप्यप्रत्युच्चारणमननुभाषणम् II5/2/17

सूत्र संख्या :17


अर्थ : जाने हुए विषय को सभा से तीन बार कहे जाने पर भी जो प्रकट नहीं करता, वह अननुभाषण नामक निग्रहस्थान में पड़ता हैं, क्योंकि जब भाषण ही न करेगा, तो अपने पक्ष का खण्डन तथा प्रतिवादी के पक्ष का खण्डन क्या करेगा ? अब अज्ञान का लक्षण कहते हैं:-


सूत्र :अविज्ञातं चाज्ञानम् II5/2/18

सूत्र संख्या :18


अर्थ : प्रतिपक्षी के तीन बार जतलाये जाने पर भी जो किसी विषय को नहीं समझता, वह अज्ञानरूप् निग्रहस्थान में पड़ता हैं। क्योंकि बिना जाने न स्वपक्ष का मण्डन और न परपक्ष का खण्डन हो सकता हैं। अब अप्रतिभा का लक्षण कहते हैं:-


सूत्र :उत्तरस्याप्रतिपत्तिरप्रतिभा II5/2/19

सूत्र संख्या :19


अर्थ : प्रतिपक्षी के आक्षेप का किसी कारण से उत्तर न दे सकना अप्रतिभानामक निग्रहस्थान कहलाता है। अर्थात् समय पर आक्षेप का उत्तर भय, या विस्मृति के कारण न देना अप्रतिभा है। अब विक्षेप का लक्षण कहते हैं:-


सूत्र :कार्य-व्यासङ्गात्कथाविच्छेदो विक्षेपः II5/2/20

सूत्र संख्या :20


अर्थ : कार्य के बहाने से प्रकृतवाद को टाल देना विक्षेप नामक निग्रहस्थान कहलाता हैं। जैसे इस समय मुझे अमुक आवश्यक काम करना है, उसको पूरा करके फिर बात-चीत करूंगा। इत्यादि कार्य के बहाने से वाद को बन्द कर देना निक्षेप निग्रहस्थान है। भतानुज्ञा का लक्षण कहते हैं:-


सूत्र :स्वपक्षे दोषाभ्युपगमात्परपक्षे दोषप्रसङ्गो मतानुज्ञा II5/2/21

सूत्र संख्या :21


अर्थ : अपने पक्ष में प्रतिवादी ने जो दोष लगाया हैं, उसका उद्धार न करना मानो उसको स्वीकार करना है। ऐसा न करके जो दूसरे के पक्ष में वही दोष आरोपण करता हैं, इसको मतानुज्ञा कहते हैं। दूसरे के दोष सिद्ध करने से अपना दोष निवृत्त नहीं होता, वह तो प्रमाण और युक्ति से उसका निषेध करने पर ही निवत्त होता हैं। अब पर्यनुयोज्योपेक्षण का लक्षण कहते हैं:-


सूत्र :निग्रहस्थानप्राप्तस्यानिग्रहः पर्यनुयोज्योपेक्षणम् II5/2/22

सूत्र संख्या :22


अर्थ : जो निगृहीत हो गया है, अर्थात् किसी निग्रहस्थान में पड़ गया है, उसको न बतलाना कि अमुक निग्रहस्थान में पड़ा हैं, इसको पर्यनुयोज्योपेक्षण नाम निग्रहस्थान कहते हैं। क्योंकि अपनी निर्बलता को स्वयं कोई नहीं कहता, जब परपक्षी भी उसको नहीं बतलाता तो यही समझा जायगा कि वह वाद के नियमों से अनभिज्ञ है। अब निरनुयोज्योपेक्षण का लक्षण कहते हैं:


सूत्र :अनि-ग्रहस्थाने निग्रहस्थानाभियोगो निरनुयोज्यानुयोगः II5/2/23

सूत्र संख्या :23


अर्थ : जो किसी निग्रहस्थान में न आया हो, उसको भी निगृहीत बतलाना निरनुयोज्यानुयोग निग्रहस्थान कहलाता है। अब अपसिद्धान्त का लक्षण कहते हैं:-


सूत्र :सिद्धान्तम-भ्युपेत्यानियमात्कथाप्रसङ्गोऽपसिद्धान्तः II5/2/24

सूत्र संख्या :24


अर्थ : किसी सिद्धान्त को मान कर या किसी पक्ष को स्थापन करके फिर उसके विरूद्ध कहना या उस पक्ष का खण्डन करना अपसिद्धान्त नामक निग्रहस्थान कहलाता है। जैसे इस सिद्धान्त को मान कर कि सत् का अभाव और असत् का भाव नहीं होता, कोई यह कहने लगे कि जो पहले नहीं था, वह हो गया और जो हैं वह न रहेगा या कारण के बिना कार्य हो जाता है। तो वह अपसिद्धान्तरूप् निग्रहस्थान में पड़ जाता है। अब हेत्वाभासों को कहते हैं:-


सूत्र :हेत्वाभासाश्च यथोक्ताः II5/2/25

सूत्र संख्या :25


अर्थ : पहले अध्याय के दूसरे आह्निक में 5 हेत्वाभासों का वर्णन किया गया हैं, जिनके नाम ये हैं - (1) सव्यभिचार, (2) विरुद्ध, (3) प्रकरणसम, (4) साध्यसम और (5) कालतीत। इसके लक्षण वहीं पर दिखलाये जा चुके हैं इसलिए यहां पर वर्णन करने की आवश्यकता न समझ कर सूत्रकार ने केवल निर्देश कर दिया है। इन पांचों को मिला कर कुल 26 निग्रहस्थान हो जाते है। इति पञ्चमाध्यायस्य द्वितीमाहन्किम् समाप्तश्चार्य ग्रन्थ।।


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